बुधवार, 30 अप्रैल 2025

अप्रैल ३०, सॉनेट, कोरोना, लघुकथा, राजीव छंद, साधना छंद, रासलीला,

सलिल सृजन अप्रैल ३०
अंतर्राष्ट्रीय जाज़ दिवस
https://www.facebook.com/sanjiv.salil/videos/10217635823869612?idorvanity=305272936324664
जीवन मधुवन
अपर्णा हुई शाख 
धरा ने धरा धैर्य
तना था तना, न झुक
गगन ने लुटाई छाँह
पवन ने पकड़ बाँह
सलिल से कहा 'सींच
जड़ जड़ न हो सके,
पल्लव उगें नए
कलियाँ जवान हों
तितलियाँ उड़ान भर
ख्वाब की तामीर कर
आसमान हाथ में
उठा सकें, सुना सकें
गीत नए मीत को।
फूल उठा फूल झूम
बगिया में मची धूम
नव बहार आ गई।
लोरियाँ, प्रयाण गीत
सुपर्णा सुना गई।
दिनकर का थाम हाथ
ऊषा हँस उठा माथ
जी वन कह जीवन का
मधुवन महका गई।
३०.४.२०२५
०००
सॉनेट (इटेलीयन)
यह मेहनत करता, वह खाता,
यह पानी पी भूख मिटाता,
वह बोटी खा मौज मनाता,
यह मुश्किल से रोटी पाता।
यह मत दे, वह सत्ता पाता,
यह सरहद पर जान गँवाता,
वह घड़ियाली अश्रु बहाता,
यह उसके हित जान गँवाता।
यह श्रम; वह पूँजीपति; चित-पट,
इसे रौंदकर ठठा रह वह,
यह-वह दो पर अंत एक है।
यह बेरंग और वह गिरगिट,
बना रहा यह; मिटा रहा वह,
यह भी; वह भी राख शेष है।
३०.४.२०२४
•••
सॉनेट
आदिमानव
आदिमानव भूमिसुत था
नदी माता, नभ पिता कह
पवन पावक पूजता था
सलिल प्रता श्रद्धा विनत वह
उषा संध्या निशा रवि शशि
वृक्ष प्रति आभार माना
हो गईं अंबर दसों दिशि
भूख मिटने तलक खाना
छीनने या जोड़ने की
लत न उसने सीख पाली
बम बनाने फोड़ने की
उठाई थी कब भुजाली?
पुष्ट था खुश आदिमानव
तुष्ट था हँस आदिमानव
३०-४-२०२२
•••
सॉनेट
परीक्षा
पल पल नित्य परीक्षा होती
उठे बढ़े चल फिसल सम्हल कर
कदम कदम धर, विहँस पुलककर
इच्छा विजयी धैर्य न खोती।
अकरणीय क्या, क्या करना है?
खुद ही सोचो सही-गलत क्या?
आगत-अब क्या, रहा विगत क्या?
क्या तजना है, क्या वरना है?
भाग्य भोगना या लिखना है
कब किसके जैसे दिखना है
अब झुकना है, कब अड़ना है?
कोशिश फसल काटती-बोती
भाग्य भरोसे रहे न रोती
पल-पल नित्य परीक्षा होती।
ज्ञानगंगा
३०-४-२०२२
•••
कोरोना क्षणिका
*
काहे को रोना?
कोरो ना हाथ मिला
सत्कार सखे!
कोरोना झट
भेंट शत्रु को कर
उद्धार सखे!
*
को विद? पूछे
कोविद हँसकर
विद जी भागे
हाथ समेटे
गले न मिलते
करें नमस्ते!
*
गीत-अगीत
प्रगीत लिख रहे
गद्य गीत भी
गीतकार जी
गीत करे नीलाम
नवगीत जी
*
टाटा करते
हाय हाय रुचता
बाय बाय भी
बाटा पड़ते
हाय हाय करते
बाय फ्रैंड जी
*
केक लाओ जी!
फरमाइश सुन
पति जी हैरां
मी? ना बाबा
मीना! बाहर खड़ा
सिपाही मोटा
*
रस - हास्य, छंद वार्णिक षट्पदी, यति ५७५५७५, अलंकार - अनुप्रास, यमक, पुनरुक्ति, शक्ति - व्यंजना।
३०-४-२०२०
***
मुक्तक:
पाँव रख बढ़ते चलो तो रास्ता मिल जाएगा
कूक कोयल की सुनो नवगीत खुद बन जाएगा
सलिल लहरों में बसा है बिम्ब देखो हो मुदित
ख़ुशी होगी विपुल पल में, जन्म दिन मन जाएगा
२६-१०-२०१५
***
लघुकथा
अंगार
*
वह चिंतित थी, बेटा कुछ दिनों से घर में घुसा रहता, बाहर निकलने में डरता। उसने बेटे से कारण पूछा। पहले तो टालता रहा, फिर बताया उसकी एक सहपाठिनी भयादोहन कर रही है।
पहले तो पढ़ाई के नाम पर मिलना आरंभ किया, फिर चलभाष पर चित्र भेज कर प्रेम जताने लगी, मना करने पर अश्लील संदेश और खुद के निर्वसन चित्र भेजकर धमकी दी कि महिला थाने में शिकायत कर कैद करा देगी। बाहर निकलने पर उस लड़की के अन्य दोस्त मारपीट करते हैं।
स्त्री-विमर्श के मंच पर पुरुषों को हमेशा कटघरे में खड़ा करती आई थी वह। अभी भी पुत्र पर पूरा भरोसा नहीं कर पा रही थी। बेटे के मित्रों तथा अपने शुभेच्छुओं से- विमर्श कर उसने बेटे को अपराधियों को सजा दिलवाने का निर्णय लिया और बेटे को महाविद्यालय भेजा। उसके सोचे अनुसार उस लड़की और उसके यारों ने लड़के को घेर लिया। यह देखते ही उसका खून खौल उठा। उसने आव देखा न ताव, टूट पड़ी उन शोहदों पर, बेटे को अपने पीछे किया और पकड़ लिया उस लड़की को, ले गई पुलिस स्टेशन। उसने वकील को बुलाया और थाने में अपराध पंजीकृत करा दिया। आधुनिका का पतित चेहरा देखकर उसका चेहरा और आँखें हो रही थीं अंगार।
***
लघुकथा
भवानी
*
वह महाविद्यालय में अध्ययन कर रही थी। अवकाश में दादा-दादी से मिलने गाँव आई तो देखा जंगल काटकर, खेती नष्ट कर ठेकेदार रेत खुदाई करवा रहा है। वे वृक्ष जिनकी छाँह में उसने गुड़ियों को ब्याह रचाए थे, कन्नागोटी, पिट्टू और टीप रेस खेले थे, नौ दुर्गा व्रत के बाद कन्या भोज किया था और सदियों की शादी के बाद रो-रोकर उन्हें बिदा किया था अब कटनेवाले थे। इन्हीं झाड़ों की छाँह में पंचायत बैठती थी, गर्मी के दिनों में चारपाइयाँ बिछतीं तो सावन में झूल डल जाते थे।
हर चेहरे पर छाई मुर्दनी उसके मन को अशांत किए थी। रात भर सो नहीं सकी वह, सोचता रही यह कैसा लोकतंत्र और विकास है जिसके लिए लोक की छाती पर तंत्र दाल दल रहा है। कुछ तो करना है पर कब, कैसे?
सवेरे ऊगते सूरज की किरणों के साथ वह कर चुकी थी निर्णय। झटपट महिलाओं-बच्चों को एकत्र किया और रणनीति बनाकर हर वृक्ष के निकट कुछ बच्चे एकत्र हो गए। वृक्ष कटने के पूर्व ही नारियाँ और बच्चे उनसे लिपट जाते। ठेकेदार के दुर्गेश ने बल प्रयोग करने का प्रयास किया तो अब तक चुप रहे पुरुष वर्ग
का खून खौल उठा। वे लाठियाँ लेकर निकल आए।
उसने जैसे-तैसे उन्हें रोका और उन्हें बाकी वृक्षों की रक्षा हेतु भेज दिया। खबर फैला अखबारनवीस और टी. वी. चैनल के नुमाइंदों ने समाचार प्रसारित कर दिया।
एक जग-हितकारी याचिका की सुनवाई को बाद न्यायालय ने परियोजना पर स्थगन लगा गिया। जनतंत्र में जनमत की जीत हुई।
उसने विकास के नाम पर किए जा रहे विनाश का रथ रोक दिया था और जनगण ने उसे दे दिया था एक नया नाम भवानी।
***
मुक्तिका
पंच मात्रिक राजीव छंद
गण सूत्र: तगण
मापनी २२१
*
दो तीन
क्यों दीन?
.
खो चैन
हो चीन
.
दो झेल
दे तीन
.
पा नाग
हो बीन
.
दीदार
हो लीन
.
गा रोज
यासीन
.
जा बोल
आमीन
.
यासीन कुरआन की एक आयत
***
संवस
३०-४-२०१९
***
मुक्तिका
छंद: साधना छंद
विधान: पंचमात्रिक, पदांत गुरु।
गण सूत्र: रगण
*
एक दो
मूक हो
भक्त हो?
वोट दो
मन नहीं?
नोट लो
दोष ही
'कोट' हो
हँस छिपा
खोट को
विमत को
सोंट दो
बात हर
चोट हो
३०-४-२०१९
***
मुक्तिका: ग़ज़ल
*
निर्जीव को संजीव बनाने की बात कर
हारे हुओं को जंग जिताने की बात कर
'भू माफिये'! भूचाल कहे: 'मत जमीं दबा
जो जोड़ ली है उसको लुटाने की बात कर'
'आँखें मिलायें' मौत से कहती है ज़िंदगी
आ मारने के बाद जिलाने की बात कर'
तूने गिराये हैं मकां बाकी हैं हौसले
काँटों के बीच फूल खिलाने की बात कर
हे नाथ पशुपति! रूठ मत तू नीलकंठ है
हमसे ज़हर को अमिय बनाने की बात कर
पत्थर से कलेजे में रहे स्नेह 'सलिल' भी
आ वेदना से गंग बहाने की बात कर
नेपाल पालता रहा विश्वास हमेशा
चल इस धरा पे स्वर्ग बसाने की बात कर
३०-४-२०१५
***
गीत:
समय की करवटों के साथ
*
गले सच को लगा लूँ मैँ समय की करवटों के साथ
झुकाया, ना झुकाऊँगा असत के सामने मैं माथ...
*
करूँ मतदान तज मत-दान बदलूँगा समय-धारा
व्यवस्था से असहमत है, न जनगण किंतु है हारा
न मत दूँगा किसी को यदि नहीं है योग्य कोई भी-
न दलदल दलोँ की है साध्य, हमकों देश है प्यारा
गिरहकट, चोर, डाकू, मवाली दल बनाकर आये
मिया मिट्ठू न जनगण को तनिक भी क़भी भी भाये
चुनें सज्जन चरित्री व्यक्ति जो घपला प्रथा छोड़ें
प्रशासन को कसे, उद्यम-दिशा को जमीं से जोड़े
विदेशी ताकतों से ले न कर्जे, पसारे मत हाथ.…
*
लगा चौपाल में संसद, बनाओ नीति जनहित क़ी
तजो सुविधाएँ-भत्ते, सादगी से रहो, चाहत की
धनी का धन घटे, निर्धन न भूखा कोई सोयेगा-
पुलिस सेवक बने जन की, न अफसर अनय बोयेगा
सुनें जज पंच बन फ़रियाद, दें निर्णय न देरी हो
वकीली फ़ीस में घर बेच ना दुनिया अँधेरी हो
मिले श्रम को प्रतिष्ठा, योग्यता ही पा सके अवसर
न मँहगाई गगनचुंबी, न जनता मात्र चेरी हो
न अबसे तंत्र होगा लोक का स्वामी, न जन का नाथ…
३०-४-२०१४
***
रासलीला :
*
आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.
रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.
झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.
फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.
कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.
कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.
अधर शतदल पाँखुरी से रसभरे हैं.
नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.
नील आँचल पर टके तारे चमकते.
शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.
खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.
राधिका है साधिका जग को बताते.
कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.
तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.
सिर्फ तू ही तो नहीं; मैं भी यहाँ हूँ.
खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.
चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.
करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.
अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.
कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.
भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.
मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.
कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है?
कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?
पग युगल द्वय कब धरा पर, कब अधर में?
कौन बूझे?, कौन-कब, किसकी नजर में?
कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?
कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?
क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?
क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?
कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाए.
सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाए.
जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.
कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?
ताल में बेताल का कब विलय होता?
नाद में निनाद मिल कब मलय होता?
थाप में आलाप कब देता सुनायी?
हर किसी में आप वह देता दिखायी?
अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?
कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?
कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?
कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?
कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?
कब नयन में बस नयन नयना निरखते?
कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?
नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.
भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.
कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?
द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?
कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?
कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?
कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?
अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.
अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.
नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.
गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.
आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.
साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.
अंत में अनंत कैसे आ समाया?
दिक् में दिगंत जैसे था समाया.
कंकरों में शंकरों का वास देखा.
और रज में आज बृज ने हास देखा.
मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.
नटी नट में, नट नटी में रास देखा.
रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.
रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.
रास जिसमें आम भी था, खास भी था.
रास जिसमें लीन खासमखास भी था.
रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.
रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.
रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.
रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.
रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.
रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.
रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.
रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..
रासलीला विहारी खुद नाचते थे.
रासलीला सहचरी को बाँचते थे.
राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचतीं थीं.
नटी नट की प्रणय पोथी बाँचती थीं.
'सलिल' की हर बूँद ने वह छवि निहारी.
जग जिसे कहता है श्रीबाँकेबिहारी.
३०-४-२०१०
***

मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

अप्रैल २९, पूर्णिका, सरस्वती, बुंदेली, सॉनेट, सिंधी, त्रिलोकी छंद, मुक्तक, दोहा

सलिल सृजन अप्रैल २९
*
पूर्णिका
.
अपने सहायक आप हो
नहीं ईश्वर को दोष दो
.
सुख-दुख सहो सम भाव से
खुद को न कोस, न श्रेय लो
.
होनी न रोके से रुके
चुप देख तू हो या न हो
.
औषध व पथ्य न भूलना
मत दे गँवा मन-शांति को
.
कुछ ट्रेन छोड़ उतर गए
कुछ चढ़ गए हैं संग जो
.
ग़म की जमीं पे धैर्य से
संतोष की हँस फसल बो
.
संजीवनी हो श्वास हर
मत व्यर्थ मन का चैन खो
.
जीवन जिओ जिंदा रहो
मत आह भर, तज चाह ढो
२९.४.२०२५
०००
पूर्णिका
हर हर बम बम
मेटो प्रभु तम
.
नयन मूँदकर
ध्याते हैं हम
.
पर पीड़ा लख
नयन हुए नम
.
दहशतगर्दों
खातिर हम यम
.
कोमल हैं तो
मत समझो कम
.
गौरी-काली
नारी में दम
.
भाग न कायर
हो अब बेदम
.
शक्ति-भक्ति मिल
होती अणुबम
.
सलिल समर्पित
हर हर बम बम
२९.४.२०२५
०००

सरस्वती वंदना (बुंदेली)
ओ मैहरवारी सारदा! दरसन दै दो मात।
किरपा बिन सब काम बिगर रय, बनै नें कौनऊ बात।।
*
तुमखों पूजें सबई देवता, देवी, मनु-दनु-संत।
तुमईं सार, तुम बिन कौनउ में तनकउ कऊँ नें तंत।।
करुनाकर मैया! करुना कर, तुम बिन कोऊ नें तात।
ओ मैहरवारी सारदा! दरसन दै दो मात।
*
दसों दिसा मा गूँज रई रे मैया तोरी बीन।
सबई कलाओं में हो मैया सच्ची तुमई प्रबीन।।
सबरे स्वर-ब्यंजन मिल माता तोरे ही गुन गात।
ओ मैहरवारी सारदा! दरसन दै दो मात।
*
चित्र गुप्त है तोरो मैया, दरसन दै दो आज।
भवसागर सें तारो जननी, कर दो पग-रज ताज।।
मैं कपूत पर मैया तुम हो भगतबसल बिख्यात।
ओ मैहरवारी सारदा! दरसन दै दो मात।
२९.४.२०२४
•••
सॉनेट
माँगा, हाथ रहा रीता ही
बिन माँगे जो चाहा, पाया
साथ रहा चुप, पल बीता ही
चला गया जो भी मन भाया
वन जाती केवल सीता ही
सिंहासन रामों ने पाया
जनवाणी रहती क्रीता ही
चरण ने ईनाम कमाया
रहा सुनाता जो गीता ही
काम उसी के मन क्यों भाया?
रीति-नीति जिसकी प्रीता थी
अनय उसी ने ह्रदय बसाया
अपना ही हो गया पराया
साथ न तम में देता साया
२९-४-२०२२
***
नवगीत
*
चार आना भर उपज है,
आठ आना भर कर्ज
बारा आना मुसीबत,
कौन मिटाए मर्ज?
*
छिनी दिहाड़ी,
पेट है खाली कम अनुदान
शीश उठा कैसे जिएँ?
भीख न दो बिन मान
मेहनत कर खाना जुटे
निभा सकें हम फर्ज
*
रेल न बस, परबस भए
रेंग जा रहे गाँव
पीने को पानी नहीं
नहीं मूँड़ पर छाँव
बच्चे-बूढ़े परेशां
नहीं किसी को गर्ज
*
डंडे फटकारे पुलिस
मानो हम हैं चोर
साथ न दे परदेस में
कोई नगद न और
किस पर मुश्किल के लिए
करें मुकदमा दर्ज
२९-४-२०२०
***
गीत
*
नटखट गोपाल श्याम जसुमति का लाला
बरज रही बिरज मही जाओ मत तजकर
टेर रहीं धेनु दुलराओ भुज भरकर
माखन की मटकी लो गोरस का प्याला
जमुना की लहरें-तट, झूमते करील
कुंजों में राधिका, नयन गह्वर झील
वेणु का निनाद; कदंब ऊँचा रखवाला
रास का हुलास, फोड़ मटकी खो जाना
मीठी मुसकान मधुर मन में बो जाना
बाबा का लाड़, मोह मैया ने पाला
***
गीत
आज के इस दौर में भी
*
आज के इस दौर में भी समर्पण अध्याय हम
साधना संजीव होती किस तरह पर्याय हम
मन सतत बहता रहा है नर्मदा के घाट पर
तन तुम्हें तहता रहा है श्वास की हर बाट पर
जब भरी निश्वास; साहस शांति आशा ने दिया
सदा करता राज बहादुर; हुए सदुपाय हम
आपदा पहली नहीं कोविद; अनेकों झेलकर
लिखी मन्वन्तर कथाएँ अगिन लड़-भिड़ मेलकर
साक्ष्य तुहिना-कण कहें हर कली झरकर फिर खिले
हौसला धरकर; मुसीबत हर मिटाने धाय हम
ओम पुष्पा व्योम में, हनुमान सूरज की किरण
वरण कर को विद यहाँ? खोजें करें भारत भ्रमण
सूर सुषमा कृष्ण मोहन की सके बिन नयन लख
खिल गया राजीव पूनम में विनत मुस्काय हम
महामारी पूजते हम तुम्हें; माता शीतला
मिटा निर्बल मंदमति, मेटो मलिनता बन बला
श्लोक दुर्गा शती, चौपाई लिए मानस मुदित
काय को रोना?, न कोरोना हुए निरुपाय हम
गीत गूँजेंगे मिलन के, सृजन के निश-दिन सुनो
जहाँ थे हम बहुत आगे बढ़ेंगे, तुम सिर धुनो
बुनो सपने मीत मिल, अरि शीघ्र माटी में मिलो
सात पग धर, सात जन्मों संग पा हर्षाय हम
***
मुक्तक
सीता की जयकार से खुश हों राजा राम
जय न उमा की यदि करें झट शंकर हों वाम
अर्णव में अवगाह कर अरुण सुसज्जित पूर्व
चला कर्मपथ पर अडिग उषा रश्मि कर थाम
*
अपनी धरा अपना गगन, हम नवा सिर करते नमन
रवि तिमिर हर उजयार दे, भू भारती को कर चमन
जनगण करे सब काम मिल, आलस्य-स्वार्थ न साथ हो
श्रम-स्वेद की जयकार कर, कम हो न किंचित भी लगन
*
शीतल पवन बह कह रहा, आ मनुज प्राणायाम कर
पंछी करे कलरव मधुर उड़, उठ न अब आराम कर
धरकर धरा पर चरण बाँहों में उठा ले आसमां
सूरज तनय पहचान खुद को जगत में कुछ नाम कर
पूछता कोविद यहाँ को विद?
सभी हित काम कर
द्वेष-स्वार्थों में उलझ मत जिंदगी बदनाम कर
बहुत सोया जाग जा अब, टेरता है समय सुन
स्वेद सीकर में नहाकर हँस सुबह को शाम कर
उषा अगवानी करेगी, तम मिटाकर नामवर
भेंट भुजभर हँसे संध्या, रुक थक न चुक न विरामकर
निशा आँचल में सुलाये सुनहरे सपने दिखा
एक दिन तो 'संजीव' सारे काम तू निष्काम कर
२९-४-२०२०
***
सृजन चर्चा
सुमित्र जी के जिजीविषाजयी व्यंग्य दोहे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सनातन सलिल नर्मदा का अंचल सनातन काल से सृजनधर्मियों का साधना क्षेत्र रहा है. सम-सामयिक साहित्य सर्जकों में अग्रगण्य डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र' विविध विधाओं में अपने श्रेष्ठ सृजन से सर्वत्र सतत समादृत हो रहे हैं।
दोहा हिंदी साहित्य कोष का दैदीप्यमान रत्न है। कथ्य की संक्षिप्तता, शब्दों की सटीकता, कहन की लयबद्धता , बिम्बों-प्रतीकों की मर्मस्पर्शिता तथा भाषा की लोक-ग्राह्यता के पञ्चतत्वी निकष पर खरे दोहे रचना सुमित्र जी के लिए सहज-साध्य है। सामयिकता, विसंगतियों का संकेतन, विडंबनाऑं पर प्रहार, जनाक्रोश की अभिव्यक्ति और परोक्षतः ही सही पारिस्थितिक वैषम्य निदान की प्रेरणा व्यंग्य विधा के पाँच सोपान हैं। सुमित्र की दशरथी कलम ''विगतं वा अगं यस्य'' की कसौटी पर खरे उतारनेवाले व्यंग्य दोहे रचकर अपनी सामर्थ्य का लोहा मनवाती है।
''आएगा, वह आयेगा, राह देखती नित्य / कहाँ न्याय का सिंहासन, कहाँ विक्रमादित्य'' कहकर दोहाकार आम आदमी की आशावादिता और उसकी निष्फलता दोनों को पूरी शिद्दत से बयां करता है।
समाज में येन-केन-प्रकारेण धनार्जन कर स्वयं को सकल संवैधानिक प्रावधानों से ऊपर समझनेवाले नव धनाढ्य वर्ग की भोगवादी मनोवृत्ति पर तीक्ष्ण कटाक्ष करते हुए निम्न दोहे में दोहाकार 'रसलीन' शब्द का सार्थक प्रयोग करता है- ''दिन को राहत बाँटकर, रात हुई रसलीन / जिस्म गरम करता रहा, बँगले का कालीन'' ।
राजनीति का ध्येय जनकल्याण से बदलकर पद-प्राप्ति और आत्म कल्याण होने की विडम्बना पर सुमित्र का कवि-ह्रदय व्यथित होकर कहता है-
नीतिहीन नेतृत्व है, नीतिबद्ध वक्तव्य।
चूहों से बिल्ली कहे, गलत नहीं मंतव्य।।
*
सेवा की संकल्पना, है अतीत की बात।
फोटो माला नोट है, नेता की औकात।।
*
शैक्षणिक संस्थाओं में व्याप्त अव्यवस्था पर व्यंग्य दोहा सीधे मन को छूता है-
पैर रखा है द्वार पर, पल्ला थामे पीठ।
कोलाहल का कोर्स है, मन का विद्यापीठ।।
*
पात्रता का विचार किये बिना पुरस्कार चर्चित होने की यशैषणा की निरर्थकता पर सुमित्र दोहा को कोड़े की तरह फटकारते हैं-
अकादमी से पुरस्कृत, गजट छपी तस्वीर।
सम्मानित यों कब हुए, तुलसी सूर कबीर।।
*
अति समृद्धि और अति सम्पन्नता के दो पाटों के बीच पिसते आम जन की मनस्थिति सुमित्र की अपनी है-
सपने में रोटी दिखे, लिखे भूख तब छंद।
स्वप्न-भूख का परस्पर, हो जाए अनुबंध।।
*
आँखों के आकाश में, अन्तःपुर आँसू बसें, नदी आग की, यादों की कंदील, तृष्णा कैसे मृग बनी, दरस-परस छवि-भंगिमा, मन का मौन मजूर, मौसम की गाली सुनें, संयम की सीमा कहाँ, संयम ने सौगंध ली, आँसू की औकात क्या, प्रेम-प्यास में फर्क, सागर से सरगोशियाँ, जैसे शब्द-प्रयोग और बिम्ब-प्रतीक दोहाकार की भाषिक सामर्थ्य की बानगी बनने के साथ-साथ नव दोहकारों के लिए सृजन का सबक भी हैं।
सुमित्र के सार्थक, सशक्त व्यंग्य दोहों को समर्पित हैं कुछ दोहे-
पंक्ति-पंक्ति शब्दित 'सलिल', विडम्बना के चित्र।
संगुम्फित युग-विसंगति, दोहा हुआ सुमित्र।।
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लय भाषा रस भाव छवि, बिम्ब-प्रतीक विधान।
है दोहा की खासियत, कम में अधिक बखान।।
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सलिल-धार की लहर सम, द्रुत संक्षिप्त सटीक।
मर्म छुए दोहा कहे, सत्य हिचक बिन नीक।।
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व्यंग्य पहन दोहा हुआ, छंदों का सरताज।
बन सुमित्र हृद-व्यथा का, कहता त्याग अकाज।।
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छंद कोष से नया छंद
विधान
मापनी- २१२ २११ १२१ १२१ १२१ १२१ १२१ १२।
२३ वार्णिक, ३२ मात्रिक छंद।
गण सूत्र- रभजजजजजलग।
मात्रिक यति- ८-८-८-८, पदांत ११२।
वार्णिक यति- ५-६-६-६, पदांत सगण।
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उदाहरण
हो गयी भोर, मतदान करों, मत-दान करो, सुविचार करो।
हो रहा शोर, उठ आप बढ़ो, दल-धर्म भुला, अपवाद बनो।।
है सही कौन, बस सोच यही, चुन काम करे, न प्रचार वरे।
जो नहीं गैर, अपना लगता, झट आप चुनें, नव स्वप्न बुनें।।
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हो महावीर, सबसे बढ़िया, पर काम नहीं, करता यदि तो।
भूलिए आज, उसको न चुनें, पछता मत दे, मत आज उसे।।
जो रहे साथ, उसको चुनिए, कब क्या करता, यह भी गुनिए।
तोड़ता नित्य, अनुशासन जो, उसको हरवा, मन की सुनिए।।
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नर्मदा तीर, जनतंत्र उठे, नव राह बने, फिर देश बढ़े।
जागिए मीत, हम हाथ मिला, कर कार्य सभी, निज भाग्य गढ़ें।।
मुश्किलें रोक, सकतीं पथ क्या?, पग साथ रखें, हम हाथ मिला।
माँगिए खैर, सबकी रब से, खुद की खुद हो, करना न गिला।।
२९-४-२०१९
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हिंदी-सिंधी सेतु
एक महत्वपूर्ण सारस्वत अनुष्ठान. हिंदी-सिन्धी समन्वय सेतु, देवी नागरानी जी द्वारा संकलित, अनुवादित, संपादित ५५ हिंदी कवियों की रचनाएँ सिन्धी अनुवाद सहित एक संकलन में पढ़ना अपने आपमें अनूठा अनुभव. काश इसमें सिंधी वर्णमाला, वाक्य रचना और अन्य कुछ नियन परिशिष्ट के रूप में होता तो मैं सिंधी सीखकर उसमें कुछ लिखने का प्रयास करता.
देवी नागरानी जो और सभी सहभागियों को बधाई. मेरा सौभाग्य कि इसमें मेरी रचना भी है.अन्य भाषाओँ के रचनाकार भी ऐसा प्रयास करें.
अंग्रेजी, मलयालम और पंजाबी के बाद अब सिन्धी में भी रचना अनुदित हुई.
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१. शब्द सिपाही................. १. लफ्ज़न जो सिपाही
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मैं हूँ अदना....................... माँ आहियाँ अदनो
शब्द सिपाही......................लफ्ज़न जो सिपाही.
अर्थ सहित दें......................अर्थ साणु डियन
शब्द गवाही.......................लफ्ज़ गवाही.
*.....................................*
२. सियासत.......................२. सियासत
तुम्हारा हर........................तुंहिंजो हर हिकु सचु
सच गलत है...................... गलत आहे.
हमारा हर......................... मुंहिंजो
सच गलत है.......................हर हिकु सचु गलत आहे
यही है...............................इहाई आहे
अब की सियासत.................अजु जी सियासत
दोस्त ही............................दोस्त ई
करते अदावत.....................कन दुश्मनी
*......................................*
[आमने-सामने, हिंदी-सिन्धी काव्य संग्रह, संपादन व अनुवाद देवी नागरानी
शिलालेख, ४/३२ सुभाष गली, विश्वास नगर, शाहदरा दिल्ली ११००३२. पृष्ठ १२६, २५०/-]
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नवगीत:
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जो हुआ सो हुआ
.
बाँध लो मुट्ठियाँ
चल पड़ो रख कदम
जो गये, वे गये
किन्तु बाकी हैं हम
है शपथ ईश की
आँख करना न नम
नीलकण्ठित बनो
पी सको सकल गम
वृक्ष कोशिश बने
हो सफलता सुआ
.
हो चुका पूर्व में
यह नहीं है प्रथम
राह कष्टों भरी
कोशिशें हों न कम
शेष साहस अभी
है बहुत हममें दम
सूर्य हैं सच कहें
हम मिटायेंगे तम
उठ बढ़ें, जय वरें
छोड़कर हर खुआ
.
चाहते क्यों रहें
देव का हम करम?
पालते क्यों रहें
व्यर्थ मन में भरम?
श्रम करें तज शरम
साथ रहना धरम
लोक अपना बनाएंगे
फिर श्रेष्ठ हम
गंग जल स्वेद है
माथ से जो चुआ
***
यमकीय दोहा
.
अंतर में अंतर पले, तब कैसे हो स्नेह
अंतर से अंतर मिटे, तब हो देह विदेह
अंतर = मन / भेद
.
देख रहे छिप-छिप कली, मन में जागी प्रीत
देख छिपकली वितृष्णा, क्यों हो छू भयभीत?
छिप कली = आड़ से रूपसी को देखना / एक जंतु
.
मूल्य बढ़े जीना हुआ, अब सचमुच दुश्वार
मूल्य गिरे जीना हुआ, अब सचमुच दुश्वार
मूल्य = कीमत, जीवन के मानक
.
अंचल से अंचल ढँकें, बची रह सके लाज
अंजन का अंजन करें, नैन बसें सरताज़
अंचल = दामन / भाग या हिस्सा, अंजन = काजल, आँख में लगाना
.
दिनकर तिमिर अँजोरता, फैले दिव्य प्रकाश
संध्या दिया अँजोरता, महल- कुटी में काश
अँजोरता = समेटता या हर्ता, जलाता या बालता
***
एक कविता : दो कवि
शिखा:
एक मिसरा कहीं अटक गया है
दरमियाँ मेरी ग़ज़ल के
जो बहती है तुम तक
जाने कितने ख़याल टकराते हैं उससे
और लौट आते हैं एक तूफ़ान बनकर
कई बार सोचा निकाल ही दूँ उसे
तेरे मेरे बीच ये रुकाव क्यूँ?
फिर से बहूँ तुझ तक बिना रुके
पर ये भी तो सच है
कि मिसरे पूरे न हों तो
ग़ज़ल मुकम्मल नहीं होती
*
संजीव
ग़ज़ल मुकम्मल होती है
तब जब
मिसरे दर मिसरे
दूरियों पर पुल बनाती है
बह्र और ख़याल
मक्ते और मतले
एक दूसरे को अर्थ देते हैं
गले मिलकर
काश! हम इंसान भी
साँसों और आसों के मिसरों से
पूरी कर सकें ज़िंदगी की ग़ज़ल
जिसे गुनगुनाकर कहें:
आदाब अर्ज़
आ भी जा ऐ अज़ल!
२९-४-२०१५
***
दोहा सलिला
*
अगम अनाहद नाद ही, सकल सृष्टि का मूल
व्यक्त करें लिख ॐ हम, सत्य कभी मत भूल
निराकार ओंकार का, चित्र न कोई एक
चित्र गुप्त कहते जिसे, उसका चित्र हरेक
सृष्टि रचे परब्रम्ह वह, पाले विष्णु हरीश
नष्ट करे शिव बन 'सलिल', कहते सदा मनीष
कंकर-कंकर में रमा, शंका का कर अन्त
अमृत-विष धारण करे, सत-शिव-सुन्दर संत
महाकाल के संग हैं, गौरी अमृत-कुण्ड
सलिल प्रवाहित शीश से, देखेँ चुप ग़ज़-तुण्ड
विष-अणु से जीवाणु को, रचते विष्णु हमेश
श्री अर्जित कर रम रहें, श्रीपति सुखी विशेष
ब्रम्ह-शारदा लीन हो, रचते सुर-धुन-ताल
अक्षर-शब्द सरस रचें, कण-कण हुआ निहाल
नाद तरंगें संघनित, टकरातीं होँ एक
कण से नव कण उपजते, होता एक अनेक
गुप्त चित्र साकार हो, निराकार से सत्य
हर आकार विलीन हो, निराकार में नित्य
आना-जाना सभी को, यथा समय सच मान
कोई न रहता हमेशा, परम सत्य यह जान
नील गगन से जल गिरे, बहे समुद मेँ लीन
जैसे वैसे जीव हो, प्रभु से प्रगट-विलीन
कलकल नाद सतत सुनो, छिपा इसी में छंद
कलरव-गर्जन चुप सुनो, मिले गहन आनंद
बीज बने आनंद ही, जीवन का है सत्य
जल थल पर गिर जीव को, प्रगटाता शुभ कृत्य
कर्म करे फल भोग कर, जाता खाली हाथ
शेष कर्म फल भोगने, फ़िर आता नत माथ
सत्य समझ मत जोड़िये, धन-सम्पद बेकार
आये कर उपयोग दें, औरों को कर प्यार
सलिला कब जोड़ें 'सलिल', कभी न रीते देख
भर-खाली हो फ़िर भरे, यह विधना का लेख
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छंद सलिला:
त्रिलोकी छंद
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छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चंद्रायण (५ + गुरु लघु गुरु लघु, / ५ + गुरु लघु गुरु ) तथा प्लवंगम् (गुरु + ६ / ८ + गुरु लघु गुरु ) का मिश्रित रूप ।
लक्षण छंद:
पाँच मात्रा गुरु लघु / गुरु लघु पहिले लें
पाँच मात्रा गुरु लघु / गुरु चंद्रायण है
है गुरु फ़िर छै / मात्रा छंद प्लवंगम्
आठ तथा गुरु / लघु गुरु मात्रा रखें हम
उदाहरण:
१. नाद अनाहद / जप ले रे मन बाँवरे
याद ईश की / कर ले सो मत जाग रे
सदाशिव ओम ओम / जप रहे ध्यान मेँ
बोल ओम ओम ओम / संझा-विहान में
२. काम बिन मन / कुछ न बोल कर काम तू
नीक काम कर / तब पाये कुछ नाम तू
कभी मत छोड़ होड़ / जय मिले होड़ से
लक्ष्य की डोर जोड़ / पथ परे मोड़ से
३. पुरातन देश-भूमि / पूजिए धन्य हो
मूल्य सनातन / सदा मानते प्रणम्य हो
हवा पाश्चात्य ये न / दे बदल आपको
छोड़िये न जड़ / न ही उखड़ें अनम्य हो
******************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
।। हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल । 'सलिल' संस्कृत सान दे, पूरी बने कमाल ।।
२९-४-२०१४
***
मुक्तक:
जो दूर रहते हैं वही समीप होते हैं.
जो हँस रहे, सचमुच वही महीप होते हैं.
जिनको मिला मेहनत बिना अतृप्त हैं वहीं-
जो पोसते मोती वही तो सीप होते हैं.
२९-४-२०१०
*

हिंदी शिक्षण की चुनौतियाँ एवं राम कथा

लेख
हिंदी शिक्षण की चुनौतियाँ एवं राम कथा
आचार्य (इं.) संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भाषा क्या है?
                    भाषा का मानव जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। भाषा के विकास ने ही मनुष्य को अन्य जीव-जंतुओं पर वरीयता पाने में मदद की है। भाषा ज्ञान का भंडार है। 'भाषा' शब्द संस्कृत की भाष् धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका कोशीय अर्थ है 'कहना' या 'प्रकट करना'। भाषा को मनुष्य के भावों, अनुभूतियों  या विचारों को प्रकट करने का साधनहै। मनुष्य अपने भावों या विचारों के आदान-प्रदान के लिए ज्ञानेन्द्रियों को भी माध्यम बनाता है। ऐसे सभी माध्यमों को भाषा के अंतर्गत समाहित नहीं किया जा सकता। बकौल आनंद बख्शी - 

''तुझको देखा है मेरी नज़रों ने, तेरी तरफ़ हो मगर हो कैसे?
की बने ये नज़र जुबान कैसे?, की बने ये जबान नज़र कैसे?
न जुबान को दिखाई देता है, न निगाहों से बात होती है।''  

                    संस्कृत के वैयाकरण आचार्य भर्तृहरि के अनुसार 
''न सोस्ति प्रत्ययोsलोके य: शब्दानुगमादृते 
अनुबिद्ध मिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते''
                    संसार में कोई ऐसा विषय नहीं है जी शब्द (भाषा) का आश्रय न लेता हो। समस्त ज्ञान शब्द से ही उत्पन्न हुआ भाषित होता है।
 
                    आचार्य डंडी कहते हैं-     
इंदमंधन्तम: कृस्नं जायेत भुवनत्रयम्  
यदि शब्दाहवयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते  
                    यदि संसार में शब्द (भाषा) रूपइ प्रकाश न होता तो सर्वत्र अंधकार छा जाता। 

                    पतंजलि के अनुसार- 'वर्णों में व्यक्त वाणी को भाषा कहते हैं।' हिंदी के प्रथम वैयाकरण कामता प्रसाद गुरु के शब्दों में- ''भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली-भाँति प्रगट कर सकता है और दूसरों के विचारों को समझ सकता है।'' आचार्य किशोरी दास बाजपेई के मत में- ''विभिन्न अर्थों में सांकेतिक शब्द समूह ही भाषा है।'' डॉ। बाबू राम सक्सेना के विचार में- ''जिन ध्वनि चिन्हों द्वारा मनुष्य परस्पर विचर विनिमय करता है उनको समष्टि रूप से भाषा कहते हैं।'' मेरी मान्यता है- ''अनुभूतियों और विचारों का ध्वनि, लिपि अथवा अन्य माध्यम से संप्रेषण भाषा है।'' हिंदी में आँखों/नज़रों की भाषा जैसी अभिव्यक्ति इसीलिए सार्थक है। कई जीव ध्वनि के स्थान पर सरक कर  अभिव्यक्ति का संप्रेषण करते हैं। सिंह आदि पशु मूत्र छोड़कर अपना प्रभाव क्षेत्र बताते हैं। मयूर नर्तन कर प्रणय संदेश देता है।   

जलचरों की भाषा
                    सृष्टि में जीव के उद्गम के साथ ही उसे अनुभूतियाँ होने लगीं। सर्व प्रथम जीव का जन्म जल में हुआ। जलचरों ने अपनी अनुभूतियों को अपने साथियों तक पहुँचने और साथियों की अनुभूतियों को ग्रहण करने के लिए जीव ने विविध चेष्टाएँ कीं। जलचर जीवों की भाषा कई प्रकार की होती है। जलचर आवाजों, शारीरिक हलचलों और रासायनिक संकेतों से अपने साथियों से संपर्क स्थापित करते हैं। समुद्री शेर भौंक, चहक, और गुर्राकर संवाद करते हैं। वे पानी के भीतर और बाहर दोनों जगह से आवाजें निकालते हैं। मछलियाँ अपने पंखों और पूँछ को हिलाकर संवाद करती हैं। कुछ जलीय जीव रासायनिक संकेतों (फेरोमॉन्स ) का उपयोग करसंवाद करते हैं। डॉल्फ़िन को पानी के भीतर और बाहर दोनों जगह आवाज कर संवाद करते सुना जा सकता है। मछलियाँ अन्य मछलियों को चेतावनी देने के लिए अपने पंखों को तेजी से हिलाती हैं। कुछ जलीय जीव रंग परिवर्तन, स्पर्श आदि संकेतों का उपयोग करके संवाद करते हैं। ऑक्टोपस आक्रामकता या भय प्रदर्शित करने के लिए अपने शरीर का रंग बदलता है।

थलचरों की भाषा
                    सृष्टि में जीवन के विकास का अगला चरण जलचरों का जलीय तट पर आगमन, क्रमश: ठहरने और अंतत: जल में गए बिना थल मात्र पर रहने के रूप में हुआ। इस अवधि में थलचरों के मध्य संवेदनाओं और अनुभूतियों का आदान-प्रदान भाषा के रूप में विकसित होता रहा।जानवर समूह के अन्य सदस्यों को आस-पास के खतरों के बारे में चेतावनी देने, भावनाओं को साझा करने, साथी को आकर्षित करने और क्षेत्रों को चिह्नित करने के लिए कई अलग-अलग तरीकों से संवाद कते हैं। कुछ प्रसंगों में अलग-अलग प्रजातियों के बीच भी संवाद होता देखा गया है। जानवरों के मध्य संचार के चार मुख्य प्रकार श्रवणीय व अश्रवनीय ध्वनि उच्चारण, गंध, रंग तथा दृश्य प्रदर्शन हैं। गाय रंभाकर, श्वान भौंककर, गधा रेंककर, घोड़ा हिनहिनाकर अपने साथिओं से बात करते हैं। शेर, चीता आदि मूत्र से रेखा खींचकर अपने प्रभाव क्षेत्र (टेरिट्री) की सूचना देते हैं। बंदर हूप की ध्वनि कर शेर आदि हिंसक पशुओं से सतर्क करते हैं। सर्प फुँफकारकर, जीभ हिलाकर, शरीर हिलाकर, श्वास द्वारा आवाजकर और अन्य शारीरिक संकेतों से संवाद स्थापित करते हैं। 

नभचरों की भाषा
                    नभचर अपने पंख फड़फड़ाकर, चहचहाकर, नृत्य आदि कर अपनी अनुभूतियाँ साथियों तक संप्रेषित करते हैं। मयूर आदि के पंखों के रंग में परिवर्तन से उनके ऋतुकाल की जानकारी मिलती है। मधुमक्खी अपनी उत्कृष्ट रंग दृष्टि से अधिक पराग वाले फूलों को पहचान पाती है। ऐसे फूल मिलने पर वह विशिष्ट नृत्य द्वारा अपने साथियों को सूचित करती है। सवेरे जागते समय तथा साँझ को सोते समय पक्षी विशेष प्रकार से कलरव करते हैं। चूजे शाम के समय अपने माता-पिता के लौटने पर विशिष्ट ध्वनि कर चुग्गा माँगते हैं।

मानवीय भाषा 

                    आदि मानव पक्षी-पक्षियों आदि के साथ उन्हीं की तरह रहता था। मानवीय भाषा का विकास पशु-पक्षियों की भाषा को समझकर-अपनाकर ही हुआ। आरंभ में आदि मानव ने प्राकृतिक घटनाओं और पशु-पक्षियों की आवाजों की नकल उसे प्रकार की जैसे नन्हा शिशु बड़ों की आवाज को सुनकर करता है। इन आवाजों के द्वारा वह अपने समूह के अन्य सदस्यों को पशु-पक्षियों के उपस्थिति सूचित करता था। शब्द भंडार की कुछ वृद्धि होने पर पशु-पक्षियों के गुणों के उसने समान गुणधर्म के मानवों पर आरोपित किया। इस प्रकार मनुष्य ने  उपमा और रूपक का प्रयोग कर शेर (बहादुर), गाय (सीधापन), सियार ( चालाक), भेड़िया (धूर्त), बाज (ऊँची उड़ान भरनेवाला), बैल (मेहनती), गधा (मूर्ख), कोयल (मधुर स्वर), कमल (कोमल सुंदर), मत्स्य गंधा (मछली सी देह गंध), मृग नयनी (हिरनी सी आँखें), तोता (बिना समझे रटकर बोलना) आदि के माध्यम से अपनी भाषा को रुचिकर, बोधगम्य और सर्व ग्राह्य बनाया। यह तथ्य केवक हिंदी ही नहीं विश्व की हर भाषा के बारे में सत्य है। अंतर केवल यह है कि हर भाषा के विकास में उस अञ्चल की वनस्पतियों, पशु-पक्षियों और मौसम की भूमिका रही है। हाथी के दाँत, अपने मुँह मियां मिट्ठू आदि मुहावरे भाषा के सौंदर्य में वृद्धि करते हैं। 

                    जानवरों पर आधारित शब्दों ने अंग्रेजी भाषा को एक आकर्षक छवि प्रदान की है। ये शब्द और अभिव्यक्तियाँ, जिन्हें "ज़ूनीम्स" के रूप में जाना जाता है, जानवरों की विशेषताओं, व्यवहार और आवासों से प्रेरणा लेते हैं। वे हमारे दिमाग में ज्वलंत चित्र बनाने में मदद करते हैं, जिनका उपयोग अक्सर मानव व्यवहार, शारीरिक लक्षण या अमूर्त अवधारणाओं का वर्णन करने के लिए किया जाता है, जो हमारे द्वारा प्रतिदिन उपयोग की जाने वाली भाषा में रंग और गहराई जोड़ते हैं। चूहे का छोटा आकार, लंबी पूँछ और तेज दिमाग कंप्यूटर के साथ जुड़े 'माउस' के नामकरण का आधार बना और अब यह 'माउस' विश्व की हर भाषा का अपना शब्द बन गया है। क्या हिंदी में भाषिक शुद्धता के पक्षधर इसे 'मूषक' कहना चाहेंगे? इसी तरह सारस पक्षी (क्रेन) की भार उठाने के लिए प्रयुक्त लंबी गर्दन लंबी गर्दन वाले यंत्र 'क्रेन' के नामकरण का आधार बना। बैल (बुल) का बिना सोचे-समझे भड़कने-भिड़नेवाला गुस्सैल स्वभाव 'बुल डोजर' के नामकरण का आधार बना। 

हिंदी भाषा और शिक्षण 

                    हिंदी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्राचीन  व मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएँ पालि, प्राकृत शौरसेनी, अर्द्धमागधी, मागधी, अपभ्रंश और संस्कृत हैं। हिंदी की उपभाषाएँ, पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, राजस्थानी, बिहारी तथा पहाड़ी वर्ग और उनकी बोलियाँ, खड़ीबोली, ब्रज, बुंदेली, और अवधी आदि हैं। शिक्षण-कार्य की प्रक्रिया का विधिवत अध्ययन शिक्षाशास्त्र या शिक्षणशास्त्र कहलाता है। इसमें अध्यापन की शैली या नीतियों का अध्ययन किया जाता है। अध्यापक ध्यान रखता है कि छात्र अधिक से अधिक समझ सके। हिंदी भाषा शिक्षण में कई शिक्षण विधियाँ प्रयुक्त होती हैं। इनमें कुछ शिक्षक-केंद्रित हैं जबकि कुछ छात्र-केंद्रित। शिक्षण विधियों में निगमन विधि, आगमन विधि, प्रश्नोत्तर विधि, व्याख्यान विधि, कार्यविधि, और दृष्टान्त विधि प्रमुख हैं।  

१. निगमन विधि (Deductive Method): इस विधि में, शिक्षक पहले नियम या सिद्धांत बताता है, फिर उदाहरण देकर उसे स्पष्ट करता है।
यथा-  छात्र को  व्याकरण का नियम बताकर उसके उदाहरण दिए जाएँ। यह विधि शिक्षक को जानकारी प्रस्तुत करने का अवसर देती है, लेकिन छात्रों को सक्रिय रूप से शामिल करने में थोड़ी कम प्रभावी हो सकती है।

२. आगमन विधि (Inductive Method): इस विधि में, शिक्षक पहले उदाहरण देता है, फिर छात्र नियम या सिद्धांत तक पहुँचते हैं। उदाहरण के लिए, पहले कुछ वाक्य दिए जाएँगे, फिर छात्रों से नियम बताने को कहा जाएगा। यह विधि छात्रों को सक्रिय रूप से शामिल करने और समझने में अधिक प्रभावी होती है।

३. प्रश्नोत्तर विधि (Question-Answer Method): इस विधि में, शिक्षक छात्रों से प्रश्न पूछता है और वे जवाब देते हैं। यह विधि छात्रों को सक्रिय रूप से शामिल करने और बातचीत को प्रोत्साहित करने का एक अच्छा तरीका है। उपनिषद 
 (उप=निकट, नि = अच्छी तरह से, सद् =  बैठना) काल में यह विधि भारतीय ऋषि गुरुकुलों में प्रयोग करते थे। ग्रीक चिंतक सुकरात भी इस विधि का प्रयोग करते थे, इसलिए इसे "सुकराती विधि" भी कहा जाता है।  इसमें शिक्षक छात्रों को उनके विचारों को स्पष्ट करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

४. व्याख्यान विधि (Lecture Method): इस विधि में, शिक्षक एक लंबा व्याख्यान देता है, जिसमें वह जानकारी प्रदान करता है। यह विधि शिक्षक को बड़ी संख्या में छात्रों को जानकारी देने का एक अच्छा तरीका है, लेकिन छात्रों को निष्क्रिय बना सकती है।

५ . कार्यविधि (Work Method): इस विधि में, कार्यशाला में छात्रों को कुछ काम करने के लिए कहा जाता है। यह विधि छात्रों को सक्रिय रूप से शामिल करने और उनके रचनात्मक कौशल को विकसित करने का एक अच्छा तरीका है।

६. दृष्टान्त विधि (Demonstration Method): इस विधि में, शिक्षक छात्रों को कुछ करके दिखाता है। यह विधि छात्रों को अवधारणाओं को बेहतर ढंग से समझने में मदद करती है। उदाहरण के लिए, शिक्षक छात्रों को व्याकरण के नियमों को कैसे लागू करना है, यह करके दिखा सकता है।

                    हिंदी भाषा शिक्षण में, समग्र भाषा दृष्टिकोण (Whole Language Approach) और रचनात्मक दृष्टिकोण (Constructivist Approach) का भी उपयोग किया जाता है। समग्र भाषा दृष्टिकोण में छात्रों को भाषा के सभी पहलुओं को एक साथ सिखाया जाता है। जैसे- सुनना, बोलना, पढ़ना, और लिखना। रचनात्मक दृष्टिकोण में छात्रों को अपनी स्वयं की भाषा सीखने और समझने की अनुमति दी जाती है। भाषा शिक्षण में  श्रवण (सुनना), वाचन (पढ़ना), भाषण (बोलना), और लेखन (लिखना) जैसे कौशल का विकास महत्वपूर्ण है। भाषा शिक्षण के लिए सहायक सामग्री: जैसे कि शब्दकोश, चार्ट, और ऑडियो-वीडियो उपकरण का भी उपयोग किया जाता है।

हिंदी शिक्षण की चुनौतियाँ 

                    हिंदी शिक्षण की प्रमुख चुनौतियाँ बच्चों में हिंदी भाषा के प्रति रुचि का अभाव, अंग्रेजी के प्रति आकर्षण, राजनैतिक कारणों से हिंदी का विरोध, हिंदी व्याकरण और शब्द रूपों में एकरूपता का अभाव, भिन्न-भिन्न अंचलों में लिंग, वचन आदि के प्रयोग में भिन्नता, आंचलिक बोलिओं का प्रभाव, कुशल हिंदी शिक्षकों की कमी, शिक्षा संबंधी संसाधनों की कमी, तकनीकी विकास का अभाव, हिंदी की रोजगार प्रदाय क्षमता की जानकारी न होना। हिंदी में नवीनतम अद्यतन तकनीकी पुस्तकें न होना आदि हैं।    

हिंदी शिक्षण और राम कथा 

                    सरसरी दृष्टि से हिंदी शिक्षण और राम कथा में कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं दिखता किंतु भाषा शिक्षण के उद्देश्य और उसकी सहायक सामग्री पर गहन चिंतन करें तो पाएँगे कि नैतिक मानवीय मूल्यों की जानकारी छात्रों को देना, अनुशासन का पाठ पढ़ाना, छात्र को चरित्रवान बनाना ही शिक्षा का मूल उद्देश्य है। इसके अभाव में वर्तमान शिक्षा पद्धति छात्रों में अनुशासन, देश प्रेम और कर्तव्य पालन की भावना भरने में असफल हो रही है। 

                    राम मर्यादा पुरुषोत्तम, महामानव और आदर्श व्यक्ति के रूप में मान्य हैं। वे आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श शिष्य, आदर्श राजा, दीनबंधु, पराक्रमी और सदाशयी हैं। राम कथा और राम लीला श्री राम के इन्हीं रूप को प्रस्तुत कर जनगण के मन में आदर्श भाव स्थापित करती है। हिंदी शिक्षण में यदि श्री राम के चरित्र को गद्य (लेख, निबंध, कहानी, नाटक आदि) या पद्य (कविता, प्रबंध काव्य, काव्य नाटक आदि) में पढ़ाया जाए, अभिनीत कराया जाए, संगोष्ठी की जाए, वाद-विवाद कराया जाए तो छात्र-छात्राओं में रामकथा के विविध पात्रों के जीवन मूल्यों को समझने उनका मूल्यांकन करने, उनकी विवेचना करने की रुचि उत्पन्न होगी।

                    राम कथा के भारतीय और वैश्विक जनमानस पर व्यापक प्रभाव है। अहिंदू जन भी राम कथा के प्रति आकर्षित होते हैं। यदि राम कथा और राम लीला का व्यापक प्रचार-प्रसार होता रहे तो हिंदी शिक्षण की कठिनाइयाँ दूर हो सकती हैं। राम कथा, उसके पात्र और घटनाओं में विभिन्नता चिंतन-मनन के नव आयाम स्थापित करती है। विविध देशों में और विविध प्रवचन कर्ताओं द्वारा की गई व्याख्याएँ ''एकम् सत्यम् विप्रा बहुधा वदंती'' अर्थात एक ही सत्य को विद्वज्जन कई तरह से कहते हैं की पुष्टि करती हैं। शिक्षा में भी यही स्थिति निर्मित होती है। इसीलिए  अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने कहा- ''दो अर्थ शास्त्रियों के तीन मत होते हैं।'' 

                    शिक्षा का उद्देश्य केवल विषयगत ज्ञान नहीं होता। शिक्षा का सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, वैश्विक तथा दीर्घकालिक प्रभाव भी होता है। राम कथा इन सभी बिंदुओं की कसौटी पर खरी उतरती है। राम राजकुमार होकर भी जन सामान्य के कष्ट हरते हैं, आम लोगों के बीच रहते हैं, ऊँच-नीच, छुआछूत नहीं मानते यह आचरण उन्हें सामाजिक समन्वय का अग्रदूत बनाता है। राम संपन्न होकर भी वन में विपन्नों की तरह रहते और केवट, निषाद, शबरी, जटायु आदि के साथ स्वजनों की तरह व्यवहार करते हैं। यह आचरण आर्थिक विषमता की खाई को पाटकर आर्थिक समरसता को जन्म देता है। राम स्वयं विष्णु और सूर्य उपासक होते हुए भी शिव को पूजते हैं। 'शिव द्रोही मम दास कहावा सो नर सपनेहु मोहीं भावा' कहकर धार्मिक एकता के बीज बोते हैं। वे अयोध्या मात्र के हित की चिंता न कर वानरों और राक्षसों के राज्यों में भी सत्य-और न्याय की स्थापना करते हैं। उनका यह उदार दृष्टिकोण उन्हें वैश्विक नायक बनाता है। शिक्षा पद्धति भी इन्हीं जीवन मूल्यों को रोपित करती है। इसलिए हिंदी शिक्षण में राम कथा की प्रासंगिकता हर स्तर पर असंदिग्ध है। 
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