बुंदेली रामकथा का वैशिष्टय
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बुंदेलखंड - इतिहास के झरोखे से
बुन्देलखंड एक एतिहासिक भूभाग है। बुंदेलखंड की सीमाएँ उत्तर में यमुना और गंगा के मैदान, पूर्व में विंध्य की पहाड़ियाँ और पन्ना-अजयगढ़ श्रेणियाँ, पश्चिम में सिंध और चंबल नदियाँ, तथा मालवा और उदयपुर-ग्वालियर क्षेत्र, दक्षिण में नर्मदा तथा केन और बेतवा की सहायक नदियाँ हैं। इसका वर्णन निम्न पंक्ति में वर्णित है- "इत यमुना, उत नर्मदा, इत चंबल, उत टोंस"।
भूगोलवेत्ता एस.एम. अली ने पुराणों के आधार पर विंध्यक्षेत्र के तीन जनपदों-विदिशा, दशार्ण एवं करुष का परिचय दिया है । उन्होंने विदिशा, की ऊपरी बेतवा के बेसिन से, दशार्ण की धसान और उसकी प्रमुख धाराओं की गहरी घाटियों द्वारा चीरा हुआ सागर प्लेटो तक फैले प्रदेश से तथा करुष की सोन-केन नदियों के बीच के समतलीय मैदान से तथा त्रिपुरी जनपद जबलपुर के पश्चिम में १० मील के लगभग ऊपरी नर्मदा की घाटी तथा जबलपुर, मंडला और नरसिंहपुर जिलों के कुछ भागों से पहचान की है । इतिहासकार जयचंद्र विद्यालंकार ने ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टियों को संतुलित करते हुए बुंदेलखंड को कुछ रेखाओं में समेटने का प्रयत्न किया है- " (विंध्यमेखला का) तीसरा प्रदेश बुंदेलखंड है जिसमें बेतवा (वेत्रवती), धसान (दशार्णा) और केन (शुक्तिमती) के काँठे, नर्मदा की ऊपरली घाटी और पचमढ़ी से अमरकंटक तक ॠक्ष पर्वत का हिस्सा सम्मिलित है । उसकी पूरबी सीमा टोंस (तमसा) नदी है ।"१ यह सीमांकन पुराणों द्वारा निर्देशित जनपदों की सीमा रेखाओं के बहुत निकट है । वर्तमान भौतिक शोधों का आधार पर बुंदेलखंड की सीमाएँ इस प्रकार निर्धारित की गई हैं-" वह क्षेत्र जो उत्तर में यमुना, दक्षिण में विंध्य प्लेटो की श्रेणियों उत्तर-पश्चिम में चम्बल और दक्षिणा-पूर्व में पन्ना-अज़यगढ़ श्रेणियों से घिरा हुआ है, बुंदेलखंड के नाम से जाना जाता है । उसमें उत्तर प्रदेश के चार जिले-जालौन, झांसी, हमीरपुर और बाँदा तथा मध्यप्रदेश के चार जिले-दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर और पन्ना के अलावा उत्तर-पश्चिम में भिंड जिले की लहार और ग्वालियर जिले की भांडेर तहसीलें भी सम्मिलित है ।"२ ये सीमारेखाएँ भू-संरचना की दृष्टि से उचित कही जा सकती है, किंतु इतिहास, संस्कृति और भाषा की दृष्टि से बुंदेलखंड बहुत विस्तृत प्रदेश है।
जनपद भूखंड की एक ऐसी इकाई है, जो उसके निवासियों के विविध संस्कारों की समानता और एकता से निर्मित होती है। इसी वास्तविकता के आधार पर डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने प्राचीन काल के जनपद को एक सांस्कृतिक भौगोलिक इकाई की संज्ञा से अभिहित किया है।३ जनपदीय चेतना का उदय रामायण और महाभारत-काल से हो चुका था। महाभारत कालीन चेदि जनपद की पहचान पार्जिटर ने वर्तमान बुंदेलखंड से की है। उनके मतानुसार चेदि देश उत्तर में यमुना का दक्षिणी तट से दक्षिण में मालवा के पठार और बुंदेलखंड की पहाड़ियों तक तथा दक्षिण-पूर्व में चित्रकूट के उत्तर-पूर्व में बहने वाली कार्वी नदी से उत्तर-पश्चिम में चंबल नदी तक प्रसारित विस्तृत प्रदेश का नाम था।४ डॉ. वी. वी. मिराशी के अनुसार मध्यकाल में उसका विस्तार नर्मदा तक हो गया था। अधिकांश इतिहासकारों ने इस सीमांकन को सही माना है। कुछ इतिहासकार प्राचीन जनपदों के सीमांकन का आधार सांस्कृतिक मानते हैं; लेकिन महाभारतकालीन युद्धों से प्रकट है कि जनपद की सीमाओं का विस्तार राजा और सेना पर निर्भर होता था, संस्कृति के प्रसार-प्रचार पर नहीं । अतएव उसे किस सीमा तक सांस्कृतिक माना जाय, एक टेढ़ा प्रश्न है। फिर भी इन जनपदों में लोकरुचि मूल्यवान् समझी जाती थी और गणराज्यों में गण-परिषद् राजा को पदच्युत कि सकती थी, इस दृष्टि से जनपद को लोकरुचि और लोकसंस्कृति का प्रतिनिधि प्रदेश माना जा सकता है। डॉ. वी. वी. मिराशी के अनुसार मध्यकाल में उसका विस्तार नर्मदा तक हो गया था । अधिकांश इतिहासकारों ने इस सीमांकन को सही माना है। कुछ इतिहासकार प्राचीन जनपदों के सीमांकन का आधार सांस्कृतिक मानते हैं; लेकिन महाभारतकालीन युद्धों से प्रकट है कि जनपद की सीमाओं का विस्तार राजा और सेना पर निर्भर होता था, संस्कृति के प्रसार-प्रचार पर नहीं । तथापि जनपदों में लोकरुचि मूल्यवान् समझी जाती थी और गणराज्यों में गण-परिषद् राजा को पदच्युत कर सकती थी।
चंदेलकाल में जेजाभुक्ति (जिसका समीकरण बुंदेलखंड से किया गया है) की सीमाएँ वर्तमान बुंदेलखंड से विस्तृत थीं । चंदेलों के राज्य में ऐसे भी क्षेत्र थे, जो भिन्न लोकसंस्कृति के थे और जिनकी लोकभाषा बुंदेली न होकर बघेली, कन्नौजी और ब्रजी थी। दीवान प्रतिपाल सिंह के अनुसार पूर्व में टोंस और सोन नदियाँ अथवा बघेलखंड या रीवाँ राज्य है तथा बनारस के निकट बुंदेला नाले तक सिलसिला चला गया है । पश्चिम में बेतवा, सिंध और चंबल नदियाँ, विंध्याचल श्रेणी तथा मालवा, सिंधिया का ग्वालियर राज्य और भोपाल राज्य हैं तथा पूर्वी मालवा इसी में आता है । उत्तर में यमुना और गंगा नदियाँ अथवा इटावा, कानपुर, फतेहपुर, इलाहाबाद, मिर्जापुर तथा बनारस के जिले हैं, दक्षिण में नर्मदा नदी व मालवा हैं।५ दीवान जू ने बुंदेलखंड की बृहत्तर मूर्ति की रचना की है । पं. गोरेलाल तिवारी ने निर्णय लिया है-" इस भू-भाग के उत्तर में यमुना का प्रचंड प्रवाह, पश्चिम में मंद-मंद बहने वाली चंबल और सिंध नदियाँ, दक्षिण में नर्मदा नदी और पूर्व में बघेलखंड है।"६ प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् कनिंघम ने भी सीमा-निर्धारण का प्रयत्न किया है । उनके अनुसार " बुंदेलखंड के अधिकतम विस्तार के समय इसमें गंगा और यमुना का समस्त दक्षिणी प्रदेश जो पश्चिम में बेतवा नदी से पूर्व में चंदेरी और सागर के जिलें सहित विंध्यवासिनी देवी के मंदिर तक तथा दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने के निकट बिल्लहारी तक प्रसरित था, रहा है"।७ लेकिन इस सीमांकन में चंदेलकालीन मूर्तिकला और स्थापत्य का आधार ही मुख्य प्रतीत होता है। इतिहासकार वी. ए. स्मिथ ने भी इसी सीमा को मान्यता प्रदान की है।८
जनपदीय भाषा या बोली, जनपद की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना की मध्यम होती है। लोकसंस्कृति गतिशील होती है, इसलिए उसमें कुछ-न-कुछ परिवर्तन स्वाभाविक है, लेकिन लोकभाषा जनपद के इतिहास और संस्कृति की सतत् साक्षी होती है, इसलिए जनपद की सीमाएँ लोकभाषा के क्षेत्र से निर्धारित करना उचित है। सर्वप्रथम विलियम कैरे ने, जो १७९३ ई. में भारत आए थे, अपने भाषा-सर्वेक्षण के प्रतिवेदन में ३३ भारतीय भाषाओं की सूची में बुंदेलखंडी पर भी विचार किया था और उसका नमूना भी दिया था।९ सन् १८३८ से १८४३ ई. के बीच मे राबर्ट लीच ने बुंदेलखंड की हिन्दवी बोली के व्याकरण का निर्माण किया था ।१० उपरांत सर जार्ज ए. ग्रियर्सन ने बुंदेलखंडी पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया और प्रत्येक क्षेत्र की बुंदेली भाषा पर वीचार करते हुए बुंदेली की सीमाएँ खोजीं। उनके अनुसार बुंदेली भाषा का क्षेत्र बुंदेलखंड के राजनीतिक क्षेत्र से मिलता-जुलता नहीं है। वह उत्तर में चंबल नदी के उस पार आगरा, मैनपुरी, इटावा जिलों के दक्षिणी भागों तक; पश्चिम में चंबल नदी तक न होकर पूर्वी ग्वालियर तक; दक्षिण में सागर और दमोह तक ही नहीं, वरन् भोपाल के पूर्वी ग्वालियर तक; दक्षिण में सागर रऔर दमोह तक ही नहीं, वरन् भोपाल के पूर्वी भागों, नर्मदा के दक्षिण में नरसिंहपुर, होशंगाबाद सिवनी जिलों तथा बालाघाट और छिंदवाड़ा के कुछ क्षेत्रों तक फैला हुआ है । पुर्व में पुरे बाँदा जिले की भाषा बुंदेली नहीं है।११ श्री कृष्णानंद गुप्त ने इसी सीमांकन का अनुसरण किया है।१२ किंतु डॉ. रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल ने और भी विस्तार कर दिया है। उन्होंने उत्तर में पूरा मुरैना जिला, पश्चिम में शिवपुरी और गुना के पूरे जिले तथा दक्षिण में बैतूल जिला अर्थात् ताप्ती नदी की तटीय सीमा तक का पूरा क्षेत्र बुंदेली क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया है।१३ इसी प्रकार डॉ. महेशप्रसाद जायसवाल ने मध्यप्रदेश के दुर्ग जिले का कुछ भाग, उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले का कुछ भाग और महाराष्ट्र के चाँदा, बुल्डाना, भंडारा, अकोला जिलों के भागों को भी समाविष्ट कर लिया है।१४ भाषाविद् डॉ. उदयनारायण तिवारी, डॉ. हरदेव बाहरी आदि ने ग्रियर्सन की सीमाओं को ही मान्यता दी है।१५ वास्तव में, ग्रियर्सन के भाषा-सर्वेक्षण के बाद कोई दूसरा योजनाबद्ध प्रयत्न नहीं किया गया। डॉ। धीरेन्द्र वर्मा तथा नर्मदा प्रसाद गुप्त के अनुसार बुंदेलखंड की भौगोलिक, सांस्कृतिक और भाषिक इकाइयों में अद्भुत समानता है । भूगोलवेत्ताओं का मत है कि बुंदेलखंड की सीमाएँ स्पष्ट हैं, और भौतिक तथा सांस्कृतिक रूप में निश्चित हैं । वह भारत का एक ऐसा भौगोलिक क्षेत्र है, जिसमें न केवल संरचनात्मक एकता, भौम्याकार की समानता और जलवायु की समता है, वरन् उसके इतिहास, अर्थव्यवस्था और सामाजिकता का आधार भी एक ही है ।
समस्त बुंदेलखंड में सच्ची सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक एकता है ।१६ बुंदेलखंड प्रदेश में निम्नलिखित जिले और उनके भाग आते हैं और उनसे इस प्रदेश की एक भौगोलिक, भाषिक एवं सांस्कृतिक इकाई बनती है। लगभग डेढ़ लाख वर्ग किमी में फैले क्षेत्र को बुन्देलखण्ड की वर्तमान आवादी लगभग 3 करोङ से ज्यादा हैं। इस क्षेत्र में प्रायः पठारी भूमि है। जहां औसत वर्षा 60 - 100 सेमी के लगभग होती हैं। बुन्देलखण्ड क्षेत्र को भारत में दलहन (अरहर, चना) व तिलहन (अलसी) उपज का सबसे बड़ा उत्पादक क्षेत्र होने का गौरव प्राप्त हैं। यहां की प्रमुख नदियां यमुना, बेतवा , केन, पहूज, धसान, चम्बल, काली, सिन्ध, टौंस व सोन हैं। सागौन, शीशम, चन्दन, आम, महुआ आदि प्रमुख वन सम्पदायें हैं। शौर्य और श्रृंगार की धरती बुन्देलखण्ड की कला संस्कृति सबसे अनूठी है। यहां बोली जाने वाली मधुर बोली बुन्देली हैं। संयुक्त विन्ध्यप्रदेश का गठन १२ मार्च १९४८ को किया गया था। संयुक्त विन्ध्यप्रदेश के दो मुख्यालय अ- बुन्देलखण्ड राजधानी नौगाँव (मुख्यमंत्री कामता प्रसाद सक्सेना) तथा आ- बघेलखण्ड राजधानी रीवा (मुख्यमंत्री रीवा नरेश) थे।
(१) उत्तर प्रदेश के जालौन, झाँसी, ललितपुर, हमीरपुर जिले और बाँदा जिले की नरैनी एवं करबी तहसीलों का दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग तथा (२) मध्यप्रदेश के पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, दतिया, सागर, दमोह, नरसिंहपुर जिलेतथा जबलपुर जिले की जबलपुर एवं पाटन तहसीलों का दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग; होशंगाबाद जिले की होशंगाबाद और सोहागपुर तहसीलें; रायसेन जिले की उदयपुर, सिलवानी, गौरतगंज, बेगमगंज, बरेली तहसीलें एवं रायसेन, गौहरगंज तहसीलों का पूर्वी भाग; विदिशा जिले की कुरवई तहसील और विदिशा, बासौदा, सिरोंज तहसीलों के पुर्वी भाग; गुना जिले की अशोकनगर (पिछोर) और मुंगावली तहसीलों; शिवपुरी जिले की पिछोर और करैरा तहसीलें, ग्वालियर की पिछोर, भांडेर तहसीलों और ग्वालियर गिर्द का उत्तर-पूर्वी भाग; किंभड जिले की लहर तहसील का दक्षिणी भाग।
बुन्देलखंडी राम कथा
विविध काल खंडों में बुंदेलखंड और गोंडवाना संज्ञा से केन्द्रीय भारत का बाद भाग संबोधित किया जाता रहा है। लोकमाता वीरांगना दुर्गावती के गुरु स्वामी नरहरी दास (तपस्थली नेताजी सुभाष चंद्र बोस मेडिकल कॉलेज जबलपुर के निकट, पिसनहारी मढ़िया के बाजू में पहाड़ी पर) गोस्वामी तुलसीदास जी (रामबोला) के भी गुरु थे। बालक रामबोला गुरु के साथ बुंदेलखंड में भ्रमण करते समय बुंदेली भाषा और संस्कृति से परिचित होता रहा। बुंदेली का विकास बृज भाषा से मान्य है। अवधी, कन्नौजी और भोजपुरी क्षेत्र से निरंतर संपर्क के कारण इस अञ्चल की लोक भाषा में शब्दों का आदान-प्रदान करने की प्रवृत्ति रही है। यही प्रवृत्ति रामचरित मानस में भी है। इसीलिए मानस को बुंदेली, बृज, भोजपुरी, कन्नौजी और अवधी भाषी अपनी बोली की कृति मानते रहे हैं। वास्तव में मानस इनमें से किसी भी एक बोलो में रची गई कृति नहीं है, वह इन सबके शब्द भंडार से समृद्ध-संपन्न कृति है इसलिए हर अञ्चल के निवासी को वह अपनी सी प्रतीत होती है। तुलसी लोक कवि थे, उन्होंने राज्याश्रय ठुकराकर रामाश्रय ग्रहण किया था। राम अवध, बुंदेलखंड, छतीसगढ़ होते हुए दक्षिण गए थे। तुलसी भी अपने गुरु के साथ इसी अंचल में प्रवास करते रहे थे। यात:, उनकी कृति की भाषा इस अंचल से प्रभावित होना स्वभाविक है।
की बुंदेली रामायण भी इसका अपवाद नहीं है। मौखिक रूप में गाई जाने वाली बुंदेली रामायण में निम्नलिखित घटनाओं को जोड़ा गया है ताकि वाल्मीकि रामायण के कुछ अनुत्तरित प्रश्नों पर प्रकाश डाला जा सके जैसे कि राम की बहन कौन थी?
राम की बहन शांता के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है। वाल्मीकि रामायण में उनका ज़िक्र सिर्फ़ एक बार आता है, जब दशरथ ने ऋषि ऋष्यश्रृंग को पुत्रकामेष्ठी का यज्ञ संपन्न कराने के लिए आमंत्रित किया था , ताकि उन्हें पुत्र और राज्य का उत्तराधिकारी मिल सके। यज्ञ पूरा होने के बाद दशरथ ने अपनी बेटी शांता का विवाह ऋष्यश्रृंग से कर दिया, ताकि वे यज्ञ संपन्न कराने के बदले में अपनी बेटी शांता का विवाह कर सकें। वाल्मीकि हमें शांता के जन्म के बारे में कुछ नहीं बताते। यह सवाल इसलिए दिलचस्प हो जाता है क्योंकि दशरथ की सभी रानियाँ निःसंतान थीं। तो फिर शांता की माँ कौन थी? बुंदेली रामायण में इस कमी को निम्नलिखित कहानी के ज़रिए दूर करने की कोशिश की गई है।
एक बार राजा दशरथ और उनके मित्र राजा जनक शिकार के लिए निकले थे। जब वे अपने शिकार का पीछा कर रहे थे, तो राजा दशरथ अनजाने में एक ऐसे जंगल में चले गए जहाँ पुरुषों का प्रवेश वर्जित था। मान्यता थी कि जंगल में स्त्री शक्ति होती है और यह जंगल महिलाओं के लिए पूरी तरह से आरक्षित था, और अगर कोई पुरुष जंगल में प्रवेश करता, तो वह महिला बन जाता। दशरथ, संयोग से जंगल में घुस गए और एक महिला बन गए। कई सालों तक वे महिला के रूप में घूमते रहे। फिर एक दिन उनकी मुलाकात एक पुरुष से हुई, उन्होंने उसके साथ संबंध बनाए और एक बच्चे को जन्म दिया। इस महिला का नाम शांता रखा गया। शांता के जन्म के बाद, दशरथ ने अपना पुरुषत्व वापस पा लिया और बच्चे को लेकर अपने महल में लौट आए। इस तरह शांता दशरथ की पहली संतान बन गई, लेकिन वे उसकी माँ थे।
एक और रहस्यमय प्रश्न जिसका कोई उत्तर नहीं है, वह यह है कि जनक ने सीता स्वयंवर में दशरथ के पुत्रों को क्यों नहीं आमंत्रित किया ?
जनक और दशरथ बहुत अच्छे मित्र थे, फिर भी जब जनक ने अपनी प्यारी बेटी का विवाह करने का फैसला किया, तो उन्होंने दशरथ के बेटों को स्वयंवर के लिए योग्य राजकुमार के रूप में आमंत्रित नहीं किया । क्यों? वास्तव में वाल्मीकि ने अपनी रामायण में इसका कारण कभी नहीं बताया। लेकिन बुंदेली रामायण इस रहस्य का स्पष्टीकरण देती है।
एक बार राजा जनक शिकार खेलते हुए राजा दशरथ के क्षेत्र में प्रवेश कर गए। उन्होंने अपने शिकार को मारने के लिए जो बाण चलाया वह एक गाय को छेदकर वहीं मर गया। जनक को अपने द्वारा किए गए पाप का एहसास हुआ और उन्होंने तुरंत दशरथ के दरबार में एक दूत भेजकर उनसे उनके पाप के प्रायश्चित के लिए उचित दंड देने को कहा। लेकिन दशरथ व्यस्त थे और उन्होंने दूत से कहा, "आप अयोध्या के किसी भी नागरिक से दंड देने के लिए कह सकते हैं और वह मेरा वचन माना जाएगा"। दूत दशरथ के शब्दों के साथ जनक के पास लौट आया। जनक ने दशरथ द्वारा अपमानित महसूस किया क्योंकि उन्होंने अपने मित्र जनक की दुर्दशा को संबोधित करने के लिए समय नहीं निकाला। वह अयोध्या के एक ऐसे नागरिक की खोज में निकल पड़े जो गो-हत्या , गाय की हत्या के घोर पाप से मुक्ति का उपाय बता सके।
रास्ते में उनकी मुलाकात एक बुजुर्ग व्यक्ति से हुई जिसने जनक से पूछा कि वह उदास और निराश क्यों हैं। जनक ने उन्हें बताया कि उन्होंने गाय की हत्या करके क्या पाप किया था और साथ ही राजा दशरथ का फैसला भी बताया। बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा "हे राजन, चिंता न करें मैं आपकी परेशानी से आपको बाहर निकालूंगा। मुझे गाय दिखाओ।" जनक ने उन्हें मृत गाय दिखाई। जैसे ही बूढ़े व्यक्ति ने गाय को छुआ वह वापस जीवित हो गई। बूढ़ा व्यक्ति जनक की ओर मुड़ा और कहा, "हे जनक अब जब गाय जीवित है तो कोई पाप नहीं है। बिना किसी पश्चाताप के अपने राज्य वापस जाओ।" जनक ने अनुमान लगाया कि बूढ़ा व्यक्ति अयोध्या का एक महान ऋषि होगा और बड़ी श्रद्धा के साथ उसके पैर छूने की कोशिश की। लेकिन बूढ़े व्यक्ति ने उन्हें अपने पैरों पर गिरने से रोक दिया और कहा, "हे राजा जनक, मेरे पैर मत छुओ
वर्षों बाद, जब अपनी सुंदर पुत्री के स्वयंवर के लिए विश्व भर के सभी योग्य राजकुमारों को निमंत्रण भेजने का समय आया , तो जनक को यह घटना याद आई। उन्होंने मन ही मन सोचा। दशरथ हमेशा अपनी प्रजा में व्यस्त रहते हैं और उन्हें अपने प्रिय मित्र की सहायता करने का भी समय नहीं मिलता। राजा के स्थान पर एक साधारण सफाईकर्मी ने मुझे मेरे पाप से मुक्त करने का निर्णय सुनाया। यदि मैं निमंत्रण भेजूं और दशरथ उसकी जगह किसी तुच्छ व्यक्ति को भेज दें और यदि वह शिवधनुष को उसी प्रकार उठा ले, जिस प्रकार सफाईकर्मी ने मृत गाय को जीवित किया था, तो क्या होगा? मुझे अपनी प्यारी पुत्री सीता का विवाह किसी तुच्छ सफाईकर्मी से करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में मैं दशरथ को निमंत्रण नहीं भेजना चाहूंगा। इस प्रकार राम और लक्ष्मण बिन बुलाए अतिथि के रूप में सीता के स्वयंवर में भाग लेते हैं।
वाल्मीकि रामायण में एक और सवाल अनुत्तरित रह गया है कि
सीता ने अपने सारे राजसी आभूषण त्यागकर राम के साथ वनवास के लिए प्रस्थान किया था, लेकिन फिर भी उनके पास दो स्वर्ण आभूषण कैसे थे? बुंदेली रामायण इस विसंगति को इस तरह से समझाती है।
चौदह वर्ष का वनवास पूरा होने के बाद राम, लक्ष्मण और सीता अयोध्या लौटते हैं। केवट, केवट उन्हें वापस अयोध्या की धरती पर लाता है। जैसे ही तीनों अयोध्या की मिट्टी को छूते हैं, केवट बड़ी श्रद्धा के साथ राम के चरण स्पर्श करता है। राम को लगता है कि उन्हें केवट के रूप में उनकी सेवा के लिए उन्हें कुछ शुल्क देना चाहिए। लेकिन राम के पास देने के लिए कुछ नहीं होता। राम के पास खड़ी सीता को राम की दुविधा का एहसास होता है और वह जल्दी से अपनी उंगली से अंगूठी निकालकर राम को दे देती है। राम प्रसन्न होते हैं और केवट को केवट के रूप में उनकी सेवाओं के लिए अंगूठी प्रदान करते हैं।
मन में यह प्रश्न आता है कि चूंकि राम, लक्ष्मण और सीता वनवास जाते समय अपने सभी राजसी आभूषण और प्रतीक चिन्ह पीछे छोड़ गए थे, तो सीता की उंगलियों में राजसी अंगूठी कैसे थी?
जब सीता ने अपने सारे आभूषण उतार दिए और अपने पति की तरह संन्यासी के वस्त्र पहन लिए, तो उन्होंने अपने पास दो आभूषण रख लिए। चूड़ामणि, जो उन्होंने हनुमान को दी और अंगूठी, जो उन्होंने केवट को दी। वनवास जाते समय सीता ने ये दोनों आभूषण अपने पास क्यों रखे?
सीता के पास बचे इन दो आभूषणों के पीछे की कहानी यह है कि ये दोनों आभूषण अयोध्या के राजकोष से नहीं थे। ये दिव्य वस्तुएं थीं जो कभी शिव की थीं। शिव और पार्वती के विवाह के समय शिव ने अपनी कलाई में नागों का एक कंगन लपेटा हुआ था। लेकिन शिव ने जल्दबाजी में उस कंगन को इतना कस कर बांध दिया था कि दर्द के कारण उसकी आंखों से दो आंसू की बूंदें गिर गईं और वे दो रत्नों में बदल गईं। शिव ने इन रत्नों को अपने पास सुरक्षित रख लिया।
ऐसा कहा जाता है कि सीता की माँ सुनैना एक नाग की बेटी थीं जो शिव की बहुत बड़ी भक्त थीं। जनक से विवाह के दौरान शिव ने ये दो रत्न उपहार में दिए थे, एक चूड़ामणि के रूप में और दूसरा अंगूठी में जड़ा हुआ, अपने भक्त की बेटी सुनैना को। सुनैना ने बदले में चूड़ामणि सीता को भेंट की।
रत्न जड़ित अंगूठी के बारे में एक और कहानी है जो बताती है कि यह सीता के पास कैसे आई। जब जनक समधी या दुल्हन के पिता के रूप में दशरथ से मिले, तो परंपरा के अनुसार उन्हें दूल्हे के पिता दशरथ को एक उपहार देना था। उन्होंने सुनैना से कहा कि वह अपने खजाने से सबसे अच्छा रत्न लाकर दशरथ को भेंट करें। सुनैना ने उन्हें वह अंगूठी दी जो उन्हें भगवान शिव ने दी थी।
जब राम जनक द्वारा आयोजित स्वयंवर में जीतने के बाद अपनी दुल्हन को पहली बार अयोध्या लाए , तो प्रथा के अनुसार, सास को बहू को घर में प्रवेश दिलाते समय एक आभूषण उपहार में देना था। इस प्रथा को मुँह देखी के रूप में जाना जाता है । कौशल्या ने इस संस्कार को करने के लिए दशरथ से अपने खजाने से सर्वश्रेष्ठ आभूषण देने के लिए कहा। दशरथ ने उन्हें वह अंगूठी दी, जो उन्हें जनक से मिली थी। इस प्रकार कौशल्या ने सीता को वही अंगूठी दी, जो शिव ने सुनैना को उपहार में दी थी।
इस प्रकार ये दोनों आभूषण सीता के पास रहे क्योंकि ये भगवान शिव से प्राप्त दिव्य वस्तुएं थीं। सीता ने अपने वनवास के दौरान इन दोनों आभूषणों को अपने साथ रखा क्योंकि ये दैवीय मूल के आभूषण थे और साथ ही ये शाही खजाने से संबंधित नहीं थे।
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१. भारतभूमि और उसके निवासी, जयचंद्र विद्यालंकार, १९३१. पृ. ६५।
२. इंडिया : ए रीजनल ज्यॉग्रफी, सं. आर. एल. सिंह, १९७१, पृ. ५९७।
३. मार्कण्डेय पुराण (एक सांस्कृतिक अध्ययन), वासुदेव शरण अग्रवाल, १९६१. पृ. १५२।
४. मार्कण्डेय पुराण (अंग्रेजी अनुवाद), एफ. ई. पार्जिटर, पृ. ३५९।
५. बुदेलखंड का इतिहास, प्रथम भाग, दीवान प्रतिपाल सिंह, सं. १९८५, पृ. ५.
६. बुंदेलखंड का संक्षिप्त इतिहास, गोरेलाल तिवारी, सं. १९९०, पृ. १। ७. दि ऐनशिएंट ज्यॉग्रफी आॅव इण्डिया, ए. कनिंघम, १९६३, पृ. ४०६।
८. एपिग्रैफिया इंडिका, भाग ३०, पृ. १३०।
९. भारत का भाषा-सर्वेक्षण, खंड १, भाग १, अनु. उदयनारायण तिवारी, १९५९, भूमिका, पृ. २४।
१०. वही, पृ. २९।
११. लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडिया, वाल्युम ९, प्रथम संस्करण, ग्रियर्सन, पृ. ८६।
१२. बुंदेलखंडी भाषा और साहित्य, कृष्णानंद गुप्त, १९६०, पृ. २।
१३. बुंदेली का भाषाशास्रीय अध्ययन, डॉ. रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल, १९६३, पृ. एवं भाषा क्षेत्र का मानचित्र।
१४. ए लिंग्विस्टिक स्टडी आॅव बुंदेली, डॉ. एम. पी. जायसवाल, १९६२, इंट्रोडक्शन, पृ. ३।
१५. हिंदी भाषा का उद्गम ओर विकास, सं. २०२६, पृ. २५४ एवं हिंदी : उद्भव, विकास और रुप, १९७० ई. पृ. ८५ ।
१६. इंडिया : ए रीजनल ज्यॉग्रफी, सं. आर. एल. सिंह, १९७१, पृ. ३६,६१५,६२०
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