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रविवार, 27 अक्टूबर 2024

बीना दास,

वीरांगना बीना (वीणा) दास
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            १९८६ में दिसंबर के महीने में ऋषिकेश में एक खाई से एक अनाथ शव मिला जो पूरी तरह सड़ चुका था। कठिनाई से पता चला कि शव एक महान देश भक्त बीना दास का था।

            बीना दास का जन्म २४ अगस्त, १९११ को कृष्णा नगर, जिला नादिया, पश्चिम बंगाल में हुआ था। वे बेनी माधब दास तथा सरला देवी की पुत्री थीं। बेनी माधब दास ब्रह्म समाज के सदस्य और एक सुविख्यात अध्यापक थे। उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भी पढ़ाया था। सरला देवी निराश्रित महिलाओं के लिए स्थापित 'पुण्याश्रम' नामक एक संस्था की संचालिका थीं। इस आश्रम का मुख्य कार्य क्रांतिकारियों की सहायता करना था। इसमें क्रांतिकारियों के लिए शस्त्रों का भंडारण किया जाता था, जिससे ब्रिटिश सरकार को उसी की भाषा में जवाब दिया जा सके।

            बीना दास सेंट जॉन डोसेसन गर्ल्स हायर सैकण्डरी स्कूल और बेथ्यून कॉलेज की छात्रा रहीं। बीना की बड़ी बहन कल्याणी दास भी स्वतंत्रता सेनानी रहीं। अपने स्कूल के दिनों से ही दोनों बहनें अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ होने वाली रैलियों और मोर्चों में भाग लेती थीं। पुण्याश्रम संघ ब्राह्मो गर्ल्स स्कूल, विक्टोरिया स्कूल, बेथ्यून कॉलेज, डायोकेसन कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज में पढ़ने वाली छात्राओं का समूह था। बंगाल में संचालित इस समूह में शताधिक सदस्य थे, जो भविष्य के लिए क्रांतिकारियों को इसमें भर्ती करते और प्रशिक्षण भी देते थे। संघ में सभी छात्राओं को लाठी, तलवार चलाने के साथ-साथ साइकिल और गाड़ी चलाना भी सिखाया जाता था। इस संघ में शामिल कई छात्राओं ने अपना घर भी छोड़ दिया था और ‘पुण्याश्रम’ में रहने लगीं, जिसका संचालन बीना की माँ सरला देवी करती थीं। यह छात्रावास बहुत सी क्रांतिकारी गतिविधियों का गढ़ था जहाँ भंडार घर में स्वतंत्रता सेनानियों के लिए हथियार, बम आदि छिपाए जाते थे।

            तरुणी बीना ने शरत चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा १९२६ में लिखित और ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित उपन्यास 'पाथेर दाबी' (पथ के दावेदार) पढ़ा ही नहीं, उसे अपने जीवन में साकार भी किया। वे कोलकाता में महिलाओं के संचालित अर्ध-क्रान्तिकारी संगठन 'छात्री संघ' की सदस्या बन गईं। कलकत्ता के ‘बेथ्युन कॉलेज’ में पढ़ते हुए १९२८ में साइमन कमीशन के बहिष्कार के समय बीना ने अपनी कक्षा की कुछ अन्य छात्राओं के साथ अपने कॉलेज के फाटक पर धरना दिया। वे स्वयं सेवक के रूप में कांग्रेस अधिवेशन में भी सम्मिलित हुईं। इसके बाद वे ‘युगांतर’ दल के क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आईं। उन दिनों क्रांतिकारियों का एक काम बड़े अंग्रेज़ अधिकारियों को गोली का निशाना बनाकर यह दिखाना था कि भारतीय उनसे कितनी नफ़रत करते हैं।

            ६ फरवरी १९३२ को कलकत्ता विश्वविद्यालय में समावर्तन उत्सव मनाया जा रहा था। बंगाल के अंग्रेज लॉर्ड सर स्टैनले जैकसन मुख्य अतिथि थे। उन दिनों जैक्सन को ‘जैकर्स’ के रूप में जाना जाता था और उन्होंने इंग्लैंड की क्रिकेट टीम में अपनी सेवाएँ दी थी, इसलिए उनका नाम काफ़ी मशहूर था। जैसे ही जैक्सन ने समारोह में अपना भाषण देना शुरू किया, बीना ने भरी सभा में उठ कर गवर्नर पर गोली चला दी। गोली गवर्नर के कान के पास से निकल गई और वह मंच पर लेट गया। इतने में लेफ्टिनेन्ट कर्नल सुहरावर्दी ने दौड़कर बीना दास का गला एक हाथ से दबा लिया और दूसरे हाथ से पिस्तौलवाली कलाई पकड़कर सीनेट हाल की छत की तरफ कर दी। फिर भी बीना दास गोली चलाती गई, लेकिन पाँचों गोलियाँ चूक गईं। उन्होंने पिस्तौल फेंक दी। इसके बाद बीना दास सभी अख़बारों की सुर्खियाँ बन गयीं – ‘कलकत्ता की ग्रेजुएशन कर रही एक छात्रा ने गवर्नर को मारने का प्रयास किया!’

            अदालत में बीना दास ने एक साहसपूर्ण बयान दिया। अखबारों पर रोक लगा दिये जाने के कारण वह बयान प्रकाशित न हो सका। मुकदमे के दौरान उन पर काफ़ी दबाव बनाया गया कि वे अपने साथियों का नाम उगल दें, लेकिन बीना टस से मस न हुईं। उन्होंने मुकदमे के दौरान कहा- “बंगाल के गवर्नर उस सिस्टम का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसने मेरे 30 करोड़ देशवासियों को गुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ है।” उन्होंने आगे कहा कि वे गवर्नर की हत्या कर इस सिस्टम को हिला देना चाहती थीं। उन्हें नौ वर्षों के लिए सख़्त कारावास की सजा दी गई। सज़ा मिलने से पहले उन्होंने कलकत्ता हाई कोर्ट में कहा- “मैं स्वीकार करती हूँ, कि मैंने सीनेट हाउस में अंतिम दीक्षांत समारोह के दिन गवर्नर पर गोली चलाई थी। मैं खुद को इसके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार मानती हूँ। अगर मेरी नियति मृत्यु है, तो मैं इसे अर्थपूर्ण बनाना चाहती हूँ, सरकार की उस निरंकुश प्रणाली से लड़ते हुए जिसने मेरे देश और देशवासियों पर अनगिनत अत्याचार किये हैं….”

            उनके संस्मरण, ‘जीबन अध्याय’ में उनकी बहन कल्याणी दास ने लिखा है कि कैसे भाग्य ने दोनों बहनों को फिर से एक साथ ला खड़ा किया था जब उन्हें भी हिजली कैदखाने में लाकर बंद कर दिया गया था। बाद में इस जगह को संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया। मकरंद परांजपे द्वारा लिखे गए इस संस्मरण की एक समीक्षा के अनुसार, बीना अपने साथियों के साथ भूख हड़ताल करके अपनी दर्द सहने की क्षमता को जाँचती थीं। इतना ही नहीं वह कभी जहरीली चींटियों के बिल पर अपना पैर रख देतीं तो कभी अपनी उँगलियों को लौ पर और इस तरह वे सही मायनों में ‘आग से खेलती थी’!

            वर्ष १९३७ में प्रान्तों में कांग्रेस सरकार बनने के बाद अन्य राजबंदियों के साथ बीना १९३९ में जेल से बाहर आईं। उन्होंने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता प्राप्त कर सन् १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लिया और पुनः १९४२ से १९४५ तक के लिए कारावास की सजा प्राप्त की। वे १९४६-४७ में बंगाल प्रान्त विधान सभा और १९४७ से १९५१ तक पश्चिम बंगाल प्रान्त विधान सभा की सदस्या रहीं। गाँधी जी की नौआख़ाली यात्रा के समय लोगों के पुनर्वास के काम में वीणा ने भी आगे बढ़कर हिस्सा लिया था।

            सन् १९४७ में उन्होंने युगान्तर समूह के भारतीय स्वतन्त्रता कार्यकर्ता और अपने साथी ज्योतिश चन्द्र भौमिक से विवाह किया किंतु शादी के बाद भी आज़ादी की लड़ाई में भाग लेती रहीं।। बीना दास ने बंगाली में दो आत्मकथाएँ लिखी- श्रृंखल झंकार और पितृधन। अपने पति की मृत्यु के बाद वे कलकत्ता छोड़कर ऋषिकेश जाकर एक छोटे-से आश्रम में एकान्त में रहने लगीं थीं। अपना गुज़ारा करने के लिए उन्होंने शिक्षिका के तौर पर काम किया और ट्यूशनें कीं किंतु सरकार द्वारा दी जानेवाली स्वतंत्रता सेनानी पेंशन लेने से इंकार कर दिया कि देश की सेवा मेरा धर्म था, जिसका कोई मोल नहीं हो सकता। देश के लिए खुद को समर्पित कर देने वाली इस वीरांगना का अंत बहुत ही दुखदपूर्ण स्थिति में २६ दिसंबर १९८६ में हुआ था।

        महान स्वतंत्रता सेनानी, प्रोफेसर सत्यव्रत घोष ने अपने लेख "फ्लैश बैक: बीना दास - रीबोर्न" में उनकी मार्मिक मृत्यु के बारे में लिखा- "उन्होंने सड़क के किनारे अपना जीवन समाप्त किया। उनका मृत शरीर बहुत ही छिन्न भिन्न अवस्था में रास्ते से गुजरने वाले लोगों को मिला। पुलिस को सूचित किया गया और महीनो की तलाश के बाद पता चला कि यह शव वीणा दास का है।

        आज आरक्षण और अनुदानों की भीख लेने और देने वाले क्या बीना दास द्वारा स्वतंत्रता संग्राम पेंशन न लेने की मोल भवन को समझ कार अपनी करनी पर शर्म अनुभव करेंगे। हम देश पर बोझ न बनकर, देश के लिए अपना सर्वस्व समर्पण करें तो ही ऐसे सच्चे शहीदों के वारिस हो सकेंगे।
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