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गुरुवार, 28 जून 2018

doha muktika

दोहा मुक्तिका:
काम न आता प्यार
*
काम न आता प्यार यदि, क्यों करता करतार।।
जो दिल बस; ले दिल बसा, वह सच्चा दिलदार।।
*
जां की बाजी लगे तो, काम न आता प्यार।
सरहद पर अरि शीश ले, पहले 'सलिल' उतार।।
*
तूफानों में थाम लो, दृढ़ता से पतवार।
काम न आता प्यार गर, घिरे हुए मझधार।।
*
गैरों को अपना बना, दूर करें तकरार।
कभी न घर में रह कहें, काम न आता प्यार।।
*
बिना बोले ही बोलना, अगर हुआ स्वीकार।
'सलिल' नहीं कह सकोगे, काम न आता प्यार।।
*
मिले नहीं बाज़ार में, दो कौड़ी भी दाम।
काम न आता प्यार जब, रहे विधाता वाम।।
*
राजनीति में कभी भी, काम न आता प्यार।
दाँव-पेंच; छल-कपट से, जीवन हो निस्सार।।
*
काम न आता प्यार कह, करें नहीं तकरार।
कहीं काम मनुहार दे, कहीं काम इसरार।।
*
२८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८

दोहा संवाद

दोहा संवाद:
बिना कहे कहना 'सलिल', सिखला देता वक्त।
सुन औरों की बात पर, कर मन की कमबख्त।।
*
आवन जावन जगत में,सब कुछ स्वप्न समान।
मैं गिरधर के रंग रंगी, मान सके तो मान।। - लता यादव
*
लता न गिरि को धर सके, गिरि पर लता अनेक।
दोहा पढ़कर हँस रहे, गिरिधर गिरि वर एक।। -संजीव
*
मैं मोहन की राधिका, नित उठ करूँ गुहार।
चरण शरण रख लो मुझे, सुनकर नाथ पुकार।। - लता यादव
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मोहन मोह न अब मुझे, कर माया से मुक्त।
कहे राधिका साधिका, कर मत मुझे वियुक्त।। -संजीव
*
ना मैं जानूँ साधना, ना जानूँ कुछ रीत।
मन ही मन मनका फिरे,कैसी है ये प्रीत।। - लता यादव
*
करे साधना साधना, मिट जाती हर व्याध।
करे काम ना कामना, स्वार्थ रही आराध।। -संजीव
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सोच सोच हारी सखी, सूझे तनिक न युक्ति ।
जन्म-मरण के फेर से, दिलवा दे जो मुक्ति।। -लता यादव
*
नित्य भोर हो जन फिर, नित्य रात हो मौत।
तन सो-जगता मन मगर, मौन हो रहा फौत।। -संजीव
*
वाणी पर संयम रखूँ, मुझको दो आशीष।
दोहे उत्तम रच सकूँ, कृपा करो जगदीश।। -लता यादव
*
हरि न मौन होते कभी, शब्द-शब्द में व्याप्त।
गीता-वचन उचारते, विश्व सुने चुप आप्त।। -संजीव
*
२८-६-२०१८, ७९९९५५९६१८
छंद अर्थात अनुशासन और अनुशासन के बिना समस्त ब्रह्मांड में कुछ भी नहीं।
कहा जा सकता है कि यह जगत ही छांदसिक है। कोई लाख छंदमुक्त होना चाहे, हो
ही नहीं सकता। कब, कैसे और कहाँ छंद उसे अपने अंदर ले लेंगे, उसे खुद ही
पता नहीं चलेगा। ठीक यही बात हमारे लोकगीतों के ऊपर भी लागू होती है।
छंदबद्ध रचनाओं का इतिहास हमारी गौरवशाली परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग
है। धार्मिक से लेकर लौकिक साहित्य तक, छंदों ने अपनी गरिमामय उपस्थिति
दर्ज कराई है। लोकगीत, स्थानीय भावनाओं की उन्मुक्त अभिव्यक्ति होते हैं।
उनके रचयिता अक्सर उनको किसी दायरे में बँधकर नहीं लिखना चाहते परंतु
छंदों की सर्वव्यापकता के कारण ऐसा हो नहीं पाता। मैं बिहार के जिस
क्षेत्र से हूँ वहाँ मगही को स्थानीय बोली का पद प्राप्त है। हमारे देश
के अन्य हिस्सों की तरह यहाँ भी लोकगीतों की एक समृद्ध परंपरा रही है जो
कि निरंतर जारी है। इन गीतों को यदि हम छंदों की कसौटी पर परखें तो विविध
छंदों के सुंदर दृश्य सामने आते हैं। जैसे कि इसी गीत को लें,

कत दिन मधुपुर जायब, कत दिन आयब हे।
ए राजा, कत दिन मधुपुर छायब, मोहिं के बिसरायब हे॥1॥
छव महीना मधुपुर जायब, बरिस दिन आयब हे।
धनियाँ, बारह बरिस मधुपुर छायब, तोहंे नहिं बिसरायब हे॥2॥
बारहे बरिस पर राजा लउटे दुअरा बीचे गनि ढारे हे।
ए ललना, चेरिया बोलाइ भेद पूछे, धनि मोर कवन रँग हे॥3॥
तोर धनि हँथवा के फरहर,, मुँहवा के लायक हे।
ए राजा, पढ़ल पंडित केर धियवा, तीनों कुल रखलन हे॥4॥
उहवाँ से गनिया उठवलन, अँगना बीचे गनि ढारे हे।
ए ललना, अम्माँ बोलाइ भेद पुछलन, कवन रँग धनि मोरा हे॥5॥
तोर धनि हँथवा के फरहर, मुँहवा के लायक हे।

इसकी पंक्तियों में "सुखदा छंद" जो कि १२-१० मात्राओं पर चलता है और अंत
गुरु से होता, उसकी झलक स्पष्ट देखी जा सकती। इसी प्रकार

देखि-देखि मुँह पियरायल, चेरिया बिलखि पूछे हे।
रानी, कहहु तूँ रोगवा के कारन, काहे मुँह झामर[1] हे॥1॥
का कहुँ गे[2] चेरिया, का कहुँ, कहलो न जा हकइ हे।
चेरिया, लाज गरान[3] के बतिया, तूँ चतुर सुजान[4] हहीं गे॥2॥
लहसि[5] के चललइ त चेरिया, त चली भेलइ झमिझमि[6] हे।
चेरिया, जाइ पहुँचल दरबार, जहाँ रे नौबत[7] बाजहइ हे॥3॥
सुनि के खबरिया सोहामन[8] अउरो मनभावन हे।
नंद जी उठलन सभा सयँ[9] भुइयाँ[10] न पग परे हे॥4॥
जाहाँ ताहाँ भेजलन धामन,[11] सभ के बोलावन हे।
केहु लयलन पंडित बोलाय, केहु रे लयलन डगरिन हे॥5॥
पंडित बइठलन पीढ़ा[12] चढ़ि, मन में विचारऽ करथ[13] हे।
राजा, जलम लेतन[14] नंदलाल जगतर[15] के पालन हे॥6॥
जसोदाजी बिकल सउरिया,[16] पलक धीर धारहु हे।
जलम लीहल तिरभुवन नाथ, महल उठे सोहर हे॥7॥

यह गीत विद्या छंद के १४-१४ मात्राओं का काफी हद तक पालन करता दिखा है।

तिलक समारोह में गाया जाने वाला एक सुंदर गीत देखिए

सभवा बइठले रउरा[1] बाबू हो कवन बाबू।
कहवाँ से अइले पंडितवा, चउका[2] सभ घेरि ले ले॥1॥
दमड़ी दोकड़ा के पान-कसइली।
बाबू लछ[3] रुपइया के दुलहा, बराम्हन भँडुआ ठगि ले ले॥2॥
बाबू, लछ रुपइया के दुलहा, ससुर भँडुआ ठगि ले ले॥3

इसको गाते समय जो लय होती है, वह कुकुभ के १६-१४ के बेहद निकट जान पड़ती।
अंत में दो गुरुओं का भी दर्शन यहाँ हो रहा है।

- कुमार गौरव अजीतेन्दु
बाल शिक्षा में छंद ..
सवाल उठता हैं कि छंद आखीर है क्या ? तो मन तुरंत जवाब देता है कि व्याकरण के
नियमों में बंधे हुए वाक्य को छंद कहते हैं | जिसमे यति,गति,तुक,मात्रा, विराम अदि का
ध्यान रखा जाता है | तो अब प्रश्न यह उठता है कि इतना सब एक छोटे से बच्चे के
कोमल मन-मस्तिष्क में कैसे समाए ? बाल मन जिज्ञासू होता है पर कोमल भी वह
जिज्ञासा वश सीखने को आतुर रहता है पर ब्याकरण के कठिन नियमों को वह इतनी
जल्दी आत्मसात नहीं कर पाता; तो छंद क्या है उसके लिए ? उसके नन्हें कोमल मन
को छंदों से कैसे परिचित कराया जाय ? ये सारे प्रश्न एक साथ मन में उठने स्वाभाविक
हैं |
बाल शिक्षा में छंद का प्रथम ज्ञान
मेरा ऐसा मानना है कि एक शिशु जब जन्म लेता है तो उसका पहला स्पर्श माँ से होता
है | वह माँ के स्पर्श में जो सुख पाता है वही उसका पहला छंद है जिसका माध्यम स्पर्श
है क्यों कि सैकड़ों हजारों में वह माँ का स्पर्श पहचान लेता है | फिर जब माँ उसके माथे
पर हाथ फेरते हुए कुछ गुनगुनाती है, भले ही उनमें कोई शब्द ना हो..सिर्फ बंद होठों से
कोई ध्वनी फूट रही हो; जिसमें किसी आचार्य मम्मट के काव्यशास्त्र का ज्ञान नही..
यति..गति..तुक..विराम नहीं..उस टूटी-फूटी ध्वनि में हैं तो सिर्फ वात्सल्य..! शिशु के लिए
वही छंद है | उसी छंद के रस में डूबा वह माँ की गोद में दुनिया जहान से बेखबर सुख
की नींद सो जाता है | फिर जैसे-जैसे वह बड़ा होता है उसके लिए चिड़ियों की चहक..
कोयल की कूक में जो सुर है..लय है..वही उसका छंद है..वर्षा की बूँदों की छम-छम
उसका छंद है..पवन के वेग से पत्तों की खनक ही उसका छंद है..जिसमे कहीं कोई
व्याकरण का नियम नहीं है | अपनी शैशवावस्था में बाल मन इन्हीं सब चीजों से एक
लय को आत्मसात करता है जो उसके लिए छंद है ऐसा मैं मानती हूँ | क्यों कि जिसमें
सुर है..स्वर है,,लय है..वही उसका छंद है | बच्चे का छंदों से प्रथम परिचय मैं इसे ही
मानती हूँ |
द्वितीय..विद्यालय में
बचपन की कुछ धुंधली सी यादें हैं जब हमारी कक्षा वृक्षों की छाँव में लगा करती थी..लम्बी-
लम्बी चटाइयों के रोल हम सब छात्र-छात्राएँ मिल कर बिछाते और उसी पर कतारबद्ध बैठते,
एक कक्षा में सिर्फ एक ही लकड़ी की कुर्सी होती थी जिसपर मा-साब बैठा करते थे और
उनके हाथ में पतली नीम की छड़ी हुआ करती थी | मुझे आज भी याद आता है, अपने
विद्यालयी यात्रा की वो पहली प्रार्थना (जो आज-कल लुप्त-सी हो गयी है) जो गाते हुए हम

ऐसे भक्ति रस में डूबते थे कि राष्ट्रगान के लिए आँखें न खुलती थीं | वह प्रार्थना आज भी
कंठस्थ है -
वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्त्तव्य मार्ग पर डट जावें।
पर-सेवा पर-उपकार में हम, जग(निज)-जीवन सफल बना जावें॥
॥वह शक्ति हमें दो दयानिधे...॥
हम दीन-दुखी निबलों-विकलों के सेवक बन संताप हरें।
जो हैं अटके, भूले-भटके, उनको तारें खुद तर जावें॥
॥वह शक्ति हमें दो दयानिधे...॥
छल, दंभ-द्वेष, पाखंड-झूठ, अन्याय से निशिदिन दूर रहें।
जीवन हो शुद्ध सरल अपना, शुचि प्रेम-सुधा रस बरसावें॥
॥वह शक्ति हमें दो दयानिधे...॥
निज आन-बान, मर्यादा का प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे।
जिस देश-जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जावें॥
॥वह शक्ति हमें दो दयानिधे ||
प्रार्थना..राष्ट्रगान और भारतमाता की जय के बाद पहली कक्षा हिन्दी की होती थी | रहीम
और कबीर के दोहे हम स-स्वर गा कर याद किया करते थे | तब हमें लेश मात्र भी ये ज्ञान
नही था कि ये दोहा छंद है और इसमें चार चरण और १३-११ की मात्राएँ भी होती हैं | बिना
किसी मात्रिक ज्ञान के ही हमने काबीर और रहीम के सारे दोहे उसी समय रट लिए थे जो
आज भी काम आ रहे हैं |
‘रूठ के बैठा चाँद एक दिन माता से यह बोला’..’यदि होता किन्नर नरेश मैं’..’उठो लाल अब
आँखें खोलो’ आदि कवितायें आज ढूढें नहीं मिलतीं पर मैं आज तक नहीं भूली | ये तो रही मेरे
बालपन की बात जो आज के दौर में बहुत पीछे छूट हाई है |
एक समय था, जब बच्चों को पाँच वर्ष के बाद ही विद्यालय भेजा जाता था विद्याध्ययन के
लिए |पर आज ऐसा नहीं है | आज के सामय में अगर बच्चा ढाई या तीन वर्ष की उम्र में
विद्यालय नहीं गया तो वह अपनी शिक्षा की दौड़ में पिछड़ जाता है; ऐसा माना जाता है |
क्यों कि आज की शिक्षा विद्याध्ययन के लिए नहीं बल्कि धनार्जन के लिए ली और दी जा
रही है | इस लिए आज माता-पिता अपने नन्हें-नन्हें बच्चों की पीठ पर शिक्षा का भारी बोझ
लाद कर स्कूल भेज देते हैं | परन्तु जो बात आज भी एक-सी है, वह है; वो पहली प्रार्थना जो
बच्चा पहले दिन ही हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता है गाने ले लिए, भले ही भाषा कोई भी हो
| यहीं उसका परिचय होता है स्कूल के पहले छंद से फिर धीरे-धेरे वह सीखने लगता है |

कक्षा में जब अध्यापिका गा-गा कर, ‘तितली रानी इतने सुन्दर पंख कहाँ से लायी हो’ ..
‘चुहिया रानी बड़ी सयानी’..’मछली जल की रानी है’ आदि कविताएँ बच्चे को सुनाती है तो
बच्चा भी सुर में सुर मिलाता है और यूँ ही वह मात्रा, यति, गति, तुक, विराम के ज्ञान के
बिना भी छंदों को आत्मसात करता हुआ आगे बढ़ने लगता है |
कहने का तात्पर्य ये कि बाल मन में सीखने की तीव्र इच्छा होती है, ललक होती है |
समस्या तब आती है जब शिक्षक उसे व्याकरण के आधार पर सिखाने का प्रयास करते हैं
तब सीखना बच्चे के लिए कठिन हो जाता है | जहाँ सुर है..लय है वहीँ छंद है | बच्चे को
यदि लालित्यपूर्ण ढंग से सिखाने का प्रयास किया जाय तो बालपन का सीखा हुआ आजीवन
नहीं भूलता |
बाल शिक्षा में छंदों का प्रभाव
अभी तक मैं यही कहने का प्रयास कर रही थी कि बाल शिक्षा में छंदों कितना गहरा प्रभाव
है यदि उसे हम लालित्यपूर्ण ढंग से सिखाते हैं तो वह आसानी से सब सीखता है | एक बच्चे
को सीधे तौर पर हम नहीं सिखा सकते कि छन्द कितने प्रकार के होते हैं और उसके पहचान
क्या-क्या है ? बच्चा ऊब जाएगा और उसके लिए सीखना बोझिल हो जाएगा | विद्यालय
जाने से कतराने लगेगा | इस लिए आज शिक्षक और माता-पिता दोनों का दायित्व बढ़ जाता
है | शिक्षा बच्चे का सर्वांगीण विकास करती है परन्तु आज की शिक्षा केवल व्यवसायिक हो
कर रह गयी है | विद्यालय में ढेर सारा कक्षा कार्य और घर में शिक्षक का दिया हुआ गृह
कार्य करने में ही बच्चे का पूरा दिन व्यतीत हो जाता है और वह रोबोट या रट्टू तोता बन
कर रह जाता है |
नैतिक..सामजिक और मानसिक प्रभाव
वैसे तो सीखने की कोई उम्र नहीं होती परन्तु बालपन में जो हम सीखते हैं; मन पर उसका
प्रभाव हमेशा बना रहता है | बच्चे की प्रथम शिक्षा घर पर ही आरम्भ होती है जब वह
विद्यालय में औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने जता है तब वह एक व्यक्तित्व के साथ जाता है
जो उसकी अनौपचारिक शिक्षा का परिणाम होता है | यदि घर और विद्यालय में बच्चों को
छंदों के माध्यम से प्रकृति का ज्ञान कराया जाय तो वह आसानी से अपने को प्रकृति से जोड़
सकेगा | आज जो पर्यावर का भीषण संकट उत्पन्न हुआ है उसके बारे में अगर हम उन्हें
छंदों के माध्यम से समझाएं तो वह आसानी से समझेंगे कि जल और वायु उनके लिए क्या
महत्व रखते हैं, वृक्ष उनके लिए क्यों उपयोगी हैं, नदियाँ उनके जीवन को किस तरह
प्रभावित करती हैं ! आज वह समय आ गया है कि इन बातों से बच्चे बाल्यकाल से ही
परिचित हों | इन सब बातों का ज्ञान उन्हें किसी भारी-भरकम तकनीकी के माध्यम से नहीं
बल्कि छंदों के माध्यम से उनको दिया जा सकता है | इस बात को अभिभावक और शिक्षक
दोनों को गम्भीरता से समझना होगा |

आज समाज में स्त्री हिंसा, भ्रष्टाचार, चोरी, बलात्कार आदि विभिन्न प्रकार की बुराइयाँ बढ़ती
जा रहीं हैं उसके बारे में भी यदि छन्दों के माध्यम से बच्चों को बताया जाय कि कैसे इनसे
दूर रहना है तो बच्चे आसानी से समझ सकेगें | बचपन में ही उनके मन में इन बुराइयों से
दूर रहने की प्रवृत्ति जागेगी और यही बच्चे कल सच्चे और इमानदार नागरिक के रूप में एक
स्वस्थ समाज और राष्ट्र के निर्माण में सहायक होंगे | आज विद्यालयों में नैतिक शिक्षा पर
विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है जो कि आज के समय में अति आवश्यक है |
अंत में इतना ही कहूँगी कि बाल शिक्षा में छंदों का विशेष महत्व है | कहते हैं कि बालपन
की सीख ही एक बच्चे की आगे की सोच तय करती है इस लिए अभिभावक और शिक्षक
दोनों को इस ओर विशेष ध्यान देना होगा | बच्चे को ये समझाना होगा कि वह प्रकृति,
समाज और राष्ट्र का ऋणी है और उसे ये ऋण भविष्य में प्रकृति का संरक्षण व समाज और
राष्ट्र के प्रति ईमानदार हो कर उतारना है | ये सारी महत्वपूर्ण बातें बड़ी आसानी से छंदों के
माध्यम से बच्चों के मन-मस्तिष्क में बैठाया जा सकता है | कहते हैं ना कि एक बच्चा आगे
चल कर कैसा नागरिक बनेगा इसकी नींव बचपन में ही पड़ जाती है और इस नींव को
मजबूत करने में छन्दों का विशेष योगदान है | बाल शिक्षा में छंद उतना ही महत्व रखता है
जितना कि मृत्य शैय्या पर पड़े हुए व्यक्ति के लिए साँसें | ऐसा मेरा मानना है |
मीना धर
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परिचय
नाम- मीना धर
कार्य – अध्यापन, स्वतंत्र लेखन
शिक्षा- कानपुर यूनिवर्सिटी, हिन्दी से परास्नातक
रूचि- संगीत सुनना, साहित्यिक कर्यक्रमों में भाग लेना , किताबें पढना , प्राकृतिक स्थलों
पर घूमना .
'अंतर्मन ' ब्लॉग का सफल संचालन ,
प्रकाशित कृति – (साझा संग्रह)-‘अपना-अपना आसमा’, ‘सारांश समय का’, ‘जीवन्त
हस्ताक्षर-2’, ‘काव्य सुगंध भाग-2’, ‘सहोदरी सोपान-2’, ‘जीवन्त हस्ताक्षर-3’ ‘लघुकथा
अनवरत’ और ‘जीवंत हस्ताक्षर -4’
‘लमही’, ‘हिन्दुस्तान’, ‘जागरण’, ‘कथाक्रम’ विश्वगाथा, भाषा-भारती, ‘निकट’, उत्तर प्रदेश
सरकार की पत्रिका ‘उत्तर-प्रदेश’ व भारत सरकार की पत्रिका ‘इन्द्रप्रस्थ भारती’ समहुत
आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ व कविताएँ प्रकाशित होती रहती हैं ,
विभिन्न ई -पत्रिकाओं और ब्लॉग परभी रचनाएँ प्रकाशित हुईं हैं .
सम्मान - शोभना वेलफेयर सोसायटी द्वारा-शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान 2012, माण्डवी
प्रकाशन द्वारा 2014 में ‘साहित्यगरिमा’, अनुराधा प्रकाशन से ‘विशिष्ट हिन्दी सेवी’ सम्मान

तथा ‘विश्व हिन्दी संस्थान कल्चरल आर्गेनाइजेशन,कनाडा द्वारा उपन्यास ‘खट्टे-मीठे रिश्ते’
में रचना धर्मिता के लिए सम्मान 2015 प्राप्त हुआ और कहानी ‘शापित’ 92.7 big fm
द्वारा सम्मानित हुई ..
ई - मेल आईडी-- meenadhardwivedi1967@gmail.com
फोन-0 9838944718
पता-
मीना पाठक
437, दामोदर नगर, बर्रा,
कानपुर-208027

(U.P.)

doha

दोहा सलिला: 
*
हर्ष; खुशी; उल्लास; सुख, या आनंद-प्रमोद।
हैं आकाश-कुसुम 'सलिल', अब आल्हाद विनोद
*
कहीं न हैपीनेस है, हुआ लापता जॉय।
हाथों में हालात के, ह्युमन बीइंग टॉय
*
एक दूसरे से मिलें, जब मन जाए झूम।
तब जीवन का अर्थ हो, सही हमें मालूम
*
मेरे अधरों पर खिले, तुझे देख मुस्कान।
तेरे लब यदि हँस पड़ें, पड़े जान में जान।।
*
तू-तू मैं-मैं भुलकर, मैं तू हम हों मीत।
तो हर मुश्किल जीत लें, यह जीवन की रीत।।
*
श्वास-आस संबंध बो, हरिया जीवन-खेत।
राग-द्वेष कंटक हटा, मतभेदों की रेत।।
*
२८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८

बरसाती गीत

गीत:
कजरारे बादल
अविनाश ब्योहार 
*
अंबर पर
छा रहे हैं
कजरारे बादल। 

नाच रहे हैं
मोर बागन में,
छम-छम बरसीं
बूँदें आँगन में। 
पत्र मेह के
बाँट रहे हैं
हरकारे बादल 

मौसम में हरियाली ने
है रंग भरा,
दुबली-पतली नदिया
का है अंग भरा। 
फटी धरा की
प्यास बुझाये
मतवारे बादल 
*
रायल एस्टेट, माढ़ोताल,
कटंगी रोड, जबलपुर।

बुधवार, 27 जून 2018

दोहा सलिला:

दोहे बूँदाबाँदी के:
*
झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते,  मनुज हुए कृतकृत्य।।
*
माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
*
पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
*
कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
*
नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
जल की बूँदे अमिय सम, हरें धरा का ताप।
ढाँक न माटी रे मनुज!, पछताएगा आप।।
*
माटी पानी सोखकर, भरती जल-भंडार।
जी न सकेगा मनुज यदि, सूखे जल-आगार।।
*
हरियाली ओढ़े धरा, जड़ें जमा ले दूब।
बीरबहूटी जब दिखे,  तब खुशियाँ हों खूब।।
*
पौधे अगिन लगाइए, पालें ज्यों संतान।
संतति माँगे संपदा, पेड़ करें धनवान।।
*
पूत लगाता आग पर, पेड़ जलें खुद साथ।
उसके पालें; काटते, क्यों इसको मनु-हाथ।।
*
बूँद-बूँद जल बचाओ,  बची रहेगी सृष्टि।
आँखें रहते अंध क्यों?, मानव! पूछे वृष्टि।।
***
२७.६.२०१८, salil.sanjiv@gmail.com
७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४ 

मंगलवार, 26 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी २०. लोकनाट्य और कर्मा गीतों में छंद

शोधलेख:
२०. लोकनाट्य और करमा-गीतों में छंद परंपरा   
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
लोक-काव्य और लोक-नाट्य का साथ चोली-दामन का सा है. मनुष्य के जन्म के साथ रुदन अर्थात ध्वनि में लय और गति-यति का समन्वय छंद का तथा नेत्र, हाथ-पैर आदि अंग सञ्चालन में अभिनय अर्थात नाट्य का उद्भव देखा जा सकता है. मनुष्य के तन और मन के विकास के साथ इन दोनों का भी विकास होता रहता है. आदि मानव ने पशु-पक्षियों से अलग होकर उन्नति पथ पर पग रखते समय उनकी विशेषताओं को आत्मसात करने का अथक प्रयास ही नहीं किया अपितु उन्हें अधिक विकसित भी किया. शेर के आगमन की सूचना हूक-हूककर देते वानरों से मानव ने ध्वनि का उपयोग सीखा होगा. पशु-पक्षियों की अपेक्षा अधिक बुद्धि के कारण मानव ने कलकल बहते निर्जर, सनन-सनन-सन चलती पवन, मेघगर्जन, विद्युत्पात,  बरसात आदि की ध्वनियों को मस्तिष्क में संगृहीत कर अन्य मानव समूहों को सूचित किया होगा. इन ध्वनियों के उच्चारण के साथ उनकी लय, गति-विराम, उतार-चढ़ाव आदि में पारंगत होने के साथ उन्हें उच्चारित करना और सुनने पर पहचानकर तदनुसार आचरण करना मानव-स्वभाव हो गया. कालांतर में ध्वनि उच्चारण ने भाषा और लिपि के साथ समन्वित होकर लोक-काव्य तथा आचरण ने लोक-नाट्य को जन्म दिया होगा. इसलिए लोक-काव्य की आत्मा छंद और लोक-नाट्य के मध्य अनुभूति और प्रतिक्रिया के तंतु उन्हें सहोदर सिद्ध करते हैं. ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’, ‘काव्येषु नाटकं रम्यं’, जैसी अभिव्यक्तियाँ इसी नाते की पुष्टि करती हैं. समय के साथ दोनों विधाओं का स्वतंत्र विकास होना स्वाभाविक है. आज स्थिति यह है कि अधिकांश जन लोक-नाट्य में छंद की अनुभूति कठिनाई से ही करते हैं जबकि छंद में लोक- नाट्य की उपस्थिति को असंभव मान लिया गया है.
काव्य:
शास्त्रानुसार काव्य मनरंजन का उत्तम साधन है. भारतीय आचार्यों ने आदिकाल से काव्य का सूक्ष्म विवेचन कर स्वरूप निर्धारण का कार्य किया है. ‘तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुन: क्वपि’ –मम्मट (काव्य रचना के शब्दार्थों में दोष कतई न हों, गुण अवश्य हों, अलंकार कहीं-कहीं न भी हो हों),  ‘काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते’ –दंडी (काव्य की शोभा अलंकार से है), अलंकारा एव काव्ये प्रधानमिति प्रच्यानाम मतं’ –रुय्यक (अलंकार ही काव्य में मुख्य है), ‘काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम. व्यसनेषु च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा.’ (काव्य शास्त्रर विनोद हेतु है), रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यं’ –पं. जगन्नाथ (रमणीय अर्थ प्रतिपादित करनेवाले शब्द काव्य हैं), लोकोत्तरानंददाता प्रबंध: काव्यनामभाक’ –अंबिकादत्त व्यास (लोकोत्तर आनंद देनेवाली रचना काव्य है’), ‘रसात्मकं वाक्यं काव्यं’ –महापात्र विश्वनाथ (रसपूर्ण वाक्य काव्य है), ‘रीतिरात्मा काव्यस्य’ –वामन (रीति काव्य की आत्मा है), वक्रोक्ति काव्यजीवितं’ –कुंतक (काव्य वक्रोक्ति में जीवित है), काव्यस्यात्मा ध्वनिरति: -आनंदवर्धन (काव्य की आत्मा ध्वनि और रति में है), औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितं; -क्षेमेन्द्र ( रस सिद्धि के औचित्य में काव्य जीवित है) तथा ‘वाग्वैदग्ध्यप्रधानेsपि रस एवात्र जीवितं’. –आग्निपुरंकार (वाग्वैधदग्ध्य प्रधान होते हुए भी काव्य का प्राण रस है) कहर कव्यचार्यों ने समय-समय पर काव्यांगों और काव्य-रूप का चिंतन किया है.
दृश्य काव्य:  
पूर्व के वन मानुष या आज के आदिवासियों में शिकार करने, शिकार मिलने पर नाचने-गाने, मिल-बाँटकर खाने की परंपरा लोकनाट्य और लोककाव्य का संगम ही है जिसके मूल में छंद समाहित है. आरंभ में वाचिक परंपरा में पले-पुसे काव्य रूपी छंद और लोक-जीवन में घुले-मिले लोकाचार रूपी नाट्य को भाषा और लिपि के विकास ने उसी तरह अलग-अलग किया जैसे एक साथ पलते शिशु विकास के क्रम में किशोर-किशोरी के रूप में अलग-अलग हो जाते हैं. छंद, गीत, नृत्य और वाद्य एक-दूसरे के पूरक और रस के कारक हैं. ई. पू. तीसरी सदी में ऋषि नन्दिकेश्वर ने काव्य और नाट्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर ‘नान्दीपाथ का श्री गणेश किया. भरत मुनि द्वारा रचित ‘नाट्यशास्त्र तथा महर्षि पिंगल द्वारा रचित ‘छंदशास्त्र’ विश्व वांग्मय की निधि हैं. वैदिक ज्ञान राशि के संहिताकरण में लोक का अभूतपूर्व योगदान रहा किन्तु सत्ता सूत्र आभिजत्यों के हाथों में केंद्रित होने पर ज्ञान और अस्त्र संपन्नों और पुरोहितों के हाथ में केंद्रित हो गए. फलत: उपेक्षित लोक के आक्रोश का शमन करने हेतु वेदेतर ज्ञान-विधाओं को वेदांग बताकर लोक को उपलब्ध कराया गया. इस तरह वेद का पैर ’पिंगल या छंदशास्त्र’ तथा पंचम वेद आयुर्वेद व नाट्यशास्त्र को कहा गया. ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्ववेद से रस लेकर नाट्य-वेद रचना की संकल्पना में लोक-काव्य (छंद) और लोक-नाट्य (रंगमंच) समाहित हैं.
कालिदास के अनुसार नाट्यवेद का उद्देश्य ‘नाट्यं भिन्न रुचेर्जनस्य बहुधाप्येकं समाराधनं’ अर्थात भिन्न रुचि के लोगों का बहुत प्रकार से मन-रंजन करना है. गीत-संगीत, नृत्य और अभिनय की त्रिवेणी से लोक-नाट्य को जन्म मिला. तीसरी सदी में सीतावेंगरा सरगुजा तथा मोगीमारा की गुफाओं में प्रेक्षागृहों की उपलब्धता है. पाणिनि के सूत्रों में नटों का उल्लेख, पतंजलि के महाभाष्य में नाट्य मंचन, बौद्ध भिक्षुओं के लिए नाट्य-निषेध, उत्तर भारत में ‘रामलीला’ व ‘रासलीला’, मालवा में ‘माच’, राजस्थान में ‘ख़याल’, पंजाब में ‘स्वांग’, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नौटंकी, ग्राम्यांचलों में ‘स्वांग’, बृज में ‘भगत’, गुजरात में ‘भवाई’, बुंदेलखंड में आल्हा, बम्बुलिया और राई, बंगाल में ‘जात्रा’ और ‘गंभीरा’, महाराष्ट्र में ‘तमाशा’ और ‘बहुरूपिया’, दक्षिण भारत में ‘यक्षगान’ आदि लोककाव्य और लोकनाट्य के सम्मिलित रूप रहे हैं जिनके मूल में लोक-छंद धड़कन की तरह रचा-बसा था. लोक-नाट्य और लोक-काव्य में सरल-सहज लोक-भाषा, ग्रामीण-देशज शब्दावली, न्यूनतम आलंकारिकता, बोधगम्यता, पारदर्शिता, धार्मिक व सामाजिक प्रसंग, प्रवाहपूर्ण भाषा शैली, गति-यति-लय का सम्मिश्रण दृष्टव्य है. अभिव्यक्ति के इन दोनों रूपों में छंद की उपस्थिति ही नहीं, चेतना भी आद्योपांत अनुभव की जा सकती है.
आदिवासी बाल लोक-नाट्य बाघ-बकरी खेलते समय बच्चे गाते हैं: ‘अड्डल गड्डल काठे क माला / टेंकीचीरो तोड़ो बाला / कडुवा तेल कवल की बाती / ठांय-ठूँय ठस्स / उंचकी छाती दर्द.’ यहाँ प्रथम तीन पंक्तियों में संस्कारी जातीय पादाकुलक छंद की अनगढ़ उपस्थिति सहज दृष्टव्य है.
अन्य बाल लोक नाट्य दोल्हा-पाती में बच्चे गाते हैं: ‘अक्कड़-बक्कड़ बंबे बो / अस्सी-नब्बे पूरे सौ / सौ में लागा धागा / चोर निकल के भागा’ यहाँ प्रथम दो पद मानव जातीय हाकलि छंद की तथा अंतिम दो पंक्तियाँ आदित्य जातीय छंद की हैं. आजकल नवगीतों में विविध छंदों के मिश्रण (फ्यूजन) को अपनी खोज बतानेवाले देखें कि यह कार्य उनसे सदियों वर्ष पूर्व अनपढ़ कहे जानेवाले लोक-गायक कर चुके हैं.
बिहार तथा मध्यप्रदेश के घसिया आदिवासियों स्त्री-पुरुषों द्वारा किये जानेवाले लोकनाट्य ‘डोमकच’ के समय गाये जानेवाले गीत ‘हँकावे ननदा हो रे! / बछरू चरना हम जाब रे! / हरंका ननदों सातो कियारी / सूगा लागे हो रे!’ में क्रमश:१३-१५-१८-१२ मात्रा की पंक्तियाँ तथा ८-११-११-६ वर्ण हैं. ‘डोमकच’ नृत्य-गीत की एक अन्य अभिव्यक्ति देखिए- ‘आपन मैना हो मैनाधन, / काहे मैना हो? / काहे भूँजि गइल मैना भुटाना हो / भूँजि देला तीला चउरवा - / मैना आइ गइला हो.’ १६-१०-२१-१६-१३ मात्रा (१०-५-१३-१०-८ वर्ण) के इस लोकगीत का छंद खोजने और रचने की चुनौती क्या कभी वे कूप-मंडूक स्वीकार सकेंगे जो दोहे के विषम चरण में ‘सरन’ के अतिरिक्त अन्य गण प्रयोग देखकर छाती कूटने लगते हैं, वह भी तब जबकि तुलसी, कबीर और बिहारी जैसे कालजयी दोहाकारों के बीसियों दोहों में ऐसा किया गया   है.
आषाढ़ की पहली बूंदों के साथ क्वांरी आदिवासी कन्या वन में किसी धारदार हथियार से एक ही वार में ‘कदंब’ वृक्ष की तीन डालियाँ काटती हैं जिन्हें अन्य क्वांरी कन्याएँ भूमि पर गिरने से पूर्व हवा में पकड़कर मादलवादन के साथ देवस्थान पर बने मंडप में लाती हैं. यहाँ घी, गुड, जल-कलश, त्रिशूल तथा पक्की शराब आदि पूजा सामग्री एकत्र कर बैगा भूमि में दो वार कर गड्ढा बनाता है, अन्य व्यक्ति ३ गड्ढे बनाकर युवतियों द्वारा लाई गयी डालियाँ तथा एक डाल ‘भेला’ वृक्ष की गाड़ देते हैं. डाली काटी जाते समय दो पंक्तियाँ गई जाती हैं: ‘करमा जे कटले धांगर तोरे हाथे पगेरा पड़ जाय / आज क रहले करम खूंटा, कालि जइबे गंगा-तीरे.’ अर्थात हे धांगर! तुमने कदंब की शाख काटी तुम्हारे हाथ में पगेरा पड़ जाएगा. तुम गंगा-स्नान करो. मात्रा पतन को उर्दू की बपौती माननेवाले देखें कि उर्दू का जन्म होने के सदियों पहले से वनवासी-आदिवासी अपने गीतों में मात्रा-पतन करते रहे हैं. ३२-३० मात्रा की इन काव्य पंक्तियों का छंद वर्तमान में उपलब्ध किसी पिंगल-पोथी में नहीं है. कर्म देव की स्थापना करते समय गीत गाया जाता है: ‘के खनल?, के खनल? / अहरा पोखरे बदग / राजा खनल. पूजा हेतु लाई गयी शराब में भक्तों द्वारा लाई गयी शराब मिलकर देव को अर्पित करने के बाद प्रसाद के रूप में बांटी जाती है जिसे पीकर सब आदिवासी रात्रीपर्यंत नाचते हुए गाते हैं: ‘जोगिया भिच्छा माँगे कि / झिलमिल पोखरी क पानी.’ (१४-१४ मात्रा)
जौ को बालू में मिलाकर गाँव के हर जाती-वर्ग के घर में नौ दिन पूर्व बाँट दिया जाता है. उसी दिन जौ जमा (लगा) दी जाती है. करमा के दिन उसे देवस्थान पर लाकर अर्धरात्रि में पूजा की जाती है. इस समय का गीत है: ‘हे! हो! हाथी-घोड़ा से कइले सिंगार / हे! हो! बैगा के देबो सीधा सेर / घरे रहबू, घर अगोरबू / ना देखबू, काम बिगड़ि जाइ.’ (२२-२२, १५-१५ मात्राएँ) अर्थात हाथी-घोड़े आदि को ले जाकर देवस्थान की सजावट की गयी है. बैगा को सेर भर सीधा दिया गया है. हे सखी! तुम घर की रक्षा के लिए रह गईं, पूजा के लिए नहीं गईं. जाओ, दर्शन कर आओ, अन्यथा देव रुष हो जायेंगे और सब कार्य बिगड़ जाएँगे.
करमा समरसता, सहभागिता और सहकारिता का लोकपर्व है. कर्मा गीतों में सामान्य जन के जीवन से सम्बंधित सुख-दख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, हास-परिहास आदि के दृश्य संगीत की भाव-लहरियों में अभिव्यक्त किए जाते हैं. करमा गीतों में आलाप की महती भूमिका है. मात्रिक अथवा वार्णिक असंतुलन आलाप द्वारा संतुलित कर लिया जाता है. वाचिक छंद को मात्रिक या वार्णिक छंद की कसौटी पर कसें तो बहुधा पंक्तियाँ सामान न होने से दुविधा उपस्थित होती है किंतु गायक को कहीं असंतुलन नहीं प्रतीत होता. इस लिए वाची लोक-काव्य को छंदा-शास्त्र की कसैती पर कसते समय आलाप तथा टेर को भी गणना में लेना होगा.  
पहार तरे मुगिया मो बनके / साईं मोंगिया हरल झबरा के डार / ननदी सिरी किसुना बंसिया बजावे / ब्रिन्दावन सिरी किसुना बंसिया हो बजावे / कवन बन गइया रे चरावे / ननदी कवन घट पनिया हो पियावे / ननदी धीरे-धीरे गइया ठुकरावे / ननदी कदम तरे गइया रखवावे / नीबी तारे बछरू छ्नावे / ननदी अपने कदम चढ़ि जावे / जब लगि अपने कदम चढ़ि जाई / बाघिन लपसत आवे / केकर धइले छेरिया बछरुवा / ननदी हो केकर धइले धेनुगाय / ननदों हो लइकवा में कइले बा गोहार / ननद हो कोई नाहीं धवले गोहार / ननदी हो राम-लछिमन धवले गोहार. भावार्थ: वृन्दावन में धेनु चराते श्रीकृष्ण  कदम वृक्ष पर चढ़ जाते हैं. तभी एक बाघिन आकर गाय-बछड़ों को मारकर खा जाना चाहती है, गुहार मचने पर राम-लक्षमण रक्षा के लिए आ जाते हैं.
भुइंया आदिवासियों का करमा गीत:
लीप-लीप पिपरी क पात डोले/ दीप-दीप उगेले जोन्हइया/ तील-तील बढ़ेले गोरी के देहिया/ दड़हर खोजे, बड़हर खोजै कतहूँ न मिलल जोड़ी जवान./ केकर घरे तेल माड़े, केकर घरे ककही / केकर घरे मान सँवारे / बांह ले सुरूजा मंड़र खीया / भरि माँग सेन्हुआ भरावै / भरि माथ टिकुल ढमकावै / टक-टक मथवा निहारे निलजिया.
भावार्थ: पीपल का पत्ता धीरे-धीरे डोल रहा है, चाँदनी दिपदिपा रही है. किशोरी का तन तिल-तिल कर बढ़ रहा है. यहाँ-वहाँ खोजने पर भी सुयोग्य वर नहीं मिल रहा. किसी के घर से तेल, किसी के घर से कंघी माँगकर, सिन्दूर से माँग भरकर, माथे पर टिकुली लगाकर गोरी निर्लज्ज की तरह अपना रूप निहारती है.
धांगर आदिवासियों का करमा गीत:
देवरा दुलरू हव हो / कहि के आवें आधी रतिया / देवरा दुलरू हव हो / घरवा में सूतल रहली /  भउजी एक दिन दुपहरिया / देवरा खिड़की में ठाढ़ / तूंत बइठ देवरा माया के पलंगिया / देवरा दुलरू कहें / भउजी हमत बइठब तोहरे पलंगिया / भउजी बइठावे देवरा हो / देवरा दुलरू तूं अइसन मजा पइबा / बहरा तूं घूंमबा अकेल / घरवा म गाव ला गीत हो / देवरा दुलरू हवं हो.
भावार्थ: दुलारा देवर आधी रात में भाभी के पास क्यों आता है? एक दोपहर देवर खिड़की में खड़ा, घर में सोती भौजी को निहारता है. भाभी देख लेती है और कहती है कि वह माँ के पलंग पर सो जाए. देवर जिद करता है कि वह भाभी के पलंग पर ही बैठेगा. भाभी उसे बैठा लेती है. देवर बाहर अकेला घूमता रहता है पर घर में गीत गाता रहता है. देवर दुलारा है. 
इस गीत का मुखड़ा तथ अंतिम पंक्तियाँ भागवतजातीय तथा संस्कारीजातीय सिंह छंद में निबद्ध हैं. पदों में क्रमश: ३७ मात्रिक दंडक छंद का प्रयोग है.
वाचिक परंपरा के लोकगीत पिंगलशास्त्रीय ग्रंथ-सृजन के पूर्व रचे गए या उसी परंपरा में रचे जा रहे हैं. इन गीतों की रचना मात्रा संख्या या वर्ण संख्या पर आधारित न होकर उस अंचल विशेष में प्रचलित उच्चारणों और गायन के तरीके पर निर्भर है. इनमें मात्रा पतन तथा मात्र जोड़ने की छूट ली गयी है. इनकी रचना गायन शैली के आधार  पर है. लोकनाट्य के कथ्य को उभारने, रोचकता तथा सरसता वृद्धि के लिए छंदों का प्रयोग चिरकाल से होता रहा है. वर्तमान काल में चलचित्रों के गीतों में छंद-प्रयोग निरंतर हो रहा है किंतु आधुनिक रंगमंच पर छंद-प्रयोग सीमित हो गया है. ग्राम्यांचलों में लोकमंच पर छांदस गीतों का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है किंतु उनकी विषयवस्तु स्तरीय नहीं है.
सन्दर्भ: १. लोकनाट्य मंच की पीठिका- डॉ. अर्जुनदास केसरी व मोहनलाल बाबुलकर,

साहित्य त्रिवेणी: सम्पादकीय


सम्पादकीय:
प्रिय पाठक!
वंदे भारत-भारती। 
साहित्य: अनुभूति को अभिव्यक्त करने की सुरुचि पूर्ण कला साहित्य की जन्मदात्री है। ’सहितस्य भाव:’ तथा ‘हितेन सहितं’ के निकष पर साहित्य में सबका साथ होना तथा सबके लिए हितकर होना आवश्यक है साहित्य में बुद्धि, भाव, कल्पना तथा कला तत्वों का सम्मिश्रण अपरिहार्य है रसानंद-प्राप्ति हेतु रचित साहित्य का भाव पक्ष लक्ष्य ग्रंथों तथा विचार पक्ष लक्षण ग्रंथों में सामने आता है साहित्य-सिंधु के मंथन से काव्यामृत की प्राप्ति होती है
काव्य: काव्यप्रकाशकार मम्मट के अनुसार ‘तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुन: क्वपीपि’ (काव्य ऐसी रचना है जिसके शब्दों और अर्थों में दोष न हो, गुण अवश्य हों, अलंकार कहीं-कहीं न भी हों’ आचार्य जगन्नाथ के मत में ‘रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यं’ (रमणीय अर्थ बतानेवाले शब्द काव्य हैं) अम्बिकादत्त व्यास के मत में ‘लोकोत्तारानंददाता प्रबंध: काव्यानामभाक’ (अलौकिक आनंद देनेवाली रचना काव्य है) महापात्र विश्वनाथ कहते है ‘रसात्मकं वाक्यं काव्यं’ (रसमय वाक्य काव्य है) डंडी काव्य की शोभा अलंकार से मानते हैं (काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते) रुय्यक काव्य में अलंकार को प्रधान मानते हैं (अलंकारा एव काव्य प्रधानमिति प्रच्यानां मतं) वामन के अनुसार काव्य की आत्मा रीति है (रीतिरात्मा काव्यस्य) कुंतक वक्रोक्ति को काव्य का जीवन बताते हैं (वक्रोक्ति: काव्यजीवितं) आनंदवर्धन ध्वनि को काव्य की आत्मा कहते हैं (काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति) क्षेमेंद्र ने रस को महत्त्व दिया (औचित्यं रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितं) रुद्रट  के अनुसार कितना भी अधिक यत्न करना पड़े किन्तु काव्य को रसयुक्त होना ही चाहिए (तस्मात्कर्तव्यं यत्नेन महीयासा रसैर्युक्तं) अग्निपुराणकार के अनुसार वाग्वैदग्ध्य प्रधान होने पर भी काव्य का प्राण ‘रस’ ही है (वाग्वैदग्ध्यप्रधानेsपि रस एवात्र जीवितं) काव्य के विविध तत्वों को अंतत: रस का सहायक प्रतिपादित किया गया- ‘तेन रस एव वस्तुत आत्मा वस्त्वलंकारध्वनि तु सर्वथा रसं प्रति पर्यवस्येते’ (रस ही वस्तुत: काव्य की आत्मा है, वस्तु-ध्वनि व अलंकार –ध्वनि अंतत: रस की सहायक मात्र हैं महापात्र विश्वनाथ समन्वय करते हुए कहते हैं: ‘शब्द-अर्थ काव्य पुरुष के शरीर, रस और भाव आत्मा, शूरता-दया-दाक्षिण्य के समान माधुर्य-ओज-प्रसाद आदि गुण हैं कानापन-बहरापन-भेंगापन के समान श्रुतिकटुत्व व च्युत संस्कृतित्व काव्य के दोष हैं वैदर्भी-पांचाली-गौडी रीतियाँ काव्य पुरुष के अवयवों का सुडौलपन है जबकि शब्दगत और अर्थगत अलंकार कुंडल-कंकण की भाँति अलंकार हैं छोटी पद्य  रचनाएँ मुक्तक आदि ‘कविता’ तथा बड़े पद्य ग्रन्थ ‘काव्य’ हैं काव्य के अंतर्गत सिद्धांतत: गद्य भी है       
काव्योद्देश्य: अलौकिक आनंद, उपदेश, मानवीय राग का सृष्टि के साथ सामंजस्य, कार्य में प्रवृत्त करना, स्वभाव शोधन आदि काव्य के उद्देश्य कहे गए हैं दृश्य तथा श्रव्य काव्य के २ प्रकार हैं श्रव्य काव्य के २ भेद वाच्यार्थपरक तथा व्यंग्यार्थपरक हैं अर्थ की रमणीयता के आधार पर ध्वनि काव्य को उत्तम, व्यंग्य काव्य को माध्यम तथा चित्र काव्य को अधम कहा गया है
छंद: प्रस्तुत अंक पद्य और छंद के अंतर्संबंध पर केंद्रित है छंद को आत्मा और पद्य को शरीर कह सकते हैं ध्वनि छंदबद्ध होकर पद्य रूप में आनंदित करती है चयनित छंदों के विधान और उदाहरण पर आधारित कई पत्रिकाओं के विशेषांक प्रकाश में आ चुके हैं साहित्य त्रिवेणी के इस अंक में नव रचनाकारों के लिए संस्कृत-काल से प्राप्त वैदिक-लौकिक छंदों की विरासत, संगीत, नृत्य और साहित्य में छंद, लय, गति आदि की अवधारणा, आंचलिक लोकगीतों में छंद, जीवन के विविध क्षेत्रों (बाल शिक्षा, कृषि, चिकित्सा, यांत्रिकी, जनसंपर्क आदि) में छंद की भूमिका की पड़ताल का प्रयास संभवत: पहली बार किया गया है लीक से हटकर ऐसे अध्ययन और लेखन के लिए अधिकांश प्रतिष्ठित (?) हस्ताक्षरों का आगे न आना जटिल संपादकीय दायित्व को जटिलतर बनाता रहा 
गत ४ दशकों से छंद-पठन और छंद-रचना से निरंतर जुड़े रहने और २ दशकों से छंद कोष हेतु नव छंदों के प्रणयन के प्रतिबद्धता ने छंद से जुड़े अनेक आयामों से परिचय कराया है। कुछ इस अंक में स्थान पा सके हैं, शेष फिर कभी सामने लाए जाएँगे। वाचिक छंदों में लयाधारित मात्रा-गणना एक इसी ही संकल्पना है जिस पर अभी तक विचार नहीं हुआ है। हिंदी के किताबी प्राध्यापक और रचनाकार ध्वनि-खंड (सिलेबल्स, रुक्न) को वर्ण या मात्रा से हटकर उच्चार समय के आधार पर गिनने से परहेज करते हैं। वे भूल जाते हैं कि भाषा ओर छंद का जन्म और विकास 'लोक' में होता है, किताबों में नहीं। लोक-काव्य में 'छंद' की प्राण-प्रतिष्ठा हो जाने के बाद अध्येता उसके लक्षण तलाशकर किताब-बद्ध करते हैं। सलिल-धार की तरह सर्वाधिक लचीली काव्य विधा का विधान पत्थर की तरह रूढ़ कैसे हो सकता है? लय-खंडाधारित जापानी छंदों को वर्णाधारित कर, तुकबन्दी के माध्यम से सरसता लाने के दुष्प्रयास ने हिंदी हाइकु को विश्व की अन्य भाषाओं में हाइकु-लेखन हाइकु से सर्वथा अलग कर दिया है। यही जड़ता दोहा छंद के विषम चरण की ग्यारहवीं मात्रा को लघु रखने में दिन-ब-दिन बढ़ रही है। हिंदी छंद-लेखन में बाल की खाल निकलने की दुष्प्रवृत्ति के फलस्वरूप युवा पीढ़ी उस उर्दू की गोद में बैठ रही है जिसके शब्द कोष में उसका अपना कोई शब्द ही नहीं है। कमाल यह कि हिंदी छंद-लेखन की चीर-फाड़ करनेवालों को ग़ज़ल जैसी काव्य विधाओं में मात्र गिराने-बढ़ाने पर आपत्ति नहीं होती। इस प्रसंग में अन्य उपयुक्त अवसर पर चर्चा की जा सकेगी।    
आभार उन सभी कलमों का जिन्होंने हिचकते-हिचकते ही सही छंद-लेखन से संबंधित नव विचारों पर लेखन को मूर्त रूप दिया सर्वाधिक आभार साहित्य त्रिवेणी पत्रिका के कर्मठ और हिंदी हेतु प्राण-प्राण से समर्पित संपादक डॉ. कुंवर वीरसिंह शर्मा ‘मार्तण्ड’ का जिन्होंने ‘छंद विशेषांक’ नेकलने के मेरे प्रस्ताव को न केवल सहर्ष स्वीकार किया, इसकी परिकल्पना, सामग्री संचयन, संपादन आदि की पूर्ण स्वतंत्रता भी दी यहाँ तक कि पत्रिका के सामान्य अंक से दो गुने से अधिक सामग्री होने पर दो अंक संयुक्त करने और पुस्तकाकार प्रकाशित करने के विचार से भी सहमति दिखाई अपना सर्वोत्तम प्रयास करने के बाद भी मैं सामग्री समय पर जुटा और संपादित न कर सका, इस विलंब हेतु खेद-प्रकाश के अतिरिक्त मुझ अकिंचन के पास और है ही क्या? मन की अन्तरंग गहराइयों से कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ सभी लेखकों के प्रति जिन्होंने समयाभाव और पूर्व निर्धारित व्यस्तताओं के बाद भी मेरे आग्रह की रक्षा की आभार उन सबका भी जिन्होंने किसी कारणवश लेख नहीं भेजे, वे मेरे ‘तुरुप के इक्के’ हैं, अगले किसी सारस्वत अनुष्ठान में उनके सहारे ही नैया पार लगेगी। यह सकल अनुष्ठान माँ शारदा की प्रेरणा, कृपा और दिशा-दर्शन से इस रूपाकार में आपके सम्मुख है इसमें यत्किंचित जो भी अच्छा है वह माँ और लेखकों का है सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। असंख्य कमियाँ और त्रुटियाँ मेरी अक्षमता, अल्पज्ञता और अनुभवहीनता के कारण हैं, उन सबके लिए नतशिर क्षमाप्रार्थी हूँ नई पीढ़ी को इस अंक के माध्यम से ‘छंद’ से जुड़ने और छंद में लिखने की प्रेरणा मिल सके तो यह प्रयास सफल होगा
विश्ववाणी हिंदी की जय। 
हिंदी सेवार्थ समर्पित 
संजीव  
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