मुक्तिका
सदय हुए घन श्याम
संजीव 'सलिल'
*
सदय हुए घन-श्याम सलिल के भाग जगे.
तपती धरती तृप्त हुई, अनुराग पगे..
बेहतर कमतर बदतर किसको कौन कहे.
दिल की दुनिया में ना नाहक आग लगे..
किसको मानें गैर, पराया कहें किसे?
भोंक पीठ में छुरा, कह रहे त्याग सगे..
विमल वसन में मलिन मनस जननायक है.
न्याय तुला को थाम तौल सच, काग ठगे..
चाँद जुलाहे ने नभ की चादर बुनकर.
तारों के सलमे चुप रह बेदाग़ तगे..
पाक करे नापाक हरकतें भोला बन.
कहे झूठ यह गोला रहा न दाग दगे..
मतभेदों को मिल मनभेद न होने दें.
स्नेह चाशनी में राई औ' फाग पगे..
अवढरदानी की लीला का पार कहाँ.
शिव-तांडव रच दशकन्धर ना नाग नगे..
*********************************
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
बुधवार, 27 अक्टूबर 2010
मुक्तिका सदय हुए घन श्याम संजीव 'सलिल'
चिप्पियाँ Labels:
-acharya sanjiv 'salil',
. muktika,
/samyik hindi kavya,
Contemporary Hindi Poetry,
jabalpur. india.
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
3 टिप्पणियां:
शायद साहित्य के जानकार मेरी इस बात से सहमत हों की पिछले कई दशकों से निम्न तरह की अभिव्यक्ति नहीं हुई है:-
चाँद जुलाहे ने नभ की चादर बुनकर.
तारों के सलमे चुप रह बेदाग़ तगे..
फिर भी चूँकि मुझे सारी दुनिया की जानकारी तो है नहीं, अत: अगर ऐसा कहना मेरी भूल हो, तो कृपया मुझे क्षमा करें|
चतुर चतुर्वेदी पढ़ें, कविता- परखें खूब.
भाव-बिम्ब में डूबकर, रस लेते हैं खूब..
होती है अनुभूति नई, जब गहते हैं सत्य.
बात करे बेबाक हो, रचते कविता नित्य..
चिर नवीन, चिर पुरातन, हैं हिन्दी के भक्त.
'सलिल'-स्नेह के पात्र हैं, हिन्दी प्रति अनुरक्त..
वास्तविक जीवन दर्शन प्रस्तुत किया है आपने इस रचना में ....बहुत गहरा प्रभाव छोड़ती प्रस्तुति .
एक टिप्पणी भेजें