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शनिवार, 28 अप्रैल 2018

shri shri chintan: 3 adaten

श्री श्री चिंतन: 3
आदतें
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30.7.1995, ब्रुकफील्ड, कनेक्टीकट, अमेरिका
*
आदत हो या वासना, जकड़ें देतीं कष्ट।
तुम छोड़ो वे पकड़कर, करती सदा अनिष्ट।।
*
जीवन चाहे मुक्त हो, किंतु न जाने राह।
शत जन्मों तक भटकती, आत्मा पाले चाह।।
*
छुटकारा दें आदतें, करो सुदृढ़ संकल्प।
जीवन शक्ति दिशा गहे, संयम का न विकल्प।।
*
फिक्र व्यर्थ है लतों की, वापिस लेती घेर।
आत्मग्लानि दोषी बना, करे हौसला ढेर।।
*
लत छोड़ो; संयम रखो, मिले रोग से मुक्ति।
संयम अति को रोकना, सुख से हो संयुक्ति।।
*
समय-जगह का ध्यान रख, समयबद्ध संकल्प।
करो; निभाकर सफल हो, शंका रखो न अल्प।।
*
आजीवन संकल्प मत, करो- न होता पूर्ण।
टूटे याद संकल्प फिर, करो- न रहे अपूर्ण।।
*
अल्प समय की वृद्धि कर, करना नित्य निभाव।
बंधन में लत बाँधकर, जय लो बना स्वभाव।।
*
लत न तज सके तो तुम्हें, हो तकलीफ अपार।
पीड़ाएँ लत छुड़ा दें, साधक वक् सुधार।।
13.4.2018
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दोहा सलिला

दोहा सलिला
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क्या-क्यों राधा-भाव है?, कैसे हो अनुमान?
आप आप को भूलकर, आप बनेंं श्रीेमान।।
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आगम-निगम; पुराण हैं, विश्व ग्यान के कोष।
जो अवगाहे तृप्त हो, मिले आत्म-संतोष।।
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रंजन करे विवेक जब,  भू पर आ अमरेन्द्र।
सँग सुरेश के श्रवणकर, चाहें हों ग्यानेंद्र।।
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सुमन-सुरभि सम शब्द में, अर्थ निहित हो आप।
हो विदग्ध उर,  प्रफुल्लित, प्रतुल  भाव परिमाप।।
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आ अवधेश ब्रजेश संग, राधा-गीता मौन।
मन मथ मन्मथ से कहें, कह प्रवीण है कौन?
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कल से कल तक निनादित, कलकल ध्वनि कल-कोष।
पल-पल जुड़कर काल हो, अमर आज कर घोष।।
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कला न कल हो जड़ बने,  श्रुति-स्मृति मत भूल।
बेकल-विकल न हो अकल,  अ-कल न हो शिव-शूल।।
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सूक्ष्म-वृहद रजकण निहित, गिरि गोवर्धन रूप।
रास-लास जीवन-मरण,  दे-पा भिक्षुक-भूप।।
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कृष्ण-कांत राधा प्रभा, वाक् और अनुवाक्।
प्रथा चिरंतन-सनातन, छंद छपाक्-छपाक्।।
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28.4.2018

श्री श्री चिंतन 3: दोहा गुंजन

श्री श्री चिंतन: 3
आदतें
*
30.7.1995, ब्रुकफील्ड,  कनेक्टीकट,  अमेरिका
आदत हो या वासना,  जकड़ें देतीं कष्ट।
तुम छोड़ो वे पकड़कर,  करती सदा अनिष्ट।।
*
जीवन चाहे मुक्त हो,  किंतु न जाने राह।
शत जन्मों तक भटकती,  आत्मा पाले चाह।।
*
छुटकारा दें आदतें,  करो सुदृढ़ संकल्प।
जीवन शक्ति दिशा गहे, संयम का न विकल्प।।
*
फिक्र व्यर्थ है लतों की, वापिस लेती घेर।
आत्मग्लानि दोषी बना,  करे हौसला ढेर।।
*
लत छोड़ो; संयम रखो,  मिले रोग से मुक्ति।
संयम अति को रोकना,  सुख से हो संयुक्ति।।
*
समय-जगह का ध्यान रख,  समयबद्ध संकल्प।
करो; निभाकर सफल हो, शंका रखो न अल्प।।
*
आजीवन संकल्प मत, करो- न होता पूर्ण।
टूटे याद संकल्प फिर, करो- न रहे अपूर्ण।।
*
अल्प समय की वृद्धि कर,  करना नित्य निभाव।
बंधन में लत बाँधकर,  जय लो बना स्वभाव।।
*
लत न तज सके तो तुम्हें,  हो तकलीफ अपार।
पीड़ाएँ लत छुड़ा दें,  साधक वक् सुधार।।
13.4.2018
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शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

स्मरण महीयसी महादेवी जी १

गूगल द्वारा पूज्य बुआश्री महादेवी जी वर्मा की याद
Celebrating Mahadevi Varma

स्मरण महीयसी महादेवी जी: १ 
संवाद शैली में संस्मरणात्मक लघुकथा:
(इन्हें लघु नाट्य की तरह अभिनीत भी किया जा सकता है)
१. राह 
'चलो।'
"कहाँ।"
'गृहस्थी बसाने।'
"गृहस्थी आप बसाइए, लेकिन मैं नहीं चल सकती?" 
'तुम्हारे बिना गृहस्थी कैसे बस सकती है? तुम्हारे साथ ही तो बसाना है। मैं विदेश में कई वर्षों तक रहकर पढ़ता रहा हूँ लेकिन मैंने कभी किसी की ओर  आँख उठाकर भी नहीं देखा।'
"यह क्या कह रहे हैं? ऐसा कुछ तो मैंने  आपके बारे में सोचा भी नहीं।"
'फिर क्या कठिनाई है? मैं जानता हूँ तुम साहित्य सेवा, महिला शिक्षा, बापू के सत्याग्रह और न जाने किन-किन आंदोलनों से जुड़ चुकी हो। विश्वास करो तुम्हारे किसी काम में कोई बाधा न आएगी। मैं खुद तुम्हारे सब कामों से जुड़कर सहयोग करूँगा।'
"मुझे आप पर पूरा भरोसा है, कह सकती हूँ खुद से भी अधिक, लेकिन मैं गृहस्थी बसने के लिए चल नहीं सकती।"
'समझा, तुम निश्चिन्त रहो। घर के बड़े-बूढ़े कोई भी तुम्हें घर के रीति-रिवाज़ मानने के लिए बाध्य नहीं करेंगे, तुम्हें पर्दा-घूँघट नहीं करना होगा। मैं सबसे बात कर, सहमति लेकर ही आया हूँ।'
"अरे बाप रे! आपने क्या-क्या कर लिया? अच्छा होता सबसे पहले मुझसे ही पूछ लेते, तो इतना सब नहीं करना पड़ता।, यह सब व्यर्थ हो गया क्योंकि मैं तो गृहस्थी नहीं बसा सकती।"
'ओफ्फोह! मैं भी पढ़ा-लिखा बेवकूफ हूँ, डॉक्टर होकर भी नहीं समझा, कोई शारीरिक बाधा है तो भी चिंता न करो। तुम जैसा चाहोगी इलाज करा लेंगे, जब तक तुम स्वस्थ न हो जाओ और तुम्हारा मन न हो मैं तुम्हें कोई संबंध बनाने के लिए नहीं कहूँगा।'
"इसका भी मुझे भरोसा है। इस कलियुग में ऐसा भी आदमी होता है, कौन मानेगा?"
'कोई न जाने और न माने, मुझे किसी को मनवाना भी नहीं है, तुम्हारे अलावा।'
"लेकिन मैं तो यह सब मानकर भी गृहस्थी के लिए नहीं मान सकती।"
'अब तुम्हीं बताओ, ऐसा क्या करूँ जो तुम मान जाओ और गृहस्थी बसा सको। तुम जो भी कहोगी मैं करने के लिए तैयार हूँ।'
"ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं करने के लिए कहूँ।"
'हो सकता है तुम्हें विवाह का स्मरण न हो, तब हम नन्हें बच्चे ही तो थे। ऐसा करो हम दुबारा विवाह कर लेते हैं, जिस पद्धति से तुम कहो उससे, तब को तुम्हें कोई आपत्ति न होगी?'
"यह भी नहीं हो सकता, जब आप विदेश में रहकर पढ़ाई कर रहे थे तभी मैंने सन्यास ले लिया था। सन्यासिनी गृहस्थ कैसे हो सकती है?"
'लेकिन यह तो गलत हुआ, तुम मेरी विवाहिता पत्नी हो, किसी भी धर्म में पति-पत्नी दोनों की सहमति के बिना उनमें से कोई एक या दोनों को  संन्यास नहीं दिया जा सकता। चलो, अपने गुरु जी से भी पूछ लो।'
" चलने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप ठीक कह रहे हैं लेकिन मैं जानती हूँ कि आप मेरी हर इच्छा का मान रखेंगे इसी भरोसे तो गुरु जी को कह पाई कि मेरी इच्छा में आपकी सहमती है। अब आप मेरा भरोसा तो नहीं तोड़ेंगे यह भी जानती हूँ।"
'अब क्या कहूँ? क्या करूँ? तुम तो मेरे लिए कोई रास्ता ही नहीं छोड़ रहीं।'
"रास्ता ही तो छोड़ रही हूँ। मैं सन्यासिनी हूँ, मेरे लिए गृहस्थी की बात सोचना भी कर्तव्य से च्युत होने की तरह है। किसी पुरुष से एकांत में बात करना भी वर्जित है लेकिन तुम्हें कैसे मना कर सकती हूँ? मैं नियम भंग का प्रायश्चित्य का लूँगी।"
'ऐसा करो हम पति-पत्नी की तरह न सही, सहयोगियों की तरह तो रह ही सकते हैं, जैसे श्री श्री रामकृष्ण देव और माँ सारदा रहे थे।'
"आपके तर्क भी अनंत हैं। वे महापुरुष थे, हम सामान्य जन हैं, कितने लोकापवाद होंगे? सोचा भी है?"
'नहीं सोचा और सच कहूँ तो मुझे सिवा तुम्हारे किसी के विषय में सोचना भी नहीं है।'
"लेकिन मुझे तो सोचना है, सबके बारे में। मैं तुम्हारे भरोसे सन्यासिनी तो हो गयी लेकिन अपनी सासू माँ को उनकी वंश बेल बढ़ते देखने से भी अकारण वंचित कर दूँ तो क्या विधाता मुझे क्षमा करेगा? विधाता की छोड़ भी दूँ तो मेरा अपना मन मुझे कटघरे में खड़ा कर जीने न देगा। जो हो चुका उसे अनहुआ तो नहीं किया जा सकता। विधि के विधान पर न मेरा वश है न आपका। चलिए, हम दोनों इस सत्य को स्वीकार करें। आपको विवाह बंधन से मैंने उसी क्षण मुक्त कर दिया था, जब सन्यास लेने की बात सोची थी। आप अपने बड़ों को पूरी बात बता दें, जहाँ चाहें वहाँ विवाह करें। मैं बडभागी हूँ जो आपके जैसे व्यक्ति से सम्बन्ध जुड़ा। अपने मन पर किसी तरह का बोझ न रखें।"
'तुम तो चट्टान की तरह हो, हिमालय सी, मैं खुद को तुम्हरी छाया से भी कम आँक रहा हूँ। ठीक है, तुम्हारी ही बात रहे। तुम प्रायश्चित्य करो, मैंने तुमसे तुम्हारा नियम भंग कर बात की, दोषी हूँ, इसलिए मैं भी प्रायश्चित्य करूँगा। सन्यासिनी को शेष सांसारिक चिंताएँ नहीं करना चाहिए। तुम जब जहाँ जो भी करो उसमें मेरी पूरी सहमति मानना। जिस तरह तुमने सन्यास का निर्णय मेरे भरोसे लिया उसी तरह मैं भी तुम्हारे भरोसे इस अनबँधे बंधन को निभाता रहूँगा। कभी तुम्हारा या मेरा मन हो या आकस्मिक रूप से हम कहीं एक साथ पहुँचें तो तुमसे बात करने में या कभी आवश्यकता पर सहायता लेने से तुम खुद को नहीं रोकोगी, मुझे खबर करोगी तुमसे बिना पूछे यह विश्वास लेकर जा रहा हूँ। तुम यह विश्वास न तो तोड़ सकोगी, न मन कर सकोगी।' 
और दोनों ने एक दूसरे को नमस्ते कर पकड़ ली अपनी-अपनी राह। 
***
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
चलभाष: ०७६९९९५५९६१८ ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com  

गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

दोहा सलिला

 दोहा सलिला:
चर्चित होते क्यों सदा, अपराधी-अपराध?
शब्द साधकों को नहीं, पल भी मिले अबाध

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नेता नायक संत के, सत्कर्मों को भूल
समाचार बनते सलिल', हैं कुकर्म दे तूल
*

बगिया में दोनों मिलें, कुछ काँटे कुछ फूल
मनुज फेंककर कमल को, खोजे सिर्फ बबूल
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सूरज में भी ताप है, चंदा में भी दाग।
अमिय चंद्र के साथ शिव, रखते विषधर नाग
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तम में साया भी नहीं, देता पल भर साथ।
फिर मायापति किस तरह, दें माता तज साथ?
*
मनुज न बंधन चाहता, छंद नहीं निर्बंध।
लेकिन फिर भी अमर है, दोनों का संबंध
*
होता है अंधेर ही, अगर न्याय में देर।
दे उजास खुद जल मरे, दीप छिपा अंधेर
*
मलिन नहीं होती नदी, उद्गम से ही आप।
मानव दूषित कर कहे, प्रभु! मेटो, अभिशाप
*
कर्म किया है तो मिले, निश्चय उसका दंड।
भोग लगाकर हो न तू, और अधिक उद्दंड
*
प्रभु निर्मम-निष्पक्ष है, सत्य अगर ले जान।
सर न झुकाए दूर से, कभी उसे इंसान
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'ठाकुर' ने जैसे किया, आकर नम्र प्रणाम।
ठाकुर जी मुस्का दिए, आज पड़ा फिर काम
*
जान गया जो ब्रम्ह को, ब्राम्हण है वह मीत!
ब्रम्ह न जाने 'ब्राम्हण', जग की भ्रामक रीत
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जात दिखा दर्शा गया, वह अपनी पहचान।
अंतर्मन से था पतित, चोला साधु समान
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काया रच निज अंश रख, जब करता विधि वास।
तब होता 'कायस्थ' वह, जैसे सुमन-सुवास
*
धन की जाति न धर्म है, जैसे भी हो लूट।
वैश्य न वश में लोभ रख, रहा माथ निज कूट
*
सेवा कर प्रतिदान ले, शूद्र उसे पहचान
बिना स्वार्थ सेवा करे, जो वह देव समान
*
मेरे घर हो लक्ष्मी, काली तेरे द्वार।
तू ही ले-ले शारदा, मैं हूँ परम उदार
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जिसका ईमां मुसलसल, मुसलमान लें जान।
चाहे वह गीता पढ़े, या पढ़ ले कुरआन
*
औरों के हित हेतु जो, लड़-सह ले तकलीफ।
सिक्ख वही जो चाहता, हो न तनिक तारीफ
*
जो मन-इन्द्रिय जीत ले, करे न संचय-लोभ।
जैन उसी को जानिए, नत हो गहें प्रबोध
*
त्याग-राग के मध्य में, चले समन्वय साध
बौद्ध न अति की ओर जा, कहे सत्य आराध
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