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गुरुवार, 4 जुलाई 2013

Kavita: amar prem dr. deepti gupta

मन पसंद रचना:

अमर प्रेम 

डॉ. दीप्ति गुप्ता 
*
युर्वेद के अनुसार जड़ी बूटियों की रानी सोमलता’ पौधे के आकार की एक अनूठी लता होती है! यह हिमालय और केरल के घाटों में ही उपलब्ध होती  है! इसमें ठीक १५ पत्तियाँ होती हैं! ये पत्तियाँ  पूर्णिमा के दिन ही देखी जा सकती हैयानी पूर्णिमा की  धवल कौमुदी में ही इसकी पत्तियाँ दिखाई देती हैं ! पूर्णिमा के अगले दिन  जैसे-जैसे सोम’ यानी चाँद  हर दिन घटता जाता है, सोमलता  की  पत्तियाँ  भी  एक-एक करके गिरनी शुरू हो  जाती हैं ! हर दिन एक पत्ती गिरती है  और उधर  इस तरह १५ दिन में चाँद का कृष्ण पक्ष आ जाता है और सोमलता  बिना पत्तियों  की  हो जाती  है ! लेकिन नए  चाँद  की जैसे ही नई यात्रा शुरू होती है,यानी पुन: चाँद बढ़ना शुरू होता है – सोमलता पर  हर रोज एक नई पत्ती आनी शुरू हो जाती है ! चन्द्रमा के घटने और बढने के साथ सोमलता  की  अद्भुत पत्तियाँ सोमरस को अपने में संजोए उगती  और झरती   हैं ! इन  पत्तियों का रस  सोने की सुई  से बड़ी सावधानी से निकाला जाता है !  जिसका प्रयोग 'सोम यज्ञ और रसायन’ उपचार में किया जाता है ! 'रसायनएक आयुर्वेदिक इलाज होता हैजो कायाकल्प’ करता है ! यानी वार्धक्य और मृत्यु की ओर जाते शरीर के चक्र को पुनरावर्तित  कर देता है !
It rewinds the life cycle. A person who had lost energy, vitality & charm due  to sickness or ageing, he regains it or we may say it rejuvenates a person. It  compensates what the human system lacks at every stage of life. This ‘Kaya kalp’  treatment  is  often misinterpreted as Geriatrics  or  old  age   care, but it is a process of  rejuvenation – a technique for reversing   age. Reversing is not a myth, it is a reality.
 
चन्द्रमा और सोमलता के इस अद्भुत अन्योन्याश्रित चुम्बकीय सम्बन्ध में हमने एक शाश्वत 'अमर प्रेम' की परिकल्पना की है ! यह परिकल्पना ही हमारी कविता का आधार है!
 
(इसके अलावा प्रेम का आधार मन होता है और मन का कारक या स्वामी चंद्रमा होता है! यह बात भी  परोक्ष रूप से इस कविता में समाहित है।)
 
 
 


               
'अमर प्रेम'
 
आसमां के तले  भी  आसमां  था  
वितान सा   रुपहला  इक तना था
तिलस्मे-ज़ीस्त  यूं  पसरा  हुआ था  
चाँद  पूरी  तरह  निखरा  हुआ  था 
प्रणय  के खेल हंस-हंस  खेलता था      
सोमरस   ‘सोमा’  पे   उडेलता  था;
                     
इधर  इक   ‘सोमलता’ धरती पे थी
देख कर चाँद  को जो खिल उठी थी
प्रिय  के  प्रणय  से  सिहरी  हुई सी
सिमटती,  मौन,   सहमी -  डरी  सी 
लहकती,लरजती,कंपकपी से भरी थी
सराबोर शिख से नख तक,  खडी थी;   
 
न कह पाती-''नही प्रिय अब संभलता  
करो बस,मुझ से अब नही सम्हलता''
समोती   झरता  अमिय  पत्तियों  में
सिमट  जाती मिलन प्रिय-प्रणयों में .
सिमटती   दूरियां,   धरती व  अम्बर
महकते वक़्त   केमौसम  के  तेवर;   
 
मिलन की  बीत घड़ियाँ कब गईऔर
दिवस बिछोह  का  आ  बैठा सर पर 
लगा दुःख से पिघलने चाँद  नभ पर  
परेशान,    विह्वल,   सोमा    धरा   पर 
'जियूंगी बिन पिया कैसे ?' विकल थी 
पल इक-इक था ज्यूं,युग-युग सा भारी;
 
थाम  कर सोमा की तनु-काय  न्यारी     
अनुरक्ति
  से  बाँध   बाहुपाश  प्यारी   
चाँद  अभिरत,  तब  अविराम  बोला
हृदय की विकलता का द्वार उसने खोला;
''मैं   लौटूंगा  प्रिय   देखो  तुरत ही
तुम्हारे बिन  ना  रह पाऊँगा मैं  भी ...के तुम  प्रिय  मेरी,  प्राण  सखा हो, 
के मेरे हर जनम की आत्म ऊर्जा हो;
 
तभी  से चाँद हर दिन-दिन  है  घटता 
लता 'सोमा'  का  तन पीड़ा  से कटता
ज्यूं  पत्ती  इक इक  कर गिरती जाती 
जान उसकी तिल-तिल निकलती जाती
दिवस  पन्द्रह  नज़र  आता  न  चंदा
तो  तजती  पत्तियाँ  'सोमाभी पन्द्रह
उजड़,  एकाकी   सी   बेजान   रहती 
दिवस  पन्द्रह   पड़ी  कुंठा ये  सहती;
   
तभी नव-रूप  धर चन्दा  फिर  आता 
खिला अम्बर पे  झिलमिल मुस्कुराता
झलक  पाकर  प्रियतम  की  सलोनी 
हृदय  सोमा  का  भी  तब लहलहाता
रगों  में  लहू   प्राणाधार  बन   कर   
दौड़ता  ऊर्जा   का  संचार  बन  कर
फूट  पड़ती  तभी  कोमल  सी  पत्ती 
लड़ी फ़िर दिन ब दिन पत्तों की बनती
 
उफ़क  पर  चाँदजब  बे-बाक़ खिलता
चैन  सोमा  को  तब धरती  पे  मिलता
सफ़र पूरा  यूं  होता  पन्द्रह दिनों का 
प्रणय - उन्मत्त  चाँद  गगन में चलता
छटा  सोमा   की  तब  होती निराली
ना  रहती  विरह की  बदरी भी काली;
 
सिमटते  चाँद  संग   पत्ती  का  झरना
निकलते  चाँद  पर   पत्ती  का  भरना
लखा   किसने   अनूठा   ये   समर्पण
ये  सोमा -चाँद  की  निष्ठा  का  दर्पण
देन  अद्भुत   अजब  मनुहार  की  ये
है  दुःख -हरनी कहानी  प्यार  की  ये !
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 deepti gupta <drdeepti25@yahoo.co.in>

FoI
Somlata   
Foto info
Somlata
  
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PNativeShrubUnknown
Photo: Thingnam Girija
Common name: Somlata, Gerard Jointfir • Hindi: Ain, Khanta, सोमलता Somlata • Ladakhi: ཆེཔཏ Chhepat, སོམlཏཱ Somlata • Malayalam: Buchchur • Sanskrit: सोमा Soma, सोमलता Somlata 
Botanical name:  Ephedra gerardiana    Family: Ephedraceae (Joint-Pine family)

Somlata is a low-growing rigid tufted shrub 1-2 ft tall, with numerous densely clustered erect slender, smooth, green, jointed branches, arising from a branched woody base. Branches have scales at the joints. Male cones are ovate, 6-8 mm, solitary or 2-3, with 4-8 flowers each with 5-8 anthers with fused filaments, and rounded fused bracts. Female cones are usually solitary. Fruit is ovoid 7-10 mm, with fleshy red succulent bracts enclosing the seeds. Goats and yaks feed on the branches during winter. Gerard Jointfir is found on stony slopes, gravel terraces and drier places in the Himalayas, from Afghanistan to Bhutan, at altitudes of 2400-5000 m. Flowering: May-June.
Medicinal uses:  Ephedra gerardiana has very likely been used in India since the Vedic period as a soma substitute. There came a time when the Aryans were no longer able to find the original psychoactive plant known as soma, perhaps because the identity of that plant was kept so secret or perhaps because it had been lost, and so it was that many people took to preparing the sacred soma beverage with substitute plants, one of which was E. gerardiana. This is how the plant received the name somalata, ‘plant of the moon’. The effects of E. gerardiana are more stimulating than visionary, however, indicating that this plant is not the original soma of the Vedas.
Photographed in Nubra Valley, Ladakh.

मंगलवार, 2 जुलाई 2013

English poem: hasmukh amathalal

angrejee kavita:

Nicely behave

 
I am simple and villager
But good to ears as manager
Can listen to natural music
Understand its language and basic

It is not difficult to understand or oblige
We feel very much part and realize
That we belong to nature
And there is surely a bright future

God too is happy with this formula
Floral beauty can be expressed in no stanzas
The flowers can be seen from distance
Its fragrance can be smelt at once

Nature only teaches us to love
Have firm faith and believe
That primarily we are human
We can’t be hunter or gunman

Cuckoo has no business to air melody
Sing in the praise of world and almighty
We can pick the thread of humanity
That world belongs to all with certainty

Try to speak in right way even if it is wrong
You may still feel closer and among
The approach may force you to change style
It is commended and felt worthwhile

We remain attached to worldly things
That forces us to crush nature’s wings
Block the river flow and remove forests
The greenery can provide us very best

Nature is never different
Was not in past or remain so in present
We got be tolerant about natural existence
That should be the approach and insistence

If we can’t make heaven
Let that remain hygienic even
Let birds fly freely and animals move
Let us behave nicely and improve
*

doha salila -sanjiv

दोहा सलिला doha salila:
*
ऋतु आयी बरसात की, आग बुझा मन मीत
रख निर्मल चादर 'सलिल', दागी करे न प्रीत
ritu aayee barsat ki, bujha bheeg kar aag
nirmal chadar rakh 'salil', lage n ismen daag
*
कुछ पल किया नशा, कहें: छुटे न आदत मीत
दूध पिया है जन्म से, नहीं मोह से भीत
kuchh pal kiya nasha kahen, chhute n adat meet
doodh piya hai jan se, naheen moh se bheet
*
की वर्षा हित प्रार्थना, छाता सँग ले मीत
प्रभु या इस विश्वास के, किसके गायें गीत
ki varsha hit prarthana, chhata sang le meet
prabhu ya is vishvas ke, kiske gayen geet
*
शिशु को फेंके हवा में, फिर भी हँसता मीत
अडिग भरोसा आप पर, भय जीते शुभ रीत
shishu ko fenken hawa men, fir bhee hnsata meet
adif bharosa aap par, bhay jeete shubh reet
*
रात अलार्म लगा रहे, प्रात जग सकें मीत
रहें ना रहें अनिश्चित, हुई आस की जीत
raat alarm laga rahe, praat jag saken meet
rahen naa rahen anishchit, huee aas kee jeet 
*

सोमवार, 1 जुलाई 2013

doha salila : pratinidhi dohe 2- purnima barman, sharjah






https://mail-attachment.googleusercontent.com/attachment/u/0/?ui=2&ik=dad2fa7c6e&view=att&th=13f98402c45af24d&attid=0.2&disp=inline&realattid=f_hil3ozvg1&safe=1&zw&saduie=AG9B_P8iolpeP3f4iPAHowfQMMHF&sadet=1372649683527&sads=IlPUldUpo9_MOaZSkH2grd_LiNYdoha salila

pratinidhi doha kosh 2-  

purnima barman, sharjah  

प्रतिनिधि दोहा कोष:2

 इस स्तम्भ के अंतर्गत आप पढ़ चुके हैं श्री नवीन सी. चतुर्वेदी के दोहे। आज अवगाहन कीजिए पूर्णिमा रचित दोहा सलिला में :       
    
पूर्णिमा बर्मन, शारजाह  
नाम- पूर्णिमा वर्मन

माता- श्रीमती सरोज प्रभा वर्मन।

पिता- श्री आदित्यकुमार वर्मन।

पति- श्री प्रवीण सक्सेना।

जन्मतिथि व स्थान- २७ जून १९५५ पीलीभीत, उत्तर प्रदेश, भारत।

शिक्षा-         साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि, स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत साहित्य पर शोध, पत्रकारिता और वेब डिजाइनिंग में डिप्लोमा।
प्रकाशित साहित्य- दो कविता संग्रह 'पूर्वा' और 'वक्त के साथ'।

संपर्क: पी.ओ.बाक्स- 25450, शारजाह, यू.ए.ई. चलभाष- 0509857675।
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दोहे-


होली के दोहे (नौ दोहे)


रंग-रंग राधा हुई, कान्हा हुए गुलाल
वृंदावन होली हुआ, सखियाँ रचें धमाल

होली राधा श्याम की, और न होली कोय

जो मन राँचे श्याम रंग, रंग चढ़े ना कोय


नंदग्राम की भीड़ में, गुमे नंद के लाल

सारी माया एक है, क्या मोहन क्या ग्वाल                    



आसमान टेसू हुआ, धरती सब पुखराज



मन सारा केसर हुआ, तन सारा ऋतुराज

बार-बार का टोंकना, बार-बार मनुहार

धूम-धुलेंडी गाँवभर, आँगनभर त्योहार


फागुन बैठा देहरी, कोठे चढ़ा गुलाल

होली टप्पा दादरा, चैती सब चौपाल


सरसों पीली चूनरी, कहे हवा संग छंद

नयी धूप में खुल रहे, मन के बाजूबंद


महानगर की व्यस्तता, मौसम घोले भंग

इक दिन की आवारगी, छुट्टी होली रंग


अंजुरी में भरपूर हों, सदा रूप रस गंध

जीवन में अठखेलियाँ, करती रहे सुगंध


गरमी के दोहे (पाँच दोहे)















       


गरमी ने खटका दिये, फिर वैशाखी द्वार
विष की बुझी कटार सी, चलने लगी बयार


छाँह लुकी बेबस हुई, आँख दिखाये जेठ
प्रियतम गुलमोहर हुए, देख जेठ की हेठ


भठ्ठी जैसा आँगना, जलते हुए दलान

खस से भीगी कोठरी, रखे बिजैना मान


मौसम के बाज़ार में, धूप दोपहर ताप

लू में गिरें टिकोरियाँ, ज्यों घोड़े की टाप
                                                                                                    नीम उदासी दोपहर, कच्ची अमिया धूप                                           
देह -द्वार अन्होंरियाँ लगीं फटकने सूप


बरसाती दोहे (बारह दोहे)



भादों आया देख कर, हुई सुहानी शाम

मौसम भी लिखने, लगा पत्तों पर पैगाम



चादर ओढ़ी सुरमई, छोड़ सिंदूरी गाम

बात-बात में बढ़ गई, बारिश से पहचान



गलियारे पानी भरे, आँगन भरे फुहार

सावन बरसा झूम के, भादों बही बयार



छम-छम बाजे पायली, रूके नहीं बरसात

हरी मलमली चूनरी, तितली चूड़ा सात



बादल में मादल बजे, नभ गूँजे संतूर

मन में बिच्छू सा चुभे, घर है कितनी दूर



कच्ची-पक्की मेड़ पर, बस छाते का साथ

हवा मनचली खींचती, पकड़-पकड़ कर हाथ



बरसी बरखा झूम के, सबके मिटे मलाल

खेतों में हलचल बढ़ी, खाली हैं चौपाल



गड़ गड़ बाजी बादरी, भिगो गई दालान

खट्टे मन मीठे हुए, क्या जामुन क्या आम

     

बादल की अठखेलियाँ, बारिश का उत्पात

ऐसा दोनों का मिलन, सूखे को दी मात



ताल-तलैया भर गये, झरनों की भरमार

मन-खिड़की से झाँकता, हरा-भरा व्यापार।



हरी नीम से झर रही, मीठी-मीठी धूप,

सावन की तनहाई में, काटे कटे न ऊब



छप्पर पिछले बरस का, इस मौसम की धार,

मन ही मन इस दर्द का, हर पल चढ़े उधार


फागुन के दोहे (दस दोहे)




ऐसी दौड़ी फगुनहट, ढाणी चौक फलाँग

फागुन आया खेत में, भर फसलों की माँग



आम बौरता आँगना, कोयल चढ़ी अटार

चंग द्वार दे दादरा, मौसम हुआ बहार



दूब फूल की गुदगुदी, बतरस चढ़ी मिठास

मुलके दादी भामरी, मौसम को है आस



वर गेहूँ बाली सजा, खड़ी फ़सल बारात

सुग्गा छेड़े पी कहाँ, सरसों पीली गात



ऋतु के मोखे सब खड़े, पाने को सौगात

मानक बाँटे छाँटकर, टेसू ढाक पलाश



ढीठ छोरियाँ तितलियाँ, रोकें राह वसंत

धरती सब क्यारी हुई, अम्बर हुआ पतंग



मौसम के मतदान में, हुआ अराजक काम

पतझर में घायल हुए, निरे पात पैगाम



दबा बनारस पान को, पीक दई यौं डार

चैत गुनगुनी दोपहर, गुलमोहर कचनार



सजे माँडने आँगने, होली के त्योहार

बुरी बलायें जल मरें, शगुन सजाये द्वार



मन-आँगन कुंकुम रचे, गाल अबीर गुलाल

लाली फागुन माह की, बढ़े साल दर साल



उदास गाँव (छह दोहे)


कहते-कहते रुक गयी, पीपलवाली छाँव

क्यों उदास होने लगे, उत्सववाले गाँव



आसमान में भर गयी, कर्फ्यूवाली धूप

सहमा-सहमा सा लगे, गुलमोहर का रूप



सोनेवाली बज रही, दोपहरी की झाँझ

अमलतास पर झूलता, मौन अगोरे साँझ



दिन पछाँह की हेठियाँ, लू लश्कर के साथ

चाँदीवाला मन लिये, रात फेरती हाथ



धूल-धूल होता रहा, पगडंडी का नेह

मृगतृष्णा गढ़ती रही, सड़कोंवाली देह



शहरों में बसने लगे, सुविधावाले लोग

माटीवाले प्यार में, लिखा रहा बस जोग



हुरियारों की भीड़ (दस दोहे)


 
भोर जली होली सखी, दिन भर रंग फुहार
टेसू की अठखेलियाँ, पूर गयीं घर-द्वार


जोश, -जश्न, -पिचकारियाँ,  -अंबर उड़ा गुलाल
हुरियारों -की -भीड़ में, जमने लगा धमाल


शहर रंग से भर गया, चेहरों पर उल्लास
गली-गली में टोलियाँ, बाँटें हास-हुलास


हवा-हवा केसर उड़ा, टेसू बरसा देह
बातों में किलकारियाँ, मन में मीठा नेह


ढोलक से मिलने लगे,--चौताले के बोल
कंठों में खिलने लगे, राग बसंत हिंदोल


मंद पवन में-उड़ रहे, होलीवाले छंद
ठुमरी,-टप्पा,,-दादरा, -हारमोनियम, -चंग


नदी चल पड़ी रंग की, थामे सबका हाथ
जिसको रंग पसंद हो, चले हमारे साथ


घर-घर में तैयारियाँ, ठंडाई पकवान
दर-देहरी पर रौनकें, सजे-धजे मेहमान


होली की दीवानगी, फगुआ का संदेश
ढाई आखर-प्रेम के, द्वेष बचे ना शेष


मन के तारों पर बजे, सदा सुरीली मीड़
शहरों में सजती रहे,--हुरियारों -की -भीड़

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poetry : Nicely behave hasmukh amatahlal

Nicely behave

I am simple and villager
But good to ears as manager
Can listen to natural music
Understand its language and basic

It is not difficult to understand or oblige
We feel very much part and realize
That we belong to nature
And there is surely a bright future

God too is happy with this formula
Floral beauty can be expressed in no stanzas
The flowers can be seen from distance
Its fragrance can be smelt at once

Nature only teaches us to love
Have firm faith and believe
That primarily we are human
We can’t be hunter or gunman

Cuckoo has no business to air melody
Sing in the praise of world and almighty
We can pick the thread of humanity
That world belongs to all with certainty

Try to speak in right way even if it is wrong
You may still feel closer and among
The approach may force you to change style
It is commended and felt worthwhile

We remain attached to worldly things
That forces us to crush nature’s wings
Block the river flow and remove forests
The greenery can provide us very best

Nature is never different
Was not in past or remain so in present
We got be tolerant about natural existence
That should be the approach and insistence

If we can’t make heaven
Let that remain hygienic even
Let birds fly freely and animals move
Let us behave nicely and improve
*