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मंगलवार, 14 मई 2024

मई १४, बाल गीत, लघुकथा, कुंवर सिंह, मुक्तक, बुन्देली मुक्तिका, दोहा, सवैया, कुण्डलिया

सलिल सृजन मई १४
कुण्डलिया
कुण्डलिया हिंदी के कालजयी और लोकप्रिय छंदों में अग्रगण्य है। एक दोहा (दो पंक्तियाँ, १३-११ पर यति, विषम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरणान्त गुरु-लघु या लघु-लघु-लघु) तथा एक रोला (चार पंक्तियाँ, ११-१३ पर यति, विषम चरणान्त गुरु-लघु या लघु-लघु-लघु, सम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरण के अंत में २ गुरु, लघु-लघु-गुरु या ४ लघु) मिलकर षट्पदिक (छ: पंक्ति) कुण्डलिनी छंद को आकार देते हैं। दोहा और रोला की ही तरह कुण्डलिनी भी अर्ध सम मात्रिक छंद है। दोहा का अंतिम या चौथा चरण, रोला का प्रथम चरण बनाकर दोहराया जाता है। दोहा का प्रारंभिक शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश रोला का अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश होता है। प्रारंभिक और अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश की समान आवृत्ति से ऐसा प्रतीत होता है मानो जहाँ से आरम्भ किया वही लौट आये, इस तरह शब्दों के एक वर्तुल या वृत्त की प्रतीति होती है। सर्प जब कुंडली मारकर बैठता है तो उसकी पूँछ का सिरा जहाँ होता है वहीं से वह फन उठाकर चतुर्दिक देखता है।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: बाहर१. कुण्डलिनी छंद ६ पंक्तियों का छंद है जिसमें एक दोहा और एक रोला छंद होते हैं।
२. दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण होता है।
३. दोहा का आरंभिक शब्द, शब्दांश, शब्द समूह या पूरा चरण रोला के अंत में प्रयुक्त होता है।
४. दोहा तथा रोला अर्ध सम मात्रिक छंद हैं। इनके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
अ. दोहा में २ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में १३+११=२४ मात्राएँ होती हैं. दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे) चरण में १३ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे) चरण में ११ मात्राएँ होती हैं।
आ. दोहा के विषम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
इ. दोहा के विषम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
ई. दोहा के सम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
उदाहरण:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर।।
उ. दोहा के लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर २३ प्रकार होते हैं।
५. रोला भी अर्ध सम मात्रिक छंद है अर्थात इसके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
क. रोला में ४ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में ११+१३=२४ मात्राएँ होती हैं। दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें) चरण में ११ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे, छठवें, आठवें) चरण में १३ मात्राएँ होती हैं।
का. रोला के विषम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
कि. रोला के सम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
की. रोला के सम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
उदाहरण: सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़।
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय।।
६. कुण्डलिनी:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है, है वहीं, सच मानो अंधेर।।
सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़।
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
करें देश हित कार्य, सियासत भूल हर समय।।
*
कुण्डलिया छन्द का विधान उदाहरण सहित
दोहा:
समय-समय की बात है
१११ १११ २ २१ २ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
समय-समय का फेर।
१११ १११ २ २१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
जहाँ देर है, है वहीं
१२ २१ २ १२ २ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
सच मानो अंधेर
११ २२ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
रोला:
सच मानो अंधेर (दोहा के अंतिम चरण का दोहराव)
११ २२ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
मचा संसद में हुल्लड़
१२ २११ २ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु [प्रभाव गुरु गुरु] के साथ यति
हर सांसद को भाँग
११ २११ २ २१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
पिला दो भर-भर कुल्हड़
१२ २ ११ ११ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु (प्रभाव गुरु गुरु) के साथ यति
भाँग चढ़े मतभेद
२१ १२ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
दूर हो, करें न संशय
२१ २ १२ १ २११ = १३ मात्रा / अंत में गुरु लघु लघु के साथ यति
करें देश हित कार्य
करें देश-हित कार्य = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
सियासत भूल हर समय
१२११ २१ ११ १११ = १३ मात्रा / अंत में लघु लघु लघु के साथ यति
उदाहरण -
०१. कुण्डलिया है जादुई, छन्द श्रेष्ठ श्रीमान।
दोहा रोला का मिलन, इसकी है पहिचान।।
इसकी है पहिचान, मानते साहित सर्जक।
आदि-अंत सम-शब्द, साथ बनता ये सार्थक।।
लल्ला चाहे और, चाहती इसको ललिया।
सब का है सिरमौर छन्द, प्यारे, कुण्डलिया।। - नवीन चतुर्वेदी
०२. भारत मेरी जान है, इस पर मुझको नाज़।
नहीं रहा बिल्कुल मगर, यह कल जैसा आज।।
यह कल जैसा आज, गुमी सोने की चिड़िया।
बहता था घी-दूध, आज सूखी हर नदिया।।
करदी भ्रष्टाचार- तंत्र ने, इसकी दुर्गत।
पहले जैसा आज, कहाँ है? मेरा भारत।। - राजेंद्र स्वर्णकार
०३. भारत माता की सुनो, महिमा अपरम्पार ।
इसके आँचल से बहे, गंग जमुन की धार ।।
गंग जमुन की धार, अचल नगराज हिमाला ।
मंदिर मस्जिद संग, खड़े गुरुद्वार शिवाला ।।
विश्वविजेता जान, सकल जन जन की ताकत ।
अभिनंदन कर आज, धन्य है अनुपम भारत ।। - महेंद्र वर्मा
०४. भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल।
फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल।।
तज भेदों के, शूल / अनवरत, रहें सृजनरत।
मिलें अँगुलिका, बनें / मुष्टिका, दुश्मन गारत।।
तरसें लेनें. जन्म / देवता, विमल विनयरत।
'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत।।
(यहाँ अंतिम पंक्ति में ११ -१३ का विभाजन 'नित' ले मध्य में है अर्थात 'सलिल' पखारे पग नि/त पूजे, माता भारत में यति एक शब्द के मध्य में है यह एक काव्य दोष है और इसे नहीं होना चाहिए। 'सलिल' पखारे चरण करने पर यति और शब्द एक स्थान पर होते हैं, अंतिम चरण 'पूज नित माता भारत' करने से दोष का परिमार्जन होता है।)
०५. कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत मतिमान।
इसका लोहा मानते, कोटि-कोटि विद्वान।।
कोटि-कोटि विद्वान, कहें- मानव किंचित डर।
तुझे बना ले, दास अगर हो, हावी तुझ पर।।
जीव श्रेष्ठ, निर्जीव हेय, सच है यह अंतर।
'सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर।।
('सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर' यहाँ 'बेहतर' पढ़ने पर अंतिम पंक्ति में २४ के स्थान पर २५ मात्राएँ हो रही हैं। उर्दूवाले 'बेहतर' या 'बिहतर' पढ़कर यह दोष दूर हुआ मानते हैं किन्तु हिंदी में इसकी अनुमति नहीं है। यहाँ एक दोष और है, ११ वीं-१२ वीं मात्रा है 'बे' है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। 'सलिल' न बेहतर मानव से' करने पर अक्षर-विभाजन से बच सकते हैं पर 'मानव' को 'मा' और 'नव' में तोड़ना होगा, यह भी निर्दोष नहीं है। 'मानव से अच्छा न, 'सलिल' कोई कंप्यूटर' करने पर पंक्ति दोषमुक्त होती है।)
०६. सुंदरियाँ घातक 'सलिल', पल में लें दिल जीत।
घायल करें कटाक्ष से, जब बनतीं मन-मीत।।
जब बनतीं मन-मीत, मिटे अंतर से अंतर।
बिछुड़ें तो अवढरदानी भी हों प्रलयंकर।।
असुर-ससुर तज सुर पर ही रीझें किन्नरियाँ।
नीर-क्षीर बन, जीवन पूर्ण करें सुंदरियाँ।।
(इस कुण्डलिनी की हर पंक्ति में २४ मात्राएँ हैं। इसलिए पढ़ने पर यह निर्दोष प्रतीत हो सकती है। किंतु यति स्थान की शुद्धता के लिये अंतिम ३ पंक्तियों को सुधारना होगा।
'अवढरदानी बिछुड़ / हो गये थे प्रलयंकर', 'रीझें सुर पर असुर / ससुर तजकर किन्नरियाँ', 'नीर-क्षीर बन करें / पूर्ण जीवन सुंदरियाँ' करने पर छंद दोष मुक्त हो सकता है।)
०७. गुन के गाहक सहस नर, बिन गन लहै न कोय।
जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग सब लगै अपावन।।
कह 'गिरधर कविराय', सुनो हे ठाकुर! मन के।
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के।। - गिरधर
कुण्डलिनी छंद का सर्वाधिक और निपुणता से प्रयोग करनेवाले गिरधर कवि ने यहाँ आरम्भ के अक्षर, शब्द या शब्द समूह का प्रयोग अंत में ज्यों का त्यों न कर, प्रथम चरण के शब्दों को आगे-पीछे कर प्रयोग किया है। ऐसा करने के लिये भाषा और छंद पर अधिकार चाहिए।
०८. हे माँ! हेमा है कुशल, खाकर थोड़ी चोट
बच्ची हुई दिवंगता, थी इलाज में खोट
थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आये
अभिनेता हैं खास, आम जन हुए पराये
सहकर पीड़ा-दर्द, जनता करती है क्षमा?
समझें व्यथा-कथा, आम जन का कुछ हेमा
यहाँ प्रथम चरण का एक शब्द अंत में है किन्तु वह प्रथम शब्द नहीं है।
०९. दल का दलदल ख़त्म कर, चुनिए अच्छे लोग।
जिन्हें न पद का लोभ हो, साध्य न केवल भोग।।
साध्य न केवल भोग, लक्ष्य जन सेवा करना।
करें देश-निर्माण, पंथ ही केवल वरना।।
कहे 'सलिल' कवि करें, योग्यता को मत ओझल।
आरक्षण कर ख़त्म, योग्यता ही हो संबल।।
यहाँ आरम्भ के शब्द 'दल' का समतुकांती शब्द 'संबल' अंत में है। प्रयोग मान्य हो या न हो, विचार करें।
१०. हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।
जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।।
वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।
ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- ना दाल गलेगी।।
कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।
ऊँचाई दिख सके, सदा ही नीचाई से।।
यहाँ प्रथम शब्द 'है' तथा अंत में प्रयुक्त शब्द 'से' दोनों गुरु हैं। प्रथम दृष्टया भिन्न प्रतीत होने पर भी दोनों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान होने से छंद निर्दोष है।
सवैया
*
सरस सवैया रच पढ़ें
गण की आवृत्ति सात हों, दो गुरु रहें पदांत।
सरस सवैया नित पढो, 'सलिल' न तनिक रसांत।।
बाइस से छब्बीस वर्णों के (सामान्य वृत्तो से बड़े और दंडक छंदों से छोटे) छंदों को सवैया कहा जाता है। सवैया वार्णिक छंद हैं। विविध गणों में से किसी एक गण की सात बार आवृत्तियाँ तथा अंत में दो दीर्घ अक्षरों का प्रयोग कर सवैये की रचना की जाती है। यह एक वर्णिक छन्द है। सवैया को वार्णिक मुक्तक अर्थात वर्ण संख्या के आधार पर रचित मुक्तक भी कहा जाता है। इसका कारन यह है की सवैया में गुरु को लघु पढ़ने की छूट है। जानकी नाथ सिंह ने अपने शोध निबन्ध 'द कंट्रीब्युशन ऑफ़ हिंदी पोयेट्स टु प्राजोडी के चौथे अध्याय में सवैया को वार्णिक सम वृत्त मानने का कारण हिंदी में लय में गाते समय 'गुरु' का 'लघु' की तरह उच्चारण किये जाने की प्रवृत्ति को बताया है। हिंदी में 'ए' के लघु उच्चारण हेतु कोई वर्ण या संकेत चिन्ह नहीं है। रीति काल और भक्ति काल में कवित्त और सवैया बहुत लोकप्रिय रहे हैं. कवितावलि में तुलसी ने इन्हीं दो छंदों का अधिक प्रयोग किया है। कवित्त की ही तरह सवैया भी लय-आधारित छंद है।
विविध गणों के प्रयोग के आधार पर इस छन्द के कई प्रकार (भेद) हैं। यगण, तगण तथा रगण पर आधारित सवैये की गति धीमी होती है जबकि भगण, जगण तथा सगण पर आधारित सवैया तेज गति युक्त होता है। ले के साथ कथ्य के भावपूर्ण शब्द-चित्र अंकित होते हैं। श्रृंगार तथा भक्ति परक वर्ण में विभव, अनुभव, आलंबन, उद्दीपन, संचारी भाव, नायक-नायिका भेद आदि के शब्द-चित्रण में तुलसी, रसखान, घनानंद, आलम आदि ने भावोद्वेग की उत्तम अभिव्यक्ति के लिए सवैया को ही उपयुक्त पाया। भूषण ने वीर रस के लिए सवैये का प्रयोग किया किन्तु वह अपेक्षाकृत फीका रहा।
प्रकार-
सवैया के मुख्य १४ प्रकार हैं।
१. मदिरा, २. मत्तगयन्द, ३. सुमुखि, ४. दुर्मिल, ५. किरीट, ६. गंगोदक, ७. मुक्तहरा, ८. वाम, ९. अरसात, १०. सुन्दरी, ११. अरविन्द, १२. मानिनी, १३. महाभुजंगप्रयात, १४. सुखी सवैया।
मत्तगयंद (मालती) सवैया
इस वर्णिक छंद के चार चरण होते हैं। हर चरण में सात भगण (S I I) के पश्चात् अंत में दो गुरु (SS) वर्ण होते हैं।
उदाहरण:
१.
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू, तैंसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत-खात फिरें अँगना, पग पैंजनिया, कटी पीरि कछौटी।।
वा छवि को रसखान विलोकत, वारत काम कलानिधि कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों ली गयो माखन-रोटी।।
२.
यौवन रूप त्रिया तन गोधन, भोग विनश्वर है जग भाई।
ज्यों चपला चमके नभ में, जिमि मंदर देखत जात बिलाई।।
देव खगादि नरेन्द्र हरी मरते न बचावत कोई सहाई।
ज्यों मृग को हरि दौड़ दले, वन-रक्षक ताहि न कोई लखाई।।
३.
मोर पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गले पहिरौंगी।
ओढ़ी पीताम्बर लै लकुटी, वन गोधन गजधन संग फिरौंगी।।
भाव तो याहि कहो रसखान जो, तेरे कहे सब स्वांग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी।।
दुर्मिल (चन्द्रकला) सवैया
इस वर्णिक छंद के चार चरणों में से प्रत्येक में आठ सगण (I I S) और अंत में दो गुरु मिलाकर कुल २५ वर्ण होते हैं.
उदाहरण:
बरसा-बरसा कर प्रेम सुधा, वसुधा न सँवार सकी जिनको।
तरसा-तरसा कर वारि पिता, सु-रसा न सुधार सकी जिनको।।
सविता-कर सी कविता छवि ले, जनता न पुकार सकी जिनको।
नव तार सितार बजा करके, नरता न दुलार सकी जिनको।।
उपजाति सवैया (जिसमें दो भिन्न सवैया एक साथ प्रयुक्त हुए हों) तुलसी की देन है। सर्वप्रथम तुलसी ने 'कवितावली' में तथा बाद में रसखान व केशवदास ने इसका प्रयोग किया।
मत्तगयन्द - सुन्दरी
प्रथम पद मत्तगयन्द (७ भगण + २ गुरु) - "या लटुकी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुरको तजि डारौ"। तीसरा पद सुन्दरी (७ सगन + १ गुरु) - "रसखानि कबों इन आँखिनते, ब्रजके बन बाग़ तड़ाग निहारौ"।
मदिरा - दुर्मिल
तुलसी ने एक पद मदिरा का रखकर शेष दुर्मिल के पद रखे हैं। केशव ने भी इसका अनुसरण किया है। पहला मदिरा का पद (७ भगण + एक गुरु) - "ठाढ़े हैं नौ द्रम डार गहे, धनु काँधे धरे कर सायक लै"। दूसरा दुर्मिल का पद (८ सगण) - "बिकटी भृकुटी बड़री अँखियाँ, अनमोल कपोलन की छवि है"।
मत्तगयन्द-वाम और वाम-सुन्दरी की उपजातियाँ तुलसी (कवितावली) में तथा केशव (रसिकप्रिया) में सुप्राप्य है। कवियों ने भाव-चित्रण में अधिक सौन्दर्य तथा चमत्कार उत्पन्न करने हेतु ऐसे प्रयोग किये हैं।
आधुनिक कवियों में भारतेंदु हरिश्चन्द्र, लक्ष्मण सिंह, नाथूराम शंकर आदि ने इनका सुन्दर प्रयोग किया है। जगदीश गुप्त ने इस छन्द में आधुनिक लक्षणा शक्ति का समावेश किया है।
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अठ सलल सवैया
११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-११२-११
जय हिंद कहें, सब संग रहें, हँस हाथ गहें, मिल जीत वरें हम
अरि जूझ थकें, हथियार धरें, अरमान यही, कबहूँ न डरें हम
मत-भेद भले, मन-भेद नहीं, हम एक रहे, सच नेक रहें हम
अरि मार सकें, रण जीत तरें, हँस स्वर्ग वरें, मर न मरें हम
१२.३.२०१९
*
बातों ही बातों में, रातों ही रातों में, लूटेंगे-भागेंगे, व्यापारी घातें दे आज
वादों ही वादों में, राजा जी चेलों में, सत्ता को बाँटेंगे, लोगों को मातें दे आज
यादें ही यादें हैं, कुर्सी है प्यादे हैं, मौका पा लादेंगे, प्यारे जो लोगों को आज
धोखा ही धोखा है, चौका ही चौका है, छक्का भी मारेंगे, लूटेंगे-बाँटेंगे आज
२१.२.२०१९
*
मत्त गयंद सवैया
आज कहें कल भूल रहे जुमला बतला छलते जनता को
बाप-चचा चित चुप्प पड़े नित कोस रहे अपनी ममता को
केर व बेर हुए सँग-साथ तपाक मिले तजते समता को
चाह मिले कुरसी फिर से ठगते जनको भज स्वाराथता को
२.२.२०१९
कमलेश्वरी सवैया प्रति पद 7 (यगण) +लघु
न हल्ला मचाएँ, धुआँ भी न फैला, करें गंदगी भी न मैं आप।
न पूरे तलैया, न तालाब राहों, नदी को न मैली करें आप।।
न तोड़ें घरौंदा, न काटें वनों को, न खोदें पहाड़ी सरे आम-
न रूठे धरा ये, न गुस्सा करें मेघ, इन्सान न पाए कहीं शाप।।
*
कन्हैया! कन्हैया!! बजा बाँसुरी, रूठ राधा न जाए, बजा बाँसुरी माधव!
मना राधिका नाज़ लेना उठा, रास लेना रचा तू, चला आ दिखा लाघव.
चलो ग्वाल-बालों!, नहीं बात टालो, करें रासलीला, नहीं चूको, करें गायन.
सुना फ़ाग-रासें, लला रंग डालें, लली भाग जाएँ करो बाँसुरी वादन.
६.११.२०१७
*
जगो रे!, उठो रे!!, खिलो फ़ूल जैसे, सुगंधें बिखेरो, सवेरे-सवेरे चलो.
न सोना, न खोना, नहीं मीत रोना, न हाथों धरो हाथ, मौके न खोना, चलो.
नदी सा बहो रे!, न मौजे तहो रे! उठा शंख-सीपी, न भागो, गहो रे चलो.
तुम्हीं को पुकारें, तुम्हीं को निहारें, भुला मन्ज़िले दें न, जीतो सितारे चलो.
६.११.२०१७
*
कहाँ वो छिपेगी?, कहीं तो मिलेगी, कभी तो मिलेगी, हसीना लुभाए जो।
छलावा-भुलावा?, नहीं वो दिखावा, अदाएँ हजारों, दिखाती-सुहाती जो।।
गुलाबी-गुलाबी, शराबी-शराबी, नशीली-नशीली सूरा सी पिलाती हो।
न भूला उसे मैं, न भूली मुझे वो, भले बाँह में ले, गले ना लगाती हो।।
५.११.२०१७
*
न पौधे लगाएँ, न पानी पिलाएँ, न पीड़ा मिटाएँ, करें वोट की माँग।
गरीबी मिटी क्या?, अशिक्षा हटी क्या?, कुरीती तजी क्या?, धरे संत का स्वाँग।।
न भूषा, न भाषा, निराशा-हताशा, न बाकी सुआशा, न छोड़ें अड़ी टाँग।
न लेना, न देना, चबाओ चबेना, भगा दो- भुला दो, पिला दो इन्हें भाँग।।
५.११.२०१७
***
बाल गीत
पानी दो, अब पानी दो
मौला धरती धानी दो, पानी दो...
*
तप-तप धरती सूख गयी
बहा पसीना, भूख गई.
बहुत सयानी है दुनिया
प्रभु! थोड़ी नादानी दो, पानी दो...
*
टप-टप-टप बूँदें बरसें
छप-छपाक-छप मन हर्षे
टर्र-टर्र बोले दादुर
मेघा-बिजुरी दानी दो, पानी दो...
*
रोको कारें, आ नीचे
नहा-नाच हम-तुम भीगे
ता-ता-थैया खेलेंगे
सखी एक भूटानी दो, पानी दो...
*
सड़कों पर बहता पानी
याद आ रही क्या नानी?
जहाँ-तहाँ लुक-छिपते क्यों?
कर थोड़ी मनमानी लो, पानी दो...
*
छलकी बादल की गागर
नचे झाड़ ज्यों नटनागर
हर पत्ती गोपी-ग्वालन
करें रास रसखानी दो, पानी दो...
***
लघुकथा
कानून के रखवाले
*
'हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े तक ख़राब हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम किसी को अपना विरोध नहीं करने देंगे।'
वक्ता की बात पूर्ण होने के पूर्व हो एक जागरूक श्रोता ने पूछा- ''आपका संविधान और कानून के जानकार है और अपने मुवक्किलों को उसके न्याय दिलाने का पेशा करते हैं। कृपया, बताइये संविधान के किस अनुच्छेद या किस कानून की किस कंडिका के तहत आपको एक सामान्य नागरिक होते हुए अन्य नागरिक विचाराभिव्यक्ति से रोकने और खुद दण्डित करने का अधिकार प्राप्त है?"
अन्य श्रोता ने पूछा 'क्या आपसे असहमत अन्य नागरिक आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करे तो वह उचित होगा?'
"यदि नागरिक विवेक के अनुसार एक-दूसरे को दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं तो शासन, प्रशासन और न्यायालय किसलिए है? ऐसी स्थिति में आपका पेशा ही समाप्त हो जायेगा। आप क्या कहते हैं?" चौथा व्यक्ति बोल पड़ा।
प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर-नतमस्तक खड़े थे कानून के तथाकथित रखवाले।
१४-५-२०१६
***
काव्यांजलि:
अमर शहीद कुंवर सिंह
*
भारत माता पराधीन लख,दुःख था जिनको भारी
वीर कुंवर सिंह नृपति कर रहे थे गुप-चुप तैयारी
अंग्रेजों को धूल चटायी जब-जब वे टकराये
जगदीशपुर की प्रजा धन्य थी परमवीर नृप पाये
समय न रहता कभी एक सा काले बादल छाये
अंग्रेजी सैनिक की गोली लगी घाव कई खाये
धार रक्त की बही न लेकिन वे पीड़ा से हारे
तुरत उठा करवाल हाथ को काट हँसे मतवारे
हाथ बहा गंगा मैया में 'सलिल' हो गया लाल
शुभाशीष दे मैया खद ही ज्यों हो गयी निहाल
वीर शिवा सम दुश्मन को वे जमकर रहे छकाते
छापामार युद्ध कर दुश्मन का दिल थे दहलाते
नहीं चिकित्सा हुई घाव की जमकर चढ़ा बुखार
भागमभाग कर रहे अनथक तनिक न हिम्मत हार
छब्बीस अप्रैल अट्ठारह सौ अट्ठावन दिन काला
महाकाल ने चुपके-चुपके अपना डेरा डाला
महावीर की अगवानी कर ले जाने यम आये
नील गगन से देवों ने बन बूंद पुष्प बरसाये
हाहाकार मचा जनता में दुश्मन हर्षाया था
अग्निदेव ने लीली काया पर मन भर आया था
लाल-लाल लपटें ज्वाला की कहती अमर रवानी
युग-युग पीढ़ी दर पीढ़ी दुहराकर अमर कहानी
सिमट जायेंगे निज सीमा में आंग्ल सैन्य दल भक्षक
देश विश्व का नायक होगा मानवता का रक्षक
शीश झुककर कुंवर सिंह की कीर्ति कथा गाएगी
भारत माता सुने-हँसेगी, आँखें भर आएँगी
***
मुक्तक सलिला :
.
हमसे छिपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं
दूर जाते भी नहीं, पास बुलाते भी नहीं
इन हसीनों के फरेबों से खुदा भी हारा-
गले लगते भी नहीं और लगाते भी नहीं
*
पीठ फेरेंगे मगर मुड़ के फिर निहारेंगे
फेर नजरें यें हसीं दिल पे दिल को वारेंगे
जीत लेने को किला दिल का हौसला देखो-
ये न हिचकेंगे 'सलिल' तुमपे दिल भी हारेंगे
*
उड़ती जुल्फों में गिरफ्तार कभी मत होना
बहकी अलकों को पुरस्कार कभी मत होना
थाह पाओगे नहीं अश्क की गहराई की-
हुस्न कातिल है, गुनाहगार कभी मत होना
*
***
सामयिक गीति रचना
देव बचाओ
*
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
पाला-पोसा, लिखा-पढ़ाया
जिसने वह समाज पछताये
दूध पिलाकर जिनको पाला
उनसे विषधर भी शर्माये
रुपया इनकी जान हो गया
मोह जान का इन्हें न व्यापे
करना इनका न्याय विधाता
वर्षों रोगी हो पछताये
रिश्ते-नाते
इन्हें न भाते
इनकी अकल ठिकाने लाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
बैद-हकीम न शेष रहे अब
नीम-हकीम डिगरियांधारी
नब्ज़ देखना सीख न पाये
यंत्र-परीक्षण आफत भारी
बीमारी पहचान न पायें
मँहगी औषधि खूब खिलाएं
कैंची-पट्टी छोड़ पेट में
सर्जन जी ठेंगा दिखलायें
हुआ कमीशन
ज्यादा प्यारा
हे हरि! इनका लोभ घटाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
.
इसके बदले उसे बिठाया
पर्चे कराया कर, नकल करी है
झूठी डिग्री ले मरीज को
मारें, विपदा बहुत बड़ी है
मरने पर भी कर इलाज
पैसे मांगे, ये लाश न देते
निष्ठुर निर्मम निर्मोही हैं
नाव पाप की खून में खेते
देख आइना
खुद शर्मायें
पीर हारें वह राह दिखाओ
जीवन रक्षक
जीवन भक्षक
बन बैठे हैं देव् बचाओ
***
***
नवगीत:
*
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
कौन किसी का
कभी हुआ है?
किसको फलता
सदा जुआ है?
वही गिरा
आखिर में भीतर
जिसने खोदा
अंध कुआ है
बिन देखे जो
कूद रहा निश्चित
है गिर पड़ना
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
चोर-चोर
मौसेरे भाई
व्यापारी
अधिकारी
जनप्रतिनिधि
करते जनगण से
छिप-मिलकर
गद्दारी
लोकतंत्र को
लूट रहे जो
माफ़ नहीं करना.
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
.
नाग-साँप
जिसको भी
चुनिए चट
डंस लेता है
सहसबाहु
लूटे बिचौलिया
न्याय न
देता है
ज़िंदा रहने
खातिर हँसकर
सीखो मर मरना
सूरदास
पथदर्शक हों तो
आँख खुली रखना
***
नवगीत:
*
कुदरत का
अपना हिसाब है
.
कब, क्या, कहाँ,
किस तरह होता?
किसको कौन बताये?
नहीं किसी से
कोई पूछे
और न टांग अड़ाये
नफरत का
गायब नकाब है
कुदरत का
अपना हिसाब है
.
जब जो जहाँ
घटे या जुड़ता
क्रम नित नया बनाये
अटके-भटके,
गिरे-उठे-बढ़
मंजिल पग पा जाए
मेहनत का
उड़ता उकाब है
.
भोजन जीव
जीव का होता
भोज्य न शिकवा करता
मारे-खाये
नहीं जोड़ या
रिश्वत लेकर धरता
पाप न कुछ
सब कुछ
सबाब है.
१४-५-२०१५
***
एक गीति रचना:
करो सामना
*
जब-जब कंपित भू हुई
हिली आस्था-नीव
आर्तनाद सुनते रहे
बेबस करुणासींव
न हारो करो सामना
पूर्ण हो तभी कामना
ध्वस्त हुए वे ही भवन
जो अशक्त-कमजोर
तोड़-बनायें फिर उन्हें
करें परिश्रम घोर
सुरक्षित रहे जिंदगी
प्रेम से करो बन्दगी
संरचना भूगर्भ की
प्लेट दानवाकार
ऊपर-नीचे चढ़-उतर
पैदा करें दरार
रगड़-टक्कर होती है
धरा धीरज खोती है
वर्तुल ऊर्जा के प्रबल
करें सतत आघात
तरु झुक बचते, पर भवन
अकड़ पा रहे मात
करें गिर घायल सबको
याद कर सको न रब को
बस्ती उजड़ मसान बन
हुईं प्रेत का वास
बसती पीड़ा श्वास में
त्रास ग्रस्त है आस
न लेकिन हारेंगे हम
मिटा देंगे सारे गम
कुर्सी, सिल, दीवार पर
बैंड बनायें तीन
ईंट-जोड़ मजबूत हो
कोने रहें न क्षीण
लचीली छड़ें लगाओ
बीम-कोलम बनवाओ
दीवारों में फंसायें
चौखट काफी दूर
ईंट-जुड़ाई तब टिके
जब सींचें भरपूर
रैक-अलमारी लायें
न पल्ले बिना लगायें
शीश किनारों से लगा
नहीं सोइए आप
दीवारें गिर दबा दें
आप न पायें भाँप
न घबरा भीड़ लगायें
सजग हो जान बचायें
मेज-पलंग नीचे छिपें
प्रथम बचाएं शीश
बच्चों को लें ढांक ज्यों
हुए सहायक ईश
वृद्ध को साथ लाइए
ईश-आशीष पाइए
१३-५-२०१५
***
अभिनव प्रयोग:
गीत
वात्सल्य का कंबल
*
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
अब मिले सरदार सा सरदार भारत को
अ-सरदारों से नहीं अब देश गारत हो
असरदारों की जरूरत आज ज़्यादा है
करे फुलफिल किया वोटर से जो वादा है
एनिमी को पटकनी दे, फ्रेंड को फ्लॉवर
समर में भी यूँ लगे, चल रहा है शॉवर
हग करें क़ृष्णा से गंगा नर्मदा चंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
मनी फॉरेन में जमा यू टर्न ले आये
लाहौर से ढाका ये कंट्री एक हो जाए
दहशतों को जीत ले इस्लाम, हो इस्लाह
हेट के मन में भरो लव, शाह के भी शाह
कमाई से खर्च कम हो, हो न सिर पर कर्ज
यूथ-प्रायरटी न हो मस्ती, मिटे यह मर्ज
एबिलिटी ही हो हमारा,ओनली संबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
कलरफुल लाइफ हो, वाइफ पीसफुल हे नाथ!
राजमार्गों से मिलाये हाथ हँस फुटपाथ
रिच-पुअर को क्लोद्स पूरे गॉड! पहनाना
चर्च-मस्जिद को गले, मंदिर के लगवाना
फ़िक्र नेचर की बने नेचर, न भूलें अर्थ
भूल मंगल अर्थ का जाएँ न मंगल व्यर्थ
करें लेबर पर भरोसा, छोड़ दें गैंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
१४-५-२०१४
(इस्लाम = शांति की चाह, इस्लाह = सुधार)
***
बुन्देली मुक्तिका
*
१.
मन खों रखियो हर दम बस में.
पानी बहै न रस में नस में.
कसर न करियो स्रम करबे में.
खा खें तोड़ न दइयो कसमें.
जी से मिलबे खों जी तरसे
जी भर जी सें करियो रसमें.
गरदिस में जो संग निभाएं
संग उनई खों धरियों जस में.
कहूँ न ऐसो मजा मिलैगो
जैसो मजा मिलै बतरस में.
===
***
दोहा गाथा : ६
दोहा दिल में झांकता...
*
दोहा दिल में झांकता, कहता दिल की बात.
बेदिल को दिलवर बना, जगा रहा ज़ज्बात.
अरुण उषा के गाल पर, मलता रहा गुलाल.
बादल अवसर चूक कर, करता रहा मलाल.
मनु तनहा पूजा करे, सरस्वती की नित्य.
रंग रूप रस शब्द का, है संसार अनित्य.
कवि कविता से खेलता, ले कविता की आड़.
जैसे माली तोड़ दे, ख़ुद बगिया की बाड.
छंद भाव रस लय रहित, दोहा हो बेजान.
अपने सपने बिन जिए, ज्यों जीवन नादान.
अमां मियां! दी टिप्पणी, दोहे में ही आज.
दोहा-संसद के बनो, जल्दी ही सरताज.
अद्भुत है शैलेश का, दोहा के प्रति नेह.
अनिल अनल भू नभ सलिल, बिन हो देह विदेह.
निरख-निरख छवि कान्ह की, उमडे स्नेह-ममत्व.
हर्ष सहित सब सुर लखें, मानव में देवत्व.
याद रखें दोहा में अनिवार्य है:
१. दो पंक्तियाँ, २. चार चरण .
३. पहले एवं तीसरे चरण में १३-१३ मात्राएँ.
४. दूसरे एवं चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ.
५. दूसरे एवं चौथे चरण के अंत में लघु गुरु होना अनिवार्य.
६. पहले तथा तीसरे चरण के आरम्भ में जगण = जभान = १२१ का प्रयोग एक शब्द में वर्जित है किंतु दो शब्दों में जगण हो तो वर्जित नहीं है.
७. दूसरे तथा चौथे चरण के अंत में तगण = ताराज = २२१, जगण = जभान = १२१ या नगण = नसल = १११ होना चाहिए. शेष गण अंत में गुरु या दीर्घ मात्रा = २ होने के कारण दूसरे व चौथे चरण के अंत में नहीं रखे जा सकते .
उक्त तथा अपनी पसंद के अन्य दोहों में इन नियमों के पालन की जांच करिए, शंका होने पर चर्चा करें.
दोहा 'सत्' की साधना, करें शब्द-सुत नित्य.
दोहा 'शिव' आराधना, 'सुंदर' सतत अनित्य.
कविता से छल कवि करे, क्षम्य नहीं अपराध.
ख़ुद को ख़ुद ही मारता, जैसे कोई व्याध.
तप न करे जो वह तपन, कैसे पाये सिद्धि?
तप न सके यदि सूर्ये तो, कैसे होगी वृद्धि?
उक्त दोहा में 'तप' शब्द के दो भिन्न अर्थ तथा उसमें निहित अलंकार उसके विषय में लीजिए।
अजित अमित औत्सुक्य ही, -- पहला चरण, १३ मात्राएँ
१ १ १ १ १ १ २ २ १ २ = १३
भरे ज्ञान - भंडार. -- दूसरा चरण, ११ मात्राएँ
१ २ २ १ २ २ १ = ११
मधु-मति की रस सिक्तता, -- तीसरा चरण, १३ मात्राएँ
१ १ १ १ २ १ १ २ १ २ = १३
दे आनंद अपार. -- चौथा चरण, ११ मात्राएँ
२ २ २ १ १ २ १ = ११ मात्राएँ.
दो पंक्तियाँ (पद) तथा चार चरण सभी को ज्ञात हैं. पहली तथा तीसरी आधी पंक्ति (चरण) दूसरी तथा चौथी आधी पंक्ति (चरण) से अधिक लम्बी हैं क्योकि पहले एवं तीसरे चरण में १३-१३ मात्राएँ हैं जबकि दूसरे एवं चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ हैं. मात्रा से दूर रहनेवाले विविध चरणों को बोलने में लगने वाले समय, उतार-चढाव तथा लय का ध्यान रखें.
दूसरे एवं चौथे चरण के अंत पर ध्यान दें. किसी भी दोहे की पंक्ति के अंत में दीर्घ, गुरु या बड़ी मात्रा नहीं है. दोहे की पंक्तियों का अंत सम (दूसरे, चौथे) चरण से होता है. इनके अंत में लघु या छोटी मात्रा तथा उसके पहले गुरु या बड़ी मात्रा होती ही है. अन्तिम शब्द क्रमशः भंडार तथा अपार हैं. ध्यान दें की ये दोनों शब्द गजल के पहले शे'र की तरह सम तुकांत हैं दोहे के दोनों पदों की सम तुकांतता अनिवार्य है. भंडार तथा अपार का अन्तिम अक्षर 'र' लघु है जबकि उससे ठीक पहले 'डा' एवं 'पा' हैं जो गुरु हैं. अन्य दोहो में इसकी जांच करिए तो अभ्यास हो जाएगा.
ऊपर बताये गए नियम (' पहले तथा तीसरे चरण के आरम्भ में जगण = जभान = १२१ का प्रयोग एक शब्द में वर्जित है किंतु दो शब्दों में जगण हो तो वर्जित नहीं है.') की भी इसी प्रकार जांच कीजिये. इस नियम के अनुसार पहले तथा तीसरे चरण के प्रारम्भ में पहले शब्द में लघु गुरु लघु (१+२+१+४) मात्राएँ नहीं होना चाहिए. उक्त दोहों में इस नियम को भी परखें. किसी दोहे में दोहाकार की भूल से ऐसा हो तो दोहा पढ़ते समय लय भंग होती है. दो शब्दों के बीच का विराम इन्हें संतुलित करता है.
अन्तिम नियम दूसरे तथा चौथे चरण के अंत में तगण = ताराज = २२१, जगण = जभान = १२१ या नगण = नसल = १११ होना चाहिए. शेष गणों के अंत में गुरु या दीर्घ मात्रा = २ होने के कारण दूसरे व चौथे चरण के अंत में प्रयोग नहीं होते. एक बार फ़िर गण-सूत्र देखें- 'य मा ता रा ज भा न स ल गा'
गण का नाम विस्तार
यगण यमाता १+२+२
मगण मातारा २+२+२
तगण ताराज २+२+१
रगण राजभा २+१+२
जगण जभान १+२+१
भगण भानस २+१+१
नगण नसल १+१+१
सगण सलगा १+१+२
उक्त गण तालिका में केवल तगण व जगण के अंत में गुरु+लघु है. नगण में तीनों लघु है. इसका प्रयोग कम ही किया जाता है. नगण = न स ल में न+स को मिलकर गुरु मात्रा मानने पर सम पदों के अंत में गुरु लघु की शर्त पूरी होती है.
सारतः यह याद रखें कि दोहा ध्वनि पर आधारित सबसे अधिक पुराना छंद है. ध्वनि के ही आधार पर हिन्दी-उर्दू के अन्य छंद कालांतर में विकसित हुए. ग़ज़ल की बहर भी लय-खंड ही है. लय या मात्रा का अभ्यास हो तो किसी भी विधा के किसी भी छंद में रचना निर्दोष होगी.
किस्सा आलम-शेख का...
सिद्धहस्त दोहाकार आलम जन्म से ब्राम्हण थे लेकिन एक बार एक दोहे का पहला पद लिखने के बाद अटक गए. बहुत कोशिश की पर दूसरा पद नहीं बन पाया, पहला पद भूल न जाएँ सोचकर उन्होंने कागज़ की एक पर्ची पर पहला पद लिखकर पगडी में खोंस लिया. घर आकर पगडी उतारी और सो गए. कुछ देर बाद शेख नामक रंगरेजिन आयी तो परिवारजनों ने आलम की पगडी मैली देख कर उसे धोने के लिए दे दी.
शेख ने कपड़े धोते समय पगडी में रखी पर्ची देखी, अधूरा दोहा पढ़ा और मुस्कुराई. उसने धुले हुए कपड़े आलम के घर वापिस पहुंचाने के पहले अधूरे दोहे को पूरा किया और पर्ची पहले की तरह पगडी में रख दी. कुछ दिन बाद आलम को अधूरे दोहे की याद आयी. पगडी धुली देखी तो सिर पीट लिया कि दोहा तो गया मगर खोजा तो न केवल पर्ची मिल गयी बल्कि दोहा भी पूरा हो गया था. आलम दोहा पूरा देख के खुश तो हुए पर यह चिंता भी हुई कि दोहा पूरा किसने किया? अपने कौल के अनुसार उन्हें दोहा पूरा करनेवाले की एक इच्छा पूरी करना थी. परिवारजनों में से कोई दोहा रचना जानता नहीं था. इससे अनुमान लगाया कि दोहा रंगरेज के घर में किसी ने पूरा किया है, किसने किया?, कैसे पता चले?. उन्हें परेशां देखकर दोस्तों ने पतासाजी का जिम्मा लिया और कुछ दिन बाद भेद दिया कि रंगरेजिन शेख शेरो-सुखन का शौक रखती है, हो न हो यह कारनामा उसी का है.
आलम ने अपनी छोटी बहिन और भौजाई का सहारा लिया ताकि सच्चाई मालूम कर अपना वचन पूरा कर सकें. आखिरकार सच सामने आ ही गया मगर परेशानी और बढ़ गयी. बार-बार पूछने पर शेख ने दोहा पूरा करने की बात तो कुबूल कर ली पर अपनी इच्छा बताने को तैयार न हो. आलम की भाभी ने देखा कि आलम का ज़िक्र होते ही शेख संकुचा जाती थी. उन्होंने अंदाज़ लगाया कि कुछ न कुछ रहस्य ज़ुरूर है, कोशिश रंग लाई. भाभी ने शेख से कबुलवा लिया कि वह आलम को चाहती है. मुश्किल यह कि आलम ब्राम्हण और शेख मुसलमान... सबने शेख से कोई दूसरी इच्छा बताने को कहा, पर वह राजी न हुई. आलम भी अपनी बात से पीछे हटाने को तैयार न था. यह पेचीदा गुत्थी सुलझती ही न थी. तब आलम ने एक बड़ा फैसला लिया और मजहब बदल कर शेख से शादी कर ली. दो दिलों को जोड़ने वाला वह अमर दोहा अन्यथा अगली गोष्ठी में वह दोहा आपको बताया जाएगा.
दोहा-चर्चा का करें, चलिए यहीं विराम.
दोहे लिखिए-लाइए, खूब पाइए नाम.
१४-५-२०१३
***
एक दोहा
माँ ममता का गाँव है, शुभाशीष की छाँव.
कैसी भी सन्तान हो, माँ-चरणों में ठाँव..
१४-५-२०१२
*

सोमवार, 13 मई 2024

मई १३, छंद मनमोहन, छंद सुखदा, छंद मनोरम, छंद मानव, छंद मधुमालती, मुक्तक, नवगीत,

सलिल सृजन मई १३
*
- : विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर : -
- : अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण २०२३-२४ : -
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर द्वारा प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण २०२३-२४ हेतु प्रविष्टियाँ आमंत्रित की जा रही हैं। वर्ष २०२३-२४ में अलंकरणों हेतु निम्नानुसार प्रविष्टियाँ (पुस्तक की २ प्रतियाँ, पुस्तक तथा लेखक संबंधी संक्षिप्त विवरण प्रथक कागज पर तथा सहभागिता निधि ३०० रु., संयोजक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सभापति, विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१, विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, वाट्सऐप ९४२५१८३२४४ पते पर आमंत्रित हैं। प्रविष्टि प्राप्ति हेतु अंतिम तिथि ३० जून २०२४ है। संस्था के निर्णायक मण्डल का निर्णय स्वीकार्य होने पर ही प्रविष्टि भेजें। सहभागिता निधि वाट्सऐप ९४२५१८३२४४ पर भेज कर स्नैपशॉट भेजिए। प्रविष्टि हेतु पुस्तक के साथ लेखक का सूक्ष्म परिचय तथा पुस्तक संबंधी जानकारी अलग कागज पर भेजें तथा निर्णय मान्य होने की सहमति भी अंकित करें।

०१. स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि हिंदी रत्न अलंकरण, ५००१ रु., समग्र गद्य लेखन। सौजन्य आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी जी, जबलपुर।
०२. शांतिराज हिन्दी रत्न अलंकरण, ५००१ रु.समग्र पद्य लेखन। सौजन्य आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी, जबलपुर।
०३. राजधर जैन 'मानस हंस' अलंकरण, ५००१ रु., समीक्षा, मीमांसा । सौजन्य डाॅ. अनिल जैन जी, दमोह।
०४. शकुंतला अग्रवाल नवांकुर अलंकरण,५५०१ रु. प्रथम कृति (वर्ष २०२२ से २०२४)। सौजन्य श्री अमरनाथ अग्रवाल जी, लखनऊ।
०५. जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण' अलंकरण,५१०० रु., निबंध / संस्मरण / यात्रावृत्त सौजन्य सुश्री अस्मिता शैली जी, जबलपुर।
०६. धीरेन्द्र खरे स्मृति हिंदी भूषण अलंकरण, ५१०० रु., उपन्यास, सौजन्य श्रीमती वसुधा वर्मा, श्री रचित खरे, श्री विभोर खरे।
०७. कमला शर्मा स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., हिंदी गजल (मुक्तिका, गीतिका, तेवरी, सजल, पूर्णिका आदि)। सौजन्य श्री बसंत कुमार शर्मा जी, बिलासपुर।
०८. सिद्धार्थ भट्ट स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., कहानी/लघु कथा (लघुकथा, बोध कथा, बाल कथा, दृष्टांत कथा आदि)। सौजन्य श्रीमती मीना भट्ट जी, जबलपुर।
०९. डाॅ. शिवकुमार मिश्र स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., छंद (भारतीय/अभारतीय)। सौजन्य डाॅ. अनिल वाजपेयी जी, जबलपुर।
१०. सुरेन्द्रनाथ सक्सेना स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., गीत, नवगीत । सौजन्य श्रीमती मनीषा सहाय जी, जबलपुर।
११. डॉ. अरविन्द गुरु स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, २१०० रु., कविता। सौजन्य डॉ. मंजरी गुरु जी, रायगढ़।
१२. विजय कृष्ण शुक्ल स्मृति अलंकरण, २१०० रु., व्यंग्य लेख। सौजन्य डॉ. संतोष शुक्ला।
१३. शिवप्यारी देवी-बेनीप्रसाद स्मृतिअलंकरण, २१०० रु.। बाल साहित्य (गद्य,पद्य), सौजन्य डॉ. मुकुल तिवारी, जबलपुर।
१४. सत्याशा लोक श्री अलंकरण, ११०० रु., बुंदेली साहित्य। सौजन्य डा. साधना वर्मा जी, जबलपुर।
१५. रायबहादुर माताप्रसाद सिन्हा अलंकरण, ११०० रु., राष्ट्रीय देशभक्ति साहित्य। सौजन्य सुश्री आशा वर्मा जी, जबलपुर।
१६. कवि राजीव वर्मा स्मृति कला श्री अलंकरण, ११०० रु., गायन-वादन-चित्रकारी आदि। सौजन्य आर्किटेक्ट मयंक वर्मा, जबलपुर।
१७.सुशील वर्मा स्मृति समाज श्री अलंकरण, ११०० रु., पर्यावरण व समाज सेवा। सौजन्य श्रीमती सरला वर्मा भोपाल।

साक्षात्कार, व्याकरण, पुरातत्व, पर्यटन, आत्मकथा, तकनीकी लेखन, आध्यात्मिक/धार्मिक लेखन, विधि, चिकित्सा, कृषि आदि क्षेत्रों की श्रेष्ठ कृतियों पर अलंकरण तथा पुस्तकोपहार प्रदान किए जाएँगे।

अलंकरण स्थापना
अनुवाद, तकनीकी लेखन, विधि, चिकित्सा, आध्यात्म, हाइकु (जापानी छंद), सोनेट, रुबाई, कृषि, ग्राम विकास, जन जागरण तथा अन्य विधाओं में अपने पूज्यजन /प्रियजन की स्मृति में अलंकरण स्थापना हेतु प्रस्ताव आमंत्रित हैं। अलंकरणदाता अलंकरण निधि के साथ ११००/- (अलंकरण सामग्री हेतु) जोड़कर ९४२५१८३२४४ पर भेज कर सूचित करें।

टीप : उक्त अनुसार किसी अलंकरण हेतु प्रविष्टि न आने अथवा प्रविष्टि स्तरीय न होने पर वह अलंकरण अन्य विधा में दिया अथवा स्थगित किया जा सकेगा। अंतिम तिथि के पूर्व तक नए अलंकरण जोड़े जा सकेंगे।

पुस्तक प्रकाशन
कृति प्रकाशित कराने, भूमिका/समीक्षा लेखन हेतु पांडुलिपि सहित संपर्क करें। संस्था की संरक्षक सदस्यता ग्रहण करने पर एक १२० पृष्ठ तक की एक पांडुलिपि का तथा आजीवन सदस्यता ग्रहण करने पर ६० पृष्ठ तक की एक पांडुलिपि का प्रकाशन समन्वय प्रकाशन, जबलपुर द्वारा किया जाएगा।

पुस्तक विमोचन
कृति विमोचन हेतु कृति की ५ प्रतियाँ, सहयोग राशि २१०० रु. रचनाकार तथा किताब संबंधी जानकारी ३० जुलाई तक आमंत्रित है। विमोचित कृति की संक्षिप्त चर्चा कर, कृतिकार का सम्मान किया जाएगा।

वार्षिकोत्सव, ईकाई स्थापना दिवस, किसी साहित्यकार की षष्ठि पूर्ति, साहित्यिक कार्यशाला, संगोष्ठी अथवा अन्य सारस्वत अनुष्ठान करने हेतु इच्छुक ईकाइयाँ / सहयोगी सभापति से संपर्क करें। संस्था की नई ईकाई आरंभ करने हेतु प्रस्ताव आमंत्रित हैं।

* सभापति- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' *
* अध्यक्ष- बसंत शर्मा *
* उपाध्यक्ष- जय प्रकाश श्रीवास्तव, मीना भट्ट *
* सचिव - छाया सक्सेना, अनिल बाजपेई, मुकुल तिवारी *
* कोषाध्यक्ष - डॉ. अरुणा पांडे *
* प्रकोष्ठ प्रभारी - अस्मिता शैली, मनीषा सहाय।
जबलपुर, ३०.४.२०२४
***

सॉनेट
हरिजन
हरि! जन को हरिजन मत करना
आम आदमी कोई तो हो
जिसकी राह अलग थोड़ी हो
भाव-ताव देखो मत डरना
अंतर में अंतर रख हँसना
कथनी-करनी एक न भाए
ठकुरसुहाती खूब सुहाए
ले अवतार न नाहक फँसना
मीठा भोग मिले हँस चखना
खट्टा कड़वा तीखा तजना
अन्य न तो खुद निज जय करना
पापी तार पार भव करना
अपने मन की रास न कसना
हर सुंदर तन के मन बसना
१३-५-२०२२
•••
रसानंद दे छंद नर्मदा ८१:
दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक (चौबोला), रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​, गीतिका, ​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन/सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका , शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रव​​ज्रा, इंद्रव​​ज्रा, सखी​, विधाता/शुद्धगा, वासव​, ​अचल धृति​, अचल​​, अनुगीत, अहीर, अरुण, अवतार, ​​उपमान / दृढ़पद, एकावली, अमृतध्वनि, नित, आर्द्रा, ककुभ/कुकभ, कज्जल, कमंद, कामरूप, कामिनी मोहन (मदनावतार), काव्य, वार्णिक कीर्ति, कुंडल, गीता, गंग, चण्डिका, चंद्रायण, छवि (मधुभार), जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिग्पाल / दिक्पाल / मृदुगति, दीप, दीपकी, दोधक, निधि, निश्चल, प्लवंगम, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनाग छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए मधुमालती छंद से
मधुमालती छंद
*
छंद-लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ७-७, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण) होता है.
लक्षण छंद:
मधुमालती आनंद दे
ऋषि साध सुर नव छंद दे
चरणांत गुरु लघु गुरु रहे
हर छंद नवउत्कर्ष दे।
उदाहरण:
१. माँ भारती वरदान दो
सत्-शिव-सरस हर गान दो
मन में नहीं अभिमान हो
घर-अग्र 'सलिल' मधु गान हो।
२. सोते बहुत अब तो जगो
खुद को नहीं खुद ही ठगो
कानून को तोड़ो नहीं-
अधिकार भी छोडो नहीं
**************
रसानंद दे छंद नर्मदा ८२:
दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक (चौबोला), रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​, गीतिका, ​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन/सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका , शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रव​​ज्रा, इंद्रव​​ज्रा, सखी​, विधाता/शुद्धगा, वासव​, ​अचल धृति​, अचल​​, अनुगीत, अहीर, अरुण, अवतार, ​​उपमान / दृढ़पद, एकावली, अमृतध्वनि, नित, आर्द्रा, ककुभ/कुकभ, कज्जल, कमंद, कामरूप, कामिनी मोहन (मदनावतार), काव्य, वार्णिक कीर्ति, कुंडल, गीता, गंग, चण्डिका, चंद्रायण, छवि (मधुभार), जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिग्पाल / दिक्पाल / मृदुगति, दीप, दीपकी, दोधक, निधि, निश्चल, प्लवंगम, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनाग, मधुमालती छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए मनमोहन छंद से
मनमोहन छंद
*
छंद-लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ८-६, चरणांत लघु लघु लघु (नगण) होता है.
लक्षण छंद:
रासविहारी, कमलनयन
अष्ट-षष्ठ यति, छंद रतन
अंत धरे लघु तीन कदम
नतमस्तक बलि, मिटे भरम.
उदाहरण:
१. हे गोपालक!, हे गिरिधर!!
हे जसुदासुत!, हे नटवर!!
हरो मुरारी! कष्ट सकल
प्रभु! प्रयास हर करो सफल.
२. राधा-कृष्णा सखी प्रवर
पार्थ-सुदामा सखा सुघर
दो माँ-बाबा, सँग हलधर
लाड लड़ाते जी भरकर
३. कंकर-कंकर शंकर हर
पग-पग चलकर मंज़िल वर
बाधा-संकट से मर डर
नीलकंठ सम पियो ज़हर
***************************
रसानंद दे छंद नर्मदा ८३:
दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक (चौबोला), रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​, गीतिका, ​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन/सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका , शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रव​​ज्रा, इंद्रव​​ज्रा, सखी​, विधाता/शुद्धगा, वासव​, ​अचल धृति​, अचल​​, अनुगीत, अहीर, अरुण, अवतार, ​​उपमान / दृढ़पद, एकावली, अमृतध्वनि, नित, आर्द्रा, ककुभ/कुकभ, कज्जल, कमंद, कामरूप, कामिनी मोहन (मदनावतार), काव्य, वार्णिक कीर्ति, कुंडल, गीता, गंग, चण्डिका, चंद्रायण, छवि (मधुभार), जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिग्पाल / दिक्पाल / मृदुगति, दीप, दीपकी, दोधक, निधि, निश्चल, प्लवंगम, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनाग, मधुमालती, मनमोहन छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए मनोरम छंद से
मनोरम छंद
*
छंद-लक्षण: समपाद मात्रिक छंद, जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, चरणारंभ गुरु, चरणांत गुरु लघु लघु या लघु गुरु गुरु होता है.
लक्षण छंद:
हैं भुवन चौदह मनोरम
आदि गुरु हो तो मिले मग
हो हमेश अंत में अंत भय
लक्ष्य वर लो बढ़ाओ पग
उदाहरण:
१. साया भी साथ न देता
जाया भी साथ न देता
माया जब मन भरमाती
काया कब साथ निभाती
२. सत्य तज मत 'सलिल' भागो
कर्म कर फल तुम न माँगो
प्राप्य तुमको खुद मिलेगा
धर्म सच्चा समझ जागो
३. लो चलो अब तो बचाओ
देश को दल बेच खाते
नीति खो नेता सभी मिल
रिश्वतें ले जोड़ते धन
४. सांसदों तज मोह-माया
संसदीय परंपरा को
आज बदलो, लोक जोड़ो-
तंत्र को जन हेतु मोड़ो
************************
रसानंद दे छंद नर्मदा ८४:
मानव छंद
*
छंद-लक्षण: समपाद मात्रिक छंद, जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, चरणारंभ गुरु, चरणांत गुरु लघु लघु या लघु गुरु गुरु होता है.
लक्षण छंद:
हैं भुवन चौदह मनोरम
आदि गुरु हो तो मिले मग
हो हमेश अंत में अंत भय
लक्ष्य वर लो बढ़ाओ पग
उदाहरण:
१. साया भी साथ न देता
जाया भी साथ न देता
माया जब मन भरमाती
काया कब साथ निभाती
२. सत्य तज मत 'सलिल' भागो
कर्म कर फल तुम न माँगो
प्राप्य तुमको खुद मिलेगा
धर्म सच्चा समझ जागो
३. लो चलो अब तो बचाओ
देश को दल बेच खाते
नीति खो नेता सभी मिल
रिश्वतें ले जोड़ते धन
४. सांसदों तज मोह-माया
संसदीय परंपरा को
आज बदलो, लोक जोड़ो-
तंत्र को जन हेतु मोड़ो
************************
रसानंद दे छंद नर्मदा ८५:
माली (राजीवगण) छंद
*
छंद-लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १८ मात्रा, यति ९ - ९
लक्षण छंद:
प्रति चरण मात्रा, अठारह रख लें
नौ-नौ पर रहे, यति यह परख लें
राजीव महके, परिंदा चहके
माली-भ्रमर सँग, तितली निरख लें
उदाहरण:
१. आ गयी होली, खेल हमजोली
भीगा दूं चोली, लजा मत भोली
भरी पिचकारी, यूँ न दे गारी,
फ़िज़ा है न्यारी, मान जा प्यारी
खा रही टोली, भांग की गोली
मार मत बोली,व्यंग्य में घोली
तू नहीं हारी, बिरज की नारी
हुलस मतवारी, डरे बनवारी
पोल क्यों खोली?, लगा ले रोली
प्रीती कब तोली, लग गले भोली
२. कर नमन हर को, वर उमा वर को
जीतकर डर को, ले उठा सर को
साध ले सुर को, छिपा ले गुर को
बचा ले घर को, दरीचे-दर को
३. सच को न तजिए, श्री राम भजिए
सदग्रन्थ पढ़िए, मत पंथ तजिए
पग को निरखिए, पथ भी परखिए
कोशिशें करिए, मंज़िलें वरिये
************************
दोहा सलिला
जबलपुर में शुभ प्रभात
*
रेवा जल में चमकतीं, रवि-किरणें हँस प्रात।
कहतीं गौरीघाट से, शुभ हो तुम्हें प्रभात।।१।।
*
सिद्धघाट पर तप करें, ध्यान लगाकर संत।
शुभप्रभात कर सूर्य ने, कहा साधना-तंत।।२।।
*
खारी घाट करा रहा, भवसागर से पार।
सुप्रभात परमात्म से, आत्मा कहे पुकार।।३।
*
साबुन बिना नहाइए, करें नर्मदा साफ़।
कचरा करना पाप है, मैया करें न माफ़।।४।।
*
मिलें लम्हेटा घाट में, अनगिन शिला-प्रकार।
देख, समझ पढ़िये विगत, आ आगत के द्वार।।५।।
*
है तिलवारा घाट पर, एक्वाडक्ट निहार।
नदी-पाट चीरे नहर, सेतु कराए पार।।६।।
*
शंकर उमा गणेश सँग, पवनपुत्र हनुमान।
देख न झुकना भूलना, हाथ जोड़ मति मान।।७।।
*
पोहा-गरम जलेबियाँ, दूध मलाईदार।
सुप्रभात कह खाइए, कवि हो साझीदार।।८।।
*
धुआँधार-सौन्दर्य को, देखें भाव-विभोर।
सावधान रहिए सतत, फिसल कटे भव-डोर।।९।।
*
गौरीशंकर पूजिए, चौंसठ योगिन सँग।
भोग-योग संयोग ने, कभी बिखेरे रंग।।१०।।
*
नौकायन कर देखिये, संगमरमरी रूप।
शिखर भुज भरे नदी को, है सौन्दर्य अनूप।११।।
*
बहुरंगी चट्टान में, हैं अगणित आकार।
भूलभुलैयाँ भुला दे, कहाँ गई जलधार?।१२।।
*
बंदरकूदनी देख हो, लघुता की अनुभूति।
जब गहराई हो अधिक, करिए शांति प्रतीति।।१३।।
*
कमल, मगर, गज, शेर भी, नहीं रहे अब शेष।
ध्वंस कर रहा है मनुज, सचमुच शोक अशेष।।१४।।
*
मदनमहल अवलोकिए, गा बम्बुलिया आप।
थके? करें विश्राम चल, सुख जाए मन-व्याप।।१५।।
१३-५-२०१७
***
मुक्तिका
*
जितने चेहरे उतने रंग
सबकी अलग-अलग है जंग
*
ह्रदय एक का है उदार पर
दिल दूजे का बेहद तंग
*
यह जिसका हो रहा सहायक
वह इससे है बेहद तंग
*
चिथड़ों में भी लाज ढकी है
आधुनिका वस्त्रों में नंग
*
जंग लगी जिसके दिमाग में
वह औरों से छेड़े जंग
*
बेढंगे में छिपा न दिखता
खोज सको तो खोजो ढंग
*
नेह नर्मदा 'सलिल' स्वच्छ है
मलिन हो गयी सुरसरि गंग
***
लघुकथा
कानून के रखवाले
*
'हमने आरोपी को जमकर सबक सिखाया, उसके कपड़े तक ख़राब हो गये, बोलती बंद हो गयी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी हमारा विरोध करने की। हम किसी को अपना विरोध नहीं करने देंगे।' वक्ता की बात पूर्ण होने के पूर्व हो एक जागरूक श्रोता ने पूछा- ''आपका संविधान और कानून के जानकार है और अपने मुवक्किलों को उसके न्याय दिलाने का पेशा करते हैं। कृपया, बताइये संविधान के किस अनुच्छेद या किस कानून की किस कंडिका के तहत आपको एक सामान्य नागरिक होते हुए अन्य नागरिक विचाराभिव्यक्ति से रोकने और खुद दण्डित करने का अधिकार प्राप्त है? क्या आपसे असहमत अन्य नागरिक आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करे तो वह उचित होगा? यदि नागरिक विवेक के अनुसार एक-दूसरे को दण्ड देने के लिए स्वतंत्र हैं तो शासन, प्रशासन और न्यायालय किसलिए है? ऐसी स्थिति में आपका पेशा ही समाप्त हो जायेगा। आप क्या कहते हैं?
प्रश्नों की बौछार के बीच निरुत्तर-नतमस्तक खड़े थे कानून के तथाकथित रखवाले।
१३-५-२०१६
***
एक गीत:
करो सामना
*
जब-जब कंपित भू हुई
हिली आस्था-नीव
आर्तनाद सुनते रहे
बेबस करुणासींव
न हारो करो सामना
पूर्ण हो तभी कामना
ध्वस्त हुए वे ही भवन
जो अशक्त-कमजोर
तोड़-बनायें फिर उन्हें
करें परिश्रम घोर
सुरक्षित रहे जिंदगी
प्रेम से करो बन्दगी
संरचना भूगर्भ की
प्लेट दानवाकार
ऊपर-नीचे चढ़-उतर
पैदा करें दरार
रगड़-टक्कर होती है
धरा धीरज खोती है
वर्तुल ऊर्जा के प्रबल
करें सतत आघात
तरु झुक बचते, पर भवन
अकड़ पा रहे मात
करें गिर घायल सबको
याद कर सको न रब को
बस्ती उजड़ मसान बन
हुईं प्रेत का वास
बसती पीड़ा श्वास में
त्रास ग्रस्त है आस
न लेकिन हारेंगे हम
मिटा देंगे सारे गम
कुर्सी, सिल, दीवार पर
बैंड बनायें तीन
ईंट-जोड़ मजबूत हो
कोने रहें न क्षीण
लचीली छड़ें लगाओ
बीम-कोलम बनवाओ
दीवारों में फंसायें
चौखट काफी दूर
ईंट-जुड़ाई तब टिके
जब सींचें भरपूर
रैक-अलमारी लायें
न पल्ले बिना लगायें
शीश किनारों से लगा
नहीं सोइए आप
दीवारें गिर दबा दें
आप न पायें भाँप
न घबरा भीड़ लगायें
सजग हो जान बचायें
मेज-पलंग नीचे छिपें
प्रथम बचाएं शीश
बच्चों को लें ढांक ज्यों
हुए सहायक ईश
वृद्ध को साथ लाइए
ईश-आशीष पाइए
***
नवगीत:
.
खून-पसीने की कमाई
कर में देते जो
उससे छपते विज्ञापन में
चहरे क्यों हों?
.
जिन्हें रात-दिन
काटा करता
सत्ता और कमाई कीड़ा
आँखें रहते
जिन्हें न दिखती
आम जनों को होती पीड़ा
सेवा भाव बिना
मेवा जी भर लेते हैं
जन के मन में ऐसे
लोलुप-बहरे क्यों हों?
.
देश प्रेम का सलिल
न चुल्लू भर
जो पीते
मतदाता को
भूल स्वार्थ दुनिया
में जीते
जन-जीवन है
बहती 'सलिला'
धार रोकते बाधा-पत्थर
तोड़ी-फेंको, ठहरे क्यों हों?
१३-५-२०१५
*
छंद सलिला:
सुखदा छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महारौद्र, प्रति चरण मात्रा २२ मात्रा, यति १२-१०, चरणांत गुरु (यगण, मगण, रगण, सगण)
लक्षण छंद:
सुखदा बारह-दस यति, मन की बात कहे
गुरु से करें पद-अंत, मंज़िल निकट रहे
उदाहरण:
१. नेता भ्रष्ट हुए जो / उनको धुनना है
जनसेवक जो सच्चे / उनको सुनना है
सोच-समझ जनप्रतिनिधि, हमको चुनना है
शुभ भविष्य के सपने, उज्ज्वल बुनना है
२. कदम-कदम बढ़ना है / मंज़िल पग चूमे
मिल सीढ़ी चढ़ना है, मन हँसकर झूमे
कभी नहीं डरना है / मिल मुश्किल जीतें
छंद-कलश छलकें / 'सलिल' नहीं रीतें
३. राजनीति सुना रही / स्वार्थ क राग है
देश को झुलसा रही, द्वेष की आग है
नेतागण मतलब की , रोटियाँ सेंकते
जनता का पीड़ा-दुःख / दल नहीं देखता
***
मुक्तक:
दिल ही दिल
*
तुम्हें देखा, तुम्हें चाहा, दिया दिल हो गया बेदिल
कहो चाहूँगा अब कैसे, न होगा पास में जब दिल??
तुम्हें दिलवर कहूँ, तुम दिलरुबा, तुम दिलनशीं भी हो
सनम इंकार मत करना, मिले परचेज का जब बिल
*
न देना दिल, न लेना दिल, न दिलकी डील ही करना
न तोड़ोगे, न टूटेगा, नहीँ कुछ फ़ील ही करना
अभी फर्स्टहैंड है प्यारे, तुम सैकेंडहैंड मत करना
न दरवाज़ा खुल रख्नना, न कोई दे सके धऱना
*
न दिल बैठा, न दिल टूटा, न दहला दिल, कहूँ सच सुन
न पूछो कैसे दिल बहला?, न बोलूँ सच , न झूठा सुन,
रहे दिलमें अगर दिलकी, तो दर्दे-दिल नहीं होगा
कहो संगदिल भले ही तुम, ये दिल कातिल नहीँ होगा
*
लगाना दिल न चाहा, दिल लगा कब? कौन बतलाये??
सुनी दिल की, कही दिल से, न दिल तक बात जा पाये।
ये दिल भाया है जिसको, उसपे क्यों ये दिल नहीं आया?
ये दिल आया है जिस पे, हाय! उसको दिल नहीं भाया।
१३-५-२०१४
***

गीत:
छोड़ दें थोड़ा...
* *
जोड़ा बहुत,
छोड़ दें थोड़ा...
*
चार कमाना, एक बाँटना.
जो बेहतर हो वही छांटना-
मंझधारों-भँवरों से बचना-
छूट न जाए घाट-बाट ना.
यही सिखाया परंपरा ने
जुत तांगें में
बनकर घोड़ा...
*
जब-जब अंतर्मुखी हुए हो.
तब एकाकी दुखी हुए हो.
मायावी दुनिया का यह सच-
आध्यात्मिक कर त्याग सुखी हो.
पाठ पढ़ाया पराsपरा ने.
कुंभकार ने
रच-घट फोड़ा...
*
१३.५.१२
***
लेख-
भारत में उर्दू :
संजीव 'सलिल'
*
भारत विभिन्न भाषाओँ का देश है जिनमें से एक उर्दू भी है. मुग़ल फौजों द्वारा आक्रमण में विजय पाने के बाद स्थानीय लोगों के कुचलने के लिये उनके संस्कार, आचार, विचार, भाषा तथा धर्म को नष्ट कर प्रचलित के सर्वथा विपरीत बलात लादा गया तथा अस्वीकारने पर सीधे मौत के घाट उतारा गया ताकि भारतवासियों का मनोबल समाप्त हो जाए और वे आक्रान्ताओं का प्रतिरोध न करें. यह एक ऐतिहासिक सत्य है जिसे कोई झुठला नहीं सकता. पराजित हतभाग्य जनों को मुगल सिपाहियों ने अरबी-फ़ारसी के दोषपूर्ण रूप (सिपाही शुद्ध भाषा नहीं जानते थे) को स्थानीय भाषा कौरवी के साथ मिलावट कर बोला. उनके गुलामों को भी वही भाषा बोलने के लिये विवश होना पड़ा.
भारतीयों को भ्रान्ति है कि उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्र या राजकीय भाषा है जबकि यह पूरी तरह गलत है. न्यूज़ इंटरनॅशनल के अनुसार लाहौर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ख्वाजा मुहम्मद शरीफ ने १३ अक्टूबर २०१० को एक परमादेश याचिका को इसलिए खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता सना उल्लाह और उसके वकील यह प्रमाणित करने में असफल हुए कि उर्दू पाकिस्तान की सरकारी काम-काज की भाषा है. याचिकाकर्ता ने दावा किया था कि १९४८ में पाकिस्तान के राष्ट्रपिता कायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने ढाका में विद्यार्थियों को सम्बोधत करते हुए उर्दू को पाकिस्तान की सरकारी काम-काज की भाषा बताया था तथा संविधान में भी एक निर्धारित समयावधि में ऐसा किये जाने को कहा गया है लेकिन पाकिस्तान की आज़ादी के ६२ साल बाद तक ऐसा नहीं किया गया.
हरकादास वासन, लीड्स अमेरिका के अनुसार-- ''उर्दू संसार की सर्वाधिक खूबसूरत भाषा है जिसे बोलते समय आप खुद को दुनिया से ऊँचा अनुभव करते है तथा इसे भारत की सरकारी काम-काज की भाषा बनाया जाना चाहिए.वासन के अनुसार उर्दू अरबी-फारसी प्रभाव से हिन्दी का उन्नत रूप है. तुर्की मूल के शब्द 'उर्दू' का अर्थ सेना या तंबू है. उर्दू ने व्यावहारिक रूप से हिन्दी की शब्दावली को उसी तरह दोगुना किया है जैसे फ्रेंच ने अंग्रेजी को. उर्दू ने भारतीय कविता विशेषकर श्रंगारिक कविता में बहुत कुछ जोड़ा है. मेहरबानी तथा तशरीफ़ रखिए जैसे शब्द उर्दू के हैं.'' उर्दू की एक खास नजरिये से की जा रही इस पैरवी के पीछे छिपी भावना छिपाए नहीं छिपती. हिन्दी को कमतर और उर्दू को बेहतर बताने का ऐसा दुष्प्रयास उर्दूदां अक्सर करते रहे हैं और इसी कारण हिन्दी व्याकरण और पिंगल के आधार पर रची गयी गजलों को खारिज करते रहे हैं जबकि खुद हर्फ़ गिराकर लिखे गये दोषपूर्ण दोहे थोपते आये हैं.
वस्तुतः उर्दू एक गड्ड-मड्ड भाषा या यूँ कहें कि हिन्दी भाषा ही एक रूप है जो अरबी अक्षरों से लिखी जाती है. भाषा विज्ञान के अनुसार उर्दू वास्तव में एक भाषा है ही नहीं. फारस, अरब तथा तुर्की आदि देशों के सिपाहियों की मिश्रित बोली ही उर्दू है. किसी पराजित देश में विजेताओं की भाषा का प्रयोग करने की प्रवृत्ति होती है. इसी कारण भारत में पहले उर्दू तथा बाद में अंग्रेजी बोली गयी. उर्दू तथा अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार तथा हिन्दी की उपेक्षा के पीछे अखबारी समाचार माध्यम तथा प्रशासनिक अधिकारियों की महती भूमिका है.व्यक्ति चाहें भी तो भाषा को प्रचलन में नहीं ला सकते जब तक कि अख़बार तथा प्रशासन न चाहें.
उर्दू का सौन्दर्य विष कन्या के रूप की तरह मादक किन्तु घातक है. उर्दू अपने उद्भव से आज तक मुस्लिम आक्रमणकारियों और मुस्लिम आक्रामक प्रवृत्ति की भाषा है.८० से अधिक वर्षों तक उर्दू उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम भारत की सरकारी काम-काज की भाषा रही है किन्तु यह उत्तर तथा हैदराबाद के मुसलमानों को छोड़कर अन्य वर्गों (यहाँ तक कि सभी मुसलमानों में भी) में अपनी जड़ नहीं जमा सकी. अंग्रेजी राज्य में उत्तर भारत में उर्दू शिक्षण अनिवार्य किये जाने के कारण पुरुष वर्ग उर्दू जान गया था किन्तु घरेलू महिलाएँ हिन्दी ही बोलती रहीं.यहाँ तक कि केवल ५०% मुसलमान ही उर्दू को अपनी मातृभाषा कहते हैं. मुसलमानों की मातृभाषा बांगला देश में बंगाली, केरल मे मलयालम, तमिलनाडु में तमिल आदि हैं. यह भी सत्य है कि मुसलमानों की धार्मिक भाषा उर्दू नहीं अरबी है. आरम्भ में मुस्लिम लीग ने भी उर्दू को मुसलमानों की दूसरी भाषा ही कहा था.
मुस्लिम काल में उर्दू सरकारी काम-काज की भाषा थी इसलिए सरकारी काम-काज से प्रमुखतः जुड़े कायस्थों, ब्राम्हणों और क्षत्रियों को इसका प्रयोग करने के लिये बाध्य होना पड़ा. जो गरीब हिन्दू बलात मुसलमान बनाये गए वे किसान-सिपाही थे जिन्हें भाषिक विकास से कोई सीधा सरोकार नहीं था. उर्दू के विकास में सर्वाधिक प्रभावी भूमिका दिमाग से तेज और सरकारी बन्दोबस्त से जुड़े कायस्थों ने निभाई जिसका लाभ उन्हें राजस्व से जुड़े महकमों में पदस्थ होकर मिला. उर्दू कौरवी, संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फ़ारसी तथा स्थानीय बोलिओं के शब्दों का सम्मिश्रण अर्थात चूँ-चूँ का मुरब्बा हो गई.
उर्दू का छंद शास्त्र यद्यपि अरबी-फारसी से उधार लिया गया किन्तु मूलतः वहाँ भी यह संस्कृत से ही गया था, इसलिए उर्दू के रुक्न और बहरें संस्कृत छंदों पर ही आधारित मिलती हैं. फारस और अरब की भौगोलिक परिस्थितियों और निवासियों को कुछ शब्दों के उच्चारण में अनुभूत कठिनाई के कारण वही प्रभाव उर्दू में आया. कवियों ने बहरों में कई जगहों पर भारतीय भाषाओँ के शब्दों के प्रयोग में बहर के अनुकूल नहीं पाया. फल यह हुआ कि शब्दों को तोड़-मरोड़कर या उसका कोई अक्षर अनदेखा-अन उच्चारित कर (हर्फ़ गिराकर) उपयोग करना और उसे सही साबित करने के लिये उसके अनुसार नियम बनाये गये. और के स्थान पर औ', मंदिर के स्थान पर मंदर, जान के स्थान पर जां, मकान के स्थान पर मकां, ब्राम्हण के स्थान पर बिरहमन आदि ऐसे ही प्रयोग हैं. इनसे कई जगह अर्थ के अनर्थ हो गये. मंदिर को मंदर करने पर उसका अर्थ देवालय से बदल कर गुफा हो गया.
स्वतंत्रता के बाद अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिये उर्दू प्रेमियों ने उर्दू को हिन्दी से अधिक प्राचीन और बेहतर बताने की जी तोड़ कोशिश की किन्तु आम भारतवासियों को अरबी-फ़ारसी शब्दों से बोझिल भाषा स्वीकार न हुई. फलतः, उर्दू के श्रेष्ठ कहे जा रहे शायरों का वह कलाम जिसे उन्होंने श्रेष्ठ माना जनता के दिल में घर नहीं कर सका और जिसे उन्होंने चलते-फिरते लिखा गया या सतही माना था वह लोकप्रिय हुआ. मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपनी जिन पद्य रचनाओं को पूरी विद्वता से लिखा वे आज किसी को याद नहीं हैं जबकि जिस गजल को 'तंग रास्ता' और 'कोल्हू का बैल' कहा गया था उसने उन्हें अमर कर दिया. ऐसा ही अन्यों के साथ हुआ. दाल न गलती देख मजबूरी में उर्दू लिपि के स्थान पर देवनागरी को अपनाकर हिन्दी के बाज़ार से लाभ कमाने की कोशिश की गयी जो सफल भी हुई.
उदार हिन्दीभाषियों ने उर्दू को गले लगाने में कोई कसर न छोड़ी किन्तु उर्दू दां हिन्दी के व्याकरण-पिंगल को नकारने के दुष्प्रयास में जुट गये. हिन्दी गजलों को खारिज करने का कोई अधिकार न होने पर भी उर्दूदां ऐसा करते रहे जबकि उर्दू में समालोचना शास्त्र का हिन्दी की तुलना में बहुत कम विकास हो सका. उर्दू गजल को इश्क-मुश्क की कैद से आज़ाद कर आम अवाम के दुःख-दर्द से जोड़ने का काम हिन्दी ने ही किया. उर्दू को आक्रान्ता मुसलमानों की भाषा से जन सामान्य की भाषा का रूप तभी मिला जब वह हिन्दी से गले मिली किन्तु हिन्दी की पीठ में छुरा भोंकने से उर्दूदां बाज़ न आये. वे हिन्दी के सर्वमान्य दुष्यंत कुमार की सर्वाधिक लोकप्रिय ग़ज़लों को भी खारिज करार देते रहे. आज भी हिन्दी कवि सम्मेलनों में उर्दू की रचनाओं को पूरी तरह न समझने के बावजूद सराहा ही जाता है किन्तु उर्दू के मुशायरों में हिन्दी कवि या तो बुलाये ही नहीं जाते या उन्हें दाद न देकर अपमानित किया जाता है. इसमें कोई शक नहीं कि इस बेहूदा हरकत में उर्दू भाषा का कोई दोष नहीं है किन्तु उर्दूभाषियों को हिन्दी को अपमानित करने की मनोवृत्ति तो उजागर होती ही है.
भारत में उर्दू का सीधा विरोध न होने पर भी स्वतंत्रता के वर्षों बाद मुस्लिम आतंकवाद ने एक बार फिर उर्दू को अपना औजार बनाने की कोशिश की है. भारत सरकार ने हिंदीभाषियों के धन से उर्दू विश्वविद्यालय स्थापित करने में संकोच नहीं किया. भारत के हिन्दी विश्व विद्यालयों में उर्दू के पठन-पाठन की व्यवस्था है किन्तु हिन्दी भाषियों के करों से हिन्दी भाषी सरकार द्वारा स्थापित किये गाये उर्दू मदरसों और विश्व विद्यालयों में हिन्दी-शिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है.
बांग्ला देश ने उर्दू के घातक सामाजिक दुष्प्रभाव को पहचानकर सांस्कृतिक आधार पर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया. यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी पंजाबियों, सिंधियों बलूचों और पठानों ने भी उर्दू को अपनी सभ्यता-संस्कृति के लिये घातक पाया और अब उर्दू पाकिस्तान में भी सिर्फ मुहाजिरों (भारत से भाग कर पहुँचे मुसलमान) की भाषा है. अमेरिका, जापान, रूस, या चीन कहीं भी उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं है पर भारत में उर्दू पर यह ठप्पा लगाया जाता रहा है. क्या आपने किसी मौलवी, मौलाना को हिन्दी में बोलते सुना है? राम कथा और कृष्ण कथा के प्रवचनकार या हिन्दीभाषी राजनेता पूरी उदारता से संस्कृत और हिन्दी के उद्धरण होते हुई भी उर्दू के शे'र कहने में कोई संकोच नहीं करते किन्तु मजहबी या सियासी तकरीरों में आपको संस्कृत, हिन्दी ही नहीं किसी भी भारतीय भाषा के उद्धरण नहीं मिलते. अपनी इस संकीर्णता के लिये शर्मिंदा होने और सुधारने / बदलने की बजाय उर्दूदां इसे अपनी जीत और उर्दू की ताकत बताते हैं. उर्दू के पीछे छिपी इस संकीर्ण, आक्रामक और बहुत हद तक सांप्रदायिक मनोवृत्ति ने उर्दू का बहुत नुक्सान भी किया है.
भारत में जन्म लेने ओर पोसी जाने के बाद भी उर्दू अवधी, भोजपुरी, बृज, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, मेवाड़ी, मारवाड़ी और ऐसी ही अन्य भाषाओँ की तरह आम आदमी की भाषा नहीं बन सक़ी और आज भी यह अधिकांश लोगों के लिये पराई भाषा है बावजूद इसके कि इसके कुछ शब्द प्रेस द्वारा लगातार उपयोग में लाये जाते हैं तथा इसे देवनागरी में लिखा जाता है जिससे इसके हिन्दी होने का भ्रम होता है. वस्तुतः उर्दू के पीछे सांप्रदायिक हिन्दी द्रोही मानसिकता को देखते हुए इसे हिन्दी से इतर पहचान दिया जाना बंद कर हिन्दी में ही समाहित होने दिया जाना चाहिए अन्यथा व्यावसायिक तथा तकनीकी बाध्यताओं के तहत अंग्रेजीभाषी बनती जा रही नई पीढ़ी इससे पूरी तरह दूर हो जाएगी. आज मैं अपने पूर्वजों के पुराने कागज़ नहीं पढ़ पाता चुकी वे उर्दू लिपि में लिखे गये हैं. उर्दू जाननेवालों से पढवाए तो उनमें इस्तेमाल किये गये शब्द ही समझ में नहीं आये.
तकनीकी कामों में रोजगार पाये नवयुवक गैर अंग्रेजी बहुत कम और सिर्फ मनोरंजन के लिये पढ़ते हैं... उनके बच्चों और परिवारजनों की भी यही स्थिति है. दिन-ब-दिन इनकी तादाद बढ़ती जा रही है. इन्हें भारतीयता से जोड़े रखने में सिर्फ हिन्दी ही समर्थ है. इस वर्ग में विविध प्रान्तों के रहवासियों जिनकी मूल भाषाएँ अलग-अलग हैं विवाह कर रहे हैं... इनकी भाषा क्यों हो? एक प्रान्त की भाषा दूसरे को नहीं आती... विकल्प मात्र यह कि वे अंग्रेजी बोलें या हिन्दी. वे बच्चों को भारतीयत से जोड़े रखना चाहते हैं. भोजपुरी पति की तमिल पत्नी भोजपुरी बोल सकेगी क्या? बंगाली पति अपनी अवधी पत्नी की भाषा समझ सकेगा क्या? पश्तो, डोगरी, मेवाड़ी, मारवाड़ी, बुन्देली, मैथिली, अंगिका, बज्जिका, मालवी, निमाड़ी, हल्बी, गोंडी, कैथी, कोरकू, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि हर भाषा पूज्य है किन्तु अपने मूल रूप में सभी उसे अपना नहीं सकते. एक सीमा तक अंग्रेजी या हिन्दी ने अन्य भाषाओँ से अधिक अपनी पहुँच बनाई है. अंग्रेजी के विदेशी मूल तथा भारतीय सामान्य जनों से दूरी के कारण हिन्दी एकमात्र भाषा है जो आम भारतीयों, अनिवासी भारतीयों, आप्रवासी भारतीयों तथा विदेशियों को एक सूत्र में जोड़कर संवाद का माध्यम बन सकती है.
हमें सत्य से साक्षात करन ही होगा अन्यथा हम अपने ही वंशजों से दूर हो जायेंगे या वे ही हमें समझ नहीं सकेंगे. उर्दूभाषियों तथा उर्दूप्रेमियों को भी इस परिदृश्य में अपनी संकीर्ण भावना छोड़कर हिन्दी के साथ गंगा-यमुना की तरह मिलना होगा अन्यथा हिन्दीभाषी भले ही मौन रहें समय हिन्दी से गैरियत और दूरी रखने की मानसिकता को उसके अंजाम तक पहुँचा ही देगा.
१८-१०-२०१०
***


शुक्रवार, 10 मई 2024

मई १०, विष्णु , श्री श्री, लघुकथा, बाल गीत, माँ, धरती, चित्रगुप्त, नंदिनी-इरावती, मुक्तिका

सलिल सृजन मई १० 

*

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान के सप्तम सारस्वत अनुष्ठान कला पर्व में आप सबका सस्नेह स्वागत है।
माँ शारदा - माँ भारती को नमन।
ले बसंत के पुष्प माँ, आए तेरे द्वार।
मुकुलित मन सुत सलिल का, नमन करो स्वीकार।।
आज मातृ दिवस पर सभी माताओं को नमन।
लिए मंजरी माल हम, विनत कर रहे भेंट।
अपनी बाँहों में हमें, मैया विहँस समेट।।
माता की छाया तले, बैठे बन मिथिलेश।
बुद्धि विनीता हो सदा, चाह नहीं अवधेश।।
मुख्य अतिथि डॉ. मुकुल तिवारी जी का वंदन।
छाया सक्सेना जी ने कोकिलकंठी स्वर में दीप प्रज्वलन पश्चात् सरस्वती वंदना प्रस्तुत की।
आत्मदीप जलता रहे, ज्योतित रहे हमेश।
शब्दब्रह्म आराध हम, मिलें तुम्हें परमेश।।
संस्कारधानी को अपनी स्वर लहरी से मोह चुकी अर्चना गोस्वामी जी ने "मेघा रे जल भर लाए" प्रस्तुत कर सब को मंत्र मुग्ध कर दिया।
करे अर्चना मधुर स्वर, भाव पुनीता दिव्य
राम सुन रहे लीन हो, भक्ति भाव है भव्य
माननीय मंजरी शर्मा जी ने पाककला का अध्याय खोलते हुए लच्छेदार रबड़ी, मिथिलेश बड़गैया जी ने गुलाब जामुन, आशा नारायण जी ने आइसक्रीम तथा छाया सक्सेना जी ने बिना अंडे का केक बनाने की विधि व चित्र प्रस्तुत कर सबके मुँह में पानी ला दिया।
नृत्य गुरु बिटिया उपासना के निर्देशन में कालजयी कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की अमर कविता "ये मेरी गोदी की शोभा" पर मौसमी नंदी जी तथा बालिका आराध्या तिवारी ने उत्तम नृत्य प्रस्तुत किया।
आराध्या जिनको कला, गुरु उपासना श्रेष्ठ ।
अभिनंदन मौसमी का, कलाकार है ज्येष्ठ।।
अरुण लिए आलोक आ, जला रहा मणि दीप।
मणि मुक्ता है कला हर, कलाकार हैं सीप।।
तालाबंदी पर संदेशपरक फिलम मुकुल जी के माध्यम से प्रस्तुत की गयी। केरल की नृत्य कला 'कथकळि' की मनोहर नृत्य मुद्राओं और हस्त संचालन की रोचक प्रस्तुति बसंत शर्मा जी के माध्यम से हुई।
नन्हीं प्रशिक्षा रंजन राज पलामू झारखण्ड ने मनोहर नृत्य प्रस्तुति दी।
प्रतिभा बहुत प्रशिक्षा में, मिल हम सकें तराश।
धरती पर पग जमाकर, छू पाए आकाश।।
अभियंता अरुण भटनागर ने वास्तु व् अभियांत्रिकी की समृद्ध विरासत पर जानकारीपूर्ण आलेख प्रस्तुत किया।
वास्तु कला की विरासत, अद्वितीय लें मान।
नव यांत्रिकी के क्षेत्र में, नहीं देश का सान।।
तान्या श्रीवास्तव द्वारा कत्थक नृत्य प्रस्तुति को सबने सराहा।
तान्या कत्थक नृत्य में, है प्रवीण लें मान।
फूँक सके पाषाण में, नृत्य दिखाकर जान।।
लौह तरंग पर अमर चित्रपटीय गीत 'मेरा जूता है जापानी' सुनकर श्रोता झूम उठे।
बोनसाई कला पर सारगर्भित संबोधन बसंत शर्मा जी ने प्रस्तुत किया।
बौने पौधों की कला, बोनसाई लें जान।
मनहर छटा बसंत की, देख झूमिए जान!
बारह मास बसंत की, छटा मंजरी भव्य।
बोनसाई ने दिखा दी, प्रकृति सुंदरी नव्य।।
"यादों के बेतरतीब बिखरे पन्ने" विनीता श्रीवास्तव की कविता की चित्रांकन सहित प्रस्तुति की हेमंत मोहन ने -
यादों के पन्ने लिए, श्री वास्तव में देख
खींच रहे हेमंत स्वर, चित्रांकन से रेख
१०.५.२०२०
***
श्री श्री चिंतन दोहा गुंजन: ७
विषय: विष्णु के अवतार
*
श्री-श्री का प्रवचन सुना, अंतरजाल कमाल।
प्रगटे दोहे समर्पित, स्वीकारें मन-पाल।।
*
दानी में हो अहं तो, वामन बनें विराट।
गुरु होता मोहांध; खो, नैन खड़ी हो खाट।।
*
पितृ कहे से मातृ-वध, कर चाहा वरदान।
फिर जीवित हो माँ, न हो सपने में अपमान।।
*
क्षत्रिय में विप्रत्व के, भार्गव बोते बीज।
अहं-नाश क्षत्रियों का, हुआ गर्व-घट छीज।।
*
राम-श्याम दो छोर हैं, रख दोनों को थाम।
तजा एक को भी अगर, लगे विधाता वाम।।
*
ये जन्मे दोपहर में, वे जन्मे अध रात।
सखा-सखी प्रिय उन्हें हैं, इनको प्रिय पितु -मात।।
*
कल्कि न कल अब में जिए, रखें ज्ञान तलवार।
काटेंगे अज्ञान सर, कर मानव उद्धार।।
*
'श्व' कल बीता-आ रहा, अ-श्व अ-कल 'अब' जान।
कल्कि करें 'अब' नियंत्रित, 'कल' का काट वितान।।
*
सार तत्व गुरु मुख-वचन, त्रुटियाँ मेरा दोष।
लोभ बाँट लूँ सगों से, गुरु वचनामृत-कोष।।
***
एक दोहा
'भली करेंगे राम जू!', कह मनमाना काम.
किया; दंड दे राम ने, कहा: 'भला यह काम.'
१०.५.२०१८, ८.२५,
***
लघुकथा
आग
अफसर पिता की लाडली बिटिया को किसी प्रकार की कमी नहीं थी. जब जो चाह तुरंत मिला गया. बढ़ती उम्र के साथ उसकी जिद भी बढ़ती गयी. माँ टोंकती तो पिता उन्हें चुप करा देते 'बाप के राज में मौज-मस्ती नहीं करेगी तो कब करेगी?
माँ ससुराल और शादी की फ़िक्र करतीं तो पिता कह देते जिसकी सौ बार गरज होगी, नाक रगड़ता हुआ आएगा देहलीज पर और मैं अपनी शर्तों पर बिटिया को रानी बनाकर भेजूँगा.
समय पर किसका वश? अनियमित खान-पान ने पिता को काल का ग्रास बना दिया. अफसरी का रौब-दाब समाप्त होते दो दिन न लगे. जो दिन-रात सलाम बजाते नहीं थकते थे, वही उपहास की दृष्टि से देखने लगे. शोक की अवधि समाप्त होते ही माँ-बेटी अपने पैतृक घर में आ गयीं. सगे-संबंधी जमीन-जायदाद में हिस्सा देने में आनाकानी करने लगे. साहब ने अपने रहते कभी ध्यान ही नहीं दिया, न कोई जानकारी दी पत्नि या बेटी को.
बाबूराज की महिमा अपरम्पार... पेंशन की नस्ती जिस मेज पर जाती उस बाबू को याद आता की कब-कब उसे डपटा गया था और वह नस्ती को दबा कर बैठ जाता. साल-दर-साल बीतने लगे... किसी प्रकार ले-देकर पेंशन आरम्भ हो सकी.
बिटिया जिद्दी और फिजूलखर्च और पार्टी करने की शौक़ीन थी. माँ के समझाने का असर कुछ दिन रहता फिर वही ढाक के तीन पात.
मुसीबत अकेले नहीं आती. माँ को सदमे और चिंताओं ने तो घेर ही लिया था. कोढ़ में खाज यह कि डोक्टर ने असाध्य बीमारी का रोगी बता दिया. अत्यंत मँहगी चिकित्सा. मरता क्या न करता ? जमा -पूँजी खर्च कर माँ को बचाने में जुट गयी वह. मौज-मस्ती के साथी उससे जो चाहते थे वह करने से बेहतर उसे मर जाना लगता. बस चलता तो ऐसे मतलबपरस्तों को ठिकाने लगा देती वह पर समय की नजाकत को देखते हुए उसे हर कदम फूँक-फूँक कर रखना था.
देर रात अस्पताल से घर आयी और आग जलाकर ठण्ड भगाने बैठी तो उसे लगा वह खुद भी सुलग रही है. समय ने भले ही उससे पिता का साया और माँ की गोद से वंचित कर दिया है पर वह हार नहीं मानेगी. अपने दोनों पैरों में पिता और हाथों में माँ का सम्बल है उसके पास. अपने पैरों को जमीन पर टिका कर वह न केवल मुसीबतों से जूझेगी बल्कि सफलता के आसमान को भी छुएगी. आत्मविश्वास ने उसमें ऊर्जा का संचार किया और वह आग के सामने जा बैठी पिता-माँ के आशीष की अनुभूति करने घुटनों पर हाथ और सर रखकर. कल के संघर्ष के लिए उसके तन को करना था विश्राम और मन को जलाए रखनी आग.
***
दोहा मुक्तिका
*
असत जीत गौतम हुए ब्रम्ह जीत जिस प्रात
पैर जमाने की हुई भर उड़ान शुरुआत
*
मोह-माधुरी लुटाकर गिरिधारी थे मस्त
चैन गँवाकर कंस ने तत्क्षण पाई मात
*
सुन बृजेंद्र की वंदना, था सुरेंद्र बेचैन
पार न लेकिन पा सका, जी भर कर ली घात
*
वास्तव में श्री मनोरमा, चेतन सदा प्रकाश
मीठी वाणी बोल तू, सूरज करे प्रभात
*
चंद्र किरण लख कुमुद को, उतर धरा पर मौन
पूनम बैठी शैल पर, करे रात में प्रात
१०-५-२०१७
***
बाल गीत
*
सबसे ज्यादा अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
सुबह उठाती गले लगाकर,
नहलाती है फिर बहलाकर,
आँख मूँद, कर जोड़ पूजती ,
प्रभु को सबकी कुशल मनाकर. ,
देती है ज्यादा प्रसाद फिर
सबकी नजर बचाकर.
आँचल में छिप जाता मैं ज्यों
रहे गाय सँग बछड़ा.
सबसे ज्यादा अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा.
बारिश में छतरी आँचल की ,
ठंडी में गर्मी दामन की.,
गर्मी में साड़ी का पंखा-,
पल्लू में छाया बादल की !
दूध पिलाती है गिलास भर -
कहे बनूँ मैं तगड़ा. ,
सबसे ज्यादा अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
***
माँ को अर्पित चौपदे:
बारिश में आँचल को छतरी, बना बचाती थी मुझको माँ.
जाड़े में दुबका गोदी में, मुझे सुलाती थी गाकर माँ..
गर्मी में आँचल का पंखा, झलती कहती नयी कहानी-
मेरी गलती छिपा पिता से, बिसराती थी मुस्काकर माँ..
*
मंजन स्नान आरती थी माँ, ब्यारी दूध कलेवा थी माँ.
खेल-कूद शाला नटख़टपन, पर्व मिठाई मेवा थी माँ..
व्रत-उपवास दिवाली-होली, चौक अल्पना राँगोली भी-
संकट में घर भर की हिम्मत, दीन-दुखी की सेवा थी माँ..
खाने की थाली में पानी, जैसे सबमें रहती थी माँ.
कभी न बारिश की नदिया सी कूल तोड़कर बहती थी माँ..
आने-जाने को हरि इच्छा मान, सहज अपना लेती थी-
सुख-दुःख धूप-छाँव दे-लेकर, हर दिन हँसती रहती थी माँ..
*
गृह मंदिर की अगरु-धूप थी, भजन प्रार्थना कीर्तन थी माँ.
वही द्वार थी, वातायन थी, कमरा परछी आँगन थी माँ..
चौका बासन झाड़ू पोंछा, कैसे बतलाऊँ क्या-क्या थी?-
शारद-रमा-शक्ति थी भू पर, हम सबका जीवन धन थी माँ..
*
कविता दोहा गीत गजल थी, रात्रि-जागरण चैया थी माँ.
हाथों की राखी बहिना थी, सुलह-लड़ाई भैया थी माँ.
रूठे मन की मान-मनौअल, कभी पिता का अनुशासन थी-
'सलिल'-लहर थी, कमल-भँवर थी, चप्पू छैंया नैया थी माँ..
*
आशा आँगन, पुष्पा उपवन, भोर किरण की सुषमा है माँ.
है संजीव आस्था का बल, सच राजीव अनुपमा है माँ..
राज बहादुर का पूनम जब, सत्य सहाय 'सलिल' होता तब-
सतत साधना, विनत वन्दना, पुण्य प्रार्थना-संध्या है माँ..
*
माँ निहारिका माँ निशिता है, तुहिना और अर्पिता है माँ
अंशुमान है, आशुतोष है, है अभिषेक मेघना है माँ..
मन्वंतर अंचित प्रियंक है, माँ मयंक सोनल सीढ़ी है-
ॐ कृष्ण हनुमान शौर्य अर्णव सिद्धार्थ गर्विता है माँ
***
एक कविता
धरती
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है
सभ्यता को,
धरती जन्म देती है
संस्कृति को.
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..
***
गीत:
माँ
*
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
सत्य है यह
खा-कमाती,
सदा से सबला रही.
*
खुरदरे हाथों से टिक्कड़
नोन के संग जब दिए.
लिए चटखारे सभी ने,
साथ मिलकर खा लिए.
तूने खाया या न खाया
कौन कब था पूछता?
तुझमें भी इंसान है
यह कौन-कैसे बूझता?
यंत्र सी चुपचाप थी क्यों
आँख क्यों सजला रही?
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
*
काँच की चूड़ी न खनकी,
साँस की सरगम रुकी.
भाल पर बेंदी लगाई,
हुलस कर किस्मत झुकी.
बाँट सपने हमें अपने
नित नया आकाश दे.
परों में ताकत भरी
श्रम-कोशिशें अहिवात दे.
शिव पिता की है शिवा तू
शारदा-कमला रही?
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
*
इंद्र सी हर दृष्टि को
अब हम झुकाएँ साथ मिल.
ब्रम्ह को शुचिता सिखायें
पुरुष-स्त्री हाथ मिल.
राम को वनवास दे दें
दु:शासन का सर झुके.
दीप्ति कुल की बने बेटी
संग हित दीपक रुके.
सचल संग सचला रही तू
अचल संग अचला रही.
माँ!
मुझे शिकवा है तुझसे
क्यों बनी अबला रही?
***
मातृदिवस पर गीत :
माँ जी हैं बीमार...
*
माँ जी हैं बीमार...
*
प्रभु! तुमने संसार बनाया.
संबंधों की है यह माया..
आज हुआ है वह हमको प्रिय
जो था कल तक दूर-पराया..
पायी उससे ममता हमने-
प्रति पल नेह दुलार..
बोलो कैसे हमें चैन हो?
माँ जी हैं बीमार...
*
लायीं बहू पर बेटी माना.
दिल में, घर में दिया ठिकाना..
सौंप दिया अपना सुत हमको-
छिपा न रक्खा कोई खज़ाना.
अब तो उनमें हमें हो रहे-
निज माँ के दीदार..
करूँ मनौती, कृपा करो प्रभु!
माँ जी हैं बीमार...
*
हाथ जोड़ कर करूँ वन्दना.
प्रभुजी! सुनिए नम्र प्रार्थना
तन-मन से सेवा करती हूँ
सफल कीजिए सकल साधना..
चैन न लेने दूँगी, तुमको
जग के तारणहार.
स्वास्थ्य लाभ दो मैया को हरि!
हों न कभी बीमार..
***
बाल कविता :
भय को जीतो
*
बहुत पुरानी बात है मित्रों!
तब मैं था छोटा सा बालक।
सुबह देर से उठना
मन को भाता था।
ग्वाला लाया दूध
मिला पानी तो
माँ ने बंद कर दिया
लेना उससे।
निकट खुली थी डेरी
कहा वहीं से लाना।
जाग छह बजे
निकला घर से
डेरी को मैं
लेकर आया दूध
मिली माँ से शाबाशी।
कुछ दिन बाद
अचानक
काला कुत्ता आया
मुझे देख भौंका
डर कर
मैं पीछे भागा।
सज्जन एक दिखे तो
उनके पीछे-पीछे गया,
देखता रहा
न कुत्ता तब गुर्राया।
घर आ माँ को
देरी का कारण बतलाया
माँ बोली:
'जो डरता है
उसे डराती सारी दुनिया।
डरना छोड़ो,
हिम्मत कर
मारो एक पत्थर।
तब न करेगा
कुत्ता पीछा।
अगले दिन
हिम्मत कर मैंने
एक छड़ी ली और
जेब में पत्थर भी कुछ।
ज्यों ही कुत्ता दिखा
तुरत मारे दो पत्थर।
भागा कालू पूँछ दबा
कूँ कूँ कूँ कूँ कर।
घर आ माँ को
हाल बताया
माँ मुस्काई,
सर सहलाया
बोली: 'बनो बहादुर तब ही
दुनिया देगी तुम्हें रास्ता।'
***
प्रो. श्यामलाल उपाध्याय कोलकाता के प्रति भावांजलि:
*
हिंदी माँ के पूत लाडले श्यामलाल जी
जगभाषा के दूत बावले श्यामलाल जी
.
है बुलंद आवाज़ पहुँचती सीधे दिल तक
सतत सृअजं करते है हर दिन दिन ढलने तक
पिंगल और व्याकरण पर अधिकार एक सा
स्वप्न करें साकार नया सपना पलने तक
.
अपनेपन का मानी दुनिया इनसे पूछे
इतनी ऊर्जा पाई कहाँ से, कैसे बूझे?
कतिहं कार्य भी बहुत सहजता से करते हैं
हे मुश्किल का हल क्या जाने कैसे सूझे?
.
नहीं श्याम मन नहीं लाल पर श्याम लाल हैं
बसे कोलकाता में ये सचमुच कमाल हैं
वार्धक्य को बने चुनौती शब्द-सिपाही
निर्मल-निश्छल-सहज, शांत करते धमाल हैं
.
अट्टहास जो सुने बिसारे चिंता सारी
शरद अनुष्ठान नित करते, धुनी पुजारी
बने विश्ववाणी हिंदी यह शुभ इच्छा ले-
श्वास-श्वास से हिंदी की आरती उतारी
.
'सलिल' धन्य वन्दन कर, पा आशीष आपसे
खोजे मिलते नहीं शब्द-ऋषि अन्य आपसे
सम्मानित सम्मान हुए कर कमलों जाकर
करें अनुकरण, सीख सकें कुछ सबक आपसे
.
हम बडभागी वन्दन कर श्री श्यामलाल जी
अर्पित चन्दन-कुंकुम-अक्षत श्यामलाल जी
१०-५-२०१५
***
दोहा
श्वास-श्वास माँ से मिली, ममता है उपहार
शब्द ब्रम्ह की साधना, हिंदी माँ का प्यार.
१०-५-२०१५
***
गीत
कनक पात्र का सत्य अनावृत्त हो न जाए ढाँका करता हूँ
*
अटल सत्य गत-आगत फिसलन-मोड़ मिलाएंगे फ़िर हमको
किसके नयनों में छवि किसकी कौन बताये रही समाई
वहीं सृजन की रची पटकथा विधना ने चुपचाप हुलसकर
संचय अगणित गणित हुआ ज्यों ध्वनि ने प्रतिध्वनि थी लौटाई
मौन मगन हो सतनारायण के प्रसाद में मिली पँजीरी
अँजुरी में ले बुक्का भर हो आनंदित फाँका करता हूँ
*
खुदको तुममें गया खोजने जब तब पाया खुदमेँ तुमको
किसे ज्ञात कब तुम-मैं हम हो सिहर रहे थे अँखियाँ मीचे
बने सहारा जब चाहा तब अहम सहारा पा नतमस्तक
हुआ और भर लिया बाँह में खुदको खुदने उठ-झुक नीचे
हो अवाक मन देख रहा था कैसे शून्य सृष्टि रचता है
हार स्वयं से, जीत स्वयं को नव सपने आँका करता हूँ
*
चमका शुक्र हथेली पर हल्दी आकर चुप हुई विराजित
पुरवैया-पछुआ ने बन्ना-बन्नी गीत सुनाये भावन
गुण छत्तीस मिले थे उस पल, जिस पल पलभर नयन मिले थे
नेह नर्मदा छोड़ मिली थी, नेह नर्मदा मन के आँगन
पाकर खोना, खोकर पाना निमिष मात्र में जान मनीषा
मौन हुई, विश्वास सितारे मन नभ पर टाँका करता हूँ
*
आस साधना की उपासना करते उषा हुई है संध्या
रजनी में दोपहरी देखे चाहत, राहत हुई पराई
मृगमरीचिका को अनुरागा, दौड़ थका तो भुला विकलता
मन देहरी सँतोष अल्पना की कर दी हँसकर कुड़माई
सुधियों के दर्पण में तुझको, निरखा थकन हुई छूमंतर
कलकल करती 'सलिल'-लहर में, छवि तेरी झाँका करता हूँ
१०-५-२०१४
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गीत
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अटल सत्य गत-आगत फिसलन-मोड़ मिलाएंगे फ़िर हमको
किसके नयनों में छवि किसकी कौन बताये रही समाई
वहीं सृजन की रची पटकथा विधना ने चुपचाप हुलसकर
संचय अगणित गणित हुआ ज्यों ध्वनि ने प्रतिध्वनि थी लौटाई
मौन मगन हो सतनारायण के प्रसाद में मिली पँजीरी
अँजुरी में ले बुक्का भर हो आनंदित फाँका करता हूँ
*
खुदको तुममें गया खोजने जब तब पाया खुदमेँ तुमको
किसे ज्ञात कब तुम-मैं हम हो सिहर रहे थे अँखियाँ मीचे
बने सहारा जब चाहा तब अहम सहारा पा नतमस्तक
हुआ और भर लिया बाँह में खुदको खुदने उठ-झुक नीचे
हो अवाक मन देख रहा था कैसे शून्य सृष्टि रचता है
हार स्वयं से, जीत स्वयं को नव सपने आँका करता हूँ
*
चमका शुक्र हथेली पर हल्दी आकर चुप हुई विराजित
पुरवैया-पछुआ ने बन्ना-बन्नी गीत सुनाये भावन
गुण छत्तीस मिले थे उस पल, जिस पल पलभर नयन मिले थे
नेह नर्मदा छोड़ मिली थी, नेह नर्मदा मन के आँगन
पाकर खोना, खोकर पाना निमिष मात्र में जान मनीषा
मौन हुई, विश्वास सितारे मन नभ पर टाँका करता हूँ
*
आस साधना की उपासना करते उषा हुई है संध्या
रजनी में दोपहरी देखे चाहत, राहत हुई पराई
मृगमरीचिका को अनुरागा, दौड़ थका तो भुला विकलता
मन देहरी सँतोष अल्पना की कर दी हँसकर कुड़माई
सुधियों के दर्पण में तुझको, निरखा थकन हुई छूमंतर
कलकल करती 'सलिल'-लहर में, छवि तेरी झाँका करता हूँ
१०-५-२०१४
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चित्रगुप्त जयंती पर विशेष रचना:
मातृ वंदना
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ममतामयी माँ नंदिनी, करुणामयी माँ इरावती.
सन्तान तेरी मिल उतारें, भाव-भक्ति से आरती...
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लीला तुम्हारी हम न जानें, भ्रमित होकर हैं दुखी.
सत्पथ दिखाओ माँ, बनें सन्तान सब तेरी सुखी..
निर्मल ह्रदय के भाव हों, किंचित न कहीं अभाव हों-
सात्विक रहें आचार, पायें अंत में हम सद्गति...
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कुछ काम जग के आ सकें, महिमा तुम्हारी गा सकें.
सत्कर्म कर आशीष मैया!, पुत्र तेरे पा सकें..
निष्काम रह, निस्वार्थ रह, सब मोक्ष पायें अंत में-
निर्मल रहें मन-प्राण, रखना माँ! सदा निश्छल मति...
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चित्रेश प्रभु की कृपा मैया!, आप ही दिलवाइए.
जैसी भी है सन्तान तेरी है, न अब ठुकराइए..
आशीष दो माता! 'सलिल', कंकर से शंकर बन सकें-
कर सफल मम साधना माँ!, पद-पद्म में होवे रति...
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मुक्तिका:
तुम क्या जानो
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तुम क्या जानो कितना सुख है दर्दों की पहुनाई में.
नाम हुआ करता आशिक का गली-गली रुसवाई में..
उषा और संझा की लाली अनायास ही साथ मिली.
कली कमल की खिली-अधखिली नैनों में, अंगड़ाई में..
चने चबाते थे लोहे के, किन्तु न अब वे दाँत रहे.
कहे बुढ़ापा किससे क्या-क्या कर गुजरा तरुणाई में..
सरस परस दोहों-गीतों का सुकूं जान को देता है.
चैन रूह को मिलते देखा गजलों में, रूबाई में..
'सलिल' उजाला सभी चाहते, लेकिन वह खलता भी है.
तृषित पथिक को राहत मिलती अमराई - परछाँई में
१०-५-२०११
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मुक्तिका
कुछ हवा दो अधजली चिंगारियाँ फिर बुझ न जाएँ.
शोले जो दहके वतन के वास्ते फिर बुझ न जाएँ.
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खुद परस्ती की सियासत बहुत कर ली, रोक दो.
लहकी हैं चिंगारियाँ फूँको कि वे फिर बुझ न जाएँ.
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प्यार की, मनुहार की,इकरार की,अभिसार की
मशालें ले फूँक दो दहशत,कहीं फिर बुझ न जाएँ.
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ज़हर से उतरे ज़हर, काँटे से काँटा दो निकाल.
लपट से ऊँची लपट करना सलिल फिर बुझ न जाएँ.
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सब्र की हद हो गयी है, ज़ब्र की भी हद 'सलिल'
चिताएँ उनकी जलाओ इस तरह फिर बुझ न जाएँ
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माँ की सुधियाँ
पुरवाई सी....
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तन पुलकित मन प्रमुदित करतीं माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
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दूर रहा जो उसे खलिश है तुमको देख नहीं वह पाया.
निकट रहा मैं लेकिन बेबस रस्ता छेक नहीं मैं पाया..
तुम जाकर भी गयी नहीं हो, बस यह है इस बेटे का सच.
साँस-साँस में बसी तुम्हीं हो, आस-आस में तुमको पाया..
चिंतन में लेखन में तुम हो, शब्द-शब्द सुन हर्षाई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
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तुम्हें देख तुतलाकर बोला, 'माँ' तुमने हँस गले लगाया.
दौड़ा गिरा बिसूरा मुँह तो, उठा गुदगुदा विहँस हँसाया..
खुशी न तुमने खुद तक रक्खी, मुझसे कहलाया 'पापा' भी-
खुशी लुटाने का अनजाने, सबक तभी माँ मुझे सिखाया..
लोरी भजन आरती कीर्तन, सुन-गुन धुन में छवि पाई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
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भोर-साँझ, त्यौहार-पर्व पर, हुलस-पुलकना तुमसे पाया.
दुःख चुप सह, सुख सब संग जीना, पंथ तुम्हारा ही अपनाया..
आँसू देख न पाए दुनिया, पीर चीर में छिपा हास दे-
संकट-कंटक को जय करना, मन्त्र-मार्ग माँ का सरमाया.
बन्ना-बन्नी, होरी-गारी, कजरी, चैती, चौपाई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
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गुदड़ी, कथरी, दोहर खो, अपनों-सपनों का साथ गँवाया..
चूल्हा-चक्की, कंडा-लकड़ी, फुंकनी सिल-लोढ़ा बिसराया.
नथ, बेन्दा, लंहगा, पायल, कंगन-सज करवाचौथ मनातीं-
निर्जल व्रत, पूजन-अर्चन कर, तुमने सबका क्षेम मनाया..
खुद के लिए न माँगा कुछ भी, विपदा सहने बौराई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
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घूँघट में घुँट रहें न बिटियाँ, बेटा कहकर खूब पढाया.
सिर-आँखों पर जामाता, बहुओं को बिटियों सा दुलराया.
नाती-पोते थे आँखों के तारे, उनमें बसी जान थी-
'उनका संकट मुझको दे', विधना से तुमने सदा मनाया.
तुम्हें गँवा जी सके न पापा, तुम थीं उनकी परछाईं सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
१०-५-२०१०

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