दोहा सलिला
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रहे प्रदीपा आत्म जब, तभी मिले आनंद।
सलिल न भव की फिक्र कर, सुन-गा गुरु के छंद।।
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अर्थ न होता अर्थ में, व्यर्थ अर्थ की होड़।
कर संजीव अनर्थ कुछ, घट जाए कुछ जोड़।।
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दुविधा से सुविधा मिले, रखे हाथ पर आत्म।
बैठ रहो सुख-शांति से, साथ रहे परमात्म।।
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पग उत्तर की चाह में, जा दक्षिण की ओर।
प्रत्युत्तर दे रहे हैं, मचा-मचाकर शोर।।
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जो है बाहर समझ के, व्याप्त वहीं पर आप।
समझ रहा जो नासमझ,बिन समझे कर जाप।।
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संजीव
२७-१०-२०१८
७९९९५५९६१८
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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रविवार, 28 अक्टूबर 2018
दोहा सलिला
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