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गुरुवार, 9 जनवरी 2025

पलाश, टेसू, किंशुक, छेवला, ढाक, फ्लेम ऑफ फॉरेस्ट, चूल, परसा

पलाश वाटिका
*
पूर्णिका
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मैं जिजीविषा जयी पलाश।
धरा बिछौना, छत आकाश।।
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तीनों देव विराजे मुझमें
विपदाओं का करता नाश।।
.
क्रांति-दूत जलता अंगारा
नव युग को नित रहा तराश।।
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जंगल में मंगल करता हूँ।
बाधाओं के तोड़ूँ पाश।।
.
फगुनौटी को रंग कुसुंबी
दे खुशियों की करूँ तलाश।।
.
रास रचाएँ कान्ह-राधिका
गोपी-गोप छाँह में काश।।
१२.१.२०२५
०००
नवगीत :
.
खिल-खिलकर
गुल झरे
पलाशों के।
हौसले
जवान हैं
हताशों के।।
.
ऊषा के
रंग में
नहाए से।
संध्या को
अंग से
लगाए से।।
खिलखिलकर
हँस पड़े
अलावों से,
हाथ लगे
जोकर ज्यों
ताशों के।।
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लजा रहे
गाल हुए
रतनारे।
बुला रहे
नैन मुँदे
कजरारे।।
मिट-मिटकर
बन रहे
नवाबों से,
शिथिल हुए
गात विवश
पाशों के।।
.
रक्ताभित
सुमन सुमन
सहे व्यथा।
कौसुंबी
रंग कहे
कान्ह कथा।।
शूल चुभन
गुल सहें
गुलाबों के।
हौसले
जवान हैं
निराशों के।।
२३.२.२०२५
०००
सॉनेट
पलाश
लाल-पीला क्रुद्ध-क्षुब्ध पलाश।
नाश तरु पर्वत नदी का देख।
क्षुब्ध जाने क्या विधाता लेख?
काल ही फैला रहा क्या पाश?
दुखी पर किंचित नहीं हताश।
हाय! होता भग्न अब ऋतु चक्र।
नियति की गति हो रही है वक्र।।
फेंटती प्रकृति मनुज ज्यों ताश।।
देख करता अदेखा इंसान।
मार-मरता आप हो हैवान।
बने दाना पर बहुत नादान।।
भाग्य अपना खुद सँवारे काश।
करे सबका ही न सत्यानाश।
रखे निर्मल सलिल भू आकाश।।
५-३-२०२३
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त्रिपदिक छंद हाइकु
विषय: पलाश
विधा: गीत
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लोकतंत्र का / निकट महापर्व / हावी है तंत्र
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मूक है लोक / मुखर राजनीति / यही है शोक
पूछे पलाश / जनता क्यों हताश / कहाँ आलोक?
सत्ता की चाह / पाले हरेक नेता / दलों का यंत्र
*
योगी बेहाल / साइकिल है पंचर / हाथी बेकार
होता बबाल / बुझी है लालटेन / हँसिया फरार
रहता साथ / गरीबों के न हाथ / कैसा षड़्यंत्र?
*
दलों को भूलो / अपराधी हराओ / न हो निराश
जनसेवी ही / जनप्रतिनिधि हो / छुए आकाश
ईमानदारी/ श्रम सफलता का / असली मंत्र
३०-३-२०१९
*
नवगीत
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दहकते पलाश
फिर पहाड़ों पर.
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हुलस रहा फागुन
बौराया है
बौराया अमुआ
इतराया है
मदिराया महुआ
खिल झाड़ों पर
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विजया को घोंटता
कबीरा है
विजया के भाल पर
अबीरा है
ढोलक दे थपकियाँ
किवाड़ों पर
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नखरैली पिचकारी
छिप जाती
हाथ में गुलाल के
नहीं आती
पसरे निर्लज्ज हँस
निवाड़ों पर
२२.२.२०१५
***
हाइकु का रंग पलाश के संग
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करे तलाश
अरमानों की लाश
लाल पलाश
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है लाल-पीला
देखकर अन्याय
टेसू निरुपाय
*
दीन न हीन
हमेशा रहे तीन
ढाक के पात
*
आप ही आप
सहे दुःख-संताप
टेसू निष्पाप
*
देख दुर्दशा
पलाश हुआ लाल
प्रिय नदी की
*
उषा की प्रीत
पलाश में बिम्बित
संध्या का रंग
*
फूल त्रिनेत्र
त्रिदल से पूजित
ढाक शिवाला
*
पर्ण है पन्त
तना दिखे प्रसाद
पुष्प निराला
*
मनुजता को
पत्र-पुष्प अर्पित
करे पलाश
*
होली का रंग
पंगत की पत्तल
हाथ का दौना
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पहरेदार
विरागी तपस्वी या
प्रेमी उदास
३०-५-२०१५
*
लेख 
 जिजीविषा जयी पलाश 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
धार्मिक महत्व 
                   लोक मान्यता के अनुसार पवित्र पलाश पेड़ की उत्पत्ति सोमरस में डूबे एक बाज के गिरे हुए पंख से हुई है। पलाश पेड़ को लेकर एक कथा प्रचलित है जिसमें माता पार्वती ने ब्रह्म देव को पलाश वृक्ष बनने का श्राप दिया था। इस पेड़ का धार्मिक महत्व इसके पत्तों के त्रिकोणीय गठन से शुरू होता है, जिसमें पत्ते के मध्य भाग में भगवान विष्णु, बाईं और ब्रह्मा जी और दाईं ओर महादेव का प्रतिनिधित्व करता है। शास्त्रों में पलाश के पेड़ को देवताओं का कोषाध्यक्ष कहा गया है। साथ ही इसे चंद्रमा का प्रतीक माना गया है क्योंकि इसके फूल के मध्य भाग में चंद्रमा का खूबसूरत दृश्य दिखाई देता है। धार्मिक मान्यता है कि सफेद पलाश के फूल, पत्ते और छाल भगवान शिव को बेहद प्रिय है। इसके फूल का उपयोग न सिर्फ भगवान के श्रृंगार के लिए किया जाता है बल्कि, इसके पत्तों और फूलों से महाकाल का अभिषेक भी किया जाता है। पलाश के पत्ते में भगवान को चढ़ाया हुआ भोग स्वर्ण पात्र में चढ़ा हुआ प्रसाद के समान होता है। पलाश का उल्लेख ऋग्वेद और यजुर्वेद आदि संस्कृत ग्रंथों में है। शुक्ल यजुर्वेद के पहले श्लोक में पलाश वृक्ष का उल्लेख है। श्रोत्रसूत्रों में कई यज्ञ-पात्रों के इसी की लकड़ी से बनाने की विधि है। गृह्वासूत्र के अनुसार उपनयन के समय में ब्राह्मणकुमार को इसी की लकड़ी का दंड ग्रहण करने की विधि है। पलाश वृक्ष की शाखा को अध्वर्यु पुजारी द्वारा काटा और छाँटा जाता है, जो अमावस्या या पूर्णिमा से एक दिन पहले बलि का व्यावहारिक हिस्सा निभाते हैं, और इसका उपयोग बछड़ों को उन गायों से दूर भगाने के लिए करते हैं जिनका दूध अगले दिन के विशेष समारोह के लिए प्रसाद का हिस्सा बनना था। पलाश के पत्ते को स्वर्ण के समान माना गया है। 
                            शाक्तमतीय राजा वत्सराज की कामसिद्धिस्तुति (वामकेश्वरीस्तुति) में पलाश का अर्थ "ढाक" (पौधा) है, जो देवी नित्या की पूजा के माध्यम से मार्गदर्शन करता है। तदनुसार देवी  मुझ पर अपनी कृपा बरसाएँ मैं प्रार्थना करता हूँ। वे अपने हाथों में माला और पुस्तक रखती हैं, उनका रंग पूर्णिमा के समान निर्मल है, और वे संपूर्ण ज्ञान का प्रतीक हैं। मैं रति के प्रिय पति, सुंदर मन-जनित [भगवान कामदेव] की वंदना करता हूँ। वे धनुष और फूलों के बाण धारण करते हैं और उनका रंग ढाक (पलाश-पाताल ) की पंखुड़ियों जैसा है। मैं प्रीति के प्रिय पति के पास जाती हूँ, जो पूर्ण चन्द्रमा की तरह मुड़ा हुआ है, जो समृद्धि के लिए श्रीचक्र को खींचने के लिए देवियों की अँगूठी के आधार के रूप में कार्य करता है। श्री हरिभक्तिविलास १६.६० के अनुसार "ब्रह्मा नाम से पुकारा जानेवाला पलाश वृक्ष सभी इच्छाओं को पूरा करता है। कार्तिक माह के दौरान तिल का दान करना, पवित्र नदी में स्नान करना, भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व के बारे में बात करना, भक्तों की सेवा करना और पलाश के पत्ते की थाली से प्रसाद खाना, ये सभी मोक्ष प्रदान करते हैं"।
                    बौद्ध धर्म में पलास ("ईर्ष्यापूर्ण प्रतिद्वंद्विता") सोलह उपकिलेसा (सूक्ष्म अशुद्धियों) में से एक को संदर्भित करता है । ५ वीं शताब्दी (या पूर्व) के कृषि विषयक ग्रंथ 'वज्रतुंडसमयकल्पराज' के अनुसार, भगवान वैश्रवण के निवास के आसपास  सूखे के समय कमल झील में, सभी वन्य फूल, फल, और पलाश आदि वृक्षों के पत्ते सूख गए थे। मछली, मकर, तिमिंगल, मगरमच्छ, मधुमक्खियां तथा अन्य अनेक जल-जन्य प्राणी जल से वंचित हो गए और जब थोड़ा-सा जल रह गया तो वे दसों दिशाओं में भाग गए, घबराए हुए, दुखी हृदय के साथ भागने लगे, क्योंकि उनका जीवन बाधित हो गया था और बर्बाद हो गया था। बौद्ध धर्म की वज्रयान (तांत्रिक) शाखा में सुसिद्धिकार सूत्र के अध्याय १२ (भोजन अर्पित करना) के अनुसार, “जब आप भोजन अर्पित करना चाहते हैं, तो सबसे पहले जमीन को साफ करें, चारों ओर सुगंधित पानी छिड़कें, जमीन पर साफ किए गए कमल,पलाश (ढाक) और दूधिया पेड़ों के पत्ते या नया सूती कपड़ा  बिछाकर अर्पण किए जानेवाले बर्तन रखें”।
 

   
                जैन 
दिगंबर परंपरा के अनुसार पलाश  चैत्य -वृक्ष का नाम है जिसके नीचे जैन प्रतिमा विज्ञान में अक्सर श्रेयांस के माता-पिता को दर्शाया जाता है। श्वेतांबर परंपरा के अनुसार इस वृक्ष को तिन्दुगा के नाम से जाना जाता है। चैत्य शब्द का अर्थ है "पवित्र तीर्थस्थल", जैन धर्म में तीर्थयात्रा और ध्यान का एक महत्वपूर्ण स्थान। ऐसे चैत्य -वृक्षों वाली मूर्तियों में आम तौर पर एक पुरुष और एक महिला जोड़े को एक पेड़ के नीचे बैठे हुए दिखाया जाता है, जिसमें महिला की गोद में एक बच्चा होता है। सामान्यत: पेड़ के शीर्ष पर एक बैठी हुई जिन आकृति होती है। 
ज्योतिष-वास्तु एवं आर्थिक महत्व 
                    ज्योतिष शास्त्रों में ग्रह-दोष निवारणतथा ग्रह-शांति हेतु पलाश के वृक्ष का महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है। पलाश पूर्वा-फाल्गुनी नक्षत्र से जुड़ा है। पलाश लगाने और सींचने से आयु वृद्धि होती है।  विष्णुधर्मोत्तरपुराण में, वास्तुकार को शुभ दिन में मंदिरों के लिए एकत्रित की जानेवाली उपयुक्त लकड़ियों में पलाश का भी नाम है। ज्ञातधर्मकथा-सूत्र में पलाश को भवन, सीढ़ी, खंबे, बाड़ आदि के निर्माण तथा साज-सज्जा हेतु उपयुक्त लकड़ियों में रखा गया है। बृहतकल्पसूत्र में पलाश के फूल को उद्यान, सज्जा तथा व्यवसाय हेतु उपयोगी बताया गया है। ११वीं शताब्दी में हेमचंद्र रचित त्रिषष्टीशलाकापुरुषचरित्र के अध्याय १.१ [ आदिश्वर-चरित्र ] के अनुसार पलाश के पत्तों का उपयोग पंखे तथा छत में वर्णित है।विष्णुधर्मोत्तरपुराण में पलाश  का उल्लेख चित्रकला की प्राचीन भारतीय परंपरा में पाँच द्वितीयक या मिश्रित रंगों के निर्माण तथा प्रतिमा निर्माण के संदर्भ में है। 
                    ७७९ ईस्वी में रचित कुवलयमाला में उद्योतनसूरी के अनुसार प्राचीन भारत में पलाश वृक्ष (ब्यूटिया फ्रोंडोसा ) के फूलों का व्यापार आम तौर पर विदेशी व्यापारियों के साथ किया जाता था। सोमदेव द्वारा कथासरित्सागर (१० वीं शताब्दी) में पलाश का उल्लेख हमेशा उसके पत्तों के विशिष्ट गहरे हरे रंग के लिए है।
पलाश उत्तर प्रदेश एवं झारखंड का राजकीय पुष्प है। भारत सरकार ने पलाश पर डाक टिकिट जारी किया है। 
नाम  
                    संस्कृत भाषा का शब्द 'पलाश' दो शब्दों से मिलकर बना है- 'पल' और 'आश'। पल का अर्थ है- 'मांस' और अश का अर्थ है- 'खाना', अर्थात् 'पलाश' का अर्थ हुआ- 'ऐसा पेड़ जिसने माँस खाया हुआ है'। खिले हुए लाल फूलों से लदे हुए पलाश की उपमा संस्कृत लेखकों ने युद्ध भूमि से दी है। इसका 'ब्यूटिया' नाम १८ वीं सदी के वर्गिकी के एक संरक्षक ब्यूट के अर्ल जोहन की स्मृति में रखा गया था। मोनोस्पर्मा ग्रीक भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- 'एक बीज वाला'। पलाश का वैज्ञानिक नाम 'ब्यूटिया पार्वीफ्लोरा' है। 'ब्यूटिया सुपरबा' और 'ब्यूटिया पार्वीफ्लोरा' नाम से इसकी कुछ अन्य जतियाँ भी पाई जाती हैं। भारतीय पलाश की प्रजाति ब्यूटिया मोनोस्पर्मा है। इसे किंशुक, पर्ण, याज्ञिक, रक्तपुष्पक, क्षारश्रेष्ठ, वात-पोथ, ब्रह्मवृक्ष, ब्रह्मोपनेता, समिद्धर, करक, त्रिपत्रक, ब्रह्मपादप, पलाशक, त्रिपर्ण, रक्तपुष्प, पुतद्रु, काष्ठद्रु, बीजस्नेह, कृमिघ्न, वक्रपुष्पक, सुपर्णी, पलाश  आदि (संस्कृत) ढाक, छेवला या टेसू (हिंदी), 'खाखरी' या 'केसुदो' (गुजराती), 'केशु' (पंजाबी), 'पोलाशी' (बांग्ला), 'परसु' या 'पिलासू' (तमिल),  'पोरासू' (ओड़िया), 'मुरक्कच्यूम' या 'पलसु' (मलयालम), 'मोदूगु' (तेलुगु), 'पांगोंग' (मणिपुरी), पलस' (मराठी) तथा बास्टर्ड टीक (अंग्रेजी) नामों से भी जाना जाता है। 

प्रकार  

                    पलाश तीन रूपों में पाया जाता है- वृक्ष, क्षुप (झाड़ी) और लता।  'लता पलाश' के दो प्रकार होते हैं। एक में लाल रंग के तथा दूसरे में सफ़ेद रंग के फूल खिलते हैं। सफेद पुष्पों वाले लता पलाश को औषधीय दृष्टिकोण से अधिक उपयोगी माना जाता है।  लाल, पीले, पीले पुष्पों वाला पलाश भी पाया जाता है।  आदि भी कहा जाता है। यह दक्षिण एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया के उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में बांग्लादेश, भारत, नेपाल , पाकिस्तान , श्रीलंका , म्यांमार , थाईलैंड , लाओस , कंबोडिया , वियतनाम , मलेशिया और पश्चिमी इंडोनेशिया में उगता है। पलाश के चमकीले नारंगी-पीले रंग के फूल फागुन के अंत और चैत के आरंभ में खिलते हैं और अंगार की तरह दिखते हैं। उस समय पत्ते झड़ जाते हैं और पेड़ फूलों से लद जाता है जो दर्शनीय होता है। फूल झड़ जाने पर चौड़ी चौ़ड़ी फलियाँ  'पलास पापड़ा' या 'पलास पापड़ी' और गोल-चपटे 'पलास-बीज' होते हैं। पलाश के मझोलाकारी पेड़ की शाखाएँ राख के रंग की होती हैं। सींक पर तीन पत्तियाँ होती हैं। यह मैदानों और जंगलों ही में नहीं, ४००० फुट ऊँची पहाड़ियों की चोटियों पर भी मिलता है।  पलाश के पत्ते गोल और बीच में कुछ नुकीले होते हैं जिनका रंग पीठ की ओर सफेद और सामने की ओर हरा होता है। इसकी छाल मोटी और रेशेदार होती है। लकड़ी टेढ़ी-मेढ़ी होती है। कठिनाई से चार पाँच हाथ सीधी मिलती है। इसका फूल छोटा, अर्धचंद्राकार और गहरा लाल होता है
उपयोग 
 

                  पलाश के पेड़ के बीज, फूल, पत्ते, छाल, जड़, और लकड़ी सभी उपयोगी हैं। पलाश के फूलों का इस्तेमाल रंग बनाने में किया जाता है। पलाश के पेड़ से निकलनेवाला लाल कसैला गोंद सूखने पर "ब्यूटिया गम" या "बंगाल किनो" नामक कठोर पदार्थ में बदल जाता है, इसमें गैलिक और टैनिक एसिड प्रचुर मात्रा में होते हैं। यह चमड़ा उद्योग के लिए मूल्यवान है। इसके पत्ते  पत्तल, दोने, बीड़ी आदि के बनाने के काम आते हैं। यह पेड़ लाख कीट (लैसीफर लैका) के लिए एक महत्वपूर्ण मेज़बान के रूप में कार्य करता है जो शेलैक बनाता है । यह किसी भी लाख के पेड़ की तुलना में प्रति हेक्टेयर सबसे अधिक लाख की छड़ें पैदा करता है। छाल से एक लाल रंग का स्राव निकलता है, जो में कठोर हो जाता है। छाल से एक प्रकार का रेशा निकलता है जिसको जहाज के पटरों की दरारों में भरकर भीतर पानी आने की रोक की जाती है। जड़ की छाल से जो रेशा निकलता है उसकी रस्सियाँ बटी जाती हैं । दरी और कागज भी इससे बनाया जाता है। पलाश की मोटी डालियों और तनों को जलाकर कोयला तैयार करते हैं। फूल उबालने से निकले ललाई लिए पीले रंग (कुसुंबी) से होली पर रंग खेल जाता है। फली की बुकनी कर लेने से वह भी अबीर का काम देती है । 
आयुर्वेदिक औषधि 
                    आयुर्वेद के अनुसार पलाश का फूल स्वादु, कड़वा, गरम, कसैला, वातवर्धक शीतज, चरपरा, मलरोधक, तृषा, दाह, पित्त कफ, रुधिरविकार, कुष्ठ और मूत्रकृच्छ का नाशक; फल रूखा, हलका गरम, पाक में चरपरा, कफ, वात, उदररोग, कृमि, कुष्ठ, गुल्म, प्रमेह, बवासीर और शूल का नाशक होता है। पलाश के बीज को स्निग्ध, चरपरा, गरम, कफ और कृमि का नाशक और गोंद को मलरोधक, ग्रहणी, मुखरोग, खाँसी और पसीने को दूर करनेवाला बताया गया है। कौशिकसूत्र में पलाश पेस्ट का प्रयोग जलोदर (पेट में सूजन) के लिए वर्णित है। बृहत्रयी में पलाश का प्रमुख रूप से प्रमेह या डायबिटीज, अपतानक (Emprosthotonus), अर्श या पाइल्स, अतिसार या दस्त, रक्तपित्त (कान-नाक से खून बहना), कुष्ठ आदि की चिकित्सा में प्रयोग मिलता है। ७ वीं शताब्दी के माधवा चिकित्सा अध्याय २ के अनुसार, अतिसार (दस्त) के उपचार में इसका उपयोग किया जाता है । अतिसार में प्रतिदिन तीन या अधिक ढीला, तरल, सामान्य से अधिक मल होता है। १  चम्मच पलाश बीज के काढ़े में १  चम्मच बकरी का दूध मिलाकर खाना खाने के बाद दिन में तीन बार सेवन करने से अतिसार में लाभ होता है। इस समय में बकरी का उबला हुआ ठंडा दूध और चावल ही लेना चाहिए।१० वीं शताब्दी के सौरपुराण के अनुसार, कृष्णष्टमी व्रत के लिए श्रावण और भाद्रपद महीनों में दाँत सफाई के लिए पलास की लकड़ी का उपयोग किया जाता है। १५ वीं शताब्दी में वासुदेव द्वारा रचित योगसारसंग्रह (योगसार-संग्रह) में औषधीय नुस्खों में पलाश का उल्लेख है। कश्यप संहिता के अनुसार विष निवारण हेतु अन्य वनस्पतियों के साथ पलाश का उल्लेख है। ग्रंथ 'भोजन कुटूहल' (१७ वीं शताब्दी) के अनुसार पलाश-पात्र में अथवा पलाश के ईंधन में उबाला गया पानी कफ-वात-पीनसंघ्न, रुचि और बृहण (कफ और वात) घटाता है, पीनसा रोग ठीक कर स्वाद में सुधार करता है। पलाश का फूल प्यास तथा कफ-पित्त घटानेवाला, उत्तेजना बढ़ानेवाला, डायबिटीज नियंत्रित करनेवाला होता है। पलाश के फल स्तम्भक व प्रमेहघ्न होते हैं। पलाश की गोंद एसिडिटी ह्रासक, शक्तिवर्धक तथा मुखरोग व खाँसी में फायदेमंद होती है। पलाश के पत्ते सूजन तथा वेदना को कम करते हैं। पञ्चाङ्ग कफ-वात को कम करने वाला होता है। पलाश की जड़ का रस रतौंधी और नेत्र के सूजन को कम कर नेत्र-ज्योति बढ़ाता है। पलाश का तना काम शक्ति बढ़ाता है। पलाश जड़ की छाल दर्द निवारक, अर्श या बवासीर तथा व्रण या अल्सर में फायदेमंद होता है।
                    पलाश की ताजी जड़ों का अर्क एक-एक बूँद आँखों में डालते रहने से मोतियाबिंद, रतौंधी आदि नेत्र रोगों में राहत मिलती है।ज्यादा गर्मी, ज्यादा ठंड या किसी बीमारी के साइड इफेक्ट के कर्ण नाक से रक्त-स्राव (नकसीर) हो तो  १०० मिली ठंडे पानी में भीगे हुए ५-७ पलाश फूल छानकर सुबह थोड़ी मिश्री मिलाकर पीने से  लाभ होता है। गलगंड या घेंघा (गोइटर) हो तो पलाश की जड़ को घिसकर कान के नीचे लेप करें। पलाश की ताजी जड़ का रस निकालकर अर्क की ४-५ बूँदें पान के पत्ते में रखकर खाने से भूख बढ़ती है।  उदरशूल, अफारा आदि में पलाश की छाल और शुंठी का काढ़ा या पलाश के पत्ते का काढ़ा ३०-४० मिली दिन में दो बार पीने से आराम मिलता है। एक चम्मच पलाश बीज चूर्ण दिन में दो बार खाने से पेट के सब कीड़े मरकर बाहर आ जाते हैं। पलाश के बीज, निशोथ, किरमानी अजवायन, कबीला तथा वायविडंग को समान मात्रा में मिलाकर ३ ग्राम गुड़ के साथ खिलाने से सब प्रकार के कृमि नष्ट हो जाती है। २ ग्राम पलाश पञ्चाङ्ग की भस्म को गुनगुने घी के साथ पिलाने से रक्तार्श (खूनी बवासीर) में बहुत लाभ होकार,  लगातार सेवन करने से मस्से सूख जाते हैं। पलाश के पत्रों में घी की छौंक लगाकर दही की मलाई के साथ सेवन करने से बवासीर में लाभ होता है। पलाश के फूलों को उबाल-पीस-सुखाकर पेडू पर बाँधने से मूत्रकृच्छ्र (मूत्र करते वक्त दर्द या जलन होना, मूत्र रुक-रुक कर आना, मूत्र कम होना) तथा सूजन में बहुत  लाभ होता है।२०  ग्राम पलाश पुष्प रात भर २०० मिली ठंडे पानी में भिगोकर सुबह थोड़ी मिश्री मिलाकर पिलाने से गुर्दे का दर्द तथा मूत्र के साथ रक्त का आना बंद हो जाता है। पलाश की सूखी हुई कोपलें, गोंद, छाल और फूलों को मिलाकर चूर्ण बना लेना चाहिए। इस चूर्ण में समान मात्रा में मिश्री मिलाकर ४  ग्राम चूर्ण  प्रतिदिन दूध के साथ सुबह शाम सेवन करने से मूत्रकृच्छ्र (मूत्र त्याग में कठिनता) में लाभ होता है।
                    पलाश की कोंपलों को छाया में सुखाकर कूट-छानकर गुड़ मिलाकर, ९ ग्राम सुबह सेवन करने से प्रमेह में लाभ होता है। पलाश की जड़ों के रस में ३ दिन तक गेहूँ के दानों को भिगो-पीसकर हलवा बनाकर खाने से प्रमेह, शीघ्र पतनऔर कामेन्द्रिय शैथिल्य में लाभ होता है। ५ बूँद पलाश मूल अर्क दिन में दो बार सेवन करने से अनैच्छिक वीर्यस्राव रुकता है और कामशक्ति प्रबल होती है। ४ बूँद पलाश बीज तेल कामेन्द्रिय के ऊपर (सीवन सुपारी छोड़कर) मालिश करने से कुछ ही दिनों में सब प्रकार की नपुंसकता दूर होती है और प्रबल कामशक्ति जागृत होती है। १० ग्राम पलाश बीज, २० ग्राम शहद और १० ग्राम घी को घोटकर, इसमें रूई को भिगोकर बत्ती बनाकर संभोग से तीन घण्टे पहले योनि में रखने से गर्भधारण नहीं होता। पलाश, कुसुम्भ के फूल तथा शैवाल को मिलाकर काढ़ा बनायें, ठंडा होने पर १५ मिली काढ़े में मिश्री मिलाकर पिलाने से पित्त प्रमेह में लाभ होता है। पलाश के फूलों की पुल्टिस बनाकर नाभि के नीचे बाँधने से अंडकोष की सूजन कम होती है। पलाश की छाल पीसकर ४ ग्राम  जल के साथ दिन में दो बार देने से अंडवृद्धि में लाभ होता है।  पलाश के बीज महीन पीसकर मधु के साथ मिलाकर दर्द वाले स्थान पर लेप करने से संधिवात या अर्थराइटिस में लाभ होता है। पलाश के पत्तों की पुल्टिस बाँधकर ५ ग्राम पलाश जड़ की छाल का चूर्ण बनाकर उसको दूध के साथ पीने से बंदगाँठ में लाभ होता है। १०० मिली पलाश की जड़ के रस में समान मात्रा में सफेद सरसों का तेल मिलाकर दो चम्मच सुबह-शाम पीने से श्लीपद रोग या हाथीपाँव में लाभ होता है। घाव सूख नहीं रहा है तो पलाश की गोंद का चूर्ण छिड़कने से जल्दी ठीक होता है।पलाश बीज से बने तेल को लगाने से कुष्ठ में लाभ होता है। दूध में उबाले हुए पलाश बीज, गंधक तथा चित्रक सुखाकर  सूक्ष्म चूर्ण बनाकर, २ ग्राम प्रतिदिन, १ मास तक जल के साथ लेने से मण्डल कुष्ठ में अतिशय लाभ होता है। पलाश बीज नींबू के रस के साथ पीसकर लगाने से दाद-खुजली ठीक होती है। पलाश जड़ पीसकर ५ बूँद नाक में टपकाने से मिर्गी का दौरा बंद हो जाता है। पलाश-पत्तों को पीस कर लेप करने से दाह (ज्वर) तथा जलन में लाभ होता है। ठंडे जल में पिसे हुए पलाश बीज का लेप सूजन कम करता है। पलाश के फूलों की पुल्टिस बनाकर बाँधने से सूजन घटती है।पलाशबीज का रस दूध के साथ पीसकर बिच्छू काटने के स्थान पर लेप करने से दर्द तथा विष का प्रभाव कम होता है।
                    पलाश-बीज में पेट के कीड़े मारने का गुण होता है। इसकी पतली डालियों को उबालकर एक प्रकार का कत्था तैयार किया जाता है जो कुछ घटिया होता है और बंगाल में अधिक खाया जाता है। पलाश से प्राप्त गोंद (कमरकस) का उपयोग कुछ खाद्य व्यंजनों में किया जाता है। इसके बीजों को नींबू के रस के साथ पीस कर खुजली तथा एक्ज़िमा तथा दाद जैसी परेशानियाँ दूर करने में काम में लिया जाता है। शहद के साथ पेस्ट बना कर अथवा पीस कर पाउडर की तरह सेवन करने से पेट में मौजूद कीड़ों से मुक्ति के लिये इसे उपयोगी पाया गया है। त्वचा के छालों तथा सूजन पर इसके पत्तों को लगाने से बहुत आराम मिलता है। इसकी पत्तियाँ 'रक्त शर्करा' (ब्लड शुगर) को कम करती है तथा 'ग्लुकोसुरिया' को नियंत्रित करती है, इसलिये मधुमेह की बीमारी में यह ख़ासा आराम देती हैं। पत्तियों के काढ़े को डोश के रूप में ल्युकोरिया की बीमारी में भी काम में लिया जाता है। गले की ख़राश, जकड़न में पत्तियों को पानी के साथ उबाल कर माउथवाश की तरह काम में लेने से बहुत आराम मिलता है। पलाश के शरबत के सेवन से शरीर को गर्मी सहन करने की शक्ति मिलती है।
साहित्य में पलाश  
                    संस्कृत और हिंदी के कवियों ने पलाश के सौंदर्य पर कितनी ही उत्तम उत्तम कविताएँ की हैं। संस्कृत में, फूल का व्यापक रूप से वसंत के आगमन और प्रेम के रंग के प्रतीक के रूप में उपयोग किया जाता है। एक पुराण कथा के अनुसार भगवान शिव और पार्वती का एकांत भंग करने के कारण अग्नि देव को शाप ग्रस्त होकर पृथ्वी पर पलाश के वृक्ष में जन्म लेना पड़ा। महाभारत, भागवत, कुमारसंभव, किरातार्जुनीयम्, शिशुपाल वध आदि में पलाश का उल्लेख है। पुष्पित पलाश वृक्ष के संबंध में महाकवि कालिदास की कल्पना बहुत ही सरस है। वे लिखते हैं- "वसंत काल में पवन के झोंकों से हिलती हुई पलाश की शाखाएँ वन की ज्वाला के समान लग रहीं थीं और इनसे ढकी हुई धरती ऐसी लग रही थी, मानो लाल साड़ी में सजी हुई कोई नववधू हो।" कालिदास के कुमारसम्भवम् में तपस्या करती पार्वती के सामने ब्रह्मचारी-रूप में शंकर प्रकट होते हैं।
अथाजिनाषाढ़धरः प्रगल्भवागज्वलन्निव ब्रह्ममयेन तेजसा।
विवेश कश्चिज्जटिलस्तपोवनं शरीरबद्धः प्रथमाश्रमो यथा।।
( इसी बीच एक दिन ब्रह्मचर्य के तेज से चमकता हुआ-सा हरिण की छाल ओढ़े और पलाश (ढाक) का दण्ड हाथ में लिए हुए , गठीले शरीरवाला और चतुराई के साथ बोलनेवाला एक जटाधारी ब्रह्मचारी उस तपोवन में आया। वह ऐसा जान पड़ता था कि साक्षात् ब्रह्मचर्याश्रम ही उठा चला आ रहा हो। )
कालिदास का यह श्लोक हमें बताता है कि 'आषाढ़' पलाश को भी कहते हैं। शंकर जब पार्वती के सामने प्रस्तुत होते हैं , तो उनके हाथ में पलाश का दण्ड दिखाया गया है , जो ब्रह्मचारी लेकर चला करते थे।

गीत गोविंद में जयदेव ने इन फूलों की तुलना कामदेव व उनके लाल नाखूनों से की है, जिनसे वे प्रेमियों के दिलों को घायल कर देते हैं। यह कल्पना और भी अधिक उपयुक्त है क्योंकि फूलों की तुलना किंशुकजाले से की गई है। पूरी तरह से पत्ती रहित पेड़ में, फूल एक जाल की तरह दिखते हैं। निम्नलिखित छंद का अनुवाद बारबरा स्टोलर मिलर द्वारा किया गया है।  किमसुका फूलों के लिए, वह सामान्य नाम "ज्वाला वृक्ष की पंखुड़ियाँ" का उपयोग करती है-
मृगमदसौरभर्भसवश्वनदवदलमलतमले।
यौजनहृदयविदारनमनसिजनखरुचिकिंशुकजाले॥
                    तमला वृक्ष की ताजी पत्तियाँ मृग कस्तूरी की तीव्र गंध को अवशोषित करती हैं। ज्वाला वृक्ष की पंखुड़ियाँ, प्रेम की चमकती हुई कीलें, युवा हृदयों को चीरती हैं।  
                    भारत की विभिन्न भाषाओं और लोक साहित्य में इस पुष्प और वृक्ष के मोहक वर्णन मिलते हैं।  इसके एक ही वृंत पर तीन पत्ते निकलते हैं। माना जाता है कि हिन्दी का प्रसिद्ध मुहावरा "ढाक के तीन पात" इसी से बना है। 
                    नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं और गीतों के ज़रिए , जिन्होंने इसके चमकीले नारंगी रंग के फूल की तुलना आग से की थी। शांतिनिकेतन में , जहाँ टैगोर और विशालनारायण रहते थे, यह फूल वसंत के उत्सव का एक अनिवार्य हिस्सा बन गया है। इस पौधे ने पलाशी शहर को अपना नाम दिया है , जो वहाँ लड़ी गई ऐतिहासिक प्लासी की लड़ाई के लिए प्रसिद्ध है। 
                    खुशवंत सिंह की किताब ए हिस्ट्री ऑफ़ द सिख्स वॉल्यूम १ में पंजाब के परिदृश्य के वर्णन में जंगल की लौ का उल्लेख किया गया है । वे लिखते हैं, "जबकि मार्गोसा अभी भी अपनी भंगुर गेरू की पत्तियों के साथ धरती को बिखेर रहा है, रेशमी कपास, मूंगा और जंगल की लौ चमकीले लाल, लाल और नारंगी रंग के फूलों में फूट पड़ी है।" इस पेड़ का संदर्भ अक्सर पंजाबी साहित्य में पाया जाता है। पंजाबी कवि हरिंदर सिंह महबूब ने अपनी कविताओं में इसके प्रतीकवाद का इस्तेमाल किया। 
                    रुडयार्ड किपलिंग की लघु कहानी बियॉन्ड द पेल (१८८८ में प्रकाशित प्लेन टेल्स फ्रॉम द हिल्स में शामिल) में , उन्होंने ढाक के बारे में कहा: ढाक के फूल का अर्थ अलग-अलग तरह से "इच्छा", "आना", "लिखना" या "खतरा" होता है, जो इसके साथ जुड़ी अन्य चीजों के अनुसार होता है। इस पेड़ को जंगल बुक की कहानी टाइगर! टाइगर! में भी दिखाया गया है। 
            आधुनिक काल में भी अनेक कृतियाँ, जैसे- रवीन्द्रनाथ त्यागी का व्यंग्य संग्रह- 'पूरब खिले पलाश', मेहरून्निसा परवेज का उपन्यास 'अकेला पलाश', मृदुला बाजपेयी का उपन्यास 'जाने कितने रंग पलाश के', नरेन्द्र शर्मा की 'पलाश वन', नचिकेता का गीत संग्रह 'सोये पलाश दहकेंगे', देवेन्द्र शर्मा इंद्र का दोहा संग्रह 'आँखों खिले पलाश', उपन्यास ढाक के तीन पात- मलय जैन,  काव्य संग्रह-यादों के पलाश- डॉ. संगीता भारद्वाज 'मैत्री', कहानी पलाश के फूल- अमरकांत आदि टेसू या पलाश की प्रकृति को ही केन्द्र में रखकर लिखी गई हैं। पलाश को केंद्र में रखकर आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने गीत, गजल, सॉनेट, हाइकु, दोहे, सोरठे आदि लिखे हैं। 
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जनवरी ९, सॉनेट, राधोपनिषद, राउत नाचा, हास्य, गीत, तसलीस, सूरज

सलिल सृजन जनवरी ९
सॉनेट
गौरैया कलरव करे, तुलसी जाए झूम,
बरगद बब्बा खाँसते, पीपल कक्का मौन,
इमली दादी टेरतीं, चैया देगा कौन,
ठुमक गिलहरी नाचती, नन्हें शिशु को चूम।।
बया-कबूतर मचाते, बैठ मुँडेरे धूम।
शुगर समझ के डालती, नीम बहुरिया नौन।
ननद चमेली मजा ले, देख तमाशा भौन।।
बिखरी लट-बिंदी कहे, बिना कहे जो राज,
सदा सुहागन लाज से, हुई लाल रतनार,
चूड़ी खनक खनक कहे, भाया चंपा खूब।
बैंगन देवर खिजाता, शीश सजाए ताज,
बिन पेंदी का लुढ़कता, आलू खाता खार,
भोर भई सूरज-उषा, हँसे हर्ष में डूब।
९.१.२०२४
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राधोपनिषद
*
शंख विष्णु का घोष सुन, क्षीर सिंधु दधि मग्न।
रमा राधिका रुक्मिणी, है हरि साथ निमग्न।।
ब्रह्म साथ जो प्रगटते, वे वैकुण्ठी मित्र।
विविध रूप धर प्रगटते, है यह सत्य विचित्र।।
नीलांबर प्रभु-छत्र है, व्यास आदि वंदन करें।
प्रभु महिमा का गान, करें सिंधु भव वे तरें।।
गदा कालिका, धनुष है, माया शर है काल।
कमल धरें लीला करें, भक्ति धारते भाल।।
गोप-गोपियों से नहीं, भिन्न आप गोपाल।
स्वर्ग निवासी अवतरे, प्रभु के संग निहाल।।
कृष्ण धाम वैकुण्ठ है, जाने देहातीत।
राम-कृष्ण दोउ एक हैं, दो हों भले प्रतीत।।
भू पर आ वैकुण्ठ खुद, सत-रज-तम धरकर रूप।
प्रभु के साथ सतत रहे, है यह कथा अनूप।।
गूढ़ अर्थ सरला जमुन, रहें शारदा साथ।
कर संकल्प दाधीच सम, रानी थामे हाथ।।
वेद ऋचाएँ बन गईं, गोपी-रानी आप।
सत्यभामा भू रूप धर, सकीं कृष्ण में व्याप।।
देव कृष्ण सान्निन्ध्य पा, धन्य हो गए आप।
सलिल कृष्ण अभिषेक कर, तरा जमुन में व्याप।।
राधातापनीयोपनिषद
राधा पूजन क्यों करें, दे प्रकाश आदित्य।
कहें शक्ति दैवत्व की, है राधा भवितव्य।।
सकल जीव अस्तित्व में, राधा-शक्ति सुहेतु।
हैं इन्द्रियाँ समस्त सुर, चेष्टा राधा सेतु।।
भू भुव: स्व: आहुती, राधा शक्ति प्रणम्य।
राधा-कृष्ण न भिन्न हैं, युगल रूप अति रम्य।।
श्रुतियाँ विनत नमन करें, हो राधिका प्रसन्न।
कृष्ण आप सेवक बनें, चाहें कृपा विपन्न।।
दिव्य रासलीला निरख, भूले जस अस्तित्व।
अंक बसे श्रीकृष्ण जी, बिसरा दें निज स्वत्व।।
त्रय सप्तक स्वर सप्त मिल, गाएँ राधा-कीर्ति।
शक्ति-शक्तिधर एक हैं, भले दिखें दो मूर्ति।।
९.१.२०२३
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छत्तीसगढ़ी रास राउत नाचा
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छत्तीसगढ़ की लोकनृत्य की परंपरा में राउत नाचा ( अहीर नृत्य, मड़ई) का महत्वपूर्ण स्थान है। राउत नाचा नंद ग्राम के गोप-गोपिकाओं के साथ कृष्ण द्वारा गौ चरवाहे के रूप में गोवर्धन व कालिंदी के तट पर किए गए नृत्य नाट्य का ही रूपांतरित रूप है जो पार (दोहे) बोलकर कृष्ण भक्ति को अभिव्यक्त करने हेतु तन्मयता के साथ नृत्य प्रस्तुत कर भावातिरेक प्रसन्नता प्रदर्शित करते हैं। उनके विशेष परिधान में धोती के साथ सलूखा, जैकेटनुमा रंग-बिरंगा चमकदार आस्किट, पगड़ी या मुराठा बाँधकरकर गुलाबी, बैगनी, हरे, नीले रंग की कलगी व मयूरपंख खोंसे (लगाए) रहते हैं। साथ में बाँसुरी, सिंग बाजा, डाफ, टिमकी, गुरदुम, मोहरी, झुनझुना जैसे वाद्य यंत्र पंचम स्वर तक पहुँच कर नए दोहा पारने के अंतराल तक रुके रहते हैं और दोहा पारते ही वाद्य के साथ रंग-बिरंगे लउठी और फरी (लोहे का कछुआ आकृति का ढ़ाल जिसके ऊपरी सिरे पर अंकुश होता है जो ढाल के साथ-साथ नजदीकी लड़ाई या आक्रमण या सुरक्षा के समय अस्र के रूप में उपयोग किया जाता है) के साथ योद्धा की मुद्रा में शौर्य नृत्य करते हैं।
राउत प्रकृति से शांत व गौसेवक के रूप में धार्मिक-सहिष्णु होते हैं। पहले अलग-अलग गोलों में नाचते हुए पुरानी रंजिश को लेकर पहले मातर, मड़ई आपस में खूब झगड़ा करते थे। आजकल मंचीय व्यवस्था होने से वे कम झगड़ते हैं। हाथ में लाठी व ढाल के अस्त्र उन्हें योद्धा का रूप देता है और वे दोहा और वाद्य यंत्रों के थाप पर आक्रमण और बचाव करने के नाना रूपों में शौर्य नृत्य करते हैं। पहले दैहान में खोड़हर गाड़कर मातर पूजन करते हुये लोग खोड़हर के चारों ओर घूमते हुये गोल या दल बना कर राउत नृत्य करते थे। तात्कालीन मंत्री स्व. बी. आर. यादव जी के प्रयास से १९७७ से बिलासपुर में राउत नृत्य का नया रूप सामने आय। जब विविध गाँवों से आए राउत नाचा दल गोल बिलासपुर में रउताई नृत्य करते हुए शनीचरी का चक्कर लगाते थे। उनमें व्यक्तिगत व सामूहिक दुश्मनी लड़ाई में बदल जाती थी। इस दुश्मनी को समाप्त करने सभी गोल के लोगों के पढ़े-लिखे प्रमुखों के मध्य एक बैठक कर इस नृत्य को एक सांस्कृतिक मंच का रूप दिया गया। मंच के लिए सार्वजनिक संस्कृति समिति गठितकर शहर कोतवाली के पास राउत नृत्य का आयोजन किया जाने लगा। स्थान कम पड़ने पर राउत नृत्य मंच का स्थान बदल कर लालबहादुर शास्त्री विद्यालय के मैदान में पहले लकड़ी का मंच और बाद में ईंट-सीमेंट का पक्का मंच बनाकर राउत नाचा आयोजित किया जाने लगा। एक समय इन गोलों की संख्या सौ से ऊपर तक पहुँच गई थी किंतु ग्रामीण नवयुवकों के शहर की ओर पलायन के कारण अब राउत नाचा का अभ्यास करने वाले लोग कम संख्या में मिलते हैं। आजकल लगभग पचास नृत्य गोल (दल) रह गए हैं। इन गोलों की वृद्धि एवं संरक्षण हेतु प्रयास किए जाना आवश्यक है।
छेरता पूष पुन्नी के दिन सुबह घर-घर जाकर छेर-छेरता (शाकंभरी माँ और वामन देव के रूप में) दान याचना कर, दानदाता गृहस्थ किसान को अन्न धन से भंडार भरने व क्लेश से बचे रहने का आशीर्वाद देते हैं। इन आयोजनों में बतौर सुरक्षा पुलिस साथ रहती है जो भीड़ नियंत्रण व लोगों के अनधिकृत प्रवेश पर रोक लगाती है। इससे बाहर से आनेवाले यादव समाज का एक वर्ग नाराज रहता है। ७२ वर्षीय डा. मंतराम यादव ने राउत नाचा को १९९२-९३ से सांस्कृतिक मंच अहीर नृत्य कला परिषद का गठन, साहित्य सृजन हेतु रउताही स्मारिका प्रकाशन तथा साहित्यकार सम्मान का कर नाराज व असंतुष्ट वर्ग को विश्वास में लेकर देवरहट में अहीर नृत्य मंच आरंभ किया। उनके दादा जी के पास लगभग चार सौ गायें थीं तब छुरिया कलामी, लोरमी के जंगलों में दैहान-गोठान में गाय रखते थे। सभी गायें देशी थीं तथा एक गाय एक से डेढ़ लीटर दूध देती थी। औषधीय घास पत्ते, जड़ी बूटी चरने के कारण उनका दूध पौष्टिक व रोह दूर करनेवाला होता था। उउनके पूर्वज नाथ पंथी थे। जंगली हिंसक पशुओं से बचने के लिए नाथपंथी मंत्र (साबर मंत्र) जो वशीकरण मंत्र होता था से अपनी रक्षा कर लेते थे। दादा जी वैदकी जानते थे और सामान्य रोगों जैसे लाल आँखी हो जाना आदि को फूँककर तथा एक थपरा (तमाचा) मारकर शर्तिया ठीक कर दिया करते थे। दादा जी पशुओं का भी इलाज करते थे। पशुधन की महामारी से रक्षा करने के लिए सावन के सोमवार व गुरुवार को गाँव बाँधते थे। बैगा के साथ लोहार सभी घर के दरवाजे पर लोहे की कील ठोंकते थे, राउत लोग नीम पत्ता की डंडी बाँधकर अभिमंत्रित दही-मही छींटते थे। कोठा में ठुँआ (अर्जुन के बारह नाम लिखकर) टाँगने का टोटका करते थे। ठुँआ में आग को मंत्र से बाँधकर उस पर नंगे पैर चलते हैं। जैसे ज्वाला देवी की आग से पानी उबलता है पर पानी गर्म नहीं लगता उसी तंत्र का प्रकारांतर है ठुँआ। उनके पिता जी बारह भाई-बहन में सबसे छोटे थे तथा उनके पास दंवरी करने के लिए पर्याप्त बैल थे। आज भी बिलासपुर स्थित उनके घर में सात गोधन हैं। आजकल बच्चों में गौ सेवा में रुझान कम हो होते जाना चिंता का विषय है। गौ सेवा आर्यधर्म होने के कारण सभी हिंदुओं व विशेष कर नाथ परंपरा का पवित्र कर्म है।
आजकल लोग गायों को हरी घास, पैरा, कुट्टी नहीं खिलाकर जूठन या रोटी सब्जी, दाल, फास्टफुड, बिस्किट, ब्रेड आदि कुछ भी खिलाकर गौ सेवा का भाव प्रदर्शित करते हैं। धनपुत्रों द्वारा गौ शालाओं के लिए होटलों से सौ रोटी बनवाकर गौ सेवा का पुण्य कमाने का अहं दिखाने के स्थान पर हरी घास प्रदाय की व्यवस्था की जाए तो शुद्ध आयुर्वेदिक दुग्ध व पवित्र गोबर की प्राप्ति हो तथा घसियारों (घास की खेती वकरने वालों) को रोजगार मिले। अन्न आदि भोजन का गौ स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। देशी भारतीय गाय व संकर नस्ल की विदेशी गायों के दुग्ध व गोबर की गुणवत्ता में अंतर साफ दिखता है जिसे आम उपभोक्ता नजरंदाज करते दिख रहे है। गोबर में मैत्रेय जैविक संरचना व परि शोधन गुण होता है तथा पवित्रता भावित गुण से युक्त होता है जबकि गौमल अपशिष्ट का दुर्गंधयुक्त हानिकारक विसर्जन होता है। जंगल में चरनेवाली देशी गाय और डेरियों से प्रदाय किए जानेवाले दूध का पान करें तो पहले से स्वाद, गाढ़ापन व तृप्ति का अनुभव होगा जबकि दूसरे में महक तथा पतलापन अनुभव होगा।
नाथ पंथ:
सनातनधर्म के बौद्ध, जैन, सिख, आदि पंथों प्राचीन नाथ पंथ है जिनमें प्रमुख नौ नाथ व चौरासी उपनाथों की परंपरा है। नाथ पंथ की शक्ति स्रोत शिव (केदारनाथ, अमरनाथ, भोलेनाथ, भैरवनाथ,गोरखनाथ आदि) हैं। कलियुग में नाथ पंथ के प्रसिद्ध गुरु गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) हुए हैं। लोकश्रुति के अनुसार गुरु गोरखनाथ का जन्म बारह वर्ष की अवस्थावाले बालक के रूप में गौ गोबर से हुआ, वे योनिज (स्त्री से उत्पन्न) नहीं थे। उन्होंने गौरक्षा के लिए जन जागरण अभियान चलाया तथा इस कार्य को साहित्य संहिताबद्ध कर अनेक ग्रंथ भी लिखे जिनमें अमवस्क, अवधूत गीता, गौरक्षक कौमुदी, गौरक्ष चिकित्सा, गौरक्ष पद्धति, गौरक्ष शतक आदि प्रमुख हैं। गुरु गोरख नाथ हठयोग सिद्ध योगी थे तथा गुरु मत्स्येंद्र नाथ के मानस पुत्र व शिव भगवान के अवतार थे। काया कल्प संपूर्णता उपरांत उन्होने समाधि ले ली। गोरखपुर में गुरु गोरखनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है जिसके परंपरागत महंत योगी आदित्यनाथ आजकल उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री हैं।
साबर:
साबर मंत्र सरल होते हैं जो नवनाथ द्वारा मानव कल्याण के लिए बनाए गए थे। आम लोगों के जीवन की दैविक, दैविक, भौतिक ताप या समस्याओं का शमन करनेवाले इन मंत्रों की संख्या लगभग सौ करोड़ हैं। इन्हें एकांत में शुद्ध मन से शुद्ध वातावरण में सिद्ध अर्थात प्रत्येक मंत्र के लिए निर्धारित संख्या में उच्चरित कर याद कर मंत्रमुग्ध या सिद्ध किया जाता है। इन मंत्रों का प्रयोग मानव कल्याण के उद्देश्य से ही करने के गुरु निर्देश हैं, इन मंत्रों का अनुचित प्रयोग से संबंधित व्यक्ति के लिए क्षतिकारक व विपरीत प्रभाव डालने वाला होता है। इस मंत्र की सिद्धि के लिए तर्पण, न्यास, अनुष्ठान, हवन जैसे कर्मकांड की आवश्यकता नहीं पड़ती है। किसी भी जाति, वर्ण, आयु, लिंग का व्यक्ति इसकी साधना कर सकता है। इन मंत्रों का उपयोग धन, शिक्षा, प्रगति, सफलता, व्यापार व जोखिम से बचने के लिए किया जाता है। इन मंत्रों को सिद्ध योगी धमकी देकर एवं अन्य श्रद्धा भाव से प्रयोग कर सकते हैं। गुरु गोरखनाथ जी की ज्ञानगोदरी प्राप्त करने के लिए पवित्र संकल्प के साथ गौ सेवा व नाथ सेवा करनी पड़ती है।
सर्वप्रभावी मंत्र:
"ओम गुरुजी को आदेश, गुरुजी को प्रणाम, धरती माता, धरती पिता, धरनी धरे न धीर बाजे, श्रींगी बाजे, तुरतुरी आया, गोरखनाथ मीन का पूत मुंज का छड़ा लोहे का कड़ा, हमारी पीठ पीछे यति हनुमंत खड़ा,शब्द सांवा पिंड काचास्फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा। "
भैरव मंत्र:
ॐ आदि भैरव जुगाद भैरव, भैरव है सब थाई। भैरो ब्रह्मा,भैरो ही भोला साइन।।
बाधा हरण मंत्र:
"काला कलवा चौसठ वीर वेगी आज माई, के वीर अजर तोड़ो बजर तोड़ो किले का, बंधन तोड़ो नजर तोड़ मूठ तोड़ो,जहाँ से आई वहीं को मोड़ो। जल खोलो जलवाई। खोलो बंद पड़े तुपक का खोलो, घर दुकान का बंधन खोलो, बँधे खेत खलिहान खोलो, बँधा हुआ मकान खोलो, बँधी नाव पतवार खोलो। इनका काम किया न करे तो तुझको माता का दूध पिया हराम है।
माता पार्वती की दुहाई। शब्द सांचा फुरो मंत्र वाचा।"
गुरु गोरखनाथ मंत्र:
ॐ सोऽहं तत्पुरुषाय विद्यहे शिव गोरक्षाय धीमहि तन्नो गोरक्ष प्रचोदयात् ॐ।
विद्या प्राप्ति मंत्र:
ॐ नमो श्रीं श्रीं शश वाग्दाद वाग्वादिनी भगवती सरस्वती नमः स्वाहा। विद्या देहि मम ऋण सरस्वती स्वाहा।।
लक्ष्मी प्राप्ति मंत्र:
ॐ ॐ ऋं ऋं श्रीं श्रीं ॐ क्रीं कृं स्थिरं स्थिरं ॐ।
उल्लेखनीय है कि राउत नाचा करनेवाले कृष्णभक्तों और नाथ संप्रदाय के शिवभक्तों के मध्य शृद्ध-विश्वास का ताना-बाना सदियों से सामाजिक स्तर पर बना। पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली से शिक्षित पीढ़ी मंत्र-तंत्र को त्याज्य व् अन्धविश्वास कहती है जबकि पुरानी पीढ़ी इनकी सत्यता प्रमाणित करती है। वस्तुत: किसी भी पारंपरिक विद्या परीक्षण किए बिना उसे ख़ारिज नहीं किया जाना चाहिए। राउतों द्वारा गौ के आहार पर दूध की गुणवत्ता व प्रभाव तथा शाबर मंत्रों के प्रभावों पर विज्ञान सम्मत शोध कार्य होना चाहिए। मन्त्रों का ध्वनि विज्ञान सिद्धांतों पर परिक्षण हो, उनके सामाजिक तथा वैयक्तिक प्रभाव का आकलन हो। राउत नाचा और गौपालन तथा गौ संरक्षण विद्या आधुनिक डेयरी प्रणाली के दुग्ध उत्पाद गुणवत्ता और प्रभाव पर परीक्षण जाएँ तो विज्ञान सम्मत निष्पक्ष निष्कर्ष पर सकेगा।
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पुस्तक सलिला-
'झील अनबुझी प्यास की' : गाथा नवगीती रास की
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[पुस्तक विवरण - झील अनबुझी प्यास की, नवगीत संग्रह, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर', वर्ष २०१६, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द जैकेट सहित, बहुरंगी, पृष्ठ १२८, मूल्य ३०० रु., उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२, नवगीतकार संपर्क ८६ तिलक नगर, बाई पास रोड, फीरोजाबाद २८३२०३, चलभाष ९४१२३ १६७७९, dr.yayavar@yahoo.co.in ]
सरसता, सरलता, सहजता, सारगर्भितता तथा सामयिकता साहित्य को समय साक्षी बनाकर सर्वजनीन स्वीकृति दिलाती हैं। डॉ. रामसनेही लाल शर्मा यायावर और गीत का नाता इस निकष पर सौ टका खरा है। गीत, मुक्तक, दोहा, हाइकु, ग़ज़ल, कुण्डलिनी, निबंध, समीक्षा तथा शोध के बहुआयामी सृजन में निरंतर संलग्न यायावर जी की सत्रह प्रकाशित कृतियाँ उनके सर्जन संसार की बानगी देती हैं। विवेच्य कृति 'झील अनबुझी प्यास की' का शीर्षक ही कृति में अन्तर्निहित रचना सूत्र का संकेत कर देता है। प्यास और झील का नाता आवश्यकता और तृप्ति का है किन्तु इस संकलन के नवगीतों में केवल यत्र-तत्र ही नहीं, सर्वत्र व्याप्त है प्यास वह भी अनबुझी जिसने झील की शक्ल अख्तियार कर ली है। झील ही क्यों नदी, झरना या सागर क्यों नहीं? यहाँ नवगीतकार शीर्षक में ही अंतर्वस्तु का संकेत करता है। कृति के नवगीतों में आदिम प्यास है, यह प्यास सतत प्रयासों के बावजूद बुझ नहीं सकी है, प्यास बुझाने के प्रयास जारी हैं तथा ये प्रयास न तो समुद्र की अथाह हैं कि प्यास को डूबा दें, न नदी के प्रवाह की तरह निरंतर हैं, न झरने की तरह आकस्मिक है बल्कि झील की तरह ठहराव लिये हैं। झील की ही तरह प्यास बुझाने के प्रयासों की भी सीमा है जिसने नवगीतों का रूप ग्रहण कर लिया है।
डॉ. यायावर समाज में व्याप्त विसंगतियों और पारिस्थितिक वैषम्य को असहनीय होता देखकर चिंतित होते हैं, उनकी शिक्षकीय दृष्टि सर्व मंगल की कामना करती है। 'मातु वागीश्वरी / दूर कर शर्वरी / सृष्टि को / प्राण को / ज्योति दे निर्झरी / मन रहे इस मनुज का / सदा छलरहित / उज्ज्वलम्, उज्ज्वलम्'। डॉ. यायावर के लिये नवगीत ही नहीं सकल साहित्य साधना 'उज्ज्वलम्' की प्राप्ति का माध्यम है, वे क्रांति की भ्रान्ति से दूर सर्व मंगल की कामना करते हैं। सभ्यता, संस्कृति, संस्कार के सोपानों से मानवीय उत्थान-पतन को देख यायावर जी का नवगीतकार मन चिंतित होता है 'खिड़कियाँ खुलती नहीं / वातायनों में / राम गायब / आधुनिक रामायणों में / तख्त पर बैठे मिले / अंधे अँधेरे / जुगनुओं से हारते / उजले सवेरे / जान्हवी अब पंक से / धोई हुई है / क्या करें? / कैसे बचायें?' विसंगतियों से निराश न होकर कवि उपाय खोजने के लिये प्रवृत्त होता है।
नवगीत को खौलाती संवेदन की वर्ण-व्यंजना अथवा मोम के अश्व पर सवार होकर दहकते मैदान पर चक्कर लगाने के समान माननेवाले यायावर जी के नवगीतों में संवेदना, यथार्थ, सामाजिक सरोकार तथा संप्रेषणीयता के निकष पर खरे उतरने वाले नवगीतों में गीत से भिन्न कथ्य और शिल्प होना स्वाभाविक है। 'अटकी आँधियाँ / कलेजों में / चेहरों पर लटकी मायूसी / जन-मन विश्वास / ठगा सा है / कर गया तंत्र फिर जासूसी / 'मौरूसी हक़' पा जाने में / राजा फिर समर्थ हुआ'।
यायावर जी का प्रकृतिप्रेमी मन जीवन को यांत्रिकता के मोह-पाश में दम तोड़ते देख व्याकुल है- ' 'रोबोटों की इस दुनिया में / प्रेम कथायें / पागल हो क्या? / मल्टीप्लेक्स, मॉल, कॉलोनी / सेंसेक्स या सेक्स सनसनी / क्रिकेट, कमेंट्री, काल, कैरियर / टेररिज़्म या पुलिस छावनी / खोज रहे हो यहाँ समर्पण / की निष्ठाएँ / पागल हो क्या? / लज्जा-घूँघट, हँसता पनघट / हँसी-ठिठौली, कान्हा नटखट / भरे भवन संवाद आँख के / मान-मनौवल नकली खटपट / खोज रहे हो वही प्यार / विश्वास-व्यथाएँ / पागल हो क्या?' जीवन के दो चेहरों के बीच आदमी ही खो गया है और यही आदमी यायावर के नवगीतों का नायक अथवा वर्ण्य विषय है- 'ढूँढ़ते हो आदमी / क्या बावले हो? / इस शहर में? / माल हैं, बाजार हैं / कालोनिया हैं - ऊबते दिन रात की / रंगीनियाँ हैं / भीड़ में कुचली / मरीं संवेदनाएँ / ढूँढ़ते स्वर मातमी / क्या बावले हो? / इस शहर में?
ये विसंगतियाँ सिर्फ शहरों में नहीं अपितु गाँवों में भी बरक़रार हैं। 'खर-पतवारों के / जंगल ने / घेर लिया उपवन / आदमखोर लताएँ लिपटीं / बरगद-पीपल से / आती ही / भीषण बदबू / जूही के अंचल से / नीम उदासी में / डूबा है / आम हुआ उन्मन।' गाँव की बात हो और पर्यावरण की फ़िक्र न हो यह कैसे संभव है? आम हुआ उन्मन, पुरवा ने सांकल खटकाई, कान उमेठे हैं, मौसम हुआ मिहिरकुल, कहाँ बची, भीतर एक नदी शीर्षक नवगीतों में प्रकृति और पर्यावरण की चिंता मुखर हुई है।
कुमार रवीन्द्र के अनुसार 'नवगीत दो शब्दों 'नव' तथा 'गीत' के योग से बना है। अत:, जब गीत से नवता का संयोग होता है तो नवगीत कहा जाता है। गीत से छांदसिकता और गेयता तथा नव का अर्थ ऐसी नव्यता से है जिसमें युगबोध, यथर्थ-चिंतन, सामाजिक सरोकार और परिवेशगत संवेदना हो।' डॉ. यायावर के नवगीत आम आदमी की पक्षधरता को अपना कथ्य बनाते हैं। यह आम आदमी, शहर में हो या गाँव में, सुसंस्कृत हो या भदेस, सभ्य हो या अशिष्ट, शुभ करे या अशुभ, ऐश करे या पीड़ित हो नवगीत में केवल उपस्थित अवश्य नहीं रहता अपितु अपनी व्यथा-कथा पूरी दमदारी से कहता है। आस्था और सनातनता के पक्षधर यायावर जी धार्मिक पाखंडों और अंधविश्वासों के विरोध में नवगीत को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं। 'गौरी माता, भोले शंकर / संतोषी मैया / सबका देंगे दाम / बताते हैं दलाल भैया / अंधी इस सुरंग के / भीतर है / लकदक दुनिया / बड़े चतुर हैं / बता रहे थे / पश्चिम के बनिया / तुमको तरह-तीन करेंगे / बड़े घाघ बनजारे हैं / गोधन-गोरस / गाय गोरसी / सबकी है कीमत / भाभी के घूँघट के बदले / देंगे पक्की छत / मंदिर की जमीन पर / उठ जायेगा / माल नया / अच्छे दिन आ गए / समझ लो / खोटा वक़्त गया / देखो / ये बाजार-मंडियां / सब इनके हरकारे हैं।'
वैश्वीकरण और बाज़ारीकरण से अस्त-व्यस्त-संत्रस्त होते जन-जीवन का दर्द-दुःख इन नवगीतों में प्रायः मुखरित हुआ है। बिक जा रामखेलावन, वैश्वीकरण पधारे हैं, इस शहर में, पागल हो क्या?, बाज़ार, क्षरण ही क्षरण बंधु आदि में यह चिंता दृष्टव्य है। मानवीय मनोवृत्तियों में परिवर्तन से उपजी विडंबनाओं को उकेरने के यायावर जी को महारथ हासिल है। धर्म और राजनीति दोनों ने आम जन की मनोवृत्ति कलुषित करने में अहं भूमिका निभायी है।यायावर जी की सूक्ष्म दृष्टि ने यह युग सत्य रजनीचर सावधान, खुश हुए जिल्लेसुभानी, आदमी ने बघनखा पहना, शल्य हुआ, मंगल भवन अमंगलहारी, सबको साधे, शेष कुशल है शीर्षक नवगीतों में व्यक्त किया है।सामाजिक मर्यादा भंग के स्वर की अभिव्यक्ति देखिए- ' घर में जंगल / जंगल में घर / केवल यही कथा / तोताराम असल में / तेरी-मेरी एक व्यथा / धृष्ट अँधेरे ने कल / सूरज बुरी तरह डाँटा / झरबेरी ने बूढ़े बरगद / को मारा चाँटा / मौसम आवारा था / लेकिन / ऐसा कभी न था।'
डॉ. यायावार हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ प्राध्यापक, शोध लेखक, शोध निर्देशक, समीक्षक हैं इसलिए उनका शब्द भण्डार अन्य नवगीतकारों से अधिक संपन्न-समृद्ध होना स्वाभाविक है। बतियाती, खौंखियाती, कड़खे, जिकड़ी, पुरवा, गुइयाँ, चटसार, नहान, विध्न, मैका, बाबुल, चकरघिन्नी, चीकट, सँझवाती, पाहुन, आवन, गलकटियों, ग्यावन, बरमथान, पिछौरी जैसे देशज शब्द, निर्झरी, उन्मन, दृग, रजनीचर, वैश्वीकरण, तमचर, रसवंती, अर्चनाएं, देवार्पित , निर्माल्य, वैकल्य, शुभ्राचार, साफल्य, दौर्बल्य, दर्पण, चीनांशुक, त्राहिमाम, मृगमरीचिका, दिग्भ्रमित, उद्ग्रीव, कार्पण्य, सहस्त्रार, आश्वस्ति, लाक्षाग्रह, सार्थवाह, हुताशन जैसे शुद्ध संस्कृतनिष्ठ शब्द, आदमखोर, बदबू, किस्से, जुनून, जिल्लेसुभानी, मुहब्बत, मसनद, जाम, ख्वाबघर, आलमपनाही, मनसबदार, नफासत, तेज़ाब, फरेब, तुनकमिजाजी, नाज़ुकखयाली, परचम, मंज़िल, इबारत, हादसा आदि उर्दू शब्द, माल, कार, कंप्यूटर, कमेंट्री, मल्टीप्लेक्स, कॉलोनी, सेंसेक्स, क्रिकेट, कमेंट्री, काल, कैरियर, टेरिरज़्म, फ्रिज, ओज़ोन, कैलेंडर, ब्यूटीपार्लर, पेंटिंग, ड्राइडन, ड्रेगन, कांक्रीट, ओवरब्रिज आदि अंग्रेजी शब्द अपनी पूर्ण अर्थवत्ता सहित गलबहियाँ डाले हैं. परिनिष्ठित हिंदी के आग्रहियों को ऐसे अहिन्दी शब्दों के प्रयोग पर आपत्ति हो सकती है जिनके प्रचलित हिंदी समानार्थी उपलब्ध हैं। अहिन्दी शब्दों का उपयोग करते समय उनके वचन या लिंग हिंदी व्याकरण के अनुकूल रखे गये हैं जैसे कॉलोनियों, रोबोटों आदि।
यायावर जी ने शब्द-युगलों का भी व्यापक प्रयोग किया है। मान-मनौअल, जन-मन, हँसी-ठिठोली, खट-मिट्ठी, जाना-पहचाना, राग-रंग, सुलह-संधि, छुई-मुई, व्यथा-वेदना, ईमान-धरम, सत्ता-भरम, लाज-शर्म, खेत-मड़ैया, प्यार-बलैया, अच्छी-खासी, चन-चबेना, आकुल-व्याकुल आदि शब्द युग्मों में दोनों शब्द सार्थक हैं जबकि लदा-फदा, आटर-वाटर, आत्मा-वात्मा, आँसू-वाँसू, ईंगुर-वींगुर, इज्जत-विज्जत आदि में एक शब्द निरर्थक है। लक-दक , हबड-तबड़ आदि ऐसे शब्द युग्म हैं जिनका अर्थ एक साथ रहने पर ही व्यक्त होता है अलग करने पर दोनों अंश अपना अर्थ खो देते हैं। बाँछें खिलना, राम राखे, तीन तेरह करना, वारे-न्यारे होना आदि मुहावरों का प्रयोग सहजता से किया गया है।
गुडाकेश ध्वनियाँ, पैशाचिक हुंकारें, मादक छुअन, अवतारी छवियाँ, फागुन की बातून हवाएँ, संवाद आँख के, समर्पण की निष्ठाएँ, सपनों की मरमरी कथाएं, लौह की प्राचीर, आँखों की कुटिल अँगड़ाइयाँ, कुरुक्षेत्र समर के शल्य, मागधी मंत्र जैसे मौलिक और अर्थवत्ता पूर्ण प्रयोग डॉ. यायावर की भाषिक सामर्थ्य के परिचायक हैं।केसरी खीर में कंकर की तरह कुछ मुद्रण त्रुटियाँ खटकती हैं। जैसे- खीज, छबि, वेबश, उद्वत आदि। 'सूरज बुरी तरह डाँटा' में कारक की कमी खलती है।
'समकालीन गीतिकाव्य: संवेदना और शिल्प' विषय पर डी. लिट. उपाधि प्राप्त यायावर जी का छंद पर असाधारण अधिकार होना स्वाभाविक है। विवेच्य कृति के नवगीतों में अभिनव छांदस प्रयोग इस मत की पुष्टि करते हैं। 'मंगलम्-मंगलम्' में महादैशिक, आम हुआ उन्मन में 'महाभागवत', रजनीचर सावधान में 'महातैथिक' तथा 'यौगिक', पागल हो क्या में 'लाक्षणिक' जातीय छंदों के विविध प्रकारों का प्रयोग विविध पंक्तियों में कुशलतापूर्वक किया गया है। मुखड़े और अंतरे में एक जाति के भिन्न छंद प्रयोग करने के साथ यायावर जी अँतरे की भिन्न पंक्तियों में भी भिन्न छंद का प्रयोग लय को क्षति पहुंचाए बिना कर लेते है जो अत्यंत दुष्कर है। 'इस शहर में' शीर्षक नवगीत में मुखड़ा यौगिक छंद में है जबकि तीन अंतरों में क्रमश: १२, ९, १२, ९, ९, १२ / १४, ७, १४, ७, १०, १८ तथा ७, ७, ७, ९, १२, २१ मात्रिक पंक्तियाँ है। कमाल यह कि इतने वैविध्य के बावजूद लय-भंग नहीं होती।
नवगीतों से रास रचाते यायावर जी विसंगति और विषमत तक सीमित नहीं रहते। वे नवशा एयर युग परिवर्तन का आवाहन भी करते हैं। जागेंगे कुछ / जागरण गीत / सोयेंगे हिंसा, घृणा, द्वेष / हो अभय, हँसेंगे मंगलघट / स्वस्तिक को / भय का नहीं लेश / देखेगा संवत नया कि / जन-मन / फिर से सबल-समर्थ हुआ, चलो! रक्त की इन बूंदों से / थोड़े रक्तकमल बोते हैं / महका हुए चमन होते हैं, तोड़नी होंगी / दमन की श्रंखलायें / बस तभी, आश्वस्ति के / निर्झर झरेंगे आदि अभिव्यक्तियाँ नवगीत की जनगीति भावमुद्रा के निकट हैं। चंदनगंधी चुंबन गीले / सुधाकुम्भ रसवंत रसीले / वंशी का अनहद सम्मोहन, गंध नाचती महुआ वैन में / थिरकन-सिहरन जागी मन में, नीम की कोंपल हिलातीं / मृदु हवाएँ / तितलियाँ भौरों से मिलकर / गुनगुनायें / रातरानी ने सुरभि का / पत्र भेजा, एक मुरली ध्वनि / मधुर आनंद से भरती रही / रास में डूबी निशा में / चाँदनी झरती रही / 'गीत' कुछ 'गोविन्द' के / कुछ भ्रमर के, आलिंगनों की / गन्धमय सौगात में / रात की यह उर्वशी / बाँहें पसारे आ गयी / चंद्रवंशी पुरुरवा की / देह को सिहरा गयी / नृत्यरत केकी युगल / होने लगे / सर्वस्व खोये जैसी श्रंगारिक अभिव्यक्तियों को नवगीतों में गूंथ पाना यायावर जी के ही बस की बात है।
नवगीत के संकीर्ण मानकों के पक्षधर ऐसे प्रयोगों पर भले ही नाक-भौंह सिकोड़ें नवगीत का भविष्य ऐसी उदात्त अभिव्यक्तियों से ही समृद्ध होगा। सामाजिक मर्यादाओं के विखंडन के इस संक्रमण काल में नवता की संयमित अबिव्यक्ति अपरिहार्य है। 'धनुर्धर गुजर प्रिया को / अनुज को ले साथ में / मूल्य, मर्यादा, समर्पण / शील को ले हाथ में' जैसी प्रेरक पंक्तियाँ पथ-प्रदर्शन करने में समर्थ हैं। नवगीत के नव मानकों के निर्धारण में 'झील अनबुझी प्यास की' के नवगीत महती भूमिका निभायेंगे।
९.१.२०१६
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तुम शब्द की संजीवनी का रूप अनूठा हो
शब्द जैसे सलिल सा बहता हुआ तुम्हीं हो
- पंकज त्रिवेदी
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हास्य सलिला:
याद
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कालू से लालू कहें, 'दोस्त! हुआ हैरान.
घरवाली धमका रही, रोज खा रही जान.
पीना-खाना छोड़ दो, वरना दूँगी छोड़.
जाऊंगी मैं मायके, रिश्ता तुमसे तोड़'
कालू बोला: 'यार! हो, किस्मतवाले खूब.
पिया करोगे याद में, भाभी जी की डूब..
बहुत भली हैं जा रहीं, कर तुमको आजाद.
मेरी भी जाए कभी प्रभु से है फरियाद..'
९.१.२०१४
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नवगीत:
निर्माणों के गीत गुँजाएँ ...
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चलो सड़क एक नयी बनाएँ,
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
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मतभेदों के गड्ढें पाटें,
सद्भावों की मुरम उठाएँ.
बाधाओं के टीले खोदें,
कोशिश-मिट्टी-सतह बिछाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
*
निष्ठा की गेंती-कुदाल लें,
लगन-फावड़ा-तसला लाएँ.
बढ़ें हाथ से हाथ मिलाकर-
कदम-कदम पथ सुदृढ़ बनाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
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आस-इमल्शन को सींचें,
विश्वास गिट्टियाँ दबा-बिछाएँ.
गिट्टी-चूरा-रेत छिद्र में-
भर धुम्मस से खूब कुटाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
*
है अतीत का लोड बहुत सा,
सतहें समकर नींव बनाएँ.
पेवर माल बिछाये एक सा-
पंजा बारंबार चलाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
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मतभेदों की सतह खुरदुरी,
मन-भेदों का रूप न पाएँ.
वाइब्रेशन-कोम्पैक्शन कर-
रोलर से मजबूत बनाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
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राष्ट्र-प्रेम का डामल डालें-
प्रगति-पंथ पर रथ दौड़ाएँ.
जनगण देखे स्वप्न सुनहरे,
कर साकार, बमुलियाँ गाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ..
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श्रम-सीकर का अमिय पान कर,
पग को मंजिल तक ले जाएँ.
बनें नींव के पत्थर हँसकर-
काँधे पर ध्वज-कलश उठाएँ.
निर्माणों के गीत गुँजाएँ...
*
टिप्पणी:
१. इमल्शन = सड़क निर्माण के पूर्व मिट्टी-गिट्टी की पकड़ बनाने के लिए छिड़का जानेवाला डामल-पानी का तरल मिश्रण, पेवर = डामल-गिट्टी का मिश्रण समान समतल बिछानेवाला यंत्र, पंजा = लोहे के मोटे तारों का पंजा आकार, गिट्टियों को खींचकर गड्ढों में भरने के लिये उपयोगी, वाइब्रेटरी रोलर से उत्पन्न कंपन तथा स्टेटिक रोलर से बना दबाव गिट्टी-डामल के मिश्रण को एकसार कर पर्त को ठोस बनाते हैं, बमुलिया = नर्मदा अंचल का लोकगीत।
२. इस नवगीत की नवता सड़क-निर्माण की प्रक्रिया वर्णित होने में है।
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तसलीस (उर्दू त्रिपदी)
सूरज
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बिना नागा निकलता है सूरज,
कभी आलस नहीं करते देखा.
तभी पाता सफलता है सूरज..
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सुबह खिड़की से झाँकता सूरज,
कह रहा जग को जीत लूँगा मैं.
कम नहीं खुद को आंकता सूरज..
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उजाला सबको दे रहा सूरज,
कोई अपना न पराया कोई.
दुआएं सबकी ले रहा सूरज..
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आँख रजनी से चुराता सूरज,
बाँह में एक, चाह में दूजी.
आँख ऊषा से लड़ाता सूरज..
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जाल किरणों का बिछाता सूरज,
कोई चाचा न भतीजा कोई.
सभी सोयों को जगाता सूरज..
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भोर पूरब में सुहाता सूरज,
दोपहर-देखना भी मुश्किल हो.
शाम पश्चिम को सजाता सूरज..
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काम निष्काम ही करता सूरज,
मंजिलें नित नयी वरता सूरज.
खुद पे खुद ही नहीं मरता सूरज..
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अपने पैरों पे ही बढ़ता सूरज,
डूबने हेतु क्यों चढ़ता सूरज?
भाग्य अपना खुदी गढ़ता सूरज..
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लाख़ रोको नहीं रुकता सूरज,
मुश्किलों में नहीं झुकता सूरज.
मेहनती है नहीं चुकता सूरज..
९-१-२०११

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