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मंगलवार, 11 सितंबर 2018

nai kalam

​​विश्ववाणी हिंदी संस्थान 
नई कलम:













गीतकार अविनाश ब्योहार
आत्मज: स्व. लक्ष्मण ब्योहार।
शिक्षा: बी.एससी., स्टेनोग्राफर अंग्रेजी।
संप्रति: व्यक्तिगत सहायक, महाधिवक्ता कार्यालय, उच्च न्यायालय म. प्र.।
प्रकाशित: आधी पीसे कुत्ते खाएँ व्यंग्य काव्य संग्रह।
संपर्क: रॉयल एस्टेट कोलोनी, कटंगी मार्ग, माढ़ोताल, जबलपुर ४८२००१।
चलभाष: ९८२६७९५३७२।
ईमेल: Avinash Beohar <a1499.9826795372@gmail.com>
*
गीत-नवगी
१. सन्नाटों की झीलें
.
हैं सन्नाटों
की झीलें
दिन हुए पुरइन।
फुनगी संग 
धूप की 
होती किलोल।
पिक बंधु
हवाओं में
गंध रहे घोल।।
ताल-तलैया
सूने-सूने, हैं  
हंसों के बिन।
सफर हुआ खत्म
नदिया का
मुहाना है।
फ़िरदौस में
गंध की 
तितली उड़ाना है।।
नदी-नाव 
संयोग पा 
पुलकित पल-छिन।
* २. हुआ तो क्या?
.
श्रम का ही
यश-गान करेगा
घर, खपरैल
हुआ तो क्या?
.
ऊँचे बँगलों
के कंगूरे,
बेईमानी की
बातें करते।
महानगर के
बाशिंदे बन,
विश्वासों से
घातें करते।
कोई तवज्जो
नहीं मिली,
दिल में अरमान
हुआ तो क्या।
.
हो गईं
मुँहजोर
शहर में
चलती हुई हवाएँ।
हैं भोंडेपन के
दबाव चुप
सहती
विवश कलाएँ।
हमने उनकी
करी भलाई
उनको बैर
हुआ तो क्या।
*

३. दूर खड़े 
.
दूर खड़े 
सुख-दुख, 
सब कुछ
मोबाइल है। 
कब-किस पर
क्या गाज गिरी है?
बहरों से आवाज
घिरी है। 
नेकी की 
भू बाँझ
बदी फर्टाइल है। 
नहीं झोपड़े
घास-फूस के। 
आमों जैसा
फेंक चूस के। 
बिना वजन
कब खिसके
कोई फाइल है!
* ४.
कैसे भरूँ  उड़ान?
. पंख दिये हैं
कुदरत ने पर
कैसे भरूँ उड़ान?
अब खतरे में
परवाजें हैं। 
गूँगी-गूँगी 
आवाजें हैं। 
इतने पर भी
आसमान सोया
है चादर तान। 
चुप्पी ढोते
हुए ठहाके। 
खेत कर रहे
बेबस फाँके। 
कष्टों का है
खड़ा हिमालय,
कण-कण में 
भगवान। 
* ५.
सौंधी-सौंधी
.
सौंधी-सौंधी
गंध उठ रही
माह जुलाई है।
.
आ गया
मौसम काली
घटाओं का।
बाग में
बिखरी मोहक
छटाओं का।
.
शिखरों के
मुखड़ पे चिपकी
हुई लुनाई है।
.
डैने फैलाए
मेघ उड़
रहे हैं।
फुहार लगे
गूंगे का
गुड़ रहे हैं।
.
वर्षा के पानी
की सरिता करे
पहुनाई है।
*
६. चुभती बूँदें
.
बुरे हुए दिन
चुभती बूँदें
शूल सी।

दामिनी सा
दुःख तड़का
जेहन में।
ख्वाबों की
जागीर है
रेहन में।

अल्पवृष्टि लगती
मौसम की
भूल सी।

कैसा मौसम
आया कि
मेह न बरसे।
नदी, ताल, विटप
सहमें हैं
डर से।

खेतिहर की
सूरत है
मुरझाये फूल सी।
*

७. वर्षा गीत   
.
घोर घटा
छाई मौसम
है मक़्बूल। 
अंकुरित
हो आए 
फूल-पत्ते। 
लबालब
भरे हुए 
हैं खत्ते। 

शिलापट्ट जेठ
की तपन
गये भूल। 
बूँदा-बाँदी
मतलब मेघों
का प्यार। 
चतुर्दिक हो
रही आनंद
की बौछार। 

चिकने पत्ते
बूटे निखर
गये फूल। 
*
८. तालों की ख़ामोशी
खयालों ने पहन लिये 
टेसुई लिबास। 
नींदों में स्वप्न जैसे 
डाली में फल। 
तालों की खामोशी 
बुन रही हलचल। 
गलियों में तैर रही 
चंदनी वातास। 
होंठों पर आ गई 
मुस्कान चुलबुली।
जलती दुपहरी से 
छाँव है भली। 
भटकती उम्मीदों को 
मिल गया आवास।
*
९.  मौसम बाँह पसारे
मौसम बाँह पसारे,
जब चलती 
है पछुआ। 
कलकल बहती 
नदिया में,
है संगीत भरा। 
नित श्रध्दा का 
दीप जलाए 
तुलसी का बिरवा।
जटा-जूटधारी 
बरगद को 
है बैराग हुआ। 
सरसर चलीं 
हवाएँ, डोले 
पीपल के पत्ते। 
घाट नदी का 
जिस पर 'रतिया'
फींच रही लत्ते। 
हुआ पहरुआ 
खलिहानों का 
चौकस है महुआ। 
*
१०.  शिरीष के फूल
*
खिलते हैं 
विपरीत समय में 
हम शिरीष के फूल। 
बाट जोहते 
द्वार खिड़कियाँ 
नयना पथराए। 
बीते मास 
खुशी के पल छिन 
द्वार नहीं आए। 
शिशुओं की 
किलकारी सहमी 
समय हुआ प्रतिकूल। 
आँगन, बाड़ी 
सिसक रहे हैं
बदल गया परिवेश। 
बड़े-बुज़ुर्गों को 
अब छोटे 
देते हैं आदेश। 
कली उदास,
सुगंधें गायब,
हँसते शूल बबूल। 
*
११.  जाल रूप का
.
नवयुवती फेंक रही
जाल रूप का!
कमनीय है
मादक है
उनका इशारा। 
नदिया का
जल लगे
जैसे शरारा। 
सुबह हुई लहराया
पाल धूप का। 
मौसम रंगीन है
इन्द्रधनुषी शाम। 
थरथराये लब लेते
उनका नाम। 
पनिहारिन चूम रही
भाल कूप का। 
*
१२. मजनू की लैला 
अंधियारा इस जग
में फैला है। 
आग उगलती
जल की धारा। 
काल कोठरी
में उजियारा। 
लोंगों का नेचर
हुआ बनैला है। 
धोखाधड़ी
बन गई फितरत। 
घिरी बबूलों 
से है इशरत। 
फ्लर्ट करे मजनू
की लैला है। 
*
१३. बंद हुए नाके 
महानगर में होते हैं
रोज धमाके। 
बदहवास सी
भीड़ भाड़ है!
दहशत का
पसरा पहाड़ है। 
अंधी खोहों में
किरणें न झाॅके। 
पुलिस कर रही
है पेट्रोलिंग। 
बिगड़ी बाजारों
की रोलिंग। 
एहतियात के नाते
बंद हुये नाके। 
*
१४. सुबह हुई
.
सुबह हुई
सूरज ने आँखें खोलीं।
.
पल हैं रंगीं
और शहतूती
सी बातें।
शबनम से
दिलकश मुलाकातें।
भरने उड़ान
पंछी ने
आँखें खोलीं।
.
काँटों ने
फूलों का
दिल बहुत दुखाया।
खिले-खिले बागों पर
पतझर का साया।
सच हो बेदाग़
सलाखें बोलीं।
***


सोमवार, 10 सितंबर 2018

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

इस हवा को क्या हुआ - रमेश गौतम

- शिवानंद सिंह सहयोगी
भाई रमेश गौतमजी ने अपने निवेदन में लिखा है ‘बचपन में अक्सर पिता की जन-संवेदना अवचेतन में कहीं संग्रहीत होती रहती थी जो बड़े होने पर निरंतर प्रबल होती गई।’ अपने परिवार की संस्कृति की धरोहर को सँजोना कोई आसान काम नहीं है। आजकल जो पुस्तकें निकल रही हैं, कहीं भी कोई पुस्तक अब ‘सरस्वती वन्दना’ से प्रारम्भ नहीं होती। यह एक पारिवारिक संस्कारों की ही देन है कि भाई गौतमजी ने ८० गीतो से समृद्ध अपनी पुस्तक का प्रारम्भिक गीत ही ‘अक्षरा वन्दना’ यानि कि ‘भाषा वन्दना’, कह सकते हैं कि ‘हिंदी वन्दना’ से की है, और लिखा है-
‘माँ अक्षरा अमृतमयी
हिंदी तुझे शत-शत नमन

स्वर और व्यंजन में निहित
तू ही प्रथम परिशोध है
तेरे बिना सम्भव कहाँ
अनुभूतियों पर शोध है
तो काल चिन्तन की कला
तू शब्द है, तू ही सृजन’
।।।।।।।
‘निर्गुण सगुण के रूप में
तू ने हरी मन की व्यथा
तू ने रचे साखी सबद
तू ने रची मानस-कथा
सत्संग से तू ही बनी
पद, सोरठा, दोहा, भजन’
कहा जा सकता है कि इस ‘अक्षरा वन्दना’ में रचनाकार ने हिंदी साहित्य के इतिहास, छंद निरूपण-व्यवस्था, रस-अलंकरण, रचना कर्म, संगीत का आरोह-अवरोह, बाँसुरी की तान आदि को एक बाँसुरीवादक की तरह ध्वनित करने का भरपूर प्रयास किया है। साखी, सबद, मानस-कथा, पद, सोरठा, दोहा, भजन और कामायनी के बिम्ब और प्रतीक का मानवीकरण हिंदी के इतिहास का विभाजन कालक्रम के आधार पर अपने गीत के ‘स्थायी’ और ‘अंतरों’ में रचनाकार ने कर दिया है। सुप्रसिद्ध भाषाविद डा। कमल सिंह ने अपने शोध से यह सिद्ध किया है कि ‘बाबा गोरखनाथ ही हिंदी के प्रथम कवि है’ और उन्होंने ही सर्व प्रथम ‘दोहा’ लिखा जिसे ‘सबदी’ का नाम दिया। रचनाकार ने बाबा गोरखनाथ, सूर, तुलसी, कबीर, विद्यापति, मीरा और जयशंकर प्रसाद के युग तक का सजीव दृश्य प्रस्तुत किया है। निर्गुण, सगुण का उल्लेख कर वेद-पुराण को भी एक जगह एकत्रित कर दिया है और यह उनकी अध्ययनशीलता का ही परिणाम है।
भाई गौतमजी ने पृथ्वी के प्राकृतिक आँचल को भी अपनी रचना का अंग बनाया है, जो उनके प्रकृति प्रेम को एक आकार देता है। जैसे कि ‘गुलमोहर के रंग वाले दिन’, ‘एक बादल’, ‘नदी की धार’, ‘शरद वधू’, ‘तीर्थयात्रा’, ‘आहटें’, ‘दो धूप के टुकड़े’, ‘कोहरे की मनमानी’, ‘नदी ठहरो’, ‘नदी अकेली रहती है’, ‘जानती है सच नदी भी’, ‘निर्वसन तरु’, ‘तन से नदी कामायनी’ आदि। प्रक्रति चित्रण तो ऐसा है कि लगता है कि रचनाकार प्रकृति की गोद में कहीं एकांत में बैठकर गीत को आकार दे रहा है-
‘बावली-सी खोजती-फिरतीं
दिशाएँ शाम को
लोग कितना भूल बैठे हैं
सुबह के नाम को
मन्दिरों के द्वार पर
ठिठकी खड़ी हैं अर्चनाएँ’
या
पुलों को बाँधने वालों
नदी की धार तो देखो
दिखाई अब नहीं देती
कहीं जलधार की कल-कल
बहुत रोई पटककर
पत्थरों पर सिर यहाँ हलचल
दिशा बदले बहावों पर
समय की मार तो देखो’
या
‘श्वेत शीतल छंद
लिखती हैं हवाएँ
गुनगुनाती ओस
भीगी प्रार्थनाएँ
गूँथ हरसिंगार वेणी में सुवर्णा
बँध गई सुप्रभात के आलिंगनों में’
भाई गौतमजी ने अपने गीतों में आजकल के पारिवारिक और सामाजिक संबंध के बीच की स्थिति को भी रचना का एक विषय बनाया है। समय के साथ भारतीय समाज भारतीय संस्कृति से बहुत दूर होता जा रहा है। भारतीय समाज, पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण आँख मूँदकर करने लगा है। विदेशी सभ्यता, भारतीय सभ्यता में ठीक उसी तरह घर बनाती जा रही है, जिस प्रकार हिंदी भाषा में अँगरेजी भाषा के शब्द। ‘बूढ़े माँ-बाप’, ‘मेरा भी है जन्म जरूरी’ आदि में यह प्रकरण देखा जा सकता है। माँ और बाप आजकल घर में एक बंधक के रूप में अकेलेपन के बीच जीवन व्यतीत कर रहे हैं और बच्चे उनकी खोज-खबर भी नहीं लेते। नौकरीपेशा पर जाना और वरिष्ठ जनों का ध्यान न रखना की समस्या भयावह रूप में आजकल देखी जाने लगी है। बहु और बेटे ‘माँ-बाप’ को अपने सिर का एक बोझ समझने लगे हैं। पिता या माँ यदि सेवानिवृत्ति भत्ता पाने वाले हैं और दो या तीन बच्चे हैं तो सबकी दृष्टि उनके भत्ते पर होती है। माँ-बाप से पुत्रों का संबंध एक दुधारू गाय की तरह का रह गया है। देखा तो अब यह भी गया है कि मौत के बाद माँ-बाप को मुखाग्नि देने के लिए कोई उपलब्ध नहीं है, घर में दुर्गन्ध फैलने पर पड़ोसी पुलिस को सूचना देता है और वह उसे अपने विवेक से ठिकाने लगा देती है। रचनाकार ने आधुनिक संबंधों का एक मानवीय और हृदय को द्रवित करनेवाला चित्र प्रस्तुत किया है-
धनकुबेर पुत्रों का
धन्य है समाज

रोती देहरी
मिला कैसा अभिशाप
भेज दिए वृद्धाश्रम
बूढ़े माँ-बाप
काटकर जड़ें
नापे अपना कद आज
।।।।।
शिखरों को छूने में
भूले बुनियाद
संबंधों का करते
धन में अनुवाद
नयनों का नीर मरा
आती कब लाज
अभावों की जिन्दगी जीने वाले समाज के एक शब्द-चित्र का मानवीकरण देखने योग्य है, जिसका माध्यम एक वृक्ष है, कोई पौधा नहीं। वृक्ष भी नन्हा सा। नाटे कद का कोई व्यक्ति और अत्यंत धनहीन भी, जो फुटपाथ पर झोंपड़ी बनाकर रहने के लिए विवश है। उस नन्हें वृक्ष के पास ऊँचे महलों में रहनेवाले धनी लोगों की भीड़ है, जिन्हें बरगदों की भीड़ से चिन्हित किया गया है। कहा जा सकता है कि यह नन्हा वृक्ष गाँव से शहर पहुँचा हुआ कोई व्यक्ति है, जो अपनी रोजी-रोटी के लिए शहर के आकाश को ताक रहा है और महलों वाले लोग उसके अस्तित्व को उछाल रहे है और जो उसकी समस्या है उसे दूर करने की कोई नहीं सोचता। रचनाकार की पकड़ सामाजिकता पर कितनी मजबूत है ये पंक्तियाँ उसकी कहानी बताती हैं-
‘एक नन्हा वृक्ष हूँ
अपने समय की धूप में
झुलसा हुआ

भाल पर आकाश ने
उपहार में टाँगा मरुस्थल
दूर होता ही गया
प्यासे अधर से बूँद भर जल
रेत पर बोया गया स्वर
प्रार्थना का
बादलों ने कब छुआ’
गौतमजी ने राजनीति के राजनीतिकरण के खट्टे नीबूं को भी हथेलियों से दबाकर बहुत निचोड़ा है। राजनेता केवल अपने और अपने परिवार का हित सोचते हैं। समाजवाद या साम्यवाद एक नारा बनकर रह गया है और केवल वोट प्राप्त करने का एक साधन भर है। आम आदमी की बातकर, आम आदमी के सिर पर एक बोझ बन जाते हैं नेता। गरीबी मिटाने वाले अपनी गरीबी मिटाने में सफल हो जाते हैं किन्तु गरीबों की झोंपड़ी को एक टिन की चादर भी नहीं दिला पाते, आश्वासन के सिवा, छत की बात तो दूर की कौड़ी है। समाजवाद और साम्यवाद जो पूँजीवाद का विरोध करते हैं, पूँजी के महल में सो रहे हैं और दो जून की रोटी सड़क पर कल भी थी, आज भी है। आम आदमी की आवाज को जोर से उठाया है गीतकार ने अपने गीतों में। भाई गौतमजी कहते हैं-
‘छोड़-छाड़ रात को गई
चाँदनी पता नहीं कहाँ
बूँद-बूँद प्यास दिन जिया
बाँधकर हथेलियाँ यहाँ
फाइलों में खोदते कुआँ
देखते महोदय को हम’
या
‘आँधियाँ
सहता रहा दिन का किला
रात को हर बार
सिंहासन मिला
दें किसी सोनल किरण
को दोष क्या
जब अँधेरे ही चुने’
या
‘मर्म कहाँ छू पाते मन का
अंश किसी भाषण के
अब निष्कर्ष नहीं मिलते हैं
अनशन-आन्दोलन के
कागज की नावें तैराते
लहरों की हलचल में’
या ‘डालकर दो धूप के टुकड़े
हमारे द्वार पर
सूर्य तुम भी दूर हमसे हो गये’
किन्तु इतना होते हुए भी गीतकार का मन निराश नहीं है, वह जानता है ‘नर हो न निराश करो मन को’ और इन दुरभिसंधियों से दो-दो हाथ करने का निश्चय करता है और अपनी बात को ‘एक नन्हें दीप’ से कहलवाता है, इन छद्मनाम छद्मवेशी नेताओं को। जैसे कि-
‘चक्रवातों से लड़ेगा
फिर समर में
एक नन्हें दीप ने निश्चय किया’
या
‘मन में करो उजाला
खोलो रोशनदान निरीक्षक
भीतर की सँकरी गलियों में
तम है बहुत अभी तक
धूप पहनकर
नहीं निकलते
इन अँधियारों में क्यों’

भाई गौतमजी ने ‘मेरा भी जन्म जरूरी है’ के माध्यम से ‘भ्रूणहत्या’ की भी ‘पूछताछ’ और ‘जाँच पड़ताल’ अपने शब्दों में ठीक तरह से की है। यह कौन कराता है ‘भ्रूणहत्या’ माँ या पिता। मेरा क्या दोष है ? मेरा एक गीत है ‘भ्रूण कन्या’, ‘भ्रूण कन्या’ कहती है ‘कन्या होकर, हमने कोई पाप किया है / तुमने, उसने, सबने पश्चाताप किया है / पैदा होती तो पुरुष की आधी होती मैं / रानी लक्ष्मीबाई, इंदिरा गांधी होती मैं / होती राधा, हरती बाधा, आँधी होती मैं / खेल खेलकर, फिर कैसा प्रलाप किया है / कन्या होकर, हमने कोई पाप किया है।’ भाई गौतमजी भी कहते हैं-
‘माँ मैं भी दुनिया
देखूँगी
देना दो नयना
मेरा क्या है दोष
पक्ष माँ मेरा सुन लेती
जीवन देने से पहले
क्यों मृत्युदण्ड देती
मेरा भी है
जन्म जरूरी
माँ सबसे कहना’
चिंता है भाई गौतमजी को घर से विलुप्त होती गौरैयों की, कहते हैं विकास के नाम पर बढ़ते इस महानगर के विस्तार से –
‘गौरय्या भी एक घोंसला
रख ले
इतनी जगह छोड़ देना महानगर’

‘माँ’ केवल ‘माँ’ होती है। ’माँ’ को भी अपने शब्दों में स्मरण किया गया है भाई गौतमजी ने-
‘माँ तूने ही
पंख दिए हैं
तूने ही आकाश दिया है
बूँद-बूँद
तू रिक्त हुई माँ
मैंने सुख भरपूर जिया’

‘पिता’ और ‘माँ’ एक सिक्के के दो पहलू हैं, ‘पिता’ को स्थान न देना जीवन को अधूरा छोड़ने के समान था, यह कैसे सम्भव था। भाई रमेश गौतमजी ने ‘पिता’ को भी उचित स्थान दिया है अपने शब्दों में। कहते हैं-
‘आकाशकुसुम तोड़े
लहरों को बाँध लिया
अंतर में रहे हिमालय सा विश्वास पिता’
‘माँ’ और ‘पिता’ के लिए इतने भावुक और मार्मिक कहन के उपरान्त और कुछ अवशेष नहीं बचता है। समग्रत: कहा जा सकता है कि भाई गौतमजी नवगीत के माध्यम से समाज के हर विसंगति को लपेटे में ले रहे हैं और इनके नवगीत हिंदी की मुख्यधारा के गीत हैं जो हिंदी साहित्य की एक धरोहर हैं। ‘इस हवा को क्या हुआ’ के विषय में जनमानस की सोच ही पढ़कर बताएगी कि यह ‘हवा’ पाठक के मन को कितना स्पर्श करती है किन्तु यह कृति समीक्षकों को विवेचन-विश्लेषण के लिए उन्हें उकसाएगी अवश्य। भाई गौतमजी नवगीत के लिए जो कर रहे हैं और भविष्य में करेंगे, वह हिंदी साहित्य में समादृत होगा।
२७.३.२०१८ 
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गीत नवगीत संग्रह- इस हवा को क्या हुआ, रचनाकार- रमेश गौतम, प्रकाशक- अयन प्रकाशन, १/२०, महरौली, नई दिल्ली-११००३० , प्रथम संस्करण, मूल्य- रु. ४००, पृष्ठ- २०८, समीक्षा- शिवानंद सिंह सहयोगी, आइएसबीएन संख्या-९७८-८१-७४०८-९९०-८

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

जहाँ दरक कर गिरा समय भी - राघवेन्द्र तिवारी

- डॉ. जगदीश व्योम
‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ राघवेन्द्र तिवारी का नवगीत संग्रह है जिसमें उनकी विविधरंगी एक सौ चौदह रचनाएँ हैं । राघवेन्द्र तिवारी के पास अनुभव का विशाल खजाना है तो लोक जीवन की अनुभूतियाँ भी हैं। वे जो कुछ कहना चाहते हैं उसे कहने के लिए उनके पास टटके प्रतीक और मुहावरे हैं। पारिवारिक रिश्तों के बीच खट्टे मीठे अछूते अनुभव उनके नवगीतों में एक अलग किस्म की ताजगी का अहसास कराते हैं। छन्द पर उनकी पकड़ गजब की है यही कारण है कि वे गीत की लय कहीं टूटने नहीं देते हैं। वे इस तरह से गीत रचते हैं मानो बात कर रहे हों ।

गाँव के जीवन में बहुत सारी विविधताएँ होती हैं, वहाँ सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं होता है तमाम जगह ऐसे आँसू होते हैं जिन्हें हम देख नहीं पाते। कर्ज का रोग इतना भयानक है कि वह गाँव के भरे पूरे परिवारों को निगल जाता है, शुरू में तो यह अच्छा लगता है पर जब यह किसी अजगर की तरह जब अपने षिकार को अच्छी तरह से जकड़ लेता है तो फिर उसे कोई बचा नहीं पाता। कर्ज की यह त्रासदी जीते जागते इंसान को तोड़ कर रख देती है- 
खेत से लौटी नहीं अम्मा  
कर्ज में दोहरी हुई दालान से  
पिता चिन्तित 
एक टूटी हुई औरत खोजते हैं । पृ०- १७

गाँव के जीवन में तो कठिनाइयाँ हैं ही लेकिन शहरों की अपनी अलग तरह की समस्याएँ हैं। यहाँ भीड़ तो है पर अपनापन गायब है। यह किसी भोपाल, इन्दौर, कानपुर, लखनऊ या दिल्ली की नहीं बल्कि कमोबेश सभी शहरों की समस्या है, सब अपने में खोये हुए हैं, लगता है हर गली में अविवेक पसरा हुआ है, समूचे मौसम में ही तपेदिक फैल गया है जिसे देखकर एक संवेदनशील व्यक्ति को लगता है वह कहाँ आ गया- 
शब्द बौने हैं  
झरोखे में कहीं भी  
मुड़ी मेहराबें  
हवा रुकती नहीं भी  
गैल में अविवेक  
मौसम में तपेदिक 
इस शहर में हम 
कहाँ से आ गये पृ०-२०

आपस के मखमली रिश्ते इतने बारीक होते हैं कि उनके धागे कहाँ कहाँ से निकलते हैं यह खोज पाना मुश्किल हो जाता है हाँ उन्हें महसूस किया जा सकता है। आपसी गिले शिकवे मन की ग्रंथियों को सुलझाते रहते हैं। ऐसे गीत अकेले में गुनगुनाने के लिए होते हैं-
अधिक तो देते नहीं कुछ  
कम कभी करते नहीं  
कौन से स्कूल में 
आखिर पढ़े हो  
तनिक भी डरते नहीं  
तुम वहाँ से थे जहाँ  
से शब्द होते थे शुरू  
दूब तुम थे, काँस तुम थे  
और थे खस, गोखुरू  
कौन से उपकार की  
खातिर खड़े हो 
बात से फिरते नहीं  [पृ०-२२]

घर में अम्मा का न होना कितना सूनापन भर देता है इसे तब जाना जा सकता है जब अम्मा चली जाती है। इस अभाव को केवल और केवल महसूस किया जा सकता है-
अम्मा बिन घर सूना-सूना  
ताका करता 
लुटी राज सत्ता को जैसे  
देख रहा हो  
सैनिक कोई महासमर में [ पृ०-२९]

जिसे देखो वही असन्तुष्ट दिखाई देता है, अपने परिवेश से, सामाजिक व्यवस्था से, राजनीति से, व्यवस्था से परन्तु अपने समय की व्यवस्थाओं से सन्तुष्ट न होकर कंधे उचकाते रहना और स्वयं कोई निदान न खोजकर औरों को गरियाते रहने से कुछ नहीं होने वाला है, यह यथार्थ है। भीड़ का हिस्सा न बनकर कुछ करना ही इसका एकमात्र निदान है-
इस तरह कंधे न उचकाओ 
हो सके तो भीड़ से हटकर  
नया करतब दिखाओ  [पृ०-४४]

हम यह जानते हैं कि क्या उचित है और क्या अनुचित है फिर भी हम साहस नहीं जुटा पाते हैं कि सच का साथ दे सकें, रचनाकार प्रकारान्तर से बदजमीजों का विरोध करने का साहस जुटाने की ही बात कह रहा है- 
कलफ जैसे धुल रहे हैं  
हम कमीजों के  
मानते आभार आये 
बदतमीजों के  [पृ०-४६]

एक खेतिहर के लिए खेती ही उसका सब कुछ है जब खेती उजड़ती है तो एक किसान टूट जाता है और केवल किसान ही नहीं टूटता है समूचा परिवार चिन्ता के भँवर में बह जाता है- 
चिन्तायें लिये 
खेत की  
कहाँ चली गई 
केतकी ?  [पृ०-५४]

गिरता हुआ जल का स्तर बेहद चिन्ता का विषय है। यहाँ जल के स्तर की चिन्ता के साथ ही जीवन में व्यापत चिन्ता की ओर भी संकेत किया गया है। राजधानियों के तालाब जब आपसी रंज में डूब जायें तो फिर मछलियों को चिन्ता तो होगी ही । तालाब हमारी जल संस्कृति के भी परिचायक रहे हैं ये केवल तालाब ही नहीं होते थे पूरी संस्कृति और सभ्यता के जीवन्त रूप भी होते थे। उनका विलुप्त हो जाना शुभ नहीं है- 
पूछती मछली  
बता दो पता पानी का 
रंज में डूबा हुआ तालाब है  
क्यों राजधानी का  [ पृ०-५५]

दिन रूपी चिड़िया भला बहेलिये के हाथ कहाँ लगती है, समय गतिशील है यह किसी के लिए रुकता नहीं है। इस दार्शनिक विचार को इतनी सहजता से व्यक्त करना रचनाकार के भाषा सामर्थ्य का परिचायक है-
बहेलिये ! 
कहाँ लिये तू  
अपना जाल  
दिन-चिड़िया  
उड़ चली  
ले अपनी लग्गियाँ सम्हाल   [पृ०-६७]

पहाड़ों पर हुई त्रासदी को भुलाने में सदियाँ लगेंगीं। लेकिन इस त्रासदी के केन्द्र में कहीं न कही मानव ही है, पहाड़ों से वृक्षों की अंधाधुंध कटाई से पहाड़ खोखले हो गये, हमें इस ओर विचार करने की दिशा इस नवगीत से मिलती है-
पल भर में जल में 
समा गये 
वृक्ष रहित खोखले पहाड़  
अब करें क्या बूढ़े हाड़   [पृ०-९२]

घर परिवार में बड़े बुजुर्गो का यूँ तो सम्मान किया जाता है, उनका ध्यान भी रखा जाता है परन्तु बुजुर्गो के प्रति उपेक्षा भी कम नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि यह समस्या पहले नहीं थी, पहले भी उपेक्षा होती थी परन्तु अब कुछ अधिक होने लगी है। गाँवों में भी इस तरह की उपेक्षा बूढ़ों के प्रति देखने में आ जाती है । कई बार तो घर के बच्चों को भी उनके पास नहीं जाने दिया जाता है । तमाम बूढ़ी स्त्रियों को डायन तक बता दिया जाता है । रचनाकार ने इस त्रासदपूर्ण स्थिति का इतना जीवन्त चित्रण किया है कि शायद ही कहीं अन्यत्र देखने को मिले। भाषा का जैसा सहज और जीवन्त रूप इस नवगीत में है, वह रचनाकार को एक सिद्ध नवगीतकार के रूप में लाकर खड़ा कर देता है। नवगीत का एक एक शब्द बोलता हुआ प्रतीत होता है- 
बापू के चौथे की चिन्ता  
बेटा करता है  
अच्छा लगता बुड्ढा 
मर, घर खाली करता है 
खाँस-खखार सुना करती थी 
जब जब घर वाली 
ताने दे-दे कर परोसती थी  
वह हर थाली 
‘इनको आग तपाकर धोना’  

कहती महरी से 
चीजें स्वच्छ रहें घर में 
तब घर, घर लगता है 
छोटे बच्चों को आज्ञा थी 
उधर नहीं जाना 
इस बुड्ढे में बुरी आत्मा है 
घर ने माना 
तभी इस उमर तक जिन्दा है  
कब का मर जाता 
बिना मरे ही नर्क भोगता  
यह यम लगता है 
बाप मरे के अग्रिम धन के 
चक्कर में बेटा.....। [ पृ०- १ १०] 

गीत और नवगीत के अन्तर पर प्रायः चिन्तन, मनन और विमर्ष होता रहता है । नवगीत, गीत का ही अगला संस्करण है, गीत में जब अपने आस-पास होने वाली गतिविधियों को ऐसी भाषा और शैली में अभिव्यक्त किया जाय जिसमें ताजगी हो, नयापन हो, समसामयिक सन्दर्भ हों, वर्तमान मुहावरा हो, अपने साथ-साथ जन सामान्य की भी चिन्ता हो तो वही नवगीत है। कुल मिलाकर राघवेन्द्र तिवारी का यह नवगीत संग्रह समय सापेक्ष परिस्थितियों का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। समाज की विविध परिस्थितियों, दुख-दर्द, आशा-निराशा, बढ़ती महत्वाकांक्षाओं और गिरते मूल्यों का ऐसा सजीव चिट्ठा है जो पाठक को झकझोरता है। लय में पिरोए गए ये शब्द युगों युगों तक अपने समय की कहानी कहते रहेंगे। 
१९.७.२०१५ 
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गीत- नवगीत संग्रह - जहाँ दरककर गिरा समय भी, रचनाकार- राघवेन्द्र तिवारी, प्रकाशक- पहले पहल प्रकाशन, २५-ए, प्रेस काम्प्लेक्स, भोपाल,  प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये ३००/-, पृष्ठ- ११६, ISBN ७८.९३.९२२ १२.३६.९  समीक्षा - डॉ. जगदीश व्योम।

समीक्षा

कृति चर्चा:

जिस जगह यह नाव है- राजा अवस्थी

सनातन सलिला नर्मदा के अंचल में आधुनिक हिंदी के उद्भव काल से ही साहित्य की हर विधा में सतत सत्साहित्य का सृजन होता रहा है। वर्तमान पीढ़ी के सृजनशील नवगीतकारों में राजा अवस्थी का नाम साहित्य सृजन को सारस्वत पूजन की तरह समर्पित भाव से निरंतर कर रहे रचनाकारों में सम्मिलित है। 

हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ हस्ताक्षर डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' तथा नर्मदांचल के वरिष्ठ साहित्य साधक श्यामनारायण मिश्र द्वारा आशीषित 'जिस जगह यह नाव है' ७८ समसामयिक, सरस नवगीतों का पठनीय संग्रह है। मध्य प्रदेश के बड़े जंक्शन कटनी में बसे राजा के नवगीत विंध्याटवी के नैसर्गिक सौंदर्य, ग्राम्यांचल के संघर्ष, नगरीकरण की घुटन, राजनीति के दिशाभ्रम, आम जन के अंतर्द्वंद तथा युवाओं के सपनों  के बहुदिशायी रेलगाड़ियों में यात्रारत मनोभावों को मन में बसाते हैं। करुणा और व्यथा काव्य का उत्स है. गाँव की माटी की व्यथा-कथा गाँव के बेटों तक न पहुँचे यह कैसे संभव है? 
आज गाँव की व्यथा बाँचती / चिट्ठी मेरे नाम मिली 

विधवा हुई रमोली की भी / किस्मत कैसी फूटी 
जेठ-ससुर की मैली नज़रें / अब टूटीं, तब टूटीं 

तमाम विसंगतियों से लड़ते-जूझते हुए भी अक्षर आराधना किसी सैनिक के पराक्रम से कम नहीं है। 
चंदन वन काट-काट / शव का श्रृंगार करें 
 शिशुओं को दें शव सा जीवन
यौवन में सन्नाटा / मरघट सा छाता है 
 आस-ओस दुर्लभ आजीवन 
यश अर्जन को होता 
भूख को हमारी, साहित्य में उतारना 

माँ शारदा को क्षुधा-दीप समर्पित करती कलम का संघर्ष गाँव और शहर हर जगह एक सा है। विडम्बनाओं व विसंगतियों से जूझना ही नियति है-  
स्वार्थ-पोषित आचरण को / यंत्रवत निष्ठुर शहर को / सौपने बैठा 
भाव की पहचान भूले / चेहरे पढ़ना कठिन है 
धुंध, सन्नाटा, अँधेरा / और बहरापन कठिन है 
विवशताएँ, व्यस्तताएँ / ह्रदय में छल वर्जनाएं / थोपने बैठा 

अनचाही पीड़ाएँ प्रकृति प्रदत्त कम, मनुष्य रचित अधिक हैं-
गाँव के पंचों ने मिलकर / फिर खड़ी दीवार की  
फिर वही हालत, नियति / वह ही प्रकृति के प्यार की 
किशनवा-रधिया की / घुटती साँस का मौसम।

किसी समाज के सामने सर्वाधिक चिंतनीय स्थिति तब होती है जब बिखराव के कारण मानव-मन दूर होने लगें। राजा इस परिस्थिति का अनुमान कर अपनी चिंता नवगीत में उड़ेल देते हैं-  
अंतस के समतल की / चिकनाई गायब अब 
रोज बढ़े, फैले, ज़हरीला बिखराव 
रिश्तों का ताप चुका / आ बैठा ठंडापन 
चहक-पुलक में में पसरा जाता ठहराव
कैसी इच्छाओं के / ज्वार और भाटे ये 
दूर हुए जाते मन, सदियों के द्वीप 

विषमताओं के कुम्भ में सपनों की आहट बेमानी प्रतीत होने लगे तो नवगीत मन की पीड़ा को स्वर देता है -

किसलिए सजें / सपने, तो बस विशुद्ध रेत हैं 
नरभक्षी पौधों से / आश्रय की आशा क्या?
सब के सब इक जैसे / टोला क्या, माशा क्या?
कोई भी अमृत फल / इन पर आ पायेगा?
छोडो भी आशा, ये बेंत हैं
बेशर्मी जेहन से / आँखों में उतरी 
ढंकेंगी कब तक / ये पोशाकें सुथरी 
बच पाना मुश्किल है / ये भोंडे संस्कार 
दम लेंगे हंसकर ही, ये करैत हैं 

राजा केवल नाम के ही नहीं अनुभूतियों और अभिव्यक्ति-क्षमता के भी राजा हैं। लोकतंत्र में भी सामंतवादी प्रवृत्तियों का बढ़ते जाना, प्रगति की मरीचिका मैं आम आदमी का दर्द बढ़ते जाना उनके मन की पीड़ा को बढ़ाता है- 
फिर उसी सामंतवादी / जड़ प्रकृति को रोपता 
एक विध्वंसक समय को / हाथ बाँधे न्योतता
जड़ तमाचे पर तमाचे / अमन के मुँह पर 
पढ़ कसीदे पर कसीदे / दमन के मुँह पर  
गर्व से मुस्की दबाये / है प्रगति का देवता 

मुहावरेदार भाषा राजा अवस्थी के नवगीतों की जान है। रेवड़ी बेभाव बाँटी / प्रगति को दे दी धता, ढिबरी का तेल चुका / फैला अँधियार, खेतिहर बिजूकों से / भय खाएं राम, मस्तक में बोकर नासूर / टोपी के ये नकली बाल क्या सँवारना?, संविधान के मकड़जाल में / उलझा अक्सर न्याय हमारा, तार पर दे जीवन आघात / बेसुरे सुर दे रहे धता, कुँवारी इच्छाएं ऐसी / खिले ज्यों हरसिंगार के फूल जैसी अभिव्यक्तियाँ कम शब्दों में अधिक अनुभूतियों से पाठक का साक्षात करा देती हैं। 

ग्राम्यांचली पृष्ठभूमि राजा अवस्थी को देशज शब्दों के उस ख़ज़ाने से संपन्न करती है जो शहरों के कोंवेंटी कवि के लिए आकाश कुसुम है। बरुआ, ठकुरवा, छप्पर, छुअन, झरोखा, निठुराई, बिजूका, झोपड़, जांगर. कहतें, पांग, बढ़ानी, हिय, पर्भाती, सुग्गे, ढिबरी, किशनवा, कुछबन्दियों, खटती, बहुँटा, अंकुई, दलिद्दर, चरित्तर, पैताने आदि ग्रामीण शब्दों के साथ उर्दू लफ्ज़ खातिर, रैयत, खबर, गुजरे, बैर, ज़ुल्मों, खस्ताहाल, नज़रें, ख्याल, आमद, बदन, यकीन, ज़ेहन, नुस्खे, नासूर, इन्तिज़ार, ज़हर, आफत, एहसान, तकादा, एहसान, चस्पा, लफ़्फ़ाज़ी आदि मिलकर उस गंगो-जमुनी जीवन की बानगी पेश करते हैं जिसमें शुद्ध हिंदी के अनुपूरित, प्रतिकार, अंतर्मन, उल्लास, ग्रसित, व्याल, आतंकित, प्रतिबंधित, मराल, भ्रान्ति, आलिंगन, उत्कंठा, वीथिकाएँ, वर्जनाएं,अंतस, निष्कलुष, बड़वानल, हिमगलित, संभरण आदि पुलाव में मेवे की तरह प्रतीत होते हैं। राजा अवस्थी ने शब्द-युग्मों की शक्ति और उपदेयता को पहचाना और उपयोग किया है। खबर-दबर, जेठ-ससुर, माँ-दद्दा, रात-दिन, हम-तुम, मन-मान, आस-ओस, उठना-गिरना, साँझ-सँझवाती, लड़ी-फड़ी, डगर-मगर, सुख-दुःख, घर-गाँव, सुबह-शाम, दोपहरी-रात, नून-तेल, आस-पास, दूध-भात, मरते-कटते, चोर-लबार, अमन-चैन, चहक-पुलक, सीलन-सन्नाटे, दंभ-छ्ल्, है-मेल, हवा-पानी, प्रीति-गीति-रीति, मोह-ममता-नेह, तन-मन-जेहन आदि शब्द युग्म इन नवगीतों की भाषा को जीवंतता देते हैं। 

राजा अवस्थी की प्रयोगधर्मी वृत्ति  फाइलबाजों, कंठ-लावनी, वर्ण-कंपित, हिटलरी डकार, श्रध्दाशा, ममता की अलगनी, सुधियों की डोर, काँटों की गलियाँ, मुस्कानों के झोंके, शब्दों का संत्रास, पीड़ाओं के शिलाखंड जैसे शब्दावलियों से पाठक को बाँध पाये हैं। शब्द-सामर्थ्य, भाषा-शैली, नव बिम्ब, नए प्रतीक, मौलिक कथ्य की कसौटी पर ये गीत खरे उतरते हैं। इन नवगीतों में मात्रिक छंदों का प्रयोग किया गया है। दो से लेकर चार पंक्तियों तक के मुखड़े तथा आठ पंक्तियों तक के अंतरे प्रयुक्त हुए हैं। नवगीतों में अंतरों की संख्या दो या तीन है।

हिंदी के समर्थ समीक्षक डॉ. विजय बहादुर सिंह ने इन गीतों में 'समकालीन जीवन व् उसके यथार्थ के प्रति अत्यधिक सजगता एवं संवेदनशीलता, स्थानीयता के रंगों से  कुछ अधिक रंगीनियत' ठीक ही लक्षित की है। इस कृति के प्रकाशन के एक दशक बाद राजा अवस्थी की कलम अधिक पैनी हुई है, उनके नवगीतों के नये संकलन की प्रतीक्षा स्वाभाविक है।
२१.३.२०१६ 
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गीत- नवगीत संग्रह - जिस जगह यह नाव है, रचनाकार- राजा अवस्थी, प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन, ई २८ लाजपत नगर, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद २०१००५। प्रथम संस्करण- २००६, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ-१३६ , समीक्षा- संजीव सलिल।

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

गीत पर्व आया है - राजेन्द्र गौतम

- माहेश्वर तिवारी
यह देख कर खुशी होती है कि श्री राजेन्द्र गौतम ऐसे कवियों की संदिग्ध भीड़ से अलग-थलग खड़े हैं, जो कभी किसी और की रचना से कोई मुहावरा तोड़ लेते हैं तो कभी किसी रचना के कथ्य को अपनी थिगलीदार भाषा तथा शिल्प में पिरो कर अपने मौलिक कृतित्व के नाम पर बिछा देते हैं। श्री गौतम का कथ्य ही अपना नहीं है बल्कि काव्य-भाषा भी किसी रचनात्मक ऊष्मा में तपी है। उन्होंने अपने समकालीन रचनाकारों से भाषा तथा काव्य के क्षेत्र में कुछ भी नहीं लिया है। उनका सारा रचना-संसार स्वनिर्मित तथा स्वार्जित है।

अपने आसपास पर पड़ते आधुनिक दबावों को वे आन्तरिक निजता से महसूस करते हैं। जीवनानुभवों से सीधा साक्षात्कार करते हैं। उन्हें अपनी रचनामुखी संवेदनात्मक उँगलियों से गढ़ कर काव्यात्मकता से जोड़ते हैं। इसी कारण उनकी रचनात्मकता से गहरी आत्मीयता की ऊष्मा मिलती है। रचनात्मकता के साथ आत्मीयता के पूर्ण लगाव की यह प्रक्रिया एक परिपक्व काव्य-दृष्टि से ही संभव है।

गौतम का रचनात्मकता से यह आत्मीयतापूर्ण सलूक सहज ही अपनी ओर ध्यान आकर्षित करता है-
अब सबीलों पर टंगे हैं
फूल से महके हुए दिन
भीड़ के पहियों तले
कुचली हुई पाँखें
धुँध में पथ खोजती
कुहरा गई आँखें
समय की हथकड़ी पहने
गंध से बहके हुए दिन

इन गीतात्मक पंक्तियों में अभिव्यक्त छटपटाहट व करूणा निजी न होकर सामूहिक है। निजता इसमें एक अन्तर्लय की तरह गुँथी होकर काव्यात्मकता की वृद्धि करती है। अनुभूति की प्रामाणिकता अभिव्यक्ति को गहरी अर्थसम्पन्नता से लैस करती हुई उसे रचनात्मक विस्तार देती है क्योंकि रचनाकार का यह अनुभव सामूहिक चिंताओं और संघर्षों से जुड़ा हुआ है इसलिए रचनाकार जगह-जगह संकल्पों के साथ खड़ा दिखता है-
संकल्प के हैं गूँजते ये छन्द अम्बर में
हम आज बोयेंगे मलय की गंध ऊसर में

यह किसी तरह का बड़बोलापन नहीं है। रचनात्मक विश्वास है। सृजनात्मकता के लिए सब कुछ दाँव पर लगा देने का संकल्पूर्ण उछाह है। इस तरह का संकल्प जब उठ खड़ा होता है तो कहीं कुछ थिर नहीं रह पाता। सन्नाटा टूटता है और चारों तरफ एक सर्जक थिरकन दौड़ने लगती है-
जब से हवाओं ने सुनी आवाज मौसम की
होने लगी हलचल तभी से थिर सरोवर में

आयतित आधुनिक बोध के दबाव में तमाम सारे मानवीय-मूल्य, आत्मीयता की गंध में नहाये रिश्ते कुचल कर किस तरह टूट-फूट रहे हैं, यह महानजी संस्कृति के पोषकों तथा व्यवस्थावादियों की मोटी चमड़ी को भले न महसूस हो किंतु एक संवेदनशील रचनाकार मात्र इनका तटस्थ द्रष्टा नहीं बना रह सकता। उसे इस नये महाभारत में एक और धृतराष्ट्र बनना स्वीकार नहीं है। इसीलिए तो उसकी शिराओं में टूटन की अप्रीतिकर झनझनाहट महसूस होती है-
इस कदर ढुलमुल हुए रिश्ते
फुसफुसे कैंचुल हुए रिश्ते।।
तीर पर संवेदना ठहरी
एक टूटा पुल हुए रिश्ते ।।
खो गई राहें अँधेरों में
चिरग्रों से गुल हुए रिश्ते

जीवन्त संबंधों की उपस्थिति का एहसास रोशनी की एक फाँक है, जिससे देहरी-आँगन सब जगर-मगर हो उठते हैं और उनका बुझना ही तो ठहराव है, अँधेंरा है जो सारी सक्रियताओं को निरस्त कर देता है।

स्वाधीनता के लिए यातनापूर्ण संघर्ष करने वाली पीढ़ी के ही नहीं बल्कि स्वातंत्र्योत्तर काल में जन्म लेने वाली पीढ़ियों के भी बेहतर जीवन-स्थितियों के तमाम स्वप्न साकार-सगुण होने से पूर्व ही भंग हो चुके हैं। तमाम सारी आशाएँ, आकांक्षाएँ भ्रुण-हत्या का अभिशाप झेल रही हैं। इस त्रासदी को झेलना उनकी नियति बन चुकी है। इस स्वप्न-भंग के कारणों का जब हम विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि इसके पीछे घटिया राजनीतिक छल की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। लोकतंत्र में ’लोक‘ की हिस्सेदारी, उसकी सक्रियता लुप्त हो गई और केवल ’तंत्र‘ हमारी जेबों व मुट्ठियों में भर दिया गया है। राजनीति का यह छल रचनात्मक मन को उस द्वापर-प्रसंग की ओर खींच ले जाता है, जिसमें परमवीर कर्ण से उसकी शक्ति के अजेय स्त्रोत कवच-कुण्डल माँग लिये गए थे-
लो माँगने को कवच-कुण्डल का तुम्हीं से वर
उगने लगे हैं मंच से फिर भाषणों के स्वर

उसी द्वापर-परम्परा की तरह इस देश का वयस्क मताधिकार बार-बार निष्कवच किया जाता रहा है। स्पष्ट है कि श्री गौतम का कवि-व्यक्तित्व केवल उनका द्रष्टा ही नहीं, भोक्ता भी है।

 गीत-कवि राजनीति के इन व्यवसायियों की तुलना अँधेरे की लहरों से करता है और संवेदनात्मक पड़ताल से उसे इस बात की दृढ़ प्रतीति होती है कि उजाले का पुल इन्हीं के द्वारा तोड़ा गया है-
पुल ज्योति के हैं तोड़ती लहरें अँधेरों की
देगा नहीं कोई तुम्हें सूरज नय़ा लाकर

स्वाभाविक है कि ऐसे लोगों से नई सुबह या नए सूरज की अपेक्षा रखना एक और स्वप्न-भंग से गुजरना भर है।
और जब नई सुबह की आहटों से लोग निराश हो चुके हों तो सुबह की स्फुरणकारक गुनगुनाहट कोई कहाँ से सुन सकता है। इसकी अपेक्षा चारों ओर एक गहरा सन्नाटा ही अपने को खोलता नज़र आता है। सुबह की यह गुनगुनाहट ही तो नये उजालों की पदचाप है और पदचापें तो रचनाकार के शब्दों में गुमसुम पड़ी हैं-
सूर्यमुखी गीतों की
गुमसुम हैं पदचापें
शिथिल पवन-पंखों पर
तिरतीं बोझिल सांसें

साँसों का यह बोझिलपन अपने आस-पास में घटित होते हुए-से एक ठंडे अजनबीपन से जोड़ता है। मन के विश्वास को संदेहों, द्विविधाओं से घेर लेता है परिणामतः कवि प्रश्नाकुलता के लिए अपनी रचना-यात्रा की ओर कदम बढ़ाते हुए कहता है-
तय करें
कैसे भला अब
परिचयों का यह सफर
अजनवीपन
काँच-सा जब
राह में जाए बिखर
चुप्पियों की ही चुभन को
जिंदगी भर हम सहें।

कविता के उद्भव काल से समकालीन लेखन तक उषा-काल, प्रातः बेला तथा संध्याकाल को विषय बनाकर हजारों कविताऐं लिखी गई हैं और भविष्य में भी काव्यक्षेत्र से यह विषय निर्वासित नहीं किया जाने वाला है किन्तु नया रचनाकार यदि उन्हें नई ताजगी और अपने अन्दाजे-बयाँ में प्रस्तुत करता है, तो विषयगत दुहराव भी पढ़ने, सुनने और गुनने में सर्वथा नया प्रतीत होने लगता है। संध्या को शब्दांकित करने के लिए ’पगडंडियों से आहट की खुशबुओं का उड़ना‘ जैसे काव्यात्मक चित्र एक गतिशील तथा नितांत टटके बिम्ब का सृजन श्री गौतम की काव्य-प्रतिभा का सार्थक प्रमाण है-
उड़ गई-
पगडंडियों से
खुशबुऐं सब आहटों की।

इस गीत की अगली पंक्ति में कवि आहटों की धेनुओं का प्रयोग करके वैदिक सांध्य-ऋचाओं के काव्य-सम्पन्न संसार की ओर खींच ले जाता है तथा इस तरह अपने काव्य की ’क्लासिकी‘ शक्ति का परिचय देता है।

प्रकृति श्री गौतम की रचनाओं में बार-बार उभर कर सामने आने वाला एक महत्वपूर्ण चरित्र है। किन्तु यहाँ प्रकृति द्विवेदी-युगीन कवियों के काव्य-संसार में चित्रित प्रकृति से सर्वथा भिन्न है। प्रकृति से गहरी रागात्मकता के बावजूद यहाँ कवि प्राकृतिक सुषमा पर मुग्धता का शिकार नहीं है। यहाँ प्रकृति के माध्यम से समकालीन मनुष्य की चिंताओं, उल्लासों तथा अभिशप्त संसार का ही एक अंग है, रचनाकार की अंतरंग है, सारी प्रतिकूलताओं की सहभोक्ता है, रचनात्मक सक्रियता की साझेदार है-
साँझ की
यह वृद्ध बेला
लौटती पगडंडियों से
मौन की थाम्हे उँगलियां
झील सहमी
छोड़ पीछे
उड़ चले सारस-युगल सब
एक चुप्ती बस थम्ही है
जे दिगन्तों तक
गई थीं
गूँजकर केंकार ध्वनियाँ
स्तब्ध हो हिम-सी जीम हैं
 अपने पहले संग्रह में ही श्री गौतम के गीत-कवि ने प्रखरता और परिपक्वता की जितनी मंजिलें तय कर ली हैं वह तमाम दूसरे लोगों के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है। देखने में तो ऐसा भी आता है कि कुछ लोग तमाम उम्र कलम घसीटते रहने के बाद भी अपनी कोई स्वतंत्र पहचान नहीं बना पाते और बहैसियत एक नसलनवीस की तरह जीते रहते हैं।

श्री गौतम का रचनाकार गंवई संस्कृति की सहजता-सरलता तथा आंतरिक सुवास में नहाया हुआ है। उसे महानगरीय जीवन की विद्रपताएँ बार-बार आहत करती हैं। फलतः अपनी सम्पूर्ण आंतरिक टीस तथा असहमति को व्यक्त करता हुआ कवि बोल पड़ता है-
चर्चा करें क्या आपसे
इस वक्त के अंदाज की
सम्बंध-
ज्यों सूखी नदी
सब ओर फैली रेत है
हर समय
मँडराता यहाँ पर
एक संशय-प्रेत है
कसते शिकंजे गर्दनें हैं
हर मुखर आवाज की।

व्यवस्था की कालिख की ओर संकेत करने वाली तथा उससे अपनी असहमति का इजहार करने वाली हर ईमानदार आवाज को किन खतरों का सामना करना पड़ता है, इसका स्पष्ट संकेत ऊपर की पंक्तियों में मिलता है। किंतु कवि विभिन्न-आयामी प्रतिकूलताओं के बावजूद अंततः हताशा की गिरफ़्त में अपने को नहीं आने देता और पराजय को उसकी सृजनात्मकता निरन्तर अस्वीकार करती जाती है बल्कि प्रतिकूलताएँ जितनी व्यापक तथा सघन होती हैं कवि सामाजिक बेहतरी तथा खुशहालियों के लिए उतनी ही संकल्प-शक्ति के साथ सक्रियता से भर उठता है-
शोर को हम गीत में बदलें
इन निरर्थक शब्द-ढूहों का
खुरदुरापन ही घटे कुछ तो
उमस से दम घोटते दिन ये
सुखद लम्हों में बँटें कुछ तो
चुप्पियों का यह विषैलापन
लयों के नवगीत में बदलें

शोर को गीत में बदलने की यह प्रक्रिया आसान नहीं है। यह बदलाव तभी संभव है, जब ’मैं‘ तुमसे एकाकार हो जाए। इसके लिए निरंतर सचेतना तथा क्रियाशीलता को सतत जीवित बनाए रखना आवश्यक है। इस संदर्भ में अपने रचनात्मक प्रयासों का संकेत देते हुए कवि अपने एक गीत में कहता है-
भोर होते ही जगाता हूँ
गीत के इन छन्द शिशुओं को
हास जिनके किरण-पाँखों पर
दिगन्तों में फैल जाते हैं।
साँझ होते ही जगाता हूँ
शब्द के उन रूप-रंगों को
अर्थ जिनके चिनगियाँ बनकर
राख में भी दिपदिपाते हैं।

’मैं‘ की यह अपरोक्ष स्थिति किसी व्यक्तिवादी सोच से जुड़े रचनाकार में घेरे पर घेरा बनाती जाती है जबकि रचनात्मकता की सही यात्रा उस घेरे को तोड़ने की और निजता के सामाजिक विसर्जन की है। ’स्व‘ का यह विसर्जन रचनात्मकता की ही एक प्रक्रिया है। अनुभव तथा अभिव्यक्ति के क्षेत्रों को विस्तार देने का उपक्रम है। इसकी अनुपस्थिति किसी रचना को निजी संस्मरण या दिवास्वप्न बनाकर छोड़ देती है। ये रचनाएँ स्वयं बातचीत के लिए आपको आमंत्रित करेंगी। आप भविष्य की उस यात्रा, उस बातचीत में शामिल हों, यही मेरी सर्वोपरि वांछा है।
२७.१०.२०१२ 
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नवगीत संग्रह- गीत पर्व आया है, रचनाकार- राजेन्द्र गौतम, प्रकाशक- दिगंत प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली,  प्रथम संस्करण- जनवरी १९८३, मूल्य-रू. ३०/-, पृष्ठ-९६,  लेखक- माहेश्वर तिवारी, भूमिका।

समीक्षा

कृति चर्चा:

कागज की नाव- राजेन्द्र वर्मा

संजीव सलि ल
'साम्प्रतिक मानव समाज से सम्बद्ध संवेदना के वे सारे आयाम, विसंगतियाँ और विद्रूपताएँ तथा संबंधों का वह खुरदुरापन जिन्हें भोगने-जीने को हम-आप अभिशप्त हैं, इन सारी परिस्थितियों को नवगीतकार राजेंद्र वर्मा ने अपने कविता के कैनवास पर बड़ी विश्वसनीयता के साथ उकेरा है। सामाजिक यथार्थ को आस्वाद्य बना देना उनकी कला है। अनुभूति की गहनता और अभिव्यक्ति की सहजता के दो पाटों के बीच खड़ा आम पाठक अपने को संवेदनात्मक स्तर पर समृद्ध समझने लगता है, यह समीकरण राजेंद्र वर्मा के नवगीतों से होकर गुजरने का एक आत्मीय अनुभव है।' वरिष्ठ नवगीतकार श्री निर्मल शुक्ल ने 'कागज़ की नाव' में अंतर्निहित नवगीतों का सटीक आकलन किया है।

राजेंद्र वर्मा बहुमुखी प्रतिभा के धनी रचनाकार हैं. दोहे, गीत, व्यंग्य लेख, लघुकथा, ग़ज़ल, हाइकु, आलोचना, कविता, कहानी आदि विधाओं में उनकी १५ पुस्तकें प्रकाशित हैं। वे सिर्फ लिखने के लिये नहीं लिखते। राजेंद्र जी के लिये लेखन केवल शौक नहीं अपितु आत्माभिव्यक्ति और समाज सुधार का माध्यम है। वे किसी भी विधा में लिखें उनकी दृष्टि चतुर्दिक हो रही गड़बड़ियों को सुधारकर सत-शिव-सुन्दर की स्थापना हेतु सक्रिय रही है। नवगीत विधा को आत्मसात करते हुए राजेंद्र जी लकीर के फ़कीर नहीं बनते। वे अपने चिंतन, अवलोकन, और आकलन के आधार पर वैषम्य को इन्गित कर उसके उन्मूलन की दिशा दिखाते हैं। उनके नवगीत उपदेश या समाधान को नहीं संकेत को लक्ष्य बनाते हैं क्योंकि उन्हें अपने पाठकों के विवेक और सामर्थ्य पर भरोसा है।

आम आदमी की आवाज़ न सुनी जाए तो विषमता समाप्त नहीं हो सकती। राजेंद्र जी सर्वोच्च व्यवस्थापक और प्रशासक को सुनने की प्रेरणा देते हैं -
तेरी कथा हमेशा से सुनते आये हैं,
सत्य नरायन! तू भी तो सुन
कथा हमारी।
समय कुभाग लिये
आगे-आगे चलता है
सपनों में भी अब तो
केवल डर पलता है
घायल पंखों से
उड़ने की है लाचारी।

यह लाचारी व्यक्ति की हो या समष्टि की, समाज की राजेंद्र जी को प्रतिकार की प्रेरणा देती है और वे कलम को हथियार की तरह उपयोग करते हैं।

सच की अवहेलना उन्हें सहन नहीं होती। न्याय व्यवस्था की विकलांगता उनकी चिंता का विषय है-
कौआरोर मची पंचों में
सच की कौन सुने?
बेटे को खतरा था
किन्तु सुरक्षा नहीं मिली
अम्मा दौड़ीं बहुत
व्यवस्था लेकिन नहीं हिली
कुलदीपक बुझ गया
न्याय की देवी शीश धुनें।

'पुरस्कार दिलवाओ' शीर्षक नवगीत में राजेन्द्र जी पुरस्कारों के क्रय-विक्रय की अपसंस्कृति के प्रसार पर वार करते हैं-
कब तक माला पहनाओगे?
पुरस्कार दिलवाओ।
पद्म पुरस्कारों का देखो / लगा हुआ है मेला
कुछ तो करो / घटित हो मुझ पर
शुभ मुहूर्त की बेला
पैसे ले लो, पर मोमेंटो / सर्टिफिकेट दिलाओ।

आलोचकों द्वारा गुटबंदी और चीन्ह-चीन्ह कर प्रशंसा की मनोवृत्ति उनसे अदेखी नहीं है-
बीती जाती एक ज़िंदगी / सर्जन करते-करते
आलोचकगण आपस में बस / आँख मार कर हँसते।
मेरिट से क्या काम बनेगा सिफारिशें भिजवाओ।

मौलिक प्रतीक, अप्रचलित बिम्ब, सटीक उपमाएँ राजेंद्र जी के नवगीतों का वैशिष्ट्य है। वे अपने कथन से पाठक को चमत्कृत नहीं करते अपितु नैकट्य स्थापित कर अपनी बात को पाठक के मन में स्थापित कर देते हैं। परिवारों के विघटन पर 'विलग साये' नवगीत देखें-
बँट गयी दुनिया मगर / हम कुछ न कर पाये।
घाट बँटा दीवार खिंचकर/ बँट गये खपरैल-छप्पर
मेड़ छाती ठोंक निकली / बाग़ में खेतों के भीतर
हम किसी भी एक के / हिस्से नहीं आये
कुछ इधर हैं, कुछ उधर हैं / आत्म से भी बेखबर हैं
बात कैसी भी कहें हम / छिड़ रहा जैसे समर है
बह गयी कैसी हवा / खुद से विलग साये

आत्म से बेखबर होना और खुद से साये का भी अलग होना समाज के विघटन के प्रति कवि की पीड़ा और चिंता को अभिव्यक्त करता है।

राजेंद्र जी राजनैतिक अराजकता, प्रशासनिक जड़ता और अखबारी निस्सारता के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिये कलम न उठायें, यह कैसे संभव है-
राजा बहरा, मंत्री बहरा / बहरा थानेदार
कलियुग ने भी मानी जैसे / वर्तमान से हार
चार दिनों से राम दीन की बिटिया गायब है
थानेदार जनता, लेकिन सिले हुए लब हैं
उड़ती हुई खबर है, लेकिन फैलाना मत यार!
घटना में शामिल है खुद ही / मंत्री जी की कार
कॉलेज के चरसी को भी कुछ-कुछ मालुम है
लेकिन घटना-वाले दिन से गुमसुम-गुमसुम है
टी. व्ही. वालों ने भी अब तक शुरू न की तकरार
सोमवार से आज हो गया / है देखो इतवार
प्रथम सूचना दर्ज़ कराने में छक्के छूटे
किन्तु नामजद रपट कराने में हिम्मत टूटे
थाने का थाना बैठा है जैसे खाये खार
बेटी के चरित्र पर उँगली / रक्खे बारम्बार

यह नवगीत घटना का उल्लेख मात्र नहीं करता अपितु पूरे परिवेश को शब्द चित्र की तरह साकार कर पाता है।

राजेंद्र जी का भाषिक संस्कार और शब्द वैभव असाधारण है। वे हिंदी, उर्दू, अवधी, अंग्रेजी के साथ अवधी के देशज शब्दों का पूरी सहजता से उपयोग कर पाते हैं। कागज़, मस्तूल, दुश्मन, पाबंदी, रिश्ते, तासीर, इज्जत, गुलदस्ता, हालत, हसरत, फ़क़त, रौशनी, बयान, लब, तकरार, खर, फनकार, बेखबर, वक़्त, असलहे, बेरहम, जाम, हाकिम, खातिर, मुनादी, सकून, तारी, क़र्ज़, बागी, सवाल, मुसाफिर, शातिर, जागीर, गर्क, सिफारिश जैसे उर्दू लफ्ज़ पूरे अपनेपन सहित इंगिति, अभिजन, समीरण, मृदुल, संप्रेषण, प्रक्षेपण, आत्मरूप, स्मृति, परिवाद, सात्विक, जलद, निस्पृह, निराश्रित, रूपंकर, हृदवर, आत्म, एकांत, शीर्षासन, निर्मिति, क्षिप्र, परिवर्तित, अभिशापित, विस्मरण, विकल्प, निर्वासित जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों से गलबहियाँ डाले हैं तो करमजली, कौआरोर, नथुने, जिनगी, माड़ा, टटके, ललछौंह, हमीं, बँसवट, लरिकौरी, नेवारी, मेड़, छप्पर, हुद्दा, कनफ़ोड़ू, ठाड़े, गमका, डांडा, काठ, पुरवा जैसे देशज शब्द उनके कंधे पर झूल रहे हैं। इनके साथ ही शब्द दरबार में शब्द युग्मों की अच्छी-खासी उपस्थिति दर्ज़ हुई है- मान-सम्मान, धूल-धूसरित, आकुल-व्याकुल, वाद-विवाद, दान-दक्षिणा, धरा-गगन, साथ-संग, रात-दिवस, राहु-केतु, आनन-फानन, छप्पर-छानी, धन-बल, ठीकै-ठाक, झुग्गी-झोपड़िया, मौज-मस्ती, टोने-टुटके, रास-रंग आदि दृष्टव्य हैं।

मन-पाखी, मत्स्य-न्याय, सत्यनरायन, गोडसे, घीसू-माधो, मन-विहंग आदि शब्दों का प्रयोग स्थूल अर्थ में नहीं हुआ है। वे प्रतीक के रूप में प्रयुक्त होकर अर्थ के साथ-साथ भाव विशेष की भी अभिव्यंजना करते हैं। राजेंद्र जी मुहावरेदार भाषा के धनी हैं। छोटे-बड़े सभी ने मिल छाती पर मूँग दली, रिश्ते हुए परास्त, स्वार्थ ने बाजी मारी, शीश उठाया तो माली ने की हालत पतली, किन्तु गरीबी ने घर भर का / फ़क़त एक सपना भी छीना, समय पड़े तो / प्राण निछावर / करने का आश्वासन है, मुँह फेरे हैं देखो / कब से हवा और ये बादल, ठण्ड खा गया दिन, खेत हुआ गेहूँ, गन्ने का मन भर आया, किन्तु वे सिर पर खड़े / साधे हुए हम, प्रथम सूचना दर्ज करने में छक्के छूटे, भादों में ही जैसे / फूल उठा कांस, मेंड़ छाती ठोंक निकली, बात का बनता बतंगड़ जैसी भाषा पाठक-मन को बाँधती है।

राजेंद्र जी नवगीत को कथ्य के नयेपन, भाषा शैली में नवीनता, बिम्ब-प्रतीकों के नयेपन के निकष पर रचते हैं। क्षिप्र मानचित्र शीर्षक नवगीत ग़ज़ल या मुक्तिका के शिल्प पर रचित होने के साथ-साथ अभिनव कथ्य को प्रस्तुत करता है-
क्या से क्या चरित्र हो गया / आदमी विचित्र हो गया
पुण्यता अधर में रह रही / नित नवीन चोट सह रही
स्नान कर प्रभुत्व-गंग में / पातकी पवित्र हो गया
मित्रता में विष मिला दिया / शत्रुता को मधु पिला दिया
स्वार्थ-पूर्ति का हुआ चलन / शत्रु ही सुमित्र हो गया
द्रव्य के समीकरण बने / न्य झुका अनय के सामने
वीरता के सूर्य को ग्रहण / क्षिप्र मानचित्र हो गया

राजेन्द्र जी की छंदों पर पकड़ है। निर्विकार बैठे शीर्षक नवगीत का मुखड़ा महाभागवत जातीय विष्णुपद छंद में तथा अन्तरा लाक्षणिक जातीय पद्मावती छंद में है। दोनों छंदों को उन्होंने भली-भाँति साधा है-
नये- नये महराजे / घूम रहे ऐंठे।
लोकतंत्र के अभिजन हैं ये / देवों से भी पावन हैं ये
सेवक कहलाते-कहलाते / स्वामी बन ऐंठे
लाज-शरम पी गये घोलकर / आत्मा बेची तोल-तोलकर
लाख-करोड़ नहीं कुछ इनको / अरबों में पैठे
नयी सदी के नायक हैं ये / छद्मराग के गायक हैं ये
लोक जले तो जले, किन्तु ये / निर्विकार बैठे

मुखड़े और अँतरे में एक ही छंद का प्रयोग करने में भी उन्हें महारत हासिल है। देखिये महाभागवत जातीय विष्णुपद में रचित कागज़ की नाव शीर्षक नवगीत की पंक्तियाँ -
बारह अभावों की / आयी है / डूबी गली-गली
डीएम साढ़े / हम देख रहे / काग़ज़ की नाव चली
माँझी के हाथों में है / पतवार / आँकड़ों की
है मस्तूल उधर ही / इंगिति / जिधर धाकड़ों की
लंगर जैसे / जमे हुए हैं / नामी बाहुबली

ऊपर उद्धृत 'सत्यनरायन' शीर्षक नवगीत अवतारी तथा दिगपाल छंदों में है। राजेन्द्र जी का वैशिष्ट्य छंदों के विधान को पूरी तरह अपनाना है। वे प्रयोग के नाम पर छंदों को तोड़ते-मरोड़ते नहीं। भाषा तथा भाव को कथ्य का सहचर बना पाने में वे दक्ष हैं। 'जाने कितने / सूर्य निकल आये' में तथ्य दोष है। कहीं-कहीं मुद्रण त्रुटियाँ हैं। जैसे ग्रहन, सन्यासिनि, उर्जा आदि।

अव्यवस्था और कुव्यवस्था पर तीक्ष्ण प्रहार कर राजेंद्र जी ने नवगीत को शास्त्र की तरह प्रयोग किया है- राज अभृ, मंत्री बहरा / बहरा थानेदार, अच्छे दिन आनेवाले थे / किन्तु नहीं आये, नए-नए राजे-महराज / घूम रहे ऐंठे, कौआरोर मची पँचों में / सच की कौन सुने?, ऐसा मायाजाल बिछा है / कोई निकले भी तो कैसे?, जन-जन का है / जन के हेतु / जनों द्वारा / पर, निरुपाय हुआ जाता / जनतंत्र हमारा आदि अभिव्यक्तियाँ आम आदमी की बात सामने लाती हैं। राजेन्द्र जी आम आदमी को अभषा में उसकी बात कहते हैं। कागज़ की नाव का पाठक इसे पूरी तरह पढ़े बिना छोड़ नहीं पाता यह नवगीतकार के नाते राजेंद्र जी की सफलता है।
१.२.२०१६ 
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गीत- नवगीत संग्रह - कागज की नाव, रचनाकार- राजेन्द्र वर्मा, प्रकाशक- उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२। प्रथम संस्करण- २०१५, मूल्य- रूपये १५०/-, पृष्ठ-८० , समीक्षा- संजीव वर्मा सलिल।