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रविवार, 7 जुलाई 2019

doha shatak sahiblal dasharie 'saral

ॐ 
दोहा शतक 
साहेबलाल दशरिये 'सरल'
















जन्म: ४.११.१९६५ 
आत्मज: श्री पन्नालाल दशरिये।
शिक्षा- एम.ए. (English, History.अंगरेजी, इतिहास), बी. एड.।
संप्रति: व्याख्याता।
प्रकाशन: काव्य संकलन अभिव्यक्ति भावों की, ये बेटियाँ, रानी अवंतीबाई की बलिदानगाथा। 
उपलब्धि: अनेक सम्मान, कविता पाठ।
संपर्क: वार्ड नम्बर ४, सुषमा नगर, बालाघाट म. प्र.।
चलभाष: ८९८९८००५००, ७०००४३२१६७,  ईमेल: sdsaral45@gmail.com
*

ॐ 
दोहा शतक 

कलम प्रखर पाषाण को, करदे चकनाचूर।
अभिमानी के दम्भ को, पल में चूराचूर।।
*
धीरे धीरे पर सतत, करते रहना यत्न।
गहरे पानी में मिले, बेशकीमती रत्न।।
*
विकृत पर्यावरण ही, दूषण कारण एक।
हरी-भरी धरती बने, कार्य कराओ नेक।।
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स्वार्थ साधने लिए, जंगल रहे उजाड़।
पेड़ काटकर कर दिया, पत्थर भरा पहाड़।।
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धरतीवालो जागिए, धरती करे पुकार।
वरना कल को मानिये, होगा हाहाकार।।
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एक पौध प्रतिवर्ष ही, जन्मदिवस पर रोप।
ताप-दाब संताप के, गर करना कम कोप।।
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आँगन में शहनाइयाँ, बजे नगाड़ा रोज।
खुशहाली आँगन रहे, हो जाने दो खोज।।
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जंगल में मंगल भरा, भरा रहे माहौल।
धरती को उपचार दो, धरा रही है ख़ौल।।
*
चिंतन में हरदम अगर, स्वार्ध-साधना सिद्ध।
लुप्त प्रजाति की तरह, बन जाओगे गिद्ध।।
*
धरा बचाने के लिए, सुंदर करें उपाय।
वरना जीवन का लगे, खतम हुआ अध्याय।।
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हरी-भरी धरती करो, हरियाली में जान। 
पेड़ों को ही मानिए, धरती का भगवान।।
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पास आपके है पड़ा, रुपया लाख करोड़।
धरा बने विकराल तो, प्राण जाएगा छोड़।।
*
धरा गाय सम मानिए, दुग्ध दिलाए  स्वास्थ।
मारामारी गर करो, जमकर मारे लात।।
*
गर्मी के दिन आ गये, ठंडी अब तो गोल।
चलो सँभलकर कह रहे, सोल पीटकर ढोल।।
*
तीरथ माँ के चरण से, हो जाता है पूर्ण।
माँ ही बच्चों के लिये, दुआ -वा का चूर्ण।।
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माँ है वेदों की ऋचा, माँ है सकल पुराण।
माँ को बाईबिल कहो, माँ है ग्रंथ कुरान।।
*
भूतल नभ पाताल में, माँ का है साम्राज्य।
माँ है संख्या एक से, होने वाली भाज्य।।
*
मन को मंदिर मान के, माँ का कर लो ध्यान।
ईश्वर-अल्लाह की मिले, माँ से ही पहचान।।
*
माँ पूजा की आरती, रोली चंदन धूप।
माँ नाना पकवान है, माँ अमृत सी सूप।।
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माँ की हो आराधना, माँ ही है आराध्य।
भवसागर से तारने, माँ इकलौती साध्य।।
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रहमतकर मौला सदा, सर हो माँ के पाँव। 
हरदम बरगद सी मिले, ठंडी-ठंडी छाँव।।
*
माँ बचपन की लेखनी, अक्षर सुंदर गोल।
कान खींचकर बोलती, मीठे-मीठे बोल।।
*
बातें माँ की जब चले, बातें बड़ी अथाह।
इसीलिये माँ की करें, सब बच्चे परवाह।।
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माँ सौ दो सौ पाँच सौ, माँगे नहीं हजार।
माँ को केवल चाहिये, निज बच्चों का प्यार।।
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माँ का जो संसार है, बच्चों का संसार।।
तत्पर करने ही रहे, बच्चों पर उपकार।।
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बच्चों को खुशियाँ मिले, माँ को है दरकार।
बच्चों से मिलकर बने, माता की सरकार।।
*
दानी दुनिया में बड़ी, माँ है वो करतार।
जो कुछ उसके पास में, सब देने तैयार।।
*
माँ जब आँखें मूँद ले, जग में हो अँधियार।।
गर माँ आँखें खोल दे, हो जाए उजियार।
*
जब तक घर में माँ रहे, घर में भरी उजास।
माँ बिन ऐसा मानिये, तन है पर बिन श्वास।।
*
माँ है घर में मान लो, घर में बहे बयार।
माँ के बिन सूना लगे, जग का कारोबार।।
*
माँ निधि मानों जगत में, सबसे है अनमोल।
भीषण संकट में कहे, हे माँ बरबस बोल।।
*
माँ का मतलब पूछिए, माँ बिन जो है लाल।
सब सूना-सूना लगे, जग का मायाजाल।।
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'माँ माँ माँ माँ माँ' कहे, हो जब रुदन पुकार।
माँ के दर्शन मात्र से, खुले बंद जो द्वार।।
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पूजा आजीवन करूँ, माँ देना वरदान।
हाथ सदा सर पर रहे, है मेरा अरमान।।
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हाव-भाव को देखकर, मन को लेती जान।
माँ ही जाने भावना, बच्चे की भगवान।।
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जिद्दी बच्चों से सदा, माँ हो जाती बाध्य।
माँ के ही हाथों कहे, मीठा लगता स्वाद।।
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माँ को दुःख देना नहीं, प्रभु होंगे नाराज।
सर पर माँ के हाथ से, सर पे होगा ताज।।
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सेवा जो माँ की नहीं, करता वो नादान।
जीते जी मुर्दा कहो, ऐसी जो संतान।।
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करना तुझको चाहिये, अदा दूध का कर्ज।
माँ ने पूरा कर दिया, माँ का जो था फर्ज।।
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माँ मत रोटी बेलकर, होने देना गोल।
बहुतेरे इस देश में, रोटी करते गोल।।
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खर्चीली शादी नहीं, करना तुम श्रीमान।
कम खर्चीला ब्याह कर, जग में बनो महान।।
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देना भी चाहे अगर, कोई तुम्हें दहेज।
लेना ही हमको नहीं, कहकर कर परहेज।।
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कितनी बेटी आज तक, लालच ने लीं लील।
घोड़े को थोड़ा कभी, भी मत देना ढील।।
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पारित संसद में करो, ऐसा अध्यादेश।
जो दहेज़ माँगे मिले, फाँसी का आदेश।।
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कलम सतत चलती रहे, करती रहे विरोध।
एक दिवस तो जगत को, आ जाएगा बोध।।
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हिंदुओं के दहेज पर, ठोकर करो कठोर।
आजीवन कारा मिले, उसे मिले न ठौर।।
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कौन कहाँ किसने यहाँ, लाया है दस्तूर।
खुद ही खुद से पूछते, खुद खुद से मजबूर।।
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बाबुल से बिटिया कहे, कैसी जग की रीत।
झरते आँसू कह रहे, बिलख-बिलख कर प्रीत।।
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जब मन कीजे आइये, पापा के घर-द्वार।
बढ़ा हमेशा ही मिले, कभी न कम हो प्यार।।
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बेटी के मन में सदा, चलता रहता द्वंद।।
दर पापा का हो रहा, धीरे-धीरे बंद।
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जिसके आगे सोचने, की ही बची न राह।
केवल जीवित चेतना, करती रहे कराह।।
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बिदा करे बेटी पिता, पल कितना गमगीन।
जैसे व्याकुल ही रहे, जल के बाहर मीन।।
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नहा दूध फल पूत हो, घर भी करे किलोल।
देह-देहरी दे सदा, सुख-समृद्धि माहौल।।
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जग- जुग फैले नाम की, जग में प्यारी गंध। 
ऐसा कुछ कर जाइये, दुनिया से संबंध।।
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खाने के लाले पड़े, रोजी बिन मजबूर।
खुद भूखा रह खिलाए, औरों को मजदूर।।
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दिन भर अपना कामकर, थककर सोया चूर।
बाँध सिदोरी चल पड़ा, निश्चित वो मजदूर।।
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लेना आता ही नहीं, अपने हक से दूर।
शोषित सबसे जो रहे, वो बनते मजदूर।।
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रहे लालसा ही मिले, खाने को भरपूर।
भूखा आधे पेट ही, सो जाता मजदूर।।
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भरवाना है माँग में, बेटी के सिंदूर।
बेबस हो घर बेचता, सिसक-सिसक मजदूर।।
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मानवता की बात को, मैं भी करूँ प्रणाम।
जो मन आया बोल लो, बातों का क्या दाम?
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मानवता संसार में, अगर बची तो बोल।
वरना हम सब साथ मिल, पीट रहे हैं ढोल।।
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मानवता की बात पर, मचा बड़ा कुहराम।
दानवता को मारने, आ जाना श्रीराम।।
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दीन दुखी के दर्द पर, करते वज्र प्रहार।
मानवीय उनको कहा, जग ने बारंबार।।
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नेता को बोलो: कहे, मानवता के बोल।
कथनी सुनकर आप-हम, चक्कर खाएँ गोल।।
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चिंता छोड़ो, हँस करो, अपने सारे काम।
अगर काम को चाहते, देना तुम अंजाम।।
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सबको अब मैदान में, करना है प्रस्थान।
अपनी यदि इस देश में, बनवाना पहिचान।।
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मिले कड़ी से जब कड़ी, बन जाए जंजीर।
जगा रहे जमीर तो, हम भी बनें कबीर।।
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सदियों तक सबको तभी, रखे जमाना याद।
खुद का खुद भगवान बन, खुद से कर फरियाद।।
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रख लो निर्मल भावना, जैसे निर्मल नीर।
अपनों को अपना कहो, तभी मिटेगी पीर।।
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साथ सभी का चाहिये, करना अगर विकास।
खींचा-तानी से मिले, सामाजिक संत्रास।।
*
चलना है चलते चलो, कछुआवाली चाल।
बैठे से तंगी बढ़े, हो जाओ कंगाल।।
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खड़ा ऊँट- नीचे पड़ा, ऊँचा बड़ा पहाड़।
बार-बार की हार को, देना बड़ी पछाड़।।
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चार दिनों की चाँदनी, चार दिनों का खेल।
पाल जीत-संभावना, मत हो जाना फेल।।
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मीठे-मीठे वचन से, कटते मन के जाल।
कह-कह तुम पर नाज सब, करते ऊँचा भाल।।
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मित्र इत्र सम चाहिये, पावन परम पवित्र।
महके जिसके चित्र से, चंदन भरा चरित्र।।
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रक्षाबंधन को करो, रक्षा का त्यौहार।
बहनों पर कोई कभी, करे न अत्याचार।।
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दया-भाव जिंदा रहे, दया-धरम का मूल।
जाति-धरम के नाम पर, पापी बोते शूल।।
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दुनिया भर की भीड़ में, ढूंढ रहे अस्तित्व।
हर इंसां को चाहिये, शानदार व्यक्तित्व।।

इस प्रतियोगी दौर में, कीचड़ सबके हाथ।
उजले को धुँधला करे, होती मिथ्या बात।।

साथ सभी का चाहिये, करना अगर विकास।
खींचा-तानी से मिले, सामाजिक संत्रास।।
*
सबका अपना दायरा, सबकी अपनी सोच।
करते स्वारथ साधने, तूतू-मैंमैं रोज।।
*
सत्य बड़ा खामोश है, झूठ रहा चिंघाड़।
सत्य बोल दिखला दिया, जिंदा दूँगा गाड़।।
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आज राज जाने बिना, मत मढ़ना आरोप।
सरे जमाने से हुआ, सच्चाई का लोप।
*
सुबक-सुबक कर रो रहा, आज बिचारा सत्य।
झूठ आज जमकर करे, ठुमक-ठुमक कर नृत्य।।
*
सरकारी थैला भरा, करते बंदरबाँट।
अगर बीच में आ गए, खड़ी करेंगे खाट।।
*
चुप्पी का माहौल है, सबके सब खामोश।
चलते फिरते जागते, लगते सब बेहोश।।
*
ढोंगी पाखण्ड़ी रचे, बहुविधि नाना स्वाँग।
पण्डे डंडे ले करे, डरा डरा कर माँग।।
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ज्ञान बाँटना ध्येय है, ज्ञान बाँटते नित्य।
करनी में अंतर रखे, कथनी के आदित्य।।
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मंदिर-मस्जिद के लिये, करते लोग विवाद।
शिक्षा-मंदिर बनाकर, बंद करो प्रतिवाद।।
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दारू पीकर दे रहे, दारू पर उपदेश।
पीने से घर टूटता, पैदा होता क्लेश।।
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मारा-मारी से अगर, मिलजाएँ प्रभु राम।
मंत्रों से ज्यादा करे, फिर तो लाठी काम।।
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राम नाम जपते रहो, मन मे हो विश्वास।
जूते लातों के बिना, पूर्ण न होगी आस।।
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मंदिर बनने से बढ़े, यदि तकनीकी ज्ञान।
उन्नत भारत के लिये, फिर हो वह वरदान।।
*
मस्जिद से संसार में, यदि होता कल्याण।
निज मन में करते नहीं, क्यों उसका निर्माण।।
*
मंदिर-मस्जिद की लगी, चारों कतार।
नाहक ही लड़ते रहे, लेकर हाथ कटार।।
*
धर्माडंबर मानना, हमें नहीं स्वीकार।
लूटपाट पाखंड को, कहना है धिक्कार।।
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तकनीकी के ज्ञान पर, करना मनन-विचार।
तर्कहीन सिद्धांत से, कर देना इनकार।।
*
धर्म सिखाता है सदा, कैसे पाए सत्य।
सत्यमार्ग को धारिये, जो आधारित तथ्य।।
*
बार-बार की हार को, बार-बार तू मार।
मार-मार कर हार को, देना बड़ी पछाड़।।
*
घूम-घूम पाते रहो, मधुकर सा आनंद।
वरना घर भीतर रहो, कर दरवाजा बंद।।
*
अच्छा करना-बोलना, अच्छाई का मंत्र।
बुरा भुला अच्छा कहे, जनगण टीव्ही तंत्र।। १०१ 
***

अक्सर रावण ही कहे, रावण को दो मार।
आशा राम रहीम पे, करते नहीं विचार।।
*
देवदासियों से भरी, डेरों की सरकार।
आज रामजी से कहो, कर इनका उद्धार।।

भक्तों की दौलत इन्हें, बना रही अय्यास।
बन्द चढ़ावे के लिये, शुरू करो अभ्यास।।

दर दर में लंका यहाँ, दर दर में लंकेश।
कामी क्रोधी ने धरा, सन्यासी दरवेश।।

रावण का षड्यंत्र है, भारी अत्याचार।
षड्यंत्रों को चीरना, रावण का संहार।।

अंतर में गर भरा हुआ, रावण तत्व निकाल।
सजा स्वयं देकर उसे, खुद को करो बहाल।।

संयम से भरपूर था, रावण का किरदार।
सीता को माता कहा, क्यूँ आखिर धिक्कार।।

त्राहिमाम अब कर रहें, बच्चे और किसान।
ऊपर वाले से कहो, बचा मिरे भगवान।।

मन से बानी बोलिये, आपा अपना खोल।
अक्षर जनमन पर लिखो, सुंदर गोल मटोल।।

दिन अच्छे बुलवाइए, जनता की दरकार।
वरना जुमलों से नहीं, चलती है सरकार।।



हिन्दू मुस्लिम ही कहो, बरस बिताओ पांच।
फिर पछतावा ही करो, उलझ चुकी जब आंच।।

अभी समय थोड़ा बचा, कर डालो कुछ खास।
वरना पछतावा मिले, रहे अधूरी आस।।

बड़े बड़े बोले बड़े, बड़बोले बन बोल।
शब्द व्यर्थ के अर्थ से, व्यर्थ अर्थ अनमोल।।

सबके मन में बात है, मन में सबकी चाह।
चेनल पर चेटिंग करे, पर अंधियारी राह।।

आसमान में देखते, लिए हाथ दुर्बीन।
मोदी जी दिखते नहीं, इसीलिये गमगीन।।

बुलेट ट्रेन ही चाहिये, लगता बड़ा अजीब।
खाने के लाले पड़े, जनता पड़ी गरीब।।

कौन कहां कैसे यहां, क्या करना उपयोग।
प्रथम जरूरत देखके, कर डालो परयोग।।

अवसर में ईश्वर बसे, अवसर को मत चूक।
रो रो कर बच्चा कहे, भूख लगी है भूख।।

केवल नुक्स निकाल के, करते जाया उम्र।
खुद में खुदा उकेरते, गर हो जाते नम्र।।

कविता से मतलब नहीं, जुमलों का ही काम।
अल्टी पल्टी चाहिए, पाना अगर मुकाम।।

मंच मिलेगा मंच से, मंचो का परपंच।
मंच बनाएगा तुम्हे, कवियों का सरपंच।।

कुछ कविता भी चाहिये, नौटंकी के संग।
रोना गाना चीखना, कविताई का रंग।।

कैसे छीने मंच को, चलता है षड्यंत्र।
प्रतियोगी करने लगे, तंत्र मंत्र अरु यंत्र।।

नहीं जानते आप गर, साम दाम अरु दंड।
कविता फिर तो हो गई, लगा लगा कर फंड।।

लाखों का करते कई, कविता का व्यापार।
और सुनाने के लिये, एक चीज हर बार।।

कवियों को भी चाहिए, अच्छा वाला वक्त।
सुनने वाले जो मिले, गली गली में भक्त।।

अच्छी कविता पर मिले, अच्छा सा प्रतिसाद।
जीवन भर मस्तिष्क में, बनी रहे जो याद।।

कविता अब तो बन गई, फूहड़ का पर्याय।
कविता जीवित रह सके, करना मगर उपाय।।

सत्यवचन स्वीकार्य हो, सत्य तथ्य की जीत।
झूठ दम्भ पाखण्ड से, मत कर लेना प्रीत।।

प्राणिमात्र समभाव हो, सभी जीव से प्यार।
ऊंच नीच में ही छिपी, मानवता की हार।।

मूर्खों को उपदेश दो, श्रम हो जाये व्यर्थ।
तर्क निरर्थक ही रहे, ज्यूँ ज्यूँ ढूंढो अर्थ।।

भला बुरा कहते रहे, राजा बने फकीर।
कड़ी कड़ी से मिल बनी, जोरदार जंजीर।।

सहयोगी वर्ताव से, मिलता है सहयोग।
गुना भाग करते रहे, घटते रहे सुयोग।।

जारी करने में रहे, अपना ही वक्तव्य।
सुनना भी कर्तव्य था, गुनना भी कर्तव्य।।

मन की मन में ही रखो, हल होते तक साध्य।
इक दिन अवसर ही कहे, बनकर के आराध्य।।

कलम हाथ में आ गई, पागल बना कबीर।
कलम दिखाता चीखता, कहता दूंगा चीर।।

सतत चलो चलते रहो, ले कर के संकल्प।
कहते हैं संकल्प का, कोई नहीं विकल्प।।

नमस्कार श्रीमान जी, नमस्कार श्रीमान।
दिन मंगलकारी रहे, दिल का है अरमान।।

रोज सबेरे बोलिये, सुंदर मीठा बोल।
दुनिया भर से फिर जुड़े, रिश्ते भी अनमोल।।

झूठे की स्वीकार्यता, को कर नामंजूर।
सत्य तथ्य को जान के, बहुमत दो भरपूर।।

मुख में मिसरी राखिए, गेह बढ़ेगा नेह।
पर अतिशय वर्जित कहो, वरन बढ़े मधुमेह।।

तुम जो कहते हो वही, ही हो सकता सत्य।
नहीं नहीं ऐसा नहीं, सत्य आपका कथ्य।।

चले कलम जिस ओर को, राह बने उस ओर।
सतत कलम जमकर करे, जोर जोर से शोर।।

बड़ी गलतफहमी हुई, खड़ी हुई दीवार।
मनभेदों मतभेद का, समय करे उपचार।।

अपने मन से मान के, बोला मैं ही नेक।
दूर सदा फहमी करो,  फिर अंतर में देख।।

सतत जोड़ते ही चलो, आपस में संपर्क।
अपनों को अपना कहो, किये बिना ही तर्क।।

मुश्किल से ही जोड़ते, पल में देते तोड़।
जोड़ जोड़िये ज्यूँ लगे, फेविकॉल का जोड़।।

सही सही होता नहीं, सही गलत सापेक्ष।
सही गलत जाने बिना, लगा नहीं आक्षेप।।

जिस रिश्ते की डोर ही, बिल्कुल हो कमजोर।
उस रिश्ते को तोड़ने, कर कोशिश पुरजोर।।

बड़ा लड़ाका कह रहा, लड़का जो नादान।
जिसके भीतर ज्ञान नहीं, बांट रहा है ज्ञान।।

खटरपटर करते रहे, चिल्लापों ही काम।
बकरबकर करते रहे, बिगड़े जग में नाम।।

शुभचिंतक से ही करो, हरदम सुलह सलाह।
उनकी भी परवाह हो, करते जो परवाह।।

ठोकर पत्थर तोड़ दे, शीशे की दीवार।
कच्चे रिश्तों से गुथी, नाजुक सी सलवार।।

बहुत सरल है बोलना, बहुत कठिन है मौन।
बात करेंगे हम नहीं, बात करेगा कौन।।
फेसबुकों पर फेस को, रखना बिल्कुल साफ। ०
बन जाये पहचान भी, अगर चाहते आप।।
*
लूंगा न लेने दूंगा, कसम खाइये आज।
फेंकू से पाला पड़े, सिर से खींचो ताज।। ०
*
लेना-देना ही नहीं, दहेज पिशाच है पाप।
जीते जी खुद्दार ही, बन ही जाना आप।। ०
*
करुण रुदन चलता रहा, मुख से कहे न बोल।
अंतर्मन करता रहा, अनबोले अनमोल।।
*
चाहे मस्जिद ही बने, या मंदिर बन जाय।
इनसे तो अच्छा रहे, वृद्धाश्रम बन पाय।।
धर्म नाम की चीज का, है ही नहीं न ज्ञान।
वही बाटते ज्ञान को, हो कर के विद्वान।।
*
मानवीय संवेदना, जग में हुई है शून्य।
पूस कड़ाके को कहे, आज भेड़िये जून।।

तीन बार मत बोलना, तलाक तलाक तलाक।
मजिस्ट्रेट अब बोलता, सटाक सटाक सटाक।।

दीनदुःखी पर हो दया,  मिल जाये भगवान।
दिल में मंदिर ले बना, कहलाओ इंसान।।

शोध लेख कृषि डॉ अनामिका राॅय

शोध लेख कृषि - रसायन अभियांत्रिकी
माइक्रोइनकेपसुलेशन: कृषि एवं कीटनाकों पर प्रभावी तकनीक

डॉ अनामिका राॅय
परिचयः

​डॉ अनामिका राॅय प्राध्यापक, रसायन एवं पर्यावरण विभाग, ओरिंयटल 
​इंजीनियरिंग महाविद्यालय जबलपुर। पसंदीदा  क्षेत्र कृषि रसायन एवं पर्यावरण विज्ञान एवं पाॅलीमर कैमिस्ट्री । कई विख्यात 
​अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोधलेध प्रकाशित।  इन्होने कुछ पुस्तकें भी  लिखी हैं। फरवरी 2010 में म. प्र. काउंसिल आॅफ साइंस  एंड  टेक्न¨लाॅजी द्वारा कृषि विज्ञान क्षेत्र केे यंग साइंटिस्ट अवार्ड से पुरस्कृत।
वर्तमान में कृषि की सेहत, पोषण एवं अर्थषास्त्र की दृष्टि से पृथ्वी में सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। कृषि की पैदावार बढ़ाने के लिये, उर्वरक, कीटनाषक, उन्नत मषीनें एवं उच्च तकनीकें उपयोग में लाई जाती है, पर यह सभी वातावरण प्रदूषण भूजल ,प्रदूषण मृदा क्षरण एवं वनों के विनाश को बढ़ावा देती हैं। जिसमें कीटनाकों के विषैले अणु वातावरण में मिल जाते हैं और मानव ​शरीर तथा पादप वर्ग के लिये हानिकारक सिध्द होते हैं। कीटनाक आज हमारे भोजन तक अपनी पहुँचबना चुके हैं क्योंकि कृषि एवं उच्च तकनीकें कीटनाषकों के उपयोग पर निर्भर हो चुकी है।
             कृषक वर्ग मानव निर्मित कीटनाषकों, जैसे साइपरमैथिरान, क्लोरपायरिफॅास ए इंडोसल्फान, डाइक्लोरोवॅास, एल्डिकार्ब का बहुत इस्तेमाल करता है। इस कारण कैंसर, किडनी, वमन, अवसाद एवं एलर्जी जैसे रोग तेजी से बढ़ रहे हैं। कीटनाक केवल कीटों को ही नहीं वरन जलीय जीव, तितलियों ,पक्षियों को भी हानि पहुँचाते हैं। कीटनाकों की सांद्रता खाद्य श्रंखला का संतुलन भी बिगाड़ती है। कीटनाशक को सीधे छिड़काव द्वारा फसल में डाले जाने पर उसका कुछ भाग भूजल तकएवं जलीय जीवों द्वारा खाद्य श्रृंखला के हर चरण तक पहुँचता है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर हर जीव तक कीटनाक का प्रभाव हो रहा है। जैवविविधता में भी कीटनाकों का असर दिखायी दे रहा है। संश्लेषित कीटनाषकों के अणु काफी लंबे समय तक विघटित नहीं होते हैं एवं उपयोग के बाद मृदा और वातावरण में उपस्थित रहते हैं, डीडीटी पाॅंच वर्ष तक, लिण्डेन सात वर्ष तक एवं आर्सेनिक तथा फ्लोरीन अनिश्चित समय तक वातावरण में उपस्थित रहते हैं। यूरोपियन यूनियन (ई.यू.) के अनुसार एकल कीटनाक की पर्यावरण जल में साॅंद्रता 0.1 प्रतिशत अधिकतम हो सकती है।कीटनाक एवं उनसे प्रभावित अंग:
क्र       खाद्यान्न        कीटनाक                                    प्रभावित अंग
1.       सेब ​                 क्लोरडेन               लीवर, फेफड़े, किडनी, आॅंख, तंत्रिका तंत्र
2.       दूध ​          क्लोरपायरिफास                   कैंसर, तंत्रिका तंत्र

​3.      अंडे               इंडोसल्फान                         तंत्रिका तंत्र, लीवर 


4.      चाय            फेनप्रोपथ्रिन ​                    तंत्रिका तंत्र, माॅंसपेशियाँ
5.        गेहूँ​                एल्ड्रिन                              कैंसर, अवसाद

​6.       चाँवल        क्लोरफेनविनफास                       कैंसर, एलर्जी ​

​7.       बैगन                हेप्टाक्लोर                      लीवर एवं तंत्रिका तंत्र
​                कीटनाकों की सांद्रता से होनेवाले दुष्परिणामों से बचाव के लिये वैज्ञानिकों द्वारा ‘‘कंट्रोल रिलीज टेक्नोलाजी’’ की खोज की गयी। यह वह तकनीक है जिसमें कीटनाक की सांद्रता को हम नियंत्रित रूप में निश्चित समय में निर्धारित लक्ष्य तक पहॅुचा सकते हैं। आज इस तकनीक का उपयोग कृषि, चिकित्सा, पोषण एवं फार्मेसी में हो रहा है।कंट्रोल रिलीज टेक्नोलाजी में बहुलक की उपयोगिताजैव बहुलक कृषि के लिये वरदान साबित हुआ है क्योंकि इसकी संरचना, अणुभार, आकार, एवं पार्शववर्तीश्रंखला की लंबाई किसी भी कीटनाशक को जुड़ने के लिये आधार प्रदान करती है।
          ‘‘कंट्रोल रिलीज टेक्नोलाजी’’ में मूलतः जैव बहुलक का उपयोग होता है क्योंकि यह अपघटित होने पर कोई भी अप
​शि
ष्ट पदार्थ उत्सर्जित नहीं करते एवं जल में घुलन
​शी
ल होने के कारण मृदा में 
​शेष
 नहीं बचता। बहुलक से कीटना
​श
क कैरियर के रूप में माइ
​क्रो
कैप्सूल, माइक्रो स्फीयर्स, कोटेड ग्रेन्यूल्स एवं ग्रेन्यूलर मेट्रिसेस बनायी जाती है। इन सभी कैरियर्स में कीटना
​श
क को बहुलक द्वारा निर्मित झिल्ली में डाल दिया जाता है और यह बहुलक झिल्ली, द्रव, गैस या ठोस रूप में हो सकता है, इस तरह से कीटनाषक को वातावरण के सीधे संपर्क में आने से रोका जा सकता है।
कीटना
​श
क युक्त बहुलक का निर्माण
कीटना
​श
क युक्त बहुलक कई विधियों द्वारा बनाया जा सकता है।
1
​. 
 रासायनिक आबंधन द्वारा:- इस विधि को दो भागों में बाॅंटा जा सकता है।
- किसी एकलक को बहुलीकरण की प्रक्रिया द्वारा बहुलक में परिर्विर्तत करके उसमें कीटना
​श
क को जोड़कर।
- इस विधि में कीटना
​श
क को सीधे बहुलक में मिला दिया जाता है।
2
​. 
 मैट्रिक्स इनकैपसुले
​श
न द्वारा
यह सबसे ज्यादा प्रचलित सरल विधि हैं। इसमें कीटनाषक किसी आवरण से घिरा नहीं होता है, अपितु कीटना
​श
क का मैट्रिक्स में छिड़काव या अव
​शो
षण कराया जाता है।
3
​.
 माइक्रो इनकैप्सुले
​श
इस तकनीक में कीटनाषक को ठोस कण, द्रव या गैस के बुलबुलों के रूप मे उपयोग में लिया जाता हैं इस विधि में सामान्यतः कार्बनिक बहुलक, वसा एवं मोम का उपयोग किया जाता है। माइक्रोकैप्सूल का व्यास सामान्यतः 3 से 800 मिली माइक्रोन के बीच होता है। इस तकनीक के द्वारा किसी भी द्रव को आसानी से उपयोग हेतु बनाया जा सकता है। माइक्रो इनकैप्सुले
​श
न की तकनीक फार्मास्यूटिकल्स, डाई, इत्र निर्माण, कृषि, प्रिंट्रिग, सौंदर्य प्रसाधन एवं चिकित्सा में उपयोग में लायी जाती है।
कृषि में जैव बहुलक
                   कृषि में फसल की गुणवत्ता एवं मात्रा को बढ़ाने के लिये जैव बहुलक सबसे अच्छे विकल्प साबित हुए हैं, क्योंकि यह जैव अपघटनीय होते हैं इस कारण वातावरण में कोई हानिकारक प्रभाव नहीं डालते हैं। सबसे ज्यादा प्रचलित बहुलक एमाईलोज, सैल्यूलोज, काबौक्सी मिथाइल सैल्यूलोज, एलजिनेट, स्टार्च, काइटोसिन, जिलेटिन इत्यादि हैं। जैव बहुलक का मृदा में अपघटन रासायनिक एवं सूक्ष्मजीवों द्वारा होता है, और इस प्रकार का अपघटन एक या एक से अधिक पदों में होता है। रायायनिक अपघटन, सूक्ष्मजीवी अपघटन की तुलना में तीव्र गति से होता है। वैज्ञानिकों द्वारा पिछले कुछ वर्षों में 
​संश्लेषित
 बहुलकों पर भी कार्य किया जा रहा था, प
​रं
तु 
 
​संश्लेषित
 बहुलक के अपघटनीय उत्पाद विषैले होने की वजह से अब जैव बहुलकों पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है क्योंकि जैव बहुलक काई भी ऐसे अपघटनीय उत्पाद 
​नहीं
 देते जिससे कि वातावरण या जीव जंतुओं पर काई दुष्प्रभाव हो। सूक्ष्मजीव जैसे कि फंजाई, बैक्टीरिया, एल्गी, जैव बहुलक के अपघटन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सूक्ष्मजीव जैव बहुलक का अपघटन एंजायमैटिक श्रॅंखला को तोड़कर करते हैं।
कुछ महत्वपूर्ण जैव बहुलक इस प्रकार हैं।
गवारपाठा:यह एक जैव बहुलक है जो मरूत्भिद पौधा होने के कारण जल संचयन की क्षमता रखता है। इसकी मांसल पत्ती का आॅंतरिक भाग साफ, मुलायम, नम एवं 
​श्लेष्मी
 ऊतकों से मिलकर बना होता है।
एल्जिनेटः यह भी एक जैव बहुलक है जो कि सोडियम, पौटे
​शि
यम एवं अमोनियम एल्जिनेट के रूप में पाया जाता है एवं गर्म एवं ठंडे दोनों प्रकार के जल घुलनषील होता है यह गंधहीन इमल्सिफायर के रूप में खाद्य पदार्थों की ष्यानता बढ़ाने में उपयोग में आता है।
काइटोसिन: यह एक जैव अपघटनीय बहुलक है। यह पौधों के प्रतिरक्षीतंत्र को नियॅंत्रित करता है एवं पौधों की रोगों तथा कीटों से रक्षा करता है। यह बिना किसी रासायनिक उर्वरक के सूक्ष्मजीवों की संख्या में वृध्दि कर सकता है।
सैल्यूलोज: यह पौ
​धों​
 के 50 प्रति
​श 
त 
​शुष्क
 भार एवं 50 प्रतिषत 
​कृषि 
 के अप
​शि
ष्ट पदार्थों से मिलाकर बनाया जाता है। सॅल्यूलोज का संपूर्ण अपघटन तीन कोएन्जाईम एक्सो β-1-4 ग्लूकेनेज, इंडो  β -1-4 ग्लूकेनेज एवं β.ग्लकोसाइडेज द्वारा होता हैं।
पैक्टिन: इस जैव बहुलक की संरचना बहुत जटिल होती है, इसकी निर्माण विधि इस बात पर निर्भर करती है कि यह किस विधि से उत्पादित है।
चित्रण् जैव बहुलक के प्रकार
माइ
​क्रो
इनकेप्सुले
​श
न द्वारा कीटना
​श
क युक्त माइक्रो स्फीयर्स का निर्माण
सर्वप्रथम जैव बहुलक को जल में घोलकर उसमें कीटना
​श
क मिलाकर एक विलयन बना लेते हैं, तैयार विलयन को सिरिन्ज की सहायता से क्र्रॅासलिंकर में डालकर इसके छोटे छाटे दानेनुमा आकृति के माइक्रोस्फीयर्स बना लेते हैं, इन माइक्रोस्फीयर्स को 24 घंटों के लिये 
​क्रो
सलिंकर में ही रहने देते हैं, बाद में इन्हें फिल्टर पेपर की सहायता से छानकर 48 घंटों के लिए 40ं
​से.
 पर ओवन में रख देते हैं, 
​शुष्क
 अवस्था में प्राप्त माइक्रोस्फीयर्स को पैक करके रख लेते हैं
​ . 
चित्रण् कीटना
​श
क युक्त माइक्रो स्फीयर्स का निर्माण
कंट्रोल रिलीज टेक्नालाॅजी से लाभ:
1
​.
​ ​
​की​
टना
​श
क का प्रभाव फसल पर 45 दिन तक रहता है अर्थात 45 दिन तक कीटना
​श
क के छिड़काव की जरूरत नहीं होती।

2. की
टना
​श
क सूर्य के प्रका
​श 
 में 
​ऊर्ध्व
पातित नहीं होता
3
​. भू
जल प्रदूषण नहीं होता।

4. जै
व बहुलक मृदा में अपने आप घुल जाता है, अर्थात कोई भी प्रदूषक 
​शे
ष नहीं बचता।
5
​. त
कनीक सस्ती एवं सुलभ है।
        कीटना
​श
क का हर अणु प्रकृति को बिगाड़ने के लिये क्रिया
​शी
ल रहता है। कृषक वर्ग की अज्ञानता एवं कीटना
​श
कों के विषैले प्रभाव का समुचित ज्ञान न हो पाने के कारण कई कृषकों की मृत्यु भी हो जाती है। सरकार द्वारा प्रतिबंधित कुछ कीटना
​श
क आज भी खुले आम बेचे जा रहै हैं। इन प्रतिबंधित कीटना
​श
कों के बारे में न ही कीटना
​श
क विक्रेता को कोई जानकारी है और न ही कृषकों को। आज के 
​शि
क्षित युवा वर्ग की यह जवाबदारी होना चाहिये कि हम किसानों को कीटना
​श
कों के प्रयोग  
​से ​
होनेवाले विषैले प्रभावों से हम उन्हें अवगत करायें एवं कंट्रोल रिलीज टैकनोलाजी से होने वाले लाभ को समझायें। इस तकनीक को व्यापारिक तौर पर अपनाने के पहले कुछ तथ्यों को जरूर ध्यान में रखना चाहिये।
1
​, मृ
दा उर्वरकता, भूजल एवं फसल की गुणवत्ता को नजरअंदाज न करते हुए केवल जैव बहुलक ही उपयोग करना चाहिये।
2
​. 
उत्पाद सस्ता होना चाहिये अगर उत्पाद सस्ता होगा तभी कृषक वर्ग इसे उपयोग कर सकेगा।

​३. य
दि प्रकृति में उपलब्ध कीटना
​श
क का उपयोग किया जावे तो उचित होगा, एवं इनकेप्सुले
​श
न के जरिए कीटना
​श
क लंबे समय तक प्रभावी रहेगा।
4
​.
 स्थानीय मृदा, पर्यावरण एवं मौसम को देखकर उत्पाद बनाया जावे तो अच्छे परिणाम मिलेंगे।
5
​अ. 
गर उत्पाद में कीटनाशक, उर्वरक, पोषक तत्व एवं जल मिला जावे तो यह ज्यादा प्रभाव
​शा
ली एवं सस्ती तकनीक साबित होगी।
              कंट्रोल रिलीज टेक्नोलाजी, कृषि एवं अन्य क्षेत्रों में सर्वाधिक उपयोग की जाने वाली तकनीक है, जिसमें कीटनाशक एवं अन्य पदार्थों का माइ
​क्रो
इनकेपसुले
​श
न कराकर उस सक्रिय पदार्थ की धीमी एवं वि
​शि
ष्ट साॅंद्रता प्राप्त की जाती है। इस तकनीक के द्वारा किसी भी कीटना
​श
क से होने वाले विषैले प्रभाव से बचा जा सकता है।

​सं
दर्भ:-
ए. राॅय, ए,के. बाजपेयी, जे बाजपेयी - कार्बोहाइड्रेट पाॅलीमर 2009, 76,221-231ण्
ए. राय, एस. के ंिसग, जे बाजपेयी, ए.के. बाजपेयी - सेन्ट्रल यूरोपियन जर्नल आफ कैमिस्ट्री- 2014  12ए453.469
आर. नायर, एस. एच. वर्गीस, बी. जी. नायर, टी. मेकावा, वाय. यौशिदा, डी. एम. कुमार -प्लांट साइंस 2010, 179, 154-163
पी.जे. फलोरी 1953, प्रिंसिपल आॅफ पाॅलीमर कैमिस्ट्री, इथाका, एन.वाय.कार्नेल यूनिवर्सिटी प्रे
​स ​
वाय. एच. ली, जे. सूकिम, एच. डोकिम की इंजी. मटेरियलस 2005, 217, 450- 454
​. ​

-------------------
परिचय: प्राध्यापक, रसायन शास्त्र, ओरिएण्टल इन्स्टीट्यूट ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलोजी, जबलपुर। अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोध-लेख प्रकाशित। 
​संपर्क: DR.ANAMIKA ROY, L.T.S.R.T.-391, A.C.C.COLONY,NEAR BUS STAND
POST-KYMORE,DISTT-KATNI PIN-483880 M.P.  CONT.No.-9425466270, 

अभिलेख : यांत्रिकी परियोजनाएँ और सामाजिक दायित्व

विशेष आलेख:
अभियांत्रिकी परियोजनाएँ और सामाजिक दायित्व 
अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' 
DCE, BE, MIE, MA(ECONOMICS, PHILOSOPHY), DIP JAOUNALISM, LL.B.
*
मनुष्य और अभियांत्रिकी परियोजनाएँ:
                         मानव सभ्यता का इतिहास अभियंत्रण योजनाओं के अभिकल्पन, रूपांकन, निर्मिति, उपयोग, ध्वंस तथा पुनर्निर्माण  कहानी है। हर देश-काल में अभियांत्रिकी परियोजनाएं मानव द्वारा मानव हेतु बनाई और मिटाती जाती रही हैं, कभी वैयक्तिक आवश्यकता पूर्ति हेतु, कभी सार्वजनिक या सामूहिक आवश्यकता पूर्ति हेतु। अभियांत्रिकी परियाजनाओं के अभिकल्पन और निर्माण काल में सामान्यत: आवश्यकता, उपयोगिता, व्यावहारिकता, सफलता, जीवनकाल तथा पर्यावरण व मानव जीवन पर प्रभावों आदि का ध्यान रखा जाना चाहिए किंतु ऐसा होता नहीं है। वर्तमान में केवल अनुबंध की शर्तों, वित्तीय सीमा, कानूनी पक्ष तथा शासकीय नीति को ही सब कुछ मान लिया गया है। इस कारण वह मानव जिसके लिए सकल अभियांत्रिकी अनुष्ठान किया जाता है, कहीं हाशिए पर भी नहीं रह जाता और जनगण की आशाओं-अपेक्षाओं को तो छोडिए, सामान्य जीवन की भी परवाह नहीं की जाती। फलत: अभियांत्रिकी परियोजनाएँ जन-विरोध और जनांदोलनों की शिकार होकर समय पर पूर्ण नहीं हो पातीं, किसी तरह अनुमान से बहुत अधिक व्यय तथा समय लगाकर पूर्ण हो भी जाएँ तो उपयोगिता के निकष पर खरी नहीं उतरतीं। प्रश्न यह उठता है कि  परियोजनाएँ मनुष्य के लिए हैं या मनुष्य परियोजनाओं के लिए?  

अभियांत्रिकी परियोजनाएँ, लोकमत और प्रशासन:
                         अभियांत्रिकी परियोजनाओं के क्रियान्वयन का कारण और उद्देश्य वे आम जन ही होते हैं जिनकी आवश्यकताओं और कठिनाइयों का पूर्वानुमान कर उन्हें दूर कर, सुख-सुविधाएँ देने के लिए अभियांत्रिकी विभाग, नीतियाँ और  परियोजनाएँ  बनाई और चलाई जाती हैं। विडम्बना यह है कि जन-आवश्यकताओं और जरूरतों का अनुमान लगाकर नीति बनाते समय शासन-प्रशासन और परियोजना बनाते समय अभियंता जन सामान्य से किसी प्रकार का संपर्क ही नहीं करता। जनमत, लोकमत या जनाकांक्षा की पूरी तरह अनदेखी की जाती है। जनजीवन के रहन-सहन, सभ्यता, संस्कृति, आदतों, आवश्यकताओं, रीति-रिवाजों आदि तत्वों को रौंदकर परियोजनाओं को बलात लाद दिया जाता है और जन-विरोध होने पर शासन-प्रशासन मदांध होकर जनगण को रौंद देना ही एक मात्र राह मानता है। अभियंता शासन का वेतनभोगी कर्मचारी होने के नाते आदेश पालन हेतु बाध्य होकर, जनाक्रोश का शिकार होता है। वर्तमान कार्यप्रणाली में अभियांत्रिकी योजनाओं के अभिकल्पन के समय अभियंता की कोई भूमिका ही नहीं होती। परियोजना का नीतिगत निर्णय हो जाने के बाद रूपांकन का कार्य उच्च स्तरीय अभियंता कार्यालयों में होकर, वित्तीय आवंटन होने और निविदा स्वीकृत होने के बाद निचले स्तर के अभियंता पर निर्माण का दायित्व थोप दिया जाता है। अपने ४० वर्षों के कार्यकाल में मैंने क्रमश: 'फील्ड इंजीनियर्स' की भूमिका को कम से कम होते और 'ऑफिस इंजीनियर्स' की भूमिका को बढ़ते हुए देखा है।  
                         सत्तर के दशक में शासन के स्तर से प्राप्त विभागवार आवंटन को विभागाध्यक्ष  मंडल तथा संभाग स्तर पर आवंटित करता था। अनुविभाग स्तर पर ग्राम पंचायतों के माध्यम से जन-आवश्यकताओं का आकलन कर उपखंड से प्राक्कलन बनवाकर विभागीय श्रमिकों या ठेकेदारों से कार्य कराया जाता था। इस पद्धति में ग्राम्य स्तर पर जनमत की भूमिका होती थी। कनिष्ठ यंत्री स्थान विशेष की मिट्टी, वर्षा, पर्यावरण, लोक जीवन, जन आवश्यकताओं आदि के अनुरूप प्रस्ताव बनाता था जिसे संभाग तथा मंडल स्तर पर  परखा जाकर नियमानुसार स्वीकृत कर क्रियान्वित किया जाता था। इस प्रकार जन सामान्य की परोक्ष अनुशंसा होने के कारण परियोजनाओं का विरोध नहीं होता था। यहाँ तक कि अनेक परियोजनों में जन-भागीदारी की शर्त भी होती थी। ग्राम्य विकास के कार्यों में प्रारंभ में ५०% वित्तीय जन सहयोग आवश्यक था जिसे क्रमश: घटाकर शून्य कर दिया गया। जन सहयोग मिलाकर किये गए निर्माण कार्यों के प्रति जन सामान्य का लगाव होता था, कोई भी शासकीय निर्माण सामग्री की न तो चोरी करता था, न निर्माण का विरोध या उसे क्षति पहुँचाई जाती थी। दुर्भाग्य से प्रशासन तंत्र को सीधे पिरामिड के स्थान पर आधार की भूमिका कम कर, शीर्ष की भूमिका अत्यधिक बढ़ा दी गयी, फलत: प्रशासन तंत्र उलटे पिरामिड की तरह अस्थिरता का शिकार हुआ। 
                         वर्तमान में निचले स्तर पर कार्यरत अभियंता और आम जनता की भूमिका परियोजना तय करने में शून्य है, भागीदारी भी नहीं है, लगाव भी शेष नहीं है। अब योजनायें जन-जीवन, जन आवश्यकताओं और जनांक्षाओं का ध्यान रखे बिना तथाकथित जन-प्रतिनिधियों की माँग पर, उच्च-स्तर से लाद दी जाती हैं। इस कारण बाँध, सड़क,  ताप बिजली घर आदि अनेक परियोजनाएँ जन-विरोध और जनांदोलनों का शिकार हुईं। जन-उपेक्षा से आहत जनभावनाएँ नक्सलवाद और अन्य हिंसक गतिविधियों का जनक बनीं। पहले जन सामान्य की राय महत्वपूर्ण थी, अब राजनैतिक दलों विशेषकर सत्ताधारी दल के हित महत्वपूर्ण हो गये हैं। जनतांत्रिक व्यवस्था के सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व जनमत की अनदेखी ने परोक्षत: प्रशासन तंत्र को निर्णायक बना दिया है। 'कोढ़ में खाज' यह कि तकनीकी कार्य विभागों की बागडोर मंत्री और प्रशासनिक सचिवों के हाथों में है, अभियंता विभागाध्यक्ष कठपुतली मात्र रह गए हैं। 

सरकार, अभियंता और ठेकेदार:
                         वर्तमान में वृहद अभियांत्रिकी परियोजनाएँ राजनैतिक आधार पर सरकार द्वारा तैयार कर, स्वीकृत और विज्ञापित की जाती हैं। शासकीय तकनीकी कार्य विभागों की भूमिका पर्यवेक्षण मात्र तक सीमित कर दी गयी है। कार्यों के रूपांकन, क्रियान्वयन, मापन और मूल्यांकन तक में ठेकेदार सर्वाधिक प्रभावी है। अधिकांश ठेकेदार राजनैतिक पृष्ठभूमि से, बाहुबल संपन्न, धनार्जनोन्मुखी, तकनीकी शिक्षहीन तथा कार्य की गुणवत्ता के प्रति उदासीन होते हैं। कार्य पर पदस्थ अभियंता को ठेकेदार के दबाव में उसके हित के अनुसार भुगतान करना होता है। बहुत बड़ी राशि के ठेके होने में सर्वोच्च स्तर पर लेन-देन के आरोप लगते रहे हैं। इस स्थिति में ठेकेदार अपना हित साधन न कर गुणवत्ता के प्रति आग्रही अभियंताओं को येन-केन-प्रकारेण रास्ते से हटाता है। अब अनेक छोटी और मझोली परियोजनाओं को एकत्र कर वृहद परियोजनाएँ तैयार की जा रही हैं चूँकि इनमें लाभ की राशी बहुत बड़ी होती है। ठेकेदारों को निर्माण सामग्री आयर यंत्रादि क्रय करने के लिए भी अग्रिम बड़ी धनराशि का भुगतान कर देयकों में समायोजन किया जा रहा है। ठेकेदार राशि का अन्यत्र निवेश कर लाभ कमाता है, योजनाओं को लंबित करता है, विधि विशेषज्ञों की सेवा लेकर तरह-तरह के वाद स्थापित करता है, योजनायें लंबित और अधिक खर्चीली तथा न्यून गुणवत्तायुक्त होती जाती हैं। फलत: अभियंता संवर्ग की सामाजिक छवि को क्षति पहुँचती है, समाचार माध्यम में अभियंता को सर्वाधिक भ्रष्ट चित्रित किया जाता है। 
                         वर्षों पूर्व शिक्षा प्राप्त अभियंताओं को नवीनतम निर्माण प्रविधियों, यंत्रों तथा प्रक्रियाओं का समुचित प्रशिक्षण दिए बिना उन्हें कार्यों पर पदस्थ कर दिया जाता है। शासकीय अभियंता के पास गुणवत्ता नापने का कोई स्वतंत्र साधन नहीं होता, पदार्थ परीक्षण प्रयोगशालाएँ ठेकेदार की ही होती है। परीक्षण यंत्रों की शुद्धता संदिग्ध होती है। यंत्रों का केलिब्रेशन यथासमय नहीं कराया जाता। निजी अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में निम्न शिक्षा स्तर तथा किसी भी तरह से परीक्षा उत्तीर्ण कराने की प्रवृत्ति ने बहुत बड़ी संख्या में ऐसे अभियंता उत्पन्न कर दिए हैं जिनका तकनीकी स्तर निम्न है। यही अकुशल अभियंता बेरोजगारी का शिकार होकर ठेकेदार द्वारा कम वेतन पर परियोजना कार्यों पर नियुक्त किये जाते हैं। सेवानिवृत्ति के समीप पहुँच चुके शासकीय अभियंता नवीनताम निर्माण प्रक्रिया से अपरिचित, ठेकेदार के प्रभाव से भयाक्रांत तथा विभागीय समर्थन के बिब्ना खुद को असहाय पाते हैं। वे कार्य की गुणवत्ता के प्रति कड़ा रुख अपनाएं तो स्थानांतरण, मार-पीट यहाँ तक कि हत्या के शिकार भी हो जाते हैं। यहाँ यह उल्लेख करना अनुचित न होगा कि सैन्य और अर्ध सैन्य बालों के बाद नागरिक सेवाओं में कार्य पर हत्या की सर्वाधिक दर अभियंताओं की है। 
                         अभियांत्रिकी परियोजनाओं के रथ को गतिमान रखनेवाले तीन पहिए सरकार, ठेकेदार और अभियंता के हित भिन्न होते हैं। फलत: वे तीन दिशाओं में गतिमान होते रहते हैं। कोई भी योजना समय पर पूरी नहीं होती और अनुमानित से बहुत अधिक खर्चीली सिद्ध होती है। सरकार और ठेकेदार परस्पर पूरक नहीं, प्रतिस्पर्धी की तरह कार्य करते हैं और दोनों के बीच 'फील्ड इंजीनियर' चक्की के दो पाटों के बीच दाने की तरह पिसता है। कानूनी प्रावधान पढ़ने में बहुत प्रभावी प्रतीत होते हैं किंतु उनका क्रियान्वयन दुष्कर और बहुधा असंभव होता है। अत्यधिक समय साध्य और अव्यावहारिक न्यायप्रणाली का लाभ ठेकेदार उठता है। कार्य की गुणवत्ता, यथासमय पूर्णता, मितव्ययिता, सुदृढ़ता आदि से ठेकेदार को कोई वास्ता नहीं होता, वह शीघ्रादिशीघ्र राशि प्राप्ति में ही रूचि रखता है। 
अनुपयुक्त तकनीक और जनहित की उपेक्षा: 
                         जन सामान्य के हित की अनदेखी उन योजनाओं और सामान्य कार्यों में भी की जाती है जहाँ सहज ही जन-हित संरक्षण संभव है। इसका कारण अभियंताओं का स्वकेंद्रित होना तथा सामाजिक दायित्व की अनुभूति न होना है। विश्व बैंक और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के दबाव में नगर विकास के नाम पर बहुत बड़ी मात्रा में ऋण लिया जाकर अव्यवहारिक योजनायें क्रियान्वित की जा रही हैं। 
मकानों में पानी भरना:
                         हर शहर और कसबे में इमारतों और सड़क के 'रिड्यूस लेवल' तय नहीं किये गए हैं। इमारत बनाते समय आसपास की जमीन और सड़क को देखते हुए लगभग एक मीटर ऊँचाई पर कुर्सी तल (प्लिंथ लेवल) तय कर लिया जाता है। कालांतर में सडकों की मरम्मत होते समय पुरानी सतह को खोदे बिना उस पर नई सतह बिछा दी जाती है। कुछ दशकों बाद सड़क का स्तर इमारतों के कुर्सी तल से ऊपर उठ जाता है। लगातार कचरा-मिट्टी पड़ने से जमीन का स्तर उठता जाता है। फलत: मकान डूब में आने लगते हैं। बरसात के समय आसपास का पानी ऊँची उठ चुकी सड़क पर से न बहकर, मकान में भरता जाता है। हजारों शहरों और कस्बों के करोड़ों आम लोगों को इस कष्ट से बचने के लिए करना केवल यह है कि सड़कों, इमारतों, सीवर लाइनों ओर वाटर पाइप लाइनों का 'रिड्यूस लेवल' भू पटीय स्थिति को देखकर तथा दूरी और ढाल के अनुपात को बनाए रखकर तय करना होगा। शासन नीति बना दे तो अभियंता सहज ही यह कार्य कर सकते हैं। 
पुरातात्विक सामग्री और भवनों की अनदेखी: 
                         नागरिक यांत्रिकी (सिविल इंजीनियरिंग) 
     





























  

लेख ; नवगीत और देश

ॐ 
आदरणीय बंधु!
सादर नमन। 
प्रकाशनार्थ एक आलेख संलग्न है. बैंक विवरण निम्न है- बैंक विवरण: देना बैंक, राइट टाउन जबलपुर, IFAC: BKDN 0811119, लेखा क्रमांक: 111910002247 sanjiv verma 
अग्रिम धन्यवाद सहित 
संजीव सलिल 

विशेष लेख-
नवगीत और देश 
-संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                      विश्व की पुरातनतम संस्कृति, मानव सभ्यता के उत्कृष्टतम मानव मूल्यों, समृद्धतम जनमानस, श्रेष्ठतम साहित्य तथा उदात्ततम दर्शन का धनी देश भारत वर्तमान में संक्रमणकाल से गुजर रहा है। पुरातन श्रेष्ठता, विगत पराधीनता, स्वतंत्रता पश्चात संघर्ष और विकास के चरण, सामयिक भूमंडलीकरण, उदारीकरण, उपभोक्तावाद, बाजारवाद, दिशाहीन मीडिया के वर्चस्व, विदेशों के प्रभाव, सत्तोन्मुख दलवादी राजनैतिक टकराव, आतंकी गतिविधियों, प्रदूषित होते पर्यावरण, विरूपित होते लोकतंत्र, प्रशासनिक विफलताओं तथा घटती आस्थाओं के इस दौर में साहित्य भी सतत संक्रमित और परिवर्तित हुआ है। छायावाद के अंतिम चरण के साथ ही साम्यवाद-समाजवाद प्रणीत नयी कविता ने राष्ट्र वाद को हाशिये पर डालकर, पारम्परिक जीवन-मूल्यों और गीत के समक्ष जो चुनौती प्रस्तुत की उसका मुकाबला करते हुए गीत ने खुद को कलेवर और शिल्प में समुचित परिवर्तन कर नवगीत के रूप में ढालकर जनता जनार्दन की आवाज़ बनकर खुद को सार्थक किया। साम्यवाद और समाजवाद के नाम पर केवल विसंगति, वैषम्य, त्रासदी, टकराव और बिखराव को साहित्य के केंद्र में लाकर जनस्था को भंग करने का दुश्चक्र भेदकर नवगीत ने राष्ट्रीयता, सुसंगति, मिलन, सद्भाव और बन्धुत्व के स्वत गुंजाने के लिए लोकगीतों और पारंपरिक छंदों का प्रच्र्ता से प्रयोग किया है। 

                      किसी देश को उसकी सभ्यता, संस्कृति, लोकमूल्यों, धन-धान्य, जनसामान्य, शिक्षा स्तर, आर्थिक ढाँचे, सैन्यशक्ति, धार्मिक-राजनैतिक-सामाजिक संरचना से जाना जाता है। अपने उद्भव से ही नवगीत ने सामयिक समस्याओं से दो-चार होते हुए, आम आदमी के दर्द, संघर्ष, हौसले और संकल्पों को वाणी दी। कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर नवगीत ने वैशिष्ट्य पर सामान्यता को वरीयता देते हुए खुद को साग्रह जमीन से जोड़े रखा प्रेम, सौंदर्य, श्रृंगार, ममता, करुणा, सामाजिक टकराव, चेतना, दलित-नारी विमर्श, सांप्रदायिक सद्भाव, राजनैतिक सामंजस्य, पीढ़ी के अंतर, राजनैतिक विसंगति, प्रशासनिक अन्याय आदि सब कुछ को समेटते हुइ नवगीत ने नयी पीढ़ी के लिये आशा, आस्था, विश्वास और सपने सुरक्षित रखने में सफलता पायी है।
पुरातन विरासत: 
                      किसी देश की नींव उसके अतीत में होती है। नवगीत ने भारत के वैदिक, पौराणिक, औपनिषदिक काल से लेकर अधिक समय तक के कालक्रम, घटना चक्र और मिथकों को अपनी ताकत बनाये रखा है। वर्तमान परिस्थितियों और विसंगतियों का विश्लेषण और समाधान करता नवगीत पुरातन चरित्रों और मिथकों का उपयोग करते नहीं हिचकता। ''जागकर करेंगे हम क्या? / सोना भी हो गया हराम / रावण को सौंपकर सिया / जपता मारीच राम-राम'' - (मधुकर अष्ठाना, वक़्त आदमखोर), ''अंधों के आदेश / रात-दिन ढोता राजमहल / मिला हस्तिनापुर को / जाने किस करनी का फल'' (जय चक्रवर्ती, थोड़ा लिखा समझना ज्यादा), "उत्तरायण की हवाएं / बनें शुभ की बाद / दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख / सत्य की हो आड़ / जन विरोधी सियासत को कब्र में दो गाद / झोंक दो आतंक-दहशत तुम जलाकर भाद / ढाल हो चिर शांति का/ तुम मत झुको सूरज" (काल है संक्रांति का- संजीव 'सलिल) आदिमें देश की पुरातन विरासत पर गर्वित तथा नवाता के प्रति आश्वस्त नवगीत सहज दृष्टव्य है। 

संवैधानिक अधिकार: 
                      भारत का संविधान देश के नागरिकों को अधिकार देता है किन्तु यथार्थ इसके विपरीत है- "मौलिक अधिकारों से वंचित है / भारत यह स्वतंत्र नागरिक / वैचारिक क्रांति अगर आये तो / ढल सकती दोपहरी कारुणिक" (आनंद तिवारी, धरती तपती है), "क्यों व्यवस्था / अनसुना करते हुए यों / एकलव्यों को / नहीं अपना रही है?" (जगदीश पंकज, सुनो मुझे भी), "तंत्र घुमाता लाठियाँ / जन खाता है मार / उजियारे की हो रही अन्धकार से हार / सरहद पर बम फट रहे / सैनिक हैं निरुपाय / रण जीतें तो सियासत / हारें, भूल बताँय / बाँट रहे हैं रेवाड़ी / अंधे तनिक न गम / क्या सचमुच स्वाधीन हम?" (संजीव वर्मा 'सलिल', सड़क पर) आदि में नवगीत देश के आम नागरिक के प्रति चिंतित है। "कन्दरा में यो अपरिचित / हम तुम्हें रहने न देंगे / शब्द का सद आचरण / सुर-ताल का चारा नहीं है / बालुई मिट्टी किसी भी / दुर्ग का गारा नहीं है / इन कुदालों की कुचलों से / कलश ढहने न देंगे" (वेद प्रकाश शर्मा 'वेद', आओ नीड़ बुनें) कहता नवगीत सपनों पर भरोसा करने का आव्हान करता है- "तुम / करो विश्वास / अब अपने जतन पर / स्वप्न देखो .... कर्म फल का स्वाद / तुम अब तो चखो / फिर जरा तुम गुन्ग्नाओ" (सुरेश कुमार पंडा, अँजुरी भर धूप)।  

गणतंत्र: 
                      देश के संविधान, ध्वज हर नागरिक के लिये बहुमूल्य हैं। गणतंत्र की महिमा गायन कर हर नागरिक का सर गर्व से उठ जाता है - "गणतंत्र हर तूफ़ान से गुजर हुआ है / पर प्यार से फहरा हुआ है ताल दो मिलकर / की कलियुग में / नया भारत बनाना है" (पूर्णिमा बर्मन, चोंच में आकाश)। नवगीत केवल विसंगति और विडम्बना का चित्रण नहीं है, वह देश के प्रति गर्वानुभूति भी करता है - "पेट से बटुए तलक का / सफर तय करते मुसाफिर / बात तू माने न माने / देश पर अभिमान करने / के अभी लाखों बहाने" (रामशंकर वर्मा, चार दिन फागुन के), "मुक्ति-गान गूँजे, जब / मातृ-चरण पूजें जब / मुक्त धरा-अम्बर से / चिर कृतज्ञ अंतर से / बरबस हिल्लोल उठें / भावाकुल बोल उठें / स्वतंत्रता- संगरो नमन / हुंकृत मन्वन्तरों नमन" (जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण', तमसा के दिन करो नमन) आदि में देश के गणतंत्र और शहीदों को नमन कर रहा है नवगीत।

वर्ग संघर्ष-शोषण: 
                      कोई देश जब परिवर्तन और विकास की राह पर चलता है तो वर्ग संघर्ष होना स्वाभाविक है. नवगीत ने इस टकराव को मुखर होकर बयान किया है- "हम हैं खर-पतवार / सड़कर खाद बनते हैं / हम जले / ईंटे पकाने / महल तनते हैं" (आचार्य भगवत दुबे, हिरन सुगंधों के), "धूप का रथ / दूर आगे बढ़ गया / सिर्फ पहियों की / लकीरें रह गयीं" (प्रो. देवेंद्र शर्मा 'इंद्र'), "सड़क-दर-सड़क / भटक रहे तुम / लोग चकित हैं / सधे हुए जो अस्त्र-शास्त्र / वे अभिमंत्रित हैं" (कुमार रवीन्द्र), "व्यर्थ निष्फल / तीर और कमान / राजा रामजी / क्या करे लक्षमण बड़ा हैरान / राजा राम जी" (स्व. डॉ. विष्णु विराट) आदि में नवगीत देश में स्थापित होते दो वर्गों का स्पष्ट संकेत करता है। सामाजिक समरसता में बाधक बनते धर्म, जनाशाओं को ध्वस्त करने की कोशिश करता भ्रष्टाचार नवगीत को आहत करता है- "खाप और फतवे हैं अपने मेल-जोल में रोड़ा / भ्रष्टाचारी चौराहे पर खाए न जब तक कोड़ा / तब तक वीर शहीदों के हम बन न सकेंगे वारिस / श्रम की पूजा हो समाज में, ध्वस्त न हो मर्याद"। 

                      विकासशील देश में बदलते जीवन मूल्य शोषण के विविध आयामों को जन्म देता है. स्त्री शोषण के लिए सहज-सुलभ है. नवगीत इस शोषण के विरुद्ध बार-बार खड़ा होता है- "विधवा हुई रमोली की भी / किस्मत कैसी फूटी / जेठ-ससुर की मैली नजरें / अब टूटीं, तब टूटीं" (राजा अवस्थी, जिस जगह यह नाव है), "कहीं खड़ी चौराहे कोई / कृष्ण नहीं आया / बनी अहल्या लेकिन कोई राम नहीं पाया / कहीं मांडवी थी लाचार घुटने टेक पड़ी" (गीता पंडित, अब और नहीं बस), "होरी दिन भर बोझ ढोता / एक तगाड़ी से / पत्नी भूखी, बच्चे भूखे / जब सो जाते हैं / पत्थर की दुनिया में आँसू तक खो जाते हैं" (जगदीश श्रीवास्तव) कहते हुए नवगीत देश में बढ़ रहे शोषण के प्रति सचेत करता है।
परिवर्तन-विस्थापन: 
                      देश के नवनिर्माण की कीमत विस्थापित को चुकानी पड़ती है. विकास के साथ सुरसाकार होते शहर गाँवों को निगलते जाते हैं- "खेतों को मुखिया ने लूटा / काका लुटे कचहरी में / चौका सूना भूखी गैया / प्यासी खड़ी दुपहरी में" (राधेश्याम /बंधु', एक गुमसुम धूप), "सन्नाटों में गाँव / छिपी-छिपी सी छाँव / तपते सारे खेत / भट्टी बनी है रेत / नदियां हैं बेहाल / लू-लपटों के जाल" (अशोक गीते, धुप है मुंडेर की), "अंतहीन जलने की पीड़ा / मैं बिन तेल दिया की बाती / मन भीतर जलप्रपात है / धुआँधार की मोहक वादी / सलिल कणों में दिन उगते ही / माचिस की तीली टपका दी" (रामकिशोर दाहिया, अल्लाखोह मची), "प्रतिद्वंदी हो रहे शहर के / आसपास के गाँव / गाये गीत गये ठूंठों के / जीत गये कंटक / ज़हर नदी अपना उद्भव / कह रही अमरकंटक / मुझे नर्मदा कहो कह रहा / एक सूखा तालाब" (गिरिमोहन गुरु, मुझे नर्मदा कहो), "बने बाँध / नदियों पर / उजड़े हैं गाँव / विस्थापित हुए / और मिट्टी से कटे / बच रहे तन / पर अभागे मन बँटे / पथरीली राहों पर / फिसले हैं पाँव" (जयप्रकाश श्रीवास्तव, परिंदे संवेदना के) आदि भाव मुद्राओं में देश विकास के की कीमत चुकाते वर्ग को व्यथा-कथा शब्दित कर उनके साथ खड़ा है नवगीत।
नवनिर्माण:
                      जननेता नरेंद्र मोदी जी ने देश में नवनिर्माण और स्वच्छता के महायज्ञ का अनुष्ठान कर जन-जन को सहभागिता हेतु प्रेरित और सक्रिय करने में अभूतपूर्व सफलता पाई है। नवगीत जननायक के साथ कंधे से कंधा मिलाकर, संकल्पों का सहभागी होकर चल पड़ा है, यह जानते हुए भी कि यथास्थितिवादी पीड़ा के नश्तर चुभते रहेंगे- "थाल सजाये / इच्छाओं के / करते मंत्रोच्चार / हवन कुंड में / धधक रहा है / आवेगों का ज्वार / यहाँ-वहाँ चुभते ही रहते / पीड़ा के नश्तर" (मालिनी गौतम, चिल्लर सरीखे दिन), "समय यह सन्देश देता / चिर उजालों में जियो / ज़हर भी पीना पड़े तो / चाव से उसको पियो" (शिवानन्द सिंह 'सहयोगी, रोटी का अनुलोम विलोम), "तुम भले ही साथ तोड़ो / नाव को मंझधार मोड़ो / हम भँवर से पार होकर / ढूँढ लेंगे खुद किनारे" (संध्या सिंह, मौन की झंकार), कोई राह / न रहे अँधेरी / आओ ऐसी ज्योति जगाएँ / नव आशा-उल्लास जगाकर / जिजीविषा का सूर्य उगाएँ" (धनंजय सिंह, दिन क्यों बीत गए), "दो घड़ी की रात है यह/ दो घड़ी का है अँधेरा / एक चिड़िया फिर क्षितिज में, खींच लायेगी सवेरा" (शुभम श्रीवास्तव 'ॐ', फिर उठेगा शोर एक दिन), "चक्रवाती है हवाएँ / बीच तुम अर्जुन अकेले / सब खड़े प्रतिपक्ष में हैं / विष बुझाए तीर ले-ले" (शीला पांडे, परों को तोल) आदि भाव मुद्राओं में नवगीत सतत सकारात्मकता को स्वीकारने का संदेश देता है। 

पर्यावरण प्रदूषण: 
                      देश के विकास साथ-साथ की समस्या सिर उठाने लगाती है। नवगीत ने पर्यावरण असंतुलन को अपना कथ्य बनाने से गुरेज नहीं किया- "इस पृथ्वी ने पहन लिए क्यों / विष डूबे परिधान? / धुआँ मंत्र सा उगल रही है / चिमनी पीकर आग / भटक गया है चौराहे पर / प्राणवायु का राग / रहे खाँसते ऋतुएँ, मौसम / दमा करे हलकान" (निर्मल शुक्ल, एक और अरण्य काल), "पेड़ कब से तक रहा / पंछी घरों को लौट आएं / और फिर / अपनी उड़ानों की खबर / हमको सुनाएँ / अनकहे से शब्द में / फिर कर रही आगाह / क्या सारी दिशाएँ" (रोहित रूसिया, नदी की धार सी संवेदनाएँ) कहते हुए नवगीत देश ही नहीं विश्व के लिए खतरा बन रहे पर्यावरण प्रदूषण को काम करने के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करता है। जंगलों के शरारीकरण के प्रति नवगीत की चिंता पंकज मिश्र 'अटल' नवगीत संग्रह बोलना सख्त मना है में व्यक्त करते हैं- "जंगल सारे / सभ्य हुए हैं / तकनीकी ढंग से / शहरीपन / चेहरों पर चित्रित / हैं गाढ़े रंग से / आलपिनी  / कथनों का कद है / बौना बन हुआ।"

भ्रष्टाचार: 
                      देश में पदों और अधिकारों का का दुरुपयोग करनेवाले काम नहीं हैं। नवगीत उनकी पोल खोलने में पीछे नहीं रहता- "लोकतंत्र में / गाली देना / है अपना अधिकार / अपना काम पड़े तो देना / टेबिल के नीचे से लेना" (ओमप्रकाश तिवारी, खिड़कियाँ खोलो,) "स्वर्णाक्षर सम्मान पत्र / नकली गुलदस्ते हैं / चतुराई के मोल ख़रीदे / कितने सस्ते हैं" (महेश अनघ), "आत्माएँ गिरवी रख / सुविधाएँ ले आये / लोथड़ा कलेजे का, वनबिलाव चीलों में / गंगा की गोदी में या की ताल-झीलों में / क्वाँरी माँ जैसे, अपना बच्चा दे आये" (नईम), "अंधी नगरी चौपट राजा / शासन सिक्के का / हर बाज़ी पर कब्जा दिखता / जालिम इक्के का" (शीलेन्द्र सिंह चौहान) आदि में नवगीत देश में शिष्टाचार बन चुके भ्रष्टाचार को उद्घाटित कर समाप्ति हेतु प्रेरणा देता है।

उन्नति और विकास: 
                      नवगीत विसंगति और विडम्बनाओं तक सीमित नहीं रहता, वह आशा-विश्वास और विकास की गाथा भी कहता है- "देखते ही देखते बिटिया / सयानी हो गयी / उच्च शिक्षा प्राप्त कर वह नौकरी करने चली / कल तलक थी साथ में / अब कर्म पथ वरने चली" (ब्रजेश श्रीवास्तव, बाँसों के झुरमुट से), "मुश्किलों को मीत मानो / जीत तय होगी / हौसलों के पंख हों तो।/ चिर विजय होगी" (कल्पना रामानी, हौसलों के पंख) कहते हुए नवगीत देश की युवा पीढ़ी को आश्वस्त करता है कि विसंगतियों और विडम्बनाओं की काली रात के बाद उन्नति और विकास का स्वर्णिम विहान निकट है।

प्यार और एकता: 
                      किसी देश का निर्माण सहयोग, सद्भाव और प्यार से हो होता है. टकराव से सिर्फ बिखराव होता है. नवगीत ने प्यार की महत्ता को भी स्वर दिया है- "प्यार है / तो ज़िंदगी महका / हुआ एक फूल है / अन्यथा हर क्षण / ह्रदय में / तीव्र चुभता शूल है / ज़िंदगी में / प्यार से दुष्कर / कहीं कुछ भी नहीं" (महेंद्र भटनागर, दृष्टि और सृष्टि), "रातरानी से मधुर / उन्वान हम / फिर से लिखेंगे / बस चलो उस और सँग तुम / प्रीत बंधन है जहाँ" (सीमा अग्रवाल, खुशबू सीली गलियों की), "मन करता है हर पीड़ा को / अमृत करूँ और लौटा दूँ / पास बुलाकर मीठे जल की / मेघों को बाँसुरी थमा दूँ / हर पीड़ा को प्रेम सिखा दूँ / जीवन का रास्ता दिखा दूँ" (स्व. कृष्ण शलभ, नदी नहाती है), वे लिखित थे या लेखित / प्यार के अधिकार कितने / देह की परिसीमता के पार के / अभिसार कितने" (यतीन्द्रनाथ 'रही', कांधों लदे तुमुल कोलाहल), में नवगीत जीवन में प्यार और श्रृंगार की महक बिखेरता है। "अलग-अलग / सब बँटे हुए हैं / फिर भी रहते एक" (बृजनाथ श्रीवास्तव, समय की दौड़ में) कहता नवगीत अब राष्ट्रीय एकता का स्वर उच्चार रहा है।  

आव्हान : 
                      "सपनों से नाता जोड़ो पर / जाग्रति से नाता मत तोड़ो तथा यह जीवन / कितना सुन्दर है / जी कर देखो... शिव समान / संसार हेतु / विष पीकर देखो" (राजेंद्र वर्मा, कागज़ की नाव), "सबके हाथ / बराबर रोटी बाँटो मेरे भाई" (जयकृष्ण तुषार), "गूंज रहा मेरे अंतर में / ऋषियों का यह गान / अपनी धरती, अपना अम्बर / अपना देश महान" (मधु प्रसाद, साँस-साँस वृन्दावन) आदि अभिव्यक्तियाँ नवगीत के अंतर में देश के नव निर्माण की आकुलता की अभव्यक्ति करते हुई आश्वस्त करती हैं कि देश का भविष्य उज्जवल है और युवाओं को विषमता का अंत कर समता-ममता के बीज बोने होंगे। शुभ के प्रति अखंड आस्था का स्वर निरंतर गुँजाता है नवगीत- "किस युग में लंकेश, कंस से / हुए न यहाँ चरित्र / रची गयी फिर भी रामायण / गीता ग्रन्थ पवित्र / मित्र! लेखनी से लिखना अब / लीला ललित ललाम"(संजय शुक्ल, फटे पाँवों में महावर), "बूँद पसीने की लेकर मैं / गूँथ रहा कर्मों का आटा" (धीरज श्रीवास्तव, मेरे गाँव की चिन्मुनकी), जड़ से तना, तना से शाखें / शाखों से पल्लव का जीवन / जिनमें जुड़े फूल-पाती हैं / जिनसे महक रहे वन-उपवन, एक कड़ी में जुड़ें रहें सब / जुड़ने में ही सबका हित है (देवेन्द्र 'सफल', हरापन बाकी है) आदि में नवगीत की संदेशवाही भावमुद्रा इस दशक के नए नवगीतकारों की अपनी उपलब्धि है। 
देशजता: 
                      निजता पर सार्वजनीनता को वरीयता देता नवगीत अब देशज बोलिओं को भी स्वर दे रहा है। 'काल है संक्रांति' का में संजीव 'सलिल' बुन्देलखंडी बोली में लोक छंद आल्हा के माध्यम से पाकिस्ताने दहशतगर्दों को चुनौती देते है- "भारतवारे बड़े लड़ैया /बिनसें हारें पाक सियार"।घर के अन्दर तो सब उजाला करते है, बात तो तब है जब बहार भी उअजाला किया जाए। डॉ. प्रदीप शुक्ल ने यह सन्देश दिया है भोजपुरी नवगीत संग्रह 'यहै बतकही में'- "घर के अन्दर तो / सब के जगमगु है भइया / पर लालटेन बाहर लटकाओ तौ मानी।"  
                      सारत:, नवगीत ने पारम्परिकता के साथ अदुनाताना को अपनाते हुए, जीवन के हर रंग को और अधिक रंगीं करते हुए सामाजिक टकरावों और बिखरावों को पोस रही विचार धाराओं को विचार के स्तर पर चुनौती देकर राष्ट्रीय और सामाजिक समरसता की सरगम को स्वर देने में सफ़लत पाकर ण केवल गीत अपितु हिंदी भाषा को भी नई ऊँचाइयाँ दी हैं।    

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