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सोमवार, 1 जुलाई 2019

ट्रू मिडिया सलिलांक


ॐ 
साक्षात्कार 
 (१)   आप साहित्य की इस दुनिया में कैसे आए? कब से आए? क्या परिवार में कोई और सदस्य भी साहित्य सेवा से जुड़ा रहा है?
मैं बौद्धिक संपदा संपन्न कायस्थ परिवार में जन्मा हूँ। शैशव से ही माँ की लोरी के रूप में साहित्य मेरे व्यक्तित्व का अंश बना गया। पिताश्री स्व. राजबहादुर वर्मा, कारापाल (जेलर) के पद पर नियुक्त थे। बंगला ड्यूटी पर आनेवाले सिपाही और कैदी अलग-अलग प्रदेशों के ग्रामीण अंचल से होते थे। उनसे मुझे लोक भाषाओँ और लोक साहित्य निरंतर सुनने को मिलता था। अधिकारियों और विद्वज्जनों का आना-जाना लगा रहता था। उनसे हिंदी और अंगरेजी का शब्द ज्ञान होता गया। बचपन से तुकबंदी के रूप में काव्य सृजन आरम्भ हुआ। मेरी मातुश्री स्व. शांति देवी स्वयं भजन रचती-गाती थीं। अग्रजा आशा वर्मा हिंदी सहती की गंभीर अध्येता रहीं। उनहोंने प्राथमिक शालाओं में मेरे लिए व्याख्यान लिखे, कवितायेँ बोलना सिखाईं, जबकि वे स्वयं उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की श्रेष्ठ वक्ता थीं। माध्यमिक शाला में मुझे अग्रजवत सुरेश उपाध्याय जी गुरु के रूप में मिले। मुझे अपने जन्म दिन का प्रथम स्मरणीय उपहार उन्हें से मिला वह था पराग, नंदन और चम्पक पत्रिका के रूप में। तब मैं सेठ नन्हेलाल घासीराम उ. मा. विद्यालय होशंगाबाद में ७ वीं का छात्र था। मुझे अपने से वरिष्ठ छात्र राधेश्याम साकल्ले ने एक पुस्तक 'हिमालय के वीर' स्वाधीनता दिवस पर व्याख्यान प्रतियोगिता में पुरस्कारवत दी। यह १९६२ के भारत-चीन युद्ध के शहीदों की जीवनियाँ हैं जिन्हें श्यामलाल 'मधुप 'ने लिखा है। इस तरह साहित्यांगन में मेरा प्रवेश हुआ।  
(२)    आपको कब महसूस हुआ कि आपके भीतर कोई रचनाकार है?
सच कहूँ तो रचनाकर्म करते समय 'रचनाकार' जैसा गुरु गंभीर शब्द ही मुझे ज्ञात नहीं था। मेरे एक बाल मित्र रहे अनिल धूपर। वे सिविल सर्जन स्व. हीरालाल धूपर के चिरंजीव थे। विद्यालय के निकट ही जिला चिकित्सालय था। हमारा दोपहर का भोजन एक साथ ही आता था और हम दोपहर को रोज साथ में भोजन करते थे। वह अंगरेजी में मेरी मदद करता था मैं गणित में उसकी। एक दिन कक्षा में किसी शरारत पर उसे एक चपत पड़ी। तब मेरे मुँह से अनायास निकला 
'सुन मेरे भाई / तूने ऊधम मचाई / तेरी हो गयी पिटाई / सुर्रू सर ने तुझे एक चपत लगाई' कर उसे एक और चपत जमाकर मैं भाग लिया। 
(३)    हर रचनाकार का कोई-न-कोई आदर्श होता है जिससे कि वह लिखने की प्रेरणा लेता है। आपका भी कोई आदर्श ज़रूर रहा होगा। आप का आदर्श कौन रहा है? और क्यों रहा है? क्या अब भी आप उसे अपना आदर्श मानते हैं या समय के बहाव के साथ आदर्श प्रतीकों में बदलाव आया है?
सुरेश उपाध्याय जी धर्मयुग में सहसंपादक होकर चले गए तो श्री सुरेंद्र कुमार मेहता ने मुझे पढ़ाया। वे भी सुकवि थे। मैं अपनी बड़ी बहिनों की हिंदी की किताबें पढ़ता रहता था। पिताजी भी साहित्य प्रेमी थे। उनके में कई सामाजिक पुस्तकें थीं, माँ के पास धार्मिक साहित्य था। हमें पाठ्यक्रम पढ़ने को कहा जाता। ये पुस्तकें हमें नहीं दी जाती थीं कि फाड़ दोगे। मैं लुक-छिपकर पढ़ा लेता था। कल्याण, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, दिनमान, कादम्बिनी, नवनीत, हिंदी डाइजेस्ट और माधुरी मेरी प्रिय पत्रिकाएँ थीं। इनके कई वर्षों के अंक आज भी जिल्द कराए हुए मेरे संकलन में हैं। महादेवी, सुभद्रा, निराला, माखनलाल, मैथिली शरण जी, पंत जी, बच्चन जी, दिनकर जी, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ, बंकिम चंद्र, शरत चंद्र, बिमल मित्र, प्रेमचंद्र, शिवानी, यशपाल, अमृतलाल नागर जी, भगवतीचरण वर्मा, शिव वर्मा, वैशम्पायन, श्रीकृष्ण 'सरल', देवेंद्र सत्यार्थी, रेणु, हरिशंकर परसाई, इलाचंद्र जोशी, डॉ. रामकुमार वर्मा,  जवाहर लाल नेहरू, गाँधी जी, सरदार पटेल, लेनिन, गोर्की, पुश्किन, चेखव, सावरकर, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, विनोबा भावे, ओशो, नीरज, फैज़, साहिर, अर्श, नियाज़, डॉ. राम विलास शर्मा, डॉ. नागेंद्र, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, धर्मवीर भारती जी, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी, नागार्जुन, त्रिलोचन, शंकर, अनंत गोपाल शेवडेकर, शिवाजी सावंत, अम्बिका प्रसाद दिव्य, काका हाथरसी, ओमप्रकाश शर्मा, कर्नल रंजीत, स्वेड मार्टिन, कुशवाहा कांत, गुलशन नंदा, गुरुदत्त, नरेंद्र कोहली, रामकुमार भ्रमर, चंद्रसेन विराट,  आदि आदि को कई बरसों खूब पढ़ा। आदर्श तो तब से अब तक तुलसीदास ही हैं।  
(४)    आज के रचनाकारों की पीढ़ी में आप के आदर्श कौन हैं?
 मुझे स्व. भगवती प्रसाद देवपुरा से निरंतर कर्मरत रहने की प्रेरणा मिलती रही है। डॉ. किशोर काबरा, डॉ. चित्रा चतुर्वेदी, डॉ. इला घोष, डॉ. सुमन श्रीवास्तव, पूर्णिमा बर्मन, निर्मल शुक्ल, अशोक जमनानी आदि का सृजन मन भाता है। 
(५)    लेखन को आप स्वांतः-सुखाय कृत्य मानते हैं या सामाजिक परिवर्तन का माध्यम मानते हैं?
लेखन निरुद्देश्य हो तो विलासिता के अलावा कुछ नहीं है किन्तु वैचारिक प्रतिबद्धता लेखक को गुलाम बना देती है। लेखन एक सारस्वत साधना है जो मानसिक-आत्मिक विकास का करक होती है, सामाजिक प्रभाव तो उसका उप उत्पाद है। 
(६)    जनमानस को प्रभावित करने के लिए आप साहित्य की किस विधा को ज्यादा सशक्त मानते हैं? गद्य को या पद्य को?
जनमानस विधा से नहीं कथ्य और शिल्प से प्रभावित होता है। कथा हो या कविता दोनों के पाठक और श्रोता हर काल में खूब रहे हैं। प्रवचन हों या कवि सम्मेलन दोनों में भीड़ जुटती है। बोझिल विचारपरकता को जनगण नकार देता है।  
(७)    आज जो आपकी पहचान बन रही है उसमें आप एक छांदस रचनाकार के रूप में उभर रहे हैं। गीतमुक्तकग़ज़ल आप लिख रहे हैं। क्या आपने छंदमुक्त कविताएं भी लिखी हैं? अगर नहीं तो क्यों? क्या आप इस शैली को कम प्रभावी मानते हैं? या छंदमुक्त लिखने में आप अपने को असहज महसूस करते हैं?
मैं कुछ कहने के लिए लिखता हूँ। विचार ही न हो तो क्यों लिखा जाए? कथ्य अपना माध्यम खुद चुन लेता है। गद्य हो या पद्य, छांदस हो या अछांदस, लघुकथा हो या कहानी, लेख हो या निबंध यह पूर्व निर्धारित तभी होता है जब उस विधा की रचना या उस विषय की रचना भेजना हो। मैंने मुक्त छंद की कवितायेँ खूब लिखी हैं। दो कविता संकलन लोकतंत्र का मकबरा व मीत मेरे चर्चित भी हुए हैं। एक कविता का आनंद लें-
कौन कहता है 
कि चीता मर गया है?
हिंस्र वृत्ति 
जहाँ देखो बढ़ रही है,
धूर्तता 
किस्से नए नित गढ़ रही है। 
शक्ति के नाखून पैने 
चोट असहायों पे करते,
स्वाद लेकर रक्त पीते 
मारकर औरों को जीते। 
और तुम...?
और तुम कहते हो- 
'चीता मर गया है।'
नहीं वह तो आदमी की
खाल में कर घर गया है। 
कौन कहता है कि 
चीता मर गया है।  

(९)    क्या आप भी यह मानते हैं कि गीत विदा हो रहा है और ग़ज़ल तेज़ी से आगे आ रही है? क्या इसका कारण ग़ज़ल का अधिक संप्रेषणीय होना है? या फिर कोई और कारण आप समझते हैं?
गीत अमर है। गीत के मरने की घोषणा प्रगतिवादियों ने की, घोषणा करने वाले मर गए, गीत फल-फूल रहा है। ग़ज़ल गीत का ही एक प्रकार है। भारतीयों की मानसिकता अभी ेभी  स्वतंत्र चेता नहीं हो सकी है। सिन्दूर पुता पाषाण हो, अधिकारहीन पूर्व राजा हों या कोई अल्पज्ञ पुजारी हमें पैर छूने में एक क्षण नहीं लगता, भले ही घर में माता-पिता को सम्मान न दें। उर्दू और अंग्रेजी हमारे पूर्व मालिकों की भाषाएँ रही हैं। इसलिए उनके प्रति अंध मोह हैं। ग़ज़ल के तत्वों और विधान को जाने बिना, उसमें महारत पाए बिना तथाकथित गज़लकार कागज़ काले करते रहते हैं। जानकार ऐसी ग़ज़लों को ग़ज़ल ही नहीं मानते। गीतकार गीत को समझकर लिखता है इसलिए गीत के श्रोता और पाठक न घटे हैं, न घटेंगे।   
(९)    हिंदी के रचनाकार ग़ज़ल खूब लिख रहे हैं। उर्दू के शायर ग़ज़ल खूब कह रहे हैं। क्या यह सोच और नज़रिए का फर्क़ है? क्या आप हिंदी और उर्दू ग़ज़ल को अलग-अलग देखने के हामी है? अगर हाँ तो क्यों?
संस्कृत और अपभ्रंश साहित्य से मुक्तक काव्य परंपरा हिंदी ने ग्रहण की है। मुक्तक में सभी पंक्तियाँ समान पदभार की होती है। पहली, दूसरी तथा चौथी पंक्ति का तुकांत-पदांत समान रखा जाता है जबकि तीसरी पंक्ति का भिन्न। तीसरी चौथी पंक्ति की तरह पंक्तियाँ बढ़ाने से मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल) की रचना हो जाती है। यह शिल्प भारत से फारस में गया और उसे ग़ज़ल नाम मिला। संस्कृत छंदों के 'गण' यत्किंचित परिवर्तन कर 'रुक्न' बन दिए गए। आदिकवि वाल्मीकि और क्रौंच वध प्रसंग में नर क्रौंच के मारे जाने पर मादा क्रौंच के आर्तनाद की करुण कथा की नकल मृग-शिशु को शिकारी के तीर से मारे जाने पर मृगी के आर्तनाद का किस्सा गढ़कर की गई। 'गज़ाला चश्म' अर्थात मृगनयना रूपसियों से प्रेम वार्ता 'गज़ल' का अर्थ है। ग़ज़ल फ़ारसी की विधा है जो उर्दू ने ग्रहण की है। ग़ज़ल के विधान और व्याकरण फ़ारसी से आते हैं। फारसी जाने बिना ग़ज़ल 'कहना' बिना नींव का भवन खड़ा करने की तरह है। उर्दू एक भाषा नहीं, कुछ भाषाओँ से  लिये गए शब्दों का संकलन मात्रा है। उर्दू शब्द कोष में कोई शब्द उर्दू का नहीं है, हर शब्द किसी दूसरी भाषा से लिया गया है।  हम जानते हैं कि भाषा और छंद का जन्म लोक में होता है। वाचिक परंपरा में गद्य और पद्य 'कहा' जाता है। मानव संस्कृति के विकास के साथ कागल, कलम और लिपि का विकास होने पर हिंदी में साहित्य गद्य हो या पद्य 'लिखा' जाने लगा। उर्दू में मौलिक चिंतन परंपरा न होने से वह अब भी 'कहने' की स्थिति में अटकी हुई है और 'जज़ल कही जा रहे है जबकि सच यही है की हर शायर कागज़-कलम से लिखता है, दुरुस्त करता है। 'लिखना' और 'कहना' किसी सोच और नज़रिए नहीं विकास और जड़ता के परिचायक हैं। 
हिंदी अपभ्रंश और संस्कृत से विरासत ग्रहण करती है, उर्दू फारसी से। फारसी स्वयं संस्कृत से ग्रहण करती है। जिस तरह एक माटी से उपजने पर भी दो भिन्न जाति के वृक्ष भिन्न होते हैं वैसे ही, एक मूल से होने के बाद भी फ़ारसी और हिंदी भिन्न-भिन्न हैं। दोनों की वर्णमाला, उच्चार व्यवस्था और व्याकरण भिन्न है। हिंदी वर्ण वर्ग की पंचम ध्वनि फ़ारसी में नहीं है। इसलिए फारसी में 'ब्राम्हण' को 'बिरहमन' लिखना-बोलना होता है जी हिंदी व्याकरण की दृष्टि से गलत है। फारसी की 'हे और 'हम्जा'  दो ध्वनियों के लिए हिंदी में एकमात्र ध्वनि 'ह' है। हिंदी का कवि 'ह' को लेकर पदांत-तुकांत बनाये तो हिंदी व्याकरण की दृष्टि से सही है पर 'हे' और 'हम्जा' होने पर उर्दूवाला गलत कहेगा। पदभार गणना पद्धति भी हिंदी और फारसी में भिन्न-भिन्न हैं। हिंदी में वर्ण के पूर्ण उच्चार के अनुसार पदभार होता है। उर्दू में लय प्रधानता के कारण मात्रा गिराने-बढ़ाने का रिवाज है जो हिंदी में नहीं है। इसलिए हिंदी ग़ज़ल या मुक्तिका उर्दू ग़ज़ल से कई मायनों में भिन्न है। उर्दू ग़ज़ल इश्किया शायरी है, हिंदी ग़ज़ल सामाजिक परिवर्तन की साक्षी है। भारतीय प्रभाव को ग्रहण कर उर्दू ग़ज़ल ने भी कथ्य को बदला है पर लिपि और व्याकरण-पिंगल के मामले में वह परिवर्तन को पचा नहीं पाती। यह भी एक सच है कि उर्दू शायरों की लोकप्रियता और आय दोनों हिंदी की डैम पर है। सिर्फ उर्दू लिपि में छपें तो दिन में तारे नज़र आ जाएँ। हिंदी के बल पर जिन्दा रहने के बाद भी हिंदी के व्याकरण के अनुसार लिखित ग़ज़ल को गलत कहने की हिमाकत गलत है। 
(१०) आज लोग लेखन से इसलिए जुड़ रहे हैं क्योंकि यह एक प्रभावी विजिटिंग कार्ड की तरह काम आ जाता है और यशपुरस्कार विदेश यात्राओं के तमाम अवसर उसे इसके जरिए सहज उपलब्ध होने लगते हैं।
आज ही नहीं आदि से लेखन और कला को तपस्या और मन-रंजन माननेवाले दो तरह के रचनाकार रहे हैं। साहित्यकार को सम्मान नहीं मिलता। विचारधारा विशेष के प्रति प्रतिबद्ध साहित्यकार अपनी वैचारिक गुलामी के लिए सम्मानित किये जाते हैं तो धनदाता साहित्यकार सम्मान खरीदता है। सम्मान के लिए आवेदन करना ही साहित्यकार को प्रार्थी बना देता है। मैं न तो सम्मान के लिए धन देने के पक्ष में हूँ, न आवेदन करने के। सम्मान के लिए संपर्क किये जाने पर मेरा पहला प्रश्न यही होता है कि सम्मान क्यों करना चाहते हैं? यदि मेरे लिखे को पढ़ने के बाद सम्मान करें तो ही स्वीकारता हूँ। जिसने मुझे पढ़ा ही नहीं, मेरे काम को जनता ही नहीं वह सम्मान के नाम पर अपमान ही है। 
आजकल साहित्यकार लेखन को समय बिताने का माध्यम मान रहा है। बच्चों को धंधा सौंप चुके या सेवानिवृत्त हो चुके लोग, घर के दायित्व से बचनेवाली या बहुओं के आ जाने से अप्रासंगिक हो चुकी महिलायें जिन्हें धनाभाव नहीं है, बड़ी संख्या में लेखन में प्रवेश कर सम्मान हेतु लालायित रहती हैं। वे पैसे देकर प्रकाशित व सम्मानित होती हैं। उनका रचा साहित्य प्राय: सतही होता है पर महिला होने के नाते मुखपोथी (फेसबुक) आदि पर खूब सराहा जाता है। यह भी सत्य है कि अनेक गंभीर श्रेष्ठ महिला रचनाकार भी हैं।
(११) कविसम्मेलनों के मंच पर तो लोग धन कमाने के लिए ही आते हैं। और वही उनकी आजन्म प्राथमिकता बनी रहती है। आज के संदर्भ में कविसम्मेलनों को आप कितना प्रासंगिक मानते हैं? और क्यों?
जब 'सादा जीवन उच्च विचार' के आदर्श को हटाकर समाज विशेषकर बच्चों, किशोरों, तरुणों हुए युवाओं के सम्मुख 'मौज. मजा और मस्ती' को आदर्श के रूप में स्थापित कर दिया जाए तो कला बिकाऊ हो ही जाएगी। कवि सम्मलेन में गलाबाजी या अदायगी का चलन पहले भी था किंतु प्रबुद्ध श्रोता देवराज दिनेश, शेरजंग गर्ग, शमशेर बहादुर सिंह आदि से गंभीर रचनाएँ भी सुनते थे। आजकल फूहड़ता हुए भौंडापन कविसम्मेलनों पर हावी है। 
कवि सम्मेलन सामाजिक परिवर्तन का बहुत प्रभावी अस्त्र है। सामाजिक समरसता, सहिष्णुता, समन्वय, सामंजस्य, शासकीय योजनाओं के प्रचार-प्रसार आदि के लिए दूरदर्शनी और अखबारी विज्ञापन के स्थान पर कविसम्मेलन का सहारा लिया जाए तो सकारात्मक परिणाम मिलेंगे।  
(१२) आज कागज़ के कवि और मंच के कवि दो अलग-अलग वर्ग में बँट गए हैं। क्या आप इस वर्गीकरण को उचित मानते हैं?
ऐसा वर्गीकरण कहा भले ही जाए किन्तु किया नहीं जा सकता। कवि सम्मेलन के आयोजक दलाल हो गए हैं। उन्हें स्तर से नहीं, कमाई से मतलब है। गुटबाजी हावी है। प्राय: कवि भाषा के व्याकरण और छंद के पिंगल से अनभिज्ञ हैं। यह समाज और साहित्य दोनों का दुर्भाग्य है कि सरस्वती पर लक्ष्मी हावी है। 
(१३) राजनैतिक दृष्टि से भी वाम और दक्षिण लेखकों-रचनाकारों के दो धड़े बन गए हैं। जिनमें कभी सहमति नहीं बनती क्या साहित्य के लिए यह उचित है?
साहित्य को उन्मुक्त और स्वतंत्र होना चाहिए। वैचारिक प्रतिबद्धता राजनीतिक पराधीनता के अलावा कुछ नहीं है। वाम और दक्षिण तो पाखण्ड और मुखौटा है। क्या किसी प्रगतिवादी साहित्यकार को मैथिलीशरण पुरस्कार लेने से मन करते देखा है? क्या कोई दक्षिणपंथी रचनाकर मुक्तिबोध पुरस्कार लेने से परहेज करता है? 
साहित्य को अपने विषय, विधा और कथ्य के साथ न्याय करना चाहिए। कोई रचनाकार घनश्यामदास बिड़ला और लेनिन, गाँधी और सुभाष, दीवाली और ईद परस्पर विरोधी विषयों पर महाकाव्य या उपन्यास क्यों न लिखे? मैंने भजन, हम्द और प्रेयर तीनों लिखे हैं। मेरे पुस्तकालय में सेठ गोविंददास, सावरकर, लोहिया और कामरेड शिवदास घोष एक साथ रहते हैं। ऐसे विभाजन अपने-अपने स्वार्थ साधने के लिए ही किये जाते हैं। 
(१४) लेखन के लिए पुरस्कार की क्या उपयोगिता है? आजकल अचीन्हें लोग गुमनाम लोगों को पुरस्कार देते रहते हैं इससे किसका भला होता है?रचनाकार का या पुरस्कार देनेवाले का? क्या यह लेखक में गलतफहमियाँ नहीं पैदा कर देता?
अर्थशास्त्र का नियम है कि बाजार माँग और पूर्ति के नियमों से संचालित होता है। अँधा बाँटे रेवड़ी चीन्ह-चीन्ह कर देय। जब तक सुधी और समझदार संस्थाएँ और लोग सही साहित्यकार और रचना का चयन कर प्रकाशित-सम्मानित नहीं करते तब तक अवसरवादी हावी रहेंगे।  
(१५) सरकारों द्वारा साहित्य के प्रकाशन और पुरस्कार दिए जाने के संबंध में आपके क्या विचार है?
सरकार जनगण के प्रतिनिधियों से बनती और जनता द्वारा कर के रूप में दिए गए धन से संचालित होती हैं। समाज में श्रेष्ठ मूल्यों का विकास और सच्चरित्र नागरिकों के लिए उपादेय साहित्य का प्रकाशन और पुरस्करण सरकार करे यह सिद्धांतत: ठीक है किन्तु  व्यवहार में सरकारें निष्पक्ष न होकर दलीय आचरण कर अपने लोगों को पुरस्कृत करती हैं। अकादमियों की भी यही दशा है।  विश्वविद्यालय तक नेताओं और अधिकारियों को पालने  का जरिया बन गए हैं। इन्हें स्वतंत्र और प्रशासनिक-राजनैतिक प्रतिबद्धता से मुक्त किया जा सके तो बेहतर परिणाम दिखेंगे। लोकतंत्र में कुछ कार्य लोक को  चाहिए। मैं और आप भी लोक हैं। हम और आप क्यों न एक साहित्य को हर साल व्यक्तिगत संसाधनों से पुरस्कृत करें? 
(१६ )आपकी अभी तक कितनी कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं? और किन-किन विधाओं में? आप अपने को मूलतः क्या मानते हैं-गीतकार या ग़ज़लकार
मेरी १० पुस्तकें प्रकाशित हैं- १. कलम के देव भक्ति गीत संग्रह, २. लोकतंत्र का मक़बरा लंबी कवितायेँ, ३. मीत मेरे छोटी कवितायेँ, ४. काल है संक्रांति का गीत-नवगीत संग्रह, ५. सड़क पर गीत-नवगीत संग्रह, ६.जंगल में जनतंत्र लघुकथाएँ, ७. दिव्य गृह काव्यनुवादित खंड काव्य, सहलेखन ८. सौरभ:, ९. कुरुक्षेत्र गाथा खंड काव्य तथा १०. भूकंप के साथ जीना सीखें -लोकोपयोगी तकनीक। ४ पुस्तकें यंत्रस्थ हैं। 
मैंने हिंदी गद्य व् पद्य की लगभग सभी प्रमुख विधाओं में लेखन किया है। नाटक, उपन्यास तथा महाकाव्य पर काम करना शेष है। 
मैं मूलत: खुद को विद्यार्थी मानता हूँ।  नित्य प्रति पढ़ता-लिखता-सीखता हूँ। 
(१७) आप अभियंता हैं। क्या अपने व्यवसाय से जुड़ा लेखन भी अपने किया है? 
हाँ, मैं विभागीय यांत्रिकी कार्य प्राक्कलन बनाना, मापन-मूल्यांकन करना आदि १९७३ से हिंदी में करता रहा हूँ और इसके लिए तिरस्कार, उपेक्षा और धनद भी भोगा है। मैंने २५ तकनीकी लेख लिखे हैं जो प्रकाशित भी हुए हैं। 'वैश्वीकरण के निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएं' शीर्षक लेख को इंस्टीयूषन ऑफ़ इंजीनियर्स कोलकाता द्वारा २०१८ में राष्ट्रीय स्तर पर द्वितीय श्रेष्ठ आलेख का पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति जी के करकमलों से प्राप्त हुआ। मैंने अभियांत्रिकी विषयों को हिंदी माध्यम से पढ़ाया भी है। मैंने अभियांत्रिकी पत्रिकाओं व् स्मारिकाओं का हिंदी में संपादन भी किया है।  
(१८) आप संपादन कार्य से कब और कैसे जुड़े? संपादन के क्षेत्र में क्या-क्या कार्य किया? 
जब मैं शालेय छात्र था तभी गुरुवर सुरेश उपाध्याय जी धर्मयुग में उपसंपादक होकर गए तो यह विचार मन में पैठ गया कि संपादन एक श्रेष्ठ कार्य है। पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन हेतु १९७२ में डिप्लोमा सिविल इंजीनियरिंग करने के बाद मैं फरवरी १९७३ में मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग में उप अभियंता हो गया किन्तु आगे पढ़ने और बढ़ने का मन था। नौकरी करते हुए मैंने  १९७४ में विशारद, १९७६ में बी. ए., १९७८ में एम. ए. अर्थशास्त्र, १९८८० में विधि-स्नातक, १९८१ में स्नातकोत्तर डिप्लोमा पत्रकारिता, १९८३ में एम. ए. दर्शन शास्त्र, १९८५ में बी.ई. की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। १९८० से १९९५ तक सामाजिक पत्रिका चित्रशीष,  १९८२ से १९८७ तक मुझे मध्य प्रदेश डिप्लोमा इंजीनियर्स संघ की मासिक पत्रिका, १९८६ से १९९० तक तकनीकी पत्रिका यांत्रिकी समय, १९९६ से १९९८ तक इंजीनियर्स टाइम्स, १९८८ से १९९० तक अखिल भारतीय डिप्लोमा इंजीनियर्स जर्नल तथा २००२ से २००८ तक साहित्यिक पत्रिका नर्मदा का मानद संपादन मैंने किया है। इसके अतिरिक्त १९ स्मारिकाओं, १४ साहित्यिक पुस्तकों का संपादन किया है। 
(१९) आपने सिविल इंजीनियरिंग के साथ कुछ और तकनीकी कार्य भी किया है? 
हाँ, मैंने वास्तु शास्त्र का भी अध्ययन किया है। वर्ष २००२ में जबलपुर अखिल भारतीय वास्तुशास्त्र सम्मलेन की स्मारिका 'वास्तुदीप' का संपादन किया इसका विमोचन सरसंघचालक श्री कूप. श्री सुदर्शन जी, राज्यपाल मध्य प्रदेश भाई महावीर तथा महापौर जबलपुट विश्वनाथ दुबे जी ने किया था। अभियंता दिवस स्मारिकाओं, इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर की स्मारिकाओं तथा इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स की राष्ट्रीय तकनीकी हिंदी पत्रिका अभियंता बंधु का संपादन मैंने किया है। जटिल तकनीकी विषयों को हिंदी भाषा में सरलता पूर्वक प्रस्तुत करने के प्रति मैं सचेत रहा हूँ। 
(२०) आप अंतरजाल पर छंद लेखन की दिशा में भी सक्रिय रहे हैं। अभियंता होते हुए भी आप यह कार्य कैसे कर सके? 
वर्ष १९९४ में सड़क दुर्घटना के पश्चात् अस्थि शल्य क्रिया में डॉ. प्रमोद बाजपेई की असावधानी के कारण मुझे अपने बाएं पैर के कूल्हे का जोड़ निकलवा देना पड़ा। कई महीनों तक शैयाशायी रहने के पश्चात् चल सका। अभियंता के नाते मेरा कैरियर समापन की और था। निराशा के उस दौर में दर्शन शास्त्र की गुरु डॉ. छाया रॉय ने मनोबल बढ़ाया और मैंने कंप्यूटर एप्लिकेशन का प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम किया। अंतरजाल तब नया-नया ही था। मैंने हिन्दयुग्म दिल्ली के पटल पर लगभग ३ वर्ष तक हिंदी छंद शिक्षण किया। तत्पश्चात साहित्य शिल्पी पर २ वर्ष तक ८० से अधिक अलंकारों की लेखमाला पूर्ण हुई। साहित्य शिल्पी पर छंद शिक्षण का कार्य किया। भारत और विदेशों में सैकड़ों साहित्य प्रेमियों ने छंद लेखन सीखा। छंद शास्त्र के अध्ययन से विदित हुआ की इस दिशा में शोध और नव लेखन का काम नहीं हुआ है। हिंदी के अधिकांश शिक्षा और प्राध्यापक अंग्रेजी प्रेमी और छंद विधान से अनभिज्ञ हैं। नई पीढ़ी को छंद ज्ञान मिला ही नहीं है। तब मैंने अंतरजाल पर दिव्यनर्मदा पत्रिका, ब्लॉग, ऑरकुट, मुखपोथी (फेसबुक), वाट्स ऐप समूह 'अभियान' आदि के माध्यम से साहित्य और पिङग्ल सीखने कक्रम आगे बढ़ाया। हिंदी में आज तक छंद कोष नहीं बना है। मैं लगभग ढाई दशक से इस कार्य में जुटा हूँ। पारम्परिक रूप से २० सवैये उपलब्ध हैं. मैं १८० सवैये बना चुका हूँ। छंद प्रभाकर में भानु जी ने ७१५ छंद दिए हैं। मेरा प्रयास छंद कोष में १५०० छंद देने का है। प्रभु चित्रगुप्त जी और माँ सरस्वती की कृपा से यह महत्कार्य २०२० में पूर्ण करने की योजना है।  
(२१) आप पर्यावरण सुधार के क्षेत्र में भी सक्रिय रहे हैं?
समन्वय तथा अभियान संस्था के माध्यम से हमने जबलपुर नगर में पौधारोपण, बाल शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, महिला शिक्षा, कचरा निस्तारण, व्यर्थ पदार्थों के पुनरुपयोग, नर्मदा नदी शुद्धिकरण, जल संरक्षण आदि क्षेत्रों में यथासंभव योगदान किया है।  
(२२) आप अभियंता हैं। क्या आपका तकनीकी ज्ञान कभी समाज सेवा का माध्यम बना ?
शासकीय सेवा में रहते हुए लगभग ४ दशकों तक मैंने भवन, सड़क, सेतु आदि के निर्माण व् संधारण में योगदान किया है। जबलपुर में भूकंप आने पर पद्मश्री आनंद स्वरुप आर्य में मार्गदर्शन में भूकंपरोधी भवन निर्माण तथा क्षतिग्रस्त भवन की मरम्मत के कार्य में योगदान किया। निकट के गाँवों में जा-जाकर अपने संसाधनों से मैंने कच्चे मकानों और झोपड़ियों को लोहा-सीमेंट के बिना भूकंप से सुरक्षित बनाने की तकनीकी जानकारी ग्रामवासियों को दी। 'भूकंप  जीना सींखें' पुस्तिका की १००० प्रतियाँ गाँवों में निशुल्क वितरित की। मिस्त्री, बढ़ई आदि को मरम्मत की प्रविधियाँ समझाईं। नर्मदा घाट पर स्नानोपरांत महिलाओं के वस्त्र बदलने के लिए स्नानागार बनवाने, गरीब जनों को वनों और गाँवों में प्राप्त सामग्री का प्रयोग कर सुरक्षित मकान बनाने की तकनीक दी। झोपड़ी-झुग्गी वासियों को पॉलिथीन की खाली थैलियों और पुरानी साड़ियों, चादरों आदि को काटकर उसके पट्टियों को ऊन की तरह बुनकर उससे आसन, दरी, चटाई, परदा आदि बनाने की कला सीखने, गाजर घास और बेशरम जैसे खरपतवार को नष्ट कर चर्म रोगों से बचने का तरीक सीखने, तेरहीं भोज की कुप्रथा समाप्त करने, दहेज़ रहित आदर्श सामूहिक विवाह करने, पुस्तक मेला का आयोजन करने आदि-आदि अनेक कार्य मैंने समय-समय पर करता रहा हूँ।   
(२३)लेखन संबंधी आपकी भविष्य की क्या योजनाएं हैं?
हम विविध संस्थाओं के माध्यम से तकनीकी शिक्षा का माध्यम हिंदी बनवाने के लिए सक्रिय रहे हैं। इसमें कुछ सफलता मिली है, कुछ कार्य शेष है। इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स प्रति वर्ष एक पत्रिका तकनीकी विषयों पर हिंदी में राष्ट्रीय स्टार पर निकाल रहा है। परीक्षा का मध्यान हिंदी भी हो गया है। शासकीय पॉलीटेक्निक में इंजीयरिंग का डिप्लोमा पाठ्यक्रम हिंदी में पढ़ाया जाने लगा है। बी.ई. तथा एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई हिंदी में कराने का प्रयास है। इसमें आप का सहयोग भी चाहिए। हिंदी को विश्ववाणी बनाने की दिशा में यह कदम आवश्यक है। 
मैं अगले वर्ष दोहा, लघुकथा, हाइकू, मुक्तक, मुक्तिका, तहा गीत-नवगीत के संकलन प्रकाशित करने के विचार में हूँ। 
(२४)आज हिंदी भाषा बाजारवाद की चुनौतियों को झेल रही है। उसका रूप भी बदल रहा है। आप इसे विकृति मानते हैं या समय की जरूरत?
वसुधैव कुटुम्बकम और वैश्विक नीड़म की सनातन भारतीय मान्यता अब ग्लोबलाइजेशन हो गयी है। इसके दो पहलू हैं। हमें जिस देश में व्यापार करना है उसकी भाषा सीखनी होगी और जिस देश को भारत का बाजार चाहिए उसे हिंदी सीखना होगी। विदेशों में प्रति वर्ष २-३ विश्वविद्यालयों में हिंदी शिक्षण विभाग खुल रहे हैं। हमें अपने उन युवाओं को विदेश जाना चाहते हैं उनकी स्नातक शिक्षा के साथ उस देश की भाषा सिखाने की व्यवस्था करना चाहिए। इसी तरह जो विद्यार्थी विदेश से भारत में आते हैं उन्हें पहले हिंदी सिखाना चाहिए। 
(२५) समकालीन रचनाकारों में आप किन्हें महत्वपूर्ण मानते हैं?
हर रचनाकार जो समाज से जुड़कर समाज के लिए लिखता है, महत्वपूर्ण होता है। अगंभीर किस्म के जो रचनाकार हर विधा में टूटा-फूटा लिखकर, ले-देकर सम्मानित हो रहे हैं, वे ही भाषा और साहित्य की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं। हालत यह है कि लिखने वाले कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ रहे हैं, पढ़नेवालों का अकाल हो रहा है। 
(२६) पत्रकारिता और साहित्य में कभी घनिष्ठ संबंध रहा करता था। अच्छा साहित्यकार ही संपादक होता था। आज जो संपादक होता है लोग उसका नाम तक नहीं जानते। यह स्थिति क्यों आई?
पत्रकारिता अब सेवा या साधन नहीं पेशा हो गयी है। अब गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, रघुवीर सहाय, बांकेबिहारी भटनागर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, कमलेश्वर, धर्मवीर भारती जैसे पत्रकार कहाँ हैं? अति व्यावसायिकता, राजनीति का अत्यधिक हस्तक्षेप तथा पत्रकारों में येन-केन-प्रकारेण धनार्जन की लालसा ही पत्रकारों की दुर्दशा का कारण है। अंतर्जालीय पत्रकारिता सनसनी और टीआरपी को सर्वस्व समझ रही है, पता-दर्शक का उसके लिए कोई महत्व नहीं है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की यह दुर्दशा चिंतानीय है। जब तक समाज और देश की सेवा की भावना को लेकर कुछ छोटे-छोटे समूह पत्रकारिता को पवित्रता के साथ नहीं करेंगे सुधार नहीं होगा।   
(२७) लेखन के माध्यम से आप समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?
वर्तमान परिवेश में सबसे अधिक आवश्यक कार्य ईमानदारी और श्रम की प्रतिष्ठा करना है। सरकारें और पत्रकारिता अपनी विश्वसनीयता गँवा चुकी हैं। न्यायालय पर भी छींटे पड़े हैं। धार्मिक-सामाजिक क्षेत्र में या तो अंध विश्वास है या अविश्वास। सेना ही एकमात्र प्रतिष्ठान है जो अपेक्षाकृत रूप से कम संदेह में है। लेखन का एक ही उद्देश्य है समाज में विश्वास का दीपक जलाये रखना। 'अप्प दीपो भव' और 'तत्तु समन्वयात' के बुद्ध सूत्र  हम सबके लिए आवश्यक हैं। मेरे लेखन का यही सन्देश और उद्देश्य है 'जागते रहो'

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साहित्यिक नवाचार के अग्रदूत संजीव वर्मा 'सलिल'  
प्रोफेसर चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध
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साहित्य का क्षेत्र आकाश जैसा असीम विस्तृत तथा व्यापक है। मानव मन प्रकृति की अनमोल देन है। वह एक क्षण में सकल ब्रह्मांड का विचरण कर सब कुछ देखकर उसका वर्णन कर सकता है जो किसी भी अन्य सत्ता के द्वारा असंभव है। इसीलिए ऐसे मन के स्वामी साहित्यकार को एक अनोखे सृजनकर्ता का सम्मान इस संसार ने दिया है।
विश्व के हर देश में, तथा हर देश-काल में ऐसे महान साहित्यकार हुए हैं जिनके जाने के बाद सदियाँ बीत गईं पर उनके नाम और यश उनकी साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से आज भी अमर हैं। मन का काम सोचना-विचारना तथा गहन चिंतन-मनन करना है, यह प्रक्रिया सभी के मन में निरंतर चलती रहती है पर सभी अपने मनोभाव शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाते हैं। प्रकृति ने यह सामर्थ्य कुछ गिने-चुने व्यक्तियों को दी है। इसी ऊर्जा से साहित्यकार अपने मन के भावों को विभिन्न विधाओं में व्यक्त करता है। जिन महान रचनाकारों के विचार समाज को मार्गदर्शन और लाभ देते हैं, ऐसे ग्रंथ और उनके रचनाकार चिरस्मरणीय होते हैं। भारत में रामायण और महाभारत ऐसे ही पवित्र ग्रंथ हैं जिन्हें युगों से भारत पूजता और मानता आया है और उनके रचनाकार महात्मा वाल्मीकि और महात्मा व्यास जन-मन में आदर भाव से बसे हुए हैं ।
लोकहित की भावना से यही कार्य हर छोटा-बड़ा साहित्यकार आज भी करता है। श्री संजीव वर्मा 'सलिल' जी संस्कारधानी जबलपुर के एक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार हैं। उन्होंने अनेकों पुस्तकों की रचना की है। भाषा, पिंगल तथा तकनीकी लेखन के क्षेत्र में वे महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। अनेकों साहित्यकारों को प्रकाश में लाने का श्रेय उन्हें है। नर्मदा मासिक पत्रिका का संपादन कर सलिल जी ने देशव्यापी तथा अंतरजाल पर दिव्य नर्मदा हिंदी पत्रिका के माध्यम से विश्व व्यापी ख्याति अर्जित की है। वे गत ५ दशकों से साहित्य श्रीजन तथा हिंदी भाषा के परिष्कार व् प्रसार की दिशा में निरंतर कार्यरत हैं। वर्तमान में दोहा शतक मंजूषा शीर्षक के अन्तर्गत ३ दोहावलियों का प्रकाशन कर सलिल जी ने देश के दूरस्थ अंचलों के दोहाकारों के दोनों को  को संकलित, संशोधित, प्रकाशित कर उन्हें साहित्य जगत में चमकते सितारों का रूप दिया है। उनका साहित्य प्रेम न केवल प्रशंसनीय अपितु अनुकरणीय है। हिंदी के प्रथम सवैया कोष तथा छंद कोष जैसे कार्य सलिल जी को कालजयी कीर्ति देंगे। व्यक्तिगत रूप से सलिल जी को मैं ४ दशकों से जानता हूँ और उनके सराहनीय साहित्यिक-सामाजिक प्रयासों का हमेशा से मूक प्रशंसक रहा हूँ। साहित्य सृजन के समानांतर सामाजिक कुरीति उन्मूलन, नवजागरण तथा पर्यावरण सुधार की उनकी सतत निस्वार्थ साधना प्रदेश और देश में बहुश्रुत-बहुप्रशंसित है। वे समकालिक साहित्यिक नवाचार के अग्रदूत हैं।  
मैं उन्हें आशीर्वाद देता हूँ और उनके शतायु होने की कामना करते हुए हिंदी साहित्य को सतत  समृद्ध करने की आशा करता हूँ।
[लेखक परिचय : श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद। गीता, रघुवंश व मेघदूत के काव्यानुवाद सहित २५ कृतियाँ प्रकाशित।संपर्क : गली नंबर १, विद्युत मंडल कॉलोनी, शिला कुंज, नयागाँव, जबलपुर ४८२००१ चलभाष ७०००३७५७९८]
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मो 7000375798

सम्माननीय काव्य गुरु आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
अमरेंद्र नारायण
[भूतपूर्व महासचिव एशिया पैसिफिक टेलीकौम्युनिटी शुभा आशीर्वाद, १०५५, रिज रोड, साउथ सिविल लाइन्स ,जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश दूरभाष +९१ ७६१ २६० ४६०० ई मेल amarnar@gmail.com]
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति हैं। वे एक कुशल अभियंता, एक सफल विधिवेत्ता, एक प्रशिक्षित पत्रकार और एक विख्यात साहित्यकार तो हैं ही, साथ ही हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रसार हेतु
निरंतर कार्यरत एक कर्मठ हिंदी सेवी संयोजक भी हैं।

सलिल जी ने कई मधुर गीत लिखे हैं और एक विशेषज्ञ अभियंता के रूप में तकनीकी विषयों पर उपयोगी लेख लिख कर उन्होंने तकनीक के प्रचार में अपना सहयोग भी दिया है । साहित्य, अभियान्त्रिकी और सामाजिक विषयों से जुड़े कई सामयिक विषयों पर उन्होंने मौलिक और व्यावहारिक विचार रखे हैं।

सलिल जी विभिन्न संस्थाओं के सदस्य मात्र ही नहीं हैं, वे कई संस्थाओं के जन्मदाता भी हैं और संयोजक भी हैं। उनकी योग्यता और उनके समर्पित व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर कई लोग साहित्य के क्षेत्र में उन्हें अपना गुरु मानते हैं। साहित्य सृजन हेतु उत्सुक अनेक जनों को उन्होंने विधिवत भाषा, व्याकरण और पिंगल सिखाया और उनके लिखे को तराशा-सँवारा है।

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का कोई अभिवक्ता एक प्रतिष्ठित अभियंता हो और पिंगल तथा उरूज का ज्ञाता भी हो- यह कोई साधारण बात नहीं है। विस्मृति के गह्वर से पुराने छंदों को खोज-खोज कर उनका मधुर शब्दावली से श्रृंगार कोई ऐसा शब्द चितेरा ही कर सकता है जिसमें एक विद्वान् की अन्वेषण क्षमता, अभियंता की व्यावहारिक सृजन प्रतिभा और एक सिद्धहस्त कलाकार के सौन्दर्य बोध का सम्यक समन्वय हो। सलिल जी का प्रभावशाली व्यक्तित्व इसी कोटि का है ।

सलिल जी का आग्रह है-

''मौन तज कर मनीषा कह बात अपनी''

यह आज के ऐसे परिवेश में और भी आवश्यक है जहाँ

''तंत्र लाठियाँ घुमाता, जन खाता है मार

उजियारे की हो रही अन्धकार से हार!''

कई रचनाकार संवेदनशील तो होते हैं पर वे मुखर नहीं हो पाते। सलिल जी का कहना है-

''रही सड़क पर अब तक चुप्पी,पर अब सच कहना ही होगा!''

साहित्यकार जब अपना मौन तोड़ता है तो उसकी वाणी कभी गर्जना कर चुनौती देती है तो कभी तीर बन कर बेंधती है । सलिल जी का साहित्यकार इसी प्रकृति का है! सलिल जी शुभ जहाँ है,उसका नमन करते हुए सनातन
सत्य की अभिव्यक्ति में विश्वास रखते हैं।

माँ सरस्वती से उनकी प्रार्थना है-

''अमल -धवल शुचि विमल सनातन मैया!

बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान प्रदायिनी छैयां''

तिमिर हारिणी

भय निवारिणी सुखदा,

नाद-ताल, गति-यति

खेलें तव कैंया

अनहद सुनवा दो कल्याणी!

जय-जय वीणापाणी!''

उम्मीदों की फसल उगाने का आह्वान करते हुए सलिल जी ईश्वर, अपने माता पिता और पुरखों के प्रति भक्ति,श्रद्धा और कृतज्ञता अर्पित कर अपनी विनम्रता और शुभ का सम्मान करने की अपनी प्रवृत्ति का परिचय देते हैं । हर भावुक और संवेदनशील साहित्यकार अपने आस-पास बिखरे परिवेश पर अपनी दृष्टि डालता है और जहाँ उसकी भावुकता ठहर जाती है, वहां उसका चिंतन उसे उद्वेलित करने लगता है । इस ठहराव में भी गति का सन्देश है और आशा की प्रेरणा भी! सलिल जी का आह्वान है-

''आज नया इतिहास लिखें हम

कठिनाई में संकल्पों का

नव हास लिखें हम!''

सलिल जी एक कर्मठ साहित्य साधक और एक सम्माननीय काव्य गुरु भी हैं। अनेक युवा साहित्यकार उनसे प्रेरणा पाकर उत्कृष्ट साहित्य की सर्जना कर रहे हैं। उनका यह योगदान निरंतर फूलता-फलता रहे और उनकी प्रखर प्रतिभा के प्रसून खिलते रहें! हिंदी भाषा के विकास,विस्तार,प्रसार के लिये ऐसे समर्पित साधकों की बहुत आवश्यकता है। उन्हें सप्रेम नमस्कार।
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मानव जीवन का विकास चिंतन, विचार और अनुभूतियों पर निर्भर करता है । उन्नति और प्रगति जीवन के आदर्श हैं । जो कवि जितना महान होता है, उसकी अनुभूतियां भी उतनी ही व्यापक होतीं हैं । मूर्धन्य विद्वान सुकवि छंद साधक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी का नाम ध्यान में आते ही एक विराट साधक व्यक्तित्व का चित्र नेत्रों के समक्ष स्वतः ही स्पष्टतः परिलक्षित हो उठता है । मैंने ' सलिल' जी का नाम तो बहुत सुना था और उनके व्यक्तित्व , कृतित्व ,सनातन छंदों के प्रति अगाध समर्पण संबर्द्धन की भावना ने उनके प्रति मेरे मन ने एक सम्मान की धारणा बना ली थी और जब रूबरू भेंट हुई तब भी उनके सहज स्नेही स्वभाव ने प्रभावित किया और मन की धारणा को भी बल दिया परंतु यह धारणा मात्र कुछ दिन ही रही और पता नहीं कैसे हम ऐसे स्नेह-सूत्र में बंधे कि 'सलिल' जी मेरे नटखट देवर यानी लला ( हमारी बुंदेली भाषा में छोटे देवर को लला कहकर संबोधित करते हैं न ) -होकर ह्रदय में विराजमान हो गए और मैं उनकी ऐसी बड़ी भौजी जो गाहे-बगाहे दो-चार खरी-खोटी सुनाकर धौंस जमाने की पूर्ण अधिकारिणी । हमारे बुंदेली परिवेश , संस्कृति और बुंदेली भाषा ने हमारे स्नेह को और प्रगाढ़ करने में महती भूमिका निभाई। हम फोन पर अथवा भेंट होने पर बुंदेली में संवाद करते हुए और अधिक सहज होते गए । अब वस्तुस्थिति यह है कि उनकी अटूट अथक साहित्य-साधना , छंद शोध, आचार्यत्व, विद्वता या समर्पण की चर्चा होती है तो मैं आत्मविभोर सी गौरवान्वित और स्नेहाभिभूत हो उठती हूँ ।
व्यक्तित्व और कृतित्व की भूमिका में विराट को सूक्ष्म में कहना कितना कठिन होता है , मैं अनुभव कर रही हूँ । व्यक्तित्व और विचार दोनों ही दृष्टियों से स्पृहणीय रचनाकार'सलिल' जी की लेखनी पांडित्य के प्रभामंडल से परे चिंतन और चेतना में - प्रेरणा, प्रगति और परिणाम के त्रिपथ को एकाकार करती द्वन्द्वरहित अन्वेषित महामार्ग के निर्माण का प्रयास करती दिखाई देती है । उनके वैचारिक स्वभाव में अवसर और अनुकूलता की दिशा में बह जाने की कमजोरी नहीं- वे सत्य, स्वाभिमान और गौरवशाली परम्पराओं की रक्षा के लिए प्रतिकूलता के साथ पूरी ताकत से टक्कर लेने में विश्वास रखते हैं । जहाँ तक 'सलिल'जी की साहित्य संरचना का प्रश्न है वहाँ उनके साहित्य में जहाँ शाश्वत सिद्धांतों का समन्वय है , वहाँ युगानुकूल सामयिकता भी है , उत्तम दिशानिर्देश है, चिरंतन साहित्य में चेतनामूलक सिद्धांतों का विवरण है जो प्रत्येक युग के लिए समान उपयोगी है तो सामयिक सृजन युग विशेष के लिए होते हुए भी मानव जीवन के समस्त पहेलुओं की विवृत्ति है, जहाँ एकांगी दृष्टिकोण को स्थान नहीं । "सलिल' जी के रचनात्मक संसार में भाव, विचार और अनुभूतियों के सफल प्रकाशन के लिए भाषा का व्यापक रूप है जिसमें विविधरूपता का रहस्य भी समाहित है । एक शब्द में अनेक अर्थ और अभिव्यंजनाएं हैं , जीवन की प्रेरणात्मक शक्ति है तो मानव मूल्यों के मनोविज्ञान का स्निग्धतम स्पर्श है, भावोद्रेक है । अभिनव बिम्बात्मक अभिव्यंजना है जिसने मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया है । माँ वाणी की विशेष कृपा दृष्टि और श्रमसाध्य बड़े-बड़े कार्य करने की अपूर्व क्षमता ने जहाँ अनेक पुस्तकें लिखने की प्रेरणा दी है, वहीं पारंपरिक छंदों में सृजन करने के साथ सैकड़ों नवीन छंद रचने का अन्यतम कौशल भी प्रदान किया है - तो हमारे लाड़ले लला हैं कि कभी ' विश्व वाणी संवाद' का परचम लहरा रहे हैं , कभी दोहा मंथन कर रहे हैं तो कभी वृहद छंद कोष निर्मित कर रहे हैं ,कभी सवैया कोष में सनातन सवैयों के साथ नित नूतन सवैये रचे जा रहे हैं । सत्य तो यह है कि लला की असाधारण सृजन क्षमता, निष्ठा, अभूतपूर्व लगन और अप्रतिम कौशल चमत्कृत करता है और रचनात्मक कौशल विस्मय का सृजन करता है । समरसता और सहयोगी भावना तो इतनी अधिक प्रबल है कि सबको सिखाने के लिए सदैव तत्पर और उपलब्ध हैं , जो एक गुरू की विशिष्ट गरिमा का परिचायक है । मैंने स्वयं अपने कहानी संग्रह की भूमिका लिखने का अल्टीमेटम मात्र एक दिन की अवधि का दिया और सुखद आश्चर्य रहा कि वह मेरी अपेक्षा में खरे उतरे और एक ही दिन में भूमिका मुझे प्रेषित कर दी ।
जहाँ तक रचनाओं का प्रश्न है, विशेष रूप से पुण्यसलिला माँ नर्मदा को जो समर्पित हैं - उन रचनाओं में मनोहारी शिल्पविन्यास, आस्था , भाषा-सौष्ठव, वर्णन का प्रवाह, भाव- विशदता, ओजस्विता तथा गीतिमत्ता का सुंदर समावेश है । जीवन के व्यवहार पक्ष के कार्य वैविध्य और अन्तर्पक्ष की वृत्ति विविधता है ।
प्राकृतिक भव्य दृश्यों की पृष्ठभूमि में कथ्य की अवधारणा में कलात्मकता और सघन सूक्ष्मता का समावेश है ।
प्रकृति के ह्रदयग्राही मनोरम रूप-वर्णन में भाव ,गति और भाषा की दृष्टि से परिमार्जन स्पष्टतः परिलक्षित है । 'सलिल' जी के अन्य साहित्य में
कविता का आधार स्वरूप छंद- सौरभ और शब्दों की व्यंजना है जो भावोत्पादक और विचारोत्पादक रहती है और जिस प्रांजल रूप में वह ह्रदय से रूप-परिग्रह करती है , वह स्थायी और कालांतर व्यापी है ।
'सलिल' जी की सर्जना और उसमें प्रयुक्त भाषायी बिम्ब सांस्कृतिक अस्मिता के परिचायक हैं जो बोधगम्य ,रागात्मक और लोकाभिमुख होकर अत्यंत संश्लिष्ट सामाजिक यथार्थ की ओर दृष्टिक्षेप करते हैं । जिन उपमाओं का अर्थ एक परम्परा में बंधकर चलता है - उसी अर्थ का स्पष्टीकरण उनका कवि-मन सहजता से कर जाता है और उक्त स्थल पर अपने प्रतीकात्मक प्रयोग से अपने अभीष्ट को प्राप्त कर लेता है जो पाठक को रसोद्रेक के साथ अनायास ही छंद साधने की प्रक्रिया की ओर उन्मुख कर देता है ।
अपने सलिल नाम के अनुरूप सुरुचिपूर्ण सटीक सचेतक मृदु निनाद की अजस्र धारा इसी प्रकार सतत प्रवाहित रहे और नव रचनाकारों की प्रेरणा की संवाहक बने , ऐसी मेरी शुभेच्छा है । मैं संपूर्ण ह्रदय से 'सलिल' जी के स्वस्थ, सुखी और सुदीर्घ जीवन की ईश्वर से प्रार्थना करते हुए अपनी हार्दिक शुभकामनाएं व्यक्त करती हूँ ।

कान्ति शुक्ला
भोपाल

पुरुषोत्तम दास टंडन


राजर्षि टंडन

पुरूषोत्तम दास टंडन (१ अगस्त १८८२ इलाहाबाद - १ जुलाई, १९६२) भारत के स्वतन्त्रता सेनानी थे। हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करवाने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था। वे भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अग्रणी पंक्ति के नेता, समर्पित राजनयिक, हिन्दी के अनन्य सेवक, कर्मठ पत्रकार, तेजस्वी वक्ता और समाज सुधारक भी थे। हिन्दी को भारत की राजभाषा का स्थान दिलवाने के लिए उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान किया। १९५० में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने। उन्हें भारत के राजनैतिक और सामाजिक जीवन में नयी चेतना, नयी लहर, नयी क्रान्ति पैदा करने वाला कर्मयोगी कहा गया। वे जन सामान्य में राजर्षि (संधि विच्छेदः राजा+ऋषि= राजर्षि अर्थात ऐसा प्रशासक जो ऋषि के समान सत्कार्य में लगा हुआ हो।) के नाम से प्रसिद्ध हुए। कुछ विचारकों के अनुसार स्वतंत्रता प्राप्त करना उनका पहला साध्य था। वे हिन्दी को देश की आजादी के पहले आजादी प्राप्त करने का साधन मानते रहे और आजादी मिलने के बाद आजादी को बनाये रखने का। टण्डन जी का राजनीति में प्रवेश हिन्दी प्रेम के कारण ही हुआ। १७ फ़रवरी १९५१ को मुजफ्फरनगर 'सुहृद संघ` के १७ वें वार्षिकोत्सव के अवसर पर उन्होंने अपने भाषण में इस बात को स्वीकार भी किया था।

पुरुषोत्तम दास टंडन की प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय में हुई। १८९४ में उन्होंने इसी विद्यालय से मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी वर्ष उनकी बड़ी बहन तुलसा देवी का स्वर्गवास हो गया। १८९७ में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उनका विवाह मुरादाबाद निवासी नरोत्तमदास खन्ना की पुत्री चन्द्रमुखी देवी के साथ हो गया। १८९९ कांग्रेस के स्वयं सेवक बने, १८९९ इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की और १९०० में वे एक कन्या के पिता बने। इसी बीच वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के म्योर सेण्ट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया किंतु अपने क्रांतिकारी कार्यकलापों के कारण उन्हें १९०१ में वहाँ से निष्कासित कर दिया गया। १९०३ में उनके पिता का निधन हो गया। इन सब कठिनाइयों को पार करते हुए उन्होंने १९०४ में बी०ए० कर लिया। १९०५ से उनके राजनीतिक जीवन का प्रारंभ हुआ। १९०५ में उन्होंने बंगभंग आन्दोलन से प्रभावित होकर स्वदेशी का व्रत धारण किया, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के रूप में चीनी खाना छोड़ दिया और गोपाल कृष्ण गोखले के अंगरक्षक के रूप में कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया। १९०६ में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रतिनिधि चुना गया। इस बीच अनेक पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित होने लगी थी। उनकी प्रसिद्ध रचना 'बन्दर सभा महाकाव्य' 'हिन्दी प्रदीप' में प्रकाशित हुई। उन्होंने १९०६ में एलएल.बी की उपाधि प्राप्त कर वकालत प्रारंभ की। उन्होंने १९०७ में इतिहास में स्नात्कोत्तर उपाधि प्राप्त की और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में उस समय के नामी वकील तेज बहादुर सप्रू के जूनियर बन गए। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में टण्डन जी ने एक योद्धा की भूमिका का निर्वाह किया। अपने विद्यार्थी जीवन में १८९९ से ही काँग्रेस पार्टी के सदस्य थे। १९०६ में वे इलाहाबाद से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि चुने गये। १९१९ में जलियांवाला बाग हत्याकाँड का अध्ययन करने वाली काँग्रेस पार्टी की समिति से भी वे संबद्ध थे। १९२० में असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। गाँधी जी के आह्वान पर वे वकालत के फलते-फूलते पेशे को छोड़कर सत्याग्रह में कूद पड़े। सन् १९३० में सविनय अवज्ञा आन्दोलन में बस्ती में गिरफ्तार हुए और कारावास का दण्ड मिला।

१९३१ में लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन से गांधी जी के वापस लौटने से पहले जिन स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार किया गया था उनमें जवाहरलाल नेहरू के साथ पुरुषोत्तम दास टंडन भी थे। १९३४ में उन्होंने बिहार की प्रादेशिक किसान सभा के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया और बिहार किसान आंदोलन के साथ सहानुभूति रखते हुए उनके विकास के अनेक कार्य किये। उन्होंने ३१ जुलाई १९३७ से १० अगस्त १९५० तक उत्तर प्रदेश की विधान सभा के प्रवक्ता के रूप में कार्य किया। सन् १९३७ में धारा सभाओं के चुनाव हुए। इन चुनावों में से ग्यारह प्रान्तों में से सात में कांग्रेस को बहुमत मिला। उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस को भारी सफलता मिली और इसका पूरा श्रेय टण्डन जी को था। श्री लाल बहादुर शास्त्री लिखते हैं- सन् १९३६-३७ में नयी प्रान्तीय धारा सभाओं के चुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस ने पूरी शक्ति से भाग लिया। उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस को भारी सफलता मिली और इसका पूरा श्रेय टण्डन जी को जाता है। उन्होंने सारे प्रदेश में दौरा किया वे स्वयं प्रयाग नगर से विधान सभा के लिए खड़े हुए और निर्विरोध विजयी हुए। यह उनके अनुरूप ही था। कुछ समय बाद जब मन्त्रिमण्डल बना, वह धारा सभा के सर्वसम्मत से अध्यक्ष (स्पीकर) चुने गए। टण्डन जी लगातार देश के स्वतंत्रता संग्राम में रत रहे। इसी क्रम में १९४० में नजरबन्द कर लिए गए और एक वर्ष तक जेल में रहे। अगस्त १९४२ को इलाहाबाद में फिर गिरफ्तार हुए और १९४४ में जेल से मुक्त हुए। यह उनकी अन्तिम एवं सातवीं जेल यात्रा थी। उनके संघर्ष और त्याग को लक्षित करते हुए किशोरीदास वाजपेयी जी ने लिखा है- "जब जब राष्ट्रीय संघर्ष हुए, टण्डन जी सबसे आगे रहे। आप खाली बैठना तो जानते ही नहीं।" १९४२ में जब वे जेल से छूटे तो उन्हें दिखलाई पड़ा कि भारतीय समाज में निराशा छायी हुई है, सभी हताश पड़े हुए हैं। अत: उन्होंने 'कांग्रेस प्रतिनिधि असेम्बली' नामक संस्था की स्थापना कर पुन: नई चेतना का संचार किया और जब प्रान्तीय कमेटियाँ बनी तब 'प्रतिनिधि असेम्बली' भंग कर दी गई। टण्डन जी इलाहाबाद नगरपालिका के अध्यक्ष रहे और अनेक साहसी तथा ऐतिहासिक कार्य किये। वे १९४६ में भारत की संविधान सभा में भी चुने गए। १९५२ में लोकसभा के तथा १९५७ में राज्य सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। इस प्रकार वे आजीवन भारतीय राजनीति में सक्रिय रहकर उसे दिशा प्रदान करते रहे।

राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अग्रणी पंक्ति के नेता थे। कुछ विचारकों के अनुसार स्वतंत्रता प्राप्त करना उनका पहला साध्य था। हिन्दी को वे साधन मानते थे- "यदि हिन्दी भारतीय स्वतंत्रता के आड़े आयेगी तो मैं स्वयं उसका गला घोंट दूँगा। वे हिन्दी को देश की आजादी के पहले आजादी प्राप्त करने का साधन मानते रहे और आजादी मिलने के बाद आजादी को बनाये रखने का।" यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि टण्डन जी का राजनीति में प्रवेश हिन्दी प्रेम के कारण ही हुआ। टंडन जी ने ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में हिंदी के लेक्चरर के रूप में कार्य किया उस समय अटल बिहारी वाजपेई विक्टोरिया कॉलेज के छात्र हुआ करते थे।१७ फ़रवरी १९५१ को मुजफ्फरनगर 'सुहृद संघ' के १७ वें वार्षिकोत्सव के अवसर पर टण्डन जी ने कहा था- "हिन्दी के पक्ष को सबल करने के उद्देश्य से ही मैंने कांग्रेस जैसी संस्था में प्रवेश किया, क्योंकि मेरे हृदय पर हिन्दी का ही प्रभाव सबसे अधिक था और मैंने उसे ही अपने जीवन का सबसे महान व्रत बनाया। हिन्दी साहित्य के प्रति मेरे (उसी) प्रेम ने उसके स्वार्थों की रक्षा और उसके विकास के पथ को स्पष्ट करने के लिए मुझे राजनीति में सम्मिलित होने को बाध्य किया।" टण्डन जी के साध्य स्वतंत्रता और हिन्दी दोनों ही थे।

राजर्षि में बाल्यकाल से ही हिन्दी के प्रति अनुराग था। इस प्रेम को बालकृष्ण भट्ट और मदन मोहन मालवीय जी ने प्रौढ़ता प्रदान करने की। १० अक्टूबर १९१० को काशी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन महामना मालवीय जी की अध्यक्षता में हुआ और टण्डन जी सम्मेलन के मंत्री नियुक्त हुए और हिन्दी की अत्यधिक सेवा की। टण्डन जी ने हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए हिन्दी विद्यापीठ प्रयाग की स्थापना की। इस पीठ की स्थापना का उद्देश्य हिन्दी शिक्षा का प्रसार और अंग्रेजी के वर्चस्व को समाप्त करना था। सम्मेलन हिन्दी की अनेक परीक्षाएँ सम्पन्न करता था। इन परीक्षाओं से दक्षिण में भी हिन्दी का प्रचार प्रसार हुआ। सम्मेलन के इस कार्य का प्रभाव महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में भी पड़ा, अनेक महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पाठ्यक्रम को मान्यता मिली। वे जानते थे कि सम्पूर्ण भारत में हिन्दी के प्रसार के लिए अहिन्दी भाषियों का सहयोग अपेक्षित है। शायद उनकी इसी सोच का परिणाम था सम्मेलन में गाँधी का लिया जाना। आगे चलकर 'हिन्दुस्तानी' के प्रश्न पर टण्डन जी और महात्मा गाँधी में मतभेद हुआ। टण्डन जी अपराजेय योद्धा थे। वे सत्य और न्याय के लिए किसी से भी लोहा ले सकते थे। अपने सिद्धान्तों पर चट्टान की तरह अडिग एवं स्थिर रहते थे। परिणामत: गाँधी जी को अपने को सम्मेलन से अलग करना पड़ा, टण्डन जी निरापद अपने मार्ग पर बढ़ते रहे।

सन् १९४९ में जब संविधान सभा में राजभाषा सम्बंधी प्रश्न उठाया गया तो उस समय एक विचित्र स्थिति थी। महात्मा गाँधी तो हिन्दुस्तानी के समर्थक थे ही, पं० नेहरू और डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद तथा अन्य अनेक नेता भी हिन्दुस्तानी के पक्षधर थे, पर टण्डन जी हारे नहीं, झुके नहीं। परिणामत: विजय भी उनकी हुई। ११, १२, १३, १४ दिसम्बर १९४९ को गरमागरम बहस के बाद हिन्दी और हिन्दुस्तानी को लेकर कांग्रेस में मतदान हुआ, हिन्दी को ६२ और हिन्दुस्तानी को ३२ मत मिले। अन्तत: हिन्दी राष्ट्रभाषा और देवनागरी राजलिपि घोषित हुई। हिन्दी को राष्ट्रभाषा और 'वन्देमातरम्' को राष्ट्रगीत स्वीकृत कराने के लिए टण्डन जी ने अपने सहयोगियों के साथ एक और अभियान चलाया था। उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर और समर्थन पत्र भी एकत्र किए थे। यहाँ यह उल्लेख कर देना भी अपेक्षित है कि टण्डन जी ने नागरी अंकों को संविधान में मान्यता दिलाने के लिए भरसक कोशिश की इस हेतु उन्होंने उस संस्था को छोड़ा जिसकी सेवा लगभग पाँच दशक तक की। संविधान-सभा में राजर्षि ने अंग्रेजी अंकों का विरोध किया पर नेहरू जी की हिदायत के कारण कांग्रेसी सदस्य श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, श्री गोपाल स्वामी आयंगर के फार्मूले के पक्ष में रहे। टण्डन जी का विरोध प्रस्ताव गिर गया और नागरी अंक संविधान में मान्यता प्राप्त न कर सके।

हिन्दी को राष्ट्रभाषा और 'वन्देमातरम्' को राष्ट्रगीत स्वीकृत कराने के लिए टण्डन जी ने अपने सहयोगियों के साथ एक और अभियान चलाया था। उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर और समर्थन पत्र भी एकत्र किए थे।

साहित्य रचना
राजर्षि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का आकलन करते समय प्राय: उनके साहित्यकार रूप को अनदेखा कर दिया जाता है। वह एक उच्चकोटि के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में तत्कालीन इतिहास की खोज की जा सकती है। साहित्यकार के रूप में टण्डन जी निबंधकार, कवि और पत्रकार के रूप में दिखलाई पड़ते हैं। उनके निबंध हिन्दी भाषा और साहित्य, धर्म और संस्कृति तथा अन्य विविध क्षेत्रों से सम्बंधित हैं। भाषा और साहित्य सम्बंधी निबंधों में- कविता, दर्शन और साहित्य, हिन्दी साहित्य का कानन, हिन्दी राष्ट्रभाषा क्यों, मातृभाषा की महत्ता, भाषा का सवाल, गौरवशाली हिन्दी, हिन्दी की शक्ति, कवि और दार्शनिक आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। धर्म और संस्कृति सम्बंधी निबंधों में- भारतीय संस्कृति और कुम्भमेला, भारतीय संस्कृति संदेश तथा अन्य निबंधों में लोककल्याणकारी राज्य, धन और उसका उपयोग, स्वामी विवेकानन्द और सरदार वल्लभ भाई पटेल आदि अति महत्वपूर्ण हैं।
काव्य
काव्य रचनाओं में 'बन्दर सभा महाकाव्य', 'कुटीर का पुष्प' और 'स्वतंत्रता' अपना ऐतिहासिक महत्व रखती हैं। इन कविताओं में राष्ट्रीयता और देशभक्ति की प्रमुखता है। उनकी रचनाओं में काव्यशास्त्र की बारीकी ढूँढ़ना छिद्रान्वेषण करना ही होगा, किन्तु युगीन यथार्थ की अभिव्यक्ति टण्डन जी ने जिस ढँग से की है, वह निश्चय ही श्लाघनीय है-

एक एक के गुण नहिं देखें, ज्ञानवान का नहिं आदर,
लड़ैं कटैं धन पृथ्वी छीनैं जीव सतावैं लेवैं कर।
भई दशा भारत की कैसी चहूँ ओर विपदा फैली,
तिमिर आन घोर है छाया स्वारथ साधन की शैली ॥
अपनी अपनी चाल ढाल को सब कोऊ धर-धर छप्पर पर,
चले लुढ़कते बुरी प्रथा पर जिसका कहीं पैर नहिं सिर।
धनी दीन को दुख अति देवैं, हमदर्दी का काम नहीं,
धन मदिरा गनिका में फूँकै करैं भला कुछ काम नहीं ॥३

'बन्दर सभा महाकाव्य` में आल्हा शैली में अंग्रेजों की नीतियों का भंडाफोड़ किया है। उन्होंने अंग्रेजों के प्रति जो चुटकियाँ ली हैं उनमें से एक-दो का आनन्द आप भी लीजिए-

कबहूँ आँख दाँत दिखलावैं, लें डराय बस काम निकाल।
कबहूँ नम होय सीख सुनावैं, रचैं बात कै जाल कराल ॥४४॥
ऐसे वैसे तो डर जावैं या फँस जावैं हमारे जाल।
जौने तनिक अकड़ने वाले तिनके लिए अनेकन चाल ॥४५॥

पत्रकारिता
पत्रकारिता के क्षेत्र में टण्डन जी अंग्रेजी के भी उद्भट विद्वान थे। श्री त्रिभुवन नारायण सिंह जी ने उल्लेख किया है कि सन् १९५० में जब वे कांग्रेस के सभापति चुने गए तो उन्होंने अपना अभिभाषण हिन्दी में लिखा और अंग्रेजी अनुवाद मैंने किया। श्री सम्पूर्णानन्द जी ने भी उस अंग्रेजी अनुवाद को देखा, लेकिन जब टण्डन जी ने उस अनुवाद को पढ़ा, तो उसमें कई पन्नों को फिर से लिखा। तब मुझे इस बात की अनुभूति हुई कि जहाँ वे हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान थे, वहीं अंग्रेजी साहित्य पर भी उनका बड़ा अधिकार था।

भारतीय संस्कृति से प्रेम
पुरुषोत्तमदास टण्डन के बहु आयामी और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को देखकर उन्हें 'राजर्षि` की उपाधि से विभूषित किया गया। १५ अप्रैल सन् १९४८ की संध्यावेला में सरयू तट पर वैदिक मंत्रोच्चार के साथ महन्त देवरहा बाबा ने आपको 'राजर्षि` की उपाधि से अलंकृत किया। कुछ लोगों ने इसे अनुचित ठहराया, पर ज्योतिर्मठ के श्री शंकराचार्य महाराज ने इसे शास्त्रसम्मत माना और काशी की पंडित सभा ने १९४८ के अखिल भारतीय सांस्कृतिक सम्मेलन के उपाधि वितरण समारोह में इसकी पुष्टि की। तब से यह उपाधि उनके नाम के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई स्वयं अलंकृत हो रही है।

भारतीय संस्कृति के परम हिमायती और पक्षधर होने पर भी राजर्षि रूढ़ियों और अंधविश्वासों के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों एवं कुप्रथाओं पर भी अपने दो टूक विचार व्यक्त किये। उनमें एक अद्भुत आत्मबल था, जिससे वे कठिन से कठिन कार्य को आसानी से सम्पन्न कर लेते थे। बालविवाह और विधवा विवाह के सम्बंध में उनका मानना था कि "विधवा विवाह का प्रचार हमारी सभ्यता, हमारे साहित्य और हमारे समाज संगठन के मुख्य आधार पतिव्रत धर्म के प्रतिकूल हैं" उन्होंने स्पष्ट किया कि विधवा-विवाह की माँग इसलिए जोर पकड़ रही है, क्योंकि हमारे समाज में बाल-विवाह की शास्त्र विरुद्ध प्रणाली चल पड़ी है और बाल विधवाओं का प्रश्न ही भारतीय समाज की मुख्य समस्या है। अत: "बाल-विवाह की प्रथा को रोकना ही विधवा विवाह करने की अपेक्षा अधिक महत्व का कर्तव्य सिद्ध होता है।" उनके व्यक्तित्व के इस पहलू के एक-दो उदाहरण पर्याप्त होंगे- प्राय: लोग समझते हैं कि पका हुआ भोजन सुपाच्य होता है, पर राजर्षि ने इसे एक रूढ़ि माना और उन्होंने वर्षों तक आग से पके हुए भोजन को नहीं ग्रहण किया। चीनी खाना एक बार छोड़ दिया। एक ओर उन्हें गाय के दूध से परहेज था तो दूसरी ओर चमड़े के जूते से। इस प्रकार वे एक अद्भुत व्यक्तित्व के धारक थे।

भारतवर्ष में स्वतंत्रता के पूर्व से ही साम्प्रदायिकता की समस्या अपने विकट रूप में विद्यमान रही। कुछ नेता टण्डन जी पर भी सांप्रदायिक होने का आरोप लगाते रहे हैं। यह सच है कि राजर्षि अपनी संस्कृति के परम भक्त और पोषक थे। वे यह कहने में भी हिचक का अनुभव नहीं करते थे कि भारत में दो संस्कृतियों को जीवित रखना देश के साथ विश्वासघात करना होगा, पर इसका मतलब यह नहीं था कि टण्डन जी साम्प्रदायिक थे, मुसलिम विरोधी थे। इस सम्बंध में कुलकुसुम के विचार कितने सार्थक हैं- यदि किसी धर्म या संस्कृति में कोई व्यक्ति विशेष आस्था रखता है, तो उसके विरोधी प्राय: यह समझने की भूल कर बैठते हैं कि वह आदमी अन्य धर्मों तथा संस्कृतियों का शत्रु है। यही बात राजर्षि टण्डन के साथ हुई। उनके अनन्य हिन्दी प्रेम, भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं की एकनिष्ठा, आस्था और साधुओं के से वेष-विन्यास को देखकर उनके विरोधियों ने जान बूझकर या अनजाने ही यह प्रचार करने की भूल कर दी कि टण्डन जी मुसलमानों के शत्रु हैं।

स्वयं टण्डन जी ने भी लिखा है- "मेरे हिन्दी के काम के कारण लोगों ने मुझे मुसलमान भाइयों का मुखालिफ समझ लिया। इन लोगों को यह नहीं मालूम कि बहुत से मुसलमान मेरे कितने अच्छे दोस्त हैं। मेरे सामने यदि कोई मुसलमान के साथ अन्याय करे, तो मैं उसके पक्ष में जान की बाजी लगा दूँगा। वास्तव में टण्डन जी का व्यक्तित्व मानववादी था। उनके घर पर जो बालक उनका सहयोग करता था, वह मुसलमान था, पर कैसी विडम्बना है कि लोग कहते हैं कि टण्डन जी साम्प्रदायिक थे।

मानवतावादी आचार-विचार
राजर्षि टण्डन जी के व्यक्तित्व के अन्य अनेक पहलू और भी हैं; जैसे वे गरीबों, पीड़ितों के सहायक थे, सही अर्थों में दीनबंधु थे, करुणा की मूर्ति थे और बाबू जी कितने नैतिक आचरण के व्यक्ति थे इसका अनुमान इस उदाहरण से लगाया जा सकता है- "सन् १९५० का महाकुम्भ था। बहुआ (टण्डन जी की धर्मपत्नी, जिन्हें घर में इसी नाम से जाना जाता है) ने गंगा स्नान के लिए गाड़ी से जाने की बात कही। बाबू जी ने उत्तर दिया कि गाड़ी 'स्पीकर` की है। तुम मेरे साथ तो जा सकती हो, किन्तु अकेले नहीं।"

राजर्षि का व्यक्तित्व बहुआयामी और राजर्षि के अनुरूप था। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे हिन्दी के अनन्य प्रेमी ही नहीं, बल्कि हिन्दी के पर्याय थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनका उल्लेख एक समर्थ कवि और निबंध लेखक के रूप में होता है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर संनानियों में उनकी गणना अग्रिम पंक्ति के सेनानियों में की जाती है और उनका नाम भारतीय स्वंतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से अंकित है। वे परम स्नेही, उदार और करुणा की मूर्ति होते हुए भी इस्पाती व्यक्तित्व के धारक थे। हिमालय की तरह अचल और अटल। परम हिन्दी सेवी, राष्ट्र-भक्त और भारतीय संस्कृति के इस उपासक को मेरा शत् शत् नमन।

"देखने में एक अस्थिपंजर किन्तु आँखों में अनन्त ज्योतिराशि, मन में अजस्र आत्म शक्ति, माथे की चिन्तित रेखाओं में युग का संघर्ष, वाणी में निसंग निष्ठा, संकेतों में विश्वास और अस्त-व्यस्त केशों तथा रूखे सूखे कलेवर में अनन्त जीवन रस। छेड़िये तो तपस्वी की विभूति मिले, मौन रूप देखिये तो निर्विकल्प समाधि की परिधि तक चले जाइये। विरोध करिये तो फौलाद के स्पर्श का भान मिले। स्वीकृति दीजिए तो एक दिव्य आलोक की अनुभूति।"

"हिन्दी के पक्ष को सबल करने के उद्देश्य से ही मैंने कांग्रेस जैसी संस्था में प्रवेश किया, क्योंकि मेरे हृदय पर हिन्दी का ही प्रभाव सबसे अधिक था और मैंने उसे ही अपने जीवन का सबसे महान व्रत बनाया।...... हिन्दी साहित्य के प्रति मेरे (उसी) प्रेम ने उसके स्वार्थों की रक्षा और उसके विकास के पथ को स्पष्ट करने के लिए मुझे राजनीति में सम्मिलित होने को बाध्य किया।"

देश का सर्वोच्च सम्मान
में उन्हें भारतवर्ष का सर्वोच्च राजकीय सम्मान भारत रत्न प्रदान किया गया। राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन की स्मृति में राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय फाफामऊ इलाहबाद में है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना उत्तर प्रदेश राजर्षि टण्डन मुक्त विश्वविद्यालय, अधिनियम १९९९ उत्तर प्रदेश के अन्तर्गत हुई।

पुरूषोत्तम दास टंडन

राजर्षि टंडन के प्रति काव्यांजलि
गजेंद्र सिंह सोलंकी
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संबंधित इमेजभारत के रतन त्याग तप मूरत वह, यशस्वी जीवनी जिलाकर चले गये।
दृढ़व्रती पुरुषोत्तम राजर्षि टंडन जी, निति और मर्यादा हिट काया को कसे गये।
हिंदी के प्राण संस्कृति की धरोहर महा, स्वातंत्र्य समर में कण-कण घिसे गये।
हिंदी की गाथा का पर्याय बना जीवन तप, भारत की गाथा नखत बन जड़े गये।
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सृष्टि का नियम सच है सबको ही जाना है, किंतु कुछ गये ऐसे गये भी नहीं गये।
मौत कब मार सकी देह भले ले गयी वो, कृत्यों की कीर्ति तो किरीट पर जड़े गये।
रे पावन संस्कृति के पुनीत प्रवाह में काया का अर्ध्य चढ़ा नाता पथ गढ़े गये।
हैं कर गये प्रशस्त मानवी प्रशस्तियाँ वो अपनी प्रशस्तियाँ हेय मान छडे गये।
(छंदसि त्रिविधा)
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घनाक्षरी

कार्यशाला: रचना-प्रति रचना 
घनाक्षरी 
फेसबुक
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गुरु सक्सेना नरसिंहपुर मध्य प्रदेश
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चमक-दमक साज-सज्जा मुख-मंडल पै
तड़क-भड़क भी विशेष होना चाहिए।
आत्म प्रचार की क्रिकेट का हो बल्लेबाज
लिस्ट कार्यक्रमों वाली पेश होना चाहिए।।
मछली फँसानेवाले काँटे जैसी शब्दावली
हीरो जैसा आकर्षक भेष होना चाहिए।
फेसबुक पर मित्र कैसे मैं बनाऊँ तुम्हे
फेसबुक जैसा भी तो फेस होना चाहिए।।
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फेस 'बुक' हो ना पाए, गुरु यही बेहतर है
फेस 'बुक' हुआ तो छुडाना मजबूरी है।
फेस की लिपाई या पुताई चाहे जितनी हो
फेस की असलियत जानना जरूरी है।।
फेस रेस करेगा तो पोल खुल जायेगी ही
फेस फेस ना करे तैयारी जो अधूरी है।
फ़ेस देख दे रहे हैं लाइक पे लाइक जो
हीरो जीरो, फ्रेंडशिप सिर्फ मगरूरी है।।
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salil.sanjiv@gmail.com
#हिन्दी_ब्लॉगिंग

मुक्तिका

मुक्तिका:
ज़ख्म कुरेदेंगे....
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ज़ख्म कुरेदोगे तो पीर सघन होगी.
शोले हैं तो उनके साथ अगन होगी..
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छिपे हुए को बाहर लाकर क्या होगा?
रहा छिपा तो पीछे कहीं लगन होगी..
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मत उधेड़-बुन को लादो, फुर्सत ओढ़ो.
होंगे बर्तन चार अगर खन-खन होगी..
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फूलों के शूलों को हँसकर सहन करो.
वरना भ्रमरों के हाथों में गन होगी..
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बीत गया जो रीत गया उसको भूलो.
कब्र न खोदो, कोई याद दफन होगी..
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आज हमेशा कल को लेकर आता है.
स्वीकारो, वरना कल से अनबन होगी..
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नेह नर्मदा 'सलिल' हमेशा बहने दो.
अगर रुकी तो मलिन और उन्मन होगी..
१-७-२०१०
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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घनाक्षरी

कल और आज: घनाक्षरी
कल :
कज्जल के कूट पर दीप शिखा सोती है कि,
श्याम घन मंडल मे दामिनी की धारा है ।
भामिनी के अंक में कलाधर की कोर है कि,
राहु के कबंध पै कराल केतु तारा है ।
शंकर कसौटी पर कंचन की लीक है कि,
तेज ने तिमिर के हिये मे तीर मारा है ।
काली पाटियों के बीच मोहनी की माँग है कि,
ढ़ाल पर खाँड़ा कामदेव का दुधारा है ।
काले केशों के बीच सुन्दरी की माँग की शोभा का वर्णन करते हुए कवि ने ८ उपमाएँ दी हैं.-
१. काजल के पर्वत पर दीपक की बाती.
२. काले मेघों में बिजली की चमक.
३. नारी की गोद में बाल-चन्द्र.
४. राहु के काँधे पर केतु तारा.
५. कसौटी के पत्थर पर सोने की रेखा.
६. काले बालों के बीच मन को मोहने वाली स्त्री की माँग.
७. अँधेरे के कलेजे में उजाले का तीर.
८. ढाल पर कामदेव की दो धारवाली तलवार.
कबंध=धड़. राहु काला है और केतु तारा स्वर्णिम, कसौटी के काले पत्थर पर रेखा खींचकर सोने को पहचाना जाता है. ढाल पर खाँडे की चमकती धार. यह सब केश-राशि के बीच माँग की दमकती रेखा का वर्णन है.
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आज : संजीव 'सलिल'
संसद के मंच पर, लोक-मत तोड़े दम,
राजनीति सत्ता-नीति, दल-नीति कारा है ।
नेताओं को निजी हित, साध्य- देश साधन है,
मतदाता घुटालों में, घिर बेसहारा है ।
'सलिल' कसौटी पर, कंचन की लीक है कि,
अन्ना-रामदेव युति, उगा ध्रुवतारा है।
स्विस बैंक में जमा जो, धन आये भारत में ,
देर न करो भारत, माता ने पुकारा है।
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घनाक्षरी: वर्णिक छंद, चतुष्पदी, हर पद- ३१ वर्ण, सोलह चरण-
हर पद के प्रथम ३ चरण ८ वर्ण, अंतिम ४ चरण ७ वर्ण.
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१-७-२०१२
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
HINDIHINDI.IN.DIVYANARMADA
DIVYANARMADA.BLOGSPOT.
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