कविता:
कवि का घर
सुशील कुमार
*
( उन सच्चे कवियों को श्रद्धांजलिस्वरूप जिन्होंने फटेहाली में अपनी जिंदगी गुज़ार दी | )

कवि का घर
सुशील कुमार
*
( उन सच्चे कवियों को श्रद्धांजलिस्वरूप जिन्होंने फटेहाली में अपनी जिंदगी गुज़ार दी | )
किसी कवि का घर रहा होगा वह..
और घरों से जुदा और निराला
चिटियों से लेकर चिरईयों तक उन्मुक्त वास करते थे वहाँ
चूहों से गिलहरियों तक को हुड़दंग मचाने की छूट थी
बेशक उस घर में सुविधाओं के ज्यादा सामान नहीं थे
ज्यादा दुनियावी आवाज़ें और हब-गब भी नहीं होती थीं
पर वहाँ प्यार, फूल और आदमीयत ज्यादा महकते थे
आत्माएँ ज्यादा दीप्त दिखती थीं
साँसें ज्यादा ऊर्जस्वित
धरती की सम्पूर्ण संवेदनाओं के साथ
प्यार, फूल और आदमीयत की गंध के साथ
उस घर में अपनी पूरी जिजीविषा से
जीता था अकेला कवि-मन बेपरवाह
चिटियों की भाषा से परिंदों की बोलियाँ तक पढ़ता हुआ
बाक़ी दुनिया को एक चलचित्र की तरह देखता हुआ
तब कहीं जाकर भाषा
एक-एक शब्द बनकर आती थी उस कवि के पास
और उसकी लेखनी में विन्यस्त हो जाती थी
अपनी प्रखरता की लपटों से दूर, स्वस्फूर्त हो
कवि फिर उनसे रचता था एक नई कविता
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