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बुधवार, 27 मार्च 2019

नवगीत तुम

नवगीत
तुम 
*
ताप धरा का
बढ़ा चैत में
या तुम रूठीं?
लू-लपटों में बन अमराई राहत देतीं।
कभी दर्प की उच्च इमारत तपतीं-दहतीं।
बाहों में आ, चाहों ने हारना न सीखा-
पगडंडी बन, राजमार्ग से जुड़-मिल जीतीं।
ठंडाई, लस्सी, अमरस
ठंडा खस-पर्दा-
बहा पसीना
हुई घमौरी
निंदिया टूटी।
*
सावन भावन
रक्षाबंधन
साड़ी-चूड़ी।
पावस की मनहर फुहार मुस्काई-झूमी।
लीक तोड़कर कदम-दर-कदम मंजिल चूमी।
ध्वजा तिरंगी फहर हँस पड़ी आँचल बनकर-
नागपंचमी, कृष्ण-अष्टमी सोहर-कजरी।
पूनम-एकादशी उपासी
कथा कही-सुन-
नव पीढ़ी में
संस्कार की
कोंपल फूटी।
*
अन्नपूर्णा!
शक्ति-भक्ति-रति
नेह-नर्मदा।
किया मकां को घर, घरनी कण-कण में पैठीं।
नवदुर्गा, दशहरा पुजीं लेकिन कब ऐंठीं?
धान्या, रूपा, रमा, प्रकृति कल्याणकारिणी-
सूत्रधारिणी सदा रहीं छोटी या जेठी।
शीत-प्रीत, संगीत ऊष्णता
श्वासों की तुम-
सुजला-सुफला
हर्षदायिनी
तुम्हीं वर्मदा।
*
जननी, भगिनी
बहिन, भार्या
सुता नवेली।
चाची, मामी, फूफी, मौसी, सखी-सहेली।
भौजी, सासू, साली, सरहज छवि अलबेली-
गति-यति, रस-जस,लास-रास नातों की सरगम-
स्वप्न अकेला नहीं, नहीं है आस अकेली।
रुदन, रोष, उल्लास, हास,
परिहास,लाड़ नव-
संग तुम्हारे
हुई जिंदगी ही
अठखेली।
२७.३.२०१६ 
*****

मधुमालती छंद

छंद सलिला:
मधुमालती छंद
संजीव
*
लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ७-७, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण) होता है.
लक्षण छंद:
मधुमालती आनंद दे
ऋषि साध सुर नव छंद दे
चरणांत गुरु लघु गुरु रहे
हर छंद नवउत्कर्ष दे।
उदाहरण:
१. माँ भारती वरदान दो
सत्-शिव-सरस हर गान दो
मन में नहीं अभिमान हो
घर-अग्र 'सलिल' मधु गान हो।
२. सोते बहुत अब तो जगो
खुद को नहीं खुद ही ठगो
कानून को तोड़ो नहीं-
अधिकार भी छोडो नहीं 
२७.३.२०१४
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)

छंद मनोरम

छंद सलिला:मनोरम छंद
संजीव
*
लक्षण: समपाद मात्रिक छंद, जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, चरणारंभ गुरु, चरणांत गुरु लघु लघु या लघु गुरु गुरु होता है.

लक्षण छंद:
हैं भुवन चौदह मनोहर
आदि गुरुवत पकड़ लो मग
अंत भय से बच हमेशा

लक्ष्य वर लो बढ़ाओ पग
उदाहरण:
१. साया भी साथ न देता
जाया भी साथ न देता
माया जब मन भरमाती
काया कब साथ निभाती
२. सत्य तज मत 'सलिल' भागो
कर्म कर फल तुम न माँगो
प्राप्य तुमको खुद मिलेगा
धर्म सच्चा समझ जागो
३. लो चलो अब तो बचाओ
देश को दल बेच खाते
नीति खो नेता सभी मिल
रिश्वतें ले जोड़ते धन
४. सांसदों तज मोह-माया
संसदीय परंपरा को
आज बदलो, लोक जोड़ो-
तंत्र को जन हेतु मोड़ो
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)

मुक्तिका

मुक्तिका
*
नेताओं का शगल है, करना बहसें रोज.
बिन कारण परिणाम के, क्यों नाहक है खोज..

नारी माता भगिनी है, नारी संगिनी दिव्य.
सुता सखी भाभी बहू, नारी सचमुच भव्य..

शारद उमा रमा त्रयी, ज्ञान शक्ति श्री-खान.
नर से दो मात्रा अधिक, नारी महिमावान..

तैंतीस की बकवास का, केवल एक जवाब.
शत-प्रतिशत के योग्य वह, किन्तु न करे हिसाब..

देगा किसको कौन क्यों?, लेगा किससे कौन?
संसद में वे भौंकते, जिन्हें उचित है मौन..
२७.३.२०१०
*
संजीव, ७९९९५५९६१८

संबोधन संजीव वर्मा सलिल

https://youtu.be/8XU_brlvBrg

गीत

सच्ची बात
*
मेरे घर में हो प्रकाश
तेरा घर बने मशाल
*
मेरा अनुभव है  यही
पैमाने हैं दो।
मुझको रिश्वत खूब दो
बाकी मगर न लो
मैं तेरा रखता न पर
तू मेरा रखे खयाल
मेरे घर में हो प्रकाश
तेरा घर बने मशाल
*
मेरे घर हो लक्ष्मी,
तेरे घर काली
मुझसे ले मत, दे मुझे
तू दहेज-थाली
तेरा नत, मेरा रहे
हरदम ऊँचा भाल
मेरे घर में हो प्रकाश
तेरा घर बने मशाल
*
तेरा पुत्र शहीद हो
मेरा अफसर-सेठ
तेरी वाणी नम्र हो
मैं दूँ गाली ठेठ
तू मत दे, मैं झटक लूँ
पहना जुमला-माल
मेरे घर में हो प्रकाश
तेरा घर बने मशाल
*
संवस, ७९९९५५९६१८

मंगलवार, 26 मार्च 2019

समीक्षा गिरि मोहन गुरु के नवगीत

कृति चर्चा:
गिरिमोहन गुरु के नवगीत : बनाते-नवरीत
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: गिरिमोहन गुरु के नवगीत, नवगीत संग्रह, गिरिमोहन गुरु, संवत २०६६, पृष्ठ ८८, १००/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक दोरंगी, मध्य प्रदेश तुलसी अकादमी ५० महाबली नगर, कोलार मार्ग, भोपाल, गीतकार संपर्क:शिव संकल्प साहित्य परिषद्, गृह निर्माण कोलोनी होशंगाबाद ]
*
विवेच्य कृति नर्मदांचल के वरिष्ठ साहित्यकार श्री गिरिमोहन गुरु के ६७ नवगीतों का सुवासित प्रतिनिधि गीतगुच्छ है जिसमें से कुछ गीत पूर्व में 'मुझे नर्मदा कहो' शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं। इन गीतों का चयन श्री रामकृष्ण दीक्षित तथा श्री गिरिवर गिरि 'निर्मोही' ने किया है। नवगीत प्रवर्तकों में से एक डॉ. शंभुनाथ सिंह, नवगीत पुरोधा डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र', पद्म श्री गोपालदास नीरज, डॉ. अनंतराम मिश्र अनंत, डॉ. गणेशदत्त सारस्वत, डॉ. उर्मिलेश, डॉ. परमलाल गुप्त, डॉ. रामचंद्र मालवीय, कुमार रवीन्द्र, स्व. कृष्णचन्द्र बेरी आदि ने प्रशंसात्मक टिप्पणियों में नर्मदांचल के वरिष्ठ नवगीतकार श्री गिरिमोहन गुरु के नवगीतों पर अपना अभिमत व्यक्त किया है। डॉ. दया कृष्ण विजयवर्गीय के अनुसार इन नवगीतों में 'शब्द की प्रच्छन्न ऊर्जा को कल्पना के विस्तृत नीलाकाश में उड़ाने की जो छान्दसिक अबाध गति है, वह गुरूजी को नवगीत का सशक्त हस्ताक्षर बना देती है।
कृति के आरम्भ में डॉ. अनंत ने आमुख में डॉ. शम्भुनाथ सिंह के साथ नवगीत पर परिचर्चा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि "डॉ. शंभुनाथ सिंह ने नवगीत के वर्ण्य विषयों में धर्म-आध्यात्म-दर्शन, नीति-सुभाषित, प्रेम-श्रृंगार तथा प्रकृति-चित्रण की वर्जना की है। उन्होंने केवल युगबोधजनित भावभूमि तथा यत्र-तत्र एक सी टीस जगानेवाले पारंपरिक या सांस्कृतिक बिंब-विधान को ही नवगीत के लिए सर्वोपयुक्त बतलाया था।" महाप्राण निराला द्वारा 'नव गति, नव ले, ताल-छंद नव' के आव्हान के अगले कदम के रूप में यह तर्क सम्मत भी था किन्तु किसी विधा को आरंभ से ही प्रतिबंधों में जकड़ने से उसका विकास और प्रगति प्रभावित होना भी स्वाभाविक है। एक विचार विशेष के प्रति प्रतिबद्धता ने प्रगतिशील कविता को जन सामान्य से काटकर विचार धारा समर्थक बुद्धिजीवियों तक सीमित कर दिया। नवगीत को इस परिणति से बचाकर, कल से कल तक सृजन सेतु बनाते हुए नव पीढ़ी तक पहुँचाने में जिन रचनाधर्मियों ने साहसपूर्वक निर्धारित की थाती को अनिर्धारित की भूमि पर स्थापित करते हुए अपनी मौलिक राह चुनी उनमें गुरु जी भी एक हैं। विधि का विधान यह कि शम्भुनाथ जी द्वारा वर्जित 'धर्म-आध्यात्म-दर्शन, नीति-सुभाषित, प्रेम-श्रृंगार तथा प्रकृति-चित्रण' गुरु जी के नवगीतों में प्रचुरता से व्याप्त है। डॉ. अनंत ने प्रसन्नता व्यक्त की है कि "गुरु ने नवगीत से प्रभाव अवश्य ग्रहण किए हैं और उसके नवीन शिल्प विधान को भी अपने गीतों में अपनाया है परन्तु उन विशेषताओं को प्राय: नहीं अपनाया जो बहुआयामी मानव-जीवन के विविध कोणीय वर्ण्य विषयों को सीमित करके काव्य को प्रतिबद्धता की श्रंखलाओं में बंधने के लिए बाध्य करती है।"
नवगीत के शिल्प-विधान को आत्मसात करते हुए कथ्य के स्तर पर निज चिंतन प्रणीत विषयों और स्वस्फूर्त भंगिमाओं को माधुर्य और सौन्दर्य सहित अभिव्यंजित कर गुरु जी ने विधा को गौड़ और विधा में लिख रहे हस्ताक्षर को प्रमुख होने की प्रवृत्ति को चुनौती दी। जीवन में विरोधाभासजनित संत्रास की अभिव्यक्ति देखिए-
अश्रु जल में तैरते हैं / स्वप्न के शैवाल
नाववाले नाविकों के / हाथ है जाल
.
हम रहे शीतल भले ही / आग के आगे रहे
वह मिला प्रतिपल कि जिससे / उम्र भर भागे रहे
वैषम्य और विडंबना बयां करने का गुरु जी अपना ही अंदाज़ है-
घूरे पर पत्तलें / पत्तलों में औंधे दौने
एक तरफ हैं श्वान / दूसरी तरफ मनुज छौने
अनुभूति की ताजगी, अभिव्यक्ति की सादगी तथा सुंस्कृत भाषा की बानगी गुरु के नवगीतों की जान है। उनके नवगीत निराशा में आशा, बिखराव में सम्मिलन, अलगाव में संगठन और अनेकता में एकता की प्रतीति कर - करा पाते हैं-
लौटकर फिर आ रही निज थान पर / स्वयं बँधने कामना की गाय
हृदय बछड़े सा खड़ा है द्वार पर / एकटक सा देखता निरुपाय
हौसला भी एक निर्मम ग्वाल बन / दूध दुहने बाँधता है, छोड़ता है
छंद-विधान, बिम्ब, प्रतीक, फैंटेसी, मिथकीय चेतना, प्रकृति चित्रण, मूल्य-क्षरण, वैषम्य विरोध और कुंठा - निषेध आदि को शब्दित करते समय गुरु जी परंपरा की सनातनता का नव मूल्यों से समन्वय करते हैं।
कृषक के कंधे हुए कमजोर / हल से हल नहीं हो पा रही / हर बात
शहर की कृत्रिम सडक बेधड़क / गाँवों तक पहुँच / करने लगी उत्पात
गुरु जी के मौलिक बिम्बों-प्रतीकों की छटा देखे-
इमली के कोचर का गिरगिट दिखता है रंगदार
शाखा पर बैठी गौरैया दिखती है लाचार
.
एक अंधड़ ने किया / दंगा हुए सब वृक्ष नंगे
हो गए सब फूल ज्वर से ग्रस्त / केवल शूल चंगे
.
भैया बदले, भाभी बदले / देवर बदल गए
वक्त के तेवर बदल गए
.
काँपते सपेरों के हाथ साँपों के आगे
झुक रहे पुण्य, स्वयं माथ, पापों के आगे
सामाजिक वैषम्य की अभिव्यक्ति का अभिनव अंदाज़ देखिये-
चाँदी के ही चेहरों का स्वागत होता झुक-झुक
खड़ा भोज ही, बड़ा भोज, कहलाने को उत्सुक
फिर से हम पश्चिमी स्वप्न में स्यात लगे खोने
.
सपने में सोन मछरिया पकड़ी थी मैंने
किन्तु आँख खुलते ही
हाथ से फिसल गयी
.
इधर पीलिया उधर खिल गए
अमलतास के फूल
गुरु के नवगीतों का वैशिष्ट्य नूतन छ्न्दीय भंगिमाएँ भी है। वे शब्द चित्र चित्रित करने में प्रवीण हैं।
बूढ़ा चाँद जर्जरित पीपल
अधनंगा चौपाल
इमली के कोचर का गिरगिट
दिखता है रंगदार
नदी किनारेवाला मछुआ
रह-रह बुनता जाल
भूखे-प्यासे ढोर देखते
चरवाहों की और
भेड़ चरानेवाली, वन में
फायर ढूंढती भोर
मरना यदि मुश्किल है तो
जीना भी है जंजाल
गुरु जी नवगीतों में नवाशा के दीप जलाने में भी संकोच नहीं करते-
एक चिड़िया की चहक सुनकर
गीत पत्तों पर लगे छपने
.
स्वप्न ने अँगड़ाइयाँ लीं, सुग्बुआऎ आस
जिंदगी की बन गयी पहचान नूतन प्यास
छंदों का सधा होना उनके कोमल-कान्त पदावली सज्जित नवगीतों की माधुरी को गुलाबजली सुवास भी देता है। प्रेम, प्रकृति और संस्कृति की त्रिवेणी इन गीतों में सर्वत्र प्रवाहित है।
जग को अगर नचाना हो तो / पहले खुद नाचो, मौसम के अधरों पर / विश्वासी भाषा, प्यासों को देख, तृप्ति / लौटती सखेद, ले आया पावस के पत्र / मेघ डाकिया, अख़बारों से मिली सुचना / फिर बसंत आया जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक को गुनगुनाने के लिए प्रेरित करती हैं।
नवगीतों को उसके उद्भव काल में निर्धारित प्रतिबंधों के खूँटे से बांधकर रखने के पक्षधरों को नवगीत की यह भावमुद्रा स्वीकारने में असहजता प्रतीत हो सकती है, कोई कट्टर हस्ताक्षर नाक-भौं सिकोड़ सकता है पर नवगीत संसद के दरवाजे पर दस्तक देते अनेक नवगीतकार इन नवगीतों का अनुसरणकर खुद को गौरवान्वित अनुभव करेंगे।
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संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४ ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com
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काव्यानुवाद लॉन्गफेलो-सतीश सक्सेना शून्य

*********जीवन संगीत***********
मित्रो !!अंग्रेजी के एक बहुत प्रसिद्ध कवि हो गये हैं...Longfellow..उनकी एक बहुत चर्चित कविता है......Psalm of life....जो मुझे बहुत पसन्द है. इसका मैंनें अनुवाद भी किया है...उसे मूलरूप तथा अनुवाद सहित अपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ..आप इसे स्व. कलाम साहब के संदर्भ में देख सकते हैं....
---1---
Tell me not in mournful numbers,
Life is but an empty dream ! -
For the soul is dead that slumbers.
And things are not what they seem.
मुझे बताओ नहीं अरे! दु:ख भरे गान में ।
जीवन रीता हुआ स्वप्न है इस जहान में।।
मृतक आत्मा! तन्द्रा में जो नित सोती है।
दिखती जैसी वस्तु नहीं वैसी होती है ।।
--2--
Life is real ! life is earnest,
And the grave is not its' goal;
Dust thou art; to dust returnest,
Was not spoken of the soul.
सदा सत्य है जीवन तो जीने को उद्यत।
नहीं लक्ष 'श्मशान' कभी भी हो यह अवगत।।
तू माटी, तुझको माटी में अंत समाना।
नहीं आत्मा को देते यह लोग उल्हाना।।
--3--
Not enjoyment, and not sorrow,
Is our destined end or way ;
But to act, that each tomorrow
Find us farther than today.
सुख दुख हों जीवन के य़ा होवें पीडायें।
ना तोे ये उद्देश्य नहीं ये राह कहायें।।
किन्तु कर्म ऐसे कि सुवह हर कल की हो जब
पाये आगे हमें आज के डेरे से तब।।
---4---
Art is long and time is fleeting,
And our hearts, though stout and brave,
Still, like muffled drums, are beating
Funeral marches to the grave .
दीर्घ कलायें , किन्तु समय है उडता जाता।
जदपि सुदृढ औ' वीर, हृदय तब भी घबराता।।
धडक रहा ज्यों ढंके ढोल हों राग बजाते।
महायात्रा अंतकाल की जो दरसातेे ।।
---5---
In the world's broad field of battle,
In the bivouac of life,
Be not like dumb, drawn cattle !
Be a hero in the strife !
विस्तृत जग की समर भूमि में नीचे नभ के।
है पडाव सैना का युद्धस्थल में जग के।।
बनो मूक पशु नहीं तुम्हैं जो कोई हाँके ।
रण जीवन का जीत बनो तुम नायक बाँके ।।
---6---
Trust no future howe'ver pleasent !
Let the dead past bury it's dead !
Act- act in the living present !
Heart within, and God over head !
हो सुन्दर पर क्या भविष्य की आशा करना ।
बीती ताहि विसार न चित में उसको धरना ।।
कर्म-कर्म नित करो सतत तुम वर्तमान में।
मन साहस से भरा , प्रभू हो सदा ध्यान में।।
----7----
Lives of great men all remind us,
We can make our lives sublime,
And departing, leave behind us
Foot prints on the sands of time.
युग पुरुषों की जीवन गाथा याद दिलाती।
गढ सकते उत्कृष्ट जिन्दगी राह बताती।।
जाते हैं वे छोड छाप पीछे कुछ जिससे ।
होती रेत समय की पग-तल-चिन्हित उससे।।
----8---
Foot prints that, perhaps another,
Sailing ov'er lifes solemn main,
A forlorn and shipwrecked brother,
Seeing shall take heart again.
पग तल के वे चिन्ह कदाचित देखे कोई ।
जीवन के पावन सागर पर तिरता होई।।
टूटी नैया , भटका भाई हो एकाकी
देखे साहस पाय निराशा रहे न बाकी ।।
---9----
Let us then be up and doing ,
With a heart for any fate ,
Still achieving, still persueing ,
Learn to labour and to wait.
अत:, उठें जागें, होजावें सतत कार्यरत।
भरे हृदय में साहस चिन्ता नहीं भाग्यगत ।।
सदा सफलता पाय़ें आगे बढते जायें ।
सीखें श्रम का पाठ सदा ही धीरज ध्यायें ।।
अऩुवाद....
...डॉ.सतीश सक्सेना 'शून्य'
टीप...
Bivouac ...सेना के पड़ाव का. खुलामैदान
Muffled drums ...पश्चिमी देशों में शव यात्रा के साथ बजने बाले बाजों में ढोलों को कपडे से ढंक दिया जाता है
जिससे आवाज धीमीं तथा शोकपूर्ण हो जाती है......

कायस्थ चित्रगुप्त


चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति
*।।तूलसी वृक्ष ना जानिए,*
*गाय ना जानिए ढौर।।*
*।।कायस्थ मनुज ना जानिए,*
*ये तीनों नन्द किशोर।।*
*अर्थात:* तूलसी को कभी वृक्ष नहीं
समझना चाहिए, और गाय को कभी
पशु ना समझे, तथा कायस्थ को
कभी मनुष्य ना समझे, क्योंकि ये तीनो
तो साक्षात भगवान का रूप है। 
👍👍👍👍💐💐👌👌👌👌👌  


समीक्षा: हम जंगल के अमलतास

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, चश्मेकृति चर्चा:
हम जंगल के अमलतास : नवाशा प्रवाही नवगीत संकलन
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४
[कृति विवरण: हम जंगल के अमलतास, नवगीत संग्रह, आचार्य भगवत दुबे, २००८, पृष्ठ १२०, १५० रु., आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेटयुक्त, प्रकाशक कादंबरी जबलपुर, संपर्क: २६७२ विमल स्मृति, समीप पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर ४८२००३, चलभाष ९३००६१३९७५]
*
विश्ववाणी हिंदी के समृद्ध वांग्मय को रसप्लावित करती नवगीतीय भावधारा के समर्थ-सशक्त हस्ताक्षर आचार्य भगवत दुबे के नवगीत उनके व्यक्तित्व की तरह सहज, सरल, खुरदरे, प्राणवंत ततः जिजीविषाजयी हैं. इन नवगीतों का कथ्य सामाजिक विसंगतियों के मरुस्थल में मृग-मरीचिका की तरह आँखों में झूलते - टूटते स्वप्नों को पूरी बेबाकी से उद्घाटित तो करता है किन्तु हताश-निराश होकर आर्तनाद नहीं करता. ये नवगीत विधागत संकीर्ण मान्यताओं की अनदेखी कर, नवाशा का संचार करते हुए, अपने पद-चिन्हों से नव सृअन-पथ का अभिषेक करते हैं. संग्रह के प्रथम नवगीत 'ध्वजा नवगीत की' में आचार्य दुबे नवगीत के उन तत्वों का उल्लेख करते हैं जिन्हें वे नवगीत में आवश्यक मानते हैं:
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, क्लोज़अपनव प्रतीक, नव ताल, छंद नव लाये हैं
जन-जीवन के सारे चित्र बनाये हैं
की सरगम तैयार नये संगीत की
कसे उक्ति वैचित्र्य, चमत्कृत करते हैं
छोटी सी गागर में सागर भरते हैं
जहाँ मछलियाँ विचरण करें प्रतीत की
जो विरूपतायें समाज में दिखती हैं
गीत पंक्तियाँ उसी व्यथा को लिखती हैं
लीक छोड़ दी पारंपरिक अतीत की
अब फहराने लगी ध्वजा नवगीत की
सजग महाकाव्यकार, निपुण दोहाकार, प्रसिद्ध गजलकार, कुशल कहानीकार, विद्वान समीक्षक, सहृदय लोकगीतकार, मौलिक हाइकुकार आदि विविध रूपों में दुबे जी सतत सृजन कर चर्चित-सम्मानित हुए हैं. इन नवगीतों का वैशिष्ट्य आंचलिक जन-जीवन से अनुप्राणित होकर ग्राम्य जीवन के सहजानंद को शहरी जीवन के त्रासद वैभव पर वरीयता देते हुए मानव मूल्यों को शिखर पर स्थापित करना है. प्रो. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' इन नवगीतों के संबंध में ठीक ही लिखते हैं: '...भाषा, छंद, लय, बिम्ब और प्रतीकों के समन्वित-सज्जित प्रयोग की कसौटी पर भी दुबे जी खरे उतरते हैं. उनके गीत थके-हरे और अवसाद-जर्जर मानव-मन को आस्था और विश्वास की लोकांतर यात्रा करने में पूर्णत: सफल हुए हैं. अलंकार लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रचुर प्रयोग ने गीतों में जो ताजगी और खुशबू भर दी है, वह श्लाघनीय है.'
निराला द्वारा 'नव गति, नव लय, ताल-छंद नव' के आव्हान से नवगीत का प्रादुर्भाव मानने और स्व. राजेंद्र प्रसाद सिंह तथा स्व. शम्भुनाथ सिंह द्वारा प्रतिष्ठापित नवगीत को उद्भव काल की मान्यताओं और सीमाओं में कैद रखने का आग्रह करनेवाले नवगीतकार यह विस्मृत कट देते हैं कि काव्य विधा पल-पल परिवर्तित होती सलिला सदृश्य किसी विशिष्ट भाव-भंगिमा में कैद की ही नहीं जा सकती. सतत बदलाव ही काव्य की प्राण शक्ति है. दुबे जी नवगीत में परिवर्तन के पक्षधर हैं: "पिंजरों में जंगल की / मैना मत पालिये / पाँव में हवाओं के / बेड़ी मत डालिए... अब तक हैं यायावर'
वृद्ध मेघ क्वांर के (मुखड़ा १२+११ x २, ३ अन्तरा १२+१२ x २ + १२+ ११), वक्त यह बहुरुपिया (मुखड़ा १४+१२ , १-३ अन्तरा १४+१२ x ३, २ अन्तरा १२+ १४ x २ अ= १४=१२), यातनाओं की सुई (मुखड़ा १९,२०,१९,१९, ३ अन्तरा १९ x ६), हम त्रिशंकु जैसे तारे हैं, नयन लाज के भी झुक जाते - पादाकुलक छंद(मुखड़ा १६x २, ३ अन्तरा १६x ६), स्वार्थी सब शिखरस्थ हुए- महाभागवत जाति (२६ मात्रीय), हवा हुई ज्वर ग्रस्त २५ या २६ मात्रा, मार्गदर्शन मनचलों का-यौगिक जाति (मुखड़ा १४ x ४, ३ अन्तरा २८ x २ ), आचरण आदर्श के बौने हुए- महापौराणिक जाति (मुखड़ा १९ x २, ३ अन्तरा १९ x ४), पसलियाँ बचीं (मुखड़ा १२+८, १०=१०, ३ अन्तरा २०, २१ या २२ मात्रिक ४ पंक्तियाँ), खर्राटे भर रहे पहरुए (मुखड़ा १६ x २+१०, ३ अन्तरा १४ x ३ + १६+ १०),समय क्रूर डाकू ददुआ (मुखड़ा १६+१४ x २, ३ अन्तरा १६ x ४ + १४), दिल्ली तक जाएँगी लपटें (मुखड़ा २६x २, ३ अन्तरा २६x २ + २६), ओछे गणवेश (मुखड़ा २१ x २, ३ अन्तरा २० x २ + १२+१२ या ९), बूढ़ा हुआ बसंत (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा १६ x २ + २६), ब्याज रहे भरते (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा २६ x २ + २६) आदि से स्पष्ट है कि दुबे जी को छंदों पर अधिकार प्राप्त है. वे छंद के मानक रूप के अतिरिक्त कथ्य की माँग पर परिवर्तित रूप का प्रयोग भी करते हैं. वे लय को साधते हैं, यति-स्थान को नहीं. इससे उन्हें शब्द-चयन तथा शब्द-प्रयोग में सुविधा तथा स्वतंत्रता मिल जाती है जिससे भाव की समुचित अभिव्यक्ति संभव हो पाती है. यथार्थवाद और प्रगतिवाद के खोखले नारों पर आधरित तथाकथित प्रगतिवादी कविता की नीरसता के व्यूह को अपने सरस नवगीतों से छिन्न-भिन्न करते हुए दुबे जी अपने नवगीतों को छद्म क्रांतिधर्मिता से बचाकर रचनात्मक अनुभूतियों और सृजनात्मकता की और उन्मुख कर पाते हैं: 'जुल्म का अनुवाद / ये टूटी पसलियाँ हैं / देखिये जिस ओर / आतंकी बिजलियाँ हैं / हो रहे तेजाब जैसे / वक्त के तेव ... युगीन विसंतियों के निराकरण के उपाय भी घातक हैं: 'उर्वरक डाले विषैले / मूक माटी में / उग रहे हथियार पीने / शांत घाटी में'... किन्तु कहीं भी हताशा-निराशा या अवसाद नहीं है. अगले ही पल नवगीत आव्हान करता है: 'रूढ़ि-अंधविश्वासों की ये काराएँ तोड़ें'...'भ्रम के खरपतवार / ज्ञान की खुरपी से गोड़ें'. युगीन विडंबनाओं के साथ समन्वय और नवनिर्माण का स्वर समन्वित कर दुबेजी नवगीत को उद्देश्यपरक बना देते हैं.
राजनैतिक विद्रूपता का जीवंत चित्रण देखें: 'चीरहरण हो जाया करते / शकुनी के पाँसों से / छली गयी है प्रजा हमेशा / सत्ता के झाँसों से / राजनीti में सम्मानित / होती करतूतें काली' प्रकृति का सानिंध्य चेतना और स्फूर्ति देता है. अतः, पर्यावरण की सुरक्षा हमारा दायित्व है:
चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग और पाठकभी ग्रीष्म, पावस, शीतलता
कभी वसंत सुहाना
विपुल खनिज-फल-फूल अन्न
जल-वायु प्रकृति से पाना
पर्यावरण सुरक्षा करके
हों हम मुक्त ऋणों से
नकारात्मता में भी सकरात्मकता देख पाने की दृष्टि स्वागतेय है:
ग्रीष्म ने जब भी जलाये पाँव मेरे
पीर की अनुभूति से परिचय हुआ है...
.....भ्रूण अँकुराये लता की कोख में जब
हार में भी जीत का निश्चय हुआ है.

प्रो. विद्यानंदन राजीव के अनुसार ये 'नवगीत वर्तमान जीवन के यथार्थ से न केवल रू-ब-रू होते हैं वरन सामाजिक विसंगतियों से मुठभेड़ करने की प्रहारक मुद्रा में दिखाई देते हैं.'
सामाजिक मर्यादा को क्षत-विक्षत करती स्थिति का चित्रण देखें: 'आबरू बेशर्म होकर / दे रही न्योते प्रणय के / हैं घिनौने चित्र ये / अंग्रेजियत से संविलय के / कर रही है यौन शिक्षा / मार्गदर्शन मनचलों का'
मौसमी परिवर्तनों पर दुबे जी के नवगीतों की मुद्रा अपनी मिसाल आप है: 'सूरज मार रहा किरणों के / कस-कस कर कोड़े / हवा हुई ज्वर ग्रस्त / देह पीली वृक्षों की / उलझी प्रश्नावली / नदी तट के यक्षों की / किन्तु युधिष्ठिर कृषक / धैर्य की वल्गा ना छोड़े.''
नवगीतकारों के सम्मुख नव छंद की समस्या प्राय: मुँह बाये रहती है. विवेच्य संग्रह के नवगीत पिन्गलीय विधानों का पालन करते हुए भी कथ्य की आवश्यकतानुसार गति-यति में परिवर्तन कर नवता की रक्षा कर पाते हैं.
'ध्वजा नवगीत की' शीर्षक नवगीत में २२-२२-२१ मात्रीय पंक्तियों के ६ अंतरे हैं. पहला समूह मुखड़े का कार्य कर रहा है, शेष समूह अंतरे के रूप में हैं. तृतीय पंक्ति में आनुप्रसिक तुकांतता का पालन किया गया है.
'हम जंगल के अमलतास' शीर्षक नवगीत पर कृति का नामकरण किया गया है. यह नवगीत महाभागवत जाति के गीतिका छंद में १४+१२ = २६ मात्रीय पंक्तियों में रचा गया है तथा पंक्त्यांत में लघु-गुरु का भी पालन है. मुखड़े में २ तथा अंतरों में ३-३ पंक्तियाँ हैं.
'जहाँ लोकरस रहते शहदीले' शीर्षक रचना महाभागवत जातीय छंद में है. मुखड़े तथा २ अंतरांत में गुरु-गुरु का पालन है, जबकि ३ रे अंतरे में एक गुरु है. यति में विविधता है: १६-१०, ११-१५, १४-१२.
'हार न मानी अच्छाई ने' शीर्षक गीत में प्रत्येक पंक्ति १६ मात्रीय है. मुखड़ा १६+१६=३२ मात्रिक है. अंतरे में ३२ मात्रिक २ (१६x४) समतुकांती पंक्तियाँ है. सवैया के समान मात्राएँ होने पर भी पंक्त्यांत में भगण न होने से यह सवैया गीत नहीं है.
'ममता का छप्पर' नवगीत महाभागवत जाति का है किन्तु यति में विविधता १६+१०, ११+१५, १५+११ आदि के कारण यह मिश्रित संकर छंद में है.
'बेड़ियाँ न डालिये' के अंतरे में १२+११=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ, पहले-तीसरे अंतरे में १२+१२=२४ मात्रिक २-२ पंक्तियाँ तथा दूसरे अंतरे में १०+१३=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ है. तीनों अंतरों के अंत में मुखड़े के सामान १२+१२ मात्रिक पंक्ति है. गीत में मात्रिक तथा यति की विविधता के बावजूद प्रवाह भंग नहीं है.
'नंगपन ऊँचे महल का शील है' शीर्षक गीत महापौराणिक जातीय छंद में है. अधिकांश पंक्तियों में ग्रंथि छंद के पिन्गलीय विधान (पंक्त्यांत लघु-गुरु) का पालन है किन्तु कहीं-कहीं अंत के गुरु को २ लघु में बदल लिया गया है तथापि लय भंग न हो इसका ध्यान रखा गया है.
इन नवगीतों में खड़ी हिंदी, देशज बुन्देली, यदा-कदा उर्दू व् अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग, मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है जो लालित्य में वृद्धि करता है. दुबे जी कथ्यानुसार प्रतीकों, बिम्बों, उपमाओं तथा रूपकों का प्रयोग करते हैं. उनका मत है: 'इस नयी विधा ने काव्य पर कुटिलतापूर्वक लादे गए अतिबौद्धिक अछ्न्दिल बोझ को हल्का अवश्य किया है.' हम जंगल के अमलतास' एक महत्वपूर्ण नवगीत संग्रह है जो छान्दस वैविध्य और लालित्यपूर्ण अभिव्यक्ति से परिपूर्ण है.
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समीक्षा नवगीत २०१३

चित्र में ये शामिल हो सकता है: पाठकृति चर्चा :
नवगीत २०१३: रचनाधर्मिता का दस्तावेज
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[कृति विवरण: नवगीत २०१३ (प्रतिनिधि नवगीत संकलन), संपादक डॉ. जगदीश व्योम, पूर्णिमा बर्मन, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, पृष्ठ १२ + ११२, मूल्य २४५ /, प्रकाशक एस. कुमार एंड कं. ३६१३ श्याम नगर, दरियागंज, दिल्ली २ ]
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विश्व वाणी हिंदी के सरस साहित्य कोष की अनुपम निधि नवगीत के विकास हेतु संकल्पित-समर्पित अंतर्जालीय मंच अभिव्यक्ति विश्वं तथा जाल पत्रिका अनुभूति के अंतर्गत संचालित ‘नवगीत की पाठशाला’ ने नवगीतकारों को अभिव्यक्ति और मार्गदर्शन का अनूठा अवसर दिया है. इस मंच से जुड़े ८५ प्रतिनिधि नवगीतकारों के एक-एक प्रतिनिधि नवगीत का चयन नवगीत आंदोलन हेतु समर्पित डॉ. जगदीश व्योम तथा तथा पूर्णिमा बर्मन ने किया है.
इन नवगीतकारों में वर्णमाला क्रमानुसार सर्व श्री अजय गुप्त, अजय पाठक, अमित, अर्बुदा ओहरी, अवनीश सिंह चौहान, अशोक अंजुम, अशोक गीते, अश्वघोष, अश्विनी कुमार आलोक, ओम निश्चल, ओमप्रकाश तिवारी, ओमप्रकाश सिंह, कमला निखुर्पा, कमलेश कुमार दीवान, कल्पना रामानी, कुमार रवीन्द्र, कृष्ण शलभ, कृष्णानंद कृष्ण, कैलाश पचौरी, क्षेत्रपाल शर्मा, गिरिमोहन गुरु, गिरीशचंद्र श्रीवास्तव, गीता पंडित, गौतम राजरिशी, चंद्रेश गुप्त, जयकृष्ण तुषार, जगदीश व्योम, जीवन शुक्ल, त्रिमोहन तरल, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, धर्मेन्द्र कुमार सिंह, नचिकेता, नवीन चतुर्वेदी, नियति वर्मा, निर्मल सिद्धू, निर्मला जोशी, नूतन व्यास, पूर्णिमा बर्मन, प्रभुदयाल श्रीवास्तव, प्रवीण पंडित, ब्रजनाथ श्रीवास्तव, भारतेंदु मिश्र, भावना सक्सेना, मनोज कुमार, विजेंद्र एस. विज, महेंद्र भटनागर, महेश सोनी, मानोशी, मीना अग्रवाल, यतीन्द्रनाथ राही, यश मालवीय, रचना श्रीवास्तव, रजनी भार्गव, रविशंकर मिश्र, राजेंद्र गौतम, राजेंद्र वर्मा, राणा प्रताप सिंह, राधेश्याम बंधु, रामकृष्ण द्विवेदी ‘मधुकर’, राममूर्ति सिंह अधीर, संगीता मनराल, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, रावेन्द्र कुमार रवि, रूपचंद शास्त्री ‘मयंक’, विद्यानंदन राजीव, विमल कुमार हेडा, वीनस केसरी, शंभुशरण मंडल, शशि पाधा, शारदा मोंगा, शास्त्री नित्य गोपाल कटारे, शिवाकांत मिश्र ‘विद्रोही’, शेषधर तिवारी, श्यामबिहारी सक्सेना, श्याम सखा श्याम, श्यामनारायण मिश्र, श्रीकांत मिश्र ‘कांत’, संगीता स्वरूप, संजीव गौतम, संजीव वर्मा ‘सलिल’, सुभाष राय, सुरेश पंडा, हरिशंकर सक्सेना, हरिहर झा तथा हरीश निगम सम्मिलित हैं.
उक्त सूची से स्पष्ट है कि वरिष्ठ तथा कनिष्ठ, अधिक चर्चित तथा कम चर्चित, नवगीतकारों का यह संकलन ३ पीढ़ियों के चिंतन, अभिव्यक्ति, अवदान तथा गत ३ दशकों में नवगीत के कलेवर, भाषिक सामर्थ्य, बिम्ब-प्रतीकों में बदलाव, अलंकार चयन और सर्वाधिक महत्वपूर्ण नवगीत के कथ्य में परिवर्तन के अध्ययन के लिये पर्याप्त सामग्री मुहैया कराता है. संग्रह का कागज, मुद्रण, बँधाई, आवरण आदि उत्तम है. नवगीतों में रूचि रखनेवाले साहित्यप्रेमी इसे पढ़कर आनंदित होंगे. नवगीत के कलेवर में सतत हो रहे शैल्पिक तथा भाषिक परिवर्तन का अध्ययन करना हो तो यह संकलन बहुत उपयोगी होगा. नवगीतकारों की पृष्ठभूमि की विविधता नगरीय / ग्रामीण अंचल, उच्च / मध्य / निम्न आर्थिक स्थिति, शिक्षिक विविधता, कार्यक्षेत्रीय विभिन्नता आदि नवगीत के विषय चयन, प्रयुक्त शब्दावली तथा कहाँ पर प्रभाव छोड़ती है. उल्लेखनीय है कि नवगीतकारों में सैनिक-अर्ध सैनिक बल, अधिवक्ता, चिकित्सक, बड़े व्यापारी, राजनेता आदि वर्गों से प्रतिनिधित्व लगभग शून्य है जबकि न्याय, अभियांत्रिकी, उच्च शिक्षा, चिकित्सा आदि वर्गों से नवगीतकार हैं.
शोध छात्रों के लिये इस संकलन में नवगीत की विकास यात्रा तथा परिवर्तन की झलक उपलब्ध है. नवगीतों का चयन सजगतापूर्वक किया गया है. किसी एक नवगीतकार के सकल सृजन अथवा उसके नवगीत संसार के भाव पक्ष या कला पक्ष को किसी एक नवगीत के अनुसार नहीं आँका जा सकता किन्तु विषय की परिचर्या (ट्रीटमेंट ऑफ़ सब्जेक्ट) की दृष्टि से अध्ययन किया जा सकता है. नवगीत चयन का आधार नवगीत की पाठशाला में प्रस्तुति होने के कारण सहभागियों के श्रेष्ठ नवगीत नहीं आ सके हैं. बेहतर होता यदि सहभागियों को एक प्रतिनिधि चुनने का अवसर दिया जाता और उसे पाठशाला में प्रस्तुत कर सम्मिलित किया जा सकता. हर नवगीत के साथ उसकी विशेषता या खूबी का संकेत नयी कलमों के लिये उपयोगी होता.
संग्रह में नवगीतकारों के चित्र, जन्म तिथि, डाक-पते, चलभाष क्रमांक, ई मेल तथा नवगीत संग्रहों के नाम दिये जा सकते तो इसकी उपयोगिता में वृद्धि होती. आदि में नवगीत के उद्भव से अब तक विकास, नवगीत के तत्व पर आलेख नई कलमों के मार्गदर्शनार्थ उपयोगी होते. परिशिष्ट में नवगीत पत्रिकाओं तथा अन्य संकलनों की सूची इसे सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में अधिक उपयोगी बनाती तथापि नवगीत पर केन्द्रित प्रथम प्रयास के नाते ‘नवगीत २०१३’ के संपादक द्वय का श्रम साधुवाद का पात्र है. नवगीत वर्तमान स्वरुप में भी यह संकलन हर नवगीत प्रेमी के संकलन में होनी चाहिए. नवगीत की पाठशाला का यह सारस्वत अनुष्ठान स्वागतेय तथा अपने उद्देश्य प्राप्ति में पूर्णरूपेण सफल है. नवगीत एक परिसंवाद के पश्चात अभिव्यक्ति विश्वं की यह बहु उपयोगी प्रस्तुति आगामी प्रकाशन के प्रति न केवल उत्सुकता जगाती है अपितु प्रतीक्षा हेतु प्रेरित भी करती है.
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
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समीक्षा: हिरन सुगंधों के नवगीत भगवत दुबे

चित्र में ये शामिल हो सकता है: घास और बाहर
पुस्तक सलिला:
हिरण सुगंधों के- आचार्य भगवत दुबे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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पुस्तक परिचय: हिरण सुगंधों के, गीत-नवगीत संग्रह रचनाकार- आचार्य भागवत दुबे, प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन ई २८ लाजपत नगर साहिबाबाद २०१००५, प्रथम संस्करण- २००४, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ- १२१।
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विविध विधाओं में गत ५ दशकों से सृजनरत वरिष्ठ रचनाधर्मी आचार्य भगवत दुबे रचित ‘हिरण सुगंधों के’ के नवगीत किताबी कपोल कल्पना मात्र न होकर डगर-डगर में जगर-मगर करते अपनों के सपनों, आशाओं-अपेक्षाओं, संघर्षों-पीडाओं के जीवंत दस्तावेज हैं। ये नवगीत सामान्य ग्राम्य जनों की मूल मनोवृत्ति का दर्पण मात्र नहीं हैं अपितु उसके श्रम-सीकर में अवगाहन कर, उसकी संस्कृति में रचे-बसे भावों के मूर्त रूप हैं। इन नवगीतों में ख्यात समीक्षक नामवर सिंह जी की मान्यता के विपरीत ‘निजी आत्माभिव्यक्ति मात्र’ नहीं है अपितु उससे वृहत्तर आयाम में सार्वजनिक और सार्वजनीन यथार्थपरक सामाजिक चेतना, सामूहिक संवाद तथा सर्वहित संपादन का भाव अन्तर्निहित है। इनके बारे में दुबे जी ठीक ही कहते हैं-
‘बिम्ब नये सन्दर्भ पुराने
मिथक साम्यगत लेकर
परंपरा से मुक्त
छान्दसिक इनका काव्य कलेवर
सघन सूक्ष्म अभिव्यक्ति दृष्टि
सारे परिदृश्य प्रतीत के
पुनः आंचलिक संबंधों से
हम जुड़ रहे अतीत के’
अतीत से जुड़कर वर्तमान में भविष्य को जोड़ते ये नवगीत रागात्मक, लयात्मक, संगीतात्मक, तथा चिन्तनात्मक भावभूमि से संपन्न हैं। डॉ. श्याम निर्मम के अनुसार: ‘इन नवगीतों में आज के मनुष्य की वेदना, उसका संघर्ष और जीवन की जद्दोजहद को भली-भाँति देखा जा सकता है। भाषा का नया मुहावरा, शिल्प की सहजता और नयी बुनावट, छंद का मनोहारी संसार इन गीतों में समाया है। आम आदमी का दुःख-दर्द, घर-परिवार की समस्याएँ, समकालीन विसंगतियाँ, थके-हारे मन का नैराश्य और संवेदनहीनता को दर्शाते ये नवगीत नवीन भंगिमाओं के साथ लोकधर्मी, बिम्बधर्मी और संवादधर्मी बन पड़े हैं।’
श्रम ढहाकर ही रहेगा / अब कुहासे का किला
झोपडी की अस्मिता को / छू न पाएँगे महल अब
पीठ पर श्रम की / न चाबुक के निशां / बन पाएँगे अब
बाँध को / स्वीकारना होगा / नहर का फैसला
*
चुटकुले, चालू चले / औ' गीत हम बुनते रहे
सींचते आँसू रहे / लतिकाओं, झाड़ों के लिए
तालियाँ पिटती रहीं / हिंसक दहाड़ों के लिए
मसखरी, अतिरंजना पर / शीश हम धुनते रहे
*
उच्छृंखल हो रही हवाएँ / मौसम भी बदचलन हुआ है
इठलाती फिरती हैं नभ पर / सँवर षोडशी नील घटाएँ
फहराती ज्यों खुली साड़ियाँ / सुर-धनु की रंगीं ध्वजाएँ
पावस ऋतु में पूर्ण सुसज्जित / रंगमंच सा गगन हुआ है
*
महाकाव्य, गीत, दोहा, कहानी, लघुकथा, गज़ल, आदि विविध विधाओं की अनेक कृतियों का सृजन कर राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके आचार्य दुबे अद्भुत बिम्बों, सशक्त लोक-प्रतीकों, जीवंत रूपकों, अछूती उपमाओं, सामान्य ग्राम्यजनों की आशाओं-अपेक्षाओं की रागात्मक अभिव्यक्ति पारंपरिक पृष्ठभूमि की आधारशिला पर इस तरह कर सके हैं कि मुहावरों का सटीक प्रयोग, लोकोक्तियों की अर्थवत्ता, अलंकारों का आकर्षण इन नवगीतों में उपस्थित सार्थकता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, बेधकता तथा रंजकता के पंचतत्वों के साथ समन्वित होकर इन्हें अर्थवत्ता दे सका है।
दबे पाँव सूर्य गया / पश्चिम की ओर
प्राची से प्रगट हुआ / चाँद नवकिशोर
*
भूखा पेट कनस्तर खाली / चूल्हा ठंडा रहा
अंगीठी सोयी मन मारे
*
सूखे कवित्त-ताल / मुरझाए पद्माकर
ग्रहण-ग्रस्त चंद
गीतों से निष्कासित / वासंती छंद
*
आम आदमी का दैनंदिन दुःख-सुख इन नवगीतों का उत्स और लक्ष्य है। दुबे जी के गृहनगर जबलपुर के समीप पतित पावनी नर्मदा पर बने बरगी बाँध के निर्माण से डूब में आयी जमीन गँवा चुके किसानों की व्यथा-कथा कहता नवगीत पारिस्थितिक विषमता व पीड़ा को शब्द देता है:
विस्थापन कर दिया बाँध ने
ढूँढें ठौर-ठिकाना
बिके ढोर-डंगर, घर-द्वारे
अब सब कुछ अनजाना
बाड़ी, खेत, बगीचा डूबे
काटा आम मिठौआ
उड़ने लगे उसी जंगल में
अब काले कौआ
दुबे जी ने भाष की विरासत को ग्रहण मात्र नहीं करते नयी पीढ़ी के लिए उसमें कुछ जोड़ते भे एहेन। अपनी अभिव्यक्ति के लिये उनहोंने आवश्यकतानुसार नव शब्द भी गढ़े हैं-
सीमा कभी न लाँघी हमने
मानवीय मरजादों की
भेंट चाहती है रणचंडी
शायद अब दनुजादों की
‘साहबजादा’ शब्द की तर्ज़ पर गढ़ा गया शब्द ‘दनुजादा’ अपना अर्थ आप ही बता देता है। ऐसे नव प्रयोगों से भाषा की अभिव्यक्ति ही नहीं शब्दकोष भी समृद्ध होता है।
दुबे जी नवगीतों में कथ्य के अनुरूप शब्द-चयन करते हैं- खुरपी से निन्वारे पौधे, मोची नाई कुम्हार बरेदी / बिछड़े बढ़ई बरौआ, बखरी के बिजार आवारा / जुते रहे भूखे हरवाहे आदि में देशजता, कविता की सरिता में / रेतीला पड़ा / शब्दोपल मार रहा, धरती ने पहिने / परिधान फिर ललाम, आयेगी क्या वन्य पथ से गीत गाती निर्झरा, ओस नहाये हैं दूर्वादल / नीहारों के मोती चुगते / किरण मराल दिवाकर आधी में परिनिष्ठित-संस्कारित शब्दावली, हलाकान कस्तूरी मृग, शीतल तासीर हमारी है, आदमखोर बकासुर की, हर मजहबी विवादों की यदि हवा ज़हरी हुई, किन्तु रिश्तों में सुरंगें हो गयीं में उर्दू लफ्जों के सटीक प्रयोग के साथ बोतलें बिकने लगीं, बैट्समैन मंत्री की हालत, जब तक फील्डर जागें, सौंपते दायित्व स्वीपर-नर्स को, आवभगत हो इंटरव्यू में, जीत रिजर्वेशन के बूते आदि में आवश्यकतानुसार अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग जिस सहजता से हुआ है, वह दुबेजी के सृजन सामर्थ्य का प्रमाण है।
गीतों के छांदस विधान की नींव पर आक्रामक युगबोधी तेवरपरक कथ्य की दीवारें, जन-आकांक्षाओं की दरार तथा जन-पीडाओं के वातायन के सहारे दुबे जी इन नवगीतों के भवन को निर्मित-अलंकृत करते हैं। इन नवगीतों में असंतोष की सुगबुगाहट तो है किन्तु विद्रोह की मशाल या हताशा का कोहरा कहीं नहीं है। प्रगतिशीलता की छद्म क्रन्तिपरक भ्रान्ति से सर्वथा मुक्त होते हुए भी ये नवगीत आम आदमी के लिये हितकरी परिवर्तन की चाह ही नहीं माँग भी पूरी दमदारी से करते हैं। शहरी विकास से क्षरित होती ग्राम्य संस्कृति की अभ्यर्थना करते ये नवगीत अपनी परिभाषा आप रचते हैं। महानगरों के वातानुकूलित कक्षों में प्रतिष्ठित तथाकथित पुरोधाओं द्वारा घोषित मानकों के विपरीत ये नवगीत छंद व् अलंकारों को नवगीत के विकास में बाधक नहीं साधक मानते हुए पौराणिक मिथकों के इंगित मात्र से कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अभिव्यक्त कर पाठक के चिंतन-मनन की आधारभूमि बनाते हैं। प्रख्यात नवगीतकार, समीक्षक श्री देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के अनुसार- ‘अनेक गीतकारों ने अपनी रचनाओं में लोक जीवन और लोक संस्कृति उतारने की कोशिश पहले भी की है तथापि मेरी जानकारी में जितनी प्रचुर और प्रभूत मात्रा में भगवत दुबे के गीत मिलते हैं उतने प्रमाणिक गीत अन्य दर्जनों गीतकारों ने मिलकर भी नहीं लिखे होंगे।’
"हिरण सुगंधों के" के नवगीत पर्यावरणीय प्रदूषण और सांस्कृतिक प्रदूषण से दुर्गंधित वातावरण को नवजीवन देकर सुरभित सामाजिक मर्यादाओं के सृजन की प्रेरणा देने में समर्थ हैं। नयी पीढ़ी इन नवगीतों का रसास्वादन कर ग्राम-नगर के मध्य सांस्कृतिक राजदूत बनने की चेतना पाकर अतीत की विरासत को भविष्य की थाती बनाने में समर्थ हो सकती है।
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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ०७९९९५५९६१८, ९४२५१ ८३२४४, salilsanjiv@gmail.com,.
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हाइकू, माहिया, क्षणिका

विधा विविधा:
हाइकु:
(त्रिपदिक वाचिक जापानी छंद ५-७-५ ध्वनि) 
.
गुलाब खिले 
तुम्हारे गालों पर
निगाह मिले.
*
माहिया:
(त्रिपदिक मात्रिक पंजाबी छंद, १३-१०-१३ मात्रा)
.
मत माँगने मत आना
जुमला वादों को
कह चाहते बिसराना.
*
क्षणिका:
( नियम मुक्त)
.
मन-पंछी
उड़ा नीलाभ नभ में
सिंदूरी प्राची से आँख मिलाने,
झटपट भागा
सूरज ने आँख तरेरी
लगा धरती को जलाने.
***
चित्र अलंकार: समकोण त्रिभुज
(वर्ण पिरामिड: ७ पंक्ति, वर्ण क्रमश: १ से ७)
मैं
भीरु
कायर
डरपोंक,
हूँ भयभीत
वर्ण पिरामिड
लिखना नहीं आता.
*
हो
तुम
साहसी
पराक्रमी
बहादुर भी
मुझ असाहसी
को झेलते रहे हो.
*
२५.३.२०१८

भोजपुरी दोहे

भोजपुरी दोहे:
नेह-छोह रखाब सदा
संजीव 'सलिल'
*
नेह-छोह राखब सदा, आपन मन के जोश.
सत्ता का बल पाइ त, 'सलिल; न छाँड़ब होश..
*
कइसे बिसरब नियति के, मन में लगल कचोट.
खरे-खरे पीछे रहल, आगे आइल खोट..
*
जीए के सहरा गइल, आरच्छन के हाथ.
अनदेखी काबलियत कs, लख-हरि पीटल माथ..
*
आस बन गइल सांस के, हाथ न पड़ल नकेल.
खाली बतिय जरत बा, बाकी बचल न तेल..
*
दामन दोस्तन से बचा, दुसमन से मत भाग.
नहीं पराया आपना, मुला लगावल आग..
*
प्रेम बाग़ लहलहा के, क्षेम सबहिं के माँग.
सुरज सबहिं बर धूप दे, मुर्गा सब के बाँग..
*
शीशा के जेकर मकां, ऊहै पाथर फेंक.
अपने घर खुद बार के, हाथ काय बर सेंक?.
*
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com

हास्य दोहे

हास्य दोहे :
उमर क़ैद
*
नोटिस पाकर कचहरी पहुँचे चुप दम साध.
जज बोलीं: 'दिल चुराया, है चोरी अपराध..'
हाथ जोड़ उत्तर दिया, 'क्षमा करें सरकार!.
दिल देकर ही दिल लिया, किया महज व्यापार..'
'बेजा कब्जा कर बसे, दिल में छीना चैन.
रात स्वप्न में आ किया, बरबस ही बेचैन..
लाख़ करो इनकार तुम, हम मानें इकरार.
करो जुर्म स्वीकार- अब, बंद करो तकरार..'
'देख अदा लत लग गयी, किया न कोई गुनाह.
बैठ अदालत में भरें, हम दिल थामे आह..'
'नहीं जमानत मिलेगी, सात पड़ेंगे फंद.
उम्र क़ैद की अमानत, मिली- बोलती बंद..
***

कुण्डलिया

कुण्डलिया
देह दुर्ग में विराजित, दुर्ग-ईश्वरी आत्म 
तुम बिन कैसे अवतरित, हो भू पर परमात्म?
हो भू पर परमात्म, दुर्ग है तन का बन्धन 
मन का बन्धन टूटे तो, मन करता क्रंदन
जाति वंश परिवार, हैं सुदृढ़ दुर्ग सदेह
रिश्ते-नातों अदिख, हैं दुर्ग घेरते देह

*
सरिता शर्माती नहीं, हरे जगत की प्यास 
बिन सरिता कैसे मिटे, असह्य तृषा का त्रास 
असह्य तृषा का त्रास, हरे सरिता बिन बोले 
वंदन-निंदा कुछ करिये, चुप रहे न तोले 
'सलिल' साक्षी है, युग-प्राण बचाती भरिता
हरे जगत की प्यास नहीं शर्माती सरिता
***

२६.३.२०१७ 

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नवगीत: कब होंगे आज़ाद?

नवगीत:
कब होंगे आज़ाद?
संजीव 'सलिल'
*
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?
गए विदेशी पर देशी
अंग्रेज कर रहे शासन
भाषण देतीं सरकारें पर दे
न सकीं हैं राशन
मंत्री से संतरी तक कुटिल
कुतंत्री बनकर गिद्ध-
नोच-खा रहे
भारत माँ को
ले चटखारे स्वाद
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?
नेता-अफसर दुर्योधन हैं,
जज-वकील धृतराष्ट्र
धमकी देता सकल राष्ट्र
को खुले आम महाराष्ट्र
आँख दिखाते सभी
पड़ोसी, देख हमारी फूट-
अपने ही हाथों
अपना घर
करते हम बर्बाद
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होगे आजाद?
खाप और फतवे हैं अपने
मेल-जोल में रोड़ा
भष्टाचारी चौराहे पर खाए
न जब तक कोड़ा
तब तक वीर शहीदों के
हम बन न सकेंगे वारिस-
श्रम की पूजा हो
समाज में
ध्वस्त न हो मर्याद
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?
पनघट फिर आबाद हो
सकें, चौपालें जीवंत
अमराई में कोयल कूके,
काग न हो श्रीमंत
बौरा-गौरा साथ कर सकें
नवभारत निर्माण-
जन न्यायालय पहुँच
गाँव में
विनत सुनें फ़रियाद-
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?
रीति-नीति, आचार-विचारों
भाषा का हो ज्ञान
समझ बढ़े तो सीखें
रुचिकर धर्म प्रीति
विज्ञान
सुर न असुर, हम आदम
यदि बन पायेंगे इंसान-
स्वर्ग तभी तो
हो पायेगा
धरती पर आबाद
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?
२६.३.२०१७ 

समीक्षा: ज़ख्म लघुकथा संग्रह

पुस्तक सलिला-
ज़ख्म - स्त्री विमर्श की लघुकथाएँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- ज़ख्म, लघुकथा संग्रह, विद्या लाल, वर्ष २०१६, पृष्ठ ८८, मूल्य ७०/-, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, bodhiprakashan@gmail.com, रचनाकार संपर्क द्वारा श्री मिथलेश कुमार, अशोक नगर मार्ग १ ऍफ़, अशोक नगर, पटना २०, चलभाष ०९१६२६१९६३६]
*
वैदिक काल से भारतीय संस्कृति सनातनता की पोषक रही है। साहित्य सनातन मूल्यों का सृजक और रक्षक की भूमिका में सत्य-शिव-सुन्दर को लक्षित कर रचा जाता रहा। विधा का 'साहित्य' नामकरण ही 'हित सहित' का पर्याय है. हित किसी एक का नहीं, समष्टि का। 'सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रम्ह' सत्य और ज्ञान ब्रम्ह की तरह अनन्त हैं। स्वाभाविक है कि उनके विस्तार को देखने के अनेक कोण हों। दृष्टि जिस कोण पर होगी उससे होनेवाली अनुभूति को ही सत्य मान लेगी, साथ ही भिन्न कोण से हो रही अनुभूति को असत्य कहने का भ्रम पाल लेगी। इससे बचने के लिये समग्र को समझने की चेष्टा मनीषियों ने की है। बोध कथाओं, दृष्टांत कथाओं, उपदेश कथाओं, जातक कथाओं, पंचतंत्र, बेताल कथाओं, किस्सा चहार दरवेश, किस्सा हातिम ताई, अलीबाबा आदि में छोटी-बड़ी कहानियों के माध्यम से शुभ-अशुभ, भले-बुरे में अंतर कर सकनेवाले जीवन मूल्यों के विकास, बुरे से लड़ने का मनोबल देने वाली घटनाओं का शब्दांकन, स्वस्थ्य मनोरंजन देने का प्रयास हुआ। साहित्य का लक्ष्य क्रमश: सकल सृष्टि, समस्त जीव, मानव संस्कृति तथा उसकी प्रतिनिधि इकाई के रूप में व्यक्ति का कल्याण रहा।
पराभव काल में भारतीय साहित्य परंपरा पर विदेशी हमलावरों द्वारा कुठाराघात तथा पराधीनता के दौर ने सामाजिक समरसता को नष्टप्राय कर दिया और तन अथवा मन से कमजोर वर्ग शोषण का शिकार हुआ। यवनों द्वारा बड़ी संख्या में स्त्री-हरण के कारण नारियों को परदे में रखने, शिक्षा से वंचित रखने की विवशता हो गयी। अंग्रेजों ने अपनी भाषा और संस्कृति थोपने की प्रक्रिया में भारत के श्रेष्ठ को न केवल हीं कहा अपितु शिक्षा के माध्यम से यह विचार आम जन के मानस में रोप दिया। स्वतंत्रता के पश्चात अवसरवादी राजनिति का लक्ष्य सत्ता प्राप्ति रह गया। समाज को विभाजित कर शासन करने की प्रवृत्ति ने सवर्ण-दलित, अगड़े-पिछड़े, बुर्जुआ-सर्वहारा के परस्पर विरोधी आधारों पर राजनीति और साहित्य को धकेल दिया। आधुनिक हिंदी को आरम्भ से अंग्रेजी के वर्चस्व, स्थानीय भाषाओँ-बोलियों के द्वेष तथा अंग्रेजी व् अन्य भाषाओं से ग्रहीत मान्यताओं का बोझ धोना पड़ा। फलत: उसे अपनी पारम्परिक उदात्त मूल्यों की विरासत सहेजने में देरी हुई।
विदेश मान्यताओं ने साहित्य का लक्ष्य सर्वकल्याण के स्थान पर वर्ग-हित निरुपित किया। इस कारण समाज में विघटन व टकराव बढ़ा। साहित्यिक विधाओं ने दूरी काम करने के स्थान पर परस्पर दोषारोपण की पगडण्डी पकड़ ली। साम्यवादी विचारधारा के संगठित रचनाकारों और समीक्षकों ने साहित्य का लक्ष्य अभावों, विसंगतियों, शोषण और विडंबनाओं का छिद्रान्वेषण मात्र बताया। समन्वय, समाधान तथा सहयोग भाव हीं साहित्य समाज के लिये हितकर न हो सका तो आम जन साहित्य से दूर हो गया। दिशाहीन नगरीकरण और औद्योगिकीकरण ने आर्थिक, धार्मिक, भाषिक और लैंगिक आधार पर विभाजन और विघटन को प्रश्रय दिया। इस पृष्ठभूमि में विसंगतियों के निराकरण के स्थान पर उन्हें वीभत्स्ता से चित्रित कर चर्चित होने ही चाह ने साहित्य से 'हित' को विलोपित कर दिया। स्त्री प्रताड़ना का संपूर्ण दोष पुरुष को देने की मनोवृत्ति साहित्य ही नहीं, राजनीती आकर समाज में भी यहाँ तक बढ़ी कि सर्वोच्च न्यायलय को हबी अनेक प्रकरणों में कहना पड़ा कि निर्दोष पुरुष की रक्षा के लिये भी कानून हो।
विवेच्य कृति ज़ख्म का लेखन इसी पृष्ठ भूमि में हुआ है। अधिकांश लघुकथाएँ पुरुष को स्त्री की दुर्दशा का दोषी मानकर रची गयी हैं। लेखन में विसंगतियों, विडंबनाओं, शोषण, अत्याचार को अतिरेकी उभार देने से पीड़ित के प्रति सहानुभूति तो उपज सकती है, पर पीड़ित का मनोबल नहीं बढ़ सकता। 'कथ' धातु से व्युत्पन्न कथा 'वह जो कही जाए' अर्थात जिसमें कही जा सकनेवाली घटना (घटनाक्रम नहीं), उसका प्रभाव (दुष्प्रभाव हो तो उससे हुई पीड़ा अथवा निदान, उपदेश नहीं), आकारगत लघुता (अनावश्यक विस्तार न हो), शीर्षक को केंद्र में रखकर कथा का बुनाव तथा प्रभावपूर्ण समापन के निकष पर लघुकथाओं को परखा जाता है। विद्यालाल जी का प्रथम लघुकथा संग्रह 'जूठन और अन्य लघुकथाएँ' वर्ष २०१३ में आ चुका है। अत: उनसे श्रेष्ठ लघुकथाओं की अपेक्षा होना स्वाभाविक है।
ज़ख्म की ६४ लघुकथाएँ एक ही विषय नारी-विमर्श पर केंद्रित हैं। विषयगत विविधता न होने से एकरसता की प्रतीति स्वाभाविक है। कृति समर्पण में निर्भय स्त्री तथा निस्संकोच पुरुष से संपन्न भावी समाज की कामना व्यक्त की गयी है किन्तु कृति पुरुष को कटघरे में रखकर, पुरुष के दर्द की पूरी तरह अनदेखी करती है। बेमेल विवाह, अवैध संबंध, वर्ण-वैषम्य, जातिगत-लिंगगत, भेदभाव, स्त्री के प्रति स्त्री की संवेदनहीनता, बेटी-बहू में भेद, मिथ्याभिमान, यौन-अपराध, दोहरे जीवन मूल्य, लड़कियों और बहन के प्रति भिन्न दृष्टि, आरक्षण का गलत लाभ, बच्चों से दुष्कर्म, विजातीय विवाह, विधवा को सामान्य स्त्री की तरह जीने के अधिकार, दहेज, पुरुष के दंभ, असंख्य मनोकामनाएँ, धार्मिक पाखण्ड, अन्धविश्वास, स्त्री जागरूकता, समानाधिकार, स्त्री-पुरुष के दैहिक संबंधों पर भिन्न सोच, मध्य पान, भाग्यवाद, कन्या-शिक्षा, पवित्रता की मिथ्या धारणा, पुनर्विवाह, मतदान में गड़बड़ी, महिला स्वावलम्बन, पुत्र जन्म की कामना, पुरुष वैश्या, परित्यक्ता समस्या, स्त्री स्वावलम्बन, सिंदूर-मंगलसूत्र की व्यर्थता आदि विषयों पर संग्रह की लघुकथाएं केंद्रित हैं।
विद्या जी की अधिकांश लघुकथाओं में संवाद शैली का सहारा लिया गया है जबकि समीक्षकों का एक वर्ग लघुकथा में संवाद का निषेध करता है। मेरी अपनी राय में संवाद घटना को स्पष्ट और प्रामाणिक बनने में सहायक हो तो उन्हें उपयोग किया जाना चाहिए। कई लघुकथाओं में संवाद के पश्चात एक पक्ष को निरुत्तरित बताया गया है, इससे दुहराव तथा सहमति का आभाव इंगित होता है। संवाद या तर्क-वितरक के पश्चात सहमति भी हो सकती है। रोजमर्रा के जीवन से जुडी लघुकथाओं के विषय सटीक हैं। भाषिक कसाव और काम शब्दों में अधिक कहने की कल अभी और अभ्यास चाहती है। कहीं-कहीं लघुकथा में कहानी की शैली का स्पर्श है। लघुकथा में चरित्र चित्रण से बचा जाना चाहिए। घटना ही पात्रों के चरित को इंगित करे, लघुकथाकार अलग से न बताये तो अधिक प्रभावी होता है। ज़ख्म की लघुकथाएँ सामान्य पाठक को चिंतन सामग्री देती हैं। नयी पीढ़ी की सोच में लोच को भी यदा-कदा सामने लाया गया है।संग्रह का मुद्रण सुरुचिपूर्ण तथा पाठ्य त्रुटि-रहित है।
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