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बुधवार, 30 जुलाई 2025

ज्योतिष शास्त्र और फूल - डॉ. गीता शर्मा

 अग्रलेख-  

ज्योतिष शास्त्र और फूल

- डॉ. गीता शर्मा 

*

(फुलबगिया के पौधे और फूल पर्यावरण शुद्ध रखने, प्राण वायु और दवा बनकर स्वास्थ्य सुधारने, पूजा में प्रभु को प्रसन्न करने के साथ-साथ ज्योतिष अनुसार प्रयोग किए जाने पर विपत्ति निवारण के काम भी आते हैं। सिद्ध और प्रसिद्ध ज्योतिष शास्त्री डॉ. गीता शर्मा इस अग्रलेख में महत्वपूर्ण जानकारी साझा कर रही हैं।

महाभारत कालीन विराट नगर (जहाँ पांडवों ने अ गया में २४ अक्टूबर १९५२ को श्यामा देवी शर्मा तथा काशी प्रसाद शर्मा पर कृपा कर माँ भवानी ने अपना अंश कुल दीपिका कन्या रत्न के रूप में प्रदान किया जिसका नामकरण गीता किया गया। बचपन से मेधावी गीता ने दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करते हुए विद्या अर्जित की। दूध, हट्टकुल, सिंदूर और महानदी नदियों से सिंचित, शिवधाम (गड़िया पहाड़ी), मलाजकुंडम जलप्रपात तथा दुर्गा-काली के संयुक्त रूप से युक्त शिवानी मंदिर के लिए प्रसिद्ध कांकेर में शास्त्रीय संगीत विशारद प्रयागराज तथा पी-एच.डी. (ज्योतिष) कोलकाता आदि उपाधियाँ प्राप्त कर गीता ने गीता के कर्म योग का अनुसरण करते हुए जनता जनार्दन की सेवा को जीवन का लक्ष्य बनाया।

माँ गायत्री ज्योतिष अनुसंधान केंद्र की स्थापना कर अंध विश्वास उन्मूलन करते हुए ज्योतिष के विज्ञान सम्मत रूप को जन मानस में प्रतिष्ठित करने हेतु गीता ने विवाह बाधा विलंब एवं निवारण, संतान बाधा विलंब, धन्य धरा पुकारती, मेलापन एक वैज्ञानिक प्रक्रिया, जातिका ज्योतिष पारिजात, राम और राम काज (राम जन्म काल गणना) आदि ग्रंथों का प्रणयन कर आपने प्रसिद्धि प्राप्त की। नई प्रतिभाओं को पहचान कर उन्हें विकसित होने में सहायता करने का लोकोपयोगी कार्य आप निरंतर कर रही हैं।

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर द्वारा प्रकाशित विश्व कीर्तिमान धारी कृति 'चंद्र विजय अभियान' में सहभागी रही कवयित्री गीता फुलबगिया में 'ज्योतिष शास्त्र और फूल' शीर्षक अग्रलेख के माध्यम से सर्व उपयोगी जानकारी प्रदान कर रही हैं।              

*

ज्योतिष शास्त्र और फूल

ज्योतिष शास्त्रानुसार-
येषां न प्रतिषेधोऽस्ति गन्धवर्णान्वितानि च।
तानि पुष्पाणि देयानि भानवे लोकभानवे।।

अर्थात्- जो पुष्प वर्जित नहीं हैं और रंग-रूप तथा सुगंध से युक्त है वे पुष्प देवपूजा में चढ़ाने चाहिए। नवग्रह पूजन अनुष्ठान हेतु पुष्पों का चयन करने से पूर्व ज्योतिष की समझ होना आवश्यक है। आधुनिक विज्ञान कितनी भी उन्नति कर ले किन्तु वह ऐसी प्रणाली / सिद्धान्त खोज पाने में असमर्थ है जिसके माध्यम से यह जाना जा सके कि हमारे द्वारा किए गए कर्म का फल हमें कितना, कैसा और कब मिलेगा? सिर्फ ज्योतिष विज्ञान ही है जिसके माध्यम से यह जाना जा सकता है कि मानव के शुभाशुभ कर्म का फल कब उदय होगा? सभी पुष्प हर जगह नहीं मिलते। अत: जो पुष्प उपलब्ध हो उसमें अभीष्ट फूल है ऐसी भावना से उसका प्रयोग करना चाहिए।

अप्रत्क्षाणि शास्त्राणि विवादस्तेषु केवलम्।
प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रम् चन्द्रार्कौ यत्र साक्षिणौ।।

"अन्य शास्त्रों में केवल विवाद होता है, प्रत्यक्ष दिखलाई नहीं देता है किन्तु ज्योतिष विज्ञान प्रत्यक्ष है, क्योंकि सूर्य तथा चंद्र साक्षी हैं।"

श्रेष्ठ शुभफल प्राप्ति हेतु नवग्रह की शान्ति अनुष्ठान में पुष्पों का महत्व-

            नरसिंह पुराणानुसार- दस स्वर्णसुमनों का दान करने से जो फल प्राप्त होता वह एक गूमा पुष्प अर्पण करने से, हजार गुमा फूल से बढ़कर एक खैर पुष्प, हजार खैर पुष्पों से बढ़कर एक शमी पुष्प, हजार शमी पुष्प से बढ़कर एक मौलसिरी पुष्प, हजार मौलसिरी से बढ़कर नन्द्यावर्त, हजार नन्द्यावर्तों से बढ़कर कनेर पुष्प, हजारों कनेर से बढ़कर एक सफेद कनेर, हजारों सफेद कनेर से बढ़कर एक कुश पुष्प, हजारों कुश पुष्प से बढ़कर एक वनवेला पुष्प, हजारों वनवेला से बढ़कर एक चम्पा पुष्प, हजारों चम्पा पुष्पों से बढ़कर एक अशोक पुष्प, हजारों अशोक से बढ़कर एक माधवी पुष्प,हजारों माधवी से बढ़कर एक मालती पुष्प, हजार मालती पुष्प से बढ़कर लाल त्रिसंधी, हजारों त्रिसंधी से बढ़कर एक कुन्द पुष्प, हजारों कुन्द से बढ़कर एक कमल पुष्प, हजारों कमल से बढ़कर एक बेला, हजारों बेला से बढ़कर एक चमेली का पुष्प होता है।

            नवग्रहों संबंधी पुष्प-  पूर्णिमा, अमावस्या, नवरात्रि, दीपावली, अक्षय तृतीया आदि अनुष्ठानों में कार्य सिद्धि हेतु नवग्रहों की पूजा व शान्ति आवश्यक है। इन विशेष दिनों में देवी-देवता जाग्रत रहते हैं। ग्रहों की आराधना, उपासना, साधना में संबंधित  ग्रह के पुष्प अर्पित करने से साधक के कार्यसिध्दि में बाधा नहीं आती, ग्रह अनुकूल हो शुभ हो जाते हैं। 

सूर्य- सूर्य प्रत्यक्ष तेजस्वी ग्रह, नवग्रहों का सम्राट, अदिति पुत्र आदित्य ही दिन का कारण है। संसार के नेत्र सूर्य हैं। समस्त वेदों ने सूर्य का गुणगान देवरूप में किया है। सूर्य से दिन-रात, घटि-पल, मास, पक्ष, अयन तथा संवत आदि की जानकारी होती है। सूर्य उग्र अग्नि तत्वकारक, आत्मकारक, शासकीय सर्विस का कारक ग्रह हैं। डिग्री आधार पर निर्बल या नीच राशिगत हो तो ह्रदय रोग,हार्टफेल, नेत्ररोग, अन्धत्व, अस्थि पीड़ा, शासन द्वारा नौकरी से निष्कासन, मान-प्रतिष्ठा पर आघात होता है। सूर्य को अनुकूल व प्रसन्न करने हेतु आराधना आवश्यक है।

जवाकुसुमसंकाशं काश्यपेय महधुतितम्।
तमारिंसरवपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम्।।

            सूर्यग्रह पूजा अनुष्ठान में जासौन, कमल, बेला, मालती, काश, माधवी, पाटला, कनेर, जपा, चम्पा, रोलक, कुन्द, अशोक, लोध, अरूषा, मौलसिरी अगस्त, पलाश, लाल डहलिया, सुनहरे गेंदे आदि के पुष्प अर्पित करने से सूर्यदेव प्रसन्न होते हैं। वैदिक मंत्रों द्वारा सूर्य को नित्य जलअर्घ्य दें। सूर्यदेव को निषिद्ध पुष्प  गुंजा, धतूरा, कांची, अपराजिता, भटकटैया, तगर,अमड़ा आदि अर्पित न करें। (सूर्याष्टक में बंधूक पुष्प का उल्लेख है- 'बंधूक पुष्प संकाशं, हार कुंडल भूषितं। एक चक्र धरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहं।।' - सं.)      

चंद्र- चंद्र पृथ्वी के निकतम औषधि का, मन-मस्तिषक का अधिष्ठाता ग्रह है। नीच राशिगत चंद्र, क्रूर ग्रहों से आक्रान्त चंद्र, मानव को पागल तक कर देता है। चंद्र को मंत्र-जप, व्रतानुष्ठान से अनुकूल किया जा सकता है। चंद्र शान्ति हेतु अनुष्ठान पूजा में श्वेत पुष्प, चाॅंदी, चाॅंवल, दूध‌, दही, घी, पनीर, मावा, मिश्री, शंख, चीनी, कपूर, श्वेत-वस्त्र, मोती, दूधमोगरा, पारिजात, चम्पा, चमेली, सफेद गुलाब आदि का प्रयोग करें।

दधिशंखतुषाराभं क्षिरोदार्णवसन्तिभं।
नमामि शशिनं सोमं शंभोर्मुकुट भूषणम्।।

मंगल- मंगल अंगारक (जलता हुआ कोयला) भी कहा जाता है। जनमानस में मंगलदोष का भय इतना व्याप्त है कि कन्या के माता-पिता मांगलिक कन्या हेतु मांगलिक वर ही खोजते-खोजते ही विवाह में बिलम्ब कर देते हैं। मंगल अग्नि-तत्व कारक, पृथ्वीपुत्र, ऊर्जा-प्रवाह, विद्युत, शरीर में रक्त का कारक ग्रह है। मंगल प्रभावित व्यक्ति वीर पराक्रमी सेनानी व अन्यग्रह के शुभ योग में डाॅक्टर भी हो सकता है। मंगल का कुप्रभाव-रक्त विकारी बना ब्लड कैंसर, ब्लड-शुगर से ग्रसित करता है। अनुष्ठान में पुष्प- लाल गुलाब, कमल, लाल डहेलिया, गुलाबी जासौन, गुलाबी,लाल कनेर पुष्प,पलाश के पुष्प,खैर के पुष्प औषधि का कार्य करते हैं।

धरणीगर्भसंभूतं विद्युत कान्तिसमप्रभं।
कुमारं शक्ति हतस्ततं मंगलं प्रणमाम्यहम्।।

बुध- सौर मण्डल में सबसे लघु चमकदार ग्रह बुध है। सूर्य के अत्यन्त निकट बुध सूर्यास्त के बाद व सूर्योदय से पहले आकाश में दिखाई देते हैं। बुध वाणी, व्यवसाय, बुद्धि, शरीर में नसों का कारक ग्रह है। यदि शत्रु ग्रहों के साथ हैं, नीच राशिगत निर्बल हैं तो है शरीर में आन्तरिक कष्ट, व्यापार नष्ट, प्रतियोगी परीक्षा में असफलता आदि अशुभ फल शीध्र देते हैं। उपाय करने से बुध अनुकूल भी शीध्र होते हैं। बुध ग्रह के लिये हरे व नीले पुष्प अर्पण करने चाहिए- तुलसी की मंजरी,अपमार्ग, लटजीरा,चिड़चिड़ा,पीपल वनतुलसी के पुष्पों (मंजरी) की माला आदि पूजा में कुछ ध्रुम्र व श्याम वर्ण के नीले पुष्प दूर्वा भी चढ़ती है।

प्रियंगुकलिकाश्यामं रूपेणाप्रतिमंबुधं।
सौम्यं सौम्यगुणोपेतं तं बुधं प्रणमाम्हम्।।

गुरु- गुरु सबसे वृहद व भारी ग्रह है। बारह भावों में पाँच भावों के कारक ग्रह हैं। हमारे जीवन में धन, सन्तान, भाग्य, कर्म व आय के कारक गुरु ही हैं। यही इनका भारकत्व है। कन्या के विवाह के विवाह के कारक भी हैं गुरु महत्वाकांक्षी, मान-प्रतिष्ठा, समाज सुधारक, मठाधीश, पंडित, प्रवक्ता, उपदेशक, न्यायाधीश, दार्शनिक, उच्चपद प्रतिष्ठित, राज्य सम्मान, संचित धन, आय के संसाधनों का ज्ञान कराते हैं। गुरु रुष्ट हों तो मानव का कल्याण नहीं। गुरु जीवन जीने की कला सिखाते हैं। अत: मार्गदर्शक हैं। गुरु को शुभ व बलवान रहना चाहिए। नीच राशिगत गुरु, निर्बल गुरु, अस्त गुरु जातक के भाग्य को उदित नहीं होने देते।गुरु को शुभ व अनुकूल करने हेतु शास्त्र सम्मत अनुष्ठान हैं। गुरु व्रत उपासना पूजन में गुरु से सम्बन्धित सामग्रियों के साथ-साथ पीत पुष्प भी अर्पण करने चाहिए। भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्त में कई प्रकार के पीत पुष्प मिलते हैं। पूजन,हवन अनुष्ठान में स्वर्ण भष्म के साथ-साथ पीला कनेर, स्वर्ण वैजन्ती, पीला गुलाब व केला, धार्मिक पुस्तकें भी अर्पण करें।

ॐ देवानां च ऋषिणां च गुरु कांचन सन्निभं।
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं गुरु प्रणमाम्यहम्।।

शुक्र- नवग्रहों में शुक्र सर्वाधिक चमकीला, दूध की तरह सफेद, दैदीप्यमान ग्रह है। सूर्योदय से पहले पूर्व में व सूर्यास्त के पश्चात पश्चिम दिशा में दिखाई पड़ते हैं। शुक्र पूर्णतया सांसारिक ग्रह हैं इनसे प्रभावित जातक कलात्मक अभिरुचि सम्पन्न, चित्रकार, संगीतकार, अभिनेता, आभूषण विक्रेता, गायक, पर्यटन, होटल-रेस्ट्रोरेन्ट, बार, माॅडलिंग, इत्र, पेय पदार्थ, फोटोग्राफी फिल्म आदि व्यवसाय से जुड़कर सफलता प्राप्त करते हैं। भौतिक संसाधनों सुख- सुविधा ऐश्वर्य,आलस्य का कारक शुक्र विवाह का कारक भी है। शुक्र की स्थिति ही सम्पन्नता व विपन्नता को दर्शाती है। अर्थ बिना सब व्यर्थ। शुक्र शान्ति अनुष्ठान में गूलर, ब्रह्मकमल, श्वेत डहलिया, पारिजात, दूधिया पुष्प, चम्पा, चमेली, केवड़ा आदि सुगंधित पुष्प, इत्र-चंदन सुगंधित द्रव्य अर्पण करिए।

हिमकुन्दमृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम्।
सर्वशास्त्रप्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्हयम्।।

शनि- सौर मंडल का सर्वाधिक सुन्दर ग्रह शं अपने तीन वलय के कारण विशिष्ट है। शनि की गति मंद है। शनि के प्रभाव से संसार का कोई भी प्राणी बच नहीं सकता। कभी महादशा, कभी अन्तर्दशा, कभी साढ़े साती, कभी अढ़ैया में शनि मानव को उसके किये गये कर्मों का प्रतिफल देने अवश्य आते हैं। विष व अमृत किरणों के प्रभाव से जातक शुभाशुभ फल पाता है। शनि राजा से रंक और रंक से राजा बना देते हैं। शनि उच्च का शुभ हो तो ठेकेदारी, फैक्टरी, मशीनरी के कार्य, कोयला, लोहे का व्यापार, राजनीति में सफलता देता है। शनि अशुभ हो तो देकर सब छीन लेता है। ऋषि-मुनियों को कोटि-कोटि प्रणाम जिन्होंने शनि के कोप का वर्णन किया, जिसके साक्ष्य वैदिक काल व महाभारत काल में भी मिले। शनि के कोप से बचने हेतु निश्चित जप संख्या के साथ शनि शान्ति करानी चाहिए।शनि दयालु भी हैं, अंतत: कृपा करते ही हैं। शनि शान्ति अनुष्ठान में श्याम-वर्णी, नील-वर्णी पुष्प, शमी ,केवड़ा ,नीला जासौन आदि पुष्प अर्पित कर सकते हैं ।

नीलांजनं समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छाया मार्तण्ड सम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।।

राहु- राहु जन्मजात असुर व आसुरी प्रवृत्तियों का संवाहक छाया ग्रह है। राहु का अर्थ ही है राह रोकना, बाधा देना। राहु राजनीति प्रेरक ग्रह है। राहु जातकों को भ्रमित कर चलते कार्य को रोक देता है, गतिशील को गतिहीन कर देता है। राहु परास्त होता है बुद्ध से, बुद्धि व ज्ञान की देवी सरस्वती माॅं की आराधना नवरात्र पर्व में करने से व्यक्ति भ्रमित नहीं होता। राहु के कुप्रभाव से बच जाता है। नवग्रहों में देवरूप में प्रतिष्ठित राहु अनायास शुभाशुभ फल देता है। इसे शनिवत् माना गया है। शनि की उपासना नवग्रहों के साथ की जाती है। कथा है कि देवताओं को अमृतपान करा रही देवी मोहनी ने देवताओं की पंक्ति में बैठे देवरूप धारी राहु को पहचान लिया था। सूर्य-चंद्र ने संकेत किया, वह राहु ने देखा। इसलिए राहु सूर्य-चंद्र को समय असमय ग्रस लिया करता है। अमृतपान कर लेने से राहु अमर हो गया। मोहिनी रूपधारी विष्णु जी ने सुदर्शन चक्र से राहु का सर धड़ से अलग कर दिया था। विज्ञान सम्मत तथ्य तो अलग हैं। राहु सर है,धड़ केतु है। राहु पूजन में अश्वगंधा, केवड़ा, शमी, दूर्वा, चंदन, नागकेसर आदि नीले-काले पुष्प तथा तिल का तेल, कम्बल, तिल, तलवार, नीला-थोथा आदि अर्पण करें।

अर्धकायं महावीर्यं चन्द्रादित्यविमर्दनम्।
सिंहिंकागर्भ संभूतं तं राहु प्रणमाम्यहम्।।

केतु- ज्योतिष में राहु को शनिवत और केतु को कुंजवत कहा गया है। केतु धड़ है। दैनिक मजदूरी करने वालों को केतु प्रेरित करता है। शुभ केतु मोक्ष दिलाता है। धर्म अर्थ काम मोक्ष में मानव अपने चौथेपन में मोक्ष की कामना करने ही लगता है। केतु छाया ग्रह है, ग्रह पिण्ड नहीं। सर्वाधिक रहस्मय ग्रह केतु तप, ब्रह्म ज्ञान, वैराग्य, मौन व्रत, तंत्र-मंत्र, रहस्यमयी-विद्याओं का ज्ञाता बना ध्वजा (ऐश्वर्य) प्रदान करता है। केतु ध्वज प्रतीक है, इनकी शुभता अविष्कारक, जासूस, योगी,धर्मगुरू, भविष्य-वक्ता, तत्वज्ञानी बना कर प्रतिष्ठित करता है, अशुभ होने पर गुप्त पीड़ा, अनायास दुर्घटना, आग लग जाना, अनायास प्राणघातक हमला होना, अपमानित होना, धन-नष्ट होने पर दैनिक मजदूरी कर जीवन यापन करना आदि। केतु को काले-नीले पुष्पों, कुश सहित अश्वगंधा पुष्प, सप्त-धान्य वैदूर्यमणि अर्पण कर पूजा की जाती है। असगंध की जड़ हवन सामग्री में डाल कर हवन किया जाता है। शुभता पाने मंदिरों में ध्वजा चढ़ाई जाती है।

पलाश पुष्प संकांशं तारका ग्रहमस्तकं।
रौद्रं रौद्रान्तकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्हम्।।

नवग्रह का शान्ति मंत्र-
ब्रह्ममुरारी त्रिपुरान्तकारी,भानु शशि भूमि सुतौ बुधश्च।
गुरुश्च शुक्रशनि राहु केतव: सर्वेन ग्रहा: शान्ति करा भवन्तु।।

विशेष- ग्रह शान्ति में मंत्र (सामान्य, तांत्रोक्त, पौराणिक, वैदिक, गायत्री) का चयन आपके आचार्य जी के निर्देश पर ही हो। लेख में पौराणिक मंत्र दिए गए हैं। मंत्रोपचार के अन्तर्गत मंत्र आवृत्ति एक विशेष ध्वनि संयोजन है और इस ध्वनि संयोजन से ग्रह रश्मियों के कुप्रभाव, शुभप्रभाव को घटाया बढ़ाया जा सकता है। इति शुभमास्तु ।।

संपर्क- अध्यक्ष माँ गायत्री ज्योतिष अनुसंधान केंद्र, रमा लाज, हनुमान चौक, कांकेर छत्तिसगढ़। चलभाष- ७९७४०३२७२२ / ९४२५२६१९४४ ईमेल- drgitasharma.70@gmail.com     

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जुलाई ३०, शिव, भारत, माहिया, हाड़ौती मुक्तिका, दोहा यमक, नवगीत

सलिल सृजन जुलाई ३०
*
नवगीत
*
मेघ न बरसे
बरस रही हैं
आहत जनगण-मन की चाहत।
नहीं सुन रहीं
गूँगी-बहरी
सरकारें, क्या देंगी राहत?
*
जनप्रतिनिधि ही
जन-हित की
नीलामी करते, शर्म न आती।
सत्ता खातिर
शकुनि-सुयोधन
की चालें ही मन को भातीं।
द्रोणाचार्य
बेचते शिक्षा
व्यापम के सिरमौर बने हैं।
नाम नहीं
लिख पाते टॉपर
मेघ विपद के बहुत घने हैं।
कदम-कदम पर
शिक्षालय ही
रेप कर रहे हैं शिक्षा का।
रावण के रथ
बैठ सियासत
राम-लखन पर ढाती आफत।
*
लोकतन्त्र की
डुबा झोपड़ी
लोभतन्त्र नभ से जा देखे।
शोकतंत्र निज
बहुमत क्रय कर
भोगतंत्र की जय-जय लेखे।
कोकतंत्र नित
जीता शैशव
आश्रम रथ्यागार बन गए।
जन है दुखी
व्यथित है गण
बेमजा प्रजा को शासन शामत।
*
हँसिया
गर्दन लगा काटने,
हाथी ने बगिया रौंदी रे!
चक्र गला
जनता का काटे,
पंजे ने कबरें खोदी रे!
लालटेन से
जली झुपड़िया
कमल चुभाता पल-पल काँटे।
सेठ-हितू हैं
अफसर नेता
अँधा न्याय ढा रहा आफत।
३०-१-२०२०
***
द्विपदी
जात मजहब धर्म बोली, चाँद अपनी कह जरा
पुज रहा तू ईद में भी, संग करवा चौथ के.
**
चाँद तनहा है ईद हो कैसे? चाँदनी उसकी मीत हो कैसे??
मेघ छाये घने दहेजों के, रेप पर उसकी जीत हो कैसे??
*
चाँद का इन्तिजार करती रही, चाँदनी ने 'सलिल' गिला न किया.
तोड़्ती है समाधि शिव की नहीं, शिवा ने मौन रह सहयोग दिया.
***
गले मिले दोहा यमक
*
चल बे घर बेघर नहीं, जो भटके बिन काज
बहुत हुई कविताई अब, कलम घिसे किस व्याज?
*
पटना वाली से कहा, 'पट ना' खाई मार
चित आए पट ना पड़े, अब की सिक्का यार
*
धरती पर धरती नहीं, चींटी सिर का भार
सोचे "धर दूँ तो धरा, कैसे सके सँभार?"
*
घटना घट ना सब कहें, अघट न घटना रीत
घट-घटवासी चकित लख, क्यों मनु करे अनीत?
*
सिरा न पाये फ़िक्र हम, सिरा न आया हाथ
पटक रहे बेफिक्र हो, पत्थर पर चुप माथ
*
बेसिर-दानव शक मुआ, हरता मन का चैन
मनका ले विश्वास का, सो ले सारी रैन
*
करता कुछ करता नहीं, भरता भरता दंड
हरता हरता शांति सुख, धरता धरता खंड
*
बजा रहे करताल पर, दे न सके कर ताल
गिनते हैं कर माल फिर, पहनाते कर माल
*
जल्दी से आ भार ले, व्यक्त करूँ आभार
असह्य लगे जो भार दें, हटा तुरत साभार
*
हँस सहते हम दर्द जब, देते हैं हमदर्द
अपना पन कर रहा है सब अपनापन सर्द
*
भोग लगाकर कर रहे, पंडित जी आराम
नहीं राम से पूछते, "ग्रहण करें आ राम!"
*****
हाड़ौती मुक्तिका:
*
आस नरमदा तैर भायला
बह जावैगो बैर भायला
.
गेलो आपूँ आप मलैगो
मंज़िल की सुण टेर भायला
.
मुसकल है हरदा सूं खड़बो
तू आवैगो फेर भायला
.
घणू कठण है कविता करबो
आकासां की सैर भायला
.
सूल गइल पर यार सलिल' तू
चाल मेलतो पैर भायला
***
दोहा:
नेह वॄष्टि नभ ने करी, धरा गयी हँस भींज
हरियायी भू लाज से, 'सलिल' मन गयी तीज
३०-७-२०१७
***
मुक्तक:
कोशिशें करते रहो, बात बन ही जायेगी
जिन्दगी आज नहीं, कल तो मुस्कुरायेगी
हारते जो नहीं गिरने से, वो ही चल पाते-
मंजिलें आज नहीं कल तो रास आयेंगी.
***
नवगीत
*
मेघ न बरसे
बरस रही हैं
आहत जनगण-मन की चाहत।
नहीं सुन रहीं
गूँगी-बहरी
सरकारें, क्या देंगी राहत?
*
जनप्रतिनिधि ही
जन-हित की
नीलामी करते, शर्म न आती।
सत्ता खातिर
शकुनि-सुयोधन
की चालें ही मन को भातीं।
द्रोणाचार्य
बेचते शिक्षा
व्यापम के सिरमौर बने हैं।
नाम नहीं
लिख पाते टॉपर
मेघ विपद के बहुत घने हैं।
कदम-कदम पर
शिक्षालय ही
रेप कर रहे हैं शिक्षा का।
रावण के रथ
बैठ सियासत
राम-लखन पर ढाती आफत।
*
लोकतन्त्र की
डुबा झोपड़ी
लोभतन्त्र नभ से जा देखे।
शोकतंत्र निज
बहुमत क्रय कर
भोगतंत्र की जय-जय लेखे।
कोकतंत्र नित
जीता शैशव
आश्रम रथ्यागार बन गए।
जन है दुखी
व्यथित है गण
बेमजा प्रजा को शासन शामत।
*
हँसिया
गर्दन लगा काटने,
हाथी ने बगिया रौंदी रे!
चक्र गला
जनता का काटे,
पंजे ने कबरें खोदी रे!
लालटेन से
जली झुपड़िया
कमल चुभाता पल-पल काँटे।
सेठ-हितू हैं
अफसर नेता
अँधा न्याय ढा रहा आफत।
*
३०-७-२०१६
पुस्तक चर्चा
''एक सच्चाई यह भी'' - अपनी सोच अपना नज़रिया
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- एक सच्चाई यह भी, विद्या लाल, लेख संग्रह, ISBN ९७८-९३-८५९४२-१२-९, वर्ष २०१६, २०.७ से.मी. x १४ से. मी., पृष्ठ १८८, मूल्य १५०/-, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, ९८२९० १८०८७]
*
'एक सचाई यह भी' असामयिक विषयों पर लिखे गए ५४ लेखों के संग्रह है। लेखिका विद्या लाल की ५ पुस्तकें जूठन और अन्य लघुकथाएँ २०१३, किसको सोचा तुमने चाँद २०१३, नीला समंदर २०१४, बिगड़ैल लड़की २०१४, तथा ज़ख्म २०१६ प्रकाशित हो चुकी हैं। विवेच्य कृति में अधिकांश लेख स्त्री विमर्श पर हैं। सामान्यतः: स्त्रियों को शोषित, पीड़ित बताने की लीक पर चलते हुए भी लेखिका ने स्त्रियाँ क्या वाकई त्याग की मूतियाँ हैं? नहीं, पुरुष नारी सहयोग के मुखापेक्षी, पुरुष प्रधान समाज पुरुषों को ही रास नहीं आता, नारी का मोहताज पुरुष दम्भ, राजनीति: खुद कितने योग्य हैं पुरुष?, पुरुष कब करेंगे स्त्री की बराबरी?, लाचार पिता आदि लेखों में पुरुष की कमी, दुर्बलता को उभारा है अर्थात स्त्री को अबला समझने की भूल पुरुष को नहीं करनी चाहिए।
स्त्रियाँ स्वर्ग रचें तो कैसे?, स्त्रियाँ कैसे कहें मेरा भारत महान? में अनेक विचारोत्तेजक प्रश्न इंगित किये गए हैं। जातीय श्रेष्ठता के भूमिसात होते स्तंभों, दलित पुरुषों द्वारा दलित स्त्रियों को हीन मानने, अपने घर की और अन्य स्त्रियों के प्रति पुरुषों की दृष्टि में भेद आदि अनेक संवेदनशील प्रश्नों को लेखिका ने स्पर्श किया है और अपने दृष्टिकोण को सामने रखा है। इन लेखों के विषय रुचिकर, शैली सहज बोधगम्य तथा प्रस्तुति शालीन है। इन्हीं विषयों पर अन्य लेखिकाएँ अश्लील भाषा का प्रयोग करती हैं किन्तु विद्या जी ने तल्ख सारे तल्ख बात कहने के लिए भी शालीनता और शिष्टता को ताक पर नहीं रखा है।
सामान्य पाठक के पढ़ने और सोचने के लिए इस पुस्तक में बहुत कुछ है। किशोरों और तरुणों को इस लेखों से अपनी मानसिकता को व्यापक और स्वास्थ्य बनाने में सहायता मिलेगी।
क्या जरूरत है छूट्टियों में राष्ट्रीय होने की?, श्री राम और अल्लाह दोनों अगर लाचार नहीं हैं, इक्कीसवीं सदी विज्ञान की या आस्था की?, पुरुष भी असहाय हैं, परमाणु परीक्षण, दोष विवेक में कमी और परवरिश की आदि लेख सर्वोपयोगी और तथ्यपरक हैं। विद्या जी की लेखन शैली 'कम लिखे को अधिक समझना की' देशज विरासत की तरह है। उनकी आगामी कृतियों की प्रतीक्षा पाठकों को बनी रहेगी।
***
शिव का माहिया पूजन
*
भोले को मना लाना,
सावन आया है
गौरी जी संग आना।
*
सब मिल अभिषेक करो
गोरस, मधु, घृत से
नहलाओ प्रभु जी को।
*
ले अभ्रक भस्म गुलाल
भक्ति सहित करिए
शंकर जी का शृंगार।
*
जौ गेहूँ अक्षत दाल
तिल शर्करा सहित
शिव अर्पित करिए माल।
*
ले बिल्व पत्र ताजा
भाँग धतूरा फूल-
फल मिल चढ़ाँय आजा।
*
नागेंद्र रहे फुफकार
मुझको मत भूलो
लो बना गले का हार।
*
नंदी पूजन मत भूल
सुख-समृद्धि दाता
सम्मुख हर लिए त्रिशूल।
*
मद काम क्रोध हैं शूल
कर में पकड़ त्रिशूल
काबू करिए बिन भूल।
*
लेकर रुद्राक्ष सुमाल
जाप नित्य करिए
शुभ-मंगल हो तत्कल।
*
हे कार्तिकेय-गणराज!
ग्रहण कीजिए भोग
मन मंदिर सदा विराज।
*
मन भावन सावन मास
सबके हिया हुलास
भर गौरी-गौरीनाथ।
***
हर मुख शोभित मास्क कह रहा मैं भारत हूँ।
देश-प्रगति का टास्क कह रहा मैं भारत हूँ।।
मत अतीत को कोसो, उससे सबक सीख लो-
मोर करो कम आस्क, कहो तब मैं भारत हूँ।।
***
शिव पर दोहे
*
शंभु नाथ हैं जगत के, रूप सुदर्शन दिव्य।
तेज प्रताप सुविदित है, शंकर छवि है भव्य।।
*
अंबर तक यश व्यापता, जग पूजित नागेंद्र।
प्रिया भवानी शिवानी, शीश सजे तारेंद्र।।
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शिवाधार पा सलिल है, धन्य गंग बन तात।
करे जीव संजीव दे, मुक्ति सत्य विख्यात।।
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सत्-शिव-सुंदर सृजनकर, अहंकार तज नित्य।
मैं मेरा से मुक्त हो, बहता पवन अनित्य। ।
*
शंका-अरि शंकारि शिव, हैं शुभ में विश्वास।
श्रद्धा हैं मैया उमा, सुत गणपति हैं श्वास।।
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कार्तिकेय संकल्प हैं, नंदी है श्रम मूर्त।
मूषक मति चातुर्य है, सर्प गरल स्फूर्त। ।
*
रुद्र अक्ष सह भस्म मिल, करे काम निष्काम।
काम क्रोध मद शूल त्रय, सिंह विक्रम बलधाम।।
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वंदे भारत भारती! कहता जगकर भोर।
उषा किरण ला परिंदे, मचा रहे हैं शोर।।
मचा रहे हैं शोर, थक गया अरुणचूर भी।
जागा नहीं मनुष्य, मोह में रहा चूर ही।।
दिन कर दिनकर दुखी, देख मानव के धंधे।
दुपहर संझा रात, परेशां नेक न बंदे।।
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। मैं भारत हूँ बोलिए ।
। ऐक्य भावना घोलिए।
*
। मैं भारत, मैं भारतवासी ।
। हर दिन होली, रात दिवाली।
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। पीहू पोंगल बैसाखी ।
। गुड़ीपाड़वा संक्रांति ।
। मैं भारत हूँ, नदियाँ मेरी ।
। जय गुंजातीं सदियाँ मेरी ।
*
। मेरा हर दिन मेहनत पर्व।
।हूँ भारतवासी, है गर्व ।
*
। भारत होली-दीवाली ।
। ऊषा-संध्या रसवाली ।
। गेहूँ-मक्के की बाली ।
। चैया की प्याली थाली ।
*
। मुझको भारत बोले दुनिया ।
। मैया पप्पा मुन्नू मुनिया ।
*
। था, हूँ सदा रहूँगा भारत ।
। सब मिल बोलो मैं हूँ भारत।
*
। रसगुल्ला इडली दोसा ।
। छोला अरु लिट्टी चोखा ।
। पोहा दूध-जलेबी खा ।
। मैं भारत हूँ मिल गुंजा ।
*
। है आरंभ, नहीं यह अंत ।
। भारत कहते सुर-नर-संत।
*
। मैं भारत हूँ सभी कहें ।
। ऐक्य भाव में सभी बहें ।
*
। एक देश है, नाम एक है ।
। मैं भारत हूँ, नियत नेक है ।
***
शिव पर दोहे
*
शिव सत हैं; रहते सदा, असत-अशुचि से दूर।
आत्मलीन परमात्म हैं, मोहमुक्त तमचूर।।
*
शिव सोकर भी जागते, भव से दूर-अदूर।
उन्मीलित श्यामल नयन, करुणा से भरपूर।।
*
शिव में राग-विराग है, शिव हैं क्रूर-अक्रूर।
भक्त विहँस अवलोकते, शिव का अद्भुत नूर।।
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शिव शव का सच जानते, करते नहीं गुरूर।
काम वाम जा दग्ध हो, चढ़ता नहीं सुरूर।।
*
शिव न योग या भोग को, त्याग हुए मगरूर ।
सती सतासत पंथ चल, गहतीं सत्य जरूर।।
*
शिव से शिवा न भिन्न हैं, भेद करे जो सूर।
शिवा न शिव से खिन्न हैं, विरह नहीं मंजूर।।
*
शिव शंका के शत्रु हैं, सकल लोक मशहूर।
शिव-प्रति श्रद्धा हैं शिवा, ऐच्छिक कब मजबूर।।
*
शिव का चिर विश्वास हैं, शिवा भक्ति का पूर।
निराकार साकार हो, तज दें अहं हुजूर।।
*
शिव की नवधा भक्ति कर, तन-मन-धन है धूर।
नेह नर्मदा सलिल बन, हो संजीव मजूर।।
***
। देश हमारा भारत है ।
। इसे सदा भारत कहें।
*
। एक देश एक नाम।
। अपना भारत महान।
*
। जन जन का यह नारा है ।
।। भारत नाम हमारा है ।।
*
। ज़र्रे ज़र्रे की हुंकार ।
। मुझको है भारत से प्यार।
*
है प्रकाश पाने में जो रत ।
। नाम इसी देश का भारत ।
*
। कल से कल को आज जोड़ता ।
। भारत देश न सत्य छोड़ता ।
*
। भारत माता की संतान ।
। भारत नाम हमारी आन ।
*
। हिमगिरि से सागर तक देश ।
। भारत महिमावान विशेष ।
*
। ध्वजा तिरंगी अपनी आन ।
। भारत नाम हमारी शान ।
*
। सिंधु नर्मदा गंगा कृष्णा ।
। भारत प्यारा रंग-बिरंगा ।
*
। जनगण-मन की यही पुकार ।
। भारत बोले सब संसार ।
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आदरणीय की पसंद
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धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्णजी भी पधारे । वे कहने लगे - "मुझे भी कुछ काम दो।"
युधिष्ठिर ने कहा- "आपको क्या काम दें? आप हमारे लिए आदरणीय हैं। आपके लायक हमारे पास कोई काम नहीं है ।"
श्रीकृष्ण ने कहा - "मैं आदरणीय हूँ तो क्या अयोग्य भी हूँ ? भई! मैं भी काम कर सकता हूँ ।"
"आप ही अपना काम ढूँढ लीजिए ।"
तो श्रीकृष्ण ने क्या काम लिया ?
जूठी पत्तलें उठाने और यज्ञ परिसर को लीपने का ।
- आचार्य विनोवा भावे

मंगलवार, 29 जुलाई 2025

जुलाई २९, Poem, RIVER, शिवताण्डवस्तोत्र, सॉनेट, मुक्तिका, नवगीत, लघुकथा, पूर्णिका धन्यवाद

 सलिल सृजन जुलाई २९

*
पूर्णिका
धन्यवाद जी
.
लघुता का अहसास कराया धन्यवाद जी
शंकर को कंकर बतलाया धन्यवाद जी
.
जो असीम उसको सीमा में कैद कर दिया
बीमा का भुगतान कराया धन्यवाद जी
.
ठकुर सुहाती कर चारण ईनाम पा हँसे
ठाकुर को लड़वा मरवाया धन्यवाद जी
.
भ्रष्टाचार न बाकी शिष्टाचार निभाते
जिससे पाया, काम कराया धन्यवाद जी
.
जब विपक्ष में 'अपराधी' कह जेल कराई
दल बदला मंत्री बनवाया धन्यवाद जी
.
मन कागा तन बगुला जिसका करे सियासत
'सलिल' पाप कर पुण्य बताया धन्यवाद जी
२९.७.२०२५
.

मुक्तिका
संसद हो रही सियासत
लोकतंत्र की यही रवायत
तंत्र लोक को कुचल कह रहा
हमने कुचली आज बगावत
देता एक वसूल सैंकड़ों
शासन देता अजब रियायत
चित भी मेरी पट भी मेरी
ठेंगा दिखला कहें नियामत
नेता वानर लिए उस्तरा
हर चुनाव में करे हजामत
सच मत कहना 'सलिल' भूलकर
वरना आ जाएगी शामत
२९.७.२०२४
***सॉनेट
मर्यादा
मंत्री जी मर्यादा भूले
इसकी गलती, उस पर वार
बढ़ा रहे खुद ही तकरार
अहंकार झूले में झूले
चीख-चीख कर करते बात
सत्य-तथ्य का तनिक न जिक्र
स्वार्थ साधने की है फिक्र
मर्यादा पर कर आघात
सांसद जी की जुबां फिसलती
अवसर मिल जाता औरों को
लापरवाह करें क्यों गलती
सभाध्यक्ष निष्पक्ष न रहते
है विश्वास न सँग विपक्ष का
रीति-नीति निज दल की कहते
२९-७-२०२२
•••
सॉनेट
प्रभुता
प्रभुता पाहि काहि मद नाहीं
सत्य यही, अपवाद नहीं तुम
आक्रामकता से गलबाँही
सुनते हो फरियाद नहीं तुम
फल पाकर तरु झुक, तज देता
फल पाकर मनु घमंड कर तनता
चुप रह, दे पटकी तब जनता
समय बदलता, साथ न देता
विनय, विनय का त्याग मत करो
अपने घर को राख मत करो
मिट्टी अपनी साख मत करो
हम सब एक देश के वासी
समझ सभी में अच्छी-खासी
सिर्फ श्वास को स्वार्थ मत करो
२९-७-२०२२
•••
विमर्श
*
ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में ‘स्’ ध्वनि नहीं बोली जाती थी। ‘स्’ को ‘ह्’ रूप में बोला जाता था। जैसे संस्कृत के ‘असुर’ शब्द को वहाँ ‘अहुर’ कहा जाता था। अफ़गानिस्तान के बाद सिन्धु नदी के इस पार हिन्दुस्तान के पूरे इला़के को प्राचीन फ़ारसी साहित्य में भी ‘हिन्द’, ‘हिन्दुश’ के नामों से पुकारा गया है। यहाँ की किसी भी वस्तु, भाषा, विचार को ‘एडजेक्टिव’ के रूप में ‘हिन्दीक’ कहा गया है जिसका मतलब है ‘हिन्द का’। यही ‘हिन्दीक’ शब्द अरबी से होता हुआ ग्रीक में ‘इंदिके’, ‘इंदिका’, लैटिन में ‘इंदिया’ तथा अंग्रेजी में ‘इंडिया’ बन गया। यह हिन्दी एवं इंडिया शब्दों की व्युत्पत्ति का भाषावैज्ञानिक इतिहास है।
अवेस्ता तथा ‘डेरियस के शिलालेख’ में ( ५२२ से ४८६ ईस्वी पूर्व ) में ‘हिन्दु’ शब्द का प्रयोग ‘सिंध’ के समीपवर्ती क्षेत्र के निवासियों के लिए हुआ है। ‘हिन्द’ शब्द धीरे-धीरे भारत में रहने वाले निवासियों तथा फिर पूरे भारत के लिए होने लगा। भारत की भाषाओं के लिए ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग मिलता है। ईरान के बादशाह नौशेरवाँ के काल में ( ५३१ - ५७९ ईस्वी ) उसके एक दरबारी कवि द्वारा संस्कृत भाषा के ‘पंचतंत्र’ के ईरानी भाषा ‘पहलवी’ में किए गए अनुवाद ‘कलीलहउदिमना’ में पंचतंत्र की भाषा को ‘जबान-ए-हिन्दी’ कहा गया है। सातवीं शताब्दी में महाभारत के कुछ अंशों का पहलवी में अनुवाद करने वाले विद्वान ने मूल भाषा को ‘जबान-ए-हिन्दी’ कहा है। दसवीं शताब्दी में अब्दुल हमीद ने भी पंचतंत्र की भाषा को ‘हिन्दी’ कहा है। तेरहवीं शताब्दी में मिनहाजुस्सिराज द्वारा अपने ग्रन्थ ‘तबकाते नासरी’ में भारतीय देसी भाषाओं के लिए ‘जबाने हिन्दी’ शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रकार दसवीं - ग्यारहवीं शताब्दी तक अरबी एवं फारसी साहित्य में भारत में बोली जाने वाली ज़बानों के लिए ‘ज़बान-ए-हिन्दी’ लफ्ज़ का प्रयोग हुआ है। भारत आने के बाद मुसलमानों ने ‘ज़बान-ए-हिन्दी’, ‘हिन्दी जुबान’ अथवा ‘हिन्दी’ का प्रयोग दिल्ली-आगरा के चारों ओर बोली जाने वाली भाषा के अर्थ में किया। भारत के गैर-मुस्लिम लोग तो इस क्षेत्र में बोले जाने वाले भाषा-रूप को ‘भाखा’ नाम से पुकराते थे, ‘हिन्दी’ नाम से नहीं। कबीरदास की प्रसिद्ध काव्य पंक्ति है – संस्कृत है कूप जल, भाखा बहता नीर। (संस्कृत तो कुए के पानी की तरह है। भाखा बहते पानी की तरह है।)
जिस समय मुसलमानों का यहाँ आना शुरु हुआ उस समय भारत के इस हिस्से में साहित्य-रचना शौरसेनी अपभ्रंश में होती थी। बाद में डिंगल साहित्य रचा गया। मुग़लों के काल में अवधी तथा ब्रज में साहित्य लिखा गया। आधुनिक हिन्दी साहित्य की जो जुबान है, उस जुबान ‘हिन्दवी’ को आधार बनाकर रचना करने वालों में सबसे पहले रचनाकार का नाम अमीर खुसरो है जिनका समय १२५३ ई0 से १३२५ ई0 के बीच माना जाता है। ये फ़ारसी के भी विद्वान थे तथा इन्होंने फ़ारसी में भी रचनाएँ लिखीं मगर ‘हिन्दवी’ में रचना करने वाले ये प्रथम रचनाकार थे। इनकी अनेक पहेलियाँ इसका प्रमाण है। उदाहरण के लिए खुसरो की दो रचनाएँ प्रस्तुत हैं।
(1) क्या जानूँ वह कैसा है। जैसा देखा वैसा है।
(2) एक नार ने अचरज किया। साँप मारि पिंजड़े में दिया।
अमीर खुसरो ने अपनी भाषा को ‘हिन्दवी’ कहा है। एक जगह उन्होने लिखा है जिसका भाव है कि मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ, हिन्दवी में जवाब देता हूँ। ( उनकी मूल पंक्ति इस प्रकार है: ‘तुर्क हिन्तुस्तानियम हिन्दवी गोयम जवाब’)२९-७-२०२०
***
सुभाषित संजीवनी १
*
मुख पद्मदलाकारं, वाचा चंदन शीतलां।
हृदय क्रोध संयुक्तं, त्रिविधं धूर्त लक्ष्णं।।
*
कमल पंखुड़ी सदृश मुख, बोल चंदनी शीत।
हृदय युक्त हो क्रोध से, धूर्त चीन्ह त्रैरीत।।
*
***
रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
*
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शव नंदन-वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रात स्नान कर, श्वेत वसन धरें कुश-आसन.
मौन करें शिवलिंग, यंत्र, विग्रह का पूजन..
'ॐ नमः शिवाय' जपें रुद्राक्ष माल ले-
बार एक सौ आठ करें, स्तोत्र का पठन..
भाँग, धतूरा, धूप, दीप, फल, अक्षत, चंदन,
बेलपत्र, कुंकुम, कपूर से हो शिव-अर्चन..
उमा-उमेश करें पूरी हर मनोकामना-
'सलिल'-साधन सफल करें प्रभु, निर्मल कर मन..
*
: रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
श्रीगणेशाय नमः
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्ड्ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् || १||
सघन जटा-वन-प्रवहित गंग-सलिल प्रक्षालित.
पावन कंठ कराल काल नागों से रक्षित..
डम-डम, डिम-डिम, डम-डम, डमरू का निनादकर-
तांडवरत शिव वर दें, हों प्रसन्न, कर मम हित..१..
सघन जटामंडलरूपी वनसे प्रवहित हो रही गंगाजल की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ को प्रक्षालित करती (धोती) हैं, जिनके गले में लंबे-लंबे, विक्राक सर्पों की मालाएँ सुशोभित हैं, जो डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य कर रहे हैं-वे शिवजी मेरा कल्याण करें.१.
*
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि |
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम|| २||
सुर-सलिला की चंचल लहरें, हहर-हहरकर,
करें विलास जटा में शिव की भटक-घहरकर.
प्रलय-अग्नि सी ज्वाल प्रचंड धधक मस्तक में,
हो शिशु शशि-भूषित शशीश से प्रेम अनश्वर.. २
जटाओं के गहन कटावों में भटककर अति वेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की लहरें जिन शिवजी के मस्तक पा र्लाहरा रहे एहेन, जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालायें धधक-धधककर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे- बाल-चन्द्रमा से विभूषित मस्तकवाले शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिपल बढ़ता रहे.२.
धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे |
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि || ३||
पर्वतेश-तनया-विलास से परमानन्दित,
संकट हर भक्तों को मुक्त करें जग-वन्दित!
वसन दिशाओं के धारे हे देव दिगंबर!!
तव आराधन कर मम चित्त रहे आनंदित..३..
पर्वतराज-सुता पार्वती के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परमानन्दित (शिव), जिनकी कृपादृष्टि से भक्तजनों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, उन शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा?.३.
*
लताभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तुभूतभर्तरि || ४||
केशालिंगित सर्पफणों के मणि-प्रकाश की,
पीताभा केसरी सुशोभा दिग्वधु-मुख की.
लख मतवाले सिन्धु सदृश मदांध गज दानव-
चरम-विभूषित प्रभु पूजे, मन हो आनंदी..४..
जटाओं से लिपटे विषधरों के फण की मणियों के पीले प्रकाशमंडल की केसर-सदृश्य कांति (प्रकाश) से चमकते दिशारूपी वधुओं के मुखमंडल की शोभा निरखकर मतवाले हुए सागर की तरह मदांध गजासुर के चरमरूपी वस्त्र से सुशोभित, जगरक्षक शिवजी में रामकर मेरे मन को अद्भुत आनंद (सुख) प्राप्त हो.४.
*
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजस्फुल्लिंगया, निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकं |
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं, महाकलपालिसंपदे सरिज्जटालमस्तुनः ||५||
ज्वाला से ललाट की, काम भस्मकर पलमें,
इन्द्रादिक देवों का गर्व चूर्णकर क्षण में.
अमियकिरण-शशिकांति, गंग-भूषित शिवशंकर,
तेजरूप नरमुंडसिंगारी प्रभु संपत्ति दें..५..
अपने विशाल मस्तक की प्रचंड अग्नि की ज्वाला से कामदेव को भस्मकर इंद्र आदि देवताओं का गर्व चूर करनेवाले, अमृत-किरणमय चन्द्र-कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटावाले नरमुंडधारी तेजस्वी शिवजी हमें अक्षय संपत्ति प्रदान करें.५.
*
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः |
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ||६||
सहसनयन देवेश-देव-मस्तक पर शोभित,
सुमनराशि की धूलि सुगन्धित दिव्य धूसरित.
पादपृष्ठमयनाग, जटाहार बन भूषित-
अक्षय-अटल सम्पदा दें प्रभु शेखर-सोहित..६..
इंद्र आदि समस्त देवताओं के शीश पर सुसज्जित पुष्पों की धूलि (पराग) से धूसरित पाद-पृष्ठवाले सर्पराजों की मालाओं से अलंकृत जटावाले भगवान चन्द्रशेखर हमें चिरकाल तक स्थाई रहनेवाली सम्पदा प्रदान करें.६.
*
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्ध नञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके |
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचनेरतिर्मम || ७||
धक-धक धधके अग्नि सदा मस्तक में जिनके,
किया पंचशर काम-क्षार बस एक निमिष में.
जो अतिदक्ष नगेश-सुता कुचाग्र-चित्रण में-
प्रीत अटल हो मेरी उन्हीं त्रिलोचन-पद में..७..
*
अपने मस्तक की धक-धक करती जलती हुई प्रचंड ज्वाला से कामदेव को भस्म करनेवाले, पर्वतराजसुता (पार्वती) के स्तन के अग्र भाग पर विविध चित्रकारी करने में अतिप्रवीण त्रिलोचन में मेरी प्रीत अटल हो.७.
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत् - कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः |
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः || ८||
नूतन मेघछटा-परिपूर्ण अमा-तम जैसे,
कृष्णकंठमय गूढ़ देव भगवती उमा के.
चन्द्रकला, सुरसरि, गजचर्म सुशोभित सुंदर-
जगदाधार महेश कृपाकर सुख-संपद दें..८..
नयी मेघ घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सघन अन्धकार की तरह अति श्यामल कंठवाले, देवनदी गंगा को धारण करनेवाले शिवजी हमें सब प्रकार की संपत्ति दें.८.
*
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकछिदं तमंतकच्छिदं भजे || ९||
पुष्पित नीलकमल की श्यामल छटा समाहित,
नीलकंठ सुंदर धारे कंधे उद्भासित.
गज, अन्धक, त्रिपुरासुर भव-दुःख काल विनाशक-
दक्षयज्ञ-रतिनाथ-ध्वंसकर्ता हों प्रमुदित..
खिले हुए नीलकमल की सुंदर श्याम-प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कन्धोंवाले, गज, अन्धक, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों को मिटानेवाले, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करनेवाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ.९.
*
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदंबमञ्जरी रसप्रवाहमाधुरी विजृंभणामधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे || १०||
शुभ अविनाशी कला-कली प्रवहित रस-मधुकर,
दक्ष-यज्ञ-विध्वंसक, भव-दुःख-काम क्षारकर.
गज-अन्धक असुरों के हंता, यम के भी यम-
भजूँ महेश-उमेश हरो बाधा-संकट हर..१०..
नष्ट न होनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, समस्त कलारूपी कलियों से नि:सृत, रस का रसास्वादन करने में भ्रमर रूप, कामदेव को भस्म करनेवाले, त्रिपुर नामक राक्षस का वध करनेवाले, संसार के समस्त दु:खों के हर्ता, प्रजापति दक्ष के यज्ञ का ध्वंस करनेवाले, गजासुर व अंधकासुर को मारनेवाले,, यमराज के भी यमराज शिवजी का मैं भजन करता हूँ.१०.
*
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् |
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः || ११||
वेगवान विकराल विषधरों की फुफकारें,
दह्काएं गरलाग्नि भाल में जब हुंकारें.
डिम-डिम डिम-डिम ध्वनि मृदंग की, सुन मनमोहक.
मस्त सुशोभित तांडवरत शिवजी उपकारें..११..
अत्यंत वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्निवाले, मृदंग की मंगलमय डिम-डिम ध्वनि के उच्च आरोह-अवरोह से तांडव नृत्य में तल्लीन होनेवाले शिवजी सब प्रकार से सुशोभित हो रहे हैं.११.
*
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः |
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहत || १२||
कड़ी-कठोर शिला या कोमलतम शैया को,
मृदा-रत्न या सर्प-मोतियों की माला को.
शत्रु-मित्र, तृण-नीरजनयना, नर-नरेश को-
मान समान भजूँगा कब त्रिपुरारि-उमा को..१२..
कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शैया, सर्प और मोतियों की माला, मिट्टी के ढेलों और बहुमूल्य रत्नों, शत्रु और मित्र, तिनके और कमललोचनी सुंदरियों, प्रजा और महाराजाधिराजों के प्रति समान दृष्टि रखते हुए कब मैं सदाशिव का भजन करूँगा?
*
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरस्थमञ्जलिं वहन् |
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् || १३||
कुञ्ज-कछारों में गंगा सम निर्मल मन हो,
सिर पर अंजलि धारणकर कब भक्तिलीन हो?
चंचलनयना ललनाओं में परमसुंदरी,
उमा-भाल-अंकित शिव-मन्त्र गुंजाऊँ सुखी हो?१३..
मैं कब गंगाजी कछार-कुंजों में निवास करता हुआ, निष्कपट होकर सिर पर अंजलि धारण किये हुए, चंचल नेत्रोंवाली ललनाओं में परमसुंदरी पार्वती जी के मस्तक पर अंकित शिवमन्त्र का उच्चारण करते हुए अक्षय सुख प्राप्त करूँगा.१३.
*
निलिम्पनाथनागरी कदंबमौलिमल्लिका, निगुम्फ़ निर्भरक्षन्म धूष्णीका मनोहरः.
तनोतु नो मनोमुदं, विनोदिनीं महर्नीशं, परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चय:|| १४||
सुरबाला-सिर-गुंथे पुष्पहारों से झड़ते,
परिमलमय पराग-कण से शिव-अंग महकते.
शोभाधाम, मनोहर, परमानन्दप्रदाता,
शिवदर्शनकर सफल साधन सुमन महकते..१४..
देवांगनाओं के सिर में गुंथे पुष्पों की मालाओं से झड़ते सुगंधमय पराग से मनोहर परम शोभा के धाम श्री शिवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानन्दयुक्त हमारे मनकी प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें.१४.
प्रचंडवाडवानल प्रभाशुभप्रचारिणी, महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूतजल्पना.
विमुक्तवामलोचनों विवाहकालिकध्वनि:, शिवेतिमन्त्रभूषणों जगज्जयाम जायतां|| १५||
पापभस्मकारी प्रचंड बडवानल शुभदा,
अष्टसिद्धि अणिमादिक मंगलमयी नर्मदा.
शिव-विवाह-बेला में सुरबाला-गुंजारित,
परमश्रेष्ठ शिवमंत्र पाठ ध्वनि भव-भयहर्ता..१५..
प्रचंड बड़वानल की भाँति पापकर्मों को भस्मकर कल्याणकारी आभा बिखेरनेवाली शक्ति (नारी) स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रोंवाली देवकन्याओं द्वारा शिव-विवाह के समय की गयी परमश्रेष्ठ शिवमंत्र से पूरित, मंगलध्वनि सांसारिक दुखों को नष्टकर विजयी हो.१५.
*
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् || १६||
शिवतांडवस्तोत्र उत्तमोत्तम फलदायक,
मुक्तकंठ से पाठ करें नित प्रति जो गायक.
हो सन्ततिमय भक्ति अखंड रखेंहरि-गुरु में.
गति न दूसरी, शिव-गुणगान करे सब लायक..१६..
इस सर्वोत्तम शिवतांडव स्तोत्र का नित्य प्रति मुक्त कंठ से पाठ करने से भरपूर सन्तति-सुख, हरि एवं गुरु के प्रति भक्ति अविचल रहती है, दूसरी गति नहीं होती तथा हमेशा शिव जी की शरण प्राप्त होती है.१६.
*
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः || १७||
करें प्रदोषकाल में शिव-पूजन रह अविचल,
पढ़ दशमुखकृत शिवतांडवस्तोत्र यह अविकल.
रमा रमी रह दे समृद्धि, धन, वाहन, परिचर.
करें कृपा शिव-शिवा 'सलिल'-साधना सफलकर..१७..
परम पावन, भूत भवन भगवन सदाशिव के पूजन के नत में रावण द्वारा रचित इस शिवतांडव स्तोत्र का प्रदोष काल में पाठ (गायन) करने से शिवजी की कृपा से रथ, गज, वाहन, अश्व आदि से संपन्न होकर लक्ष्मी सदा स्थिर रहती है.१७.
|| इतिश्री रावण विरचितं शिवतांडवस्तोत्रं सम्पूर्णं||
|| रावणलिखित(सलिलपद्यानुवादित)शिवतांडवस्तोत्र संपूर्ण||
***
छंद परिचय : २
पहचानें इस छंद को, क्या लक्षण?, क्या नाम?
रच पायें तो रचें भी, मिले प्रशंसा-नाम..
*
भोग्य यह संसार हो तुझको नहीं
त्याज्य भी संसार हो तुझको नहीं
देह का व्यापार जो भी कर रहा
गेह का आधार बिसरा मर रहा
*
सरस्वती कुमारी -सर,यह पियूषवर्ष छंद नहीं है क्या?
संजीव वर्मा 'सलिल'- पीयूषवर्ष और सुमेरु दोनों १९ मात्रिक छंद हैं, दोनों में १०-९ पर यति है, अंतर यह कि सुमेरु में हर पंक्ति के आरंभ में लघु अनिवार्य है जबकि पीयूषवर्ष में दो लघु या एक गुरु हो सकता है. इस उदाहरण में हर पंक्ति का आरंभ गुरु से हुआ है, लघु आरम्भ में नहीं है. इसलिए यह एक नया छंद है जिसका नामकरण करना है. यह ३५० नव आविष्कृत छंदों में से एक है. इन तीनों और अन्य अनेकों छंदों की बह्र 'फाइलातुं फाइलातुं फाइलुं' (२१२२ २१२२ २१२) ही होगी. हिंदी में १९ मात्रिक छंदों की संख्या ६७६५ है.
***
वरिष्ठ ग़ज़लकार प्राण शर्मा, लंदन के प्रति भावांजलि
*
फूँक देते हैं ग़ज़ल में प्राण अक्सर प्राण जी
क्या कहें किस तरह रचते हैं ग़ज़ल सम्प्राण जी
.
ज़िन्दगी के तजुर्बों को ढाल देते शब्द में
सिर्फ लफ़्फ़ाज़ी कभी करते नहीं हैं प्राण जी
.
सादगी से बात कहने में न सानी आपका
गलत को कहते गलत ही बिना हिचके प्राण जी
.
इस मशीनी ज़िंदगी में साँस ले उम्मीद भी
आदमी इंसां बने यह सीख देते प्राण जी
.
'सलिल'-धारा की तरह बहते रहे, ठहरे नहीं
मरुथलों में भी बगीचा उगा देते प्राण जी
***
लघुकथा
ज़हर
*
--'टॉमी को तुंरत अस्पताल ले जाओ।' जैकी बोला।
--'जल्दी करो, फ़ौरन इलाज शुरू होना जरूरी है। थोड़ी सी देर भी घातक हो सकती है।' टाइगर ने कहा।
--'अरे! मुझे हुआ क्या है?, मैं तो बीमार नहीं हूँ फ़िर काहे का इलाज?' टॉमी ने पूछा।
--'क्यों अभी काटा नहीं उसे...?' जैकी ने पूछा।
--'काटा तो क्या हुआ? आदमी को काटना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।'
--'है, तो किसी आदमी को काटता। तूने तो नेता को काट लिया। कमबख्त ज़हर चढ़ गया तो भाषण देने, धोखा देने, झूठ बोलने, रिश्वत लेने, घोटाला करने और न जाने कौन-कौन सी बीमारियाँ घेर लेंगी? बहस मत कर, जाकर तुंरत इलाज शुरू करा। जैकी ने आदेश के स्वर में कहा...बाकी कुत्तों ने सहमति जताई और टॉमी चुपचाप सर झुकाए चला गया इलाज कराने।
२९-७-२०१७
***
नवगीत :
*
विंध्याचल की
छाती पर हैं
जाने कितने घाव
जंगल कटे
परिंदे गायब
धूप न पाती छाँव
*
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना
भोला छला गया.
'आऊँ न जब तक झुके रहो' कह
चतुरा चला गया.
समुद सुखाकर असुर सँहारे
किन्तु न लौटे आप-
वचन निभाता
विंध्य आज तक
हारा जीवन-दाँव.
*
शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर
मेकल को ठगते.
रूठी नेह नर्मदा कूदी
पर्वत से झट से.
जनकल्याण करे युग-युग से
जगवंद्या रेवा-
सुर नर देव दनुज
तट पर आ
बसे बसाकर गाँव.
*
वनवासी रह गये ठगे
रण लंका का लड़कर.
कुरुक्षेत्र में बलि दी लेकिन
पछताये कटकर.
नाग यज्ञ कह कत्ल कर दिया
क्रूर परीक्षित ने-
नागपंचमी को पूजा पर
दिया न
दिल में ठाँव.
*
मेकल और सतपुड़ा की भी
यही कहानी है.
अरावली पर खून बहाया
जैसे पानी है.
अंग्रेजों के संग-बाद
अपनों ने भी लूटा-
आरक्षण कोयल को देकर
कागा
करते काँव.
*
कह असभ्य सभ्यता मिटा दी
ठगकर अपनों ने.
नहीं कहीं का छोड़ा घर में
बेढब नपनों ने.
शोषण-अत्याचार द्रोह को
नक्सलवाद कहा-
वनवासी-भूसुत से छीने
जंगल
धरती-ठाँव.
*
२८-७-२०१५
Poem:
RIVER
*
I wish to be a river.
Why do you laugh?
I'm not joking,
I really want to be a river>
Why?
Just because
River is not only a river.
River is civilization.
River is culture.
River is humanity.
River is divinity.
River is life of lives.
River is continuous attempt.
River is journey to progress.
River is never ending roar.
River is endless silence.
That's why river is called 'mother'.
That's why river is worshipped.
'Namami devi Narmade'.
River live for hunman
But human pollute it until it die.
I wish to
Live and die for others.
Bless mother earth with forests.
Finish the thrust.
Regenerate my energy
again and again.
That's why I wish to be a river.
***
26-7-2015

सोमवार, 28 जुलाई 2025

जुलाई २८, कायस्थ, जात, दोहा गजल, नवगीत, पूर्णिका, रुद्राक्ष

सलिल सृजन जुलाई २८
० 
पूर्णिका
जल परी श्रेया बहुत बधाई
करे सफलता नित पहुनाई
लहर लहर ने हहर हहर कर
कीर्ति पताका हँस फहराई
कोशिश की फिर जीत हुई है
मंजिल हाथ तुम्हारे आई
हार न मानी जिसने उसके
गले हार ने शोभा पाई
जीत उसी को मिल पाती है
जो न डरे नापे गहराई
यात्रा अभी 'सलिल' बाकी है
पाना और अधिक ऊँचाई
***
पूर्णिका
.
पोता पढ़कर ढाई आखर
सिखा रहा दादी को आकर
देख समय का फेर चकित मन
भटक रहा तन को भटकाकर
.
कोयल नकल करे कौए की
कहे धन्य चरणों में आकर
.
भोंक रहे हैं छुरी पीठ में 
मित्र नमक मित्रों का खाकर
.
सात जन्म का साथ निभाया
सात दिनों में पति मरवाकर
.
शक-संदेह फूलते-फलते
घात करें विश्वास दिलाकर
.
विमल सलिल में गंद घोलकर
कहते आए नदी नहाकर
***
मुक्तिका
.
रुद्र अक्ष से टपका आँसू
भू पर आ रुद्राक्ष बन गया।
भक्त गणों के सिर पर मानो
शिव-रक्षा का छत्र तन गया।
तन तो तन में तन्मय होकर
तत्सम-तद्भव रहा खोजता
मृण्मय मन-माटी में मिल मन
सृजन पंथ वर स्वेद सन गया।
हुई चेतना संप्राणित जब
मिलन-विरह आनंद-वेदना
ले अँजुरी में प्राण पुलक चुप
मौन समर्पण पर्व मन गया। 
नेह नर्मदा नहा-नहाकर
घाट-घाट पर गेह बनाया
घाट न घर का रहा अंत में
संग न दुर्जन-सज्जन गया।
कौन कपूत सपूत कौन है
दुनिया अब तक जान न पाई
बनते-मिटते रहते मानक
जाने वाला उन्मनी गया।
२८.७.२०२५
०००


दोहा गजल

*

चुग जाते हैं बीज भी, दाना चुगते बाज।

तोड़े तार सितार के, कहें सुधारा साज।।

वादे जुमला हो गुमे, किंतु सध गया काज।

नहीं सियासत को तनिक, लेकिन आई लाज।।

कर अविनाश विनाश को, क्या जाने किस व्याज।

न्योत रही है ज़िंदगी, मरघट को हँस आज।।

पानी खो पानी बहा, आँख गिराती गाज।

खारे सागर सिर धरें, मीठी नदियाँ ताज।।

निर्जीवित संवेदना, हुईं कोढ़ में खाज।

तंत्र लोक पर कर रहा, लोकतंत्र में राज।।

२८.७.२०२५
***
दोहे
*
देकर यह ही समझिए, कभी नहीं कुछ दी न
देकर समझ रहे दिया, तो सचमुच हैं दीन
*
दिल से जिसको चाहते, क्या उसको है भान?
अगणहीन तो व्यर्थ है, उससे कहना 'भा न'
*
उसको मृण्मय जानिए, जिसने खो दी आन
मत उसको मनुहारिए, 'जा का संग निभा न'
*
जब तक मन उन्मन न हो, तब तक तन्मय हो न
शांति वरण करना अगर, कुछ अशान्ति भी बो न
*
तब तक कुछ मिलता कहाँ, जब तक तुम कुछ खो न.
दूध पिलाती माँ नहीं, बच्चा जब तक रो न.
*
खोज-खोजकर थक गया, किंतु मिला इस सा न.
और सभी कुछ मिला गया, मगर मिला उस सा न.
*
बहुत हुआ अब मानिए, रूठे रहिए यों न.
नीर-क्षीर सम हम रहे, मिल आपस में ज्यों न.
***
चौपाल चर्चाः -
'जात' क्रिया (जना/जाया=जन्म दिया, जाया=जगजननी का एक नाम) से आशय 'जन्मना' होता है, जन्म देने की क्रिया को 'जातक कर्म', जन्म लिये बच्चे को 'जातक', जन्म देनेवाली को 'जच्चा' कह्ते हैं. जन्मे बच्चे के गुण-अवगुण उसकी जाति निर्धारित करते हैं. बुद्ध की जातक कथाओं में विविध योनियों में जन्म लिये बुद्ध के ईश्वरत्व की चर्चा है. जाति जन्मना नहीं कर्मणा होती है. जब कोई सज्जन दिखनेवाला व्यक्ति कुछ निम्न हर्कात कर दे तो बुंदेली में एक लोकोक्ति कही जाती है ' जात दिखा गया'. यहाँ भी जात का अर्थ उसकी असलियत या सच्चाई से है. सामान्यतः समान जाति का अर्थ समान गुणों, योग्यता या अभिरुचि से है.
आप ही नहीं हर जीव कायस्थ है. पुराणकार के अनुसार "कायास्थितः सः कायस्थः"
अर्थात वह (निराकार परम्ब्रम्ह) जब किसी काया का निर्माण कर अपने अन्शरूप (आत्मा) से उसमें स्थित होता है, तब कायस्थ कहा जाता है. व्यावहारिक अर्थ में जो इस सत्य को जानते-मानते हैं वे खुद को कायस्थ कहने लगे, शेष कायस्थ होते हुए भी खुद को अन्य जाति का कहते रहे. दुर्भाग्य से लंबे आपदा काल में कायस्थ भी इस सच को भूल गये या आचरण में नहीं ला सके. कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान, आत्मा सो परमात्मा आदि इसी सत्य की घोषणा करते हैं.
जातिवाद का वास्तविक अर्थ अपने गुणों-ग्यान आदि अन्यों को सिखाना है ताकि वह भी समान योग्यता या जाति का हो सके.
२८-७-२०२०
***
कृति समीक्षा :
'दिन कटे हैं धूप चुनते' हौसले ले स्वप्न बुनते
समीक्षाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : दिन कटे हैं धूप चुनते, नवगीत संग्रह, अवनीश त्रिपाठी, प्रथम संस्करण २०१९, आईएसबीएन ९७८९३८८९४६२१६, आकार २२ से.मी. X १४ से.मी., आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, बेस्ट बुक बडीज टेक्नोलॉजीस प्रा. लि. नई दिल्ली, कृतिकार संपर्क - ग्राम गरएं, जनपद सुल्तानपुर २२७३०४, चलभाष ९४५१५५४२४३, ईमेल tripathiawanish9@gmail.com]
*
धरती के
मटमैलेपन में
इंद्रधनुष बोने से पहले,
मौसम के अनुशासन की
परिभाषा का विश्लेषण कर लो।
साहित्य की जमीन में गीत की फसल उगाने से पहले देश, काल, परिस्थितियों और मानवीय आकांक्षाओं-अपेक्षाओं के विश्लेषण का आव्हान करती उक्त पंक्तियाँ गीत और नवगीत के परिप्रेक्ष्य में पूर्णत: सार्थक हैं। तथाकथित प्रगतिवाद की आड़ में उत्सवधर्मी गीत को रुदन का पर्याय बनाने की कोशिश करनेवालों को यथार्थ का दर्पण दिखाते नवगीत संग्रह "दिन कटे हैं धूप चुनते" में नवोदित नवगीतकार अवनीश त्रिपाठी ने गीत के उत्स "रस" को पंक्ति-पंक्ति में उँड़ेला है। मौलिक उद्भावनाएँ, अनूठे बिम्ब, नव रूपक, संयमित-संतुलित भावाभिव्यक्ति और लयमय अभिव्यक्ति का पंचामृती काव्य-प्रसाद पाकर पाठक खुद को धन्य अनुभव करता है।
स्वर्ग निरंतर
उत्सव में है
मृत्युलोक का चित्र गढ़ो जब,
वर्तमान की कूची पकड़े
आशा का अन्वेषण कर लो।
मिट्टी के संशय को समझो
ग्रंथों के पन्ने तो खोलो,
तर्कशास्त्र के सूत्रों पर भी
सोचो-समझो कुछ तो बोलो।
हठधर्मी सूरज के
सम्मुख
फिर तद्भव की पृष्ठभूमि में
जीवन की प्रत्याशावाले
तत्सम का पारेषण कर लो।
मानव की सनातन भावनाओं और कामनाओं का सहयात्री गीत-नवगीत केवल करुणा तक सिमट कर कैसे जी सकता है? मनुष्य के अरमानों, हौसलों और कोशिशों का उद्गम और परिणिति डरे, दुःख, पीड़ा, शोक में होना सुनिश्चित हो तो कुछ करने की जरूरत ही कहाँ रह जाती है? गीतकार अवनीश 'स्वर्ग निरंतर उत्सव में है' कहते हुए यह इंगित करते हैं कि गीत-नवगीत को उत्सव से जोड़कर ही रचनाकार संतुष्टि और सार्थकता के स्वर्ग की अनुभूति कर सकता है।
नवगीत के अतीत और आरंभिक मान्यताओं का प्रशस्तिगान करते विचारधारा विशेष के प्रति प्रतिबद्ध गीतकार जब नवता को विचार के पिंजरे में कैद कर देते हैं तो "झूमती / डाली लता की / महमहाई रात भर" जैसी जीवंत अनुभूतियाँ और अभिव्यक्तियाँ गीत से दूर हो जाती हैं और गीत 'रुदाली' या 'स्यापा' बनकर जिजीविषा की जयकार करने का अवसर न पाकर निष्प्राण हो जाता है। अवनीश ने अपने नवगीतों में 'रस' को मूर्तिमंत किया है-
गुदगुदाकर
मंजरी को
खुश्बूई लम्हे खिले,
पंखुरी के
पास आई
गंध ले शिकवे-गिले,
नेह में
गुलदाउदी
रह-रह नहाई रात भर।
कवि अपनी भाव सृष्टि का ब्रम्हा होता है। वह अपनी दृष्टि से सृष्टि को निरखता-परखता और मूल्यांकित करता है। "ठहरी शब्द-नदी" उसे नहीं रुचती। गीत को वैचारिक पिंजरे में कैद कर उसके पर कुतरने के पक्षधरों पर शब्दाघात करता कवि कहता है-
"चुप्पी साधे पड़े हुए हैं
कितने ही प्रतिमान यहाँ
अर्थ हीन हो चुकी समीक्षा
सोई चादर तान यहाँ
कवि के मंतव्य को और अधिक स्पष्ट करती हैं निम्न पंक्तियाँ-
अक्षर-अक्षर आयातित हैं
स्वर के पाँव नहीं उठते हैं
छलते संधि-समास पीर में
रस के गाँव नहीं जुटते हैं।
अलंकार ले
चलती कविता
सर से पाँव लदी।
अलंकार और श्रृंगार के बिना केवल करुणा एकांगी है। अवनीश एकांगी परिदृश्य का सम्यक आकलन करते हैं -
सौंपकर
थोथे मुखौटे
और कोरी वेदना,
वस्त्र के झीने झरोखे
टाँकती अवहेलना,
दुःख हुए संतृप्त लेकिन
सुख रहे हर रोज घुनते।
सुख को जीते हुए दुखों के काल्पनिक और मिथ्या नवगीत लिखने के प्रवृत्ति को इंगित कर कवि कहता है-
भूख बैठी प्यास की लेकर व्यथा
क्या सुनाये सत्य की झूठी कथा
किस सनातन सत्य से संवाद हो
क्लीवता के कर्म पर परिवाद हो
और
चुप्पियों ने मर्म सारा
लिख दिया जब चिट्ठियों में,
अक्षरों को याद आए
शक्ति के संचार की
अवनीश के नवगीतों की कहन सहज-सरल और सरस होने के निकष पर सौ टका खरी है। वे गंभीर बात भी इस तरह कहते हैं कि वह बोझ न लगे -
क्यों जगाकर
दर्द के अहसास को
मन अचानक मौन होना चाहता है?
पूर्वाग्रहियों के ज्ञान को नवगीत की रसवंती नदी में काल्पनिक अभावों और संघर्षों से रक्त रंजीत हाथ दोने को तत्पर देखकर वे सजग करते हुए कहते हैं-
फिर हठीला
ज्ञान रसवंती नदी में
रक्त रंजित हाथ धोना चाहता है।
नवगीत की चौपाल के वर्तमान परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए वे व्यंजना के सहारे अपनी बात सामने रखते हुए कहते हैं कि साखी, सबद, रमैनी का अवमूल्यन हुआ है और तीसमारखाँ मंचों पर तीर चला कर अपनी भले ही खुद ठोंके पर कथ्य और भाव ओके नानी याद आ रही है-
रामचरित की
कथा पुरानी
काट रही है कन्नी
साखी-शबद
रमैनी की भी
कीमत हुई अठन्नी
तीसमारखाँ
मंचों पर अब
अपना तीर चलाएँ ,
कथ्य-भाव की हिम्मत छूटी
याद आ गई नानी।
और
आज तलक
साहित्य जिन्होंने
अभी नहीं देखा है,
उनके हाथों
पर उगती अब
कविताओं की रेखा।
नवगीत को दलितों की बपौती बनाने को तत्पर मठधीश दुहाई देते फिर रहे हैं कि नवगीत में छंद और लय की अपेक्षा दर्द और पीड़ा का महत्व अधिक है। शिल्पगत त्रुटियों, लय भंग अथवा छांदस त्रुटियों को छंदमुक्ति के नाम पर क्षम्य ही नहीं अनुकरणीय कहनेवालों को अवनीश उत्तर देते हैं-
मात्रापतन
आदि दोषों के
साहित्यिक कायल हैं
इनके नव प्रयोग से सहमीं
कवितायेँ घायल हैं
गले फाड़ना
फूहड़ बातें
और बुराई करना,
इन सब रोगों से पीड़ित हैं
नहीं दूसरा सानी।
'दिन कटे हैं धूप चुनते' का कवि केवल विसंगतियों अथवा भाषिक अनाचार के पक्षधरताओं को कटघरे में नहीं खड़ा करता अपितु क्या किया जाना चाहिए इसे भी इंगित करता है। संग्रह के भूमिकाकार मधुकर अष्ठाना भूमिका में लिखते हैं "कविता का उद्देश्य समाज के सम्मुख उसकी वास्तविकता प्रकट करना है, समस्या का यथार्थ रूप रखना है। समाधान खोजना तो समाज का ही कार्य है।' वे यह नहीं बताते कि जब समाज अपने एक अंग गीतकार के माध्यम से समस्या को उठता है तो वही समाज उसी गीतकार के माध्यम से समाधान क्यों नहीं बता सकता? समाधान, उपलब्धु, संतोष या सुख के आते ही सृजन और सृजनकार को नवगीत और नवगीतकारों के बिरादरी के बाहर कैसे खड़ा किया जा सकता है? अपनी विचारधारा से असहमत होनेवालों को 'जातबाहर' करने का धिकार किसने-किसे-कब दिया? विवाद में न पड़ते हुए अवनीश समाधान इंगित करते हैं-
स्वप्नों की
समिधायें लेकर
मन्त्र पढ़ें कुछ वैदिक,
अभिशापित नैतिकता के घर
आओ, हवं करें।
शमित सूर्य को
बोझल तर्पण
ायासित संबोधन,
आवेशित
कुछ घनी चुप्पियाँ
निरानंद आवाहन।
निराकार
साकार व्यवस्थित
ईश्वर का अन्वेषण,
अंतरिक्ष के पृष्ठों पर भी
क्षितिज चयन करें।
अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए नवगीतकार कहता है-
त्रुटियों का
विश्लेषण करतीं
आहत मनोव्यथाएँ
अर्थहीन वाचन की पद्धति
चिंतन-मनन करें।
और
संस्कृत-सूक्ति
विवेचन-दर्शन
सूत्र-न्याय संप्रेषण
नैसर्गिक व्याकरण व्यवस्था
बौद्धिक यजन करें।
बौद्धिक यजन की दिशा दिखाते हुए कवि लिखता है -
पीड़ाओं
की झोली लेकर
तरल सुखों का स्वाद चखाया...
.... हे कविता!
जीवंत जीवनी
तुमने मुझको गीत बनाया।
सुख और दुःख को धूप-छाँव की तरह साथ-साथ लेकर चलते हैं अवनीश त्रिपाठी के नवगीत। नवगीत को वर्तमान दशक के नए नवगीतकारों ने पूर्व की वैचारिक कूपमंडूकता से बाहर निकालकर ताजी हवा दी है। जवाहर लाल 'तरुण', यतीन्द्र नाथ 'राही, कुमार रवींद्र, विनोद निगम, निर्मल शुक्ल, गिरि मोहन गुरु, अशोक गीते, संजीव 'सलिल', गोपालकृष्ण भट्ट 'आकुल', पूर्णिमा बर्मन, कल्पना रामानी, रोहित रूसिया, जयप्रकाश श्रीवास्तव, मधु प्रसाद, मधु प्रधान, संजय शुक्ल, संध्या सिंह, धीरज श्रीवास्तव, रविशंकर मिश्र बसंत शर्मा, अविनाश ब्योहार आदि के कई नवगीतों में करुणा से इतर वात्सल्य, शांत, श्रृंगार आदि रसों की छवि-छटाएँ ही नहीं दर्शन की सूक्तियों और सुभाषितों से सुसज्ज पंक्तियाँ भी नवगीत को समृद्ध कर नई दिशा दे रही है। इस क्रम में गरिमा सक्सेना और अवनीश त्रिपाठी का नवगीतांगन में प्रवेश नव परिमल की सुवास से नवगीत के रचनाकारों, पाठकों और श्रोताओं को संतृप्त करेगा।
वैचारिक कूपमंडूकता के कैदी क्या कहेंगे इसका पूर्वानुमान कर नवगीत ही उन्हें दशा दिखाता है-
चुभन
बहुत है वर्तमान में
कुछ विमर्श की बातें हों अब,
तर्क-वितर्कों से पीड़ित हम
आओ समकालीन बनें।
समकालीन बनने की विधि भी जान लें-
कथ्यों को
प्रामाणिक कर दें
गढ़ दें अक्षर-अक्षर,
अंधकूप से बाहर निकलें
थोड़ा और नवीन बनें।
'दर्द' की देहरी लांघकर 'उत्सव' के आँगन में कदम धरता नवगीत यह बताता है की अब परिदृश्य परिवर्तित हो गया है-
खोज रहे हम हरा समंदर,
मरुथल-मरुथल नीर,
पहुँच गए फिर, चले जहाँ से,
उस गड़ही के तीर .
नवगीत विसंगतियों को नकारता नहीं उन्हें स्वीकारता है फिर कहता है-
चेत गए हैं अब तो भैया
कलुआ और कदीर।
यह लोक चेतना ही नवगीत का भविष्य है। अनीति को बेबस ऐसे झेलकर आँसू बहन नवगीत को अब नहीं रुच रहा। अब वह ज्वालामुखी बनकर धधकना और फिर आनंदित होने-करने के पथ पर चल पड़ा है -
'ज्वालामुखी हुआ मन फिर से
आग उगलने लगता है जब
गीत धधकने लगता है तब
और
खाली बस्तों में किताब रख
तक्षशिला को जीवित कर दें
विश्व भारती उगने दें हम
फिर विवेक आनंदित कर दें
परमहंस के गीत सुनाएँ
नवगीत को नव आयामों में गतिशील बनाने के सत्प्रयास हेति अवनीश त्रिपाठी बढ़ाई के पात्र हैं। उन्होंने साहित्यिक विरासत को सम्हाला भर नहीं है, उसे पल्लवित-पुष्पित भी किया है। उनकी अगली कृति की उत्कंठा से प्रतीक्षा मेरा समीक्षक ही नहीं पाठक भी करेगा।
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[संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com]
२८-७-२०१९
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नवगीत
*
विंध्याचल की
छाती पर हैं
जाने कितने घाव
जंगल कटे
परिंदे गायब
धूप न पाती छाँव
*
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना
भोला छला गया.
'आऊँ न जब तक झुके रहो' कह
चतुरा चला गया.
समुद सुखाकर असुर सँहारे
किन्तु न लौटे आप-
वचन निभाता
विंध्य आज तक
हारा जीवन-दाँव.
*
शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर
मेकल को ठगते.
रूठी नेह नर्मदा कूदी
पर्वत से झट से.
जनकल्याण करे युग-युग से
जगवंद्या रेवा-
सुर नर देव दनुज
तट पर आ
बसे बसाकर गाँव.
*
वनवासी रह गये ठगे
रण लंका का लड़कर.
कुरुक्षेत्र में बलि दी लेकिन
पछताये कटकर.
नाग यज्ञ कह कत्ल कर दिया
क्रूर परीक्षित ने-
नागपंचमी को पूजा पर
दिया न
दिल में ठाँव.
*
मेकल और सतपुड़ा की भी
यही कहानी है.
अरावली पर खून बहाया
जैसे पानी है.
अंग्रेजों के संग-बाद
अपनों ने भी लूटा-
आरक्षण कोयल को देकर
कागा
करते काँव.
*
कह असभ्य सभ्यता मिटा दी
ठगकर अपनों ने.
नहीं कहीं का छोड़ा घर में
बेढब नपनों ने.
शोषण-अत्याचार द्रोह को
नक्सलवाद कहा-
वनवासी-भूसुत से छीने
जंगल
धरती-ठाँव.
२८-७-२०१५
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चौपाल चर्चाः
अनुगूँजा सिन्हाः मैं आपके प्रति पूरे सम्मान के साथ आपको एक बात बताना चाहती हूँ कि मैं जाति में यकीन नही रखती हूँ और मैं कायस्थ नहीं हूँ।
अनुगून्जा जी!
आपसे सविनय निवेदन है कि-
'जात' क्रिया (जना/जाया=जन्म दिया, जाया=जगजननी का एक नाम) से आशय 'जन्मना' होता है, जन्म देने की क्रिया को 'जातक कर्म', जन्म लिये बच्चे को 'जातक', जन्म देनेवाली को 'जच्चा' कह्ते हैं. जन्मे बच्चे के गुण-अवगुण उसकी जाति निर्धारित करते हैं। बुद्ध की जातक कथाओं में विविध योनियों में जन्म लिये बुद्ध के ईश्वरत्व की चर्चा है। जाति जन्मना नहीं कर्मणा होती है. जब कोई सज्जन दिखनेवाला व्यक्ति कुछ निम्न हरकत कर दे तो बुंदेली में एक लोकोक्ति कही जाती है 'जात दिखा गया'. यहाँ भी जात का अर्थ उसकी असलियत या सच्चाई से है। सामान्यतः समान जाति का अर्थ समान गुणों, योग्यता या अभिरुचि से है.
आप ही नहीं हर जीव कायस्थ है. पुराणकार के अनुसार "कायास्थितः सः कायस्थः"
अर्थात वह (निराकार परम्ब्रम्ह) जब किसी काया का निर्माण कर अपने अन्शरूप (आत्मा) से उसमें स्थित होता है, तब कायस्थ कहा जाता है. व्यावहारिक अर्थ में जो इस सत्य को जानते-मानते हैं वे खुद को कायस्थ कहने लगे, शेष कायस्थ होते हुए भी खुद को अन्य जाति का कहते रहे. दुर्भाग्य से लंबे आपदा काल में कायस्थ भी इस सच को भूल गये या आचरण में नहीं ला सके। कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान, आत्मा सो परमात्मा आदि इसी सत्य की घोषणा करते हैं।
जातिवाद का वास्तविक अर्थ अपने गुणों-ग्यान आदि अन्यों को सिखाना है ताकि वह भी समान योग्यता या जाति का हो सके. समय और परिस्थितियों ने शब्दों के अर्थ भुला दिये, अर्थ का अनर्थ अज्ञानता के दौर में हुआ. अब ज्ञान सुलभ है, हम शब्दों को सही अर्थ में प्रयोग करें तो समरसता स्थापित करने में सहायक होंगे। दुर्भाग्य से जन प्रतिनिधि इसमें बाधक और दलीय स्वार्थों के साधक है।
२८-७-२०१४
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