लेख १
भारतीय ज्ञान परंपरा, हिंदी भाषा एवं राम कथा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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भारतीय ज्ञान परंपरा
भारतीय ज्ञान परंपरा का श्री गणेश लोक साहित्य से होता है। आदि मानव ने नर्मदा, कृष्णा, कावेरी आदि नादियाओं की घाटियों में घूमते हुए प्रकृति में व्याप्त ध्वनियों जल प्रवाह की कलकल, मेघों की गर्जन, उल्कापात की तड़कन, सिंह की दहाड़, सर्प की फुँफकार आदि के प्रभावों का अध्ययन कर उनकी आवृत्ति की ताकि अपने साथियों को सूचित कर सके। पर्यावरण, मौसम और भौगोलिक परिस्थितियों का अध्ययन कर मूल निवासियों ने प्रकाश कर्ता सूर्य, शीतलता दाता चंद्रमा, अन्न दात्री पृथ्वी, जल दात्री नदियों, आश्रय दाता पर्वतों, फूल-फल दाता वृक्षों आदि को पूज्य माना। आदिवासियों ने उपकारकर्ता वृक्षों, पशुओं, पक्षियों आदि को अपना कुल देवता माना तथा उन्हें क्षति न पहुँचने, उनकी रक्षा करने का संकल्प लेकर अपनी संततियों के लिए भी उसे अनिवार्य बना दिया। कालांतर में सूर्यवंशीय, चंद्र वंशीय, नाग वंशीय आदि सभ्यताएँ तथा राजकुल इसी विरासत से विकसित हुए। हर सभ्यता तथा कुल के मूल में लोक कथाएँ, लोक गीत आदि हैं जो अब पर्व कथाओं के ररोप में कही-सुनी जाती हैं। इन कथाओं के केंद्र में मानवीय मूल्य, धार्मिक विश्वास, सद्गुण तथा सद्भाव आदि रहते हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा का यह प्रथम चरण वाचिक अथवा मौखिक था। जब मनुष्य ने अंगुलियों से रेत पर कुछ उकेरना सीखा, पेड़ों की टहनियों को उसके रस में डुबाकर शिलाओं पर चित्र बनाना सीखा तब उसके समानांतर ध्वनियों को विशिष्ट संकेतों से व्यक्त करने की क्षमता पा लेने पर अक्षरों, शब्दों, वाक्यों का सृजन किया। अगला चरण भाषा और लिपि संबंधी व्याकरण और पिंगल की रचना था। आदि मानव के गुफा मानव, वन्य मानव, ग्राम्य मानव और नागर मानव के रूप में परिवर्तित होने के साथ-साथ भाषा भी बदलती गई। बुंदेलखंड में कहावत है "कोस कोस में बदले पानी, चार कोस में बानी।" भाषा में बदलाव के साथ ज्ञान का विकास होता गया। ज्ञान का व्यवस्थित अध्ययन 'विज्ञान' हो गया।
लगभग ४ अरब वर्ष पूर्व दक्षिण ध्रुव पर एकत्रित भूखंड के टूटने पर पाँच महाद्वीपों तथा अनेकों लघु द्वीपों का निर्माण हुआ। हिंद महासागर में स्थित गोंडवाना लैंडस के साथ टैथीस महासागर महासागर के समाप्त होने से उभरे भूखंड मिलने पर वर्तमान भारत भूखंड का निर्माण हुआ। इस भारत की ज्ञान परंपरा लाखों वर्ष पूर्व वाचिक लोक साहित्य के रूप में आरंभ हुई। टैथीस महासागर के उत्तर में ईरान, अफगानिस्तान आदि में आर्य सभ्यता तथा दक्षिण में नाग सभ्यता, द्रविड़ सभ्यता आपस में टकराईं और अंतत: मिश्रित हो गईं। वेद, उपनिषद, पुराण, ब्राह्मण ग्रंथ, आगम ग्रंथ, निगम ग्रंथ आदि के रूप में जीवन निर्वहन हेतु हर क्षेत्र (आखेट, कृषि, प्राकृतिक चिकित्सा, खगोल विज्ञान, शिल्प, कौशल, जलवायु, ज्योतिष, वास्तु, नाट्य, पिंगल, विविध कलाएँ, आयुर्वेद और स्थानीय पारंपरिक प्रौद्योगिकी आदि) से संबंधित व्यावहारिक ज्ञान कहानियों, किदवंतियों, लोक कथाओं, कहावतों, लोकोक्तियों,पर्व गीतों, पौराणिक कथाओं, दृश्य कला और वास्तु कला के रूप में संकलित किया जाता रहा। भारतीय ज्ञान परंपरा के अंतर्गत संग्रहीत साहित्य की विरासत समृद्ध, दीर्घकालिक, लौकिक-पारलौकिक का मिश्रण, प्रकृति-पर्यावरण के अनुकूल, मानवता हेतु हितकर तथा वैश्विक कल्याण चेतना से संपन्न है। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशील आदि विद्यापीठ तथा परशुराम, विश्वामित्र, संदीपनी जैसे ऋषियों के आश्रम शिक्षा व शोध के प्रधान केंद्र थे। शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति, सुख-ऐश्वर्य तथा आत्म कल्याण था। आधुनिक युग में पराधीनता के दौर में भारतीय ज्ञान परंपरा को भीषण आघात पहुँचा। मुग़ल आक्रान्ताओं ने शिक्षा केंद्र नष्ट कर ग्रंथागारों में आग लगाकर ग्रंथों को नष्ट कर दिया। अंग्रेजों ने पारंपरिक ज्ञान परंपरा के स्थान पर पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली की स्थापना की। फलत: आधुनिक शिक्षा आंग्ल ज्ञान परंपरा पोषित है।
हिंदी भाषा
गोंडवाना में आदिवासी भाषाएँ (गोंड़ी, भीली, कोरकू, हलबी आदि) प्रचलित थीं। लिपि का विकास न होने के कारण आदिवासी भाषाएँ सिमटती गईं। द्रविड़ भाषाओं तमिल (उद्भव ५००० वर्ष पूर्व), डोगरी (१५०० ई.पू.), उड़िया (१० वी सदी ईसा पूर्व), तेलुगु (६ वी सदी ईसा पूर्व), पाली तथा ब्राह्मी (३ री सदी ई.पू.), कन्नड़ (२५०० वर्ष पूर्व, लिपि १९०० वर्ष पूर्व), मलयालम (९ वी सदी के आस-पास विकसित तमिल की बोली), बांग्ला (१००० ई.) आदि विकसित हुईं। आर्यों के आगमन के साथ संस्कृत का प्रवेश हुआ। संस्कृत (उद्भव २५०० ई.पू., ३ रूप वैदिक, शास्त्रीय, आधुनिक) की क्लिष्टता के कारण जन सामान्य में मध्य इंडो-आर्यन भाषा प्राकृत (५ वीं शताब्दी ईसा पूर्व से १२ वीं शताब्दी ईस्वी) तक प्रचलित रहा। अर्ध मागधी, शौरसेनी तथा महाराष्ट्री का विकास प्राकृत से हुआ। प्राकृत का अंतिम रूप अपभ्रंश ५०० ई. से १००० ई. में प्रचलित रही। असमिया (६ वी सदी), पञ्जाबी (७ वी सदी),राजस्थानी (९ वी सदी), गुजराती तथा उर्दू (१२ वी सदी) के विकास ने भारत की भाषिक समृद्धता में चार चाँद लगाए। हिंदी (उद्भव ७६९ ई.) के विकास में अपभ्रंश के अंतिम रूप अवहट्ट, संस्कृत, शौरसेनी, बृज, बुंदेली आदि कई पूर्ववर्ती भाषाओं का योगदान रहा है। आदिकाल (१०००ई.-१५०० ई.) में हिंदी अपभ्रंश के निकट रही। इस समय दोहा, चौपाई, छप्पय, दोहा, गाथा आदि छंदों की रचनाएँ होना शुरू हो गई थी। आदिकाल के प्रमुख रचनाकार गोरखनाथ, विद्यापति, नरपति नालह, चंद्र वरदाई और कबीर हैं। इनकी भाषा को सधुक्कड़ी कहा गया। मध्यकाल (१५०० ई.-१८००ई.) में हिंदी ने अनुमानत: ३५०० फारसी शब्द, २५०० अरबी शब्द, ५० पश्तों शब्द, १२५ तुर्की शब्द, अनेक पुर्तगाली, स्पेनी, फ्रांसीसी,अंग्रेजी अन्य भाषाओं-बोलिओं के शब्दों को आत्मसात कार खुद को समृद्ध और समर्थ बनाया। इस अवधि में हिंदी पर अपभ्रंश का प्रभाव क्रमश: खत्म होता गया। १८०० ई. से अब तक के आधुनिक काल में हिंदी की दो शैलियाँ विकसित हुईं। एक उदारतावादी जिसमें हिंदी के विकास में सहायक रही भाषाओं-बोलिओं के शब्दों को अपनाने को प्राथमिकता दी गई दूसरी शुद्धतावादी जिसमें संस्कृत के शब्दों को जैसे का तैसा (तत्सम) अपनाने पर बल दिया गया।
आधुनिक काल में यह विवाद निरर्थक है। आज हिंदी के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती भावी पीढ़ी के लिए अपनी उपादेयता बनाए रखना है। यह तभी संभव है जब हिंदी रोजगार और आजीविका प्राप्ति में सहायक हो सके। इस दिशा में मध्य प्रदेश में उल्लेखनीय कार्य अभियांत्रिकी (इंजीनियारीग), आयुर्विज्ञान (मईदुकल), औषधि विज्ञान (फार्मेसी), पशु चिकित्सा (वेटेरिनरी) आदि के पाठ्यक्रमों तथा परीक्षा में हिंदी का उपयोग कार किया गया है। अन्य हिंदी भाषी क्षेत्रों को यह कदम तत्काल उठाना चाहिए। उच्च तकनीकी शिक्षा के लिए हिंदी में पाठ्य पुस्तकें तैयार करते समय उनकी भाषा सहज-सरल तथा बोधगम्य रखने पर ध्यान देना होगा। अब तक का अनुभव यह है कि कानून, अभियंत्रिकी तथा चिकित्सा क्षेत्रों में तैयार की गई पुस्तकों की भाषा शुद्धता बनाए रखने के प्रयास में बनावटी, कठिन और अग्राह्य हो गई है। फलत: शिक्षक और विद्यार्थी अंग्रेजी को ही प्राथमिकता दे रहे हैं। यह परिदृश्य बदलने के लिए सहज-सरल हिंदी में पुस्तकें तैयार करनी होंगी जिनमें वैश्विक स्तर पर स्वीकार्य तकनीकी-पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग यथावत हो। आवश्यक होने पर नए शब्द भारतीय भाषाओं-बोलिओं से ग्रहण किए जाएँ और नए शब्द बनाते समय उनकी अर्थवत्ता तथा लोक स्वीकृति को ध्यान में रखा जाना आवश्यक है।
वर्तमान समय में ज्ञान-विज्ञान का विकास अत्यधिक तीव्र गति से अगणित विषयों और आयामों में हो रहा है। हिंदी को समय के साथ परिवर्तित तथा विकसित होते हुए खुद को विश्ववाणी बनाने और चिरजीवी होने के लिए खुद को भावी पीढ़ी के लिए उपयोगी बनाए रखने की चुनौती का सामना करना है। यह तबही संभव है जब हिंदी हर विषय और हर विधा के अद्यतन ज्ञान को ग्रहण और अभिव्यक्त कर सके। इसके लिए हिंदी को विश्व की सभी भाषाओं के सम्यक शब्दों को ग्रहण करते रहना होगा। इसके समानांतर हिंदी को देशज बोलिओं के विशाल शब्द भंडार और अन्य भारतीय भाषाओं के विराट शब्द कोश से शब्द ग्रहण करने होंगे। ऐसा होने पर अन्य भाषा-भाषियों का हिंदी से लगाव बढ़ेगा। विषयगत पारिभाषिक शब्द ग्रहण करने से हिंदी की स्वीकार्यता विश्व में बढ़ेगी। आधुनिक काल में विश्व के विविध देश मिलकर महत्वपूर्ण वैज्ञानिक परियोजनाओं पर कार्य करते हैं। उनके मध्य वर्तमान में अंग्रेजी भाषा ही संपर्क भाषा का कार्य कर रही है। इस भूमिका में अपनी स्वीकार्यता के लिए हिंदी को शब्द-ग्रहण प्रक्रिया अधिकतम तेज करनी होगी, अन्यथा वह पिछड़ जाएगी। सार्ट:, यह याद रखा जाना चाहिए कि कोई भाषा तब ही तब ही जिंदा रहती है जब वह जन सामान्य द्वारा प्रयोग की जाती है।
राम कथा
भारतीय ज्ञान परंपरा और हिंदी के परिप्रेक्ष्य में राम कथा की प्रासंगिकता सर्वाधिक इसलिए है कि राम भारत के लोक मानस में सामान्य जन, महा मानव तथा सर्व शक्तिमान शक्ति की त्रिमूर्ति को एकाकारित कर सके हैं। तुलसी दास जी ने 'नाना भाँति राम अवतारा, रामायण सत कोटि अपारा' कहकर इसी सत्य की स्थापना की है। मनुष्य के जीवन में आने वाले सभी संबंधों को पूर्ण तथा उत्तम रूप से निभाने की शिक्षा देनेवाला रामके समान दूसरा कोई चरित्र विश्व साहित्य में नहीं है। आदि कवि वाल्मीकि ने उनके संबंध में कहा है- 'समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्यण हिमवानिव' अर्थात वे गाम्भीर्य में समुद्र के समान तथा धैर्य में पर्वत के समान हैं। राम के जीवन में कहीं भी अपूर्णता दृष्टिगोचर नहीं होती। जब जैसा कार्य करना चाहिए राम ने तब वैसा ही किया। राम रीति, नीति, प्रीति तथा भीति सभी जानते-मानते और यथावसर प्रयोग करते हैं। राम परिपूर्ण हैं, आदर्श हैं। राम ने नियम, त्याग का एक आदर्श स्थापित किया है।
किसी ज्ञान परंपरा का उद्देश्य सत्य की प्राप्ति, जन-हित, अज्ञान का विनाश, सर्व कल्याण तथा सुखद व चिरस्थायी भविष्य की प्राप्ति ही होता है। शिक्षा ज्ञान प्राप्ति का उपकरण है। शिक्षा प्राप्ति के लिए समर्पण, लगन, अनुशासन, नियमितता, जिज्ञासा, स्वाध्याय, अभ्यास तथा विनयशीलता आवश्यक है। राम कथा के नायक हीनहीं अन्य पत्रों में भी ये सभी अनुकरणीय प्रवृत्तियाँ सर्वत्र उपस्थित हैं। इसलिए राम कथा हर विषय, देश और काल की ज्ञान परंपरा के लिए समर्थ-सशक्त और प्रभावी माध्यम है। मानव जीवन के हर आयाम, हर क्षेत्र तथा हर उपक्रम में राम और राम कथा की प्रासंगिकता, उपादेयता और प्रामाणिकता असंदिग्ध है। यही कारण है की राम कथा भारत के बाहर भी प्रचलित थी, है और रहेगी। विश्व में राम कथा का प्रचार-प्रसार बिना किसी राजकीय-आर्थिक-राजनैतिक संसाधनों के स्वयमेव ही होता रहा है। अन्य किसी चरित्र और कथा को ऐसा सौभाग्य नहीं मिला। इस रूप में राम कथा 'लोक की, लोक के द्वारा, लोक के लिए' है। कोई ज्ञान परंपरा इस निकष पर खरी उतर सके तो वह कालजयी ही नहीं, भव-बाधा नाशक और कष्टों से मुक्तिदाता भी हो जाएगी।
हिंदी भाषा राम कथा की ही तरह सर्व ग्राह्य है। क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों के कारण दक्षिण भारत में हो रहे हिंदी विरोध से अप्रभावित रहकर हिंदी को विश्व वाणी के रूप में खुद को विकसित करते रहना है। यह तबही होगा जब हिंदी अन्य भाषाओं और उनके शब्दों को उसी तरह निस्संकोच स्वीकार करे जैसे राम अपने संबंधियों, प्रजा जनों, वन वासियों आधी को निस्संकोच स्वीकारते हैं। राम कथा ककी लोक स्वीकृति वाल्मीकि रामायण से कम तुलसी कृत राम चरित मानस से अधिक होने का कारण यही है की मानस लोक मान्य, लोक स्वीकृत सहज-सरल उदार मूल्यों को आतमर्पित ही नहीं स्थापित भी करती है। हिंदी को भी अपने आप को इसी तरह विकसित करना होगा की वह वर्ग विशेषम विद्वानों का समर्थों की भाषा न बनकर जन सामान्य और सकल विश्व की भाषा हो सके। हिंदी को राम कथा की ही टर्न भारतीय ज्ञान परंपरा के अतीत में जड़ें जमाकर, वर्तमान में अंकुरित-पल्लवित होते हुए भविष्य में पुष्पित-फलित होने के लिए रामकथा की तरह सर्व व्यापी होते रहना होगा।
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,
चलभाष: ९४२५१८३२४४ ,ई मेल : salil.sanjiv@gmail.com
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