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मंगलवार, 26 मार्च 2019

चित्रगुप्त

चित्रगुप्त आख्यान
॥ ॐ यमाय धर्मराजाय श्री चित्रगुप्ताय वै नमः ॥
गरुड़ पुराण में कहा गया है कि चित्रगुप्त का राज्य सिंहासन यमपुरी में है और वो अपने न्यायालय में मनुष्यों के कर्मों के अनुसार उनका न्याय करते हैं तथा उनके कर्मों का लेखा जोखा रखते हैं,
‘धर्मराज चित्रगुप्त: श्रवणों भास्करादय:
कायस्थ तत्र पश्यनित पाप पुण्यं च सर्वश:’
चित्रगुप्तम, प्रणम्यादावात्मानं सर्वदेहीनाम।
कायस्थ जन्म यथाथ्र्यान्वेष्णे नोच्यते मया।।
(सब देहधारियों में आत्मा के रूप में विधमान चित्रगुप्त को प्रमाण। कायस्थ का जन्म यर्थाथ के अन्वेषण (सत्य कि खोज ) हेतु ही हुआ है।
>> यजुर्वेद आपस्तम्ब शाखा चतुर्थ खंड यम विचार प्रकरण से ज्ञात होता है कि महाराज चित्रगुप्त के वंसज चित्ररथ ( चैत्ररथ ) जो चित्रकुट के महाराजाधिराज थे और गौतम ऋषि के शिष्य थे ।
बहौश्य क्षत्रिय जाता कायस्थ अगतितवे।
चित्रगुप्त: सिथति: स्वर्गे चित्रोहिभूमण्डले।।
चैत्ररथ: सुतस्तस्य यशस्वी कुल दीपक:।
ऋषि वंशे समुदगतो गौतमो नाम सतम:।।
तस्य शिष्यो महाप्रशिचत्रकूटा चलाधिप:।।
“प्राचीन काल में क्षत्रियों में कायस्थ इस जगत में हुये उनके पूर्वज चित्रगुप्त स्वर्ग में निवास करते हैं तथा उनके
पुत्र चित्र इस भूमण्डल में सिथत है उसका पुत्र (वंसज ) चैत्रस्थ अत्यन्त यशस्वी और कुलदीपक है जो ऋषि-वंश
के महान ऋषि गौतम का शिष्य है वह अत्यन्त महाज्ञानी परम प्रतापी चित्रकूट का राजा है।”
विष्णु धर्म सूत्र (विष्णु स्मृति ग्रंथ के प्रथम परिहास के प्रथम श्लोक में तो कायस्थ को परमेश्वर का रुप कहा गया है।
येनेदम स्वैच्छया, सर्वम, माययाम्मोहितम जगत।
स जयत्यजित: श्रीमान कायस्थ: परमेश्वर:।।
यमांश्चैके-यमायधर्मराजाय मृतयवे चान्तकाय च।
वैवस्वताय, कालाय, सर्वभूत क्षयाय च।।
औदुम्बराय, दघ्नाय नीलाय परमेषिठने।
वृकोदराय, चित्रायत्र चित्रगुप्ताय त नम:।।
एकैकस्य-त्रीसित्रजन दधज्जला´जलीन।
यावज्जन्मकृतम पापम, तत्क्षणा देव नश्यति।।
यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतों का क्षय करने वाले, औदुम्बर, चित्र, चित्रगुप्त, एकमेव, आजन्म
किये पापों को तत्क्षण नष्ट कर सकने में सक्षम, नील वर्ण आदि विशेषण चित्रगुप्त के परमप्रतापी स्वरूप का बखान करते
हैं। पुणयात्मों के लिए वे कल्याणकारी और पापियों के लिए कालस्वरूप है।

गीत: करे फैसला कौन?

गीत
सामयिक रचना :
करे फैसला कौन?
संजीव
*
मन का भाव बुनावट में निखरा कढ़कर है
जो भीतर से जगा, कौन उससे बढ़कर है?
करे फैसला कौन?, कौन किससे बढ़कर है??
*
जगा जगा दुनिया को हारे खुद सोते ही रहे
गीत नर्मदा के गाये पर खुद ही नहीं बहे
अकथ कहानी चाह-आह की किससे कौन कहे
कर्म चदरिया बुने कबीरा गुपचुप बिना तहे
निज नज़रों में हर कोई सबसे चढ़कर है
जो भीतर से जगा, कौन उससे बढ़कर है?
करे फैसला कौन?, कौन किससे बढ़कर है??
*
निर्माता-निर्देशक भौंचक कितनी पीर सहे
पात्र पटकथा लिख मनमानी अपने हाथ गहे
मण्डी में मंदी, मानक के पल में मूल्य ढहे
सोच रहा निष्पक्ष भाव जो अपनी आग दहे
माटी माटी से माटी आयी गढ़कर है
जो भीतर से जगा, कौन उससे बढ़कर है?
करे फैसला कौन?, कौन किससे बढ़कर है??
*
२६.३.२०१४ 

दोहा

दोहा
नेह-नर्मदा सनातन, 'सलिल' सच्चिदानंद.
अक्षर की आराधना, शाश्वत परमानंद..
२६.३.२०१०
दोहा सलिला:
दोहा पिचकारी लिये
संजीव 'सलिल'
*

दोहा पिचकारी लिये,फेंक रहा है रंग.
बरजोरी कुंडलि करे, रोला कहे अभंग.. *
नैन मटक्का कर रहा, हाइकु होरी संग.
फागें ढोलक पीटती, झांझ-मंजीरा तंग.. *
नैन झुके, धड़कन बढ़ी, हुआ रंग बदरंग.
पनघट के गालों चढ़ा, खलिहानों का रंग.. *
चौपालों पर बह रही, प्रीत-प्यार की गंग.
सद्भावों की नर्मदा, बजा रही है चंग.. *
गले ईद से मिल रही, होली-पुलकित अंग.
क्रिसमस-दीवाली हुलस, नर्तित हैं निस्संग.. *
गुझिया मुँह मीठा करे, खाता जाये मलंग.
दाँत न खट्टे कर- कहे, दहीबड़े से भंग.. *
मटक-मटक मटका हुआ, जीवित हास्य प्रसंग.
मुग्ध, सुराही को तके, तन-मन हुए तुरंग.. *
बेलन से बोला पटा, लग रोटी के अंग.
आज लाज तज एक हैं, दोनों नंग-अनंग.. *
फुँकनी को छेड़े तवा, 'तू लग रही सुरंग'.
फुँकनी बोली: 'हाय रे! करिया लगे भुजंग'.. *
मादल-टिमकी में छिड़ी, महुआ पीने जंग.
'और-और' दोनों करें, एक-दूजे से मंग.. *
हाला-प्याला यों लगे, ज्यों तलवार-निहंग.
भावों के आवेश में, उड़ते गगन विहंग.. *
खटिया से नैना मिला, भरता माँग पलंग.
उसने बरजा तो कहे:, 'यही प्रीत का ढंग'.. *
भंग भवानी की कृपा, मच्छर हुआ मतंग.
पैर न धरती पर पड़ें, बेपर उड़े पतंग.. *
रंग पर चढ़ा अबीर या, है अबीर पर रंग.
बूझ न कोई पा रहा, सारी दुनिया दंग.. *
मतंग=हाथी, विहंग = पक्षी,
२६.३.२०१३ 

मुक्तक

मुक्तक
ममता को समता के पलड़े में कैसे हम तौल सकेंगे.
मासूमों से कानूनों की परिभाषा क्या बोल सकेंगे?
जिन्हें चाहिए लाड-प्यार की सरस हवा के शीतल झोंके-
'सलिल' सिर्फ सुविधा देकर साँसों में मिसरी घोल सकेंगे?
२६.३.२०१०
*
divyanarmada.blogspot.com

एक गीत : कौन तुम महादेवी वर्मा

विरासत
एक गीत :
कौन तुम
महादेवी वर्मा 
*
कौन तुम मेरे हृदय में ?
कौन मेरी कसक में नित
मधुरता भरता अलक्षित ?
कौन प्यासे लोचनों में
घुमड़ घिर झरता अपरिचित ?
स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा
नींद के सूने निलय में !
कौन तुम मेरे हृदय में ?
अनुसरण निश्वास मेरे
कर रहे किसका निरन्तर ?
चूमने पदचिन्ह किसके
लौटते यह श्वास फिर फिर
कौन बन्दी कर मुझे अब
बँध गया अपनी विजय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?
एक करूण अभाव में चिर-
तृप्ति का संसार संचित
एक लघु क्षण दे रहा
निर्वाण के वरदान शत शत,
पा लिया मैंने किसे इस
वेदना के मधुर क्रय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?
गूँजता उर में न जाने
दूर के संगीत सा क्या ?
आज खो निज को मुझे
खोया मिला, विपरीत सा क्या
क्या नहा आई विरह-निशि
मिलन-मधु-दिन के उदय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?
तिमिर-पारावार में
आलोक-प्रतिमा है अकम्पित
आज ज्वाला से बरसता
क्यों मधुर घनसार सुरभित ?
सुन रहीं हूँ एक ही
झंकार जीवन में, प्रलय में ?
कौन तुम मेरे हृदय में ?
मूक सुख दुख कर रहे
मेरा नया श्रृंगार सा क्या ?
झूम गर्वित स्वर्ग देता -
नत धरा को प्यार सा क्या ?
आज पुलकित सृष्टि क्या
करने चली अभिसार लय में
कौन तुम मेरे हृदय में ?
***

समय वृक्ष है, सूखा पत्ता एक झरेगा आँखें मूँदे

यू ट्यूब पर संजीव वर्मा 'सलिल'

यू ट्यूब पर संजीव वर्मा 'सलिल'
*
नव वर्ष
https://www.youtube.com/watch?v=OE7DB4Q832Q

गीत: नए साल का
https://www.youtube.com/watch?v=B_HpsAed1lA

नवगीत: समय वृक्ष है, सूखा पत्ता एक झरेगा आँखें मूँदे
https://www.youtube.com/watch?v=y0nGTMYKDL4

बसन्ती मुक्तक
https://www.youtube.com/watch?v=HgI97WHHS-g

चूहा झाँक रहा
https://www.youtube.com/watch?v=GR7UNZ9GMJQ

नवगीत: सड़क पर १ ध्वन्यांकन राजा अवस्थी
https://www.youtube.com/watch?v=HB5NSpbBkN8

नवगीत सड़क पर २ ध्वन्यांकन राजा अवस्थी
https://www.youtube.com/watch?v=Bp23U9vYD4s

नवगीत: कोई बताए
https://www.youtube.com/watch?v=hmbBbExq9o8

नवगीत: १ कालचक्र का, २ नए साल मत हिचक, ३ कुंडी खटका उठ खेल द्वार
https://www.youtube.com/watch?v=MMLiSRb3cbE

मुक्तक-गीत
https://www.youtube.com/watch?v=pQGJdAJW_1E

अखिल भारतीय सम्मेलन गहमर २०१७
https://www.youtube.com/watch?v=jMECVM-T6kw

काव्य पाठ : दिल्ली ध्वन्यांकन ओमप्रकाश शुक्ल
https://www.youtube.com/watch?v=JreB0cD3ECM
*


गया प्रसाद स्मृति मंच भोपाल
https://www.youtube.com/watch?v=FAXEZAU1Qnw

व्याख्यान: लघुकथा, भाषा सहोदरी, हंसराज महाविद्यालय दिल्ली
https://www.youtube.com/watch?v=RE_1EGZj9Vw

वार्ता: श्वेताभ पाठक द्वारा
https://www.youtube.com/watch?v=S7tlU4jrVXE

वार्ता: भाषा का उद्भव, विकास और रोजगार ओमप्रकाश प्रजापति द्वारा
https://www.youtube.com/watch?v=iHffc8HqnKA

विमर्श: साहित्य का प्रयोजन ध्वन्यांकन ओमप्रकाश शुक्ल
https://www.youtube.com/watch?v=8XU_brlvBrg

विमर्श: हिंदी में तकनीकी लेखन ओमप्रकाश प्रजापति
https://www.youtube.com/watch?v=vJ-BIi8bW3w

वार्ता: लघुकथा https://www.youtube.com/watch?v=5xHZ1srbXsU
वार्ता: तकनीकी लेखन https://www.youtube.com/watch?v=pqDJnvr0eV0
***


दिव्य नर्मदा

https://www.facebook.com/groups/1023001821147986/permalink/2134385070009650/?sfnsn=mo

सोमवार, 25 मार्च 2019

नवगीत तुम

नवगीत:
सरहद
*
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, सरहद पार
गया मैं लेने।
*
उठा हुआ सर
हद के पार
चला आया तब
अनजाने का
हाथ थाम कर।
मैं बहुतों के
साथ गया था
तुम आईं थीं
निपट अकेली।
किन्तु अकेली
कभी नहीं थीं,
सँग आईं
बचपन-यौवन की
यादें अनगिन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, पहुँच गया
मैं खुद को देने।
*
था दहेज भी
मैके की
शुभ परम्पराओं
शिक्षा, सद्गुण,
संस्कार का।
ले पतवारें
अपनेपन की
नाव हमें थी
मिलकर खेनी।
मतभेदों की
खाई, अंतरों के
पर्वत लँघ
मधुर मिलन के
सपने बुन-बुन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, संग हुए हम
अंतर खोने।
*
खुद को खोकर
खुद को पाकर
कही कहानी
मन से मन ने,
नित मन ही मन।
खन-खन कंगन
रुनझुन पायल
केश मोगरा
लटें चमेली।
शंख-प्रार्थना
दीप्ति-आरती
सांध्य-वंदना ,
भुवन भारती
हँसी कीर्ति बन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, मिली राजश्री
सार्थक होने।
*
भवसागर की
बाधाओं को
मिल-जुलकर
था हमने झेला
धैर्य धारकर।
सावन-फागुन
खुशियाँ लाये
सोहर गूँजे
बजी ढोलकी।
किलकारी
पट्टी पूजन कर,
धरा नापने
नभ को छूने
बढ़ी कदम बन।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, अँगना खेले
मूर्त खिलौने।
*
देख आँख पर
चश्मे की
मोहिनी हँसे हम,
धवल केश की
आभा देखें।
नव पीढ़ी
दौड़े, हम थकते
शांति अंजुला
हुई सहेली।
अन्नपूर्णा
कम साधन से
अधिक लक्ष्य पा
अर्थशास्त्र को
करतीं सार्थक।
तुम
स्वीकार सकीं मुझको
जब, सपने देखे
संग सलोने।
***

व्यंग्य दोहा

व्यंग्य दोहावली:
*
व्यंग्य उठाता प्रश्न जो, उत्तर दें हम-आप. 
लक्ष्य नहीं आघात है, लक्ष्य सके सच व्याप.
*
भोग लगाखें कर रए, पंडज्जी आराम.
भूले से भी ना कहें, बे मूँ से "आ राम".
*
लिए आरती कह रहे, ठाकुर जी "जय राम".
ठाकुर जी मुसका रहे, आज पड़ा फिर काम.
*
रावण ज्यादा राम कम, हैं बनिए के इष्ट.
कपड़े सस्ते राम के, न्यून मुनाफा कष्ट.
*
वनवासी को याद कब, करें अवध जा राम.
सीता को वन भेजकर, मूरत रखते वाम.
*
शीश कटा शम्बूक का, पढ़ा ज्ञान का ग्रंथ.
आरक्षित सांसद कहाँ कहो, कहाँ खोजते पंथ?
*
जाति नहीं आधार हो, आरक्षण का मीत
यही सबक हम सीख लें, करें सत्य से प्रीत.
*
हुए असहमत शिवा से, शिव न भेजते दूर.
बिन सम्मति जातीं शिवा, पातीं कष्ट अपूर.
*
राम न सहमत थे मगर, सिय को दे वनवास.
रोक न पाए समय-गति, पाया देकर त्रास.
*
'सलिल' उपनिषद उठाते, रहे सवाल अनेक.
बूझ मनीषा तब सकी, उत्तर सहित विवेक.
*
'दर्शन' आँखें खोलकर, खोले सच की राह.
आँख मूँद विश्वास कर, मिले न सच की थाह.
*
मोह यतीश न पालता, चाहें सत्य सतीश.
शक-गिरि पर चढ़ तर्क को, मिलते सत्य-गिरीश.
*
राम न केवल अवध-नृप, राम सनातन लीक.
राम-चरित ही प्रश्न बन, शंका हरे सटीक.
*
नंगा ही दंगा करें, बुद्धि-ज्ञान से हीन.
नेता निज-हित साधता, दोनों वृत्ति मलीन.
*
'सलिल' राम का भक्त है, पूछे भक्त सवाल.
राम सुझा उत्तर उसे, मेटें सभी बवाल.
*
सिया न निर्बल थी कभी, मत कहिए असहाय.
लीला कर सच दिखाया, आरक्षण-अन्याय.
*
सबक न हम क्यों सीखते, आरक्षण दें त्याग.
मानव-हित से ही रखें, हम सच्चा अनुराग.
*
कल्प पूर्व कायस्थ थे, भगे न पाकर साथ.
तब बोया अब काटते, विप्र गँवा निज हाथ.
*
नंगों से डरकर नहीं, ले पाए कश्मीर.
दंगों से डर मौन हो, ब्राम्हण भगे अधीर.
*
हम सब 'मानव जाति' हैं, 'भारतीयता वंश'.
परमब्रम्ह सच इष्ट है, हम सब उसके अंश.
*
'पंथ अध्ययन-रीति' है, उसे न कहिए 'धर्म'.
जैन, बौद्ध, सिख, सनातन, एक सभी का मर्म.
*
आवश्यकता-हित कमाकर, मानव भरता पेट.
असुर लूट संचय करे, अंत बने आखेट.
*
दुर्बल-भोगी सुर लुटे, रक्षा करती शक्ति.
शक्ति तभी हो फलवती, जब निर्मल हो भक्ति.
*
'जाति' आत्म-गुण-योग्यता, का होती पर्याय.
जातक कर्म-कथा 'सलिल', कहे सत्य-अध्याय.
*
'जाति दिखा दी' लोक तब, कहे जब दिखे सत्य.
दुर्जन सज्जन बन करे, 'सलिल' अगर अपकृत्य.
*
धंधा या आजीविका, है केवल व्यवसाय.
'जाति' वर्ण है, आत्म का, संस्कार-पर्याय.
*
धंधे से रैदास को, कहिए भले चमार.
किंतु आत्म से विप्र थे, यह भी हो स्वीकार.
*
गति-यति लय का विलय कर, सच कह दे आनंद.
कलकल नाद करे 'सलिल', नेह नर्मदा छंद.
*
श्रीराम नवमी, २५.३.२०१८

दोहा

दोहा दुनिया 
*
रश्मि अभय रह कर करे, घोर तिमिर पर वार
खुद को करले अलग तो, कैसे हो भाव-पार?
*
बाती जग उजयारती , दीपक पाता नाम
रुके नहीं पर मदद से, सधता जल्दी काम
*
बाती सँग दीपक मिला, दिया पुलिस ने ठोंक
टीवी पर दो टाँग के, श्वान रहे हैं भौंक
*
यह बाती उस दीप को, देख जल उठी आप
किसका कितना दोष है?, कौन सकेगा नाप??
*
बाती-दीपक को रहा, भरमाता जो तेल
उसे न कोइ टोंकता, और न भेजे जेल
*
दोष न 'का'-'की' का कहें, यही समय की माँग
बिना पिए भी हो नशा,घुली कुएँ में भाँग
***

छप्पय छंद

रसानंद दे छंद नर्मदा २२ : 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार , ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई , हरिगीतिका, उल्लाला , गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी तथा सरसी छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए षट्पदिक छप्पय छन्द से.

रोला-उल्लाला मिले, बनता छप्पय छंद
*
छप्पय षट्पदिक (६ पंक्तियों का), संयुक्त (दो छन्दों के मेल से निर्मित), मात्रिक (मात्रा गणना के आधार पर रचित), विषम (विशन चरण ११ मात्रा, सम चरण१३ मात्रा ) छन्द हैं। इसमें पहली चार पंक्तियाँ चौबीस मात्रिक रोला छंद (११ + १३ =२४ मात्राओं) की तथा बाद में दो पंक्तियाँ उल्लाला छंद (१३+ १३ = २६ मात्राओं या १४ + १४ = २८मात्राओं) की होती हैं। उल्लाला में सामान्यत:: २६ तथा अपवाद स्वरूप २८ मात्राएँ होती हैं। छप्पय १४८ या १५२ मात्राओं का छंद है। संत नाभादास सिद्धहस्त छप्पयकार हुए हैं। 'प्राकृतपैंगलम्'[1] में इसका लक्षण और इसके भेद दिये गये हैं। 
छप्पय के भेद- छंद प्रभाकरकार जगन्नाथ प्रसाद भानु के अनुसार छप्पय के ७१ प्रकार हैं। छप्पय अपभ्रंश और हिन्दी में समान रूप से प्रिय रहा है। चन्द[2], तुलसी[3], केशव[4], नाभादास [5], भूषण [6], मतिराम [7], सूदन [8], पद्माकर [9] तथा जोधराज हम्मीर रासो कुशल छप्पयकार हुए हैं। इस छन्द का प्रयोग मुख्यत:वीर रस में चन्द से लेकर पद्माकर तक ने किया है। इस छन्द के प्रारम्भ में प्रयुक्त रोला में 'गीता' का चढ़ाव है और अन्त में उल्लाला में उतार है। इसी कारण युद्ध आदि के वर्णन में भावों के उतार-चढ़ाव का इसमें अच्छा वर्णन किया जाता है। नाभादास, तुलसीदास तथा हरिश्चन्द्र ने भक्ति-भावना के लिये छप्पय छन्द का प्रयोग किया है।

उदाहरण - "डिगति उर्वि अति गुर्वि, सर्व पब्बे समुद्रसर। ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर। दिग्गयन्द लरखरत, परत दसकण्ठ मुक्खभर। सुर बिमान हिम भानु, भानु संघटित परस्पर। चौंकि बिरंचि शंकर सहित, कोल कमठ अहि कलमल्यौ। ब्रह्मण्ड खण्ड कियो चण्ड धुनि, जबहिं राम शिव धनु दल्यौ॥"[10] पन्ने की प्रगति अवस्था आधार प्रारम्भिक माध्यमिक पूर्णता शोध टीका टिप्पणी और संदर्भ ऊपर जायें ↑ प्राकृतपैंगलम् - 1|105 ऊपर जायें ↑ पृथ्वीराजरासो ऊपर जायें ↑ कवितावली ऊपर जायें ↑ रामचन्द्रिका ऊपर जायें ↑ भक्तमाल ऊपर जायें ↑ शिवराजभूषण ऊपर जायें ↑ ललितललाम ऊपर जायें ↑ सुजानचरित ऊपर जायें ↑ प्रतापसिंह विरुदावली ऊपर जायें ↑ कवितावली : बाल. 11 धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 1 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 250।
लक्षण छन्द-
रोला के पद चार, मत्त चौबीस धारिये।
उल्लाला पद दोय, अंत माहीं सुधारिये।।
कहूँ अट्ठाइस होंय, मत्त छब्बिस कहुँ देखौ।
छप्पय के सब भेद मीत, इकहत्तर लेखौ।।
लघु-गुरु के क्रम तें भये,बानी कवि मंगल करन।
प्रगट कवित की रीती भल, 'भानु' भये पिंगल सरन।। -जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' 
*
उल्लाला से योग, तभी छप्पय हो रोला।
छाया जग में प्यार, समर्पित सुर में बोला।। .
मुखरित हो साहित्य, घुमड़ती छंद घटायें।
बरसे रस की धार, सृजन की चलें हवायें।।
है चार चरण का अर्धसम, पन्द्रह तेरह प्रति चरण। 
सुन्दर उल्लाला सुशोभित, भाये रोला से वरण।। -अम्बरीश श्रीवास्तव
*
उदाहरण- 
०१. कौन करै बस वस्तु कौन यहि लोक बड़ो अति। 
को साहस को सिन्धु कौन रज लाज धरे मति।।
को चकवा को सुखद बसै को सकल सुमन महि।
अष्ट सिद्धि नव निद्धि देत माँगे को सो कहि।।
जग बूझत उत्तर देत इमि, कवि भूषण कवि कुल सचिव।
दच्छिन नरेस सरजा सुभट साहिनंद मकरंद सिव।। -महाकवि भूषण, शिवा बावनी
(सिन्धु = समुद्र; ocean or sea । रज = मिट्टी; mud, earth । सुमन = फूल; flower । इमि = इस प्रकार; this way । सचिव = मन्त्री; minister, secretary । सुभट = बहुत बड़ा योद्धा या वीर; great warrior.)
भावार्थ- संसार जानना चाहता है, कि वह कौन व्यक्ति है जो किसी वस्तु को अपने वश में कर सकता है, और वह कौन है जो इस पृथ्वी-लोक में सबसे महान है? साहस का समुद्र कौन है और वह कौन है जो अपनी जन्मभूमि की माटी की लाज की रक्षा करने का विचार सदैव अपने मन में रखेता है? चक्रवाक पक्षी को सुख प्रदान करने वाला१ कौन है? धरती के समस्त सात्विक-मनों में कौन बसा हुआ है? मांगते ही जो आठों प्रकार की सिद्धियों २ और नवों प्रकार की निधियों३ से परिपूर्ण बना देने का सामर्थ्य रखता है, वह कौन है? इन सभी प्रश्नों को जानने की उत्कट आकांक्षा संसार के मन में उत्पन्न हो गयी है। इसलिये कवियों के कुल के सचिव भूषण कवि, सभी प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार देते है − वे है दक्षिण के राजा, मनुष्यों में सर्वोत्कृष्ट एवं साहजी के कुल में जो उसी तरह उत्पन्न हुए हैं, जैसे फूलों में सुगंध फैलाने वाला पराग उत्पन्न होता है, अर्थात शिवाजी महाराज। शिवाजी के दादा, मालोजी को मालमकरन्द भी कहा जाता था। Who has the power to conquer all; who is the greatest of them all? Who is the ocean of courage; who is consumed by the thought of protecting the motherland? Who offers bliss to the Chakrawaak; who resides in every flower-like innocent souls? Who, in this world grants Ashtasiddhi and Navnidhi? The world seeks answers, and I, the minister of the poets’ clan, answer thus, He is the ruler of the Deccan, the great warrior, son of Shahaji, grandson of Maloji, i.e. Shivaji.

संकेतार्थ- १. शिवाजी का शौर्य सूर्य समान दमकता है। चकवा नर-मादा सूर्य-प्रकाश में ही मिलन करते है। शिवाजी का शौर्य-सूर्य रात-दिन चमकता रहता है, अत: चकवा पक्षी को अब रात होने का डर नहीं है। अतः वह सुख के सागर में डूबा हुआ है। २. अष्टसिद्धियाँ : अणिमा- अपने को सूक्ष्म बना लेने की क्षमता, महिमा: अपने को बड़ा बना लेने की क्षमता, गरिमा: अपने को भारी बना लेने की क्षमता, लघिमा: अपने को हल्का बना लेने की क्षमता, प्राप्ति: कुछ भी निर्माण कर लेने की क्षमता, प्रकाम्य: कोई भी रूप धारण कर लेने की क्षमता, ईशित्व: हर सत्ता को जान लेना और उस पर नियंत्रण करना, वैशित्व: जीवन और मृत्यु पर नियंत्रण पा लेने की क्षमता ३. नवनिधियाँ: महापद्म, पद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील और खर्ब।
काव्य-सुषमा और वैशिष्ट्य- 'साहस को सिंधु' तथा 'मकरंद सिव' रूपक अलंकार है। शिवाजी को साहस का समुद्र तथा शिवाजी महाराज मकरंद कहा गया है उपमेय, (जिसका वर्णन किया जा रहा हो, शिवाजी), को उपमान (जिससे तुलना की जाए समुद्र, मकरंद) बना दिया जाये तो रूपक अलंकार होता है। “सुमन”- श्लेष अलंकार है। एक बार प्रयुक्त किसी शब्द से दो अर्थ निकलें तो श्लेष अलंकार होता है। यहाँ सुमन = पुष्प तथा अच्छा मन। “सरजा सुभट साहिनंद”– अनुप्रास अलंकार है। एक वर्ण की आवृत्ति एकाधिक बार हो तो अनुप्रास अलंकार होता है। यहाँ ‘स’ वर्ण की आवृत्ति तीन बार हुई है। “अष्ट सिद्धि नव निद्धि देत माँगे को सो कहि?” अतिशयोक्ति अलंकार है। वास्तविकता से बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर कहने पर अतिशयोक्ति अलंकार होता है। यह राज्याश्रित कवियों की परंपरा रही है। प्रश्नोत्तर या पहेली-शैली का प्रयोग किया गया है। ०२. बूढ़े या कि ज़वान, सभी के मन को भाये। गीत-ग़ज़ल के रंग, अलग हट कर दिखलाये।। सात समंदर पार, अमन के दीप जलाये। जग जीता, जगजीत, ग़ज़ल सम्राट कहाये।। तुमने तो सहसा कहा था, मुझको अब तक याद है। गीत-ग़ज़ल से ही जगत ये, शाद और आबाद है।। -नवीन चतुर्वेदी, (जगजीत सिंह ग़ज़ल गायक के प्रति)
०३. लेकर पूजन-थाल प्रात ही बहिना आई।
उपजे नेह प्रभाव, बहुत हर्षित हो भाई।।
पूजे वह सब देव, तिलक माथे पर सोहे।
बँधे दायें हाथ, शुभद राखी मन मोहे।।
हों धागे कच्चे ही भले, बंधन दिल के शेष हैं।
पुनि सौम्य उतारे आरती, राखी पर्व विशेष है।। -अम्बरीश श्रीवास्तव (राखी पर)
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आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

doha

दोहा
जितना पाया खो दिया, जो खोया है साथ। 
झुका उठ गया, उठाया झुकता पाया माथ।। 
*

मुक्तक

मुक्तक
मुक्तक
*
मन मंदिर में जो बसा, उसको भी पहचान.
जग कहता भगवान पर वह भी है इंसान..
जो खुद सब में देखता है ईश्वर का अंश-
दाना है वह ही 'सलिल' शेष सभी नादान..
*
चित्र न जिसका गुप्त है, है नश्वर संसार
चित्र गुप्त जिसका वही, सृष्टि रचे साकार
काया रच निज अंश को, रख करता जीवंत-
कायस्थ होता ब्रह्म ही, ले नाना आकार
*

रविवार, 24 मार्च 2019

चित्रगुप्त-रहस्य

चित्रगुप्त-रहस्य
संजीव
*
चित्रगुप्त पर ब्रम्ह हैं, ॐ अनाहद नाद
योगी पल-पल ध्यानकर, कर पाते संवाद
निराकार पर ब्रम्ह का, बिन आकार न चित्र
चित्र गुप्त कहते इन्हें, सकल जीव के मित्र
नाद तरंगें संघनित, मिलें आप से आप
सूक्ष्म कणों का रूप ले, सकें शून्य में व्याप
कण जब गहते भार तो, नाम मिले बोसॉन
प्रभु! पदार्थ निर्माण कर, डालें उसमें जान
काया रच निज अंश से, करते प्रभु संप्राण
कहलाते कायस्थ- कर, अंध तिमिर से त्राण
परम आत्म ही आत्म है, कण-कण में जो व्याप्त
परम सत्य सब जानते, वेद वचन यह आप्त
कंकर कंकर में बसे, शंकर कहता लोक
चित्रगुप्त फल कर्म के, दें बिन हर्ष, न शोक
मन मंदिर में रहें प्रभु!, सत्य देव! वे एक
सृष्टि रचें पालें मिटा, सकें अनेकानेक
अगणित हैं ब्रम्हांड, है हर का ब्रम्हा भिन्न
विष्णु पाल शिव नाश कर, होते सदा अभिन्न
चित्रगुप्त के रूप हैं, तीनों- करें न भेद
भिन्न उन्हें जो देखता, तिमिर न सकता भेद
पुत्र पिता का पिता है, सत्य लोक की बात
इसी अर्थ में देव का, रूप हुआ विख्यात
मुख से उपजे विप्र का, आशय उपजा ज्ञान
कहकर देते अन्य को, सदा मनुज विद्वान
भुजा बचाये देह को, जो क्षत्रिय का काम
क्षत्रिय उपजे भुजा से, कहते ग्रन्थ तमाम
उदर पालने के लिये, करे लोक व्यापार
वैश्य उदर से जन्मते, का यह सच्चा सार
पैर वहाँ करते रहे, सकल देह का भार
सेवक उपजे पैर से, कहे सहज संसार
दीन-हीन होता नहीं, तन का कोई भाग
हर हिस्से से कीजिये, 'सलिल' नेह-अनुराग
सकल सृष्टि कायस्थ है, परम सत्य लें जान
चित्रगुप्त का अंश तज, तत्क्षण हो बेजान
आत्म मिले परमात्म से, तभी मिल सके मुक्ति
भोग कर्म-फल मुक्त हों, कैसे खोजें युक्ति?
सत्कर्मों की संहिता, धर्म- अधर्म अकर्म
सदाचार में मुक्ति है, यही धर्म का मर्म
नारायण ही सत्य हैं, माया सृष्टि असत्य
तज असत्य भज सत्य को, धर्म कहे कर कृत्य
किसी रूप में भी भजे, हैं अरूप भगवान्
चित्र गुप्त है सभी का, भ्रमित न हों मतिमान
*

फगुआ में क्रिकेट पैरोडी

पैरोडी
'लेट इज बैटर दैन नेवर', कबहुँ नहीं से गैर भली 
होली पर दिवाली खातिर धोनी और सब मनई के मुट्ठी भर अबीर और बोतल भर ठंडाई ......
होली पर एगो ’भोजपुरी’ गीत रऊआ लोग के सेवा में ....
नीक लागी तऽ ठीक , ना नीक लागी तऽ कवनो बात नाहीं....
ई गीत के पहिले चार लाईन अऊरी सुन लेईं
माना कि गीत ई पुरान बा
हर घर कऽ इहे बयान बा
होली कऽ मस्ती बयार मे-
मत पूछऽ बुढ़वो जवान बा--- कबीरा स र र र र ऽ
अब हमहूँ ६३-के ऊपरे चलत, मग्गर ३६ का हौसला रखत बानी ..
भोजपुरी गीत : होली पर....
कईसे मनाईब होली ? हो धोनी !
कईसे मनाईब होली..ऽऽऽऽऽऽ
बैटिंग के गईला त रनहू नऽ अईला
एक गिरउला ,तऽ दूसर पठऊला
कईसे चलाइलऽ चैनल चरचा
कोहली त धवन, रनहू कम दईला
निगली का भंग की गोली? हो धोनी !
मिलके मनाईब होली ?ऽऽऽऽऽ
ओवर में कम से कम चउका तऽ चाही
मौका बेमौका बाऽ ,छक्का तऽ चाही
बीस रनन का रउआ रे टोटा
सम्हरो न दुनिया में होवे हँसाई
रीती न रखियो झोली? हो राजा !
लड़ के मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
मारे बँगलदेसीऽ रह-रह के बोली
मुँहझँऊसा मुँह की खाऽ बिसरा ठिठोली
दूध छठी का याद कराइल
अश्विन-जडेजा? कऽ टोली
बद लीनी बाजी अबोली हो राजा
भिड़ के मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
जमके लगायल रे! चउआ-छक्का
कैच भयल गए ले के मुँह लटका
नानी स्टंपन ने याद कराइल
फूटा बजरिया में मटका
दै दिहिन पटकी सदा जय हो राजा
जम के मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
अरे! अईसे मनाईब होली हो राजा, अईसे मनाईब होली...

समस्या पूर्ति

समस्या पूर्ति

cover photo, चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, फूल

उक्त चित्र पर गद्य या पद्य में कुछ लिखें।
शब्द सीमा २५० शब्द 

गीत नदी

नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
भुलाया है हमने नदी माँ हमारी
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
***
संजीव वर्मा 'सलिल'
७९९९५५९६१८
१२.३.२०१८

शनिवार, 23 मार्च 2019

मनहरण घनाक्षरी

मनहरण घनाक्षरी (३१ वर्ण)
*
मनहरण घनाक्षरी में १६,१५ वर्ण पर यति तथा चरणांत में गुरू होता है। 
*
शालिनी हो, माननी हो, नहीं अभिमाननी हो, 
श्वास-आस स्वामिनी हो मीत मेरी कविता
गति यति लय रस भाव बिंब रूप जस,
प्राण मन आत्मा हो प्रीत मेरी कविता
साधना हो वंदंना हो प्रार्थना हो अर्चना हो
मोहिनी आराधना हो रीत मेरी कविता
शब्द शब्द हो निशब्द सुनें सभी श्रोता गण
हो अतीत अव्यतीत गीत मेरी कविता
***

समीक्षा जिस जगह यह नाव है राजा अवस्थी

पुस्तक सलिला:
'जिस जगह यह नाव है' नवगीत का वह घाट है
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण- जिस जगह यह नाव है, नवगीत संग्रह, राजा अवस्थी, वर्ष २००६, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ १३६, मूल्य १२०रु., अनुभव प्रकाशन, ई २८ लाजपत नगर, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद २०१००५, ०१२० ४११२२१०, रचनाकार संपर्क- गाटरघाट मार्ग, आजाद चौक, कटनी ४८३५०१, चलभाष ९६१७९१३२८७}
*
सनातन सलिला नर्मदा के अंचल में आधुनिक हिंदी के उद्भव काल से ही साहित्य की हर विधा में सतत सत्साहित्य का सृजन होता रहा है। वर्तमान पीढ़ी के सृजनशील नवगीतकारों में राजा अवस्थी का नाम साहित्य सृजन को सारस्वत पूजन की तरह समर्पित भाव से निरंतर कर रहे रचनाकारों में सम्मिलित है। हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ हस्ताक्षर डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' तथा नर्मदांचल के वरिष्ठ साहित्य साधक श्यामनारायण मिश्र द्वारा आशीषित 'जिस जगह यह नाव है' ७८ समसामयिक, सरस नवगीतों का पठनीय संग्रह है। मध्य प्रदेश के बड़े जंक्शन कटनी में बसे राजा के नवगीत विंध्याटवी के नैसर्गिक सौंदर्य, ग्राम्यांचल के संघर्ष, नगरीकरण की घुटन, राजनीति के दिशाभ्रम, आम जन के अंतर्द्वंद तथा युवाओं के सपनों के बहुदिशायी रेलगाड़ियों में यात्रारत मनोभावों को मन में बसाते हैं। करुणा और व्यथा काव्य का उत्स है. गाँव की माटी की व्यथा-कथा गाँव के बेटों तक न पहुँचे यह कैसे संभव है?
आज गाँव की व्यथा बाँचती / चिट्ठी मेरे नाम मिली
विधवा हुई रमोली की भी / किस्मत कैसी फूटी
जेठ-ससुर की मैली नज़रें / अब टूटीं, तब टूटीं
तमाम विसंगतियों से लड़ते-जूझते हुए भी अक्षर आराधना किसी सैनिक के पराक्रम से कम नहीं है।
चंदन वन काट-काट / शव का श्रृंगार करें
शिशुओं को दें शव सा जीवन
यौवन में सन्नाटा / मरघट सा छाता है
आस-ओस दुर्लभ आजीवन
यश अर्जन को होता
भूख को हमारी, साहित्य में उतारना
माँ शारदा को क्षुधा-दीप समर्पित करती कलम का संघर्ष गाँव और शहर हर जगह एक सा है। विडम्बनाओं व विसंगतियों से जूझना ही नियति है-
स्वार्थ-पोषित आचरण को / यंत्रवत निष्ठुर शहर को / सौपने बैठा
भाव की पहचान भूले / चेहरे पढ़ना कठिन है
धुंध, सन्नाटा, अँधेरा / और बहरापन कठिन है
विवशताएँ, व्यस्तताएँ / ह्रदय में छल वर्जनाएं / थोपने बैठा
अनचाही पीड़ाएँ प्रकृति प्रदत्त कम, मनुष्य रचित अधिक हैं-
गाँव के पंचों ने मिलकर / फिर खड़ी दीवार की
फिर वही हालत, नियति / वह ही प्रकृति के प्यार की
किशनवा-रधिया की / घुटती साँस का मौसम।
किसी समाज के सामने सर्वाधिक चिंतनीय स्थिति तब होती है जब बिखराव के कारण मानव-मन दूर होने लगें। राजा इस परिस्थिति का अनुमान कर अपनी चिंता नवगीत में उड़ेल देते हैं-
अंतस के समतल की / चिकनाई गायब अब
रोज बढ़े, फैले, ज़हरीला बिखराव
रिश्तों का ताप चुका / आ बैठा ठंडापन
चहक-पुलक में में पसरा जाता ठहराव
कैसी इच्छाओं के / ज्वार और भाटे ये
दूर हुए जाते मन, सदियों के द्वीप
विषमताओं के कुम्भ में सपनों की आहट बेमानी प्रतीत होने लगे तो नवगीत मन की पीड़ा को स्वर देता है -
किसलिए सजें / सपने, तो बस विशुद्ध रेत हैं
नरभक्षी पौधों से / आश्रय की आशा क्या?
सब के सब इक जैसे / टोला क्या, माशा क्या?
कोई भी अमृत फल / इन पर आ पायेगा?
छोडो भी आशा, ये बेंत हैं
बेशर्मी जेहन से / आँखों में उतरी
ढंकेंगी कब तक / ये पोशाकें सुथरी
बच पाना मुश्किल है / ये भोंडे संस्कार
दम लेंगे हंसकर ही, ये करैत हैं
राजा केवल नाम के ही नहीं अनुभूतियों और अभिव्यक्ति-क्षमता के भी राजा हैं। लोकतंत्र में भी सामंतवादी प्रवृत्तियों का बढ़ते जाना, प्रगति की मरीचिका मैं आम आदमी का दर्द बढ़ते जाना उनके मन की पीड़ा को बढ़ाता है-
फिर उसी सामंतवादी / जड़ प्रकृति को रोपता
एक विध्वंसक समय को / हाथ बाँधे न्योतता
जड़ तमाचे पर तमाचे / अमन के मुँह पर
पढ़ कसीदे पर कसीदे / दमन के मुँह पर
गर्व से मुस्की दबाये / है प्रगति का देवता
मुहावरेदार भाषा राजा अवस्थी के नवगीतों की जान है। रेवड़ी बेभाव बाँटी / प्रगति को दे दी धता, ढिबरी का तेल चुका / फैला अँधियार, खेतिहर बिजूकों से / भय खाएं राम, मस्तक में बोकर नासूर / टोपी के ये नकली बाल क्या सँवारना?, संविधान के मकड़जाल में / उलझा अक्सर न्याय हमारा, तार पर दे जीवन आघात / बेसुरे सुर दे रहे धता, कुँवारी इच्छाएं ऐसी / खिले ज्यों हरसिंगार के फूल जैसी अभिव्यक्तियाँ कम शब्दों में अधिक अनुभूतियों से पाठक का साक्षात करा देती हैं।
ग्राम्यांचली पृष्ठभूमि राजा अवस्थी को देशज शब्दों के उस ख़ज़ाने से संपन्न करती है जो शहरों के कोंवेंटी कवि के लिए आकाश कुसुम है। बरुआ, ठकुरवा, छप्पर, छुअन, झरोखा, निठुराई, बिजूका, झोपड़, जांगर. कहतें, पांग, बढ़ानी, हिय, पर्भाती, सुग्गे, ढिबरी, किशनवा, कुछबन्दियों, खटती, बहुँटा, अंकुई, दलिद्दर, चरित्तर, पैताने आदि ग्रामीण शब्दों के साथ उर्दू लफ्ज़ खातिर, रैयत, खबर, गुजरे, बैर, ज़ुल्मों, खस्ताहाल, नज़रें, ख्याल, आमद, बदन, यकीन, ज़ेहन, नुस्खे, नासूर, इन्तिज़ार, ज़हर, आफत, एहसान, तकादा, एहसान, चस्पा, लफ़्फ़ाज़ी आदि मिलकर उस गंगो-जमुनी जीवन की बानगी पेश करते हैं जिसमें शुद्ध हिंदी के अनुपूरित, प्रतिकार, अंतर्मन, उल्लास, ग्रसित, व्याल, आतंकित, प्रतिबंधित, मराल, भ्रान्ति, आलिंगन, उत्कंठा, वीथिकाएँ, वर्जनाएं,अंतस, निष्कलुष, बड़वानल, हिमगलित, संभरण आदि पुलाव में मेवे की तरह प्रतीत होते हैं। राजा अवस्थी ने शब्द-युग्मों की शक्ति और उपदेयता को पहचाना और उपयोग किया है। खबर-दबर, जेठ-ससुर, माँ-दद्दा, रात-दिन, हम-तुम, मन-मान, आस-ओस, उठना-गिरना, साँझ-सँझवाती, लड़ी-फड़ी, डगर-मगर, सुख-दुःख, घर-गाँव, सुबह-शाम, दोपहरी-रात, नून-तेल, आस-पास, दूध-भात, मरते-कटते, चोर-लबार, अमन-चैन, चहक-पुलक, सीलन-सन्नाटे, दंभ-छ्ल्, है-मेल, हवा-पानी, प्रीति-गीति-रीति, मोह-ममता-नेह, तन-मन-जेहन आदि शब्द युगन इन नवगीतों की भाषा को जीवंतता देते हैं।
राजा अवस्थी की प्रयोगधर्मी वृत्ति फाइलबाजों, कंठ-लावनी, वर्ण-कंपित, हिटलरी डकार, श्रध्दाशा, ममता की अलगनी, सुधियों की डोर, काँटों की गलियाँ, मुस्कानों के झोंके, शब्दों का संत्रास, पीड़ाओं के शिलाखंड जैसे शब्दावलियों से पाठक को बाँध पाये हैं। शब्द-सामर्थ्य, भाषा-शैली, नव बिम्ब, नए प्रतीक, मौलिक कथ्य की कसौटी पर ये गीत खरे उतरते हैं। इन नवगीतों में मात्रिक छंदों का प्रयोग किया गया है। दो से लेकर चार पंक्तियों तक के मुखड़े तथा आठ पंक्तियों तक के अंतरे प्रयुक्त हुए हैं। नवगीतों में अंतरों की संख्या दो या तीन है।
हिंदी के समर्थ समीक्षक डॉ. विजय बहादुर सिंह ने इन गीतों में 'समकालीन जीवन व् उसके यथार्थ के प्रति अत्यधिक सजगता एवं संवेदनशीलता, स्थानीयता के रंगों से कुछ अधिक रंगीनियत' ठीक ही लक्षित की है। इस कृति के प्रकाशन के एक दशक बाद राजा अवस्थी की कलम अधिक पैनी हुई है, उनके नवगीतों के नये संकलन की प्रतीक्षा स्वाभाविक है।
२३.३२०१६ 
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समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४