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गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत संजीव . अलस्सुबह बाँस बना ताज़ा अखबार. . फाँसी लगा किसान ने खबर बनाई खूब. पत्रकार-नेता गये चर्चाओं में डूब. जानेवाला गया है उनको तनिक न रंज क्षुद्र स्वार्थ हित कर रहे जो औरों पर तंज. ले किसान से सेठ को दे जमीन सरकार क्यों नादिर सा कर रही जन पर अत्याचार? बिना शुबह बाँस तना जन का हथियार अलस्सुबह बाँस बना ताज़ा अखबार. . भूमि गँवाकर डूब में गाँव हुआ असहाय. चिंता तनिक न शहर को टंसुए श्रमिक बहाय. वनवासी से वन छिना विवश उठे हथियार आतंकी कह भूनतीं बंदूकें हर बार. 'ससुरों की ठठरी बँधे' कोसे बाँस उदास पछुआ चुप पछता रही कोयल चुप है खाँस करता पर कहता नहीं बाँस कभी उपकार अलस्सुबह बाँस बना ताज़ा अखबार. **

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव 
.
आसमान कर रहा है इन्तिज़ार 
तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार 
हौसलों के साथ रख चलो कदम 
मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
*

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव 
.
चल रहे पर अचल हम हैं 
गीत भी हैं, गजल हम है 

आप चाहें कहें मुक्तक 
नकल हम हैं, असल हम हैं. 

हैं सनातन, चिर पुरातन 
सत्य कहते नवल हम हैं 
कभी हैं बंजर अहल्या 
कभी बढ़ती फसल हम हैं 

मन-मलिनता दूर करती 
काव्य सलिला धवल हम हैं 

जो न सुधरी आज तक वो 
आदमी की नसल हम  हैं 

गिर पड़े तो यह न सोचो 
उठ न सकते निबल हम हैं 

ठान लें तो नियति बदलें 
धरा  के सुत सबल हम हैं 

कह रही संजीव दुनिया 
जानती है सलिल हम हैं. 
***

kavita: sanjiv

कविता:
अपनी बात:
संजीव 
.
पल दो पल का दर्द यहाँ है 
पल दो पल की खुशियाँ है 
आभासी जीवन जीते हम 
नकली सारी दुनिया है 

जिसने सच को जान लिया 
वह ढाई आखर पढ़ता है 
खाता पीता सोता है जग 
हाथ अंत में मलता है

खता हमारी इतनी ही है 
हमने तुमको चाहा है 
तुमने अपना कहा मगर 
गैरों को गले लगाया है 

धूप-छाँव सा रिश्ता अपना 
श्वास-आस सा नाता है 
दूर न रह पाते पल भर भी 
साथ रास कब आता है 

नोक-झोक, खींचा-तानी ही 
मैं-तुम को हम करती है 
उषा दुपहरी संध्या रजनी 
जीवन में रंग भरती है

कौन किसी का रहा हमेशा 
सबको आना-जाना है 
लेकिन जब तक रहें 
न रोएँ हमको तो मुस्काना है 
*  

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
बाँस हूँ मैं 
संजीव
.
बांस हूँ मैं
काट लो तुम 
जला दो तुम
पर न खुद होकर मरूंगा
बीज से हो अंकुरित मैं
पल्लवित हो फिर जियूँगा
बांस हूँ मैं
.
मैं न तुम सा आदमी हूँ
सियासत मुझको न आती
मात्र इतना जानता हूँ
ज्योति जो खुद को जलाती
वही पी पाती तिमिर है
उसी से दीपक अमर है.
सत्य मानो सुरासुर का
सदा ही होना समर है.
मैं रहा हूँ साथ उसके
जो हलाहल धार सकता.
जो न खुद मरता कभी भी
मौत को भी मार सकता.
साथ श्रृद्धा के रहे जो
अडिग हो विश्वास जिसका.
गैर जिसकों नहीं कोई
कोई अपना नहीं उसका.
सर्प से जो खेल लेता
दर्प को जो झेल लेता
शीश पर धर शशि-सलिल को
काम को जो ठेल देता.
जो न पिटता है प्रलय में
जो न मिटता है मलय से
हो लचीला जो खड़ा
भूकम्प में वह कांस हूँ मैं.
घांस हूँ मैं
जड़ जमाये
उखाड़ो तुम
लाख मुझको फिर उगूँगा
रोककर भू स्खलन को
हरा कर भू को हँसूंगा
बांस हूँ मैं
बांस हूँ मैं
काट लो तुम
जला दो तुम
पर न खुद होकर मरूंगा
बीज से हो अंकुरित मैं
पल्लवित हो फिर जियूँगा
बांस हूँ मैं
.
सफलता करती न गर्वित
विफलता करती न मर्दित
चुनौती से जूझ जाता
दे सहारा हुआ हर्षित
आपदा जब भी बुलाती
या निकट आ मुस्कुराती
सगा कह उसको मनाता
गले से अपने लगाता.
भूमिसुत हूँ सत्य मानो
मुझे अपना मीत जानो.
हाथ में लो उठा लाठी
या बना लो मुझे काठी.
बना चाली चढ़ो ऊपर
ज्यों बढ़ें संग वेदपाठी.
भाये ढाबा-चारपाई
टोकरी कमची बनाई.
बन गया थी तीर तब-तब
जब कमानी थी उठाई.
गगन छूता पतंग के संग
फाँस बन चुभ मैं करूँ तंग
मुझ बिना बंटी न ठठरी
कंध चढ़ लूँ टांग गठरी .
वंशलोचन हर निबलता
बाँटता सबको सबलता
मत कहो मैं फूल जाऊँ
क्यों कहीं दुर्भिक्ष्य लाऊँ.
सांस हूँ मैं
खूब खींचो
खूब छोडो
नहीं पल भर भी रुकूंगा
जन्म से लेकर मरण तक
बाँट आम्रित विष पिऊँगा
बांस हूँ मैं
बांस हूँ मैं
काट लो तुम
जला दो तुम
पर न खुद होकर मरूंगा
बीज से हो अंकुरित मैं
पल्लवित हो फिर जियूँगा
बांस हूँ मैं
***

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
साये से भय खाते लोग
दूर न होता शक का रोग
बलिदानी को युग भूले
अवसरवादी करता भोग
सत्य न सुन
सह पाते
झूठी होती वाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
उसने पाया था बहुमत  
साथ उसी के था जनमत
सिद्धांतों की लेकर आड़
हुआ स्वार्थियों का जमघट
बलिदानी
कब करते
औरों की परवाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
सत्य, झूठ को बतलाते  
सत्ता छिने न, भय खाते
छिपते नहीं कारनामे
जन-सम्मुख आ ही जाते
जननायक
का स्वांग
पाल रहे डाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
वह हलाहल रहा पीता
बिना बाजी लड़े जीता
हो विरागी की तपस्या
घट भरा वह, शेष रीता
जन के मध्य
रहा वह
चाही नहीं पनाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
.
कोई  टोंक न पाया
खुद को झोंक न पाया
उठा हुआ उसका पग
कोई रोक न पाया
सबको सत्य
बताओ, जन की
सुनो सलाहें
अपनों पर
अपनों की
तिरछी रहीं निगाहें.
***



 

चित्र पर मुक्तक



चित्रांकन: प्रवीण बरनवाल
संजीव सलिल:
मन गागर सुधियों से पूरित छलक न जाए 
तन गागर दृग आंसू पूरित झलक न जाए
मृण्मय गागर लुढ़की तो फिर भर जाएगी
उसकी छवि देखे बिन मुंद प्रभु! पलक न जाए
नज़र द्विवेदी
अंतर्मन को शाश्वत चिंतन , वाणी दो मधुमय स्वर को ।
मेरा गीत सुधा बन जाए , प्राण श्वांस दो अक्षर को ।।
कब तक अग्नि परीक्षा देगा , लज्जा का अवगुंठन माॅ
अविरल गति दो कर्मयोग के , अलसाये तन पिंजर को ।।
विश्वम्भर शुक्ल
अब कौन सी है बात जो अधीर किये है, 
हँसती हुई आँखों में इतना नीर किये है,
हो किसलिए बेचैन और मौन किसलिए, 
कोई तो बात है कि जो गंभीर किये है ?
डॉ. साधना प्रधान 
सूख गई वो हरियाली प्यार की,
खो गई वो, छांव एतबार की ।
मन-पंछी अकेला खड़ा तके है,
आस लिए, प्रिय तेरे दीदार की ।।
डॉ. संजय बिन्दल
पनघट पर गौरी खड़ी.....पीया मिलन की आस
कब आओगे साजना.......हो ना जाऊँ निःश्वास
तुम सागर हो प्रेम के...मैं प्रेमनद की बहती धारा
जब तक होगा मिलन नही..बुझे ना तब तक प्यास।
डॉ रंजना वर्मा
अश्रु की धार बन गयी है खुद
विकल पुकार बन गयी है खुद।
रास्ते पर नयन टिकाये हुए
वो इंतज़ार बन गयी है खुद।।
विश्व शंकर
किए श्रंगार खडी सुकुमारी श्यामल धारे वसन
प्रेम सुधा रस पीने को व्याकुल उसका यौवन
अतृप्त ह्रदय की है अब बस यही अभिलाषा
प्यास बुझा भर दें गागर बरसें कुछ ऐसे घन
राज कुमार शुक्ल राज
राह पी की तकते तकते धैर्य घट घटने लगा है 
और चातक की तरह मन बस पिया रटने लगा है 
बीतते जाते हैं पल पल इक मिलन की आस मे
अब ह्र्द्य भी राज टुकड़ो टुकड़ो मे बंटने लगा है
अश्वनी कुमार
दे ज्ञान कुछ ऐसा प्रभु, मै प्रीत सच्ची भान लूँ
मै आदमी को देखकर,नियत सही पहचान लूँ
थकने लगी हूँ राह तकते,रिक्त है मन कुंभ सा
आया नहीं निर्मोही क्यूँ,वो लौट के ये जान लूँ II
किरण शुक्ल
आस्था से पत्थर शिव में ढलते देखा
श्रद्धा विश्वास से जग को पलते देखा
निशां पड़ते हैं रस्सी से पत्थर पर
यहाँ मैने सिद्धार्थ को बुद्ध बनते देखा
अवधूत कुमार
ताजमहल से कई पत्थरों में,सोयी हैं मुहब्बतें ,
खजुराहो से कई प्रस्तरों में, जागी है मुहब्बतें ,
सिजदों ने दे दिया है पत्थरों को रुतबाए ख़ुदा,
पत्थरों में क़ाबा'ओ काशी के जागी हैं मुहब्बतें।
नागेब्द्र अनुज 
भरो मत आह इनके नैन गीले हो नहीं सकते।
ये पत्थर-दिल हैं ये हरगिज़ लचीले हो नहीं सकते।
तेरी बेटी है सुंदर भी गुणों की खान भी लेकिन,
बिना पैसों के इसके हाथ पीले हो नहीं सकते
मेहता उत्तम
देख दिल्ली का मंजर सोंचे नारी
द्वंद है भारी मन में सोंच सोंच हारी
आत्महत्या करता किसान है असली
या रैली में मस्त हो करता नाच भारी
पवन बत्तरा
कृष्णा मुझे तुम ही बहुत खिजावत है
हूँ म्लान तुझसे फिर नही बुलावत है
पथ बाट कबसे जोहती तुम्हारी मैं
भरने घड़ा पनघट कभी न जावत है
आभार: मुक्तक लोक 









muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव
*
हम एक हों, हम नेक हों, बल दो हमें जगदंबिके!
नित प्रात हो हम साथ हों नत माथ हो जगवन्दिते !!
नित भोर भारत-भारती वर दें हमें सब हों सुखी 
असहाय के प्रति हों सहायक हो न कोइ भी दुखी 
*
मत राज्य दो मत स्वर्ग दो मत जन्म दो हमको पुन:
मत नाम दो मत दाम दो मत काम दो हमको पुन:
यदि दो हमें बलिदान का यश दो, न हों जिन्दा रहें 
कुछ  काम मातु! न आ सके नर हो, न शर्मिंदा रहें 
*
तज दे सभी अभिमान को हर आदमी गुणवान हो 
हँस दे लुटा निज ज्ञान को हर लेखनी मतिमान हो 
तरु हों हरे वसुधा हँसे नदियाँ सदा बहती रहें-
कर आरती माँ भारती! हम हों सुखी रसखान हों 
*
फहरा ध्वजा हम शीश को अपने रखें नत हो उठा 
मतभेद को मनभेद को पग के तले कुचलें बिठा 
कर दो कृपा वर दो जया!हम काम भी कुछ आ सकें 
तव आरती माँ भारती! हम एक होक गा सकें  
*
[छंद: हरिगीतिका, सूत्र: प्रति पंक्ति ११२१२ X ४]
*** 

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
कृष्णार्जुन
रणनीति बदल नित
करते हक्का-बक्का.
दुर्योधन-राधेय
मचलकर
लगा रहे हैं छक्का.
शकुनी की
घातक गुगली पर
उड़े तीन स्टंप.
अम्पायर धृतराष्ट्र
कहे 'नो बाल'
लगाकर जंप.
गांधारी ने
स्लिप पर लपका
अपनों का ही कैच.
कर्ण
सूर्य से आँख फेरकर
खोज रहा है छाँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
द्रोणाचार्य
पितामह के सँग
कृष्ण कर रहे फिक्सिंग.
अर्जुन -एकलव्य
आरक्षण
माँग रहे कर मिक्सिंग.
कुंती
द्रुपदसुता लगवातीं
निज घर में ही आग.
राधा-रुक्मिणी
को मन भाये
खूब कालिया नाग.
हलधर को
आरक्षण देकर
कंस सराहे भाग.
गूँज रही है
यमुना तट पर
अब कौओं की काँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.
मठ, मस्जिद,
गिरिजा में होता
श्रृद्धा-शोषण खूब.
लंगड़ा चढ़े  
हिमालय कैसे
रूप-रंग में डूब.
बोतल नयी
पुरानी मदिरा
गंगाजल का नाम.
करो आचमन  
अम्पायर को
मिला गुप्त पैगाम.
घुली कूप में
भाँग रहे फिर
कैसे किसको होश.
शहर
छिप रहा आकर
खुद से हार-हार कर गाँव
इन्द्रप्रस्थ में
विजय-पराजय
पर लगते फिर दाँव
.

muktak: sanjiv

मुक्तक:
संजीव
यहाँ प्रयुक्त छंद को पहचानिए, उसके लक्षण बताइए और उस छंद में कुछ रचिए:
.
माता की जयजयकार करें, निज उर में मोद-उमंग भरें
आ जाए  काल तनिक न डरें, जन-जन का भय-संत्रास हरें
फागुन में भी मधुमास वरें, श्रम पूजें स्वेद बिंदु घहरें-
करतल पर ले निज शीश लड़ें, कब्रों में अरि-सर-मुंड भरें
.
आतंकवाद से टकरायें, दुश्मन न एक भी बच पायें
'बम-बम भोले' जयनाद सुनें, अरि-सैन्य दहलकर थर्रायें
जय काली! जय खप्परवाली!!, जय रुंड-मुंड मालावाली!
योगिनियों सहित आयें मैया!, अरि-रक्त-पान कर हर्षायें
.
नेता सत्ता का मोह तजें, जनसेवक बनकर तार-तरें
या घर जाकर प्रभु-नाम भजें, चर चुके बहुत मत देश चरें
जो कामचोर बिन मौत मरें, रिश्वत से जन हो दूर डरें
व्यवसायी-धनपति वृक्ष बनें, जा दीन-हीन के निकट झरें
.
***

geet: veer vandana -sanjiv

गीत:
वीर वन्दना
संजीव
.
वीर-वन्दना करे कलम तर जायेगी
वाक् धन्य 'जय हिन्द' अगर गुन्जाएगी
.
जंबू द्वीप सनातन है, शुचि-सुन्दर है
कण-कण तीरथधाम, मनुज-मन मन्दिर है
सत्यदेव की पूजा होती रही सदा
इष्ट हमारा एक 'सत्य-शिव-सुंदर है
सत-चित-आनंद छवि गीता दर्शाएगी
.
आर्यावर्त-गोंडवाना मिल गले मिले
सूख गया टैथीज, हिमालय-गंग मिले
सिन्धु-ब्रम्हपुत्रा आँचल मनु-पुत्र बसे
चाँद-चाँदनी हँसे भुलाकर सभी गिले
पावस-शीत-ग्रीष्म नव खुशियाँ लायेगी
.
भारत रत है मानव को सुख देने में
सुख-संतोष-सफलता नैया खेने में
बच्चा-बच्चा दानवीर के यश गाता
सत्य जानता गर्व न होता लेने में
सतनारायण पूजें माँ मुस्काएगी
***     

geet: sanjiv

गीत:
मातृ-वन्दना
संजीव
.
भारती के गीत गाना चाहिए
देश-हित मस्तक कटाना चाहिए
.
मातृभू भाषा जननि को कर नमन
गौ-नदी हैं मातृ सम बिसरा न मन
प्रकृति मैया को न मिला कर तनिक
शारदा माँ के चरण पर धर सुमन
लक्ष्मी माँ उसे ही मनुहारती
शक्ति माँ की जो उतारे आरती
स्वर्ग इस भू को बनाना चाहिए
.
प्यार माँ करती है हर सन्तान से
मुस्कुराती हर्ष सुख सम्मान से
अश्रु बरबस आँख में आते छलक
सुत शहीदों की सुम्हिमा-गान से
शहादत है प्राण-पूजा सब करें  
देश-सेवा का निरंतर पथ वरें
परिश्रम का मुस्कुराना चाहिए
.
देश-सेवा ही सनातन धर्म है
देश सेवा से न बढ़कर कर्म है
लिखा गीता बाइबिल कुरआन में
देश सेवा जिंदगी का मर्म है
जब जहाँ जितना बनें शुभ ही करें
मत किसी प्रतिदान की आशा करें
भाव पूजन का समाना चाहिए
***


navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
बदलावों से क्यों भय खाते?
क्यों न
हाथ, दिल, नजर मिलाते??
.
पल-पल रही बदलती दुनिया
दादी हो जाती है मुनिया
सात दशक पहले का तेवर
हो न प्राण से प्यारा जेवर
जैसा भी है सैंया प्यारा
अधिक दुलारा क्यों हो देवर?
दे वर शारद! नित्य नया रच
भले अप्रिय हो लेकिन कह सच
तव चरणों पर पुष्प चढ़ाऊँ
बात सरलतम कर कह जाऊँ
अलगावों के राग न भाते
क्यों न
साथ मिल फाग सुनाते?
.
भाषा-गीत न जड़ हो सकता
दस्तरखान न फड़ हो सकता
नद-प्रवाह में नयी लहरिया
आती-जाती सास-बहुरिया
दिखें एक से चंदा-तारे
रहें बदलते सूरज-धरती
धरती कब गठरी में बाँधे
धूप-चाँदनी, धरकर काँधे?
ठहरा पवन कभी क्या बोलो?
तुम ठहरावों को क्यों तोलो?
भटकावों को क्यों दुलराते?
क्यों न
कलेवर नव दे जाते?
.
जितने मुँह हैं उतनी बातें
जितने दिन हैं, उतनी रातें
एक रंग में रँगी सृष्टि कब?
सिर्फ तिमिर ही लखे दृष्टि जब
तब जलते दीपक बुझ जाते
ढाई आखर मन भरमाते
भर माते कैसे दे झोली
दिल छूती जब रहे न बोली
सिर्फ दिमागों की बातें कब
जन को भाती हैं घातें कब?
भटकावों को क्यों अपनाते?
क्यों न
पथिक नव पथ अपनाते?
***
२१.४.२०१५
     
  

peris se pati

बिटिया की पेरिस से पाती आई है....!

कुछ बड़े सवाल छोड़ता हमारे कोलकाता कार्यालय की साथी श्रीमती पूनम दीक्षित की बेटी अनन्या दीक्षित का पेरिस से अपनी माँ को लिखा पत्र !!!!

Mumma... here's my experience from the event with the PM last week smile emoticon
Thoda lamba hai... and kuch spelling mistakes ho sakti hain.. but anyhow... here you go !!!!

विगत सप्ताहमेरे लेटर बॉक्स में भारतीय दूतावास का एक आमंत्रण पत्र पड़ा मिला था. आमंत्रण था पेरिस मेंभारतीय समुदाय के कार्यक्रम काजिसमे हमारे प्रधान मंत्री, श्री नरेंद्र मोदीशिरकत करने वाले थे। मैं सबके बारे में तो नहीं बता सकतीपर पिछले करीब ४ सालों से विदेश में रहते हुएमैंने पाया है की अपने देश के प्रति मेरी भावनाएं और प्रगाढ़ हो गयी हैं। अंग्रेजी में कहावत है Distance makes the heart grow fonder , शायद मेरे साथ भी यही हुआ है। चतुर्दिक भिन्न संस्कृतियोंभिन्न भाषाओँ से घिरे रहने नेमुझे शायद भारतीयता के मूल्य का बेहतर आभास करवाया है. विदेश मेंअपने देश का कोई अनजान व्यक्ति,अपने देश का झंडाया कोई भी छोटा सा चिन्ह दिख जाये तो मन पुलकित हो उठता है।  तो ऐसे में,अशोक स्तम्भ से सजा हुआ भारतीय दूतावास का पत्र तो अनूठा था। कागज़ के छोटे से टुकड़े ने ख़ुशीगर्व,उत्साहजैसी कई अनुभूतियों के द्वार खोल दिये। मैं बेहद उत्सुक थी देखने के लिए कि दूर देश में भारतियों का और भारतीयता का समागम कैसा होगा। फ्रांस मेंकुछ घंटे के लिए भारत का एहसास कैसा होगा। 

कार्यक्रम का venue , पेरिस का प्रसिद्ध Louvre संग्रहालय था। विशालऐतिहासिक, आकर्षक, Louvre का नाम पेरिस के सबसे खूबसूरत नज़ारों में शुमार है। लिहाज़ामेरे अनुभव का आगाज़ बेहद शानदार हुआ. मैं वक़्त से कुछ पहले ही पहुँच गयी थीइसलिए मैं सोच रही थी की मुझे अधिक भीड़ का सामना नहीं करना पड़ेगा. पर जब मैं समारोह स्थल पर पहुंचीं मैं अनायास ही हंस पड़ी। मेरी हंसी का कारण आश्चर्य भी था और ये भी था की मुझे Deja vu का एहसास हुआ क्यूंकि Louvre की Carousel Gallery , हिंदुस्तान के रंग में ओत प्रोत थी। 

कार्यक्रम शुरू होने में ३ घंटे शेष थेपर यूरोप के हर कोने से आये हुए करीब ३ हज़ार लोग पहले ही कतार में खड़े थे. क्या बच्चेक्या बूढेक्या जवान.. ज्यादात्तर औरतों ने अपनी ठेठ हिंदुस्तानी पोशाकें पहन रखीं थींजैसे कोई त्यौहार हो.... और देखा जाये तो ऐसे मौके हम प्रवासी भारतीयों के लिए त्यौहार से कम भी नहीं होते। कइयों ने हाथ में भारत के झंडे पकड़ रखे थेकुछ के सर पर पगड़ी बंधी हुई थीऔर कुछ उत्साहीबीच बीच में भारत माता की जय के नारे लगा रहे थे। हिंदीबांग्ला और अलग अलग भारतीय भाषाओँ के कुछ शब्द उड़ते उड़ते कानों तक आ रहे थे। समस्त वातावरण जीवंत थात्वरित ऊर्जा से सराबोर। भारत और भारतीयों की जीवन्तताउनका जोश उन्हें समस्त विश्व से पृथक पहचान देता हैऔर इस उमंग का सीधा प्रसारण अपने सामने पाकरमैं मुस्कुराती हुईकुछ क्षण बस निहारती रही।
कतार में काफी देर खड़े रहना पड़ाऔर इस प्रतीक्षा ने कई और सवालकई और विचार जागृत कर दिये।

समारोह भारतउसकी संस्कृतिइतिहास और उसके विकास के सम्मान में आयोजित थापर अपने पास खड़े ज़्यदातर लोगों के व्यवहार ने मुझे सोचने पर विवश कर दियाकी क्या हम वाकई अपनी सभ्यता और भारतीयता का सम्मान करते हैं क्या जो उत्साह मुझे दिख रहा थाक्या वह केवल सतही था क़तार में मेरे इर्द गिर्द खड़े सभी लोगशिक्षितसभ्य प्रवासी भारतीय प्रतिनिधि थेऐसे प्रतिनिधि जो शायद किसी स्तर पर राजदूतों और प्रधान मंत्री या विदेश मंत्रियों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं. कहीं न कहीं हम जैसे भारतीयों को देखकर ही संभावित पर्यटक और शायद कुछ हद तक भावी निवेशक भीदेश और उसके लोगों के विषय में अपनी राय बनाते हैं. तो ऐसे मेंहम हिंदुस्तान की कैसी छवि प्रदर्शित करते हैं ? Slumdog Millionaire के बाद से वैसे भी अमूमन हर विदेशी धारावी को ही भारत की असल पहचान मानता है।

चलिए कतार में खड़े अधिकांश लोगों को हम अपना data sample समझते हैँ ...। अपने छोटे सेसाधारण अवलोकन पर मैंने पाया किज़्यादातर लोग अपने बोलचाल की भाषा के तौर पर अंग्रेजी का प्रयोग करते दिखे। आपस में भीऔर दुसरे भारतीयों से भी।  यह देखकर मुझे कुछ मायूसी हुईऔर कुछ हद तक क्रोध की भी अनुभूति हुई । 
एक ऐसा देशजो हज़ारों भाषाओँ का गढ़ हैउस देश के लोग एक ऐसी भाषा के प्रति झुकाव दिखाते हैंजो एक तरह से ३०० वर्षों की दासता की भी प्रतिरूप है. अंग्रेजी आज की दुनिया मेंअनिवार्य हैव्यवसाय के लिएशिक्षा के लिएपरन्तु आपसी स्तर पर क्यों? क्यों हम अपनी भिन्न मातृभाषाओं का उसी तरह सम्मान नहीं करते जिस तरह फ़्रांसिसी आज भी करते हैं। मेरे data sample में जो हिंदुस्तानी आपस मेंFrench का प्रयोग कर रहे थेउनसे मुझे शिकायत बेहद काम रहीक्यूंकि एक अरसा किसी देश और किसी भाषा के मध्य बिताने पर उसका आदतों में शुमार होना लाज़मी भी हैऔर यह भी दर्शाता है की हमने उस देश की भाषा का सम्मान किया है।मेरे क्रोध कामेरी निराशा का कारण यह थाकि पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण के कारण हम शायद कहीं न कहीं भारत की एक लचर छवि प्रदर्शित करते हैं एक ऐसे देश की छविजो अपनी सभ्यता को तरज़ीह नहीं देता।  एक ऐसा देश जो अपनी संस्कृति से कहीं अधिक आस्था अमरीकी या बर्तानी सभ्यता पर रखता है। यदि हम इन्ही देशों के lifestyle को अपना लक्ष्य बना कर चलते हैंतो क्या केवल खान- पानया धार्मिक रीतियों का पालन भर कर लेने से ही क्या हम सच में अपने अंदर की भारतीयता को बचा रख सकते हैं ?
...और बात यहाँ केवल अंग्रेजी के व्यवहार तक सीमित नहीं थी। कतार में खड़े रहते हुए किसी भी प्रकार आगे जाने का अनुचित प्रयास करनाफ़्रांसिसी सुरक्षा कर्मियों पर आँखें तरेरनाअसंयत होकर भीड़ को और भी विश्रृंखल रूप देना। देश से हज़ारों मीलों की दूरी होने के बावजूद अपनी पहचान पंजाबी,बंगालीइत्यादि के साथ ज़ाहिर करना। क्या यह व्यवहार उचित था क्या केवल अंग्रेजी बोलने परऐसी व्यवहारगत खामियां छुप जाएंगी ? ऐसे कई प्रश्नकतार के १ घंटे की अवधि ने मेरे दिमाग में कुलबुलाते छोड़ दिए।

खैरआखिरकार प्रतीक्षा के पश्चात कार्यक्रम आरम्भ हुआ. शुरुआत सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ हुई. पेरिस के मध्यकर्नाटकराजस्थानऔर बांग्ला लोक संगीत की गुंजन अद्भुत थी. वह रोमांच अद्भुत थाजब मैं अपनी कुर्सी पर बैठी हुईमंच पर गा रहे गायकों के साथवन्दे मातरम और टैगोर के गीत गुनगुना रही थी। बेहद अभिमान वाला क्षण थाजब सभागार में उपस्थित देशी-विदेशी सारे श्रोताराजस्थानी लोक गायकों के साथ गा रहे थेझूम रहे थेऔर once more की मांग कर रहे थे।
पर सबसे बेहतरीन और रोंगटे खड़े करने वाला लम्हा शायद वह था जब प्रधानमंत्री के आगमन परसबने खड़े होकर भारतीय राष्ट्रगीत को सम्मान दिया। प्रधानमंत्री मोदी का स्वागत सारी सभा ने नारोंतालियों और अतुल्य उत्साह के साथ किया। विदेशी भूमि परअपने देश के प्रतिनिधि के सम्मुख होना एक अलग ही आत्मीयता का भाव जगा रहा था।
हमेशा की तरहमोदी जी का भाषण उत्साहवर्धक और करारा था। हर नयी बात पर तालियों से गड़गड़ाता हुआ अभिनन्दन मिलता था।  भाषण का सीधा प्रसारण शायद आप सबने भी देखा ही होगा। यह जानकर अच्छा लगता है कि भारत की छवि को दुनिया भर में पुख्ता करने का प्रयास जारी है। भाषण में मोदी जी ने उल्लेख किया की कैसे एक काल में जगदगुरु की उपाधि पाने वालाशांति का दीपस्तंभ भारतकैसे आज भी UN Security Council की सदस्यता के लिए जूझ रहा हैपरन्तु पिछले कुछ वक़्त से भारत की वैश्विक छवि में परिवर्तन साफ नज़र आ रहा है. कूटनीति और राजनीति के गलियारों में भारतीय सिंह की गरज दोबारा जागने लगी हैऔर मोदी जी के कार्यक्रम और भाषण में इस जोश और भावना का पूरा अनुभव हुआ . एक देशवासी की हैसियत से यह अत्यन्य गर्व का विषय है. 
अंततः ११ अप्रैल की शाम बेहद यादगार थीऔर सदा रहेगी ।
                                                                                                                     अनन्या

रविवार, 19 अप्रैल 2015

doha salila: sanjiv

दोहा सलिला:
संजीव
.
चिंतन हो चिंता नहीं, सवा लाख सम एक
जो माने चलता चले, मंजिल मिलें अनेक
.
क्षर काया अक्षर वरे, तभी गुंजाए शब्द
ज्यों की त्यों चादर धरे, मूँदे नैन नि:शब्द
.
कथनी-करनी में नहीं, जिनके हो कुछ भेद
वे खुश रहते सर्वदा, मन में रखें न खेद
.
मुक्ता मणि दोहा 'सलिल', हिंदी भाषा सीप
'सलिल'-धर अनुभूतियाँ, रखिये ह्रदय-समीप
.
क्या क्यों कैसे कहाँ कब, प्रश्न पूछिए पाँच
पश्चिम कहता तर्क से, करें सत्य की जाँच
.
बिन गुरु ज्ञान न मिल सके, रख श्रृद्धा-विश्वास
पूर्व कहे माँ गुरु प्रथम, पूज पूर्ण हो आस
*  

dwipadiyaan: sanjiv

द्विपदियाँ
संजीव
.
ज्योति जलती तो पतंगे लगाते हैं  हाजरी
टेरता है जब तिमिर तो पतंगा आता नहीं
.
हों उपस्थित या जहाँ जो वहीं रचता रहे
सृजन-शाला में रखे, चर्चा करें हम-आप मिल
.
हों अगर मतभेद तो मनभेद हम बनने न दें
कार्य सारस्वत करेंगे हम सभी सद्भाव से
.
जब मिलें सीखें-सिखायें शारदा आशीष दें
विश्व भाषा हैं सनातन हमारी हिंदी अमर
.

रेल विभाग में हो रही गडबडियों को दूर करने के लिए सुझाव

जागो! नागरिक जागो:
रेल विभाग में हो रही गडबडियों को दूर करने के लिए सुझाव निम्न लिंक पर भेजें.

https://www.localcircles.com/a/home?t=c&pid=c1JkPSJmxm8W17A9FSAPUH6cnEfqHwd71PC2PI2aL08

रेलवे समाज सेवा और जनकल्याण भावना से संचालित विभाग है जिसके सुचारू सञ्चालन हेतु लाभांश आवश्यक है किन्तु लाभ एकमात्र लक्ष्य नहीं हो सकता. ग्राहक अधीनस्थ नौकर या गुलाम नहीं रेलवे का जीवनदाता है. नियम और नीति बनानेवालों तथा कर्मचारियों-अधिकारियों को यह तथ्य सदा स्मरण रखना चाहिए तथा कार्यस्थलों पर अंकित भी करना चाहिए. सभी सूचनाएं हिंदी तथा स्थानीय भाषाओँ में प्राथमिकता से हों. अंग्रेजी को अंत में स्थान हो.
१. तत्काल में कन्फर्म टिकिट निरस्त करने पर कोइ राशी वापिस न हो तो कोई टिकिट निरस्त करेगा ही क्यों? रेलवे ऐसी बर्थ खाली न रख अन्य यात्री को आवंटित कर राशी वसूल लेती है. अत: निरस्त करनेवाले यात्री को ७५% राशी लौटानी चाहिए.
२. तत्काल टिकिट खिड़की पर रोज बुकिंग करनेवाले एजेंटों की पहचान कर उन्हें अलग किया जाने पर ही वास्तविक यात्री को टिकिट मिलेगा. वर्तमान में कुछ लडके हर स्टेशन पर यही व्यवसाय करते हैं. रोज थोक में टिकिट लेते हैं और बेचते हैं और इसमें रेलवे कर्मचारी भी सम्मिलित होते हैं.
३. खान-पान का सामान निम्न गुणवत्ता का, मात्रा में कम और निर्धारित से अधिक कीमत में उपलब्ध कराना यात्री की जेब पर डाका डालने के समान है. टिकिट निरीक्षक या कंडकटर्स ऐसी शिकायत पर ध्यान नहीं देते. पेंट्रीकर वाले भी ठंडा-बेस्वाद भोजन देते हैं. रेलगाड़ी के वीरान स्थल के समीपस्थ होटलों मो निर्धारित मूल्य पर भोजन समग्रे उपलब्ध करने का ठेका देने का प्रयोग किया जाना चाहिए.
४. वातानुकूलित डब्बे में आगामी स्टेशन की जानकारी देना जरूरी है. रेल के मार्ग तथा स्टेशनों की दूरी व् समय दर्शाता रेखाचित्र दरवाजों के समीप अंकित किया जाए. कोच अटेंडेंट को जानकारी हो की किस बर्थ का यात्री कहाँ उतरेगा ताकि वह यात्री से बिस्तर ले सके और दरवाजा खोलकर उसे उतरने में सहायता कर सके. अभी तो वह सोता रहता है या अपनी बर्थ किसी को बेचकर लापता हो जाता है.
५. यात्री के यात्रा आरम्भ करने से लेकर यात्रा समाप्त करने तक बिस्तर उससे नहीं लिया चाहिए. यात्रा आरम्भ होने के २-३ स्टेशन बाद बिस्तर देना और २-३ स्टेशन पहले से बिस्तर वापिस ले लेना गलत है. जबलपुर-दिल्ली की रेलगाड़ियों में प्रायः कटनी-सिहोरा के बीच बिस्तर दिया जाता है और यहीं वापिस ले लिया जाता है. अटेंडेंट झगडालू तथा बदतमीज हैं.
६. कंबल पुराने-गंदे तथा टॉवल / नेपकिन न देना आम है. पैकेट पर लिखा होने की बाद भी नेपकिन नहीं दिया जाता. बेहतर हो की ठेकों से नेपकिन हटाकर उसकी राशि टिकिट में कम कर दी जाए. डिस्पोजेबल नेपकिन जी लौटना न हो भी इसका एक उपाय है.
७. यात्री को बिस्तर लेने या न लेने का विकल्प दिया जाए तो वह गंदा-पुराना सामान वापिस कर सकेगा और तब ठेकेदार स्वच्छ बिस्तर देने को बाध्य होगा.
८. यात्री के पास निर्धारित से अधिक वज़न का सामान होने पर तत्काल वज़न कर लगेज वैन में रखने और उतरते समय पावती देखकर लौटने की व्यवस्था हो तो रेलवे की आय बढ़ेगी तथा डब्बों में असुविधा घटेगी. अभी तो बारात या परिवार का पूरा समान ले जानेवाले अन्य यात्रियों के लिए मुश्किल कड़ी कर देते हैं और उन पर कोई कार्यवाही नहीं होती.
९. महत्वपूर्ण व्यक्ति को आवंटित टिकिट पर उसका चित्र अंकित हो ताकि उसका सहायक, रिश्तेदार या कोई अन्य यात्रा न कर सके.
१०. कैंटीन बहुत अधिक दाम पर खाद्य पदार्थ उपलब्ध करते हैं. अतः, प्लेटफोर्म पर स्थानीय लाइसेंसधारी विक्रेताओं को अवश्य रहने दिया जाए किन्तु उनकी सामग्री की गुणवत्ता और ताजे होने की संपुष्टि रोज की जाए.
११.  रिफंड के लिए टी.टी.इ. प्रमाणपत्र नहीं देते. अत: इसका प्रावधान समाप्त किया जाए और सेल्फ अटेस्टेशन की तरह टिकिटधारी की घोषणा को ही प्रमाण माना जाए. इससे आम आदमी में उत्तरदायित्व तथा सम्मान का भाव जाग्रत होगा.
१२. स्टिंग ऑपेरशन की तरह यात्री द्वारा कुछ गलत होते देखे जाने पर मोबाइल से रिकोर्ड/शूट कर ईमेल से भेजे जाने अथवा सूचित किये जाने के लिए कुछ चलभाष क्रमांक / ईमेल पते निर्धारित कर हर स्टेशन तथा डब्बों में अंकित किये जाए. इससे विभाग को बिना किसी वेतन के उसके ग्राहक ही सुचनादाता के रूप में सहयोग कर सकेंगे. आपात स्थिति, दुर्घटना अथवा नियमोल्ल्न्घन की स्थिति में तुरत कार्यवाही की जा सकेगी.
१३. रिफंड के नियम सरल किये जाएँ. कोई यात्र्र विवशता होने पर ही यात्रा निरस्त करता है. किसी की विवशता का लाभ उठाना घटिया मानसिकता है. यात्रे खुद को ठगा गया अनुभव करता है और फिर रेलवे को किसी न किसी रूप में क्षति पहुँचाकर संतुष्ट होता है. इसे रोका जाना चाहिए. रिफंड जल्दी से जल्दी और अधिक से अधिक किया जाए.
१४. आय वृद्धि के लिए डब्बों पर विज्ञापन दिए जाएँ जिनके साथ विज्ञापन अवधि बड़े अक्षरों में अंकित हो ताकि तत्काल बाद हटाकर नए विज्ञापन लगाये जा सकें.
१५. रेलवे के आगामी ५० वर्ष बाद की आवश्यकता और विस्तार का पूर्वानुमान कर बहुमंजिला इमारतें बनाई जाएँ. अधिकारियों के लिए बड़े-बड़े और अलग-अलग कक्ष समाप्त कर एक कक्ष में अधिकारी-कर्मचारी काम करें तो समयबद्धता, अनुशासन तथा बेहतर वातावरण होगा.     

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

doha

दोहा: 

सवा लाख से एक लड़, विजयी होता सत्य
मिथ्या होता पराजित, लज्जित सदा असत्य 

झूठ-अनृत से दूर रह, जो करता सहयोग
उसका ही हो मंच में, कुछ सार्थक उपयोग

सबका सबसे ही सधे, सत्साहित्य सुकाम 
चिंता करिए काम की, किन्तु रहें निष्काम 

संख्या की हो फ़िक्र कम, गुणवत्ता हो ध्येय 
सबसे सब सीखें सृजन, जान सकें अज्ञेय

doha salila: संजीव

दोहा सलिला:
संजीव
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फाँसी, गोली, फौज से, देश हुआ आजाद 
लाठी लूटे श्रेय हम, कहाँ करें फरियाद?
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देश बाँट कुर्सी गही, खादी ने रह मौन 
बेबस लाठी सिसकती, दूर गयी रह मौन 
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सरहद पर है गडबडी, जमकर हो प्रतिकार 
लालबहादुर बनें हम, घुसकर आयें मार  
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पाकी ध्वज फहरा रहे, नापाकी खुदगर्ज़ 
कुर्सी का लालच बना, लाइलाज सा मर्ज 
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दया न कर सर कुचल दो, देशद्रोह है साँप
कफन दफन को तरसता, देख जाय जग काँप
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पुलक फलक पर जब टिकी, पलक दिखा आकाश 
टिकी जमीं पर कस गये, सुधियों के नव पाश
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muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
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बोलना था जब तभी लब कुछ नहीं बोले
बोलना था जब नहीं बेबात भी बोले
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काग जैसे बोलते हरदम रहे नेता
गम यही कोयल सरीखे क्यों नहीं बोले?
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परदेश की ध्वजा रहे फहरा अगर नादां
निज देश का झंडा उठा हम मिल नहीं बोले
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रिश्ते अबोले रिसते रहे बूँद-बूँदकर
प्रवचन सुने चुप सत्य, सुनकत झूठ क्या बोले?
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बोलते बाहर रहे घर की सभी बातें
घर में रहे अपनों से अलग कुछ नहीं बोले.
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सरहद पे कटे शीश या छाती हुई छलनी  
माँ की बचायी लाज, लाल चुप नहीं बोले.
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