: मुक्तिका :
मन का इकतारा
संजीव 'सलिल'
*

*
मन का इकतारा तुम ही तुम कहता है.
जैसे नेह नर्मदा में जल बहता है..
*
सब में रब या रब में सब को जब देखा.
देश धर्म भाषा का अंतर ढहता है..
*
जिसको कोई गैर न कोई अपना है.
हँस सबको वह, उसको सब जग सहता है..
*
मेरा बैरी मुझे कहाँ बाहर मिलता?
देख रहा हूँ मेरे भीतर रहता है..
*
जिसने जोड़ा वह तो खाली हाथ गया.
जिसने बाँटा वह ही थोड़ा गहता है..
*
जिसको पाया सुख की करते पहुनाई.
उसको देखा बैठ अकेले दहता है..
*
सच का सूत न समय कात पाया लेकिन
सच की चादर 'सलिल' कबीरा तहता है.
****
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
मन का इकतारा
संजीव 'सलिल'
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मन का इकतारा तुम ही तुम कहता है.
जैसे नेह नर्मदा में जल बहता है..
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सब में रब या रब में सब को जब देखा.
देश धर्म भाषा का अंतर ढहता है..
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जिसको कोई गैर न कोई अपना है.
हँस सबको वह, उसको सब जग सहता है..
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मेरा बैरी मुझे कहाँ बाहर मिलता?
देख रहा हूँ मेरे भीतर रहता है..
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जिसने जोड़ा वह तो खाली हाथ गया.
जिसने बाँटा वह ही थोड़ा गहता है..
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जिसको पाया सुख की करते पहुनाई.
उसको देखा बैठ अकेले दहता है..
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सच का सूत न समय कात पाया लेकिन
सच की चादर 'सलिल' कबीरा तहता है.
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
7 टिप्पणियां:
M VERMA :
सब मे रब या रब में सब को जब देखा
देश धर्म भाषा का अंतर ढहता है
समभाव शायद इसी को कहते हैं
बहुत सुन्दर
Udan Tashtari :
अति सुन्दर!!
अमिताभ मीत :
वाह ! बहुत बढ़िया !!
achal verma, ekavita
आचार्य सलिल ,
बहुत ही सुन्दर , बहुत ही श्रेष्ठ रचना .
मेरे विचार भी आपसे बहुत मिलते जुलते हैं , पर आपकी भाषा में प्रवाह है
और हर एक पंक्ति सशक्त है.
Your's ,
Achal Verma
shar_j_n, ekavita
आदरणीय आचार्य जी,
परम सुन्दर भाव!
सादर शार्दुला
pratapsingh1971@gmail.com
आदरणीय आचार्य जी
क्या कहने हैं आपके ! बहुत ही सुन्दर !
मेरा बैरी मुझे कहाँ बाहर मिलता?
देख रहा हूँ मेरे भीतर रहता है.. ......... क्या बात है !
सादर
प्रताप
अचल प्रताप आपका है शार्दुला जी!
'सलिल' चरण प्रतिभा के छूने बहता है..
*
उत्साहवर्धन हेतु आभारी हूँ.
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