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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
मंगलवार, 3 मार्च 2015
lekh: hamari lok sampada: eesuri ki faagen -sanjiv
navgeet: sanjiv
नवगीत:
संजीव
.
समय न्यायाधीश की
लगती अदालत.
गीत!
हाज़िर हो.
.
लगा है इलज़ाम
तुम पर
गिरगिटों सा
बदलते हो रंग.
श्रुति-ऋचा
या अनुष्टुप बन
छेड़ दी थी
सरसता की जंग.
रूप धरकर
मन्त्र का
या श्लोक का
शून्य करते भंग.
काल की
बनकर कलम तुम
स्वार्थ को
करते रहे हो तंग.
भुलाई ना
क्यों सखावत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
छेड़ते थे
जंग हँस
आक्रामकों
से तुम.
जान जाए
या बचे
करते न सुख
या गम.
जूझते थे,
बूझते थे,
मनुजता को
पूजते थे.
ढाल बनकर
देश की
दस दिशा में
घूमते थे.
मिटायी क्यों
हर अदावत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
पराजित होकर
न हारे,
दैव को
ले आये द्वारे.
भक्ति सलिला
में नहाये,
कर दिये
सब तम उजारे.
बने संबल
भीत जन का-
‘त्राहि’ दनु हर
'हर' पुकारे.
दलित से
लगकर गले तुम
सत्य का
बनते रहे भुजदंड.
अनय की
क्यों की मलामत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
एक पल में
जिरह-बखतर
दूसरे पल
पहन चीवर.
योग के सँग
भोग अनुपम
रूप को
वरकर दिया वर.
नव रसों में
निमज्जित हो
हर असुन्दर
किया सुंदर.
हास की
बनकर फसल
कर्तव्य का ही
भुला बैठे संग?
नाश की वर
ली अलामत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
श्रमित काया
खोज छाया,
लगी कहने-
‘जगत माया’.
मूर्ति में भी
अमूरत को
छिपा- देखा,
पूज पाया.
सँग सुन्दर के
वरा शिव,
शिवा को
मस्तक नवाया.
आज का आधार
कल कर,
स्वप्न कल का
नव सजाया.
तंत्र जन का
क्यों नियामत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
स्वप्न टूटा,
धैर्य छूटा.
सेवकों ने
देश लूटा.
दीनता का
प्रदर्शन ही -
प्रगतिवादी
बेल-बूटा.
छंद से हो तंग
कर रस-भंग
कविता गढ़ी
श्रोता रहा सोता.
हुआ मरकर
पुनर्जीवित
बोल कैसे
गीत-तोता?
छंद अब भी
क्यों सलामत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
हो गये इल्जाम
पूरे? तो बतायें,
शेष हों कुछ और
तो वे भी सुनायें.
मिले अनुमति अगर
तो मैं अधर खोलूँ.
बात पहले आप तोलूँ
बाद उसके सत्य बोलूँ
मैं न मैं था,
हूँ न होऊँ.
अश्रु पोछूं,
आस बोऊँ.
बात जन की
है न मन की
फ़िक्र की
जग या वतन की.
साथ थी हर-
दम सखावत
प्रीत!
हाज़िर हो.
.
नाम मुझको
मिले कितने,
काम मैंने
किये कितने.
याद हैं मुझको
न उतने-
कह रहा है
समय जितने.
छंद लय रस
बिम्ब साधन
साध्य मेरा
सत सुपावन
चित रखा है
शांत निश-दिन
दिया है आनंद
पल-छिन
इष्ट है परमार्थ
आ कह
नीत!
हाज़िर हो.
.
स्वयंभू जो
गढ़ें मानक,
हो न सकते
वे नियामक.
नर्मदा सा
बह रहा हूँ.
कुछ न खुद का
गह रहा हूँ.
लोक से ले
लोक को ही,
लोक को दे-
लोक का ही.
रहा खाली हाथ
रखा ऊँचा माथ,
सब रहें सानंद
वरें परमानन्द.
विवादों को भूल
रच नव
रीत!
हाज़िर हो.
.
संजीव
.
समय न्यायाधीश की
लगती अदालत.
गीत!
हाज़िर हो.
.
लगा है इलज़ाम
तुम पर
गिरगिटों सा
बदलते हो रंग.
श्रुति-ऋचा
या अनुष्टुप बन
छेड़ दी थी
सरसता की जंग.
रूप धरकर
मन्त्र का
या श्लोक का
शून्य करते भंग.
काल की
बनकर कलम तुम
स्वार्थ को
करते रहे हो तंग.
भुलाई ना
क्यों सखावत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
छेड़ते थे
जंग हँस
आक्रामकों
से तुम.
जान जाए
या बचे
करते न सुख
या गम.
जूझते थे,
बूझते थे,
मनुजता को
पूजते थे.
ढाल बनकर
देश की
दस दिशा में
घूमते थे.
मिटायी क्यों
हर अदावत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
पराजित होकर
न हारे,
दैव को
ले आये द्वारे.
भक्ति सलिला
में नहाये,
कर दिये
सब तम उजारे.
बने संबल
भीत जन का-
‘त्राहि’ दनु हर
'हर' पुकारे.
दलित से
लगकर गले तुम
सत्य का
बनते रहे भुजदंड.
अनय की
क्यों की मलामत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
एक पल में
जिरह-बखतर
दूसरे पल
पहन चीवर.
योग के सँग
भोग अनुपम
रूप को
वरकर दिया वर.
नव रसों में
निमज्जित हो
हर असुन्दर
किया सुंदर.
हास की
बनकर फसल
कर्तव्य का ही
भुला बैठे संग?
नाश की वर
ली अलामत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
श्रमित काया
खोज छाया,
लगी कहने-
‘जगत माया’.
मूर्ति में भी
अमूरत को
छिपा- देखा,
पूज पाया.
सँग सुन्दर के
वरा शिव,
शिवा को
मस्तक नवाया.
आज का आधार
कल कर,
स्वप्न कल का
नव सजाया.
तंत्र जन का
क्यों नियामत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
स्वप्न टूटा,
धैर्य छूटा.
सेवकों ने
देश लूटा.
दीनता का
प्रदर्शन ही -
प्रगतिवादी
बेल-बूटा.
छंद से हो तंग
कर रस-भंग
कविता गढ़ी
श्रोता रहा सोता.
हुआ मरकर
पुनर्जीवित
बोल कैसे
गीत-तोता?
छंद अब भी
क्यों सलामत?
गीत!
हाज़िर हो.
.
हो गये इल्जाम
पूरे? तो बतायें,
शेष हों कुछ और
तो वे भी सुनायें.
मिले अनुमति अगर
तो मैं अधर खोलूँ.
बात पहले आप तोलूँ
बाद उसके सत्य बोलूँ
मैं न मैं था,
हूँ न होऊँ.
अश्रु पोछूं,
आस बोऊँ.
बात जन की
है न मन की
फ़िक्र की
जग या वतन की.
साथ थी हर-
दम सखावत
प्रीत!
हाज़िर हो.
.
नाम मुझको
मिले कितने,
काम मैंने
किये कितने.
याद हैं मुझको
न उतने-
कह रहा है
समय जितने.
छंद लय रस
बिम्ब साधन
साध्य मेरा
सत सुपावन
चित रखा है
शांत निश-दिन
दिया है आनंद
पल-छिन
इष्ट है परमार्थ
आ कह
नीत!
हाज़िर हो.
.
स्वयंभू जो
गढ़ें मानक,
हो न सकते
वे नियामक.
नर्मदा सा
बह रहा हूँ.
कुछ न खुद का
गह रहा हूँ.
लोक से ले
लोक को ही,
लोक को दे-
लोक का ही.
रहा खाली हाथ
रखा ऊँचा माथ,
सब रहें सानंद
वरें परमानन्द.
विवादों को भूल
रच नव
रीत!
हाज़िर हो.
.
रविवार, 1 मार्च 2015
lekh: eesuri, rajau aur bundeli paramparayen -sanjiv
लेख:
ईसुरी की अलौकिक फाग नायिका रजऊ और बुन्देली परम्पराएँ
संजीव
*
बुन्देली
माटी के यशस्वी कवि ईसुरी की फागें कालजयी हैं. आज भी ग्राम्यांचलों से लेकर शहरों
तक, चौपालों से लेकर विश्वविद्यालयों तक इस फागों को केंद्र में रखकर गायन,
संगोष्ठियों आदि के आयोजन किये जाते हैं. ईसुरी की फागों में समाज के अन्तरंग और
बहिरंग दोनों का जीवंत चित्रण प्राप्य है. मानव जीवन का केंद्र नारी होती है. माँ, बहिन, दादी-नानी, सखी, भाभी,
प्रेयसी, पत्नी, साली, सास अथवा इनसे सादृश्य रखनेवाले रूपों में नारी जीवन रथ के
सञ्चालन में प्रेरक होती है. संभवतः इसीलिए वह नौ दुर्गा कहलाती है. ईसुरी की
फागों में नारी का चित्रण उसे केंद्र में रखकर किया गया है.
नारी
चित्रण की सहजता, स्वाभाविकता, जीवन्तता, मुखरता तथा सात्विकता के पञ्चतत्वों से
ईसुरी ने अपनी फागों का श्रृंगार किया है. ईसुरी ने अपनी प्रेरणास्रोत ‘रजऊ’ को
केंद्र में रखकर नारी-छवियों के मनोहर शब्द-चित्र अंकित किये हैं. रसराज श्रृंगार
ईसुरी को परम प्रिय हैं. श्रृंगार के संयोग-वियोग ही नहीं ममत्व और सखत्व भाव से
भी ईसुरी ने फागों को लालित्य और चारुत्व प्रदान किया है. अपनी व्याकुलता का वर्णन
हो या रजऊ की कमनीय काया का रसात्मक चित्रण ईसुरी रसमग्न होने पर भी मर्यादा का
उल्लंघन नहीं करते, अश्लील नहीं होते. रजऊ काल्पनिक चरित्र है या वास्तविक इस पर
मतभेद हो सकते हैं किन्तु उसका चित्रण इतना जीवंत है की उसे वास्तविक मानने की
प्रेरणा देता है. सम्भवत: ईसुरी अपनी पत्नि ‘राजाबेटी’ को ही रचनाओं में ‘रजऊ’ के
रूप में चित्रित करते रहे. चलचित्र नवरंग
के नायक-नायिका का चरित्र ईसुरी से प्रेरित होकर लिखा गया हो सकता है. जो भी हो
रजऊ नारी की मनोरम छवियों के शब्दांकन का माध्यम तो है ही.
यह
प्रश्न ईसुरी के जन्मकाल में भी सिर उठाने लगा होगा कि रजऊ कौन है? यदि उनकी पत्नि
है तो ईसुरी को उसके रूप-सौन्दर्य की सार्वजनिक चर्चा रुचिकर न लगना स्वाभाविक है.
यदि उनकी प्रेमिका थी, तो प्रेम की पवित्रता तथा प्रेमिका के पारिवारिक जीवन की
शांति के लिये वे उसे प्रगट नहीं कर सकते होंगे. यदि कोई एक या अनेक नारियों से
प्रेरणा लेकर रजऊ का चित्रण किया गया हो तो कौन कहाँ है कहना न ईसुरी के लिये
वर्षों बाद संभव रहा होगा, न अन्यों के लिये पश्चातवर्ती काल में खोज पाना संभव
होगा. अंतिम संभावना यह कि रजऊ काल्पनिक अथवा प्रकृति से प्रेरित होकर गढ़ा चरित्र
हो, यह सत्य हो तो भी अन्य जन अलौकिकता की अनुभूति न कर पाने के कारण लौकिक मांसल
देह की कल्पना करें यह स्वाभाविक है. स्वयं ईसुरी ने देहज मानी जा रही रजऊ को
अदेहज कहकर इस विवाद के पटाक्षेप का प्रयास किया:
नइयाँ
रजऊ काऊ के घर में बिरथा कोई न भरमें
सबमें
है, सब सें है न्यारी सब ठौरन में भरमें
कौ कय
अलख-खलक की बातें लखी न जाय नजर में
ईसुर
गिरधर रँय राधे में राधे रँय गिरधर में
उल्लेख्य
यह है कि यह rajरजऊ सब में होकर भी किसी में नहीं है तो यह आत्मा के सिवा और क्या
हो सकती है? ईसुरी अलख-खलक अर्थात परमसत्ता और उसकी रचना का संकेत देकर बताते हैं
कि रजऊ ईश्वरीय है सांसारिक नहीं. राधा-कृष्ण के उदाहरण के सन्दर्भ में यह तथ्य है
कि गोकुलवासी कृष्ण के जीवन में राधा नाम का कोई
चरित्र कभी नहीं आया. कृष्ण पर रचित सबसे पुरानी और प्रथम कृति हरिवंश
पुराण में ऐसा कोई चरित्र नहीं है. राधा का चरित्र चैतन्य महाप्रभु की भावधारा के
साथ-साथ कृष्ण की पराशक्ति के रूप में विकसित हुआ जबकि विष्णु के अवतार मान्य
कृष्ण के साथ लक्ष्मी रूप में रुक्मणि उनकी अर्धांगिनी हैं. इस प्रसंग से ईसुरी यह
संकेतित करते हैं कि जिस तरह कृष्ण के साथ संयुक्त की गयी राधा काल्पनिक हैं वैसे
ही रजऊ भी काल्पनिक है.
रजऊ का
रूप-लावण्य अलौकिक है. उसका अंग-अंग जैसा है वैसा त्रिभुवन में खोजने पर भी किसी
अन्य का नहीं मिला. यह अनन्यता उसके काल्पनिक होने पर ही आ सकती है:
नग-नग
बने रजऊ के नोने ऐसे की के होने
गाल नाक
उर भौंह, चिबुक लग अँखियाँ करतीं टोने
ग्रीवा
जुबन पेट कर जाँगें सब हुई भौत सलौने
ईसुरी
दूजी रची न विधना छानौ त्रिभुवन कौने
ईसुरी
रजऊ के प्रति इतने समर्पित हैं कि उसके घर की देहरी होना चाहते हैं ताकि उसके
आते-जाते समय चरण-धूल का स्पर्श पा सकें. ऐसा अनन्य समर्पण भाव ईश्वरीय तत्व के
प्रति ही होता है. यहाँ भी ईसुरी रजऊ का काल्पनिक और दैवीय होना इंगित करते हैं:
विधना
करी देह ना मेरी रजऊ के घर की देरी
आउत-जात
चरण की धूरा लगत जात हर बेरी
ईसुरी
संसार के परम सत्य, तन की नश्वरता से सुपरिचित हैं. वे इस संसार में आकर बुरा काम
करने से डरते हैं तो किसी अन्य की पत्नि से प्रेम कैसे कर सकते है? अपनी पत्नि की
दैहिक सुन्दरता का सार्वजनिक बखान भी नैतिक नहीं माना जा सकता. स्पष्ट है कि उनमें
कबीराना वैराग के प्रति लगाव है, वे देह-गेह-नेह की क्षणभंगुरता से सुपरिचित हैं
तथा तुलसी की रत्नावली के प्रति दैहिक
आसक्ति की तरह रजऊ में आसक्त नहीं हैं. उनकी रजऊ परमसत्ता से साक्षात् का माध्यम
है, काल्पनिक है:
तन कौ
कौन भरोसो करनें आखिर इक दिन मरनें
जौ
संसार ओस कौ बूँदा पवन लगें सें ढुरनें
जौ लौ
जी की जियन जोरिया की खाँ जे दिन मरनें
ईसुर ई
संसार में आकें बुरे काम खाँ डरनें
कहते
हैं ‘भगत के बस में हैं भगवान’. भक्त जितना भगवान् चाहता है उतना ही भगवान् भी उसे
चाहते हैं. ‘राम ते अधिक राम कर दासा’, इस कसौटी पर भी रजऊ अलौकिक है. वह भी ईसुरी
को उतना ही चाहती है जितना ईसुरी उसे चाहते हैं. वह कामना करती है कि ईसुरी उँगली
का छल्ला हो जाएँ तो वह मुँह पोछते समय गालों पर उनका स्पर्श पा सके, बार-बार घूँघट खोलते समय आँखों
के सामने रहेंगे, उसे ईसुरी के दर्शन पाने के लिये ललचाना नहीं पड़ता:
जो तुम
छैल छला हो जाते परे उँगरियन राते
मो
पोछ्त गालन खाँ लगते कजरा देत दिखाते
घरी-घरी
घूँघट खोलत में नजर के सामें राते
ईसुर
दूर दरस के लानें ऐसे कायँ ललाते
ईसुरी
ने रजऊ के माध्यम से बुंदेलखंड की गरिमामयी नारी जीवन के विविध चरणों का चित्रण
किया है. किशोरी रजऊ चंचलतावश आते-जाते समय घूँघट उठा-उठाकर कनखियों से ईसुरी को
देखते हुए भी अनदेखा करना प्रदर्शित करते हुए उन्हें अपनी रूप राशि के दर्शन
सुअवसर देती है:
चलती कर
खोल खें मुइयाँ रजऊ वयस लरकइयाँ
हेरत
जात उँगरियन में हो तकती हैं परछइयाँ
लचकें
तीन परें करया में फरकें डेरी बइयाँ
बातन
मुख झर परत फूल से जो बागन में नइयाँ
धन्य
भाग वे सैयाँ ईसुर जिनकी आयँ मुनइयाँ
कैशोर्य
में आभूषणों के प्रति आकर्षण और आभूषण मिलने पर सज्जित होकर गर्वसहित प्रदर्शन
करना किस युवती को प्रिय नहीं होता? रजऊ
बैगनी धोती, करधनी, पैंजना आदि से सज्जित हो अपनी गजगामिनी देह का प्रदर्शन करते
हुई नित्य ही ईसुरी के दरवाजे के सामने से निकलती है:
दोरें
कड़तीं रोज रजउआ हाँती कैसो छौआ
छीताफली
पैजना पैरें होत जात अर्रौंआ
ककरिजिया
धोती पै लटकै करदौनी की टौआ
ईसुर
गैल गली उड़ जातीं जैसें कारो कौआ
लावण्यमयी
रजऊ को कुदृष्टि से बचाने के लिये एक नहीं दस-दस बार राई-नोन से नज़र उतारना भी
पर्याप्त नहीं है, ईसुर मंत्र पढ़वा कर लट बँधवाने, गले में यंत्र डालने के बाद भी
संतुष्ट नहीं हो पाते और खुद राई-नोन उतारते हैं:
नौने नई
नजर के मारें राती रजऊ हमारे
रोजई
रोज झरैया गुनियाँ दस-दस बेराँ झारें
मन्त्र
पढ़ा कें लट बँदवाई जन्तर गरे में डारें
ईसुर
रोजऊँ रजऊ के ऊपर राई नौंन उतारें
समय के
साथ रजऊ के मन में अपने स्वामी के घर जाने का भाव उदित हो तो क्या आश्चर्य? अलौकिक
रजऊ आत्मा से मिलन की और लौकिक रजऊ प्रियतम से मिलन की राह देखे, यही जीवन का
विकास क्रम है:
वे दिन
गौने के कब आबैं जब हम ससुरे जाबैं
बारे
बलम लिबौआ होकें डोला सँग सजाबैं
गा हा
गुइयाँ गाँठ जोर कें दौरें नौ पौंचाबें
हांते
लगा सास-ननदी के चरनन सीस नबाबैं
ईसुर
कबै फलाने जू की दुलहिन् टेर कहाबैं
इस फाग
में डोला सजना, गाँठ जोड़ना, द्वार पर हाथे लगाना और वधु को उसके नाम से न पुकार कर
अमुक की दुलहिन कहकर पुकारना जैसी बुन्देली लोक परम्पराओं का सरस संकेतन अद्भुत
मिठास लिये है. यहाँ ‘घर सें निकसी रघुबीर बधू’ कहते तुलसी की याद आती है.
परमात्मा
एक है किन्तु आत्माएँ अनेक हैं. पारस्परिक द्वेष पाल कर उसे नहीं पाया जा सकता
किन्तु ऐक्य भाव से उसे पाना सहज है. लौकिक जगत में सौतिया डाह से नर्क बनते घर
सत्य सर्वज्ञात है. ईसुरी इस त्रासदी का जीवंत वर्णन करते हैं:
सो घर
सौत सौत कें मारें सौंज बने ना न्यारें
नारी
गुपता भीतर करतीं लगो तमासो द्वारे
अपनी-अपनी
कोदें झीकें खसमें फारें डारें
एक
म्यान में कैसें पटतीं ईसुर दो तरवारें
बुन्देलखंड
में गुदना गुदाने का रिवाज़ चिरकाल से प्रचलित रहा है. अधुनातन युवा पीढ़ी ‘टैबू’ के
नाम से इसे अपना रही है. ईसुरी की रजऊ अललौकिक है, वह सांसारिक नश्वरता से जुड़े
चिन्हों का गुदना गुदवाना नहीं चाहती. अंततः वह गोदनारी से अपने अंग-अंग में कृष्ण
जी के विविध नाम गोद दिये जाने का अनुरोध करती है:
गोदौ
गुदनन की गुदनारी सबरी देह हमारी
गालन पै
गोविन्द गोद दो कर में कुंजबिहारी
बइयन
भौत भरी बनमाली गरे धरौ गिरधारी
आनंदकंद
लेव अँगिया में माँग में लिखौ मुरारी
करया
कोद करइयाँ ईसुर गोद मुखन मनहारी
अंगों
के नाम के साथ कृष्ण के ऐसे नामों का चयन जिनका प्रथमाक्षर समान हो आनुप्रसिक
सौन्दर्य तथा लालित्य संवर्धक है. अलौकिक हो या लौकिक रजऊ को मान-मर्यादा का पालन
कर अपने लक्ष्य ताक पहुँचाने की सीख देना स्वजनों और वरिष्ठों का कर्त्तव्य है:
बाहर
रेजा पैर कड़ें गये, नीचो मूड़ करें गये
जी सें
नाव धरैं ना केऊ ऐसी चाल चलें गये
हवा चहै
उड़ जैहे झूना घूँघट हाँत धरैं गये
ईसुर इन
गलियन में बिन्नू धीरें पाँव धरैं गये
अपने
प्रियतम को टेरती अलौकिक रजऊ को संसार में सर्वत्र चोर-लुटेरे दिखाई देते हैं. उसे
प्रियतम को पाये बिना सागर में आगे यात्रा करने का चाव नहीं, वह कहती है कि मुर्गे
के जागने पर जगाते रह जाओगे अर्थात उसके पहले ही रजऊ प्रभु प्राप्ति की राह पर जा
चुकी होगी:
अब ना
जाव मुसाफिर आगे जात बिदा दिन माँगें
मिलने
नहीं गाँव कोसन लौं परती इकदम डांगें
है
अँधियारी रात गैल में चोर-चबाई लाँगें
परों
सुनत दो जने लूट लये मार मार के साँगें
ईसुर
कात रओ उठ जइयो अरुनसिखा जब जागें
बुन्देलखण्ड के जन जीवन के सटीक चित्रण के साथ-साथ लोक रंग और लोक परंपराओं का
सरस वर्णन, सांसारिकता और आध्यात्मिकता का सम्यक सम्मिश्रण, श्रृंगार के विविध
पक्षों का अंकन, छंद विधान के प्रति सजगता, चारुत्व तथा लालित्यमय भाषा, सहज
बोधगम्य भाषा ईसुरी की फागों का वैशिष्ट्य है. लोक के अंकन के साथ लोक के मंगल से
अनुप्राणित ये फागें बुंदेलखंड के गाँवों-शहरों में निरंतर गायी जाती हैं. ईसुरी
की फागें बुन्देली ही नहीं हिंदी साहित्य की भी अनमोल विरासत है जिसे आधुनिक भाषा,
शब्दावली, सन्दर्भों और बिम्ब-प्रतीकों को समाहित करते हुई लिखा जाना चाहिए.
muktika: sanjiv
मुक्तिका:
संजीव
.
मनचला मन चला
शुभ मुहूरत टला
कर रहा जो भला
और का, है भला
ढांक ले तू गला
फिर न कहना गला
नोन का था डला
घुल गया जब डला
ले न कोई सिला
लब रहे गर सिला
गुल हसीं जो खिला
दे नहीं वह खिला
मारने जो पिला
सिर किया पिलपिला
>
संजीव
.
मनचला मन चला
शुभ मुहूरत टला
कर रहा जो भला
और का, है भला
ढांक ले तू गला
फिर न कहना गला
नोन का था डला
घुल गया जब डला
ले न कोई सिला
लब रहे गर सिला
गुल हसीं जो खिला
दे नहीं वह खिला
मारने जो पिला
सिर किया पिलपिला
>
navgeet: sanjiv
नवगीत:
संजीव
.
ठेठ जमीनी जिंदगी
बिता रहा हूँ
ठाठ से
.
जो मन भाये
वह लिखता हूँ.
नहीं और सा
मैं दीखता हूँ.
अपनी राहें
आप बनाता.
नहीं खरीदा,
ना बिकता हूँ.
नहीं भागता
ना छिपता हूँ.
डूबा तो फिर-
फिर उगता हूँ.
चारण तो मैं हूँ नहीं,
दूर रहा हूँ
भाट से.
.
कलकल बहता
निर्मल रहता.
हर मौसम की
यादें तहता.
पत्थर का भी
वक्ष चीरता-
सुख-दुःख सम जी,
नित सच कहता.
जीने खातिर
हँस मरता हूँ.
अश्रु पोंछकर
मैं तरता हूँ.
खेत गोड़ता झूमता
दूर रहा हूँ
खाट से.
नहीं भागता
ना छिपता हूँ.
डूबा तो फिर-
फिर उगता हूँ.
चारण तो मैं हूँ नहीं,
दूर रहा हूँ
भाट से.
.
रासो गाथा
आल्हा राई
पंथी कजरी
रहस बधाई.
फाग बटोही
बारामासी
ख्याल दादरा
गरी गाई.
बनरी सोहर
ब्याह सगाई.
सैर भगत जस
लोरी भाई.
गीति काव्य मैं, बाँध मुझे
मत मानक की
लाट से.
नहीं भागता
ना छिपता हूँ.
डूबा तो फिर-
फिर उगता हूँ.
चारण तो मैं हूँ नहीं,
दूर रहा हूँ
भाट से.
***
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015
चन्द माहिया : क़िस्त 16
चन्द माहिया : क़िस्त 16
:1:
किस बात का हंगामा
ज़ेर-ए-नज़र तेरी
मेरा है अमलनामा
:2:
जो चाहे सज़ा दे दो
उफ़ न करेंगे हम
पर अपना पता दे दो
:3:
वो जितनी जफ़ा करते
क्या जाने हैं वो
हम उतनी वफ़ा करते
:4:
क़तरा-ए-समन्दर हूँ
जितना हूँ बाहर
उतना ही अन्दर हूँ
:5:
इज़हार-ए-मुहब्बत है
रुसवा क्या होना
बस एक अक़ीदत है
[शब्दार्थ ज़ेर-ए-नज़र = नज़रों के सामने
अमलनामा =कर्मों का हिसाब-किताब
-आनन्द.पाठक
09413395592
गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015
लेख: बुन्देली लोकरंग की साक्षी ईसुरी की फागें -संजीव
लेख:
बुन्देली लोकरंग की साक्षी :
ईसुरी की फागें
संजीव
.
बुंदेलखंड
के महानतम लोककवि ईसुरी के काव्य में लोकजीवन के सांस्कृतिक, साहित्यिक, सामाजिक
पक्ष पूरी जीवन्तता और रचनात्मकता के साथ उद्घाटित हुए हैं. ईसुरी का वैशिष्ट्य यह
है कि वे तथाकथित संभ्रांतता या पांडित्य से कथ्य, भाषा, शैली आदि उधार नहीं लेते.
वे देशज ग्रामीण लोक मूल्यों और परम्पराओं को इतनी स्वाभाविकता, प्रगाढ़ता और
अपनत्व से अंकित करते हैं कि उसके सम्मुख शिष्टता-शालीनता ओढ़ति सर्जनधारा विपन्न
प्रतीत होने लगती है. उनका साहित्य पुस्तकाकार रूप में नहीं श्रुति परंपरा में
सुन-गाकर सदियों तक जीवित रखा गया. बुंदेलखंड के जन-मन सम्राट महान लोककवि ईसुरी
की फागें गेय परंपरा के कारण लोक-स्मृति और लोक-मुख में जीवित रहीं. संकलनकर्ता
कुंवर श्री दुर्ग सिंह ने १९३१ से १९४१ के मध्य इनका संकलन किया. श्री इलाशंकर
गुहा ने धौर्रा ग्राम (जहाँ ईसुरी लम्बे समय रहे थे) निवासियों से सुनकर फागों का
संकलन किया. अपेक्षाकृत कम प्रचलित निम्न
फागों में ईसुरी के नैसर्गिक कारयित्री प्रतिभा के साथ-साथ बुन्देली लोक परंपरा, हास्य एवं श्रृंगारप्रियता के भी दर्शन होते हैं:
कृष्ण-भक्त ईसुरी वृन्दावन की माटी का महात्म्य
कहते हुए उसे देवताओं के लिए भी दुर्लभ बताते हैं:
अपनी
कृस्न जीभ सें चाटी, वृन्दावन की माटी
दुरलभ
भई मिली ना उनखों, देई देवतन डाटी
मिल ना
सकी अनेकन हारे, पावे की परिपाटी
पायो
स्वाग काहू ने नइयाँ, मीठी है की खाटी
बाही रज
बृजबासिन ‘ईसुर’, हिसदारी में बाटी
कदम कुञ्ज में खड़े कन्हैया राहगीरों
को रास्ता भुला देते हैं, इसलिए पथिक जमुना की राह ही भूल गये हैं अर्थात जमुना से
नहीं जाते. किसी को भुला कर मजा लेने की लोकरीत को ईसुरी अच्छा नहीं मानते और
कृष्ण को सलाह देते हैं कि किसी से अधिक हँसी अच्छी नहीं होती:
आली!
मनमोहन के मारें, जमुना गेल बिसारें
जब देखो
जब खडो कुञ्ज में, गहें कदम की डारें
जो कोउ
भूल जात है रस्ता, बरबस आन बिगारें
जादा
हँसी नहीं काऊ सें, जा ना रीत हमारें
‘ईसुर’
कौन चाल अब चलिए, जे तौ पूरी पारें
रात भर घर से बाहर रहे कृष्ण को अपनी सफाई में
कुछ कहने का अवसर मिले बिना ‘छलिया’ का खिताब देना ईसुरी के ही बस की बात है:
ओइ घर
जाब मुरलियाबारे!, जहाँ रात रये प्यारे
हेरें
बाट मुनइयां बैठीं, करें नैन रतनारे
अब तौ
कौनऊँ काम तुमारो, नइयाँ भवन हमारे
‘ईसुर’
कृष्ण नंद के छौना, तुम छलिया बृजबारे
फगुआ हो और राधा न खेलें, यह कैसे हो सकता है?
कृष्ण सेर हैं तो राधा सवा सेर. दोनों की लीलाओं का सजीव वर्णन करते हैं ईसुरी
मानो साक्षात् देख रहे हों. राधा ने कृष की लकुटी-कमरिया छीन ली तो कृष्ण ने राधा
के सिर से सारी खींच ली. इतना ही हो तो गनीमत... होली की मस्ती चरम पर हुई तो राधा
नटनागर बन गयी और कृष्ण को नारी बना दिया:
खेलें
फाग राधिका प्यारी, बृज खोरन गिरधारी
इन भर
बाहू बाँस को टारो, उन मारो पिचकारी
इननें
छीनीं लकुटि मुरलिया, उन छीनी सिर सारी
बे तो
आंय नंद के लाला, जे बृषभान दुलारी
अपुन
बनी नटनागर ‘ईसुर’, उनें बनाओ नारी
अटारी के सीढ़ी चढ़ते घुंघरू निशब्द हो गए. फूलों
की सेज पर बनवारी की नींद लग गयी, राधा के आते ही यशोदा के अनाड़ी बेटे की बीन
(बांसुरी) चोरी हो गयी. कैसी सहज-सरस कल्पना है:
चोरी गइ
बीन बिहारी की, जसुदा के लाल अनारी की
जामिन
अमल जुगल के भीतर, आवन भइ राधा प्यारी की
नूपुर
सबद सनाके खिंच रये, छिड़िया चड़त अटारी की
बड़ी
गुलाम सेज फूलन की लग गइ नींद मुरारी की
कात
‘ईसुरी’ घोरा पै सें, उठा लई बनवारी की
कृष्ण राधा और गोपियों के चंगुल में फँस गये
हैं. गोपियों ने अपने मनभावन कृष्ण को पकड़कर स्त्री बनाए का उपक्रम करने में कोई
कसर नहीं छोड़ी. कृष्ण की बनमाला और मुरली छीनकर सिर पर साड़ी उढ़ा दी गयी. राधा ने
उन्हें सभी आभूषणों से सजाकर कमर में लंहगा पहना दिया और सखियों के संग फागुन
मनाने में लीन हो गयी हैं. श्रृंगार और हास्य का ऐसा जीवंत शब्द चित्र ईसुरी ही
खींच सकते हैं:
पकरे
गोपिन के मनभावन, लागी नार बनावन
छीन लई
बनमाल मुरलिया, सारी सीस उड़ावन
सकल
अभूषन सजे राधिका, कटि लंहगा पहरावन
नारी
भेस बना के ‘ईसुर’, फगुआ लगी मगावन
ईसुरी प्रेमिका से निवेदन करा रहे हैं कि वह अपने
तीखे नयनों का वार न करे, जिरह-बख्तर कुछ न कर सकेंगे और देखे ही देखते नयन-बाण
दिल के पार हो जायेगा. किसी गुणी वैद्य की औषधि भी काम नहीं आएगी, ईसुरी के दवाई
तो प्रियतमा का दर्शन ही है. प्रणय की ऐसी प्रगाढ़ रससिक्त अभिव्यक्ति अपनी मिसाल
आप है:
नैना ना
मारो लग जैहें, मरम पार हो जैहें
बखतर
झिलम कहा का लैहें, ढाल पार कर जैहें
औषद मूर
एक ना लगहै, बैद गुनी का कैहें
कात
‘ईसुरी’ सुन लो प्यारी, दरस दबाई दैहें
निम्न फाग में ईसुरी नयनों की कथा कहते हैं जो
परदेशी से लगकर बिगड़ गये, बर्बाद हो गये हैं. ये नयना अंधे सिपाही हैं जो कभी लड़कर
नहीं हारे, इनको बहुत नाज़ से काजल की रेखा भर-भरकर पाला है किन्तु ये खो गए और इनसे
बहते आंसुओं से नयी की नयी सारी भीग गयी है. कैसी मार्मिक अभिव्यक्ति है:
नैना
परदेसी सें लग कें, भये बरबाद बिगरकें
नैना
मोरे सूर सिपाही, कबऊँ ना हारे लरकें
जे नैना
बारे सें पाले, काजर रेखें भरकें
‘ईसुर’
भींज गई नई सारी, खोवन अँसुआ ढरकें
श्रृंगार के विरह पक्ष का प्रतिनिधित्व करती यह
फाग ईसुरी और उनकी प्रेमिका रजऊ के बिछड़ने की व्यथा-कथा कहती है:
बिछुरी
सारस कैसी जोरी, रजो हमारी तोरी
संगे-सँग
रहे निसि-बासर, गरें लिपटती सोरी
सो हो
गई सपने की बातें, अन हँस बोले कोरी
कछू
दिनन को तिया अबादो, हमें बता दो गोरी
जबलो
लागी रहै ‘ईसुरी’, आसा जी की मोरी
ईसुरी
की ये फागें श्रृंगार के मिलन-विरह पक्षों का चित्रण करने के साथ-साथ hasya के उदात्त
पक्ष को भी सामने लाती हैं. इनमें हँसी-मजाक, हँसाना-बोलना सभी कुछ है किन्तु
मर्यादित, कहीं भी अश्लीलता का लेश मात्र भी नहीं है. ईसुरी की ये फागें २८ मात्री
नरेन्द्र छंद में रचित हैं. इनमें १६-१२ पर यति का ईसुरी ने पूरी तरह पालन किया
है. सम चरणान्त में गुरु की अधिकता है किन्तु २ लघु भी प्राप्य है. इक फाग में ४,
५ या ६ तक पंक्तियाँ मिलती हैं. एक फाग की सभी पंक्तियों में सम चरणान्त सम्मन है
जबकि विषम चरणान्त में लघु-गुरु का कोई बंधन नहीं है.
*
-समन्वयम
२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१.
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