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मंगलवार, 11 अक्टूबर 2016

chintan / vimarsh

चिन्तन / विमर्श 
चरण स्पर्श क्यों?
*
चरण स्पर्श के कई आयाम है। गुरु या सिद्ध सन्त के चरण स्पर्श का आशय उनकी सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करना होता है। इस हेतु दाहिने हाथ की अंगुलियों से बाएं पैर के अंगुष्ठ को तथा बाएं हाथ की अँगुलियों से दाहिने पैर के अंगुष्ठ का स्पर्श किया जाता है। परमहंस ने अपने पैर का अंगुष्ठ नरेंद्र के मस्तक पर अपने अंतिम समय में स्पर्श कराकर अपनी सकल सिद्धियाँ देकर उन्हें विवेकानन्द बना दिया था। अपनों से ज्ञान, मान, अनुभव, योग्यता व उम्र में बड़ों के पैर छूने की प्रथा का आशय अपने अहन को तिलांजलि देकर विनम्रता पूर्वक आशीर्वाद पाना है। आजकल छद्म विनम्रता दिखाकर घुटने स्पर्श करने का स्वांग करनेवाले भूल जाते हैं की इसका आशय शत्रुता दर्शन है। के कई आयाम है। गुरु या सिद्ध सन्त के चरण स्पर्श का आशय उनकी सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करना होता है। इस हेतु दाहिने हाथ की अंगुलियों से बाएं पैर के अंगुष्ठ को तथा बाएं हाथ की अँगुलियों से दाहिने पैर के अंगुष्ठ का स्पर्श किया जाता है। परमहंस ने अपने पैर का अंगुष्ठ नरेंद्र के मस्तक पर अपने अंतिम समय में स्पर्श कराकर अपनी सकल सिद्धियाँ देकर उन्हें विवेकानन्द बना दिया था। अपनों से ज्ञान, मान, अनुभव, योग्यता व उम्र में बड़ों के पैर छूने की प्रथा का आशय अपने अहन को तिलांजलि देकर विनम्रता पूर्वक आशीर्वाद पाना है। आजकल छद्म विनम्रता दिखाकर घुटने स्पर्श करने का स्वांग करनेवाले भूल जाते हैं की इसका आशय शत्रुता प्रदर्शन है।

padya prashnottar

प्रश्न -उत्तर 

हिन्द घायल हो रहा है पाक के हर दंश से
गॉधीजी के बन्दरों का अब बताओ क्या करें ? -समन्दर की मौजें
*
बन्दरों की भेंट दे दो अब नवाज़ शरीफ को
बना देंगे जमूरा भारत का उनको शीघ्र ही - संजीव
*

navgeet

नवगीत  
*
क्यों न फुनिया कर 
सुनूँ आवाज़ तेरी?
*
भीड़ में घिर
हो गया है मन अकेला
धैर्य-गुल्लक
में, न बाकी एक धेला
क्या कहूँ
तेरे बिना क्या-क्या न झेला?
क्यों न तू
आकर बना ले मुझे चेला?
मान भी जा
आज सुन फरियाद मेरी
क्यों न फुनिया कर
सुनूँ आवाज़ तेरी?
*
प्रेम-संसद
विरोधी होंगे न मैं-तुम
बोल जुमला
वचन दे, पलटें नहीं हम
लाएँ अच्छे दिन
विरह का समय गुम
जो न चाहें
हो मिलन, भागें दबा दुम
हुई मुतकी
और होने दे न देरी
क्यों न फुनिया कर
सुनूँ आवाज़ तेरी?
*
२४-२५ सितंबर २०१६

kavitta

कवित्त 
*
राम-राम, श्याम-श्याम भजें, तजें नहीं काम 
ऐसे संतों-साधुओं के पास न फटकिए। 
रूप-रंग-देह ही हो इष्ट जिन नारियों का 
भूलो ऐसे नारियों को संग न मटकिए।।
प्राण से भी ज्यादा जिन्हें प्यारी धन-दौलत हो
ऐसे धन-लोलुपों के साथ न विचरिए।
जोड़-तोड़ अक्षरों की मात्र तुकबन्दी बिठा
भावों-छंदों-रसों हीन कविता न कीजिए।।
***
मान-सम्मान न हो जहाँ, वहाँ जाएँ नहीं
स्नेह-बन्धुत्व के ही नाते ख़ास मानिए।
सुख में भले हो दूर, दुःख में जो साथ रहे
ऐसे इंसान को ही मीत आप जानिए।।
धूप-छाँव-बरसात कहाँ कैसा मौसम हो?
दोष न किसी को भी दें, पहले अनुमानिए।
मुश्किलों से, संकटों से हारना नहीं है यदि
धीरज धरकर जीतने की जिद ठानिए।।
***

navgeet

नवगीत 
*
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा 
पुनर्मरण हर रात। 
चलो बैठ पल दो पल कर लें 
मीत! प्रीत की बात।
*
गौरैयों ने खोल लिए पर
नापें गगन विशाल।
बिजली गिरी बाज पर
उसका जीना हुआ मुहाल।
हमलावर हो लगा रहा है
लुक-छिपकर नित घात
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
आ बुहार लें मन की बाखर
कहें न ऊँचे मोल।
तनिक झाँक लें अंतर्मन में
निज करनी लें तोल।
दोष दूसरों के मत देखें
खुद उजले हों तात!
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
स्वेद-'सलिल' में करें स्नान नित
पूजें श्रम का दैव।
निर्माणों से ध्वंसों को दें
मिलकर मात सदैव।
भूखे को दें पहले,फिर हम
खाएं रोटी-भात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
साक्षी समय न हमने मानी
आतंकों से हार।
जैसे को तैसा लौटाएँ
सरहद पर इस बार।
नहीं बात कर बात मानता
जो खाये वह लात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
लोकतंत्र में लोभतंत्र क्यों
खुद से करें सवाल?
कोशिश कर उत्तर भी खोजें
दें न हँसी में टाल।
रात रहे कितनी भी काली
उसके बाद प्रभात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*****
२४-९-२०१६

navgeet

एक रचना 
बातें हों अब खरी-खरी 

मुँह देखी हो चुकी बहुत 
अब बातें हों कुछ खरी-खरी 
जो न बात से बात मानता
लातें तबियत करें हरी
*
पाक करे नापाक हरकतें
बार-बार मत चेताओ
दहशतगर्दों को घर में घुस
मार-मार अब दफनाओ
लंका से आतंक मिटाया
राघव ने यह याद रहे
काश्मीर को बचा-मिलाया
भारत में, इतिहास कहे
बांगला देश बनाया हमने
मत भूले रावलपिडी
कीलर-सेखों की बहादुरी
देख सरहदें थीं सिहरी
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
*
करगिल से पिटकर भागे थे
भूल गए क्या लतखोरों?
सेंध लगा छिपकर घुसते हो
क्यों न लजाते हो चोरों?
पाले साँप, डँस रहे तुझको
आजा शरण बचा लेंगे
ज़हर उतार अजदहे से भी
तेरी कसम बचा लेंगे
है भारत का अंग एक तू
दुहराएगा फिर इतिहास
फिर बलूच-पख्तून बिरादर
के होंठों पर होगा हास
'जिए सिंध' के नारे खोदें
कब्र दुश्मनी की गहरी
मुँह देखी हो चुकी बहुत
अब बातें हों कुछ खरी-खरी
*
२१-९-२०१६

hindi diwas- doha

दोहा सलिला 
हिंदी की तस्वीर
*
हिंदी की तस्वीर के, अनगिन उजले पक्ष 
जो बोलें वह लिख-पढ़ें, आम लोग, कवि दक्ष 
*
हिदी की तस्वीर में, भारत एकाकार
फुट डाल कर राज की, अंग्रेजी आधार
*
हिंदी की तस्वीर में, सरस सार्थक छंद
जितने उतने हैं कहाँ, नित्य रचें कविवृंद
*
हिंदी की तस्वीर या, पूरा भारत देश
हर बोली मिलती गले, है आनंद अशेष
*
हिंदी की तस्वीर में, भरिए अभिनव रंग
उनकी बात न कीजिए, जो खुद ही भदरंग
*
हिंदी की तस्वीर पर अंग्रेजी का फेम
नौकरशाही मढ़ रही, नहीं चाहती क्षेम
*
हिंदी की तस्वीर में, गाँव-शहर हैं एक
संस्कार-साहित्य मिल, मूल्य जी रहे नेक
*

hindi diwas- geet-muktak

हाइकू गीत 
*
बोल रे हिंदी 
कान में अमरित 
घोल रे हिंदी 
*
नहीं है भाषा
है सभ्यता पावन
डोल रे हिंदी
*
कौन हो पाए
उऋण तुझसे, दे
मोल रे हिंदी?
*
आंग्ल प्रेमी जो
तुरत देना खोल
पोल रे हिंदी
*
झूठा है नेता
कहाँ सच कितना?
तोल रे हिंदी
*
मुक्तक
हिंदी का उद्घोष छोड़, उपयोग सतत करना है
कदम-कदम चल लक्ष्य प्राप्ति तक संग-संग बढ़ना है
भेद-भाव की खाई पाट, सद्भाव जगाएँ मिलकर
गत-आगत को जोड़ सके जो वह पीढ़ी गढ़ना है
*
गीत
*
देश-हितों हित
जो जीते हैं
उनका हर दिन अच्छा दिन है।
वही बुरा दिन
जिसे बिताया
हिंद और हिंदी के बिन है।
*
अपने मन में
झाँक देख लें
क्या औरों के लिए किया है?
या पशु, सुर,
असुरों सा जीवन
केवल निज के हेतु जिया है?
क्षुधा-तृषा की
तृप्त किसी की,
या अपना ही पेट भरा है?
औरों का सुख छीन
बना जो धनी
कहूँ सच?, वह निर्धन है।
*
जो उत्पादक
या निर्माता
वही देश का भाग्य-विधाता,
बाँट, भोग या
लूट रहा जो
वही सकल संकट का दाता।
आवश्यकता
से ज्यादा हम
लुटा सकें, तो स्वर्ग रचेंगे
जोड़-छोड़ कर
मर जाता जो
सज्जन दिखे मगर दुर्जन है।
*
बल में नहीं
मोह-ममता में
जन्मे-विकसे जीवन-आशा।
निबल-नासमझ
करता-रहता
अपने बल का व्यर्थ तमाशा।
पागल सांड
अगर सत्ता तो
जन-गण सबक सिखा देता है
नहीं सभ्यता
राजाओं की,
आम जनों की कथा-भजन है
***
हिंदी दिवस २०१६

muktak

समस्या पूर्ति - मुक्तक
किसी अधर पर नहीं 
*
किसी अधर पर नहीं शिवा -शिव की महिमा है 
हरिश्चन्द्र की शेष न किंचित भी गरिमा है 
विश्वनाथ सुनते अजान नित मन को मारे
सीढ़ी , सांड़, रांड़ काशी में, नहीं क्षमा है
*
किसी अधर पर नहीं शेष है राम नाम अब
राजनीति हैं खूब, नहीं मन में प्रणाम अब
अवध सत्य का वध कर सीता को भेजे वन
जान न पाया नेताजी को, हैं अनाम अब
*
किसी अधर पर नहीं मिले मुस्कान सुहानी
किसी डगर पर नहीं किशन या राधा रानी
नन्द-यशोदा, विदुर-सुदामा कहीं न मिलते
कंस हर जगह मुश्किल उनसे जान बचानी
*
किसी अधर पर नहीं प्रशंसा शेष की
इसकी, उसकी निंदा ही हो रही न किसकी
दलदल मचा रहे हैं दल, संसद में जब-तब
हुआ उपेक्षित सुनता कोई न सिसकी
*
किसी अधर पर नहीं सोहती हिंदी भाषा
गलत बोलते अंग्रेजी, खुद बने तमाशा
माँ को भूले। पैर पत्नी के दबा रहे हैं
जिनके सर पर है उधार उनसे क्या आशा?
*
किसी अधर पर नहीं परिश्रम-प्रति लगाव है
आसमान पर मँहगाई सँग चढ़े भाव हैं
टैक्स बढ़ा सरकारें लूट रहीं जनता को
दुष्कर होता जाता अब करना निभाव है
*
किसी अधर पर नहीं शेष अब जन-गण-मन है
स्त्री हो या पुरुष रह गया केवल तन है
माध्यम जन को कठिन हुआ है जीना-मरना
नेता-अभिनेता-अफसर का हुआ वतन है
*

laghukatha

लघुकथा
टुकड़े स्पात के
*
धाँय धाँय धाँय
भारी गोलाबारी ने काली रात को और अधिक भयावह बना दिया था किन्तु वे रेगिस्तान की रेत के बगुलों से भरी अंधी में भी अविचलित दुश्मन की गोलियों का जवाब दे रहे थे। अन्तिम पहर में दहशत फैलाती भरी आवाज़ सुनकर एक ने झरोखे से झाँका और घुटी आवाज़ में चीखा 'उठो, टैंक दस्ता'। पल भर में वे सब अपनी मशीन गनें और स्टेन गनें थामे हमले के लिये तैयार थे। चौकी प्रभारी ने कमांडर से सम्पर्क कर स्थिति की जानकारी दी, सवेरे के पहले मदद मिलना असम्भव था।
कमांडर ने चौकी खाली करने को कहा लेकिन चौकी पर तैनात टुकड़ी के हर सदस्य ने मना करते हुए आखिरी सांस और खून की आखिरी बूँद तक संघर्ष का निश्चय किया। प्रभारी ने दोपहर तह मुट्ठी भर जवानों के साथ दुश्मन की टैंक रेजमेंट का सामना करने की रणनीति के तहत सबको खाई और बंकरों में छिपने और टैंकों के सुरक्षित दूरी तक आने के पहले के आदेश दिए।
पैदल सैनिकों को संरक्षण (कवर) देते टैंक सीमा के समीप तक आ गये। एक भी गोली न चलने से दुश्मन चकित और हर्षित था कि बिना कोई संघर्ष किये फतह मिल गयी। अचानक 'जो बोले सो निहाल' की सिंह गर्जना के साथ टुकड़ी के आधे सैनिक शत्रु के जवानों पर टूट पड़े, टैंक इतने समीप आ चुके थे कि उनके गोले टुकड़ी के बहुत पीछे गिर रहे थे। दुश्मन सच जान पाता इसके पहले ही टुकड़ी के बाकी जवान हथगोले लिए टैंकों के बिलकुल निकट पहुँच गए और जान की बाजी लगाकर टैंक चालकों पर दे मारे। धू-धू कर जलते टैंकों ने शत्रु के फौजियों का हौसला तोड़ दिया। प्राची में उषा की पहली किरण के साथ वायुयानों ने उड़ान भरी और उनकी सटीक निशानेबाजी से एक भी टैंक न बच सका। आसमान में सूर्य चमका तो उसे भी मुट्ठी भर जवानों को सलाम करना पड़ा जिनके अद्भुत पराक्रम की साक्षी दे रहे थे मरे हुए शत्रु जवान और जलते टैंकों के इर्द-गिर्द फैले स्पात के टुकड़े।
***

laghukatha

लघुकथा
सियाह लहरें
*
दस नौ आठ सात
उलटी गिनती आरम्भ होते ही सबके हृदयों की धड़कनें तेज हो गयीं। अनेक आँखें स्क्रीन पर गड गयीं। कुछ परदे पर दुःख रही नयी रेखा को देख रहे थे तो कुछ हाथों में कागज़ पकड़े परदे पर बदलते आंकड़ों के साथ मिलान कर रहे थे। कुछ अन्य कक्ष में बैठे अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों को कुछ बता रहे थे।
दूरदर्शन के परदे पर अग्निपुंज के बीच से निकलता रॉकेट। नील गगन के चीरता बढ़ता गया और पृथ्वी के परिपथ के समीप दूसरा इंजिन आरम्भ होते ही परिपथ में प्रविष्ट हो गया। आनंद से उछल पड़े वे सब।

प्रधान मंत्री, रक्षा मंत्री आदि ने प्रमुख वैज्ञानिक, उनके पूरे दल और सभी कर्मचारियों को बधाई देते हुए अल्प साधनों, निर्धारित से कम समय तथा पहले प्रयास में यह उपलन्धि पाने को देश का गौरव बताया। आसमान पर इस उपलब्धि को सराह रहे थे रॉकेट के जले ईंधन से बनी फैलती जा रही सियाह लहरें।
***

laghukatha

लघुकथा
चट्टान
*
मुझे चैतन्य क्यों नहीं बनाया? वह हमेशा शिकायत करती अपने सृजनहार से। उसे खुद नहीं मालुम कब से वह इसी तरह पड़ी थी, उपेक्षित और अनदेखी। न जाने कितने पतझर और सावन बीत गए लेकिन वह जैसी की तैसी पड़ी रही। कभी कोई भूला-भटका पर्यटक थककर सुस्ताने बैठ जाता तो वह हुलास अनुभव करती किन्तु चंद क्षणों का साथ छूटते ही फिर अकेलापन। इस दीर्घ जीवन-यात्रा में धरती और आकाश के अतिरिक्त उसके साथी थे कुछ पेड़-पौधे, पशु और परिंदे। कहते है सब दिन जात न एक समान। एक दिन कुछ दो पाये जानवर आये, पेड़ों के फल तोड़कर खाये, खरीदी जमीन को समतल कर इमारत खड़ी करने की बात करने लगे।
फिर एक-एक कर आए गड़गड़ - खड़खड़ करते दानवाकार यन्त्र जो वृक्षों का कत्ले-आम कर परिंदों को बेसहारा कर गए, टीलों को खोदने और तालाबों को पाटने लगे। उनका क्रंदन सुनकर उसकी छाती फटने लगी। मरती क्या न करती? उसने बदला लेने की ठानी और उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगी। एक दिन उसकी करुण पुकार सुनकर पसीजे मेघराज की छाती फट गयी। बिजली तांडव करना आरम्भ कर तड़तड़ाती हुई जहाँ-तहाँ गिरी। उसने भी प्रकृति के साथ कदमताल करते हुए अपना स्थान छोड़ा। पहाड़ी नदी की जलधार के साथ लुढ़कती हुई वह हर बाधा को पर कर दो पैरोंवाले जानवरों को रौंदते-कुचलते हुए केदारनाथ की शरण पाकर थम गयी।
खुद को महाबली समझनेवाले जानवरों को रुदन-क्रंदन करते देख उसका मन भर आया किंतु उसे विस्मय हुआ यह देखकर कि उन जानवरों ने अपनी गलती न मान, प्रकृति और भगवान को दोष देती कवितायें लिख-लिखकर टनों कागज़ काले कर दिए, पीड़ितों की सहायता के नाम पर अकथनीय भ्रष्टाचार किया और फिर इमारतें तानने की तैयारी आरंभ कर दी। उसे अनुभव हुआ कि इन चैतन्य जानवरों से लाख गुना बेहतर हैं कम चेतन कहे जानेवाले पशु-पक्षी और जड़ कही जानेवाली वह खुद जिसे कहा जाता है चट्टान।
***

muktak

कार्यशाला 
प्रश्नोत्तरी मुक्तक-
माँ की मूरत सजीं देख भी आइये। 
कर प्रसादी ग्रहण पुण्य भी पाइये।। 
मन में झाँकें विराजी हैं माता यहीं 
मूँद लीजै नयन, क्यों कहीं जाइये?
*
उसे पढ़िए, समझिये और प्रश्नोत्तरी मुक्तक रचिए। कव्वाली में सवाल-जवाब की परंपरा रही है। याद करें सुपर हिट कव्वाली 'इशारों को अगर समझो राज़ को राज़ रहने दो'
***
मुक्तक-
आस माता, पिता श्वास को जानिए 

साथ दोनों रहे आप यदि ठानिए
रास होती रहे, हास होता रहे -
ज़िन्दगी का मजा रूठिए-मानिए
***

शनिवार, 8 अक्टूबर 2016

laghukatha

लघुकथा काँच का प्याला * हमेशा सुरापान से रोकने के लिए तत्पर पत्नी को बोतल और प्याले के साथ बैठा देखकर वह चौंका। पत्नी ने दूसरा प्याला दिखाते हुए कहा 'आओ, तुम भी एक पैग ले लो।' वह कुछ कहने को हुआ कि कमरे से बेटी की आवाज़ आयी 'माँ! मेरे और भाभी के लिए भी बना दे। ' 'क्या तमाशा लगा रखा है तुम लोगों ने? दिमाग तो ठीक है न?' वह चिल्लाया। 'अभी तक तो ठीक नहीं था, इसीलिए तो डाँट और कभी-कभी मार भी खाती थी, अब ठीक हो गया है तो सब साथ बैठकर पियेंगे। मूड मत खराब करो, आ भी जाओ। ' पत्नी ने मनुहार के स्वर में कहा। वह बोतल-प्याले समेत कर फेंकने को बढ़ा ही था कि लड़ैती नातिन लिपट गयी- 'नानू! मुझे भी दो न' उसके सब्र का बाँध टूट गया, नातिन को गले से लगाकर फुट पड़ा वह 'नहीं, अब कभी हाथ भी नहीं लगाऊँगा। तुम सब ऐसा मत करो। हे भगवान्! मुझे माफ़ करों' और लपककर बोतल घर के बाहर फेंक दी। उसकी आँखों से बह रहे पछतावे के आँसू समेटकर मुस्कुरा रहा था काँच का प्याला। **

laghukatha

लघुकथा समाधि * विश्व पुस्तक दिवस पर विश्व विद्यालय के ग्रंथागार में पधारे छात्र नेताओं, प्राध्यापकों, अधिकारियों, कुलपति तथा जनप्रतिनिधियों ने क्रमश: पुस्तकों की महत्ता पर लंबे-लंबे व्याख्यान दिए। द्वार पर खड़े एक चपरासी ने दूसरे से पूछा- 'क्या इनमें से किसी को कभी पुस्तकें लेते, पढ़ते या लौटाते देखा है?' 'चुप रह, सच उगलवा कर नौकरी से निकलवायेगा क्या? अब तो विद्यार्थी भी पुस्तकें लेने नहीं आते तो ये लोग क्यों आएंगे?' 'फिर ये किताबें खरीदी ही क्यों जाती हैं? 'सरकार से प्राप्त हुए धन का उपयोग होने की रपट भेजना जरूरी होता है तभी तो अगले साल के बजट में राशि मिलती है, दूसरे किताबों की खरीदी से कुलपति, विभागाध्यक्ष, पुस्तकालयाध्यक्ष आदि को कमीशन भी मिलता है।' 'अच्छा, इसीलिये हर साल सैंकड़ों किताबों को दे दी जाती है समाधि।' ***

laghukatha

लघुकथा
टुकड़े स्पात के
*
धाँय धाँय धाँय
भारी गोलाबारी ने काली रात को और अधिक भयावह बना दिया था किन्तु वे रेगिस्तान की रेत के बगुलों से भरी अंधी में भी अविचलित दुश्मन की गोलियों का जवाब दे रहे थे। अन्तिम पहर में दहशत फैलाती भरी आवाज़ सुनकर एक ने झरोखे से झाँका और घुटी आवाज़ में चीखा 'उठो, टैंक दस्ता'। पल भर में वे सब अपनी मशीन गनें और स्टेन गनें थामे हमले के लिये तैयार थे। चौकी प्रभारी ने कमांडर से सम्पर्क कर स्थिति की जानकारी दी, सवेरे के पहले मदद मिलना असम्भव था।
कमांडर ने चौकी खाली करने को कहा लेकिन चौकी पर तैनात टुकड़ी के हर सदस्य ने मना करते हुए आखिरी सांस और खून की आखिरी बूँद तक संघर्ष का निश्चय किया। प्रभारी ने दोपहर तह मुट्ठी भर जवानों के साथ दुश्मन की टैंक रेजमेंट का सामना करने की रणनीति के तहत सबको खाई और बंकरों में छिपने और टैंकों के सुरक्षित दूरी तक आने के पहले के आदेश दिए।
पैदल सैनिकों को संरक्षण (कवर) देते टैंक सीमा के समीप तक आ गये। एक भी गोली न चलने से दुश्मन चकित और हर्षित था कि बिना कोई संघर्ष किये फतह मिल गयी। अचानक 'जो बोले सो निहाल' की सिंह गर्जना के साथ टुकड़ी के आधे सैनिक शत्रु के जवानों पर टूट पड़े, टैंक इतने समीप आ चुके थे कि उनके गोले टुकड़ी के बहुत पीछे गिर रहे थे। दुश्मन सच जान पाता इसके पहले ही टुकड़ी के बाकी जवान हथगोले लिए टैंकों के बिलकुल निकट पहुँच गए और जान की बाजी लगाकर टैंक चालकों पर दे मारे। धू-धू कर जलते टैंकों ने शत्रु के फौजियों का हौसला तोड़ दिया। प्राची में उषा की पहली किरण के साथ वायुयानों ने उड़ान भरी और उनकी सटीक निशानेबाजी से एक भी टैंक न बच सका। आसमान में सूर्य चमका तो उसे भी मुट्ठी भर जवानों को सलाम करना पड़ा जिनके अद्भुत पराक्रम की साक्षी दे रहे थे मरे हुए शत्रु जवान और जलते टैंकों के इर्द-गिर्द फैले स्पात के टुकड़े।
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laghukatha

लघुकथा
सियाह लहरें
*
दस नौ आठ सात
उलटी गिनती आरम्भ होते ही सबके हृदयों की धड़कनें तेज हो गयीं। अनेक आँखें स्क्रीन पर गड गयीं। कुछ परदे पर दुःख रही नयी रेखा को देख रहे थे तो कुछ हाथों में कागज़ पकड़े परदे पर बदलते आंकड़ों के साथ मिलान कर रहे थे। कुछ अन्य कक्ष में बैठे अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों को कुछ बता रहे थे।
दूरदर्शन के परदे पर अग्निपुंज के बीच से निकलता रॉकेट। नील गगन के चीरता बढ़ता गया और पृथ्वी के परिपथ के समीप दूसरा इंजिन आरम्भ होते ही परिपथ में प्रविष्ट हो गया। आनंद से उछल पड़े वे सब।

प्रधान मंत्री, रक्षा मंत्री आदि ने प्रमुख वैज्ञानिक, उनके पूरे दल और सभी कर्मचारियों को बधाई देते हुए अल्प साधनों, निर्धारित से कम समय तथा पहले प्रयास में यह उपलन्धि पाने को देश का गौरव बताया। आसमान पर इस उपलब्धि को सराह रहे थे रॉकेट के जले ईंधन से बनी फैलती जा रही सियाह लहरें।
***

laghukatha

लघुकथा
चट्टान
*
मुझे चैतन्य क्यों नहीं बनाया? वह हमेशा शिकायत करती अपने सृजनहार से। उसे खुद नहीं मालुम कब से वह इसी तरह पड़ी थी, उपेक्षित और अनदेखी। न जाने कितने पतझर और सावन बीत गए लेकिन वह जैसी की तैसी पड़ी रही। कभी कोई भूला-भटका पर्यटक थककर सुस्ताने बैठ जाता तो वह हुलास अनुभव करती किन्तु चंद क्षणों का साथ छूटते ही फिर अकेलापन। इस दीर्घ जीवन-यात्रा में धरती और आकाश के अतिरिक्त उसके साथी थे कुछ पेड़-पौधे, पशु और परिंदे। कहते है सब दिन जात न एक समान। एक दिन कुछ दो पाये जानवर आये, पेड़ों के फल तोड़कर खाये, खरीदी जमीन को समतल कर इमारत खड़ी करने की बात करने लगे।

फिर एक-एक कर आए गड़गड़ - खड़खड़ करते दानवाकार यन्त्र जो वृक्षों का कत्ले-आम कर परिंदों को बेसहारा कर गए, टीलों को खोदने और तालाबों को पाटने लगे। उनका क्रंदन सुनकर उसकी छाती फटने लगी। मरती क्या न करती? उसने बदला लेने की ठानी और उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगी। एक दिन उसकी करुण पुकार सुनकर पसीजे मेघराज की छाती फट गयी। बिजली तांडव करना आरम्भ कर तड़तड़ाती हुई जहाँ-तहाँ गिरी। उसने भी प्रकृति के साथ कदमताल करते हुए अपना स्थान छोड़ा। पहाड़ी नदी की जलधार के साथ लुढ़कती हुई वह हर बाधा को पर कर दो पैरोंवाले जानवरों को रौंदते-कुचलते हुए केदारनाथ की शरण पाकर थम गयी।

खुद को महाबली समझनेवाले जानवरों को रुदन-क्रंदन करते देख उसका मन भर आया किंतु उसे विस्मय हुआ यह देखकर कि उन जानवरों ने अपनी गलती न मान, प्रकृति और भगवान को दोष देती कवितायें लिख-लिखकर टनों कागज़ काले कर दिए, पीड़ितों की सहायता के नाम पर अकथनीय भ्रष्टाचार किया और फिर इमारतें तानने की तैयारी आरंभ कर दी। उसे अनुभव हुआ कि इन चैतन्य जानवरों से लाख गुना बेहतर हैं कम चेतन कहे जानेवाले पशु-पक्षी और जड़ कही जानेवाली वह खुद जिसे कहा जाता है चट्टान।
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शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2016

dr. hira lal ray

लेख-
रायबहादुर हीरा लाल राय की काव्य प्रतिभा और दमोह दीपक 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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सनातन सलिला नर्मदा के तट पर साधकों की  परंपरा चिर काल से अंकुरित, पुष्पित और पल्लवित होती रही है। साधना भूमि नर्मदा के तट पर महादेव, उमा, जमदग्नि, परशुराम, अगस्त्य, विश्वामित्र , दत्तात्रेय, जाबालि, नरहरिदास, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश 'ओशो', पदमश्री रामकिंकर उपाध्याय आदि ने विश्वव्यापी ख्याति अर्जित की है। प्रशासनिक और सामाजिक क्षेत्र में जिन नरनहरों ने इस क्षेत्र की कीर्ति पताका फहराई उनमें रायबहादुर हीरालाल राय अग्रगण्य हैं। डॉ. राय की ख्याति मुख्यत: प्रशासक तथा पुरातत्वविद के रूप में है किन्तु शिक्षा तथा साहित्य के विकास में भी उनहोंने महती भूमिका  का निर्वहन किया है।  काव्य संस्कार उन्हें विरासत में प्राप्त हुआ था। ग्राम सूपा (महोबा उ.प्र) से बिलहरी (ऐतिहासिक पुष्पावती) नगरी में आकर बसे कालूराम के पुत्र रूप में जन्में नारायण दास मुड़वारा में जा बसे। वे अपने समय के प्रसिद्ध रामायणी थे। रामचरित मानस का सुमधुर स्वर में पाठ तथा विद्वतापूर्ण व्याख्या करने में उनका दूर-दूर तक सानी न था।  हैहय वंशी क्षत्रिय होने पर भी उन्हें सामान्यत: ब्राम्हणों को प्राप्त पदवी 'पाठक' प्राप्त थी। नारायणदास के पुत्र मनबोधराम में मानस की व्याख्या हेतु आवश्यक पांडित्य न होने पर भी अगाध रूचि थी।  अत:, वे अपने हाथ से लिखकर मानस की प्रतियाँ तैयार कर दान किया करते थे। 'पुस्तक दान महादान' उनके जीवन का मूलमन्त्र बन गया था। अल्प शिक्षित होने पर भी उन्हें सुख-समृद्धि और सन्तोष की कमी न थी।  कई सन्तानों के अल्प जीवी होने के पश्चात् प्राप्त अंतिम पुत्र को जीवनरक्षा हेतु ईश्वरार्पण कर उन्होंने उनका नाम भी ईश्वरदास ही रखा। ईश्वर ने अपने दास को दीर्घजीवी भी किया। एकमात्र संतान ईश्वरदास (संवत १९०४-१९६९) का लाड-प्यार खूब मिला फलत: वे प्राथमिक से अधिक शिक्षा न पा सके। इसकी कसक उन्होंने अपने २ पुत्रों हीरालाल और गोकुलप्रसाद को उच्च शिक्षित कर मिटाई। हीरालाल जी (जन्म आश्विन शुक्ल चतुर्थी संवत १९२४ विक्रम तदनुसार १ अक्टूबर सन १८६७ ई.)   ने प्रथम काव्य-सुमन अट्ठाइस मात्रिक यौगिक जातीय छंद में लिखा पद अपनी माता-पिता को ही समर्पित किया- 

सुमिरि जस मन न समाय हुलास 
शुभ श्री कमला मातु हमारी, पितु श्री ईश्वरदास।। 
कटनी तट सोहै अति सुंदर, मुड़वारा रह वास। 
दोउन को दोऊ कर जोरे, प्रणमत दोई दास ।। १ 

मुरवारा एंग्लो वर्नाक्यूलर मिडिल स्कूल में अपनी बाल-प्रतिभा से शिक्षकों और निरीक्षकों को चकित करनेवाले हीरालाल ने सन १८८१ में माध्यमिक, १८८३ में एंट्रेंस, तथा १८८८ में बी.ए. शिक्षा प्राप्त कर गवर्नमेंट कॉलिजिएट हाई स्कूल में अध्यापक पदार्थ विज्ञान के रूप में अपने व्यक्तित्व का विकास आरम्भ किया। इस काल तक हीरालाल राय का काव्य-प्रेम काव्य पढ़ने, समझने और रसानंद लेने तक सीमित था।  १७ जनवरी सन १८९१ को सागर जिले में डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स नियुक्त होने पर उन्होंने ग्राम्यांचलों में शिक्षा के प्रसार हेतु अपने काव्य-प्रेम को औजार की तरह प्रयोग किया। उन्होंने स्कूल-कांफ्रेंसों में, शिक्षकों हेतु विषय-चयन में तथा विद्यार्थियों के लिए पाठ्य सामग्री के सृजन में कविताओं का प्रचुरता से प्रयोग किया। आपके संबोधनों में काव्यात्मक उद्धरणों का यथास्थान-यथोचित प्रयोग होता था। इससे वे सामान्य जनों हेतु सहज ग्राह्य हो जाते थे। विषय सामग्री को शुष्क तथा नीरस होने से बचाने के लिए प्रयुक्त काव्यांश सहज स्मरणीय भी होते थे। फलत:, शिक्षक और विद्यार्थी दोनों की जुबान पर पाठ्य सामग्री का काव्य रूप सहज ही चढ़ जाता था। 

अशिक्षित व अल्प शिक्षित जन विशेषकर कन्याएँ तथा महिलाएँ जिन्हें पढ़ाने का चलन कम था, सुन कर शिक्षा सामग्री स्मरण कर पातीं तथा समझ कर अन्यों को बता पातीं। सरस पाठ्य सामग्री ने शिक्षा प्रति सामान्य जान के मन में आकर्षण उत्पन्न किया और डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स को निर्धारित से पर्याप्त अधिक संख्या में विद्यालय आरम्भ करने और विद्यालयों में अपेक्षा से अधिक विद्यार्थी भर्ती कराने में सफलता मिली।  डॉ. राय ने काव्यात्मक सामग्री का सम्यक प्रयोग कर कन्या विद्यालयों की स्थापना तथा कन्या छात्राओं के प्रवेश में भी आशातीत सफलता पायी। यहाँ तक की इन छात्राओं में से अनेक काव्य-रचना कर्म में भी प्रवीण हुईं। इन परिणामों से काव्य-सामग्री की उपादेयता व प्रासंगिकता के प्रीति सशंकित रहनेवाले महानुभावों को तो सबक मिला ही, अरबी-फ़ारसी मिश्रित हिंदी का प्रचलन कम हुआ और आधुनिक हिंदी को जड़ें जमने में सहायता मिली। 

सागर की असाधारण सफलता देखकर सरकार ने हीरालाल जी को सन १८९६ में एजेंसी इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स के पद पर रायपुर छत्तीसगढ़ पदस्थ किया। यहाँ कुछ क्षेत्र में उड़िया तथ अन्य आदिवासी भाषाएँ चलन में थीं। आपका भाषा तथा काव्य से लगाव इतना प्रगाढ़ था की अपने एक उड़िया स्कूल का निरीक्षण करने के पूर्व एक रात में उड़िया भाषा सीखी तथा कवितायें कण्ठस्थ कर लीं ताकि निरीक्षण के समय सुनकर जाँच सकें। आ व १८९९ के अकालों व १९०१ की जनगणना के कार्यों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को समर्पण भाव से निभाकर उच्चाधिकारियों से प्रशस्ति पाने के आबाद हीरालाल जी को सुपरिंटेंडेंट इथिनॉग्राफी (मनुष्य विज्ञानं) तथा गजेटियर तैयार करने का दायित्व सौंपा गया। आपने पुरातात्विक सामग्री शिलालेखों को तलाशा और पढ़ाजिनमें से अनेक काव्य में थे। सन १९११ - १२ में आपने मध्यप्रांत और बरार के शिला और ताम्र लेखों की वर्णनात्मक सूची' तैयार कर ख्याति पाई। इसके समानातर आपने भाषाओँ पर भी काम किया और १८ भाषाएँ (हिंदी, बुन्देली, बघेली, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू, छत्तीसगढ़ी, उड़िया, मुड़िया, मारिया, कोरकू, गोंडी, परजा, हल्बी, गड़वा, कोलमी, नहली,  निमाड़ी) सीखीं। 

दमोह जिले का गजेटियर तैयार करते समय आपने पुरातत्व और प्रशासन जैसे शुष्क और नीरस विषयों की सामग्री प्रस्तुत करते समय स्वरचित दोहे तथा अन्य काव्य रचनाओं का प्रचुरता से प्रयोग किया।  डॉ. राय ने सन १९१७ में प्रकाशित 'दमोह-दीपक' का श्री गणेश और समापन ही नहीं अधिकांश अध्यायों (वर्तिकाओं) का आरम्भ भी संस्कृत ग्रन्थों की परम्परानुसार दोहा छंद से किया है। प्रथम वर्तिका के आदि में अर्ध सम मात्रिक द्विपदीय पयोधर दोहा (१२ गुरु, २४ लघु) छंद से है जिसमें १३-११ पर यति का विधान है -

बरसत को कूरा जमो, घर भीतर अँधियार। 
आलस तज अब देखिए, लै दीपक उजियार।।    - मुखपृष्ठ 

प्रथम वर्तिका के आरंभ में दमोह जिले की सीमा-वर्णन चौबीस मात्रिक नर दोहे (गुरु, १८ लघु) में होना डॉ. राय के काव्य-रचना-कौशल का परिचायक है- 

पीठ ऊँटिया पूरबै, उत्तर बघमुख मूँछ। 
पच्छिम को पग शूकरी, दक्खिन बाड़ी पूँछ।।   -- पृष्ठ १ 

द्वितीय वर्तिका के आरम्भ में दमोह का इतिहास तीस मात्रिक छंद में है जिसमें १५-१५ पर यति तथा चरणान्त में गुरु-लघु का विधान है -

आदि गुप्त कलचुरि पड़िहार।  चंदेला गोहिल्ल निहार।। 
तुगलक खिलजी गोंड मुगल्ल।  बुंदेला मरहट्ठा दल्ल।।  
डेढ़ सहस बरसें किय भोग। तब फिरंगि  को आयो योग ।।   -- पृष्ठ ४ 

ऐतिहासिक जानकारियों के साथ यत्र-तत्र संस्कृत, उर्दू, बुन्देली के विविध ग्रन्थों से दिए गए पद्य-उद्धरण डॉ. राय के विषाद अध्ययन तथा गहन समझ का प्रमाण हैं। तृतीय वर्तिका के आरंभ में दमोह निवासी जातियों का परिचय देता नर दोहा दमोह जिले में दस जातियों की बहुलता बताता है -

चमरा, लोधी, गोंड़ अरु, कुर्मी, विप्र, अहीर। 
काछी, ढीमर, बानिया, ठाकुर- दस की भीर।।  -- पृष्ठ ३१

चतुर्थ वर्तिका में दमोह जिले की कृषि, जंगल, तथा वन्य प्राणियों की जानकारी देने के लिए भी डॉ. राय ने पुनः एक पयोधर दोहा रचा है- 

अर्ध माँहि कृषि, अर्ध में, है जंगल विस्तार। 
नाहर, तिंदुवा, रीछ जहँ, मृग सँग करत विहार।।    -- पृष्ठ ४१ 

उद्योग-धंधे और व्यापार किसी स्थान और जन-जीवन की समृद्धि तथा विकास की रीढ़ की हड्डी होते हैं। दमोह-दीपक की पंचम वर्तिका में डॉ. राय बत्तीस मात्रिक चौपाई छंद जिसमें १६-१६ पर यति है, का प्रयोग कर इन जानकारी का संकेत करते हैं -

लाख अढ़ाइक नर अरु नारी। पालत जिव कर खेती-बारी।
लाखक करके उद्यम नाना। दौड़-धूप कर पावत खाना ।।    -- पृष्ठ ४७ 

आपद-विपदा जीवन का अभिन्न अंग हैं। षष्ठ वर्तिका में दमोहवासियों द्वारा झेली गयी प्रमुख विपदाओं का उल्लेख गयन्द दोहा (१३ गुरु, २२ लघु) छंद में है -

चार विपत व्यापी अधिक, ई दमोह के लोग। 
ठग, भुमियावट, काल अरु, प्राणघातकी रोग।।      -- पृष्ठ ५३

शासन-प्रशासन की गतिविधियों पर केंद्रित सप्तम वर्तिका का शुभारम्भ डॉ. राय ने चौबीस मात्रिक सोरठा (११- १३ पर यति) छंद से किया है -

फौजदारि  अरु माल, दीवानी सह तीन हैं। 
शासन अंग विशाल, आज काल के समय में।।     -- पृष्ठ ६५ 

बत्तीस मात्रिक चौपाई छंद (१६-१६ पर यति) में अष्टम वर्तिका का आरंभ कर डॉ. राय दमोह जिले के प्रमुख कस्बों का उल्लेख करते हैं -

ज़ाहिर ठौर ज़िले बिच नाना। तिनको अब कछु सुनहु बखाना। 
वर्णाक्षर के क्रम अनुसारा।  कहब कथा कछु कर विस्तारा।।         -- पृष्ठ ७१ 

डॉ. राय ने दमोह दीपक का समापन बल (११ दूर, २६ लघु) दोहा छंद में किया है। 

दम में निशितम देख के, अष्टवार्तिक दीप।
लेस सिरावत ताहि अब, समुझि प्रभात समीप।।

दमोह-दीपककार ने विषयवस्तु के अनुरूप काव्य पंक्तियों का प्रणयन कर जहाँ अपनी रचना-सामर्थ्य का परिचय दिया है वहीं पूर्ववर्ती तथा समकालिक कवियों की उपयुक्त काव्यपंक्तियों का उदारतापूर्वक उपयोग कर विषय को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। अन्य कवियों की कृतियों / रचनाओं से उद्धरण लेते समय उनके नामों का उल्लेख करने की सजगता और सौजन्यता डॉ. राय ने प्रदर्शित की है तथापि कहीं-कहीं अपवाद हैं जो सम्बंधित रचना के रचनाकार की जानकारी न मिल पाने के कारण हो सकती है।  

द्वितीय वर्तिका  के अंतर्गत जटाशंकर से प्राप्त लगभग १४ वीं सदी के राजस्थानी भाषा के लेख  सारांश  डॉ.राय ने प्रस्तुत किया है- 

जो चित्तोड़ह जुझि (ज्झि) अउ, जिण ढिली (ल्ली) दलु जित्त। 
सो सुपसंसहि रभहकइ हरिसराअ तिअ सुत्त।।                    - कच्छप दोहा (८ गुरु, ३२ लघु)
खेदिअ गुज (ज्ज) र गौदहइ, कीय अधि (धी) अं मार। 
विजयसिंह किट संमलहु, पौरिस  कह संसार।।                  - कच्छप दोहा (८ गुरु, ३२ लघु)

बटियागढ़ से प्राप्त संवत १३८५ (सन १३२८) के शिलालेख में तुगलकवंशीय महमूद संबंधी संस्कृत लेख के साथ डॉ. राय ने उसका हिंदी अनुवाद भी प्रस्तुत किया है -

अस्ति कलियुगे राजा शकेंद्रो वसुधाधिप:।
योगिनीपुरमास्थाय यो भुंक्ते सकलां महीम।।
सर्वसागरपर्यन्तं वशीचक्रे नराधिपान। 
महमूद सुरत्राणों नाम्ना शूरोभिनन्दतु।।           - पृष्ठ १३   

कलियुग में पृथ्वी का मालिक शकेंद्र (मुसलमान राजा) है जो योगिनीपुर (दिल्ली) में रहकर तमाम पृथ्वी का भोग करता है और जिसने समुद्र पर्यन्त सब राजाओं को अपने वश भवन कर लिया है। उस शूरवीर दुल्तान महमूद का कल्याण हो। 

इसी वर्तिका में आगे बुंदेला छत्रसाल का वर्णन करते हे डॉ. राय ने महाकवि भूषण लिखित पंक्तियाँ उद्धृत की हैं- 

चाक चक चमूके  अचाक चक चहूँ ओर, 
चाक की फिरत धाक चम्पत के लाल की। 
भूषण भनत पादसाही मारि जेर किन्ही, 
काऊ उमराव ना करेरी करवाल की।।........           - पृष्ठ २४  

सन १८५४ के तीसरे भीषण अकाल के वर्णन के बाद डॉ. राय ने गढ़ोला निवासी कवि भावसिंह लोधी रचित ४ पृष्ठीय कविता ज्यों की त्यों दी है जिसमें इस विपद एक दारुण वर्णन है।  कुछ पंक्तियाँ देखें- 

अगहन बरसे पूस में, भरी परै तुसार। 
माहु  दिनन में, गिरूआ करे पसार।।
गेहूं पिसी गवोटे आई।  तब गिरूआ ने दइ पियराई।।
रचे पतउआ डाँड़ी लाल, पेड़ो रच गयो बच गई बाल।। .......    पृष्ठ ५५ -५८  

अंतिम वर्तिका में बाँसा कलाँ की जानकारी में लाल कवि कृत 'छत्रप्रकाश' से लंबा वर्णन प्रस्तुत किया गया है। कुछ पंक्तियों का आनंद लें -

दांगी केशोराइ तहां कौ। ज़ाहिर जोर मवासी बांकौ ।।
बाँचि बरात डारि उहि दीनी। तुरतै तमकि तेग कर लीन्हीं।।
फिरी बरात बुंदेला जानी। तब बाँसा पर फ़ौज पलानी ।।
ठिल्यौ बुँदेला बम्ब दै, बांसा घेरयो जाइ ।।
त्योंही सन्मुख रन पिल्यो, दांगी बड़ी बलाइ।।  ......    पृष्ठ ९४-९५  

मोहना के लगभग ७०० वर्ष पुराने ध्वस्त प्रायः शिव मन्दिर की सुंदर मूर्तियों संबंधी लोक-प्रचलित काव्य-पंक्तियों का आनंद लें- 

गणपति आठौ मातर:, ब्रम्हा शंभु रमेश। 
नवगह तिनके बीच में, बाजू भैरव वेष।। 
गंगा-जमुना देहरी, कीरतिमुख तल मांहिं। 
मुहनामठ चौखट लिखे, इतने देव दिखाहिं।।  

डॉ. राय रचित कोई स्वतन्त्र काव्य ग्रन्थ अथवा काव्य रचनाएँ न होने से उनके कवि होने में यह शंका हो सकती है  अथवा यह प्रश्न किया जा सकता है कि दमोह दीपक में प्रयोग की गयी अन्य कवियों की पंक्तियों की तरह शेष पंक्तियाँ भी  डॉ. राय रचित न हों।  इस शंका का निराकरण सहज ही हो सकता है। दृष्टव्य है कि अपवाद छोड़कर डॉ. राय ने अन्य कवियों की पंक्तियों का  उनका  कृति का नाम देने की सजगता  बरती है। अन्य कवियों के रचनाएँ किसी प्रसंग में उपयुक्त होने पर ही ली गयी हैं। कृति की रूपरेखा निर्धारण कर लिखी जाती समय अध्यायों की विषयवस्तु किसी अन्य को ज्ञात नहीं हो सकती, अत: किसी अन्य द्वारा अध्याय की परिचयात्मक पंक्तियाँ लिखी जाना संभव नहीं हो सकता। यदि लेखक ने विषयवस्तु की जानकारी देकर पंक्तियाँ लिखई होतीं तो वह रचनाकार के नाम का यथास्थान उल्लेख अवश्य करता। एक अन्य प्रमाण उद्धरणों की भाषा भी है। डॉ. राय द्वारा रचित पंक्तियों की भाषा उनके जीवनकाल में प्रचलित आधिनिक हिंदी का आरम्भिक रूप है और यह उनकी सभी पंक्तियों में एक सी है जबकि अन्य कवियों की पंक्तियों की भाषा डॉ. राय रचित पंक्तियों से सर्वथा भिन्न देशज या संस्कृतनिष्ठ या उर्दू मिश्रित है। डॉ. राय रचित स्वतंत्र काव्य कृति न होने का करण उनकी अतिशय व्यस्तता, बीमारी तथा प्रशासनिक दायित्व ही हो सकता है। 

डॉ. राय रचित काव्य पंक्तियों  से उनकी छंदशास्त्र संबंधी सामर्थ्य में किंचित भी सन्देह नहीं रहता। डॉ. राय ने दोहा, चौपाई और सोरठा छंदों का प्रयोग किया है। छंद-विधान ( संख्या, चरण संख्या, मात्रा संख्या, गति-यति, तुकांत नियम, लय, विराम चिन्ह आदि), भाषा शैली, सम्यक बिम्ब और प्रतीक आदि यह बताते हैं की डॉ. राय कुशल प्रशासक तथा ख्यात पुरातत्वविद होने के साथ-साथ कुशल तथा समर्थ कवि भी हैं. उनकी समस्त रचनाओं को एकत्र कर स्वतंत्र कृति प्रकाशित की जा सके तो डॉ.  राय के व्यक्तित्व के अनछुए पहलू को सामने  सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकेगी। 
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सहायक ग्रन्थ- 
१. हैहय क्षत्री मित्र, हीरालाल अंक, जनवरी-फरवरी १९३६ में प्रकाशित लेख। 
२. दमोह-दीपक, - राह बहादुर हीरालाल राय, १९१७। 
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गुरुवार, 6 अक्टूबर 2016

geet aur pairody

एक गीत -एक पैरोडी 
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ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा           ३१
कहा दो दिलों ने, कि मिलकर कभी हम ना होंगे जुदा       ३० 
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ये क्या बात है, आज की चाँदनी में                                २१
कि हम खो गये, प्यार की रागनी में                                २१
ये बाँहों में 
बाँहें, ये बहकी निगाहें                                   २३
लो आने लगा जिंदगी का मज़ा                                      १९ 
*
सितारों की महफ़िल ने कर के इशारा                            २२ 
कहा अब तो सारा, जहां है तुम्हारा                                 २१
मोहब्बत जवां हो, खुला आसमां हो                                २१
करे कोई दिल आरजू और क्या                                      १९ 
*
कसम है तुम्हे, तुम अगर मुझ से रूठे                            २१
रहे सांस जब तक ये बंधन न टूटे                                   २२
तुम्हे दिल दिया है, ये वादा किया है                                २१
सनम मैं तुम्हारी रहूंगी सदा                                          १८ 

फिल्म –‘दिल्ली का ठग’ 1958
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पैरोडी 
है कश्मीर जन्नत, हमें जां से प्यारी, हुए हम फ़िदा   ३० 
ये सीमा पे दहशत, ये आतंकवादी, चलो दें मिटा       ३१ 
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ये कश्यप की धरती, सतीसर हमारा                        २२ 
यहाँ शैव मत ने, पसारा पसारा                                २० 
न अखरोट-कहवा, न पश्मीना भूले                          २१  
फहराये हरदम तिरंगी ध्वजा                                  १८ 
अमरनाथ हमको, हैं जां से भी प्यारा                        २२ 
मैया ने हमको पुकारा-दुलारा                                   २०
हज़रत मेहरबां, ये डल झील मोहे                            २१ 
ये केसर की क्यारी रहे चिर जवां                              २० 
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लो खाते कसम हैं, इन्हीं वादियों की                         २१
सुरक्षा करेंगे, हसीं घाटियों की                                  २०
सजाएँ, सँवारें, निखारेंगे इनको                                २१ 
ज़न्नत जमीं की हँसेगी सदा                                    १७ 
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