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बुधवार, 27 मई 2015

geet: amitabh tripathi

गीत:
अमिताभ त्रिपाठी 
*
सुन रहे हो
बज रहा है मृत्यु का संगीत

मृत्यु तन की ही नहीं है
क्षणिक जीवन की नहीं है
मर गये विश्वास कितने
पर क्षुधा रीती नहीं है
रुग्ण-नैतिकता समर्थित 
आचरण की जीत
सुन रहे हो.....

ताल पर हैं पद थिरकते
जब कोई निष्ठा मरी है
मुखर होता हास्य, जब भी
आँख की लज्जा मरी है
गर्व का पाखण्ड करते 
दिवस जाते बीत
सुन रहे हो....

प्रीति के अनुबन्ध हो या
मधुनिशा के छन्द हो या
हों युगल एकान्त के क्षण
स्वप्न-खचित प्रबन्ध हों या
छद्म से संहार करती 
स्वयं है  सुपुनीत
सुन रहे हो....

पहन कर नर-मुण्ड माला
नाचती जैसे कपाला
हँसी कितने मानवों के
लिये बनती मृत्युशाला
वर्तमानों की चिता पर 
मुदित गाती गीत
सुन रहे हो.....

-- 

navgeet: sanjiv

नवगीत: 
संजीव
*
अंधड़-तूफां आया
बिजली पल में 
गोल हुई 
*
निष्ठा की कमजोर जड़ें 
विश्वासों के तरु उखड़े
आशाओं के नीड़  गिरे  
मेघों ने धमकाया 
खलिहानों में 
दौड़ हुई. 
*
नुक्कड़ पर आपाधापी 
शेफाली थर-थर काँपी 
थे ध्वज भगवा, नील, हरे 
सबको था थर्राया 
गिरने की भी 
होड़ हुई.
*
उखड़ी जड़ खापों की भी 
निकली दम पापों की भी 
गलती करते बिना डरे 
शैतां भी शर्माया 
घर खुद  का  तो 
छोड़ मुई!.
*
२६-५-२००१५: जबलपुर में ५० कि.मी. की गति से चक्रवातजनित आंधी-तूफ़ान,  भारी तबाही के बाद रचित. 
Sanjiv verma 'Salil', 94251 83244
salil.sanjiv@gmail.com
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facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

मंगलवार, 26 मई 2015

kruti charcha: sanvedanaon ke swar- manoj shukla 'manoj'

कृति चर्चा:
संवेदनाओं के स्वर : कहानीकार की कवितायेँ
चर्चाकार: आचार्य संजीव
[कृति विवरण: संवेदनाओं के स्वर, काव्य संग्रह, मनोज शुक्ल 'मनोज', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १४४, मूल्य १५० रु., प्रज्ञा प्रकाशन २४ जग्दिश्पुरम, लखनऊ मार्ग, त्रिपुला चौराहा रायबरेली]
*
मनोज शुक्ल 'मनोज' मूलतः कहानीकार हैं. कहानी पर उनकी पकड़ कविता की तुलना में बेहतर है. इस काव्य संकलन में विविध विधाओं, विषयों तथा छन्दों की त्रिवेणी प्रवाहित की गयी है. आरम्भ में हिंदी वांग्मय के कालजयी हस्ताक्षर स्व. हरिशंकर परसाई का शुभाशीष कृति की गौरव वृद्धि करते हुए मनोज जी व्यापक संवेदनशीलता को इंगित करता है. संवेदनशीलता समाज की विसंगतियों और विषमताओं से जुड़ने का आधार देती है.
मनोज सरल व्यक्तित्व के धनी हैं. कहानीकार पिता स्व. रामनाथ शुक्ल से विरासत में मिले साहित्यिक संस्कारों को उन्होंने सतत पल्लवित किया है. विवेच्य कृति में डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी, सनातन कुमार बाजपेयी 'सनातन' ने वरिष्ठ तथा विजय तिवारी 'किसलय' ने सम कालिक कनिष्ठ रचनाधर्मियों का प्रतिनिधित्व करते हुए संकलन की विशेषताओं का वर्णन किया है. बाजपेयी जी के अनुसार भाषा की सहजता, भावों की प्रबलता, आडम्बरविहीनता मनोज जी के कवि का वैशिष्ट्य है. चतुर्वेदी जी ने साधारण की असाधारणता के प्रति कवि के स्नेह, दीर्घ जीवनानुभवों तथा विषय वैविध्य को इंगित करते हुए ठीक ही कहा है कि 'राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए स्वयं संभाव्य है' तथा ' कवि न होऊँ अति चतुर कहूं, मति अनुरूप राम-गुन गाऊँ' में राम के स्थान पर 'भाव' कर दिया जाए तो आज की (कवि की भी) आकुल-व्याकुलता सहज स्पष्ट हो जाती है. फिर जो उच्छ्वास प्रगट होता है वह स्थापित काव्य-प्रतिमानों में भले ही न ढल पाता हो पर मानव मन की विविधवर्णी अभिव्यक्ति उसमें अधिक सहज और आदम भाव से प्रगट होती है.'
निस्संदेह वीणावादिनी वन्दना से आरम्भ संकलन की ७२ कवितायें परंपरा निर्वहन के साथ-साथ बदलते समय के परिवर्तनों को रेखांकित कर सकी हैं. इस कृति के पूर्व कहानी संग्रह क्रांति समर्पण व एक पाँव की जिंदगी तथा काव्य संकलन याद तुम्हें मैं आऊँगा प्रस्तुत कर चुके मनोज जी छान्दस-अछान्दस कविताओं का बहुरंगी-बहुसुरभि संपन्न गुलदस्ता संवेदनाओं के स्वर में लाये हैं. शिल्प पर कथ्य को वरीयता देती ये काव्य रचनाएं पाठक को सामायिक सत्य की प्रतीति करने के साथ-साथ कवि के अंतर्मन से जुड़ने का अवसर भी उपलब्ध कराती हैं. जाय, होंय, रोय, ना, हुये, राखिये, भई, आंय, बिताँय जैसे देशज क्रिया रूप आधुनिक हिंदी में अशुद्धि माने जाने के बाद भी कवि के जुड़ाव को इंगित करते हैं. संत साहित्य में यह भाषा रूप सहज स्वीकार्य है चूँकि तब वर्तमान हिंदी या उसके मानक शब्द रूप थे ही नहीं. बैंक अधिकारी रहे मनोज इस तथ्य से सुपरिचित होने पर भी काव्याभिव्यक्ति के लिये अपने जमीनी जुड़ाव को वरीयता देते हैं.
मनोज जी को दोहा छंद का प्रिय है. वे दोहा में अपने मनोभाव सहजता से स्पष्ट कर पाते हैं. कुछ दोहे देखें:
ऊँचाई की चाह में, हुए घरों से दूर
मन का पंछी अब कहे, खट्टे हैं अंगूर
.
पाप-पुन्य उनके लिए, जो करते बस पाप
लेकिन सज्जन पुण्य कर, हो जाते निष्पाप
.
जंगल में हाथी नहीं, मिलते कभी सफेद
हैं सत्ता में अनगिनत, बगुले भगत सफेद
.
दोहों में चन्द्रमा के दाग की तरह मात्राधिक्य (हो गए डंडीमार, बनो ना उसके दास, चतुर गिद्ध और बाज, मायावती भी आज १२ मात्राएँ), वचन दोष (होता इनमें उलझकर, तन-मन ही बीमार) आदि खीर में कंकर की तरह खलते हैं.
अछांदस रचनाओं में मनोज जी अधिक कुशलता से अपने मनोभावों को व्यक्त कर सके हैं. कलयुगी रावण, आतंकवादी, पुरुषोत्तम, माँ की ममता त्रिकोण सास बहू बेटे का, पत्नी परमेश्वर, मेरे आँगन की तुलसी आदि रचनाएँ पठनीय हैं. गांधी संग्रहालय से एक साक्षात्कार शीर्षक रचना अनेक विचारणीय प्रश्न उठाती है. मनोज का संवेदनशील कवि इन रचनाओं में सहज हो सका है.
संझा बिरिया जब-जब होवे, तुलसी तेरे घर-आँगन में, फागुन के स्वर गूँज उठे, ओ दीप तुझे जलना होगा, प्रलय तांडव कर दिया आदि रचनाएँ इस संग्रह के पाठक को बाँधने में समर्थ हैं.
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समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
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doha : sanjiv

दोहा सलिला:
संजीव
*
सकल भूमि सरकार की, किसके हैं हम लोग?
जायें कहाँ बताइए?, तज घडियाली सोग
*
नित्य विदेशों से करें, जी भरकर व्यापार 
कम भेजे बुलवा अधिक, करते बंटाढार 
*
परिवर्तन की राह कब, कहे रही आसान?
आप जूझते ही रहें, करें लक्ष्य-संधान 
*
केंद्र-राज्य पूरक बनें, संविधान की चाह 
फर्ज़ भूल टकरा रहे, जन-गण भरता आह 
*
राज्यपाल का काम है, रखना सिर्फ निगाह 
रहें सहायक तभी तो, हो उनकी परवाह
*
जनगण ने प्रतिनिधि चुने, कर पायें वे काम 
जो इसमें बाधक बने, वह भोगे परिणाम 
*
केद्र न तानाशाह हो, राज्य न मालगुजार 
मालिक जनता रहे तो, मिटे सकल तकरार 
*

सोमवार, 25 मई 2015

doha

दोहा:

हवा आग धरती गगन, रोटी वस्त्र किताब
'सलिल' कलम जिसको मिले, वह हो मनुज जनाब
*
रिसते जख्मों की कथा रिश्ते हैं, पर मौन 
जुड़ें टूट फिर-फिर जुड़ें, क्यों बतलाये कौन??
*

muktak: sanjiv

मुक्तक:

ज़िन्दगी को नस्तियों में बाँध मत
उम्मीदें सब लापता हो जाएँगी
सलिल पवन की तरह बहती रहे
मंजिलों तक मुश्किलें पहुँचाएँगी
*

नवगीत: संजीव

नवगीत:
संजीव
*
श्वास मुखड़े 
संग गूथें 
आस के कुछ अंतरे 
*
जिंदगी नवगीत बनकर
सर उठाने जब लगी 
भाव रंगित कथ्य की 
मुद्रा लुभाने तब लगी 
गुनगुनाकर छंद ने लय 
कहा: 'बन जा संत रे!'
श्वास मुखड़े 
संग गूथें 
आस के कुछ अंतरे 
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब को 
हँसकर लगाया जब गले
अलंकारों ने कहा:
रस सँग ललित सपने पले 
खिलखिलाकर लहर ने उठ 
कहा: 'जग में तंत रे!'  
*
बन्दगी इंसान की 
भगवान ने जब-जब करी 
स्वेद-सलिला में नहाकर 
सृष्टि खुद तब-तब तरी 
झिलमिलाकर रौशनी ने 
अंधेरों को कस कहा:
भास्कर है कंत रे!
श्वास मुखड़े 
संग गूथें 
आस के कुछ अंतरे 
*

kruti charcha: sarvmangal-shakuntla khare

कृति चर्चा:
सर्वमंगल: संग्रहणीय सचित्र पर्व-कथा संग्रह  
आचार्य संजीव 
*
[कृति विवरण: सर्वमंगल, सचित्र पर्व-कथा संग्रह, श्रीमती शकुन्तला खरे, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १८६, मूल्य १५० रु., लेखिका संपर्क: योजना क्रमांक ११४/१, मकान = क्रमांक ८७३ विजय नगर, इंदौर. म. प्र. भारत] 
*
विश्व की प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का विकास सदियों की समयावधि में असंख्य ग्राम्यांचलों में हुआ है. लोकजीवन में शुभाशुभ की आवृत्ति, ऋतु परिवर्तन, कृषि संबंधी क्रिया-कलापों (बुआई, कटाई आदि), महापुरुषों की जन्म-निधन तिथियों आदि को स्मरणीय बनाकर उनसे प्रेरणा लेने हेतु लोक पर्वों का प्रावधान किया गया है. इन लोक-पर्वों  की जन-मन में व्यापक स्वीकृति के कारण इन्हें सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता प्राप्त है. वास्तव में इन पर्वों के माध्यम से वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सामंजस्य-संतुलन स्थापित कर, सार्वजनिक अनुशासन, सहिष्णुता, स्नेह-सौख्य वर्धन, आर्थिक संतुलन, नैतिक मूल्य पालन, पर्यावरण सुधार आदि को मूर्त रूप देकर समग्र जीवन को सुखी बनाने का उपाय किया गया है. उत्सवधर्मी भारतीय समाज ने इन लोक-पर्वों के माध्यम से दुर्दिनों में अभूतपूर्व संघर्ष क्षमता और सामर्थ्य भी अर्जित की है. 

आधुनिक जीवन में आर्थिक गतिविधियों को प्रमुखता मिलने के फलस्वरूप पैतृक स्थान व् व्यवसाय  छोड़कर अन्यत्र  जाने की विवशता, अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा  के  कारण  तर्क-बुद्धि का  परम्पराओं  के प्रति अविश्वासी होने की मनोवृत्ति, नगरों में स्थान, धन, साधन  तथा सामग्री की अनुपलब्धता ने इन लोक पर्वों के आयोजन पर परोक्षत: कुठाराघात किया है. फलत:, नयी पीढ़ी अपनी सहस्त्रों वर्षों की परंपरा, जीवन शैली, सनातन जीवन-मूल्यों  से अपरिचित हो दिग्भ्रमित हो रही है. संयुक्त परिवारों के विघटन ने दादी-नानी के कध्यम से कही-सुनी जाती कहानियों के माध्यम से समझ बढ़ाती, जीवन मूल्यों और जानकारियों  से परिपूर्ण कहानियों का क्रम समाप्त प्राय कर दिया है. फलत: नयी पीढ़ी में  पारिवारिक स्नेह-सद्भाव का अभाव, अनुशासनहीनता, उच्छंखलता,  संयमहीनता, नैतिक मूल्य ह्रास, भटकाव और कुंठा लक्षित हो रही है. 

मूलतः बुंदेलखंड में जन्मी और अब मालवा निवासी विदुषी श्रीमती शकुंतला खरे ने इस सामाजिक वैषम्य की खाई पर संस्कार सेतु का निर्माण कर नव पीढ़ी का पथ-प्रदर्शन करने की दृष्टि से ४ कृतियों मधुरला, नमामि, मिठास तथा सुहानो लागो अँगना के पश्चात विवेच्य कृति ' सर्वमंगल' का प्रकाशन कर पंच कलशों की स्थापना की है. शकुंतला जी इस हेतु साधुवाद की पात्र हैं. सर्वमंगल में चैत्र माह  से प्रारंभ कर फागुन तह सकल वर्ष में मनाये जानेवाले लोक-पर्वों तथा त्योहारों से सम्बन्धी जानकारी (कथा, पूजन सामग्री सूचि, चित्र, आरती, भजन, चौक, अल्पना, रंगोली आदि ) सरस-सरल प्रसाद गुण संपन्न भाषा में प्रकाशित कर लोकोपकारी कार्य किया है.

संभ्रांत-सुशिक्षित कायस्थ परिवार की बेटी, बहु, गृहणी, माँ, और दादी-नानी होने के कारण शकुन्तला जी  शैशव से ही इन लोक पर्वों के आयोजन की साक्षी रही हैं, उनके संवेदनशील मन ने प्रस्तुत कृति में समस्त सामग्री को बहुरंगी चित्रों के साथ सुबोध भाषा में प्रकाशित कर स्तुत्य प्रयास किया है. यह कृति भारत के हर घर-परिवार में न केवल रखे जाने अपितु पढ़ कर अनुकरण किये जाने योग्य है. यहाँ प्रस्तुत कथाएं तथा गीत आदि  पारंपरिक हैं जिन्हें आम जन के ग्रहण करने की दृष्टि से रचा गया है अत: इनमें साहित्यिकता पर समाजीकर और पारम्परिकता का प्राधान्य होना स्वाभाविक है. संलग्न चित्र शकुंतला जी ने स्वयं बनाये हैं. चित्रों का चटख रंग आकर्षक, आकृतियाँ सुगढ़, जीवंत तथा  अगढ़ता  के समीप हैं. इस कारण इन्हें  बनाना किसी गैर कलाकार के लिए भी सहज-संभव है. 

भारत अनेकता में एकता  का देश  है. यहाँ अगणित बोलियाँ, लोक भाषाएँ, धर्म-संप्रदाय तथा रीति-रिवाज़ प्रचलित हैं. स्वाभाविक है कि पुस्तक में सहेजी गयी सामग्री उन परिवारों के कुलाचारों  से जुडी हैं जहाँ लेखिका पली-बढ़ी-रही है. अन्य परिवारों में यत्किंचित परिवर्तन के साथ ये पर्व मनाये जाना अथवा इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पर्व  मनाये  जाना स्वाभाविक है. ऐसे पाठक अपने से जुडी  सामग्री मुझे या लेखिका को भेजें तो वह अगले संस्करण में जोड़ी जा सकेगी. सारत: यह पुस्तक हर घर, विद्यालय और पुस्तकालय में होना चाहिए ताकि इसके मध्याम से समाज में सामाजिक मूल्य स्थापन और सद्भावना सेतु निर्माण का कार्य होता रह सके.
संदेश में फोटो देखें
​आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
२०४
​ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, 
जबलपुर ४८२००१ ​
चलभाष: ९४२५१ ८३२४४


मुक्तिका: संजीव

मुक्तिका:
संजीव 
*
सुरभि फ़ैली, आ गयीं 
कमल-दल सम, भा गयीं 
*
ज़िन्दगी के मंच पर 
बन्दगी  बन छा गयीं
विरह-गीतों में विहँस  
मिलन-रस बिखरा गयीं 
*
सियासत में सत्य सम
सिकुड़कर संकुचा गयीं 
*
हर कहानी अनकही 
बिन कहे फरमा गयीं 
*

muktika: sanjiv


मुक्तिका:
संजीव
*
हुआ जन दाना अधिक या अब अधिक नादान है
अब न करता अन्य का, खुद का करे गुणगान है 

जब तलक आदम रहा दम आदमी में खूब था 
आदमी जब से हुआ मच्छर से भी हैरान है.
*
जान की थी जान मुझमें अमन जीवन में रहा 
जान मेरी जान में जबसे बसी, वीरान है.
*
भूलते ही नहीं वो दिन जब हमारा देश था 
देश से ज्यादा हुआ प्रिय स्वार्थ सत्ता मान है
*
भेद लाखों, एकता का एक मुद्दा शेष है 
मिले कैसे भी मगर मिल जाए कुछ अनुदान है 
*

कौन हूँ मैं


पूछने मुझसे लगा प्रतिबिम्ब दर्पण में खड़ा इक
कौन हूँ मैं और क्या परिचय मेरा उसको बताऊँ
 
कौन हूँ मैं? प्रश्न ये सुलझा सका है कौन युग से
और फ़िर यह प्रश्न क्या सचमुच कहीं अस्तित्व मेरा
एक भ्रम है या किसी अहसास की कोई छुअन है
रोशनी का पुंज है या है अमावस का अंधेरा
 
नित्य ही मैं खोलता परतें रहस्यों की घनेरी
जो निरन्तर बढ़ रहीं, संभव नहीं है पार पाऊँ
 
मैं स्वयं मैं हूँ, कि कोई और है जो मैं बना है
और फिर कोई अगर मैं! तो भला फिर कौन हूँ मैं
और यदि मैं हूँ "अहम ब्रह्मास्मि" का वंशाधिकारी
तो कथाओं में अगोचर जो रहा, वह गौण हूँ मैं
 
प्रश्न में उलझा हुआ इक किंकिणी का अंश टुटा
चाहता हूँ किन्तु संभव है नहीं मैं झनझनाऊँ
 
पार मैं के दायरे के चाहता हूँ मैं निकल कर
दूर से देखूँ, कदाचित कौन हूँ मैं जान लूँगा
और जो परछाईयों के प्रश्न में उलझे हुए हैं
प्रश्न, उनके उत्तरों को हो सकेगा जान लूंगा
 
हैं विषम जो ये परिस्थितियाँ,स्वयं मैने उगाई
राह कोई आप बतला दें अगर तो पाअर पाऊँ
 
राकेश खंडेलवाल

शनिवार, 23 मई 2015

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव 
*
पैर जमीं पर जमे रहें तो नभ बांहों में ले सकते हो 
आशा की पतवार थामकर भव में नैया खे सकते हो.​​
शब्द-शब्द को कथ्य, बिंब, रस, भाव, छंद से अनुप्राणित कर 
स्नेह-सलिल में अवगाहन कर नित काव्यामृत दे सकते हो 
*

शुक्रवार, 22 मई 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
प्रयासों की अस्थियों पर 
संजीव
*
प्रयासों की अस्थियों पर 
सुसाधन के मांस बिन 
सफलता-चमड़ी शिथिल हो झूलती.
*
सांस का व्यापार 
थमता अनथमा सा
आस हिमगिरि पर
निरंतर जलजला सा. 
अंकुरों को 
पान गुटखा लीलता नित-
मुँह छिपाता नीलकंठी 
फलसफा सा.
ब्रांडेड मँहगी दवाई  
अस्पताली भव्यताएँ 
रोग को मुद्रा-तुला पर तौलती.
प्रयासों की अस्थियों पर 
सुसाधन के मांस बिन 
सफलता-चमड़ी शिथिल हो झूलती.
* 
वीतरागी चिकित्सक को  
रोग से लेना, न देना 
कई दर्जन टेस्ट  
सालों औषधि, राहत न देना. 
त्रास के तूफ़ान में  
बेबस मरीजों को खिलौना-
बना खेले निष्ठुरी  
चाबे चबेना.
आँख पीड़ा-हताशा के   
अनलिखे संवाद 
पल-पल मौन रहकर बोलती.
प्रयासों की अस्थियों पर 
सुसाधन के मांस बिन 
सफलता-चमड़ी शिथिल हो झूलती.
* 

बुधवार, 20 मई 2015

doha salila: aankh

दोहा सलिला:
दोहों के रंग  आंख के संग
संजीव
*
आँख लड़ी झुक उठ मिली, मुंदी कहानी पूर्ण
लाड़ मुहब्बत ख्वाब सँग, श्वास-आस का चूर्ण
*
आँख कहानी लघुकथा, उपन्यास रस छंद
गीत गजल कविता भजन, सुख-दुःख परमानंद
*
एक आँख से देखते, धूप-छाँव जो मीत
वही उतार-चढ़ाव पर, चलकर पाते जीत
*
धुल झोंकते आँख में, आँख बिछाकर लोग
चुरा-मिला आँखें दिखा, झूठ मनाते सोग
*

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
*
चल जब-तब परदेश को, अपना यही जुनून
गुड मोर्निंग करिए कहीं, कहीं आफ्टर नून
*
गर्मी की तारीफ में पढ़ा कसीदा एक
'भर्ता खाने के लिये, भटा धूप में भून'
*
दिल्ली में हो रहा है मर्यादा का खून 
खून मत जला देखकर पहुँच देहरादून 
*
आम आदमी बन लड़े कल जो आम चुनाव
आज हुए  सबसे  बड़े वे  ही अफलातून 
*
उपयोगी हो ठंड में,  स्वेटर बुन ले आज 
ले ले जितना मन कहे, सूर्य-किरण का ऊन 
*

dwipadi / doha

द्विपदियाँ:
संजीव
*
नहीं इंसान हैं, हैवान हैं, शैतान हैं वो सब 
जो मजहब को नहीं तहजीब, बस फिरका समझते हैं
*
मिले उपहार में जो फेंक दें अपनी नहीं आदत
जतन से दर्द दिल में 'सलिल' ने रक्खा सदा सेकर
*

दोहा सलिला:
संजीव
*
सिर्फ जुबां से ही नहीं, की जाती है बात
आँख- आँख में झाँककर, समझ सके जज्बात
*
कई फेसबुकिये मिले, जिन्हें चाहिए नाम
कुछ ऐसे जो चाहते, रहना सदा अनाम
*

navgeet: sanjiv

नवगीत:
जिंदगी के गणित में
संजीव
*
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
रही बाकी न दम.
*
इंद्र है युग लीन सुख में
तपस्याओं से डरे.
अहल्याओं को तलाशे
लाख मारो न मरे.
जन दधीची अस्थियाँ दे
बनाता विजयी रहा-
हुई हर आशा दुराशा
कभी कुछ संयम वरे.
कामनाओं से ग्रसित
होकर भ्रमित
बिखरे हैं हम.
वासनाओं से जड़ित
होते दमित
अँखियाँ न नम.
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
चलो मिलकर सनम.
*
पडोसी के द्वार पर जा
रोज छिप कचरा धरें.
चाह आकर विधाता-
नित व्याधियाँ-मुश्किल हरें .
सुधारों का शंख जिसने
बजाया विनयी रहा-
सिया को वन भेजता जो
देह तज कैसे तरे?
भूल को स्वीकार  
संशोधन किये
निखरे हैं हम.
शूल से कर प्यार
वरते कूल
लहरें हैं न कम.
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
बढ़ें संग रख कदम.
*

dwipadi salila: sanjiv

द्विपदी सलिला:
संजीव
*
वक़्त सुनता ही नहीं सिर्फ सुनाता रहता
नजर घरवाली की ही इसमें अदा आती है
*
दिखाया आईना मैंने कि वो भी देख सके 
आँख में उसकी बसा चेहरा मेरा ही है
*
आसमां को थाम लें हाथों में अपने हम अगर 
पैर ज़माने के लिये जमीं रब हमें दे दे
*
तुम्हें जानना है महज इसलिए ही
दुनिया के सारे शिखर नापते हैं
*
दिले-दिलवर को खटखटाते रहे नज़रों से 
आँख का डाकिया पैगाम कभी तो देगा
*
बेरुखी लाख दिखाये वो सरे-आम मगर 
नज़र जो मिल के झुके प्यार भी हो सकती है
*
अंत नहीं है प्यास का, नहीं मोह का छोर
मुट्ठी में ममता मिली, दिनकर लिया अँजोर
*
लेन-देन जिंदगी में इस कदर बढ़ा
बाकी नहीं है फर्क आदमी-दूकान में
*
साथ चलते हाथ छूटे कब-कहाँ- कैसे कहें
बेहतर है फिर मिलें मन मीत! हम कुछ मत कहें
*
सारे सौदे वो नगद करता है जन्म से ही रहे उधार हैं हम सारी दुनिया में जाके कहते हैं भारत में हुए सुधार हैं हम *




दोहा सलिला:
संजीव
*
जो दिखता होता नहीं, केवल उतना सत्य 
छोटे तन में बड़ा मन, करता अद्भुत कृत्य
*
ओझा कर दे टोटका, फूंक कभी तो मन्त्र 
मन-अँगना में भी लगे, फूलों का संयंत्र
*
नित मन्दिर में माँगते, किन्तु न होते तृप्त 
दो चहरे ढोते फिरे, नर-पशु सदा अतृप्त
*
जब जो जी चाहे करे, राजा वह ही न्याय
लोक मान्यता कराती, राजा से अन्याय
*
पर उपकारी हैं बहुत, हम भारत के लोग 
मुफ्त मशवरे दें 'सलिल', यही हमारा रोग
*


मंगलवार, 19 मई 2015

doha salila: naak -sanjiv

दोहा सलिला: 
दोहा का रंग नाक के संग 
संजीव 
*
मीन कमल मृग से नयन, शुक जैसी हो नाक 
चंदन तन में आत्म हो, निष्कलंक निष्पाप 
*
आँख कान कर पैर लब, दो-दो करते काम 
नाक शीश मन प्राण को, मिलता जग में नाम 
*
नाक नकेल बिना नहीं, घोड़ा सहे सवार 
बीबी नाक-नकेल बिन, हो सवार कर प्यार 
*
जिसकी दस-दस नाक थीं, उठा न सका पिनाक 
बीच सभा में कट गयी, नाक मिट गयी धाक 
*
नाक-नार दें हौसला, ठुमक पटकती पैर 
ख्वाब दिखा पुचकार लो, 'सलिल' तभी हो खैर 
*
नाक छिनकना छोड़ दें, जहाँ-तहाँ हम-आप 
'सलिल' स्वच्छ भारत बने, मिटे गंदगी शाप 
*
शूर्पणखा की नाक ने, बदल दिया इतिहास
ऊँची थी संत्रास दे, कटी सहा संत्रास 
*
नाक सदा ऊँची रखें, बढ़े मान-सम्मान 
नाक अदाए व्यर्थ जो, उसका हो अपमान 
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नाक न नीची हो तनिक, करता सब जग फ़िक्र 
नाक कटे तो हो 'सलिल', घर-घर हँसकर ज़िक्र 
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नाक घुसेड़ें हर जगह, जो वे पाते मात 
नाक अड़ाते बिन वजह, हो जाते कुख्यात 
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बैठ न पाये नाक पर, मक्खी रखिये ध्यान 
बैठे तो झट दें उड़ा, बने रहें अनजान 
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dwipadiyan: sanjiv

द्विपदियाँ
संजीव
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चतुर्वेदी को मिला जब राह में कोई कबीर 
व्यर्थ तत्क्षण पंडितों की पंडिताई देख ली
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सुना रहा गीता पंडित जो खुद माया में फँसा हुआ 
लेकिन सारी दुनिया को नित मुक्ति-राह बतलाता है 
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आह न सुनता किसी दीन की बात दीन की खूब करे 
रोज टेरता खुदा न सुनता मुल्ला हुआ परेशां है
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