मेघ बजे
संजीव 'सलिल'
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.

*
दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी.
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी...
तोड़ कूल-मरजाद नदी उफनाई तो-
बाबुल पर्वत रूठे, तनया तुरत तजे...
पल्लव की करताल,
बजाती नीम मुई.
खेत कजलियाँ लिये,
मेड़ छुईमुई हुई..
जन्मे माखनचोर, हरीरा भक्त पिए.
गणपति बप्पा, लाये मोदक हुए मजे...
*
चू गयी है बाखर.
डूबी शाला हाय!,
पढ़ाये को आखर?
डुकरो काँपें, 'सलिल' जोड़ कर राम भजे...
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे बिजुरिया, बिना लजे...
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
13 टिप्पणियां:
bahut sunder navgeet hai
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
सलिल जी का बहुत सुन्दर नवगीत. गैल,बाखर,और डुकरो जैसे क्षेत्रीय शब्दों के संयोग से और भी मनमोहक हो गया है
सल्लिलजी, क्या कहने!
मन मोहक दृश्य,
दादुर,पल्लव की ताल,
मयूर-मयूरी का मिलन !
पिता-पर्वत से, रूठी/उफनती पुत्री नदी का मर्यादा-उल्लंघन !
गणपति बाप्पा का मजे से मोदक खाना !
टपकती टीन की छत से बरखा से भीगी शाल !
और इंजिनियर साहब की असावधानी का फल- गाली खानी पड़ी जी.
नवगीत अति सुंदर है. शुभ कामनाएं
आपके गीतों में अभिनव प्रयोग अच्छे लगते हैं..
सीखने को भी मिल जाता है..
'बके गाली अभियंता को.. डुकरो काँपे..' वाह
'शाला' की त्रुटि के लिए क्षमा चाहती हूं,
वास्तव में दृश्य तो पानी में डूबी पाठशाला का था.
पढाई न हो सकी तो इंजिनियर को दोष मिला.
धन्यवाद.
संजीव सलिल जी का अपना निजत्व, मुहावरों पर उनकी पकड़ और देशज शब्दों का अभिनव प्रयोग उनके गीत का माधूर्य और सौन्दर्य दोनों ही बढ़ा देता है. यह निजता ही उनकी विशिष्ट्ता है, यही उन्हें सबसे अलग भी करती है.
बाबुल पर्वत रूठे तनया तुरत तजे..
bahut sundar abhivykti
kshetriya shabdon ke arth de dene se aur suvidha ho jaati
वंदना जी!
वन्दे मातरम.
वंदना तो मेरी साली जी का नाम है.
आप को किन शब्दों के अर्थ समझने में कठिनाई है इंगित कर सकतीं तो बता देता.
रचना में शब्द सन्दर्भों और सामाजिक सरोकारों के साथ विशिष्ट अर्थ ध्वनित करते हैं. पृष्ठ भूमि अपरिचित हो तो रस नहीं मिल पाता. अस्तु अपनी समझ से कुछ शब्दों के अर्थ देता हूँ.
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे = गाँवों में प्रमुख को ठाकुर कहते हैं और पर्वों या अन्य मांगलिक अवसरों पर प्रमुख के द्वार पर मंगल वाद्य बजाये जाने और लोक नृत्य किये जाने की परंपरा है. ड्योढ़ी = मुख्य दरवाज़ा, बेड़नी - लोक नर्तकी, ठुमुक = नृत्य के समय लचकाना, बिजुरिया = बिजली, लजे = शर्माना, दादुर = मेंढक, ताल = गीत के साथ ताल देना, मरजाद = मर्यादा या सीमा, उफनाई = लबालब भरने के बाद किनारों के बाहर जल गिरना, बाबुल = पिता, तनया = पुत्री, तजे = त्यागना या छोड़ना, पल्लव = पत्ते, करताल = हाथों से बजाय जानेवाला एक लोक वाद्य, मुई = एक लोक संबोधन, जिसे झिड़की देते समय उपयोग किया जाता है, मेड़ = खेतों को छोटे हिस्सों में बांटने के लिये मिट्टी की लम्बी ढेरी, छुईमुई = एक पौधा जिसकी पत्तियाँ छूने पर सिकुड़ जाती हैं, माखनचोर = कृष्ण, हरीरा = प्रसूति के पश्चात् मान को पिलाये जानेवाला पौष्टिक पेय जिसमें गाय का घी, गुड़, काजी, किशमिश, बादाम, सौंठ, अजवाइन आदि मिले होते हैं. मोदक = एक प्रकार के लड्डू जो गणेश जी को विशेष प्रिय हैं. चू गयी = रिस गयी, टपकने लगी,
बाखर = रहवास, निवास या आवास, को = कौन, आखर = अक्षर भावार्थ पढ़ाई, गैल = गली, पतला रस्ता, लेन, डुकरो = वृद्ध स्त्री, बुढ़िया, कर = हाथ, राम भजे = भगवान का भजन करे,
आशा है इतना पर्याप्त है. समाधान हो सकेगा.
आदरणीय सलिल जी,
दृश्य और ध्वनि दोनों का अनुभव कराता, देशज शब्दों से भरपूर यह गीत मन को बहुत भाया । कितने ही नये शब्द मिले और आनन्द आया । धन्यवाद ।
शशि पाधा
param aadarniya salil ji ,
agyaanta ke liye ksham prarthi hun.
'bedni' aur 'bakhar' shabd ko hi nahi samajh paayi thi, baki to...
aapki rachnaaye salil ke saman hi bahti hain aur meri pahunch to atyant seemit hai aasha hai.
mere shabdon ko anyatha n liya hoga!
सलिल जी
नमस्कार,
देर से सही पर एक अच्छे, ज्ञान वर्धक नवगीत के लिए बधाई व धन्यवाद स्वीकार करें.
इस सप्ताह अनुभूति पर आप की आनंददायी रचनाओं को पढ़ना अत्यधिक सुखद है.
धन्यवाद!
हुईं शारदा सदय वंदना सलिल करे.
उत्तम विमल सु-भाष तिमिर का अंत करे...
दीपक लिये मशाल
प्रभाती पुनः सुना रे.
कुशंकाओं-बाधा का
देखें शीश कटा रे..
मुकुलित रहे मनोज, सृजन का पंथ वरे.
हुईं शारदा सदय वंदना सलिल करे.
*
वंदना जी!
आपका आभार कि आपने मुझे सचेत किया. भविष्य में देशज शब्दों के अर्थ पाद टिप्पणी में देने का प्रयास होगा. मेरी असावधानी से आपको हुई असुविधा हेतु खेद है.
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