सलिल सृजन ८ जनवरी
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दोहा सलिला
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कभी कुसंग न कीजिए, कहते हैं मतिमान।
संग कोहरे के हुआ, सूर्य मंद नादान।।
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बेमौसम बरसात ने, कंँपा दिए हैं हाड़।
नभ में मेघा दौड़ते, फाँद-तोड़ कर बाड़।।
८.१.२०२४
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सॉनेट
तिल का ताड़
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तिल का ताड़ बना रहे, भाँति-भाँति से लोग।
अघटित की संभावना, क्षुद्र चुनावी लाभ।
बौना कंबलओढ़कर, कभी न हो अजिताभ।।
नफरत फैला समझते, साध रहे हो योग।।
लोकतंत्र में लोक से, दूरी, भीषण रोग।
जन नेता जन से रखें, दूरी मन भय पाल।
गन के साये सिसकता, है गणतंत्र न ढाल।।
प्रजातंत्र की प्रजा को, करते महध अगेह।।
निकल मनोबल अहं का, बाना लेता धार।
निज कमियों का कर रहा, ढोलक पीट प्रचार।
जन को लांछित कर रहे, है न कहीं आधार।
भय का भूत डरा रहा, दिखे सामने हार।।
सत्ता हित बनिए नहीं, आप शेर से स्यार।।
जन मत हेतु न कीजिए, नौटंकी बेकार।।
८-१-२०२२
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भारत की माटी
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जड़ को पोषण देकर
नित चैतन्य बनाती।
रचे बीज से सृष्टि
नए अंकुर उपजाति।
पाल-पोसकर, सीखा-पढ़ाती।
पुरुषार्थी को उठा धरा से
पीठ ठोंक, हौसला बढ़ाती।
नील गगन तक हँस पहुँचाती।
किन्तु स्वयं कुछ पाने-लेने
या बटोरने की इच्छा से
मुक्त वीतरागी-त्यागी है।
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सुख-दुःख,
धूप-छाँव हँस सहती।
पीड़ा मन की
कभी न कहती।
सत्कर्मों पर हर्षित होती।
दुष्कर्मों पर धीरज खोती।
सबकी खातिर
अपनी ही छाती पर
हल बक्खर चलवाती,
फसलें बोती।
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कभी कोइ अपनी जड़ या पग
जमा न पाए।
आसमान से गर गिर जाए।
तो उसको
दामन में अपने लपक छिपाती,
पीठ ठोंक हौसला बढ़ाती।
निज संतति की अक्षमता पर
ग़मगीं होती, राह दिखाती।
मरा-मरा से राम सिखाती।
इंसानों क्या भगवानो की भी
मैया है भारत की माटी।
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गीत
आज नया इतिहास लिखें हम।
अब तक जो बीता सो बीता
अब न हास-घट होगा रीता
अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता
अब न कभी लांछित हो सीता
भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब
हया, लाज, परिहास लिखें हम
रहें न हमको कलश साध्य अब
कर न सकेगी नियति बाध्य अब
सेह-स्वेद-श्रम हो आराध्य अब
पूँजी होगी महज माध्य अब
श्रम पूँजी का भक्ष्य न हो अब
शोषक हित खग्रास लिखें हम
मिल काटेंगे तम की कारा
उजियारे के हों पाव बारा
गिर उठ बढ़कर मैदां मारा
दस दिश में गूँजे जयकारा।
कठिनाई में संकल्पों का
कोशिश कर नव हास , लिखें हम
आज नया इतिहास लिखें हम।
८-१-२०२२
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मनरंजन
मुहावरों ,लोकोक्तियों, गीतों में धन
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०१. टके के तीन
०२. कौड़ी के मोल
०३. दौलत के दीवाने
०४. लछमी सी बहू
०५. गृहलक्ष्मी
०६. नौ नगद न तरह उधार
०७. कौड़ी-कौड़ी को मोहताज
०८. बाप भला न भैया, सबसे भला रुपैया
०९. घर में नईंयाँ दाने, अम्मा चली भुनाने
१०. पुरुष पुरातन की वधु, क्यों न चंचला होय?
११. एक चवन्नी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गाँधी की
गीत
०१. आमदनी अठन्नी खरचा रुपैया / तो भैया ना पूछो, ना पूछो हाल / नतीजा ठनठन गोपाल
०२. पाँच रुपैया, बारा आना, मारेगा भैया ना ना ना ना -चलती का नाम गाड़ी
०३. न बीवी न बच्चा, न बाप बड़ा न मैया, दि होल थिंग इज़ दैट कि भैया सबसे बड़ा रुपैया - सबसे बड़ा रुपैया
०४. क्या बात है क्या चीज है पैसा / पैसा पैसा करती है क्यों पैसे पे तू मरती है - दे दनादन,
०५. पैसा ये पैसा पैसा ये पैसा क्या अपना सपना मनी मनी - कर्ज, १९८०, किशोर कुमार
०६. देख छोरी को देख / पैसा फेंक -
०७. कैश मेरी आँखों में - कैश
०८. ये पैसा बोलता है - काला बाजार, नितिन मुकेश
०९. मुझे मिल जो जाए थोड़ा पैसा - आगोश
८-१-२०२१
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लघुकथा :
खिलौने
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दिन भर कार्यालय में व्यस्त रहने के बाद घर पहुँचते ही पत्नी ने किराना न लाने का उलाहना दिया तो वह उलटे पैर बाज़ार भागा। किराना लेकर आया तो बिटिया रानी ने शिकायत की 'माँ पिकनिक नहीं जाने दे रही।' पिकनिक के नाम से ही भड़क रही श्रीमती जी को जैसे-तैसे समझाकर अनुमति दिलवाई तो मुँह लटकाए हुए बेटा दिखा। उसे बुलाकर पूछ तो पता चला कि खेल का सामान चाहिए। 'ठीक है' पहली तारीख के बाद ले लेना' कहते हुए उसने चैन की साँस ली ही थी कि पिताजी क खाँसने और माँ के कराहने की आवाज़ सुन उनके पास पहुँच गया। माँ के पैताने बैठ हाल-चाल पूछा तो पाता चला कि न तो शाम की चाय मिली है, न दवाई है। बिटिया को आवाज़ देकर चाय लाने और बेटे को दवाई लाने भेजा और जूते उतारने लगा कि जीवन बीमा एजेंट का फोन आ गया 'क़िस्त चुकाने की आखिरी तारीख निकल रही है, समय पर क़िस्त न दी तो पालिसी लेप्स हो जाएगी। अगले दिन चेक ले जाने के लिए बुलाकर वह हाथ-मुँह धोने चला गया।
आते समय एक अलमारी के कोने में पड़े हुए उस खिलौने पर दृष्टि पड़ी जिससे वह कभी खेलता था। अनायास ही उसने हाथ से उस छोटे से बल्ले को उठा लिया। ऐसा लगा गेंद-बल्ला कह रहे हैं 'तुझे ही तो बहुत जल्दी पड़ी थी बड़ा होने की। रोज ऊँचाई नापता था न? तब हम तुम्हारे खिलौने थे, तुम जैसा चाहते वैसा ही उपयोग करते थे। अब हम रह गए हैं दर्शक और तुम हो गए हो सबके हाथ के खिलोने।
५.१.२०१८
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लघुकथा-
गुरु
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'मुझे आपसे बहुत कुछ सीखना है, क्या आप मुझे शिष्य बनाकार कवर रचं और छंद नहीं सिखायेंगे?'
बार-बार अनुरोध होने पर न स्वीकारने की अशिष्टता से बचने के लिए सहमति दे दी। रचनाओं की प्रशंसा, विधा के विधान आदि की जानकारी लेने तक तो सब कुछ ठीक रहा ।
एक दिन शिष्या की रचनाओं में कुछ त्रुटियाँ इंगित करने पर उत्तर मिला- 'खुद को क्या समझते हैं? हिम्मत कैसे की रचनाओं में गलतियाँ निकालने की? मुझे इतने पुरस्कार मिल चुके हैं. फेस बुक पर जो भी लिखती हूँ सैंकड़ों लाइक मिलते हैं। मेरी लिखे में गलती हो ही नहीं सकती।आइंदा ऐसा किया तो...' आगे पढ़ने में समय ख़राब करने के स्थान पर गुरु जी ने शिष्या को ब्लॉक कर चैन की साँस लेते हुए कान पकड़े कि अब नहीं बनायेंगे किसी को शिष्या और नहीं बनेंगे किसी के गुरु।
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लघुकथा
खाँसी
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कभी माँ खाँसती, कभी पिता. उसकी नींद टूट जाती, फिर घंटों न आती. सोचता काश, खाँसी बंद हो जाए तो चैन की नींद ले पाए.
पहले माँ, कुछ माह पश्चात पिता चल बसे. मैंने इसकी कल्पना भी न की थी.
अब करवटें बदलते हुए रात बीत जाती है, माँ-पिता के बिना सूनापन असहनीय हो जाता है. जब-तब लगता है अब माँ खाँसी, अब पिता जी खाँसे.
तब खाँसी सुनकर नींद नहीं आती थी, अब नींद नहीं आती है कि सुनाई दे खाँसी.
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तांका सलिला
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सियासत है
तीन-पांच का खेल
किंतु बेमेल.
जनता मजबूर
मरी जा रही झेल.
*
बाप ना बेटा
सिर्फ सत्ता है प्यारी.
टकराते हैं
अपने स्वार्थ हित
जनता से गद्दारी.
*
खाते हैं मेवा
कहते जनसेवा.
देवा रे देवा
लगा दे पटकनी
बना भी दे चटनी.
*
क्यों करेगी
किसी से छेड़छाड़
कोई लड़की?
अगर है कड़की
करेगी डेटिंग
*
कुछ गलत
बदनाम हैं सभी.
कुछ हैं सही
नेकनाम न सब.
किसका करतब?
८.१.२०१७
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एक दोहा
लज्जा या निर्लज्जता, है मानव का बोध
समय तटस्थ सदा रहे, जैसे बाल अबोध
८.१.२०१६
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:अलंकार चर्चा ०९ :
यमक अलंकार
भिन्न अर्थ में शब्द की, हों आवृत्ति अनेक
अलंकार है यमक यह, कहते सुधि सविवेक
पंक्तियों में एक शब्द की एकाधिक आवृत्ति अलग-अलग अर्थों में होने पर यमक अलंकार होता है. यमक अलंकार के अनेक प्रकार होते हैं.
अ. दुहराये गये शब्द के पूर्ण-आधार पर यमक अलंकार के ३ प्रकार १. अभंगपद, २. सभंगपद ३. खंडपद हैं.
आ. दुहराये गये शब्द या शब्दांश के सार्थक या निरर्थक होने के आधार पर यमक अलंकार के ४ भेद १.सार्थक-सार्थक, २. सार्थक-निरर्थक, ३.निरर्थक-सार्थक तथा ४.निरर्थक-निरर्थक होते हैं.
इ. दुहराये गये शब्दों की संख्या व् अर्थ के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है.
उदाहरण :
१. झलके पद बनजात से, झलके पद बनजात
अहह दई जलजात से, नैननि सें जल जात -राम सहाय
प्रथम पंक्ति में 'झलके' के दो अर्थ 'दिखना' और 'छाला' तथा 'बनजात' के दो अर्थ 'पुष्प' तथा 'वन गमन' हैं. यहाँ अभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक अलंकार है.
द्वितीय पंक्ति में 'जलजात' के दो अर्थ 'कमल-पुष्प' और 'अश्रु- पात' हैं. यहाँ सभंग पद, सार्थक-सार्थक यमक अलंकार है.
२. कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय
या खाये बौराय नर, वा पाये बौराय
कनक = धतूरा, सोना -अभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक
३. या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरैहौं
मुरली = बाँसुरी, मुरलीधर = कृष्ण, मुरली की आवृत्ति -खंडपद, सार्थक-सार्थक यमक
अधरान = अधरों पर, अधरा न = अधर में नहीं - सभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक
४. मूरति मधुर मनोहर देखी
भयेउ विदेह विदेह विसेखी -अभंगपद, सार्थक-सार्थक यमक, तुलसीदास
विदेह = राजा जनक, देह की सुधि भूला हुआ.
५. कुमोदिनी मानस-मोदिनी कहीं
यहाँ 'मोदिनी' का यमक है. पहला मोदिनी 'कुमोदिनी' शब्द का अंश है, दूसरा स्वतंत्र शब्द (अर्थ प्रसन्नता देने वाली) है.
६. विदारता था तरु कोविदार को
यमक हेतु प्रयुक्त 'विदार' शब्दांश आप में अर्थहीन है किन्तु पहले 'विदारता' तथा बाद में 'कोविदार' प्रयुक्त हुआ है.
७. आयो सखी! सावन, विरह सरसावन, लग्यो है बरसावन चहुँ ओर से
पहली बार 'सावन' स्वतंत्र तथा दूसरी और तीसरी बार शब्दांश है.
८. फिर तुम तम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्ध्यान
'तम' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
९. यों परदे की इज्जत परदेशी के हाथ बिकानी थी
'परदे' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
१०. घटना घटना ठीक है, अघट न घटना ठीक
घट-घट चकित लख, घट-जुड़ जाना लीक
११. वाम मार्ग अपना रहे, जो उनसे विधि वाम
वाम हस्त पर वाम दल, 'सलिल' वाम परिणाम
वाम = तांत्रिक पंथ, विपरीत, बाँया हाथ, साम्यवादी, उल्टा
१२. नाग चढ़ा जब नाग पर, नाग उठा फुँफकार
नाग नाग को नागता, नाग न मारे हार
नाग = हाथी, पर्वत, सर्प, बादल, पर्वत, लाँघता, जनजाति
जबलपुर, १८-९-२०१५
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हास्य सलिला:
उमर कैद
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लालू पहुँचे कचहरी बैठे चुप दम साध
जज बोलीं: 'दिल चुराया, है चोरी अपराध
हाथ जोड़ उत्तर दिया: ' क्षमा करें सरकार!
दिल देकर दिल ले लिया, किया महज व्यापार'
'लाइसेंस-कर के बिना, बिजनेस करना दोष'
मौका मिले हुजूर तो भर देंगे हम कोष'
'बेजा कब्जा कर बसे दिल में छीना चैन
रात ख्वाब में आ रहे, भले बंद हों नैन'
'लाख करो इंकार पर मानेंगे इकरार
करो जुर्म स्वीकार चुप, बंद करो तकरार'
'देख अदा लत लग गयी, किया न कोई गुनाह
बैठ अदालत में भरें नित दिल थामे आह'
'नहीं जमानत मिलेगी, सात पड़ेंगे फंद'
उमर कैद की सजा सुन , हुई बोलती बंद
***
एक कविता:
चीता
*
कौन कहता है
कि चीता मर गया है?
हिंस्र वृत्ति
जहाँ देखो बढ़ रही है.
धूर्तता
किस्से नए नित गढ़ रही है.
शक्ति के नाखून पैने,
चोट असहायों पर करते,
स्वाद लेकर रक्त पीते,
मारकर औरों को जीते।
और तुम?
और तुम कहते हो
चीता मर गया है.
नहीं,
वह तो आदमी की नस्ल में
घर कर गया है.
कौन कहता है कि
चीता मर गया है?
८.१.२०१४
***
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