दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019
Sanjeev Verma Salil | जाने लघुकथा लेखन | True Media Studio
Sanjeev Verma Salil | जाने नवगीत लेखन | True Media Studio
गुरुवार, 11 अप्रैल 2019
चित्रगुप्त चालीसा
भगवान श्री चित्रगुप्त जी महाराज का चालीसा इस प्रकार है:
- दोहा
-
- सुमिर चित्रगुप्त ईश को, सतत नवाऊ शीश।
- ब्रह्मा विष्णु महेश सह, रिनिहा भए जगदीश ।।
- करो कृपा करिवर वदन, जो सरशुती सहाय।
- चित्रगुप्त जस विमलयश, वंदन गुरूपद लाय ।।
चै0-:
- जय चित्रगुप्त ज्ञान रत्नाकर । जय यमेश दिगंत उजागर ।।
- अज सहाय अवतरेउ गुसांई । कीन्हेउ काज ब्रम्ह कीनाई ।।
- श्रृष्टि सृजनहित अजमन जांचा। भांति-भांति के जीवन राचा ।।
- अज की रचना मानव संदर । मानव मति अज होइ निरूत्तर ।।
- भए प्रकट चित्रगुप्त सहाई । धर्माधर्म गुण ज्ञान कराई ।।
- राचेउ धरम धरम जग मांही । धर्म अवतार लेत तुम पांही ।।
- अहम विवेकइ तुमहि विधाता । निज सत्ता पा करहिं कुघाता।।
- श्रष्टि संतुलन के तुम स्वामी । त्रय देवन कर शक्ति समानी ।।
- पाप मृत्यु जग में तुम लाए। भयका भूत सकल जग छाए ।।
- महाकाल के तुम हो साक्षी । ब्रम्हउ मरन न जान मीनाक्षी ।।
- धर्म कृष्ण तुम जग उपजायो । कर्म क्षेत्र गुण ज्ञान करायो ।।
- राम धर्म हित जग पगु धारे । मानवगुण सदगुण अति प्यारे ।।
- विष्णु चक्र पर तुमहि विराजें । पालन धर्म करम शुचि साजे ।।
- महादेव के तुम त्रय लोचन । प्रेरकशिव अस ताण्डव नर्तन ।।
- सावित्री पर कृपा निराली । विद्यानिधि माँ सब जग आली।।
- रमा भाल पर कर अति दाया। श्रीनिधि अगम अकूत अगाया ।।
- ऊमा विच शक्ति शुचि राच्यो। जाकेबिन शिव शव जग बाच्यो ।।
- गुरू बृहस्पति सुर पति नाथा। जाके कर्म गहइ तव हाथा ।।
- रावण कंस सकल मतवारे । तव प्रताप सब सरग सिधारे ।।
- प्रथम् पूज्य गणपति महदेवा । सोउ करत तुम्हारी सेवा ।।
- रिद्धि सिद्धि पाय द्वैनारी । विघ्न हरण शुभ काज संवारी ।।
- व्यास चहइ रच वेद पुराना। गणपति लिपिबध हितमन ठाना।।
- पोथी मसि शुचि लेखनी दीन्हा। असवर देय जगत कृत कीन्हा।।
- लेखनि मसि सह कागद कोरा। तव प्रताप अजु जगत मझोरा।।
- विद्या विनय पराक्रम भारी। तुम आधार जगत आभारी।।
- द्वादस पूत जगत अस लाए। राशी चक्र आधार सुहाए ।।
- जस पूता तस राशि रचाना । ज्योतिष केतुम जनक महाना ।।
- तिथी लगन होरा दिग्दर्शन । चारि अष्ट चित्रांश सुदर्शन ।।
- राशी नखत जो जातक धारे । धरम करम फल तुमहि अधारे।।
- राम कृष्ण गुरूवर गृह जाई । प्रथम गुरू महिमा गुण गाई ।।
- श्री गणेश तव बंदन कीना । कर्म अकर्म तुमहि आधीना।।
- देववृत जप तप वृत कीन्हा । इच्छा मृत्यु परम वर दीन्हा ।।
- धर्महीन सौदास कुराजा । तप तुम्हार बैकुण्ठ विराजा ।।
- हरि पद दीन्ह धर्म हरि नामा । कायथ परिजन परम पितामा।।
- शुर शुयशमा बन जामाता । क्षत्रिय विप्र सकल आदाता ।।
- जय जय चित्रगुप्त गुसांई। गुरूवर गुरू पद पाय सहाई ।।
- जो शत पाठ करइ चालीसा। जन्ममरण दुःख कटइ कलेसा।।
- विनय करैं कुलदीप शुवेशा। राख पिता सम नेह हमेशा ।।
- दोहा
- ज्ञान कलम, मसि सरस्वती, अंबर है मसिपात्र।
- कालचक्र की पुस्तिका, सदा रखे दंडास्त्र।।
- पाप पुन्य लेखा करन, धार्यो चित्र स्वरूप।
- श्रृष्टिसंतुलन स्वामीसदा, सरग नरक कर भूप।।
-
-
- ।। इति श्री चित्रगुप्त चालीसा समाप्त।।
-
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chitragupta chalisa
नवगीत
नवगीत
*
हवा महल हो रही
हमारे पैर तले की धरती।
*
सपने देखे धूल हो गए
फूल सुखकर शूल हो गए
नव आशा की फसलोंवाली
धरा हो गई परती।
*
वादे बता थमाए जुमले
फिसले पैर, न तन्नक सँभले
गुब्बारों में हवा न ठहरी
कट पतंग है गिरती।
*
जिजीविषा को रौंद रहे जो
लगा स्वार्थ की पौध रहे वो।
जन-नेता की बखरी में ही
जन-अभिलाषा मरती।
*
११/०४/२०१८
*
हवा महल हो रही
हमारे पैर तले की धरती।
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सपने देखे धूल हो गए
फूल सुखकर शूल हो गए
नव आशा की फसलोंवाली
धरा हो गई परती।
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वादे बता थमाए जुमले
फिसले पैर, न तन्नक सँभले
गुब्बारों में हवा न ठहरी
कट पतंग है गिरती।
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जिजीविषा को रौंद रहे जो
लगा स्वार्थ की पौध रहे वो।
जन-नेता की बखरी में ही
जन-अभिलाषा मरती।
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११/०४/२०१८
दोहा
दोहा
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गौड़-तुच्छ कोई नहीं, कहीं न नीचा-हीन
निम्न-निकृष्ट किसे कहें, प्रभु-कृति कैसे दीन?
*
मिले 'मरा' में 'राम' भी, डाकू में भी संत
ऊँच-नीच माया-भरम, तज दे तनिक न तंत
*
अधमाधम भी तर गए, कर प्रयास है सत्य
'सलिल' हताशा पाल मात, अपना नहीं असत्य
*
जिसको हरि से प्रेम है, उससे हरि को प्रेम,
हरिजन नहीं अछूत है, करे सफाई-क्षेम
*
दीपक के नीचे नहीं, अगर अँधेरा मीत
उजियारा ऊपर नहीं, यही जगत की रीत
*
रात न श्यामा हो अगर, उषा न हो रतनार
वाम रहे वामा तभी, रुचे मिलन-तकरार
*
विरह बिना कैसे मिले, मिलने का आनंद
छन्दहीन रचना बिना, कैसे भाये छंद?
*
बसे अशुभ में शुभ सदा, शुभ में अशुभ विलीन
अशरण शरण मिले 'सलिल', हो अदीन जब दीन
*
मृग-तृष्णा निज श्रेष्ठता, भ्रम है पर का दैन्य
नत पांडव होते जयी, कुरु मरते खो सैन्य
*
नर-वानर को हीन कह, असुरों को कह श्रेष्ठ
मिटा दशानन आप ही, अहं हमेशा नेष्ट
*
दुर्योधन को श्रेष्ठता-भाव हुआ अभिशाप
धर्मराज की दीनता, कौन सकेगा नाप?
*
भाया छाया जो न क्यों, छाया उसकी साथ?
माया माया वारे तज, मायापति का हाथ
*
शुक्ला-श्यामा एक हैं, मात्र दृष्टि है भिन्न
जो अभिन्नता जानता, तनिक न होता खिन्न
*
समीक्षा कविता हरभगवान चावला,
पुस्तक सलिला-इसी आकाश में- कविता की तलाश
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक परिचय- इसी आकाश में, कविता संग्रह, हरभगवान चावला, ISBN ९७८-९३-८५९४२-२२-८, वर्ष २०१५, आकार २०.५ x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ १७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर, ३०२००६, दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, चलभाष ९८२९०१८०८७, ई मेल bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क- ४०६ सेक़्टर २०, हुडा सिरसा, हरयाणा चलभाष: ०९३५४५४४०]
*
'इसी आकाश में' सिरसा निवासी हरभगवान सिंह का नव प्रकाशित काव्य संग्रह है। इसके पूर्व उनके २ काव्य संग्रह 'कोेे अच्छी खबर लिखना' व 'कुम्भ में छूटी हुई औरतें' तथा एक कहानी संग्रह ' हमकूं मिल्या जियावनहारा' प्रकाशित हो चुके हैं। कविता मेरी आत्मा का सूरज है, कविता हलुआ नहीं हो सकती, कविता को कम से कम / रोटी जैसा तो होना ही चाहिए, जब कविता नहीं थी / क्या तब भी किसी के / छू देने भर से दिल धड़कता था / होंठ कांपते थे, क्या कोई ऐसा असमय था/ जब कविता नहीं थी?, मैंने अपनी कविता को हमेश / धूप, धूल और धुएँ से बचाया...कि कहीं सिद्धार्थ की तरह विरक्त न हो जाए मेरी कविता, मेरी कविता ने नहीं धरे / किसी कँटीली पगडंडी पर पाँव..... पर इतने लाड-प्यार और ऐश्वर्य के होते हुए भी / निरन्तर पीली पड़ती जा रही है, ईंधन की मानिंद भट्टियों में/ झोंक दिए जाते हैं ज़िंदा इंसान / तुम्हारी कविता को गंध नहीं आती.... कहाँ से लाते हो तुम अपनी कविता की ज्ञानेन्द्रियाँ कवि? आदि पंक्तियाँ कवि और कविता के अंतरसंबंधों को तलाशते हुए पाठक को भी इस अभियान में सम्मिलित कर लेती हैं। कविता का आकारित होना 'कविता दो' शीर्षक कविता सामने लाती है-
'प्यास से आकुल कोई चिड़िया
चिकनी चट्टानों की ढलानों पर से फिसलते
पानियों में चोंच मार देती है
कविता यूँ भी आकार लेती है।
अर्थात कविता के लिये 'प्यास' और प्यास से 'मुक्ति का प्रयास' का प्रयास आवश्यक है। यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या 'तृप्ति' और 'हताशाजनित निष्प्रयासता' की स्थिति में कविता नहीं हो सकती? 'प्रयास-जनित कविता प्रयास के परिणाम "तृप्ति" से दूर कैसे रह सकती है? विसंगति, विडम्बना, दर्द, पीड़ा और अभाव को ही साहित्य का जनक मानने और स्थापित को नष्ट करना साहित्य का उद्देश्य मानने की एकांगी दृष्टि ने अश्रित्य को विश्व में सर्वत्र ठुकराए जा चुके साम्यवाद को साँसें भले दे दी हों, समाज का भला नहीं किया। टकराव और विघटन से समनस्य और सृजन कैसे पाया जा सकता है? 'तर्क' शीर्षक कविता स्थिति का सटीक विश्लेषण ३ चरणों में करती है- १. सपनों के परिंदे को निर्मम तर्क-तीर ने धरती पर पटक दिया, २. तुम (प्रेयसी) पल भर में छलछलाती नदी से जलती रेत हो जाती है, ३. परिणाम यह की प्यार गेंद की तरह लुढ़काये जाकर लुप्त हो जाता है और शेष रह जाते हैं दो अजनबी जो एक दूसरे को लहूलुहान करने में ही साँसों को जाया कर देते हैं।
'पत्थर हुए गीत' एक अन्य मानसिकता को सामने लाती है। प्यार को अछूत की तरह ठुकराने परिणाम प्यार का पथराना ही हो सकता है। प्रेम से उपजी लगाव की बाँसुरी, बाधाओं की नदी को सौंप दी जाए तो प्रेमियों की नियति लहूलुहान होना ही रह जाती है। कवी ने सरल. सशक्त, सटीक बिम्बों के माध्यम से काम शब्दों में अधिक कहने में सफलता पायी है। वाह पाठक को विचार की अंगुली पकड़ाकर चिंतन के पगडण्डी पर खड़ा कर जाता है, आगे कितनी दूर जाना है यह पाठक पर निर्भर है -
'आँखों की नदी में / सपनों की नाव
हर समय / बारह की आशंका से
डगमगाती।
'आँखों की नदी में / सपनों की नाव
हर समय / बारह की आशंका से
डगमगाती।
माँ की ममता समय और उम्र को चुनौती देकर भी तनिक नहीं घटती। इस अनुभूति की अभिव्यक्ति देखें-
मैं पैदा हुआ / तब माँ पच्चीस की थी
आज मैं सत्तावन का हो चला हूँ
माँ, आज भी पच्चीस की है।
मैं पैदा हुआ / तब माँ पच्चीस की थी
आज मैं सत्तावन का हो चला हूँ
माँ, आज भी पच्चीस की है।
व्यष्टि में समष्टि की प्रतीति का आभिनव अंदाज़ 'चूल्हा और नदी' कविता में देखिये-
चूल्हा घर का जीवन है / नदी गाँव का
अलग कहाँ हैं घर और गाँव?
गाँव से घर है / घर से गाँव
चूल्हे को पानी की दरकार है / नदी को आग की
चूल्हा नदी के पास / हर रोज पानी लेने आता है
नदी आती है / चूल्हे के पास आग लेने।
चूल्हा घर का जीवन है / नदी गाँव का
अलग कहाँ हैं घर और गाँव?
गाँव से घर है / घर से गाँव
चूल्हे को पानी की दरकार है / नदी को आग की
चूल्हा नदी के पास / हर रोज पानी लेने आता है
नदी आती है / चूल्हे के पास आग लेने।
हरभगवान जी की इन ७९ कविताओं की ताकत सच को देखना और बिना पूर्वाग्रह के कह देना है। भाषा की सादगी और बयान में साफगोई उनकी ताकत है। चिट्ठियाँ, मुल्तान की औरतें, गाँव से लौटते हुए, रानियाँ आदि कवितायेँ उनकी संवेदनशील दृष्टि की परिचायक हैं। शिक्षा जगत से जुड़ा कवि समस्या के मूल तक जाने और जड़ को तलाशकर समाधान पाने में समर्थ है। वह उपदेश नहीं देता किन्तु सोचने के दिशा दिखाता है- 'पाप' और 'पाप का घड़ा' शीर्षक दो रचनाओं कवि का शिक्षक प्रश्न उठता है, उसका उत्तर नहीं देता किन्तु वह तर्क प्रस्तुत कर देता है जिससे पाठकरूपी विद्यार्थ उठता देने की मनस्थिति में आ सके-
पाप
अपने पापों को
आटे में गूँथकर पेड़ा बनाइये
अपने हाथों पेड़ा गाय को खिलाइये
और फिर पाप करने में जुट जाइये।
पाप का घड़ा
अंजुरी भर-भर / घड़े में उड़ेल दो
अपने सारे पाप
पाप का घड़ा / अभी बहुत खाली है
घड़ा जब तक भरेगा नहीं
ईश्वर कुछ करेगा नहीं।
पाप
अपने पापों को
आटे में गूँथकर पेड़ा बनाइये
अपने हाथों पेड़ा गाय को खिलाइये
और फिर पाप करने में जुट जाइये।
पाप का घड़ा
अंजुरी भर-भर / घड़े में उड़ेल दो
अपने सारे पाप
पाप का घड़ा / अभी बहुत खाली है
घड़ा जब तक भरेगा नहीं
ईश्वर कुछ करेगा नहीं।
इसी आकाश में की कवितायें मन की जड़ता को तोड़कर स्वस्थ चिंतन की और प्रेरित करती हैं। कवि साधुवाद का पात्र है। ज़िंदगी में हताशा के लिये कोई जगह नहीं है, मिट्टी है तो अंकुर निकलेंगे ही-
युगों से तपते रेगिस्तान में / कभी फूट आती है घास
दुखों से भरे मन के होठों पर / अनायास फूट पड़ती है हँसी
धरती है तो बाँझ कैसे रहेगी सदा
ज़िंदगी है तो दुखों की कोख में से भी
पैदा होती रहेगी हँसी।
युगों से तपते रेगिस्तान में / कभी फूट आती है घास
दुखों से भरे मन के होठों पर / अनायास फूट पड़ती है हँसी
धरती है तो बाँझ कैसे रहेगी सदा
ज़िंदगी है तो दुखों की कोख में से भी
पैदा होती रहेगी हँसी।
समाज में विघटनहनित आँसू का सैलाब लाती सियासत के खिलाफ कविता हँसी लाने का अभियान चलती रहे यही कामना है।
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-समन्वयम् २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४
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समीक्षा कविता हरभगवान चावला,
samiksha kavita harbhajan chawla
समीक्षा, प्रिय वैशाख, दिनकर कुमार,
पुस्तक चर्चा:'वैशाख प्रिय वैशाख' कविताओं के पल्लव प्रेम की शाख
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- वैशाख प्रिय वैशाख, बिहू गीत आधृत कवितायेँ, दिनकर कुमार, प्रथम संस्करण जनवरी २०१६, आकार २०.५ सेंटीमीटर x १३.५ सेंटीमीटर, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ ११६, मूल्य ८०/-, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाइस गोदाम जयपुर ३०२००६ दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, ९८२९० १८०८७, bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क- गृह क्रमांक ६६, मुख्या पथ, तरुण नगर, एबीसी गुवाहाटी ७८१००५ असम, चलभाष ०९४३५१०३७५५, ईमेल dinkar.mail@gmail.com ]
*
आचार्य रामचंद्र शुक्ल कविता के शब्दों में - 'मनुष्य अपने भावों, विचारों और व्यापारों को लिये 'दूसरे के भावों', विचारों और व्यापारों के साथ कहीं मिलाता और कहीं लड़ाता हुआ अंत तक चला चलता है और इसी को जीना कहता है। जिस अनंत-रूपात्मक क्षेत्र में यह व्यवसाय चलता रहता है उसका नाम है जगत। जब तक कोई अपनी पृथक सत्ता की भावना को ऊपर किये इस क्षेत्र के नाना रूपों और व्यापारों को अपने योग-क्षेम, हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि से सम्बद्ध करके देखता रहता है तब तक उसका हृदय एक प्रकार से बद्ध रहता है। इन रूपों और व्यापारों के सामने जब कभी वह अपनी पृथक सत्ता की धारणा से छुटकर, अपने आप को बिल्कुल भूलकर विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त-हृदय हो जाता है। जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिये मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं। यहाँ शुक्ल जी का कविता से आशय गीति रचना से हैं।
प्रतिमाह १५-२० पुस्तकें पढ़ने पर भी एक लम्बे अरसे बाद कविता की ऐसी पुस्तक से साक्षात् हुआ जो शुक्ल जी उक्त अवधारणा को मूर्त करती है। यह कृति है श्री दिनकर कुमार रचित काव्य संग्रह 'वैशाख प्रिय वैशाख'। कृति की सभी ७९ कवितायेँ असम के लोकपर्व 'बिहू' पर आधारित हैं। अधिकांश रचनाओं में कवि 'स्व' में 'सर्व' को तथा 'सर्व' में 'स्व' को विलीन करता प्रतीत होता है. 'मैं' और 'प्रेमिका' के दो पात्रों के इर्द-गिर्द कही गयी कविताओं में प्रकृति सम्पर्क सेतु की भूमिका में है। प्रकृति और जीवन की हर भाव-भंगिमा में 'प्रिया' को देखना-पाना 'द्वैत में अद्वैत' का संधान कर 'स्व' में 'सर्व' के साक्षात् की प्रक्रिया है। भावप्रवणता से संपन्न कवितायेँ गीति रचनाओं के सन्निकट हैं। मुखड़ा-अन्तर के विधान का पालन न करने पर भी भाव, रस, बिम्ब, प्रतीक, कोमल-कान्त पदावली और यत्र-तत्र बिखरे लय-खंड मन को आनंदानुभूति से रस प्लावित कर पाते हैं।
सात कविता संग्रह, दो उपन्यास, दो जीवनियाँ, ५० से अधिक असमिया पुस्तकों के अनुवाद का कार्य कर चुके और सोमदत्त सम्मान, भाषा सेतु सम्मान, पत्रकारिता सम्मान, अनुवाद श्री सम्मान से सम्मानित कवि का रचनाविधान परिपक्व होना स्वाभाविक है। उल्लेख्य यह है कि दीर्घ और निरंतर सृजन यात्रा में वह नगरवासी होते हुए भी नगरीय आकर्षण से मुक्त रहकर प्रकृति से अभिन्न होकर रचनाओं में प्रकृति को उसकी अम्लानता में देख और दिखा सका है। विडंबना, विद्वेष, विसंगति और विखंडन के अतिरेकी-एकांगी चित्रण से समाज और देश को नारकीय रूप में चित्रित करते तथाकथित प्रगतिवादी साहित्य की अलोकप्रियता और क्षणभंगुरता की प्रतिक्रिया सनातन शुभत्वपरक साहित्य के सृजन के रूप में प्रतिफलित हुआ है। वैशाख प्रिय वैशाख उसी श्रंखला की एक कड़ी है।
यह कृति पूरी तरह प्रकृति से जुडी है। कपौ, केतकी, तगर, भाटौ, गेजेंट, जूति, मालती, मन्दार, इन्द्रमालती, चंपा, हरसिंगार, अशोक, नागेश्वर, शिरीष, पलाश, गुलमोहर, बांस, सेमल, पीपल, लक, सरसों, बरगद, थुपूकी, गूलर, केला आदि पेड़ पौधों के संग पान-सुपारी, तांबूल, कास, घास, धान, कद्दू, तरोई, गन्ना, कमल, तुलसी अर्थात परिवेश की सकल वनस्पतियाँ ऋतु परिवर्तन की साक्षी होकर नाचती-गाति-झूमती आनंद पा और लुटा रही हैं।आत्मानंद पाने में सहभागी हैं कोयल, पिपहरी, दहिकतरा, सखियती, मैना, कबूतर, हेतुलूका, बगुले, तेलोया, सारंग, बुलबुल, गौरैया और तितलियाँ ही नहीं, झींगुर, काबै मछली, पूठी मछली, शाल मछली, हिरसी, घडियाल. मकड़ी, चीटी, मक्खी,हिरन, कुत्ता, हाथी और घोड़ा भी। ताल-तलैया, नद, नदी, झरना, दरिया, धरती, पृथ्वी और आसमान के साथ-साथ उत्सवधर्मिता को आशीषित करती देवशक्तियों कलीमती, रहिमला, बिसंदे, हेरेपी आदि की उपस्थिति की अनुभूति ही करते ढोल, मृदंग, टोका, ढोलक आदि वाद्य पाठक को भाव विभोर कर देते है। प्रकृति और देवों की शोभावृद्धि करने सोना, मोती, मूँगा आदि भी तत्पर हैं।
दिनकर जी की गीति कवितायें साहित्य के नाम पर नकारात्मकता परोस रहे कृत्रिम भाव, झूठे वैषम्य, मिथ्या विसंगतियों और अतिरेकी टकराव के अँधेरे में साहचर्य, सद्भाव, सहकार, सहयोग, सहानुभूति और सहस्तित्व का दीप प्रज्वलित करती दीपशिखा की तरह स्वागतेय हैं। सुदूर पूर्वांचल की सभ्यता-संस्कृति, जनजीवन, लोक भावनाएँ प्रेमी-प्रेमिका के रूप में लगभग हर रचना में पूरे उल्लास के साथ शब्दित हुआ है। पृष्ठ-पृष्ठ पर पंक्ति-पंक्ति में सात्विक श्रृंगार रस में अवगाहन कराती यह कृति कहीं अतिरेकी वर्णन नहीं करती।
प्रकृति की यह समृद्धि मन में जिस उत्साह और आनंद का संचार करती है वह जन-जीवन के क्रिया-कलापों में बिम्बित होता है-
वैशाख तुम जगाते हो युवक-युवती
बच्चे-बूढ़े-स्त्रियों के मन-प्राण में
स्नेह-प्रेम, आनंद-उत्साह और यौवन की अनुभूतियाँ
आम आदमी का तन-मन झूम उठता है
मातृभूमि की प्रकृति की समृद्धि को देखकर।
वैशाख तुम जगाते हो युवक-युवती
बच्चे-बूढ़े-स्त्रियों के मन-प्राण में
स्नेह-प्रेम, आनंद-उत्साह और यौवन की अनुभूतियाँ
आम आदमी का तन-मन झूम उठता है
मातृभूमि की प्रकृति की समृद्धि को देखकर।
आबादी अपने लोकाचारों में, खेल-कूद और नृत्य-गीत के जरिए
व्यक्त करती है पुलक, श्रुद्ध, प्रेम, यौवन का आवेदन
व्यक्त करती है पुलक, श्रुद्ध, प्रेम, यौवन का आवेदन
वस्त्र बुनती बहू-बेटी के कदम
अनजाने में ही थिरकने लगते हैं
वे रोमांचित होकर वस्त्र पर रचती है फूलों को
बुनती हैं 'फूलाम बिहूवान'-सेलिंग चादर-महीन पोशाक
जब मौसम का नशा चढ़ता है
प्रेमी जोड़े पेड़ों की छाँव में जाकर
बिहू नृत्य करने लगते हैं
टका-गगना वाद्यों को बजाकर
धरती-आकाश को मुखरित करते है
अनजाने में ही थिरकने लगते हैं
वे रोमांचित होकर वस्त्र पर रचती है फूलों को
बुनती हैं 'फूलाम बिहूवान'-सेलिंग चादर-महीन पोशाक
जब मौसम का नशा चढ़ता है
प्रेमी जोड़े पेड़ों की छाँव में जाकर
बिहू नृत्य करने लगते हैं
टका-गगना वाद्यों को बजाकर
धरती-आकाश को मुखरित करते है
जमीन से जुड़े जन बुन्देलखंड में हों या बस्तर में, मालवा में हों या बिहार में, बृज में हों या बंगाल में उल्लास-उत्साह, प्रकृति और ऋतुओं के साथ सहजीवन, अह्बवों को जीतकर जिजीविषा की जय गुंजाता हौसला सर्वत्र समान है। यहाँ निर्भया, कन्हैया और प्रत्यूषा नहीं हैं। प्रेम की विविध भाव-भंगिमाएँ मोहक और चित्ताकर्षक हैं। प्रेमिका को न पा सके प्रेमी की उदात भावनाएँ अपनी मिसाल आप हैं-
तुम रमी रहती हो अपनी दुनिया में
कभी मुस्कुराती हो और
कभी उदास ही जाती हो
कभी छलछला उठते हैं तुम्हारे नयन
किसी ख़याल में तुम डूबी रहती हो
सूनापन मुझे बर्धष्ट नहीं होता
तुम्हें देखे बगैर कैसे रह सकता हूँ
तुम अपनी मूरत बनाकर क्यों नहीं दे देतीं?
कम से कम उसमें तुम्हें देखकर
तसल्ली तो मिल सकती है
न तो भूख लगती है, न प्यास
न तो नींद आती है, न करार
अपने आपका आजकल नहीं रहता है ख़याल
मेरा चाहे कुछ हो
तुम सदा खुश रहो, आबाद रहो
तुम रमी रहती हो अपनी दुनिया में
कभी मुस्कुराती हो और
कभी उदास ही जाती हो
कभी छलछला उठते हैं तुम्हारे नयन
किसी ख़याल में तुम डूबी रहती हो
सूनापन मुझे बर्धष्ट नहीं होता
तुम्हें देखे बगैर कैसे रह सकता हूँ
तुम अपनी मूरत बनाकर क्यों नहीं दे देतीं?
कम से कम उसमें तुम्हें देखकर
तसल्ली तो मिल सकती है
न तो भूख लगती है, न प्यास
न तो नींद आती है, न करार
अपने आपका आजकल नहीं रहता है ख़याल
मेरा चाहे कुछ हो
तुम सदा खुश रहो, आबाद रहो
प्रेम कभी चुकता नहीं, वह आदिम काल से अनंत तक प्रतीक्षा से भी थकता नहीं
हम मिले थे घास वन में
तब हम आदम संगीत को सुन रहे थे
उत्सव का ढोल बज रहा था
हम मिले थे घास वन में
तब हम आदम संगीत को सुन रहे थे
उत्सव का ढोल बज रहा था
प्रेम की यह उदात्तता उन युवाओं को जानना आवश्यक है जो 'लिव इन' के नाम पर संबंधों को वस्त्रों की तरह बदलते और टूटकर बिखर जाते हैं। प्रेम को पाने का पर्याय माननेवाले उसके उत्कट-व्यापक रूप को जानें-
गगन में चंद्रमा जब तक रहेगा
पृथ्वी पर पड़ेगी उसकी छाया
तुम्हारा प्यार पाने की हसरत रहेगी
गगन में चंद्रमा जब तक रहेगा
पृथ्वी पर पड़ेगी उसकी छाया
तुम्हारा प्यार पाने की हसरत रहेगी
मौसम की मदिरा, नींद की सुरंग, वैशाख की पगडंडी, लाल गूलर का पान है प्रियतमा जैसी अभिव्यक्तियाँ मन मोहती हैं। अंग्रेजी शब्दों के मोहजाल से मुक्त दिनकर जी ने दोनों ओर लगी प्रेमाग्नि से साक्षात् कराया है। प्रेमिका की व्यथा देखें-
तुम्हेरे और मेरे बीच है समाज की नदी
जिसे तैर कर पार करती हूँ
तुम्हें पाने के लिए
क्या तुम समाज के डर से
नहीं आओगे / मेरे जुड़े में कपौ फूल खोंसने के लिए
.
तुम्हारे संग-संग जान भले ही दे दूं
प्रेम को मैं नहीं छोड़ पाऊँगी
तुम्हेरे और मेरे बीच है समाज की नदी
जिसे तैर कर पार करती हूँ
तुम्हें पाने के लिए
क्या तुम समाज के डर से
नहीं आओगे / मेरे जुड़े में कपौ फूल खोंसने के लिए
.
तुम्हारे संग-संग जान भले ही दे दूं
प्रेम को मैं नहीं छोड़ पाऊँगी
प्रेमी की पीर और समर्पण भी कम नहीं है-
चलो उड़ चलें बगुलों के संग
बिना खाए ही कई दिनों तक गुजार सकता हूँ
अगर तुम रहोगी मेरे संग
.
अगर ईश्वर दक्षिणा देने से संतुष्ट होते
मैं उनसे कहता
मेरी किस्मत में लिख देते तुम्हारा ही नाम
.
प्रेमिका साथ न दे तो भग्नह्रदय प्रेमी के दिल पर बिजली गिरना स्वाभाविक है-
तुमने रंगीन पोशाक पहनी है
पिता के पास है दौलत
मेरे सामने बार-बार आकार
बना रही हो दीवाना
.
मैंने तुमसे एक ताम्बूल माँगा
और तुमने मेरी तरफ कटारी उछाल दी
.
हम दोनों में इतना गहरा प्यार था
किसने घोला है अविश्वास का ज़हर?
.
रंगपुर में मैंने ख़रीदा लौंग-दालचीनी
लखीमपुर में खरीदा पान
खेत में भटककर ढूँढता रहा तुम्हें
कहाँ काट रही हो धान?
.
कभी कालिदास ने मेघदूत को प्रेमी-प्रेमिका के मध्य सेतु बनाया था, अब दिनकर ने वैशाख-पर्व बिहू से प्रेम-पुल का काम लिया है, यह सनातन परंपरा बनी रहे और भावनाओं-कामनाओं-संभावनाओं को पल्लवित-पुष्पित करती रहे।
________
समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४
चलो उड़ चलें बगुलों के संग
बिना खाए ही कई दिनों तक गुजार सकता हूँ
अगर तुम रहोगी मेरे संग
.
अगर ईश्वर दक्षिणा देने से संतुष्ट होते
मैं उनसे कहता
मेरी किस्मत में लिख देते तुम्हारा ही नाम
.
प्रेमिका साथ न दे तो भग्नह्रदय प्रेमी के दिल पर बिजली गिरना स्वाभाविक है-
तुमने रंगीन पोशाक पहनी है
पिता के पास है दौलत
मेरे सामने बार-बार आकार
बना रही हो दीवाना
.
मैंने तुमसे एक ताम्बूल माँगा
और तुमने मेरी तरफ कटारी उछाल दी
.
हम दोनों में इतना गहरा प्यार था
किसने घोला है अविश्वास का ज़हर?
.
रंगपुर में मैंने ख़रीदा लौंग-दालचीनी
लखीमपुर में खरीदा पान
खेत में भटककर ढूँढता रहा तुम्हें
कहाँ काट रही हो धान?
.
कभी कालिदास ने मेघदूत को प्रेमी-प्रेमिका के मध्य सेतु बनाया था, अब दिनकर ने वैशाख-पर्व बिहू से प्रेम-पुल का काम लिया है, यह सनातन परंपरा बनी रहे और भावनाओं-कामनाओं-संभावनाओं को पल्लवित-पुष्पित करती रहे।
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चिप्पियाँ Labels:
दिनकर कुमार,
प्रिय वैशाख,
समीक्षा ८३,
samiksha 83 dinkar kumar
आदि शक्ति वंदना
आदि शक्ति वंदना
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..
जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..
दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.
प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..
मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.
ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
11.4.2013
******
मंगलवार, 9 अप्रैल 2019
नवगीत
नवगीत:
संजीव
.
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
.
अब तक किसने-कितने काटे
ढो ले गये,
नहीं कुछ बाँटें.
चोर-चोर मौसेरे भाई
करें दिखावा
मुस्का डांटें.
बँसवारी में फैला स्यापा
कौन नहीं
जिसका मन काँपा?
कब आएगी
किसकी बारी?
आहुति बने,
लगे अग्यारी.
उषा-सूर्य की
आँखें लाल.
रो-रो
क्षितिज-दिशा बेहाल.
समय न बदले
बेढब चाल.
ठोंक रहा है
स्वारथ ताल.
ताल-तलैये
सूखे हाय
भूखी-प्यासी
मरती गाय.
आँख न होती
फिर भी नम
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
.
करे महकमा नित नीलामी
बँसवट
लावारिस-बेनामी.
अंधा पीसे कुत्ते खायें
मोहन भोग
नहीं गह पायें.
वनवासी के रहे नहीं वन
श्रम कर भी
किसान क्यों निर्धन?
किसकी कब
जमीन छिन जाए?
विधना भी यह
बता न पाए.
बाँस फूलता
बिना अकाल.
लूटें
अफसर-सेठ कमाल.
राज प्रजा का
लुटते लोग.
कोंपल-कली
मानती सोग.
मौन न रह
अब तो सच बोल
उठा नगाड़ा
पीटो ढोल.
जब तक दम
मत हो बेदम
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
*
संजीव
.
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
.
अब तक किसने-कितने काटे
ढो ले गये,
नहीं कुछ बाँटें.
चोर-चोर मौसेरे भाई
करें दिखावा
मुस्का डांटें.
बँसवारी में फैला स्यापा
कौन नहीं
जिसका मन काँपा?
कब आएगी
किसकी बारी?
आहुति बने,
लगे अग्यारी.
उषा-सूर्य की
आँखें लाल.
रो-रो
क्षितिज-दिशा बेहाल.
समय न बदले
बेढब चाल.
ठोंक रहा है
स्वारथ ताल.
ताल-तलैये
सूखे हाय
भूखी-प्यासी
मरती गाय.
आँख न होती
फिर भी नम
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
.
करे महकमा नित नीलामी
बँसवट
लावारिस-बेनामी.
अंधा पीसे कुत्ते खायें
मोहन भोग
नहीं गह पायें.
वनवासी के रहे नहीं वन
श्रम कर भी
किसान क्यों निर्धन?
किसकी कब
जमीन छिन जाए?
विधना भी यह
बता न पाए.
बाँस फूलता
बिना अकाल.
लूटें
अफसर-सेठ कमाल.
राज प्रजा का
लुटते लोग.
कोंपल-कली
मानती सोग.
मौन न रह
अब तो सच बोल
उठा नगाड़ा
पीटो ढोल.
जब तक दम
मत हो बेदम
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
*
नवगीत
नवगीत:
करना होगा...
करना होगा...
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
देखे दोष,
दिखाए भी हैं.
लांछन लगे,
लगाये भी है.
गिरे-उठे
भरमाये भी हैं.
खुद से खुद
शरमाये भी हैं..
परिवर्तन-पथ
वरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
दीपक तले
पले अँधियारा.
किन्तु न तम की
हो पौ बारा.
डूब-डूबकर
उगता सूरज.
मिट-मिट फिर
होता उजियारा.
जीना है तो
मरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
करना होगा...
***
देखे दोष,
दिखाए भी हैं.
लांछन लगे,
लगाये भी है.
गिरे-उठे
भरमाये भी हैं.
खुद से खुद
शरमाये भी हैं..
परिवर्तन-पथ
वरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
दीपक तले
पले अँधियारा.
किन्तु न तम की
हो पौ बारा.
डूब-डूबकर
उगता सूरज.
मिट-मिट फिर
होता उजियारा.
जीना है तो
मरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
९.४.२०१७
***
***
गीत
एक रचना-
हो अभिन्न तुम
*
हो अभिन्न तुम
निकट रहो
या दूर
*
धरा-गगन में नहीं निकटता
शिखर-पवन में नहीं मित्रता
मेघ-दामिनी संग न रहते-
सूर्य-चन्द्र में नहीं विलयता
अविच्छिन्न हम
किन्तु नहीं
हैं सूर
*
देना-पाना बेहिसाब है
आत्म-प्राण-मन बेनक़ाब है
तन का द्वैत, अद्वैत हो गया
काया-छाया सत्य-ख्वाब है
नयन न हों नम
मिले नूर
या धूर
*
विरह पराया, मिलन सगा है
अपना नाता नेह पगा है
अंतर साथ श्वास के सोया
अंतर होकर आस जगा है.
हो न अधिक-कम
नेह पले
भरपूर
*
हो अभिन्न तुम
*
हो अभिन्न तुम
निकट रहो
या दूर
*
धरा-गगन में नहीं निकटता
शिखर-पवन में नहीं मित्रता
मेघ-दामिनी संग न रहते-
सूर्य-चन्द्र में नहीं विलयता
अविच्छिन्न हम
किन्तु नहीं
हैं सूर
*
देना-पाना बेहिसाब है
आत्म-प्राण-मन बेनक़ाब है
तन का द्वैत, अद्वैत हो गया
काया-छाया सत्य-ख्वाब है
नयन न हों नम
मिले नूर
या धूर
*
विरह पराया, मिलन सगा है
अपना नाता नेह पगा है
अंतर साथ श्वास के सोया
अंतर होकर आस जगा है.
हो न अधिक-कम
नेह पले
भरपूर
*
दोहा मुक्तिका
दोहा मुक्तिका
*
झुरमुट से छिप झाँकता, भास्कर रवि दिननाथ।
गाल लाल हैं लाज से, दमका ऊषा-माथ।।
*
कागा मुआ मुँडेर पर, बैठ न करता शोर।
मन ही मन कुछ मानता, मना रहे हैं हाथ।।
*
आँख टिकी है द्वार पर, मन उन्मन है आज।
पायल को चुप हेरती, चूड़ी कंडा पाथ।।
*
गुपचुप आ झट बाँह में, भरे बाँह को बाँह।
कहे न चाहे 'छोड़ दो', देख न ले माँ साथ।।
*
कुकड़ूँ कूँ ननदी करे, देवर देता बाँग।
बीरबहूटी छुइमुई, छोड़ न छोड़े हाथ।।
***
संवस, ९.४.२०१९
७९९९५५९६१८
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दोहा मुक्तिका,
doha muktika
भोजपुरी दोहा
भोजपुरी दोहा:
*
खेत खेत रउआ भयल, 'सलिल' सून खलिहान।
सुन सिसकी चौपाल के, पनघट भी सुनसान।।
*
खनकल-ठनकल बाँह-पग, दुबुकल फउकल देह।
भूख भूख से कहत बा, कित रोटी कित नेह।।
*
बालारुण के सकारे, दीले अरघ जहान।
दुपहर में सर ढाँकि ले, संझा कहे बिहान।।
*
काट दइल बिरवा-बिरछ, बाढ़ल बंजर-धूर।
आँखन ऐनक धर लिहिल, मानुस आँधर-सूर।।
*
सुग्गा कोइल लुकाइल, अमराई बा सून।
शूकर-कूकुर जस लड़ल, है खून सँग खून
***
संवस, ७९९९५५९६१८
९.४.२०१९
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भोजपुरी दोहा,
bhojpuri doha
दोहा मुक्तिका
दोहा मुक्तिका
*
सत्य सनातन नर्मदा, बाँच सके तो बाँच.
मिथ्या सब मिट जाएगा, शेष रहेगा साँच..
*
कथनी-करनी में कभी, रखना तनिक न भेद.
जो बोया मिलता वही, ले कर्मों को जाँच..
*
साँसें अपनी मोम हैं, आसें तपती आग.
सच फौलादी कर्म ही सह पाता है आँच..
*
उसकी लाठी में नहीं, होती है आवाज़.
देख न पाते चटकता, कैसे जीवन-काँच..
*
जो त्यागे पाता 'सलिल', बनता मोह विछोह.
एक्य द्रोह को जय करे, कहते पांडव पाँच..
***
संवस, ७९९९५५९६१८
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दोहा मुक्तिका,
doha muktika
द्विपदी
द्विपदी
*
परवाने जां निसार कर देंगे.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में भटको न तुम.
फूल बन महको चली आएँगी ये..
*
जब तलक जिन्दा था रोटी न मुहैया थी.
मर गया तो तेरहीं में दावतें हुईं..
*
बाप की दो बात सह नहीं पाते
अफसरों की लात भी परसाद है..
*
पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.
मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता..
*
संवस
*
परवाने जां निसार कर देंगे.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में भटको न तुम.
फूल बन महको चली आएँगी ये..
*
जब तलक जिन्दा था रोटी न मुहैया थी.
मर गया तो तेरहीं में दावतें हुईं..
*
बाप की दो बात सह नहीं पाते
अफसरों की लात भी परसाद है..
*
पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.
मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता..
*
संवस
सोमवार, 8 अप्रैल 2019
दोहा
दोहा सलिला
दो कौड़ी का आदमी, पशु का थोड़ा मोल।
नायक सबका खुदा है, धन्य-धन्य हम झेल।।
*
तू मारे या छोड़ दे, है तेरा उपकार।
न्याय-प्रशासन खड़ा है, हाथ बाँधकर द्वार।।
*
आज कदर है उसी की, जो दमदार दबंग।
इस पल भाईजान हो, उस पल हो बजरंग।।
*
सवा अरब है आदमी, कुचल घटाया भार।
पशु कम मारे कर कृपा, स्वीकारो उपकार।।
*
हम फिल्मी तुम नागरिक, आम न समता एक।
खल बन रुकते हम यहाँ, मरे बने रह नेक।।
*
पानी-पानी हो गया, पानी मिटी न प्यास।
जंगल पर्वत नदी-तल, गायब रही न आस।।
8.4.2018
दो कौड़ी का आदमी, पशु का थोड़ा मोल।
नायक सबका खुदा है, धन्य-धन्य हम झेल।।
*
तू मारे या छोड़ दे, है तेरा उपकार।
न्याय-प्रशासन खड़ा है, हाथ बाँधकर द्वार।।
*
आज कदर है उसी की, जो दमदार दबंग।
इस पल भाईजान हो, उस पल हो बजरंग।।
*
सवा अरब है आदमी, कुचल घटाया भार।
पशु कम मारे कर कृपा, स्वीकारो उपकार।।
*
हम फिल्मी तुम नागरिक, आम न समता एक।
खल बन रुकते हम यहाँ, मरे बने रह नेक।।
*
पानी-पानी हो गया, पानी मिटी न प्यास।
जंगल पर्वत नदी-तल, गायब रही न आस।।
8.4.2018
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दोहा हास्य,
doha hasya
नवगीत
नवगीत:
संजीव
.
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
महाकाव्य बब्बा की मूँछें, उजली पगड़ी
खण्डकाव्य नाना के नाना किस्से रोचक
दादी-नानी बन प्रबंध करती हैं बतरस
सुन अंग्रेजी-गिटपिट करते बच्चे भौंचक
ईंट कहीं की, रोड़ा आया और कहीं से
अपना
आप विधाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
लक्षाधिक है छंद सरस जो चाहें रचिए
छंदहीन नीरस शब्दों को काव्य न कहिए
कथ्य सरस लययुक्त सारगर्भित मन मोहे
फिर-फिर मुड़कर अलंकार का रूप निरखिए
बिम्ब-प्रतीक सलोने कमसिन सपनों जैसे
निश-दिन
खूब दिखाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
दृश्य-श्रव्य-चंपू काव्यों से भाई-भतीजे
द्विपदी, त्रिपदी, मुक्तक अपनेपन से भीजे
ऊषा, दुपहर, संध्या, निशा करें बरजोरी
पुरवैया-पछुवा कुण्डलि का फल सुन खीजे
बौद्धिकता से बोझिल कविता
पढ़ता
पर बिसराता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
गीत प्रगीत अगीत नाम कितने भी धर लो
रच अनुगीत मुक्तिका युग-पीड़ा को स्वर दो
तेवरी या नवगीत शाख सब एक वृक्ष की
जड़ को सींचों, माँ शारद से रचना-वर लो
खुद से
खुद बतियाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
संजीव
.
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
महाकाव्य बब्बा की मूँछें, उजली पगड़ी
खण्डकाव्य नाना के नाना किस्से रोचक
दादी-नानी बन प्रबंध करती हैं बतरस
सुन अंग्रेजी-गिटपिट करते बच्चे भौंचक
ईंट कहीं की, रोड़ा आया और कहीं से
अपना
आप विधाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
लक्षाधिक है छंद सरस जो चाहें रचिए
छंदहीन नीरस शब्दों को काव्य न कहिए
कथ्य सरस लययुक्त सारगर्भित मन मोहे
फिर-फिर मुड़कर अलंकार का रूप निरखिए
बिम्ब-प्रतीक सलोने कमसिन सपनों जैसे
निश-दिन
खूब दिखाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
दृश्य-श्रव्य-चंपू काव्यों से भाई-भतीजे
द्विपदी, त्रिपदी, मुक्तक अपनेपन से भीजे
ऊषा, दुपहर, संध्या, निशा करें बरजोरी
पुरवैया-पछुवा कुण्डलि का फल सुन खीजे
बौद्धिकता से बोझिल कविता
पढ़ता
पर बिसराता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
गीत प्रगीत अगीत नाम कितने भी धर लो
रच अनुगीत मुक्तिका युग-पीड़ा को स्वर दो
तेवरी या नवगीत शाख सब एक वृक्ष की
जड़ को सींचों, माँ शारद से रचना-वर लो
खुद से
खुद बतियाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
नवगीत बाँस
नवगीत:
संजीव
.
बाँस हैं हम
.
पत्थरों में उग आते हैं
सीधी राहों पर जाते हैं
जोड़-तोड़ की इस दुनिया में
काम सभी के हम आते हैं
नहीं सफल के पीछे जाते
अपने ही स्वर में गाते हैं
यह न समझो
नहीं कूबत
फाँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
चाली बनकर चढ़ जाते हैं
तम्बू बनकर तन जाते हैं
नश्वर माया हमें न मोहे
अरथी सँग मरघट जाते हैं
वैरागी के मन भाते हैं
लाठी बनकर मुस्काते हैं
निबल के साथी
उसीकी
आँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
बन गेंड़ी पग बढ़वाते हैं
अगर उठें अरि भग जाते हैं
मिले ढाबा बनें खटिया
सबको भोजन करवाते हैं
थके हुए तन सो जाते हैं
सुख सपनों में खो जाते हैं
ध्वज लगा
मस्तक नवाओ
नि-धन का धन
काँस हैं हम
बाँस हैं हम
*
संजीव
.
बाँस हैं हम
.
पत्थरों में उग आते हैं
सीधी राहों पर जाते हैं
जोड़-तोड़ की इस दुनिया में
काम सभी के हम आते हैं
नहीं सफल के पीछे जाते
अपने ही स्वर में गाते हैं
यह न समझो
नहीं कूबत
फाँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
चाली बनकर चढ़ जाते हैं
तम्बू बनकर तन जाते हैं
नश्वर माया हमें न मोहे
अरथी सँग मरघट जाते हैं
वैरागी के मन भाते हैं
लाठी बनकर मुस्काते हैं
निबल के साथी
उसीकी
आँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
बन गेंड़ी पग बढ़वाते हैं
अगर उठें अरि भग जाते हैं
मिले ढाबा बनें खटिया
सबको भोजन करवाते हैं
थके हुए तन सो जाते हैं
सुख सपनों में खो जाते हैं
ध्वज लगा
मस्तक नवाओ
नि-धन का धन
काँस हैं हम
बाँस हैं हम
*
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नवगीत बाँस,
navgeet baans
नवगीत
नवगीत
धत्तेरे की
*
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
पद-मद चढ़ा, न रहा आदमी
है असभ्य मत कहो आदमी
चुल्लू भर पानी में डूबे
मुँह काला कर
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
हाय! जंगली-दुष्ट आदमी
पगलाया है भ्रष्ट आदमी
अपना ही थूका चाटे फिर
झूठ उचारे
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
गलती करता अगर आदमी
क्षमा माँगता तुरत आदमी
गुंडा-लुच्चा क्षमा न माँगे
क्या हो बोलो
चप्पलबाज?
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
धत्तेरे की
*
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
पद-मद चढ़ा, न रहा आदमी
है असभ्य मत कहो आदमी
चुल्लू भर पानी में डूबे
मुँह काला कर
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
हाय! जंगली-दुष्ट आदमी
पगलाया है भ्रष्ट आदमी
अपना ही थूका चाटे फिर
झूठ उचारे
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
गलती करता अगर आदमी
क्षमा माँगता तुरत आदमी
गुंडा-लुच्चा क्षमा न माँगे
क्या हो बोलो
चप्पलबाज?
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
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गीत चप्पलबाज,
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समीक्षा: सरे राह कहानियाँ सुमन श्रीवास्तव
ॐ
पुस्तक सलिलां-
‘सरे राह’ मुखौटे उतारती कहानियाॅ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- सरे राह, कहानी संग्रह, डाॅं. सुमनलता श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड जैकट सहित, मूल्य १५० रु., त्रिवेणी परिषद प्रकाशन, ११२१ विवेकानंद वार्ड, जबलपुर, कहानीकार संपर्क १०७ इंद्रपुरी, नर्मदा मार्ग, जबलपुर।]
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‘कहना’ मानव के अस्तित्व का अपरिहार्य अंग है। ‘सुनना’,‘गुनना’ और ‘करना’ इसके अगले चरण हैं। इन चार चरणों ने ही मनुष्य को न केवल पशु-पक्षियों अपितु सुर, असुर, किन्नर, गंधर्व आदि जातियों पर जय दिलाकर मानव सभ्यता के विकास का पथ प्रशस्त किया। ‘कहना’ अनुशासन और उद्दंेश्य सहित हो तो ‘कहानी’ हो जाता है। जो कहा जंाए वह कहानी, क्या कहा जाए?, वह जो कहे जाने योग्य हो, कहे जाने योग्य क्या है?, वह जो सबके लिये हितकर है। जो सबके हित सहित है वही ‘साहित्य’ है। सबके हित की कामना से जो कथन किया गया वह ‘कथा’ है। भारतीय संस्कृति के प्राणतत्वों संस्कृत और संगीत को हृदयंगम कर विशेष दक्षता अर्जित करनेवाली विदुषी डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव की चैथी कृति और दूसरा कहानी संग्रह ‘सरे राह’ उनकी प्रयोगधर्मी मनोवृत्ति का परिचाायक है।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- सरे राह, कहानी संग्रह, डाॅं. सुमनलता श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड जैकट सहित, मूल्य १५० रु., त्रिवेणी परिषद प्रकाशन, ११२१ विवेकानंद वार्ड, जबलपुर, कहानीकार संपर्क १०७ इंद्रपुरी, नर्मदा मार्ग, जबलपुर।]
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‘कहना’ मानव के अस्तित्व का अपरिहार्य अंग है। ‘सुनना’,‘गुनना’ और ‘करना’ इसके अगले चरण हैं। इन चार चरणों ने ही मनुष्य को न केवल पशु-पक्षियों अपितु सुर, असुर, किन्नर, गंधर्व आदि जातियों पर जय दिलाकर मानव सभ्यता के विकास का पथ प्रशस्त किया। ‘कहना’ अनुशासन और उद्दंेश्य सहित हो तो ‘कहानी’ हो जाता है। जो कहा जंाए वह कहानी, क्या कहा जाए?, वह जो कहे जाने योग्य हो, कहे जाने योग्य क्या है?, वह जो सबके लिये हितकर है। जो सबके हित सहित है वही ‘साहित्य’ है। सबके हित की कामना से जो कथन किया गया वह ‘कथा’ है। भारतीय संस्कृति के प्राणतत्वों संस्कृत और संगीत को हृदयंगम कर विशेष दक्षता अर्जित करनेवाली विदुषी डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव की चैथी कृति और दूसरा कहानी संग्रह ‘सरे राह’ उनकी प्रयोगधर्मी मनोवृत्ति का परिचाायक है।
विवेच्य कृति मुग्धा नायिका, पाॅवर आॅफ मदर, सहानुभूति, अभिलषित, ऐसे ही लोग, सेवार्थी, तालीम, अहतियात, फूलोंवाली सुबह, तीमारदारी, उदीयमान, आधुनिका, विष-वास, चश्मेबद्दूर, क्या वे स्वयं, आत्मरक्षा, मंजर, विच्छेद, शुद्धि, पर्व-त्यौहार, योजनगंधा, सफेदपोश, मंगल में अमंगल, सोच के दायरे, लाॅस्ट एंड फाउंड, सुखांत, जीत की हार तथा उड़नपरी 28 छोटी पठनीय कहानियों का संग्रह है।
इस संकलन की सभी कहानियाॅं कहानीकार कम आॅटोरिक्शा में बैठने और आॅटोरिक्शा सम उतरने के अंतराल में घटित होती हैं। यह शिल्यगत प्रयोग सहज तो है पर सरल नहीं है। आॅटोरिक्शा नगर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुॅंचाने में जो अल्प समय लेता है, उसके मध्य कहानी के तत्वों कथावस्तु, चरित्रचित्रण, पात्र योजना, कथेपकथन या संवाद, परिवेश, उद्देश्य तथा शैली का समावेश आसान नहीं है। इस कारण बहुधा कथावस्तु के चार चरण आरंभ, आरोह, चरम और अवरोह कां अलग-अलग विस्तार देे सकना संभव न हो सकने पर भी कहानीकार की कहन-कला के कौशल ने किसी तत्व के साथ अन्याय नहीं होने दिया है। शिल्पगत प्रयोग ने अधिकांश कहानियों को घटना प्रधान बना दिया है तथापि चरित्र, भाव और वातावरण यथावश्यक-यथास्थान अपनी उपस्थिति दर्शाते हैं।
कहानीकार प्रतिष्ठित-सुशिक्षित पृष्ठभूमि से है, इस कारण शब्द-चयन सटीक और भाषा संस्कारित है। तत्सम-तद्भव शब्दों का स्वाभविकता के साथ प्रयोग किया गया है। संस्कृत में शोधोपाधि प्राप्त लेखिका ने आम पाठक का ध्यानकर दैनंदिन जीवन में प्रयोग की जा रही भाषा का प्रयोग किया है। ठुली, फिरंगी, होंड़ते, गुब्दुल्ला, खैनी, हीले, जीमने, जच्चा, हूॅंक, हुमकना, धूरि जैसे शब्दकोष में अप्राप्त किंतु लोकजीवन में प्रचलित शब्द, कस्बाई, मकसद, दीदे, कब्जे, तनख्वाह, जुनून, कोफ्त, दस्तखत, अहतियात, कूवत आदि उर्दू शब्द, आॅफिस, आॅेडिट, ब्लडप्रैशर, स्टाॅप, मेडिकल रिप्रजेन्टेटिव, एक्सीडेंट, केमिस्ट, मिक्स्ड जैसे अंग्रेजी शब्द गंगो-जमनी तहजीब का नजारा पेश करते हैं किंतु कहीं-कहंी समुचित-प्रचलित हिंदी शब्द होते हुए भी अंग्रेजी शब्द का प्रयोग भाषिक प्रदूषण प्रतीत होतं है। मदर, मेन रोड, आफिस आदि के हिंदी पर्याय प्रचलित भी है और सर्वमान्य भी किंतु वे प्रयोग नहीं किये गये। लेखिका ने भाषिक प्रवाह के लिये शब्द-युग्मों चक्कर-वक्कर, जच्चा-बच्चा, ओढ़ने-बिछाने-पहनने, सिलाई-कढ़ाई, लोटे-थालियाॅं, चहल-पहल, सूर-तुलसी, सुविधा-असुविधा, दस-बारह, रोजी-रोटी, चिल्ल-पों, खोज-खबर, चोरी-चकारी, तरो-ताजा, मुड़ा-चुड़ा, रोक-टोक, मिल-जुल, रंग-बिरंगा, शक्लो-सूरत, टांका-टाकी आदि का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया है।
किसी भाषा का विकास साहित्य से ही होता है। हिंदी विश्वभाषा बनने का सपना तभी साकार कर सकती है जब उसके साहित्य में भाषा का मानक रूप हो। लेखिका सुशिक्षित ही नहीं सुसंस्कृत भी हैं, उनकी भाषा अन्यों के लिये मानक होगी। विवेच्य कृति में बहुवचन शब्दों में एकरूपता नहीं है। ‘महिलाएॅं’ में हिंदी शब्दरूप है तो ‘खवातीन’ में उर्दू शब्दरूप, जबकि ‘रिहर्सलों’ में अंग्रेजी शब्द को हिंदी व्याकरण-नियमानुसार बहुवचन किया ंगया है।
सुमन जी की इन कहानियों की शक्ति उनमें अंतर्निहित रोचकता है। इनमें ‘उसने कहा था’ और ‘ताई’ से ली गयी प्रेरणा देखी जा सकती है। कहानी की कोई रूढ़ परिभाषा नहीं हो सकती। संग्रह की हर कहानी में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में लेखिका और आॅटोरिक्शा है, सूत्रधार, सहयात्री, दर्शक, रिपोर्टर अथवा पात्र के रूप में वह घटना की साक्ष्य है। वह घटनाक्रम में सक्रिय भूमिका न निभाते हुए भी पा़त्र रूपी कठपुतलियों की डोरी थामे रहती है जबकि आॅटोेरिक्शा रंगमंच बन जाता है। हर कहानी चलचित्र के द्श्य की तरह सामने आती है। अपने पात्रों के माघ्यम से कुछ कहती है और जब तक पाठक कोई प्रतिकिया दे, समाप्त हो जाती है। समाज के श्वेत-श्याम दोनों रंग पात्रों के माघ्यम ेंसे सामने आते हैं।
अनेकता में एकता भारतीय समाज और संस्कृति दोनों की विशेषता है। यहाॅं आॅटोरिक्शा और कहानीकार एकता तथा घटनाएॅं और पात्र अनेकता के वाहक है। इन कहानियों में लघुकथा, संस्मरण, रिपोर्ताज और गपशप का पुट इन्हें रुचिकर बनाता है। ये कहानियाॅं किसी वाद, विचार या आंदोलन के खाॅंचे में नहीं रखी जा सकतीं तथापि समाज सुधार का भाव इनमें अंतर्निहित है। ये कहानियाॅं बच्चों नहीं बड़ों, विपन्नों नहीं संपन्नों के मुखौटों के पीछे छिपे चेहरों को सामने लाती हैं, उन्हें लांछित नहीं करतीं। ‘योजनगंधा’ और ‘उदीयमान’ जमीन पर खड़े होकर गगन छूने, ‘विष वास’, ‘सफेदपोश’, ‘उड़नपरी’, ‘चश्मेबद्दूर आदि में श्रमजीवी वर्ग के सदाचार, ‘सहानूभूति’, ‘ऐसे ही लोग’, ‘शुद्धि’, ‘मंगल में अमंगल’ आदि में विसंगति-निवारण, ‘तालीम’ और ‘सेवार्थी’ में बाल मनोविज्ञान, ‘अहतियात’ तथा ‘फूलोंवाली सुबह’में संस्कारहीनता, ‘तीमारदारी’, ‘विच्छेद’ आदि में दायित्वहीनता, ‘आत्मरक्षा’ में स्वावलंबन, ‘मुग्धानायिका’ में अंधमोह को केंद्र में रखकर कहानीकार ने सकारात्मक संदेष दिया है।
सुमन जी की कहानियों का वैशिष्ट्य उनमें व्याप्त शुभत्व है। वे गुण-अवगुण के चित्रण में अतिरेकी नहीं होतीं। कालिमा की न तो अनदेखी करती हैं, न भयावह चित्रण कर डराती हैं अपितु कालिमा के गर्भ में छिपी लालिमा का संकेत कर ‘सत-शिव-सुंदर’ की ओर उन्मुख होने का अवसर पाने की इच्छा पाठक में जगााती हैं। उनकी आगामी कृति में उनके कथा-कौशल का रचनामृत पाने की प्रतीक्षा पाठक कम मन में अनायास जग जाती है, यह उनकी सफलता है।
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- समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४ , salil.sanjiv@gmail.com
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