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बुधवार, 4 नवंबर 2015

chandra kalayen

शरद पूर्णिमा: १६ चन्द्र कलाएं एवं महारास
तीन अवस्थाओं से आगे: सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्‍य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये 16 कलाएं सुप्त अवस्था में होती है। अर्थात इसका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है। इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं। यथा... अलगे पन्ने पर जानिए 16 कलाओं के नाम... इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में अलगे अलग मिलते हैं।
*1.अन्नमया, 2.प्राणमया, 3.मनोमया, 4.विज्ञानमया, 5.आनंदमया, 6.अतिशयिनी, 7.विपरिनाभिमी, 8.संक्रमिनी, 9.प्रभवि, 10.कुंथिनी, 11.विकासिनी, 12.मर्यदिनी, 13.सन्हालादिनी, 14.आह्लादिनी, 15.परिपूर्ण और 16.स्वरुपवस्थित।
*अन्यत्र 1.श्री, 3.भू, 4.कीर्ति, 5.इला, 5.लीला, 7.कांति, 8.विद्या, 9.विमला, 10.उत्कर्शिनी, 11.ज्ञान, 12.क्रिया, 13.योग, 14.प्रहवि, 15.सत्य, 16.इसना और 17.अनुग्रह।
*कहीं पर 1.प्राण, 2.श्रधा, 3.आकाश, 4.वायु, 5.तेज, 6.जल, 7.पृथ्वी, 8.इन्द्रिय, 9.मन, 10.अन्न, 11.वीर्य, 12.तप, 13.मन्त्र, 14.कर्म, 15.लोक और 16.नाम।
16 कलाएं दरअसल बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियां हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की 15 अवस्थाएं ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का।
19 अवस्थाएं : भगवदगीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने आत्म तत्व प्राप्त योगी के बोध की उन्नीस स्थितियों को प्रकाश की भिन्न-भिन्न मात्रा से बताया है। इसमें अग्निर्ज्योतिरहः बोध की 3 प्रारंभिक स्थिति हैं और शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ की 15 कला शुक्ल पक्ष की 01..हैं। इनमें से आत्मा की 16 कलाएं हैं।
आत्मा की सबसे पहली कला ही विलक्षण है। इस पहली अवस्था या उससे पहली की तीन स्थिति होने पर भी योगी अपना जन्म और मृत्यु का दृष्टा हो जाता है और मृत्यु भय से मुक्त हो जाता है।
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥
अर्थात : जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।- (8-24)
भावार्थ : श्रीकृष्ण कहते हैं जो योगी अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरुषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से अग्निमय, ज्योर्तिमय, दिन के सामान, शुक्लपक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं। अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना या देह से अलग स्वयं की स्थिति को पहचानना।

samiksha

कृति चर्चा:

'धरती तपती है' तभी गीत नर्मदा बहती है

चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: धरती तपती है, नवगीत संग्रह, आनंद तिवारी, वर्ष २००८, पृष्ठ १५२, १५०/-, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, उद्भावना प्रकाशन दिल्ली, कृतिकार संपर्क समीप साईं मंदिर, छोटी खिरहनी, कटनी, ४८३५०१, चलभाष ९४२५४ ६४७७९]
*
धरती और मनुष्य का नाता अभिन्न और विशिष्ट है। धरती है तो आधार है, आधार है तो ठोकर है, ठोकर है तो दर्द है, दर्द है तो गीत है। धरती तपती-फटती है उसकी पीड़ा धरती पुत्र को विगलित कर, नव सृजन की चुनौती से जूझने का हौसला देती है। पीड़ा और आनंद के परों पर अनुभूति की कोयल कल्पना की उड़ान भरते हुए अभिव्यक्ति के वृक्ष पर बैठकर नवगीत की कुहु-कुहु से अश्रुओं को बीज बनाकर भविष्य के सपनों की फसल आनंददायी बोती है। युवा कवि आनंद तिवारी का प्रथम नवगीत संग्रह 'धरती तपती है' का वचन ऐसी ही उड़ान का साक्षी होना है। निस्संदेह प्रथम पग लक्ष्य को नहीं छूता किन्तु वह लक्ष्य-प्राप्ति की दिशा और गति का संकेत तो करता ही है। 

एक सौ पाँच गीति रचनाओं की यह मञ्जूषा बाल भास्कर की निखरती-बिखरती किरण-छटा की तरह आनंदित करती है। भोर के भास्कर से दोपहर के सूर्य  की सी प्रखरता या साँझ के अस्ताचलगामी रवि की तरह परिपक्वता की नहीं, ताजगी की अपेक्षा होती है। यह ताजगी आनंद के गीत-नवगीत की पंक्ति-पंक्ति में समाहित है, जिसका पान कर पाठक-मन आनंदित हो उठता है। बुन्देल-बघेलखण्ड की माटी की तरह खाँटी ईमानदारी से आनंद अपनी बात कहते हैं। वे कृत्रिम भाव मुद्राएँ नहीं बनाते, शब्दों को चुनकर नहीं सजाते, लय को अलंकृत नहीं करते। उनके गीतों में अन्तर्निहित सौंदर्य ब्यूटी पार्लर से सज्जित-अलंकृत रूपसी सा नहीं किसी ग्राम्य बाला की अनगढ़-सरल रूप-छटा सा है। इन गीतों में बाह्य उपादानों का आश्रयकम से कम लेकर गीतकार आतंरिक तत्वों को उद्घाटित करने के प्रति सचेष्ट है।

आनंद अपने चतुर्दिक जो पाते हैं (गाँव-घर, गाँव-क़स्बा, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, रहन-सहन, खान-पान, प्रेम-पीड़ा, कार्य-व्यापार, सभ्यता-संस्कार, हाट-बाजार, मंडई-मेला आदि) वह सब उनके गीतों में बिम्बित होता है।
संयोगवश उस अंचल में कुछ दिन कार्य करने का सुअवसर मुझे भी मिला है, इसलिए उस माटी की सौंधी महक, ग्राम्य-श्रमिक के अर्थाभाव, निर्मम शोषण, प्राकृतिक सुषमा, ग्राम्य शब्दों के खुरदरेपन में निहित मिठास, अपनत्व और पिछड़कर आगे आने की जिजीविषा का साक्षी हूँ। 

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। आनंद पारंपरिक परिवेश में नव्यता तलाश  समय कुछ मानकों का अनुसरण करे, कुछ को छोड़े, कुछ को तोड़-झिंझोड़-मरोड़े और कुछ लो गढ़े इसमें न तो कुछ अस्वाभाविक हैं, न आपत्ति जनक, विशिष्ट यह  सब करते हुए आनंद अनुभूति की अभिव्यक्ति अपनी ईमानदारी नहीं छोड़ते। वे विधागत बंधनों पर अभिव्यक्तिगत निजता को वरीयता देते हुए परिवर्तन और परंपरा के दो पाटों के बीच पिसते आम जन के सुख-दुःख, हर्ष-पीड़ा, उतार-चढ़ाव, सुन्दर-असुंदर के प्रति प्रतिबद्धता न छोड़ते हुए इन अनुभूतियों को शब्द देते हैं। लोक गीत कहे, नवगीत कहे, कविता कहे या कुछ न कह खुद को उसमें खोजता-पाता रहे, यही उन्हें अभीष्ट है -

समस्याओं अनायास उत्पन्न हों तो उन्हें सुलझाया जा सकता है किन्तु समस्याओं को आमंत्रित किया जाए तो उनका हल कभी नहीं मिलता-
ददुआ का बबुआ बालू पर / कब्जा किये हुए 
बुनियादी अधिकारों पर / अवरोधक लगे हुए  
आयातित की गईं / समस्याएं हैं शीश लदीं 
जिन पर बाग़ की रखवाली का दायित्व है वे ही कलियों को रौंदने लगें तो किस तरह रोक जाए-

मौसम ने अपनी 
मनमानी कर डाली
निकल न पाई आमों में 
अब तक बाली 
.  
आनंद की विशेषता कथ्य के कैनवास पर परिवेश को शब्द-कूची से अंकित सकना है- 

ठंडी रातें / बर्फ हो रहीं 
सिकुड़ा हुआ शहर 
लौह-पूत / रिक्शेवाला वह 
कुलगुंटी से ढाँके तन को  
 पैर उपनहे / फ़टी बिवाई 
बैरागी सा / साधे मन को 
सुविधाओं की / गठरी बाँधे 
रिक्शे पर अफसर है  
बुचकी-बुचकी लगे कमरिया 
तुचके-तुचके गाल 
निहुरे-निहुरे ऐसे चलती 
जैसे चले श्रृगाल 
उम्र बीत गयी भाग-दौड़ में 
मिले न चैन कमीना 
चहकूं-चूँ तेल बिना गाड़ी सी ज़िंदगी 
पहिए की पूही जो टूटी 
बेटों की बजी अलग ढपली 
पूरे घर की किस्मत फूटी 
बरगद की बर्रोंहों जैसे 
लटके हुए अधर में 
खो-खो खेल रहे हैं चूहे 
भूखे-धँसे उदर में 
धरती तपती है की ठेठ देशज शब्दों से युक्त मुहावरेदार भाषा वनजा षोडशी के चिकुर-जाल के तरह मन मोहने के समर्थ है। गैर बुंदेली-बघेली अंचल के पाठकों के सामने एक समस्या अवश्य होगी, ग्राम्यांचली शब्दों के अर्थ खोजने की। हिंदी के शब्दकोशों में तो ये शब्द मिलने से रहे, इसलिए ऐसे शब्दों के अर्ह पद टिप्पणी में देना एक उपाय हो सकता है।

आनंद अपने कथ्य को इस तरह पेश करते हैं की उसे सूक्ति की तरह कहा जा सके- गर्व से गुर्रा रही है / यह निगोड़ी गंदगी, आयतन मजदूर का / सँकरा गया, सबके अंतर्मन संवेदन / को चंदन करिये, अफ्रीका के मानचित्र सी / खटिया पड़ी उतान, बंजर में बो-बोकर बीज चूक गए, कौन मंत्र / फूकूँ फिर / फेंकू मैं राई आदि।

सामान्य और शहरी पाठक के शब्द भण्डार में यह संकलन निश्चय ही वृद्धि करेगा- टिपिर-टिपिर, तितिर-बिटिर, फुलगुंती, उपनहे, टाटी, धनकुट, पैनारी, ललछौंही, फँलांगी, भब्भड़, पसही, बर्रोंहों, फटोही, उतान, चेंक, पगड़ी, सुआ-चरेरू, नोहरी, ऊना, गोरुआ, सँझबाती जैसे शब्द और 'बीछी रखे डंक पर डेरा' जैसी लोकोक्ति हिंदी की रोटी खा रहे और कॉंवेंटों में बच्चे पढ़ा रहे हिंदी प्राध्यापकों ने सुने ही न होंगे।

'कहते हैं कि ग़ालिब का है तर्ज़े बयां और' की तर्ज पर आनंद की कहन अपनी मौलिक है। वे किसी का नुकरण नहीं करते। समय-शकुनि, क्रूर-कँगूरे, दर्द के वितान, कोदों के पैरे, पुआल का बिछौना, पुआल का वितान, कुहरील प्रभात, अगिन चितेरा, मन के भोजपत्र, गली के कोड़े, भूंजी-भांग, बंजारा मन, चिकन-चांदन, आशा का कचनार, बुद्धि का मछेरा, भावों की फसल, संदेह का सँपेरा, सुधियों के मृग-शावक जैसी अभिव्यक्तियाँ कथ्य की कड़वाहट में चाशनी घोल देती हैं।

इस संकलन में घाघ, भड्डरी, दधीचि, कणाद, वात्स्यायन का होना चकित कर गया। प्रकृति और परिवेश से जुड़े आनंद के इस नवगीत-मंच पर नदियाँ (सोनभद्र, महानदी, खैर), पर्वत (विंध्याचल, हिमालय), नृत्य-गान (राई, कजरी, करमा, ढोल, मंजीरे, मादल), वनस्पति (चन्दन, गेंदा, सोनजुही, जासौंन, कांस, टेसू, महुआ, सेमल, आम), पक्षी (पनडुब्बी, कौआ, सोनचिरैया, पपीहा, कोयल, चकवा-चकवी, चकोर, अबाबील, हंस, खंजन, गौरैया, सुग्गा, चटक, चकोरी, कागा, मैन, बाज मुर्गा और तितली) भी अपनी भूमिका निभाते हैं।

बिम्ब, प्रतीकों, रूपकों की मायानगरी रचने के मूल में जो भाव है उसे आनंद यूं बयां करते हैं:

सबके जीवन में / रस घोलें / ऐसा गीत लिखें 
जीवन की / सच्चाई बोले / ऐसा गीत लिखें 

नर्मदांचल का तरुण नवगीतकार ऐसे गीत लिख सका है यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है।
*****
-समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २४१११३१ / ९४२५१ ८३२४४ 
salil.sanjiv@gmail.com 
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पत्रकारिता विश्वविद्यालय के सांध्‍यकालीन पाठयक्रमों में प्रवेश 31 अक्टूबर 2015 तक

पत्रकारिता विश्वविद्यालय के सांध्‍यकालीन पाठयक्रमों में
प्रवेश 31 अक्टूबर 2015 तक
 माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्‍वविद्यालय द्वारा संचालित सांध्यकालीन पाठ्यक्रमों में प्रवेश 31 अक्टूबर 2015 त्तक दिए जाएंगे। विश्वविद्यालय के शैक्षणिक सत्र 2015-16 के लिए वैब संचार, वीडियो प्रोडक्‍शन, पर्यावरण संचार, भारतीय संचार परम्पराएँ, योगिक स्वास्थ्य प्रबंधन एवं आध्यात्मिक संचार, फिल्म पत्रकारिता, डिजिटल फोटोग्राफी, संचार कौशल एवं आयोजन प्रबंधन आदि विषयों में सांध्यकालीन पी.जी. डिप्लोमा पाठ्यक्रमों में प्रवेश प्रक्रिया जारी है। पाठ्यक्रम विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत विद्यार्थियों के साथ-साथ नौकरीपेशा व्यक्तियों, सेवानिवृत्त लोगों, सैन्य अधिकारियों तथा गृहिणियों के लिए भी उपलब्ध होंगे।
      विश्वविद्यालय द्वारा नौ सम्भावनाओं से भरे क्षेत्रों में सांध्यकालीन पी.जी.डिप्लोमा पाठ्यक्रम प्रारम्भ किये गये हैं। विश्वविद्यालय का सांध्यकालीन वैब संचार पाठ्यक्रम अखबारों के ऑनलाईन संस्करण, वैब पोर्टल, वैब रेडियो एवं वैब टेलीविजन जैसे क्षेत्रों के लिए कुशलकर्मी तैयार करने के उद्देश्य से प्रारम्भ किया गया है। वीडियो कार्यक्रम के निर्माण सम्बन्धी तकनीकी एवं सृजनात्मक पक्ष के साथ स्टुडियो एवं आउटडोर शूटिंग, नॉनलीनियर सम्पादन, डिजिटल उपकरणों के संचालन आदि के सम्बन्ध में कुशल संचारकर्मी तैयार करने के उद्देश्य से वीडियो प्रोडक्शन का सांध्यकालीन पाठ्यक्रम प्रारम्भ किया गया है। पर्यावरण आज समाज में ज्वलंत विषय है। पर्यावरण के विविध पक्षों की जानकारी प्रदान करने एवं इस क्षेत्र के लिए विशेष लेखन-कौशल विकसित करने के उद्देश्य से पर्यावरण संचार का सांध्यकालीन पाठ्यक्रम तैयार किया गया है। योग, स्वास्थ्य और आध्यात्म के क्षेत्र में व्यवहारिक प्रशिक्षण प्रदान करने तथा इस क्षेत्र के लिए कुशल कार्यकर्ता को तैयार करने के उद्देश्य से योगिक स्वास्थ्य प्रबंधन एवं आध्यात्मिक संचार का सांध्यकालीन पाठ्यक्रम प्रारम्भ किया गया है। भारतीय दर्शन एवं प्राचीन भारतीय धर्मग्रंथों में मौजूद संचार के विभिन्न स्वरूपों की शिक्षा एवं वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में उनके सार्थक उपयोग की दृष्टि विकसित करने के उद्देश्य से भारतीय संचार परम्पराओं में सांध्यकालीन पाठ्यक्रम तैयार किया गया है। सिनेमा के विविध क्षेत्रों में रिपोर्टिंग, फिल्म समीक्षा एवं फिल्म लेखन की दृष्टि से फिल्म पत्रकारिता का पाठ्यक्रम प्रारम्भ किया गया है। फोटोग्राफी के विविध आयामों से परिचित कराने तथा कौशलपूर्ण डिजिटल फोटोग्राफी सिखाने के उद्देश्‍य से डिजिटल फोटोग्राफी का पाठ्यक्रम उपलब्‍ध हैं। इस शैक्षणिक सत्र से विश्वविद्यालय दो नए पाठ्यक्रम प्रारम्भ कर रहा है।  समारोह नियोजन एवं प्रबंधन के क्षेत्र में संभावनाओं को केंद्र में रखकर आयोजन प्रबंधन तथा संचार प्रबंधन एवं कौशल विकास हेतु संचार कौशल के पाठ्यक्रम आरम्भ किये जा रहे हैं। प्रत्येक पाठ्यक्रम के लिये 15 स्थान निर्धारित किये गये हैं।
      पाठ्यक्रमों में प्रवेश स्नातक परीक्षा में प्राप्त अंकों की मेरिट के आधार पर दिया जायेगा। पाठ्यक्रमों की अवधि एक वर्ष है। प्रत्येक पाठ्यक्रम का शुल्क 10,000 रुपये रखा गया है जो विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित चार किश्तों में देय होगा। प्रवेश हेतु आवेदन ऑनलाइन स्वीकार किये जा रहे हैं। इस हेतु www.mponline.gov.in पर लॉगइन कर citizen services लिंक पर क्लिक करना होगा प्रवेश हेतु आवेदन शुल्क 150/- रुपये (अ.ज./अ.ज.जा. के लिए 100/- रुपये) ऑनलाइन ही देय होगा। अभ्यर्थी एक से अधिक पाठ्यक्रमों के लिए भी आवेदन कर सकते हैं। प्रत्‍येक अतिरिक्‍त आवेदन का शुल्‍क 50 रुपये निर्धारित है। विश्वविद्यालय की वेबसाईट www.mcu.ac.in से विवरणिका एवं अन्य जानकारी प्राप्त की जा सकती है। अधिक जानकारी के लिए टेलीफोन नम्बर 0755-2553523 पर भी सम्पर्क किया जा सकता है।


(डा. पवित्र श्रीवास्तव)

निदेशक, प्रवेश

‘‘मीडिया की भूमिका: भाषा सीखना या सिखाना’’ विषय पर एक दिवसीय संगोष्ठी

‘‘मीडिया की भूमिका: भाषा सीखना या सिखाना’’ विषय पर एक दिवसीय संगोष्ठी

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग द्वारा पंचम तल स्थित सभागार में दिनांक 04 नवम्बर 2015 को प्रातः 10.30 से सायं 05.30 तक ‘‘मीडिया की भूमिका: भाषा सीखना या सिखाना’’ विषय पर एक दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है। संगोष्ठी चार सत्रों में आयोजित होगी। इस संगोष्ठी के प्रथम उद्घाटन सत्र में वरिष्ठ मीडिया प्रोफेशनल श्री राहुल देव मुख्य वक्ता होगे एवं अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला करेंगे। द्वितीय सत्र ‘‘अंग्रेजी मीडिया की भाषा’’ विषय पर होगा साथ ही इस सत्र में विद्यार्थियों द्वारा समाचार पत्रोंउनकी भाषा और उनमें अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग के संबंध में अभ्यास कार्य व उसका प्रस्तुतिकरण किया जाएगा ।

तृतीय सत्र ‘‘हिन्दी मीडिया की भाषा’’ विषय के मुख्य वक्ता श्री आनंद पाण्डेयसमूह संपादक नईदुनियाइन्दौर एवं श्री आषीष जोशीडायरेक्टर प्रोडक्शन, मा.च.रा.प.एवं सं. विवि. होगे एवं अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार श्री विनोद पुरोहित करेगें।
चतुर्थ सत्र ‘‘समाज पोषित मीडिया की भाषा’’ विषय के मुख्य वक्ता श्री उमेश त्रिवेदीप्रधान संपादक,सुबह सवेरे एवं श्री गिरीष उपाध्यायसंपादक सुबह सवेरे होगें एवं अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला करेगें।

laghu katha

लघु कथा:
साँसों का कैदी
*
जब पहली बार डायलिसिस हुआ था तो समाचार मिलते ही देश में तहलका मच गया था। अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति और अनगिनत जनता अहर्निश चिकित्सालय परिसर में एकत्र रहते, डॉक्टर और अधिकारी खबरचियों और जिज्ञासुओं को उत्तर देते-देते हलाकान हो गए थे। 

गज़ब तो तब हुआ जब प्रधान मंत्री ने संसद में उनके देहावसान की खबर दे दी, जबकि वे मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे। वस्तुस्थिति जानते ही अस्पताल में उमड़ती भीड़ और जनाक्रोश सम्हालना कठिन हो गया। प्रशासन को अपनी भूल विदित हुई तो उसके हाथ-पाँव ठन्डे हो गए। गनीमत हुई कि उनके एक अनुयायी जो स्वयं भी प्रभावी नेता थे, वहां उपस्थित थे, उन्होंने तत्काल स्थिति को सम्हाला, प्रधान मंत्री से बात की, संसद में गलत सूचना हेतु प्रधानमंत्री ने क्षमायाचना की। 

धीरे-धीरे संकट टला.… आंशिक स्वास्थ्य लाभ होते ही वे फिर सक्रिय हो गए, सम्पूर्ण क्रांति और जनकल्याण के कार्यों में। बार-बार डायलिसिस की पीड़ा सहता तन शिथिल होता गया पर उनकी अदम्य जिजीविषा उन्हें सक्रिय किये रही। तन बाधक बनता पर मन कहता मैं नहीं हो सकता साँसों का कैदी। 

***

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दीपमालिके !
  


 
दीपमालिके!
दीप बाल के
बैठे हैं हम
आ भी जाओ

अब तक जो बीता सो बीता
कलश भरा कम, ज्यादा रीता
जिसने बोया निज श्रम निश-दिन
उसने पाया खट्टा-तीता

मिलकर श्रम की करें आरती
साथ हमारे तुम भी गाओ

राष्ट्र लक्ष्मी का वंदन कर
अर्पित निज सीकर चन्दन कर
इस धरती पर स्वर्ग उतारें
हर मरुथल को नंदन वन कर

विधि-हरि-हर हे! नमन तुम्हें शत
सुख-संतोष तनिक दे जाओ

अंदर-बाहर असुरवृत्ति जो
मचा रही आतंक मिटा दो
शक्ति-शारदे तम हरने को
रवि-शशि जैसा हमें बना दो

चित्र गुप्त जो रहा अभी तक
झलक दिव्य हो सदय दिखाओ

- संजीव वर्मा सलिल
१ नवंबर २०१५
  
आभार; अनुभूति दिवाली विशेषांक 

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

navgeet

एक रचना:
*
गोड-बखर
धरती पहले
फिर खेती कर
.
बीज न बोता
और चाहता फसल मिले
नीर न नयनों में
कैसे मन-कमल खिले
अंगारों से जला
हथेली-तलवा भी
क्या होती है
तपिश तभी तो पता चले
छाया-बैठा व्यर्थ
धूप को कोस रहा
घूरे सूरज को
चकराकर आँख मले
लौटना था तो
तूने माँगा क्यों था?
जनगण-मन से दूर
आप को आप छले
ईंट जोड़ना
है तो खुद
को रेती कर
गोड-बखर
धरती पहले
फिर खेती कर
.
गधे-गधे से
मिल ढेंचू-ढेंचू बोले
शेर दहाड़ा
'फेंकू' कह दागें गोले
कूड़ा-करकट मिल
सज्जित हो माँग भरें
फिर तलाक माँगें
कहते हम हैं भोले
सौ चूहे खा
बिल्ली करवाचौथ करे
दस्यु-चोर ईमान
बाँट बिन निज तौले
घास-फूस की
छानी तले छिपाए सिर
फूँक मारकर
जला रहे नाहक शोले
ऊसर से
फल पाने
खुद को गेंती कर
गोड-बखर
धरती पहले
फिर खेती कर
.  

सोमवार, 2 नवंबर 2015

laghukatha

लघुकथा:
अर्थ ३
*
मध्य प्रदेश बांगला साहित्य अकादमी रजत जयंती समारोह मुख्य अतिथि वक्ता के नाते भाषा के उद्भव, उपादेयता, स्वर-व्यंजन, लिपि के विकास,विविध भाषाओँ बोलिओं के मध्य सामंजस्य, जीवन में भाषा की भूमिका, भाषा से आजीविका, अनुवाद, लिप्यंतरण तथा स्थानीय, देशज व् राष्ट्रीय भाषा में मध्य अंतर्संबंध जैसे जटिल और नीरस विषय को सहज बनाते हुए हिंदी में अपनी बात पूरी की. महिलाएं, बच्चे तथा पुरुष रूचि लेकर सुनते रहे, उनके चेहरों से पता चलता था कि वे बात समझ रहे हैं, सुनना चाहते हैं.

मेरे बाद भागलपुर से पधारे ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता बांगला प्रोफ़ेसर ने बांगला में बोलना प्रारम्भ किया। विस्मय हुआ की बांगलाभाषी जनों ने हिंदी में कही बात मन से सुनी किन्तु बांगला वक्तव्य आरम्भ होते ही उनकी रूचि लगभग समाप्त हो गयी, आपस में बात-चीत होने लगी. वोिदवान वक्त ने आंकड़े देकर बताया कि गीतांजलि के कितने अनुवाद किस-किस भाषा में हुए. शरत, बंकिम, विवेकानंद आदि कासाहित्य किन-किन भाषाओँ में अनूदित हुआ किन्तु यह नहीं बता सके कि कितनी भाषाओँ का साहित्य बांगला में अनूदित हुआ.

कोई कितना भी धनी हो उसके कोष से धन जाता रहे किन्तु आये नहीं तो तिजोरी खाली हो ही जाएगी। प्रयास कर रहा हूँ कि बांगला भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जाने लगे तो हम मूल रचनाओं को उसी तरह पढ़ सकें जैसे उर्दू की रचनाएँ पढ़ लेते हैं. लिपि के प्रति अंध मोह के कारण वे नहीं समझ पा रहे हैं मेरी बात का अर्थ

****

kruti charcha :

कृति चर्चा:
अल्पना अंगार पर - नवगीत निखार पर 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: अल्पना अंगार पर, नवगीत संग्रह, रामकिशोर दाहिया, २००८, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ १९२, १००/-,  उद्भावना प्रकाशन, ए २१ झिलमिल इंडस्ट्रियल एरिया,  जी. टी.  रोड,शाहदरा दिल्ली ११००९५, कृतिकार संपर्क: अयोध्या  बस्ती,साइंस कॉलेज, खिरहने कटनी ४८३५०१, ९४२४६ ७६२९७, ९४२४६ २४६९३] 
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नदी के कलकल प्रवाह, पवन की सरसराहट और कोयल की कूक की लय जिस मध्र्य को घोलती है वह गीतिरचना का पाथेय है। इस लय को गति-यति, बिंब-प्रतीक-रूपक से अलंकृत कर गीत हर सहृदय में मन को छूने में समर्थ बन जाता है। गति और लय को देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप नवता देकर गीत के आकाशी कथ्य को जमीनी स्पर्श देकर सर्वग्राह्य बना देता है नवगीत। अपने-अपने समय में जिसने भी पारम्परिक रूप से स्थापित काव्य के शिल्प और कथ्य को यथावत न स्वीकार कर परिवर्तन के शंखनाद किया और सृजन-शरों से स्थापित को स्थानच्युत कर परिवर्तित का भिषेक किया वह अपने समय में नवता का वाहक बना। इस समय के नवताकारक सृजनधर्मियों में अपनी विशिष्ट भावमुद्रा और शब्द-समृद्धता के लिये चर्चित नवगीतकार रामकिशोर दाहिया की यह प्रथम कृति अपने शीर्षक 'अल्पना अंगार पर' में अन्तर्निहित व्यंजना से ही अंतर्वस्तु का आभास देती है। अंगार जैसे हालात का सामना करते हुए समय के सफे पर हौसलों की अल्पना  के नवगीत लिखना सब के बस का काम नहीं है।  

नवगीत को उसके उद्भव काल के मानकों और भाषिक रूप तक सिमित रखने असहमत रामकिशोर जी ने अपने प्रथम संग्रह में ही अपनी जमीन तैयार कर ली हैं। बुंदेली-बघेली अंचल के निवासी होने के नाते उनकी भाषा में स्थानीय लोकभाषाओं का पूत तो अपेक्षित है किन्तु उनके नवगीत इससे बहुत आगे जाकर इन लोकभाषाओं के जमीनी शब्दों को पूरी स्वाभाविकता और अधिकार के साथ अंगीकार करते हैं। वे यह भी जानते हैं कि शब्दों के अर्थों से कॉंवेंटी पीढ़ी ही नहीं रचनाकार, शब्द कोष भी अपरिचित हैं इसलिए पाद टिप्पणियों में शब्दों के अर्थ समाविष्ट कर अपनी सजगता का परिचय देते हैं।

आजीविका से शिक्षक, मन से साहित्यकार और प्रतिबद्धता से आम आदमी की पीड़ा के सहभागी हैं राम किशोर, इसलिए इन नवगीतों में सामाजिक वैषम्य, राजनैतिक विद्रूपताएँ, आर्थिक विषमता, धार्मिक पाखंड और व्यक्तिगत दोमुँहेपन पर प्रबल-तीक्ष्ण शब्द-प्रहार होना स्वाभाविक है। उनकी संवेदनशील दृष्टि राजमार्गोन्मुखी न होकर पगडंडी के कंकरों, काँटों, गड्ढों और उन पर बेधड़क चलने वाले पाँवों के छालों, चोटों, दर्द और आह को केंद्र में रखकर रचनाओं का ताना-बाना बुनती है। वे माटी की सौंधी गंध तक सीमित नहीं रहते, माटी में मिले सपनों की तलाश भी कर पाते हैं। विवेच्य संग्रह वस्तुत: २ नवगीत संग्रहों को समाहित किये है जिन्हें २ खण्डों के रूप में 'महानदी उतरी' (ग्राम्यांचल के सजीव शब्द चित्र तदनुरूप बघेली भाषा)  और  'पाले पेट कुल्हाड़ी' (सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों से जुड़े नवगीत) शीर्षकों के अंतर्गत रखा गया है। २५-३० रचनाओं की स्वतंत्र पुस्तकें निकालकर संख्या बढ़ाने के काल में ४५ + ५३ कुल ९८ नवगीतों के  समृद्ध संग्रह को पढ़ना स्मरणीय अनुभव है।

कवि ज़माने की बंदिशों को ठेंगे पर मारते हुए अपने मन की बात सुनना अधिक महत्वपूर्ण मानता है-

कुछ अपने दिल की भी सुन
संशय के गीत नहीं बुन
अंतड़ियों को खंगालकर
भीतर के ज़हर को निकाल
लौंग चूस / जोड़े से चाब
सटका दे / पेट के बबाल
तंत्री पर साध नई धुन

लौंग को जोड़े से चाबना और तंत्री पर धुन साधना जैसे अनगिन प्रयोग इस कृति में पृष्ठ-पृष्ठ पर हैं। शिक्षक रामकिशोर को पर्यावरण की फ़िक्र न हो यह कैसे संभव है?

धुआँ उगलते वाहन सारे / साँसों का संगीत लुटा है
धूल-धुएँ से / हवा नहाकर /  बैठी खुले मुँडेरे
नहीं उठाती माँ भी सोता / बच्चा अलस्सवेरे

छद्म प्रगति के व्यामोह में फँसे जनगण को प्रतीत हो रहे से सर्वथा विपरीत स्थिति से रू-ब-रू कराते हुए कवि अपना बेलाग आकलन प्रस्तुत करता है:

आँख बचाकर / छप्पर सिर की /नव निर्माण उतारे
उठती भूखी / सुबह सामने / आकर हाथ पसारे
दिये गये / संदर्भ प्रगति के / उजड़े रैन बसेरे

समाज में व्याप्त दोमुँहापन कवि की चिंता का विषय है:

लोग बहुत हैं / धुले दूध के / खुद हैं चाँद-सितारे
कालिख रखते / अंतर्मन में / नैतिक मूल्य बिसारे

नैतिक मूल्यों की चिंता सर्वाधिक शिक्षक को ही होती है। शिक्षकीय दृष्टि सुधर को लक्षित करती है किन्तु कवि उपदेश नहीं देना चाहता, अत:,  इन रचनाओं में शब्द प्रचलित अर्थ के साथ विशिष्ट अर्थ व्यंजित करते हैं:

स्वेद गिरकर / देह से / रोटी उगाता
ज़िंदगी के / जेठ पर / आजकल दरबान सी
देने लगी है / भूख पहरा पेट पर 

स्वतंत्रता के बाद क्या-कितना बदला? सूदखोर साहूकार आज भी किसानों के म्हणत की कमाई खा रहा है। मूल से ज्यादा सूद चुकाने के बाद भी क़र्ज़ न चुकाने की त्रासदी भोगते गाँव की व्यथा-कथा गाँव में पदस्थ और निवास करते संवेदनशील शिक्षक से कैसे छिप सकती है? व्यवस्था को न सुधार पाने और शोषण को मूक होकर  देखते रहने से उपजा असंतोष इन रचनाओं के शब्द-शब्द में व्याप्त है:

खाते-बही, गवाह-जमानत / लेते छाप अँगूठे
उधार बाढ़ियाँ / रहे चुकाते / कन्हियाँ धांधर टूटे
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भूखे-लांघर रहकर जितना / देते सही-सही
जमा नहीं / पूँजी में पाई / बढ़ती ब्याज रही
बने बखार चुकाने पर भी / खूँटे से ना छूटे
.
लड़के को हरवाही लिख दी / गोबरहारिन बिटिया
उपरवार / महरारु करती / फिर भी डूबी लुटिया
मिले विरासत में हम बंधुआ / अपनी साँसें कूते

सामान्य लीक से हटकर रचे गए  नवगीतों में अम्मा शीर्षक गीत उल्लेखनीय है:

मुर्गा बांग / न देने पाता / उठ जाती अँधियारे अम्मा
छेड़ रही / चकिया पर भैरव / राग बड़े भिन्सारे अम्मा

से आरम्भ अम्मा की दिनचर्या में दोपहर कब आ जाती, है पता ही नहीं चलता-

चौक बर्तन / करके रीती / परछी पर आ धूप खड़ी है
घर से नदिया / चली नहाने / चूल्हे ऊपर दाल चढ़ी है
आँगन के / तुलसी चौरे पर / आँचल रोज पसारे अम्मा 
पानी सिर पर / हाथ कलेवा / लिए पहुँचती खेत हरौरे
उचके हल को / लत्ती देने / ढेले आँख देखते दौरे

यह क्रम देर रात तक चलता है:

घिरने पाता / नहीं अँधेरा / बत्ती दिया जलाकर रखती
भूसा-चारा / पानी - रोटी / देर-अबेर रात तक करती
मावस-पूनो / ढिंगियाने को / द्वार-भीत-घर झारे अम्मा

ऐसा जीवन शब्द चित्र मनो पाठक अम्मा को सामने देख रहा हो। संवेदना की दृष्टि से श्री आलोक श्रीवास्तव की सुप्रसिद्ध 'अम्मा' शीर्षक ग़ज़ल के समकक्ष और जमीनी जुड़ाव में उससे बढ़कर यह नवगीत इस संग्रह की प्रतिनिधि रचना है।

रामकिशोरजी सिर्फ शिक्षक नहीं अपितु सजग और जागरूक शिक्षक हैं। शिक्षक के प्राण शब्दों में बसते हैं चूँकि शब्द ही उसे संसार और शिष्यों से जोड़ते हैं। विवेच्य कृति कृतिकार के समृद्ध शब्द भण्डार का परिचय पंक्ति-पंक्ति में देती है। एक ओर बघेली के शब्दों दहरा, लमतने, थूं, निगडौरे, भिनसारे, हरौरे, ढिंगियाने, भीत, पगडौरे, लौंद, गादर, अलमाने, च्यांड़ा, चौहड़े, लुसुक, नेडना, उरेरे, चरागन, काकुन, डिंगुरे, तुरतुरी, खुम्हरी आदि को हिंदी के संस्कृतनिष्ठ शब्दों लौह्गामिनी, कीटविनाशी, दावानल, बड़वानल, वसुधा, व्योम, अनुगूंज, ऊर्जा, स्रोत, शिल्प, चन्द्रकला, अविराम, वृन्त, कुंतल, ऊर्ध्ववती, कपोल, समुच्चय, पारलौकिक, श्रृंगारित आदि को गले मिलते देखना आनंदित करता है तो  दूसरी ओर उर्दू के लफ़्ज़ों वज़ूद, सिरफिरी, सोहबत, दौलत, तब्दील, कंदील, नूर, शोहरत, सरहदों, बाजार, हुकुम, कब्ज़े, फरजी, पेशी, जरीब, दहशत, सरीखा, बुलंदी, हुनर, जुर्म, ज़हर, बेज़ार, अपाहिज, कफ़न, हैसियत, तिजारत, आदि को अंग्रेजी वर्ड्स पेपर, टी. व्ही., फ़ोकस, मिशन, सीन, क्रिकेटर, मोटर, स्कूल, ड्रेस, डिम, पावर, केस, केक, स्वेटर, डिजाइन, स्क्रीन, प्लेट, सर्किट, ग्राफ, शोकेस आदि के साथ हाथ मिलाते देखना सामान्य से इतर सुखद अनुभव कराता है।  

इस संग्रह में शब्द-युग्मों का प्रयोग यथावसर हुआ है। साही-साम्भर, कोड़ों-कुटकी, 'मावस-पूनो, तमाखू-चूना, कांदो-कीच, चारा-पानी, कांटे-कील, देहरी-द्वार, गुड-पानी, देर-अबेर, चौक-बर्तन, दाने-बीज, पौधे-पेड़, ढोर-डंगार, पेड़-पत्ते, कुलुर-बुलुर, गली-चौक, आडी-तिरछी, काम-काज, हट्टे-कट्टे, सज्जा-सिंगार, कुंकुम-रोली, लचर-पचर, खोज-खबर, बत्ती-दिया आदि गीतों की भाषा को सरस बनाते हैं।

राम किशोर जी ने किताबी भाषा के व्यामोह को तजते हुए पारंपरिक मुहावरों दांत निपोरेन, सर्ग नसेनी, टेंट निहारना आदि के साथ धारा हुई लंगोटी, डबरे लगती रोटी, झरबेरी की बोटी, मन-आँगन, कानों में अनुप्रास, मदिराया मधुमास, विषधर वसन, बूँद के मोती, गुनगुनी चितवन, शब्दों के संबोधन, आस्था के दिये, गंध-सुंदरी, मन, मर्यादा पोथी, इच्छाओं के तारे, नदिया के दो ओंठ, नयनों के पटझर जैसी निजी अनुभूतिपूर्ण शब्दावली से भाषा को जीवंत किया है।     

बुंदेलखंड-बघेलखण्ड के घर-गाँव अपने परिवेश के साथ इस गहराई और व्यापकता के साथ उपस्थित हैं कि कोई चित्रकार शब्दचित्रों से रेखाचित्र की ओर बढ़ सके। कुछ शब्दों का संकेत ही पर्याप्त है यह इंगित करने के लिए कि ग्राम्य जीवन का हर पक्ष इन गीतों में है। निवास स्थल- द्वार, भीत, घर, टटिया, कछरा आदि, श्रृंगार- सेंदुर, कुंड़वा, कंघी, चुरिया महावर आदि, वाद्य- टिमकी, मांडल, ढोलक, मंजीर, नृत्य-गान- राई , करमा, फाग, कबीर, कजरी, राग आदि, वृक्ष-पौधे महुआ, आम, अर्जुन, सेमल, साल, पलाश, अलगोजे, हरसिंगार, बेल, तुलसी आदि, नक्षत्र- आर्द्रा, पूर्व, मघा आदि, माह- असाढ़, कातिक, भादों, कुंवार, जेठ, सावन, पूस, अगहन आदि, साग-सब्जी- सेमल, परवल, बरबटी, टमाटर, गाजर, गोभी, मूली, फल- आंवले, अमरुद, आम, बेल आदि, अनाज- उर्द, अरहर, चना, मसूर, मूंग, उड़द, कोदो, कुटकी, तिल, धान, बाजरा, ज्वार आदि, पक्षी- कबूतर, चिरैयाम सुआ, हरियर, बया, तितली, भौंरे आदि, अन्य प्राणी- छिपकली, अजगर, शेर, मच्छर सूअर, वनभैंसा, बैल, चीतल, आदि, वाहन- जीप, ट्रक, ठेले, रिक्शे, मोटर आदि , औजार- गेंती, कुदाल आदि उस अंचल के प्रतिनिधि है जहाँ की पृष्ठभूमि में इन नवगीतों की रचना हुई है. अत: िंवगीतों में उस अंचल की संस्कृति और जीवन -शब्द में अभव्यक्त होना स्वाभाविक है।      

उर्दू का एक प्रसिद्ध शेर है 'गिरते हैं शाह सवार ही मैदाने जंग में / वह तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले' कवि राम किशोर जी गुड़सवारी करने, गिरने और बढ़ने का माद्दा रखते हैं यह काबिले-तारीफ है। नवगीतों की बंधी-बंधाई लीक से हटकर उन्होंने पहली ही कृति में अपनी पगडंडी आप बनाने का हसला दिखाया है।  दाग की तरह कुछ त्रुटियाँ होन स्वाभविक है- 'टी. व्ही. के / स्क्रीन सरीखे / सारे दृश्य दिखाया' में वचन दोष, 'सर्किट प्लेट / ह्रदय ने घटना / चेहरे पर फिल्माया' तथा 'बढ़ती ब्याज रही' में लिंग दोष है। लब्बो-लुबाब यह कि 'अल्पना अंगार पर' समसामयिक सन्दर्भों में नवगीत की ऐसी कृति है जिसके बिना इस दशक के नवगीतों का सही आकलन नहीं किया जा सकेगा। रामकिशोर जी का शिक्षक मन इस संग्रह में पूरी ईमानदारी से उपस्थित है- 'दिल की बात / लिखी चहरे पर/ चेहरा पढ़ना सीख'।

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समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २४१११३१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com 
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laghukatha

लघुकथा 
अर्थ २ 
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व्यापम घोटाला समाचार पत्रों, दूरदर्शन, नुक्कड़ से लेकर पनघट हर जगह बना रहा चर्चा का केंद्र, बड़े-बड़ों के लिपटने के समाचारों के बीच पकड़े गए कुछ छुटभैये। 

फिर आरम्भ हुआ गवाहों के मरने का क्रम लगभग वैसे ही जैसे श्री आसाराम बापू और अन्य इस तरह के प्रकरणों में हुआ। 

सत्ताधारियों के सिंहासन डोलने और परिवर्तन के खबरों के बीच विश्व हिंदी सम्मेलन का भव्य आयोजन, चीन्ह-चीन्ह कर लेने-देने का उपक्रम, घोटाले के समाचारों की कमी, रसूखदार गुनहगारों का जमानत पर रिहा होना, समान अपराध के गिरफ्तार अन्य को जमानत न मिलना, सत्तासीनों के कदम अंगद के पैर की तरह जम जाना, समाचार माध्यमों से व्यापम ही नहीं छात्रवृत्ति और अन्य घोटालों की खबरों का विलोपित हो जाना,  पुस्तक हाथ में लिए मैं कोशिश कर रहा हूँ किन्तु समझ नहीं पा रहा हूँ समानता, मौलिक अधिकारों और लोककल्याणकारी गणतांत्रिक गणराज्य का अर्थ। 
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भ्रांतिमान अलंकार

अलंकार सलिला: २८ 
भ्रांतिमान अलंकार
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समझें जब उपमेय को, भ्रम से हम उपमान 
भ्रांतिमान होता वहीँ, लें झट से पहचान. 
जब दिखती है एक में, दूजे की छवि मीत. 
भ्रांतिमान कहते उसे, कविजन गाते गीत.. 

गुण विशेष से एक जब, लगता अन्य समान. 
भ्रांतिमान तब जानिए, अलंकार गुणवान.. 

भ्रांतिमान में भूल से, लगे असत ही सत्य. 
गुण विशेष पाकर कहें, ज्यों अनित्य को नित्य..
 

जैसे रस्सी देखकर, सर्प समझते आप. 
भ्रांतिमान तब काव्य में, भ्रम लख जाता व्याप.. 


जब रूपरंगगंधआकारकर्म आदि की समानता के कारण भूल से प्रस्तुत में अप्रस्तुत का आभास होता हैतब ''भ्रांतिमान अलंकार'' होता है

जब दो वस्तुओं में किसी गुण विशेष की समानता के कारण भ्रमवश एक वस्तु को अन्य वस्तु समझ लिया जाये तो उसे ''भ्रांतिमान अलंकार'' कहते हैं.  

उदाहरण: 

१. कपि करि ह्रदय विचार, दीन्ह मुद्रिका डारि तब. 
    जनु असोक अंगार, दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ..   
-तुलसीदास 

यहाँ अशोक वृक्ष पर छिपे हनुमान जी द्वारा सीताजी का विश्वास अर्जित करने के लिए श्री राम की अँगूठीफेंके जाने पर दीप्ति के कारण सीता जी को अंगार का भ्रम होता हैअतःभ्रांतिमान अलंकार है

२. जानि स्याम घन स्याम को, नाच उठे वन-मोर.

यहाँ श्री कृष्ण को देखकरउनके सांवलेपन के कारण वन के मोरों को काले बादल होने का भ्रम  होता है औरवे वर्षा होना जानकार नाचने लगते हैं. अतः, भ्रांतिमान है. 
३. चंद के भरम होत, मोद है कुमोदिनी को. 

कुमुदिनी को देखकर चंद्रमा का भ्रम होना, भ्रांतिमान अलंकार का लक्षण है. 

४. चाहत चकोर सूर ओर, दृग छोर करि. 
    चकवा की छाती तजि, धीर धसकति है..
 

५. हँसनि में मोती से झरत जनि हंस दौरें बार मेघ मानी बोलै केकी वंश भूल्यौ है. 
    कूजत कपोत पोत जानि कंठ रघुनाथ फूल कई हरापै मैन झूला जानि भूल्यौ है. 
    ऐसी बाल लाल चलौ तुम्हें कुञ्ज लौं देखाऊँ जाको ऐसो आनन प्रकास वास तूल्यौ है. 
    चितवे चकोर जाने चन्द्र है अमल घेरे भौंर भीर मानै या कमल चारु फूल्यौ है. 

६. नाक का मोती अधर की कांति से. 
    बीज दाडिम का समझ कर भ्रांति से. 
    देखकर सहसा हुआ शुक मौन है. 
    सोचता है अन्य शुक यह कौन है. 
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 मैथिलीशरण गुप्त 

७. काली बल खाती चोटी को देख भरम होता नागिन का. -सलिल 

८. अरसे बाद 
    देख रोटी चाँद का 
    आभास होता.     
-सलिल 

९. जन-गण से है दूर प्रशासन 
    जनमत की होती अनदेखी 
    छद्म चुनावों से होता है 
    भ्रम सबको आजादी का.
 -सलिल 

१०. पेशी समझ माणिक्य को, वह विहग, देखो ले चला 

११. मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं 

१२. चंद अकास को वास विहाई कै 
     आजु यहाँ कहाँ आइ उग्यौ है?


भ्रांतिमान अलंकार सामयिक विसंगतियों को उद्घाटित करनेआम आदमी की पीडा को शब्द देने और युगीन विडंबनाओं पर प्रहार करने का सशक्त हथियार है किन्तु इसका प्रयोग वही कर सकता है जिसे भाषा पर अधिकार हो तथा जिसका शब्द भंडार समृद्ध हो

साहित्य की आराधना आनंद ही आनंद है. 
काव्य-रस की साधना आनंद ही आनंद है. 
'सलिल' सा बहते रहो, सच की शिला को फोड़कर. 
रहे सुन्दर भावना आनंद ही आनंद है. 

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