मुक्तिका
.....डरे रहे.
संजीव 'सलिल'
*
*
हम डरे-डरे रहे.
तुम डरे-डरे रहे.
दूरियों को दूर कर
निडर हुए, खरे रहे.
हौसलों के वृक्ष पा
लगन-जल हरे रहे.
रिक्त हुए जोड़कर
बाँटकर भरे रहे.
नष्ट हुए व्यर्थ वे
जो महज धरे रहे.
निज हितों में लीन जो
समझिये मरे रहे.
सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे.
****************
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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रविवार, 30 मई 2010
मुक्तिका: .....डरे रहे.. --संजीव 'सलिल'
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18 टिप्पणियां:
गुड्डोंदादी (:): अति सुंदर भावपूर्ण आशीर्वाद भाई
kirti: bahut khoob salil ji
Farhan Khan: very nice....i have no word to appreciate
निज हितों में लीन जो
समझिये मरे रहे.
सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे. "पर हित सरिस धरम नहि भाई" बहुत सुन्दर! यूं ही आप लगे रहें..
निज हितों में लीन जो
समझिये मरे रहे.
सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे.
सटीक और सुन्दर...
बहुत ही अच्छा लगा पढ़कर ,
"नहला तो देखा था पहले , अब मैंने दहला देख लिया |"
Your's ,
Achal Verma
आदरणीय ख़लिश जी
क्या बात है! इतनी छोटी बहर में कितनी खूबसूरती से आपने शेर कहे हैं. बहुत सुन्दर !
सादर
प्रताप
2010/5/29 Dr.M.C. Gupta
हम डरे -डरे रहे—ईकविता, २९ मई २०१०
हम डरे -डरे रहे
कोई क्या हमें कहे
धार वक्त की चली
हम रुके कभी बहे
फूल भी मिले हमें
खार हैं कभी सहे
दर्द न कहा कभी
होंठ हम सिये रहे
ग़म मिले मगर उन्हें
भूल ही ख़लिश रहे.
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
२० मई २०१०
निज हितों में लीन जो
समझिये मरे रहे.
सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे. "पर हित सरिस धरम नहि भाई" बहुत सुन्दर! यूं ही आप लगे रहें..
ब्लॉगर सूर्यकान्त गुप्ता
निज हितों में लीन जो
समझिये मरे रहे.
सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे.
सटीक और सुन्दर...
ब्लॉगर sangeeta swarup …
दूरियों को दूर कर
निडर हुए, खरे रहे.
ये ही आज किसी भी बदलाव को लाने में सक्षम हो सकता है |
छोटी बहर में मर्मस्पशी गजल....बहुत सुन्दर।
बहुत सुन्दर !
BADHAI AAP KO IS KE LIYE
Achchaa hai
रिक्त हुए जोड़कर
बाँटकर भरे रहे.
नष्ट हुए व्यर्थ वे
जो महज धरे रहे.
बहुत ख़ूबसूरत और दिल को छू लेने वाली ग़ज़ल!
बहुत सुंदर जी
सुन्दर कविता ।
आदरणीय आचार्य जी,
सुन्दर!
सादर शार्दुला
शार्दुला जी
सादर वन्दे मातरम.
उत्साहवर्धन हेतु आभारी हूँ.
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