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शनिवार, 8 नवंबर 2025

नवंबर ८, सॉनेट, दीपक, मुखपोथी, हाइकु, गीत, संदेह अलंकार, बाल कविता, अंशु-मिंशू

 सलिल सृजन नवंबर ८

*
मुखपोथी
हर मुख पोथी पढ़ो पढ़ सको।
पढ़कर मुखड़ा गढ़ो गढ़ सको।।
विमुख सृजन से मत होना रे!
शब्द-चित्र नव मढ़ो मढ़ सको।।
सम्मुख आए बाधा-पर्वत
आमुख पग रख चढ़ो चढ़ सको।।
लहर-लहर सुख-दुख का संगम
अनगढ़ से कुछ गढ़ो गढ़ सको।।
८.११.२०२४
•••
सॉनेट
दीपक
जलते बाती-तेल उजाला करते,
दीपक पाता श्रेय, छिपाता तम को,
जैसे नेता ठगता है जन-गण को,
दोषी जन-गण भी न सत्य जो वरते।
औरों की सूखी पर नजरें धरते,
चलें न अपने घर की हरियाली को,
जोड़, न खाते, छोड़ यहीं सब मरते।
कुछ अतिभोगी कर्जा ले घृत पीते,
भोग भोगते, भोग भोगता उनको,
दोनों अति से बचो, चतुर जन कहते।
रखें समन्वय जो जीवन-रण जीते,
सत्य समझ आया है यह दीपक को,
जले न रवि सम और नहीं तम तहते।
८.११.२०२३
•••
कार्यशाला- ७-११-१६
आज का विषय- पथ का चुनाव
अपनी प्रस्तुति टिप्पणी में दें।
किसी भी विधा में रचना प्रस्तुत कर सकते हैं।
रचना की विधा तथा रचना नियमों का उल्लेख करें।
समुचित प्रतिक्रिया शालीनता तथा सन्दर्भ सहित दें।
रचना पर प्राप्त सम्मतियों को सहिष्णुता तथा समादर सहित लें।
किसी अन्य की रचना हो तो रचनाकार का नाम, तथा अन्य संदर्भ दें।
*
हाइकु
सहज नहीं
है 'पथ का चुनाव'
​विकल्प कई.
(जापानी त्रिपदिक वार्णिक छंद, ध्वनि ५-७-५)
*
मुक्तक
पथ का चुनाव आप करें देख-भालकर
सारे अभाव मौन सहें, लोभ टालकर
​पालें लगाव तो न तजें, शूल देखकर
भुलाइये 'सलिल' को न संबंध पालकर ​
​(२२ मात्रिक चतुष्पदिक मुक्तक छंद, टुकनर गुरु-लघु, पदांत गुरु-लघु-लघु-लघु) ​
*
***
त्रिपदिक गीत:
करो मुनादी...
*
करो मुनादी
गोडसे ने पहनी
उजली खादी.....
*
सवेरे कहा:
जय भोले भंडारी
फिर चढ़ा ली..
*
तोड़े कानून
ढहाया ढाँचा, और
सत्ता भी पाली..
*
बेचा ईमान
नेता हैं बेईमान
निष्ठा भुला दी.....
*
एक ने खोला
मंदिर का ताला तो -
दूसरा डोला..
*
रखीं मूर्तियाँ
करवाया पूजन
न्याय को तौला..
*
मत समझो
जनगण नादान
बात भुला दी.....
*
क्यों भ्रष्टाचार
नस-नस में भारी?
करें विचार..
*
आख़िरी पल
करें किला फतह
क्यों हिन्दुस्तानी?
*
लगाया भोग
बाँट-खाया प्रसाद.
सजा ली गादी.....
*
​***
हरियाणवी हाइकु
*
घणा कड़वा
आक करेला नीम
भला हकीम।१।
*
​गोरी गाम की
घाघरा-चुनरिया
नम अँखियाँ।२।
*
बैरी बुढ़ापा
छाती तान के आग्या
अकड़ कोन्या।३।
*
जवानी-नशा
पोरी पोरी मटकै
जोबन-बम।४।
*
कोरा कागज
हरियाणवी हाइकु
लिक्खण बैठ्या।५।
*
'हरि' का 'यान'
देस प्रेम मैं आग्गै
'बहु धान्यक'।६।
*
पीछै पड़ गे
टाबर चिलम के
होश उड़ गे।७।
*
मानुष एक
छुआछूत कर्‌या
रै बेइमान।८।
*
हैं भारतीय
आपस म्हं विरोध
भूल भी जाओ।९।
*
चिन्ता नै चाट्टी
म्हारी हाण कचोट
रंज नै खाई।१०।
*
ना है बाज का
चिडिय़ा नै खतरा
है चिड़वा का।११।
*
गुरू का दर्जा
शिक्षा के मन्दिर मैं
सबतै ऊँच्चा।१२।
*
कली नै माली
मसलण लाग्या हे
बची ना आस। १३।
*
माणस-बीज
मरणा हे लड़कै
नहीं झुककै।१४।
*
लड़ी लड़ाई
जमीन छुड़वाई
नेता लौटाई।१५।
*
भुख्खा किसाण
कर्ज से कर्ज तारै
माटी भा दाणे।१६।
*
बाग म्हं कूकै
बिरहण कोयल
दिल सौ टूक।१७।
*
चिट्ठी आई सै
आंख्या पाणी भरग्या
फौजी हरख्या।१८।
*
सब नै दंग
करती चूड़ी-बिंदी
मैडल ल्याई।१९।
*
लाडो आ तूं
किलकारी मारकै
सुपणा मेरा।२०।
८.११.२०१६
***
अलंकार सलिला: २९
संदेह अलंकार
*
किसी एक में जब दिखें, संभव वस्तु अनेक।
अलंकार संदेह तब, पहिचानें सविवेक।।
निश्चय करना कठिन हो, लख गुण-धर्म समान ।
अलंकार संदेह की, यह या वह पहचान ।।
गुरुदत्त जी, वहीदा जी, रहमान जी तथा जॉनी वाकर जी के जीवंत अभिनय, निर्देषम, कथा और मधुर गीतों के लिये
स्मरणीय हिंदी सिनेमा की कालजयी कृति 'चौदहवीं का चाँद' को हम याद कर रहे हैं शीर्षक गीत के लिये...
चौदहवीं का चाँद हो / या आफताब हो?
जो भी हो तुम / खुदा की कसम / लाजवाब हो।
नायिका के अनिंद्य रूप पर मुग्ध नायक यह तय नहीं कर पा रहा कि उसे चाँद माने या सूर्य? एक अन्य पुराना फिल्मी गीत है-
ख्वाब हो तुम या कोई हकीकत / कौन हो तुम बतलाओ?
देर से इतनी दूर खड़ी हो / और करीब आ जाओ।
यह तो आप सबने समझ ही लिया है कि नायक नायिका को देखकर सपना है या सच है? का निश्चय नहीं कर पा रहा है
और यह तय करने के लिये उसे निकट बुला रहा है। एक और फिल्मी गीत को लें-
मार दिया जाये कि छोड़ दिया जाए
बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाए?
आप सोच रहे होंगे अलंकार चर्चा के इच्छुक काव्य रसिकों से यह कैसा सलूक कि अलंकार छोड़कर सिनेमाई गीत वो भी
पुराने दोहराये जाएँ? धैर्य रखिये, यह अकारण नहीं है।
घबराइये मत, हम आपसे न तो गीत सुनाने को कह रहे हैं, न गीतकार, गायक या संगीतकार का नाम ही पूछ रहे हैं।
बताइए सिर्फ यह कि इन गीतों में कौन सी समानता है?
क्या?.. पर्दे पर नायक ने गाया है... यह तो पूछने जैसी बात ही नहीं है असल में ...समानता यह है कि तीनों गीतों में
नायक दुविधा का शिकार है- चाँद या सूरज?, सपना या सच?, मारे या छोड़े ?
यह दुविधा, अनिर्णय, संशय, शक या संदेह की मनःस्थिति जिस अलंकार की जननी है, उसका नाम है संदेह अलंकार।
रूप, रंग आदि की समानता होने के कारण उपमेय में उपमान का संशय होने पर संदेह अलंकार होता है।
जहाँ रूप, रंग और गुण की समानता के कारण किसी वस्तु को देखकर यह निश्चचय न हो सके कि यह वही वस्तु है या
नहीं? वहाँ संदेह अलंकार होता है।
यह अलंकार तब होता है जब एक वस्तु में किसी दूसरी वस्तु का संदेह तो हो पर निश्चय न हो। इसके वाचक शब्द कि,
किधौं, धौं, अथवा, या आदि हैं।
यह-वह का संशय बने, अलंकार संदेह।
निश्चय बिन हिलता लगे, विश्वासों का गेह।।
इस-उस के निश्चय बिना हो मन हो डाँवाडोल।
अलंकार संदेह को, ऊहापोह से तोल।।
उदाहरण:
१. कौन बताये / वीर कहूँ या धीर / पितामह को?
२. नग, जुगनू या तारे? / बूझ न पाये हारे
३. नर्मदा हो, वर्मदा हो / शर्मदा हो धर्मदा
जानता माँ मात्र इतना / तुम सनातन मर्मदा
४. सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है।
सारी ही कि नारी है कि नारी ही कि सारी है।।
यहाँ द्रौपदी के चीरहरण की घटना के समय का चित्रण है कि द्रौपदी के चारों और चीर के ढेर देखकर दर्शकों को संदेह
हुआ कि साड़ी के बीच नारी है या नारी के बीच साड़ी है?
५. को तुम तीन देव मँह कोऊ, नर नारायण की तुम दोऊ।
यहाँ संदेह है कि सामने कौन उपस्थित है ? नर, नारायण या त्रिदेव (ब्रम्हा-विष्णु-महेश)।
६ . परत चंद्र प्रतिबिम्ब कहुँ जलनिधि चमकायो।
कै तरंग कर मुकुर लिए शोभित छवि छायो।।
कै रास रमन में हरि मुकुट आभा जल बिखरात है।
कै जल-उर हरि मूरति बसत ना प्रतिबिम्ब लखात है।।
पानी में पड़ रही चंद्रमा की छवि को देखकर कवि संशय में है कि यह पानी में चन्द्र की छवि है या लहर हाथ में दर्पण लिये
है? यह रास लीला में निमग्न श्री कृष्ण के मुकुट की परछाईं है या सलिल के ह्रदय में बसी प्रभु की प्रतिमा है?
७. तारे आसमान के हैं आये मेहमान बनि,
केशों में निशा ने मुक्तावलि सजायी है।
बिखर गयी है चूर-चूर है के चंद कैधों,
कैधों घर-घर दीपमालिका सुहाई है।।
इस प्रकृति चित्रण में संशय है कि आसमान में तारे अतिथि बनकर आये हैं, अथवा रजनी ने मुक्तावलि सजायी है,
चंद्रमा चूर होकर बिखर गया है या घर -घर में दिवाली मनाई जा रही है.
८. कज्जल के तट पर दीपशिखा सोती है कि,
श्याम घन मंडल में दामिनी की धारा है?
यामिनी के अंचल में कलाधर की कोर है कि,
राहू के कबंध पै कराल केतु तारा है?
'शंकर' कसौटी पर कंचन की लीक है कि,
तेज ने तिमिर के हिए में तीर मारा है?
काली पाटियों के बीच मोहिनी की मांग है कि,
ढाल पर खांडा कामदेव का दुधारा है.?
इस छंद में संदेह अलंकार की ४ बार आवृत्ति है. संदेह है कि- काजल के किनारे दिये की बाती है या काले बादलों के बीच बिजली?, रात के आँचल में चंद्रमा की कोर है या राहू के कंधे पर केतु?, कसौटी के पत्थर पर परखे जा रहे सोने की रेखा है या अँधेरे के दिल में उजाले का तीर?, काले बालों के बीच सुन्दरी की माँग है या ढाल पर कामदेव का दुधारा रखा है?
९. नित सुनहली साँझ के पद से लिपट आता अँधेरा,
पुलक पंखी विरह पर उड़ आ रहा है मिलन मेरा।
कौन जाने बसा है उस पार
तम या रागमय दिन? - महादेवी वर्मा
१०. जननायक हो जनशोषक
पोषक अत्याचारों के?
धनपति हो या धन-गुलाम तुम
दोषी लाचारों के? -सलिल
११. भूखे नर को भूलकर, हर को देते भोग।
पाप हुआ या पुण्य यह?, करुँ हर्ष या सोग?.. -सलिल
१२. राधा मुख आली! किधौं, कैधौं उग्यो मयंक?
१३. कहहिं सप्रेम एक-इक पाहीं। राम-लखन सखि! होब कि नाहीं।।
१४. संसद या मंडी कहूँ?
हल्ला-गुल्ला हो रहा
आम आदमी रो रहा।
१५. जीत हुई या हार
भाँज रहे तलवार
जन हित होता उपेक्षित।
संदेह अलंकार का प्रयोग सामाजिक विसंगतियों और त्रासदियों के चित्रण में भी किया जा सकता है।
८-११-२०१५
===
बाल कविता:
*
अंशू-मिंशू दो भाई हिल-मिल रहते थे हरदम साथ.
साथ खेलते साथ कूदते दोनों लिये हाथ में हाथ..

अंशू तो सीधा-सादा था, मिंशू था बातूनी.
ख्वाब देखता तारों के, बातें थीं अफलातूनी..

एक सुबह दोनों ने सोचा: 'आज करेंगे सैर'.
जंगल की हरियाली देखें, नहा, नदी में तैर..

अगर बड़ों को बता दिया तो हमें न जाने देंगे,
बहला-फुसला, डांट-डपट कर नहीं घूमने देंगे..

छिपकर दोनों भाई चल दिये हवा बह रही शीतल.
पंछी चहक रहे थे, मनहर लगता था जगती-तल..

तभी सुनायी दीं आवाजें, दो पैरों की भारी.
रीछ दिखा तो सिट्टी-पिट्टी भूले दोनों सारी..

मिंशू को झट पकड़ झाड़ पर चढ़ा दिया अंशू ने.
'भैया! भालू इधर आ रहा' बतलाया मिंशू ने..

चढ़ न सका अंशू ऊपर तो उसने अकल लगाई.
झट ज़मीन पर लेट रोक लीं साँसें उसने भाई..

भालू आया, सूँघा, समझा इसमें जान नहीं है.
इससे मुझको कोई भी खतरा या हानि नहीं है..

चला गए भालू आगे, तब मिंशू उतरा नीचे.
'चलो उठो कब तक सोओगे ऐसे आँखें मींचें.'

दोनों भाई भागे घर को, पकड़े अपने कान.
आज बचे, अब नहीं अकेले जाएँ मन में ठान..

धन्यवाद ईश्वर को देकर, माँ को सच बतलाया.
माँ बोली: 'संकट में धीरज काम तुम्हारे आया..

जो लेता है काम बुद्धि से वही सफल होता है.
जो घबराता है पथ में काँटें अपने बोता है..

खतरा-भूख न हो तो पशु भी हानि नहीं पहुँचाता.
मानव दानव बना पेड़ काटे, पशु मार गिराता..'

अंशू-मिंशू बोले: 'माँ! हम दें पौधों को पानी.
पशु-पक्षी की रक्षा करने की मन में है ठानी..'

माँ ने शाबाशी दी, कहा 'अकेले अब मत जाना.
बड़े सदा हितचिंतक होते, अब तुमने यह माना..'
८.११.२०१० 
***

शुक्रवार, 7 नवंबर 2025

नवंबर ७, ग़ज़ल, अवधी, गीत, दोहा, यमकीय दोहे,

सलिल सृजन नवंबर ७
*
ग़ज़ल
० 
चंपई शबाब का दीदार है ग़ज़ल
गुलाबी उद्गार का इज़हार है ग़ज़ल

नफरतों के दौर को देती चुनौतियाँ
प्यार प्यार प्यार सिर्फ प्यार है ग़ज़ल

आदाब कह रही है, आ दाब मत समझ
नेकियों के वास्ते आभार है ग़ज़ल

छुईमुई नहीं रही, लड़ जंग जीतती
राहें न रोक तीर है, तलवार है ग़ज़ल

हाले-दिल, हकीकतें भी कर रही बयां
इंतिजार है, विसाले-यार है गजल

पलक पाँवड़े बिछा सब राह देखते
हैं चाह हर बशर की, इतवार है ग़ज़ल

पूर्णिका या मुक्तिका, सजल या तेवरी
गीतिका साहित्य का सिंगार है ग़ज़ल
•••
अवधी गीत 
सुनो कथा यह चंदावाली  
भारत सुखी भवा। 
उतरो दक्खिन ध्रुव पै इसरो
जग में प्रथम हुआ। 

राम-बान सम राकिट छोड़िन 
नील गगन चीरन। 
कक्षा पे कक्षाएँ बदलिन
सब दुनिया हेरन।
कूद-फाँद के चंदा की 
कक्षा में पैठि गवा। 
सुनो कथा यह चंदावाली  
भारत सुखी भवा।

छटा देखि चंदा की पप्पू 
हुलस-पुलक नाचब।
सुमिर रह्यो बजरंगबली के 
जिन सागर लाँघव। 
लैंडर बिकरम झट चंदा के 
झुककर नमन किया। 
सुनो कथा यह चंदावाली  
भारत सुखी भवा। 
 
दर्वज्जे से निकरब बहिरे 
रोवर घूमि रहा। 
पद-चिन्हन के फोटू भेजब 
सब जग जाँचि रहा। 
गड्ढा लाँघिब, पानी खोजब 
अघटित घटित हुआ।     
सुनो कथा यह चंदावाली  
भारत सुखी भवा।
७.११.२०२४
•••
मुक्तिका
क्यों चाहते हो खुशी, यश, सुख, प्यार?
क्या पता कितनी हैं श्वास उधार?

तुम कह रहे हो जिसे अपना यार
वह सिर्फ सपना सच करो स्वीकार

अनुबंध हैं; संबंध सचमुच मीत
हैं सत्य पर प्रतिबंध नित्य हजार

बावरी है आस, प्यास अनंत है
संत्रास; जग-उपहास कह उपहार

जग पूजता है मौन रह दिन-रात
प्रभु को; पुजारी कर रहा व्यापार

है श्रेष्ठ कृति; खुद को समझ मत दीन
पुरुषार्थ ही परमार्थ का आगार

नपना न कोई है सनातन सत्य
तपना नियति कर सूर्य अंगीकार
***
मुक्तक
परिंदों ने किया कलरव सुन तुम्हारी हँसी निर्मल
निर्झरों की तरंगों ने की नकल तो हुई कलकल
ज़िन्दगी हँसती रहे कर बंदगी चाहा खुदा से
मिटेगा दुःख का प्रदूषण रहो हँसते 'सलिल' पल-पल
७.११.२०१९
मुक्तक
'समझ लेंगे' मिली धमकी बताओ क्या करें हम?
समर्पण में कुशल है, रहेंगे संबंध कायम
कहो सबला या कि अबला, बला टलती नहीं है
'सलिल' चाहत बिना राहत कभी मिलती नहीं है
७.११.`०१६
***
रसानंद दे छंद नर्मदा :५
दोहा की छवियाँ अमित
- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
दोहा की छवियाँ अमित, सभी एक से एक ।
निरख-परख रचिए इन्हें, दोहद सहित विवेक ।।
रम जा दोहे में तनिक, मत कर चित्त उचाट ।
ध्यान अधूरा यदि रहा, भटक जायेगा बाट ।।
दोहा की गति-लय पकड़, कर किंचित अभ्यास ।
या मात्रा गिनकर 'सलिल', कर लेखन-अभ्यास ।।
दोहा छंद है शब्दों की मात्राओं के अनुसार रचा जाता है। इसमें दो पद (पंक्ति) तथा प्रत्येक पद में दो चरण (विषम १३ मात्रा तथा सम) होते हैं. चरणों के अंत में यति (विराम) होती है। दोहा के विषम चरण के आरम्भ में एक शब्द में जगण निषिद्ध है। विषम चरणों में कल-क्रम (मात्रा-बाँट) ३ ३ २ ३ २ या ४ ४ ३ २ तथा सम चरणों में ३ ३ २ ३ या ४ ४ ३ हो तो लय सहज होती है, किन्तु अन्य निषिद्ध नहीं हैं।संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, सार्थकता, मर्मबेधकता तथा सरसता उत्तम दोहे के गुण हैं।
कथ्य, भाव, रस, बिम्ब, लय, अलंकार, लालित्य ।
गति-यति नौ गुण नौलखा, दोहा हो आदित्य ।।
डॉ. श्यामानन्द सरस्वती 'रौशन', खडी हिंदी
दोहे में अनिवार्य हैं, कथ्य-शिल्प-लय-छंद।
ज्यों गुलाब में रूप-रस. गंध और मकरंद ।।
रामनारायण 'बौखल', बुंदेली
गुरु ने दीन्ही चीनगी, शिष्य लेहु सुलगाय ।
चित चकमक लागे नहीं, याते बुझ-बुझ जाय ।।
मृदुल कीर्ति, अवधी
कामधेनु दोहावली, दुहवत ज्ञानी वृन्द ।
सरल, सरस, रुचिकर,गहन, कविवर को वर छंद ।।
सावित्री शर्मा, बृज भाषा
शब्द ब्रम्ह जाना जबहिं, कियो उच्चरित ॐ ।
होने लगे विकार सब, ज्ञान यज्ञ में होम ।।
शास्त्री नित्य गोपाल कटारे, संस्कृत
वृक्ष-कर्तनं करिष्यति, भूत्वांधस्तु भवान् ।
पदे स्वकीये कुठारं, रक्षकस्तु भगवान् ।।
ब्रम्हदेव शास्त्री, मैथिली
की हो रहल समाज में?, की करैत समुदाय?
किछु न करैत समाज अछि, अपनहिं सैं भरिपाय ।।
डॉ. हरनेक सिंह 'कोमल', पंजाबी
पहलां बरगा ना रिहा, लोकां दा किरदार।
मतलब दी है दोस्ती, मतलब दे ने यार।।
बाबा शेख फरीद शकरगंज (११७३-१२६५)
कागा करंग ढढोलिया, सगल खाइया मासु ।
ए दुई नैना मत छुहऊ, पिऊ देखन कि आसु ।।
दोहा के २३ प्रकार लघु-गुरु मात्राओं के संयोजन पर निर्भर हैं।
गजाधर कवि, दोहा मंजरी
भ्रमर सुभ्रामर शरभ श्येन मंडूक बखानहु ।
मरकत करभ सु और नरहि हंसहि परिमानहु ।।
गनहु गयंद सु और पयोधर बल अवरेखहु ।
वानर त्रिकल प्रतच्छ, कच्छपहु मच्छ विसेखहु ।।
शार्दूल अहिबरहु व्यालयुत वर विडाल अरु.अश्व्गनि ।
उद्दाम उदर अरु सर्प शुभ तेइस विधि दोहा करनि ।।
*
दोहा के तेईस हैं, ललित-ललाम प्रकार ।
व्यक्त कर सकें भाव हर, कवि विधि के अनुसार ।।
भ्रमर-सुभ्रामर में रहें, गुरु बाइस-इक्कीस ।
शरभ-श्येन में गुरु रहें, बीस और उन्नीस ।।
रखें चार-छ: लघु सदा, भ्रमर सुभ्रामर छाँट ।
आठ और दस लघु सहित, शरभ-श्येन के ठाठ ।।
भ्रमर- २२ गुरु, ४ लघु=४८
बाइस गुरु, लघु चार ले, रचिए दोहा मीत ।
भ्रमर सद्रश गुनगुन करे, बना प्रीत की रीत ।।
सांसें सांसों में समा, दो हो पूरा काज ।
मेरी ही तो हो सखे, क्यों आती है लाज ?
सुभ्रामर - २१ गुरु, ६ लघु=४८
इक्किस गुरु छ: लघु सहित, दोहा ले मन मोह ।
कहें सुभ्रामर कवि इसे, सह ना सकें विछोह ।।
पाना-खोना दें भुला, देख रहा अज्ञेय ।
हा-हा,ही-ही ही नहीं, है सांसों का ध्येय ।।
शरभ- २० गुरु, ८ लघु=४८
रहे बीस गुरु आठ लघु का उत्तम संयोग ।
कहलाता दोहा शरभ, हरता है भव-रोग ।।
हँसे अंगिका-बज्जिका, बुन्देली के साथ ।
मिले मराठी-मालवी, उर्दू दोहा-हाथ ।।
श्येन- १९ गुरु, १० लघु=४८
उन्निस गुरु दस लघु रहें, श्येन मिले शुभ नाम ।
कभी भोर का गीत हो, कभी भजन की शाम ।।
ठोंका-पीटा-बजाया, साधा सधा न वाद्य ।
बिना चबाये खा लिया, नहीं पचेगा खाद्य ।।
मंडूक- १८ गुरु, १२ लघु=४८
अट्ठारह-बारह रहें, गुरु-लघु हो मंडूक।
अड़तालीस आखर गिनें, कहे कोकोल कूक।।
दोहा में होता सदा, युग का सच ही व्यक्त ।
देखे दोहाकार हर, सच्चे स्वप्न सशक्त ।।
मरकत- १७ गुरु, १४ लघु=४८
सत्रह-चौदह से बने, मरकत करें न चूक ।।
निराकार-निर्गुण भजै, जी में खोजे राम ।
गुप्त चित्र ओंकार का, चित में रख निष्काम ।।
दोहा के शेष प्रकारों पर फिर कभी विचार करेंगे।
===
***
नवगीत:
*
एक हाथ मा
छुरा छिपा
दूजे से मिले गले
ताहू पे शिकवा
ऊगे से पैले
भोर ढले.
*
केर-बेर खों संग
बिधाता हेरें
मुंडी थाम.
दोउन खों
प्यारी है कुर्सी
भली करेंगे राम.
उंगठा छाप
लुगाई-मोंड़ा
सी एम - दावेदार।
पिछड़ों के
हम भये मसीहा
अगड़े मरें तमाम।
बात नें मानें जो
उनखों जुटे के तले मलें
ताहू पे शिकवा
ऊगे से पैले
भोर ढले.
एक हाथ मा
छुरा छिपा
दूजे से मिले गले
*
सहें न तिल भर
कोसें दिन भर
पीड़ित तबहूँ हम.
अपनी लाठी
अपन ई भैंसा
लैन न देंहें दम.
सहनशीलता
पाठ पढ़ायें
खुद न पढ़ें, लो जान-
लुच्चे-लोफर
फूंके पुतला
रोको तो मातम।
देस-हितों से
का लेना है
कैसउ ताज मिले.
ताहू पे शिकवा
ऊगे से पैले
भोर ढले.
एक हाथ मा
छुरा छिपा
दूजे से मिले गले
*
***
नवगीत:
नौटंकियाँ
*
नित नयी नौटंकियाँ
हो रहीं मंचित
*
पटखनी खाई
हुए चित
दाँव चूके
दिन दहाड़े।
छिन गयी कुर्सी
बहुत गम
पढ़ें उलटे
मिल पहाड़े।
अब कहो कैसे
जियें हम?
बीफ तजकर
खायें चारा?
बना तो सकते
नहीं कुछ
बन सके जो
वह बिगाडें।
न्याय-संटी पड़ी
पर सुधरे न दंभित
*
'सहनशीली
हो नहीं
तुम' दागते
आरोप भारी।
भगतसिंह, आज़ाद को
कब सहा तुमने?
स्वार्थ साधे
चला आरी।
बाँट-रौंदों
नीति अपना
सवर्णों को
कर उपेक्षित-
लगाया आपात
बापू को
भुलाया
ढोंगधारी।
वाममार्गी नाग से
थे रहे दंशित
*
सह सके
सुभाष को क्या?
क्यों छिपाया
सच बताओ?
शास्त्री जी के
निधन को
जाँच बिन
तत्क्षण जलाओ।
कामराजी योजना
जो असहमत
उनको हटाओ।
सिक्ख-हत्या,
पंडितों के पलायन
को भी पचाओ।
सह रहे क्यों नहीं जनगण ने
किया जब तुम्हें दंडित?
७.११.२०१५
***
प्रयोगात्मक यमकीय दोहे:
*
रखें नोटबुक निज नहीं, कलम माँगते रोज
नोट कर रहे नोट पर, क्यों करिये कुछ खोज
*
प्लेट-फॉर्म बिन आ रहे, प्लेटफॉर्म पर लोग
है चुनाव बन जायेगा, इस पर भी आयोग
*
हुई गर्ल्स हड़ताल क्यों?, पूरी कर दो माँग
'माँग भरो' है माँग तो, कौन अड़ाये टाँग?
*
एग्रीगेट कर लीजिये, एग्रीगेट का आप
देयक तब ही बनेगा, जब हो पूरी माप
एग्रीगेट = योग, गिट्टी
*
फेस न करते फेस को, छिपते फिरते नित्य
बुक न करे बुक फुकटिया, पाठक सलिल अनित्य
*
सर! प्राइज़ किसको मिला, अब तो खोलें राज
सरप्राइज़ हो खत्म तो, करें शेष जो काज
*
नवगीत:
*
जो जी चाहे करें
हमारा राज है
.
मंत्री से संत्री तक जो है, अपना है
मनमाफिक कानून-व्यवस्था सपना है
जनता का क्या? वह रौंदी ही जानी है
फाँसी पर लटकाना और लटकना है
बने मियाँ मिट्ठू
सर धारा ताज है
जो जी चाहे करें
हमारा राज है
.
बस से धक्का दें या रौंद-कुचल मारें
अनुग्रहित हो, हम जैसे चाहें-तारें
जान गयी तो रुपये ले मुँह बंद रखो
मुँह खोलें जो वे अपना जीवन हारें
कहीं न कहना
हुआ कोढ़ में खाज है
जो जी चाहे करें
हमारा राज है
.
बादल बरपा करे कहर तो मत बोलो
आप शाप हो तो अपने लब मत खोलो
कमल सदा कीचड़ में खिलते, मौन रहो
पंजा रिश्वत गिने, न लेकिन तुम डोलो
सत्ताधारी सदा
गिराता गाज है
जो जी चाहे करें
हमारा राज है
५.५.२०१५ 
००० 

गुरुवार, 6 नवंबर 2025

नवंबर ६, सोरठा गीत, अमरकंटक छंद, मुक्तक, कृष्णमोहन छन्द, नासदीय सूक्त,


सलिल सृजन नवंबर ६
*
सोरठा गीत
कली रखे यदि शूल, कुसुम वीर हो देश में।
कोई सके न भूल, देख बदनीयत से उसे।।
*
तम का करते अंत, तभी रहें जब साथ मिल।
दीपक बाती तेल, ज्योति न होते जब अलग।।
मार मिलातीं धूल, असुरों को दुर्गा शुभे।
सिंह देता रद हूल, कर गर्जन अरि वक्ष में।।
*
चाह रहा है देश, नारी बदले भूमिका।
धारे धारिणी वेश, शुभ-मंगल कर भूमि का।।
वन हों नदिया कूल, शांति स्वच्छता पा विहग।
नभ-सागर मस्तूल, फहराए निज परों के।।
*
पंचतत्व रख शुद्ध, पंच पर्व हम मनाएँ।
करें अनय से युद्ध, विजय विनय को दिलाएँ।।
सुख सपनों में झूल, समय गँवाएँ व्यर्थ मत।
जमा जमीं में मूल, चलो!छुएँ आकाश हम।।
६-११-२०२१
***
हिन्दी के नये छंद १३
अमरकंटक छंद
विधान-
1. प्रति पंक्ति 7 मात्रा
2. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम लघु लघु लघु गुरु लघु लघु
गीत
नरक चौदस
.
मनुज की जय
नरक चौदस
.
चल मिटा तम
मिल मिटा गम
विमल हो मन
नयन हों नम
पुलकती खिल
विहँस चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
घट सके दुःख
बढ़ सके सुख
सुरभि गंधित
दमकता मुख
धरणि पर हो
अमर चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
विषमता हर
सुसमता वर
दनुजता को
मनुजता कर
तब मने नित
विजय चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
मटकना मत
भटकना मत
अगर चोटिल
चटकना मत
नियम-संयम
वरित चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
.
बहक बादल
मुदित मादल
चरण नर्तित
बदन छागल
नरमदा मन
'सलिल' चौदस
मनुज की जय
नरक चौदस
६-११-२०१८
.......
मुक्तक
*
स्नेह का उपहार तो अनमोल है
कौन श्रद्धा-मान सकता तौल है?
भोग प्रभु भी आपसे ही पा रहे
रूप चौदस भावना का घोल है
*
स्नेह पल-पल है लुटाया आपने।
स्नेह को जाएँ कभी मत मापने
सही है मन समंदर है भाव का
इष्ट को भी है झुकाया भाव ने
*
'फूल' अंग्रेजी का मैं, यह जानता
'फूल' हिंदी की कदर पहचानता
इसलिए कलियाँ खिलाता बाग़ में
सुरभि दस दिश हो यही हठ ठानता
*
उसी का आभार जो लिखवा रही
बिना फुरसत प्रेरणा पठवा रही
पढ़ाकर कहती, लिखूँगी आज पढ़
साँस ही मानो गले अटका रही
२९.१०.२०१७
***
हिंदी के नए छंद १२
कृष्णमोहन छन्द
विधान-
1. प्रति पंक्ति 7 मात्रा
2. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम गुरु लघु गुरु लघु लघु
गीत
रूप चौदस
.
रूप चौदस
दे सदा जस
.
साफ़ हो तन
साफ़ हो मन
हों सभी खुश
स्वास्थ्य है धन
बो रहा जस
काटता तस
बोलती सच
रूप चौदस.
.
है नहीं धन
तो न निर्धन
हैं नहीं गुण
तो न सज्जन
ईश को भज
आत्म ले कस
मौन तापस
रूप चौदस.
.
बोलना तब
तोलना जब
राज को मत
खोलना अब
पूर्णिमा कह
है न 'मावस
रूप चौदस
.
मैल दे तज
रूप जा सज
सत्य को वर
ईश को भज
हो प्रशंसित
रूप चौदस
.
वासना मर
याचना मर
साथ हो नित
साधना भर
हो न सीमित
हर्ष-पावस
साथ हो नित
रूप चौदस
.......
१८-१०-२०१७
***
कार्यशाला
रचना-प्रतिरचना
*
रचना
ग़ज़ल - प्राण शर्मा
----------
देश में छाएँ न ये बीमारियाँ
लोग कहते हैं जिन्हें गद्दारियाँ
+
ऐसे भी हैं लोग दुनिया में कई
जिनको भाती ही नहीं किलकारियाँ
+
क्या ज़माना है बुराई का कि अब
बच्चों पर भी चल रही हैं आरियाँ
+
राख में ही तोड़ दें दम वो सभी
फैलने पाएँ नहीं चिंगारियाँ
+
`प्राण`तुम इसका कोई उत्तर तो दो
खो गयी हैं अब कहाँ खुद्दारियाँ
+
प्रतिरचना
मुक्तिका - संजीव
*
हैं चलन में आजकल अय्यारियाँ
इसलिए मुरझा रही हैं क्यारियाँ
*
पश्चिमी धुन पर थिरकती है कमर
कौन गाये अब रसीली गारियाँ
*
सूक्ष्म वसनों का चलन ऐसा चला
बदन पर खीचीं गयीं ज्यों धारियाँ
*
कान काटें नरों के बचकर रहो
अब दुधारी हो रही हैं नारियाँ
*
कौन सोचे देश-हित की बात अब
खेलते दल आत्म-हित की पारियाँ
*
***
गीत
*
जीवन की बगिया में
महकाये मोगरा
पल-पल दिन आज का।
*
श्वास-श्वास महक उठे
आस-आस चहक उठे
नयनों से नयन मिलें
कर में कर बहक उठे
प्यासों की अँजुरी में
मुस्काये हरसिंगार
छिन-छिन दिन आज का।
*
रूप देख गमक उठे
चेहरा चुप चमक उठे
वाक् हो अवाक 'सलिल'
शब्द-शब्द गमक उठे
गीतों की मंजरी में
खिलखलाये पारिजात
गिन -गिन दिन आज का।
*
चुप पलाश दहक उठे
महुआ सम बहक उठे
गौरैया मन संझा
कलरव कर चहक उठे
मादक मुस्कानों में
प्रमुदित हो अमलतास
खिल-खिल दिन आज का।
***
मुक्तक
नींद उड़ानेवाले तेरे सपनों में सँग-साथ रहूँ
जो न किसी ने कह पायी हो, मन ही मन वह बात कहूँ
मजा तभी बिन कहे समझ ले, वह जो अब तक अनजाना
कही-सुनी तो आनी-जानी, सोची-समझी बात तहूँ
६-११-२०१६
***
कुण्डलिया
मन से मन रखते मिले, जनगण करें न भेद.
नेता भ्रम फैला रहे, नाहक- है यह खेद..
नाहक है यह खेद, पचा वे हार न पाये
सहनशीलता भूल और पर दोष लगाएं
पोल खुल रही फिर भी सबक न लें जीवन से
गयीं सोनिया उतर ' सलिल' जनता के मन से
६-११-२०१५
***
मुक्तक:
हमको फ़ख़्र आप पर है, हारिए हिम्मत नहीं
दूरियाँ दिल में नहीं, हम एक हैं रखिये यकीं
ज़िन्दगी ज़द्दोज़हद है, जीतना ही है हमें
ख़त्म कर सब फासले, हम एक होंगे है यकीं
६-११-२०१४
***
अनुवाद-अर्थ सहित नासदीय सूक्त (ऋग्वेद, मण्डल १०, १२९ वाँ सूक्त)
सृष्टि उत्पत्ति का रहस्य 
*
पश्चिम के वैज्ञानिकों ने आज से कुछ दशक पूर्व बिग बैंग अर्थात्‌ महा विस्फोट के सिद्धांत का प्रतिपादन किया जबकि भारतीयों के पास यह ज्ञान हज़ारों वर्षों पहले से ही था। विज्ञान के अनुसार लगभग १५ अरब वर्ष पूर्व समस्त भौतिक जगत और ऊर्जा एक बिंदु के रूप में थी। इस बिंदु ने धीरे-धीरे फैलना आरंभ किया तो ब्रह्मांड का निर्माण हुआ। यह एक महाविस्फोट (बिग बैंग) की तरह है जो आज भी जारी है। नासदीय सूक्त बताता है कि सृष्टि की उत्पत्ति से पहले सत, असत, रज, अंतरिक्ष कुछ भी नहीं थाऔर उसके परे जो कुछ भी है वह भी नहीं था। न ही मृत्यु थी और ना ही अमृत था। प्रारंभ में तो सिर्फ़ अंधकार में लिपटा हुआ अंधकार ही था। एक प्रकार का अनादि पदार्थ था जिसका कोई रूप नहीं था। तत्पश्चात् इस अनादि पदार्थ से एक महान निरंतर तप से वह रचयिता अर्थात्‌ ईश्वर प्रकट हुआ। रचयिता ने सृष्टि की रचना की कामना की जो कि उत्पत्ति का पहला बीज बना। इस कामना रूपी बीज से चारों ओर अनेकों सूर्य किरणों ने समान ऊर्जा की तरंगे निकली जिन्होंने उस अनादि पदार्थ अर्थात्‌ प्रकृति से मिलकर सृष्टि की रचना की। यह एक दार्शनिक विचार है जिसमें कई प्रतीकों का प्रयोग किया गया है। और यदि सरलता पूर्वक इसे समझने का प्रयास करें तो यह कुछ नहीं होने से कुछ होने की प्रक्रिया कही जा सकती है। केवल ऋग्वेद में ही नहीं अपितु इसके अलावा अनेक भारतीय ग्रंथों में वर्णन है कि सृष्टि का उद्भव शून्य से हुआ है। संपूर्ण सनातन धर्म के जीवन का आधार यही है। सर्व मान्य है कि संपूर्ण सृष्टि का जन्म एक ही सर्वोच्च शक्ति से हुआ है। ‘द गॉड पार्टिकल’ के लेखक डिक थेरेसी ने लिखा है कि भारतीय ब्रह्मांड विज्ञानी पहले थे जिन्होंने पृथ्वी की आयु चार अरब वर्ष से अधिक होने की बात कही थी। आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञान और प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मिलने वाले वर्णन की समानताएँ केवल संयोग मात्र नहीं है। 
० 
नासदासींनॊसदासीत्तदानीं नासीद्रजॊ नॊ व्यॊमापरॊ यत् ।
किमावरीव: कुहकस्यशर्मन्नभ: किमासीद्गहनं गभीरम् ॥१॥

असत या सत न था तब, न थे तब व्योम, रज, उससे परे कुछ।
कहाँ था आवरण, था कौन रक्षक, गहन-गंभीर कुछ था या नहीं था।।

Then even nothingness was not, nor existence,
There was no air then, nor the heavens beyond it.
What covered it? Where was it? In whose keeping
Was there then cosmic water, in depths unfathomed?

अर्थ: उस समय अर्थात्‌ सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात्‌ अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः= स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात्‌ वे सब नहीं थे।

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या।आन्ह।आसीत् प्रकॆत: ।
आनीदवातं स्वधया तदॆकं तस्माद्धान्यन्नपर: किंचनास ॥२॥

न थी मृत्यु, न अमृत, न रजनी या ऊषा थी। 
हवा बिन आप लेता श्वास, न था उससे परे कुछ।।    

Then there was neither death nor immortality
nor was there then the torch of night and day.
The One breathed windlessly and self-sustaining.
There was that One then, and there was no other.

अर्थ: उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत-मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्रि और दिन का ज्ञान भी नहीं था। उस समय वह ब्रह्म तत्त्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था।

तम।आअसीत्तमसा गूह्ळमग्रॆ प्रकॆतं सलिलं सर्वमा।इदम् ।
तुच्छॆनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकम् ॥३॥

अँधेरे से अँधेरा ही घिरा था, व्याप्त सर्वत्र था केवल सलिल ही। 
'गुप्त' था शून्य, कर तप आप प्रगटा, तत्व वह एक जो निज 'चित्र' बिन था।  

At first there was only darkness wrapped in darkness.
All this was only unillumined water.
That One which came to be, enclosed in nothing,
arose at last, born of the power of heat.

अर्थ: सृष्टि उत्पन्न होने से पहले जगत् अन्धकार से आच्छादित था और यह जगत् तमस रूप मूल कारण में विद्यमान था। आज्ञायमान यह सम्पूर्ण जगत् सलिल (जल) रूप में था। उस समय कार्य और कारण दोनों मिले हुए थे। यह जगत् व्यापक एवं निम्न स्तरीय अभाव रूप अज्ञान से आच्छादित था। इसीलिए कारण के साथ कार्य एकरूप होकर यह जगत् ईश्वर के संकल्प और तप की महिमा से उत्पन्न हुआ।

कामस्तदग्रॆ समवर्तताधि मनसॊ रॆत: प्रथमं यदासीत् ।
सतॊबन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयॊ मनीषा ॥४॥

हुई इच्छा मनस में वीर्यवत तब, सृष्टि ने चित्र या आकार पाया।
सत्य जो असत में था 'गुप्त' उसको, गहन चिंतन से कवि ने खोज पाया।।   

In the beginning desire descended on it -
that was the primal seed, born of the mind.
The sages who have searched their hearts with wisdom
know that which is kin to that which is not.

अर्थ: सृष्टि की उत्पत्ति होने के समय सब से पहले काम (सृष्टि रचना की इच्छा शक्ति) उत्पन्न हुई, जो परमेश्वर के मन में पहला बीज रूप कारण हुआ। भौतिक रूप से विद्यमान जगत् के बन्धन-कामरूप कारण को ऋषियों ने चिंतन कर भाव से विलक्षण अभाव में खोज लिया।

तिरश्चीनॊ विततॊ रश्मीरॆषामध: स्विदासी ३ दुपरिस्विदासीत् ।
रॆतॊधा।आसन्महिमान् ।आसन्त्स्वधा ।आवस्तात् प्रयति: परस्तात् ॥५॥

उजाला ज्ञान का तिरछी किरण सम, व्याप्त सर्वत्र ऊपर या कि नीचे। 
सृष्टि कारण प्रकृति जड़ पुरुष चेतन, भोग्य-भोक्ता रहे नीचे व ऊपर।।   

And they have stretched their cord across the void,
and know what was above, and what below.
Seminal powers made fertile mighty forces.
Below was strength, and over it was impulse.

अर्थ: सृष्टि बीज-कारण में सूर्य-किरणों के समान बहुत व्यापकता थी। यह सबसे पहले तिरछा था या मध्य में या अन्त में? वह तत्त्व नीचे विद्यमान था या ऊपर? वह सर्वत्र समान भाव से भाव उत्पन्न था इस उत्पन्न जगत् में कुछ पदार्थ बीज रूप कर्म को धारण करने वाले जीव रूप में थे और कुछ तत्त्व आकाशादि महान् रूप में प्रकृति रूप थे; स्वधा=भोग्य पदार्थ निम्नस्तर के होते हैं और भोक्ता पदार्थ उत्कृष्टता से परिपूर्ण के।


कॊ ।आद्धा वॆद क‌।इह प्रवॊचत् कुत ।आअजाता कुत ।इयं विसृष्टि: ।
अर्वाग्दॆवा ।आस्य विसर्जनॆनाथाकॊ वॆद यत ।आबभूव ॥६॥

ज्ञात किसको, कौन कह सकता कि कैसे सृष्टि की उत्पत्ति होती। 
देव जन्मे बाद में, वे भी न जानें, कौन-कैसे जान सकता क्या हुआ कब।। 

But, after all, who knows, and who can say
Whence it all came, and how creation happened?
the gods themselves are later than creation,
so who knows truly whence it has arisen?

अर्थ: कौन इसे वास्तविक रूप से जानता है और कौन इस लोक में सृष्टि के उत्पन्न होने का विवरण बता सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारण से सब ओर से उत्पन्न हुई। देवता भी इस विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न होने से बाद के हैं। देवगण भी अपने से पहले की बात नहीं बता सकते इसलिए कौन मनुष्य जानता है किस कारण यह सारा संसार उत्पन्न हुआ।

इयं विसृष्टिर्यत ।आबभूव यदि वा दधॆ यदि वा न ।
यॊ ।आस्याध्यक्ष: परमॆ व्यॊमन्त्सॊ आंग वॆद यदि वा न वॆद ॥७॥

बनी यह सृष्टि कैसे-कहाँ से, कब, कौन जाने? 
'परम प्रभु' करें धारण, मात्र वे जानें, न जानें।। 

Whence all creation had its origin,
he, whether he fashioned it or whether he did not,
he, who surveys it all from highest heaven,
he knows - or maybe even he does not know.  RV 10.130

अर्थ: यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस प्रकार के उपादान और निमित्त कारण से उत्पन्न हुई इसका मुख्य कारण है ईश्वर के द्वारा इसे धारण करना। इसके अतिरिक्त अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। इस सृष्टि का जो स्वामी ईश्वर है, अपने प्रकाश या आनंद स्वरूप में प्रतिष्ठित है। हेवह आनंद स्वरूप परमात्मा ही इस विषय को जानता है उस के अतिरिक्त (इस सृष्टि उत्पत्ति तत्त्व को) कोई नहीं जानता है।

The Nasadiya Sukta (after the incipit ná ásat "not the non-existent") also known as the Hymn of Creation is the 129th hymn of the 10th Mandala of the Rigveda (10:129). It is concerned with cosmology and the origin of the universe
***
दोहा
जड़ पकड़े चेतन तजे, हो खयाल या माल
'सलिल' खलिश आनंद दे, झूमो दे-दे ताल
यमकीय दोहा
फेस न करते फेस को, छिपते फिरते नित्य
बुक न करें बुक फुकटिया, पाठक 'सलिल' अनित्य
६-११-२०१३
***