कृति सलिला:
संजीव
[अधूरा मन, उपन्यास।, प्रथम संस्करण २००९, आकार २२ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १७९, मूल्य १५०/-, तिवारी ग्राफिक्स एन्ड पब्लिकेशंस भोपाल]
हिंदी साहित्य की समकालिक सारस्वत कारयित्री प्रतिभाओं में अग्रगण्य डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे रचित औपन्यासिक कृति अधूरा मन जीवन सागर के झंझावातों से निरंतर जूझती उपन्यास नायिका रत्ना की जयकथा है।

में रत्ना पूर्व अपने पारिवारिक परिचित युवक प्रदीप की मंगेतर थी। सहेली मीरा के सजग करने के बाद भी रत्ना प्रदीप के साथ दैहिक संबंध बनने से रोक नहीं पाती। विवाह पूर्व ही प्रदीप अमेरिका चला जाता है। वह गर्भवती रत्ना को गर्भ गिराने की सलाह देता है, फिर संपर्क भंग हो जाता है। असहमत रत्ना को पिता अपनी परिचिता के पास ले जाकर प्रसव कराते हैं। नवजात शिशु को वहीं छोड़ दोनों लौट आए थे।
पिता के न रहने पर रत्ना ने साहस के साथ वस्त्र व्यवसाय सँभाला जिसे दीपक मंदी से निकालकर कुशलतापूर्वक बढ़ा रहा था। न चाहते हुए भी रत्ना दीपक को अपने निकट आने से रोक नहीं पा रही थी जबकि दीपक को चाहनेवाली अाशा उसे पाने के लिए अंधाधुंध खरीदी कर रही थी। रत्ना अपनी दूकान के कर्मचारियों की समस्याओं का समाधान करती रही। अपर्णा उन्हीं में से एक है जो प्राणप्रण से दूकान को सँभालती और रत्ना को परामर्श देती है। दीपक के आज और प्रदीप के कल के मध्य भटकती रत्ना क्षणे रुष्टा क्षणे तुष्टा की मनस्थिति में डूबती-उतराती अपने बच्चे से मिलने पासी आंटी (उसके पिता की पारसी प्रेमिका जिनसे जाति वैविध्य के कारण विवाह न हो सका और वे आजीवन अविवाहित रहीं।) के पास जाती है। वत्सा के विवाह पर आया छोटा बहनोई द्वारा रत्ना-दीपक के संबंध में लांछन लगाने से दुखी रत्ना को दीपक से ग्यात होता है कि प्रदीप दुर्घटना में पंगु होने के कारण रत्ना के जीवन से निकल गया था। रत्ना प्रदीप से विवाह करने और बेटे को साथ रखने का निर्णय कर दीपक को आशा से विवाह करने के लिए कहती है।
उपन्यास के पात्र आदर्श और यथार्थ के बीच भूल-भुलैंया में फँसे प्रतीत होते हैं। वे कोई एक दिशा ग्राहण नहीं कर पाते। नायिका रत्ना प्रेम प्रसंग में दुर्बल होकर प्रेमी से संबंध बना बैठती है, फिर पुत्र को जन्म देकर भी दूर रखती है। पिता के न रहने पर परिवार को सँभाल कर पिता के कर्तव्य निभाती है पर दीपक के प्रति अनुराग भाव उसके चरित्र की कमजोरी है। दीपक के कथाप्रवेश का उद्देश्य अस्पष्ट है। यदि वह रत्ना की मदद करने आया तो प्रेम पथ पर पग रखना भटकाव है, यदि वह रत्ना से विवाह करने आया तो असफल रहा। रत्ना के पिता पारिवारिक दबाव में अपनी प्रेमिका से विवाह नहीं करते पर जीवन के सबसे बड़ी संकट में उसी की शरण में जाते हैं। रत्ना का बहनोई तथा प्रतिस्पर्धी व्यापारी मिलानी समाज के दुर्बल चेहरे हैं जो मलिनता के पर्याय हैं। अपर्णा की कर्मठता, मीरा का सत्परामर्श पासी आंटी का निस्वार्थ प्रेम अनुकरणीय है।
मनुष्य के जीवन में आदर्श-यथार्थ, सुख-दुख की गंगो-जमुनी धारा सतत प्रवाहित होती है, उपन्यास अधूरा मन के मुख्य पात्र और घटनाएँ यही प्रतिपादित करती हैं। कृतिकार ने चरित्रों और घटनाओं का नियामक नहीं, सहभागी बनकर उन्हें विकसित होने दिया है। इससे कथा शैथिल्य तथा विभ्रम की प्रतीति होती है पर रोचक संवादों व आकस्मिक घटनाओं में पाठक मन बँधा रहता है। डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे वरिष्ठ और समग्र जीवनदृष्टि में विश्वास रखनेवाली लेखिका हैं। वे वैचारिक प्रतिबद्धता, स्त्री-दलित विमर्शादि राजनैतिक दिशाहीन एकांगी लेखन की पक्षधर नहीं हैं। अपने वैयक्तिक जीवन में परोपकार वृत्ति को जी रही लेखिका के पात्र पासी आंटी, मीरा, अपर्णा, रत्ना, प्रदीप, दीपक आदि के क्रिया कलाप बहुधा परोपकार भावना से संचालित होते हैं। सतसाहित्य वही है जो समाज में असत्-अशिव-असुंदर के सरोवर में सत्-शिव-सुंदर कमल पुष्प खिलाते रहे। अधूरा मन इसी दिशा में उठाया गया रचनात्मक कदम है जो समीक्षकों को कम, पाठक को अधिक पसंद आयेगा।
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[मणिदीप, काव्य संग्रह, प्रथम संस्करण २०१० , आकार २२ से.मी. X १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १४४, मूल्य २५० रु., पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
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कृति सलिला:
'मणिदीप' काव्य सलिला में मुक्त - सीप

मानवीय अनुभूतियों की एकांतिक अभिव्यक्ति का नाम कविता है। उपन्यास और कहानी के क्षेत्र में पताका फहरा चुकने के बाद डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे ने १२४ कविताओं के साथ काव्य के क्षेत्र में प्रवेश किया है। इन कविताओं में कथ्य को शिल्प पर वरीयता दी गयी है। पारम्परिक राष्ट्रीय भावधारा (भारत देश हमारा, आज का भारत), प्रकृति-पर्यावरण विमर्श (मैं नदी हूँ, सूरज, पहाड़ी आज खामोश है, आकाश), विसंगति और विषमता (गाँधी का भारत, ,एक घर बना रहा हूँ, अविश्वास की मिट्टी खोदे, रिश्ते नाज़ुक होते हैं, धुआँ आँख को धुंधवाता है), श्रद्धा सुमन (मानस के तुलसी, नमन पिताश्री, महादेवी की अनंत पथ यात्रा), स्वतंत्र चिंतन (कलाकार की सामर्थ्य, मैं हिंदी हूँ, यादों की बस्ती, शबनम, रंगमंच, सच्ची सार्थकता, निष्काम कर्म, बहूरानी, कविता एक पहेली, छीलो, कर्मपथ, सुनामी और मानव, रिश्ते नाज़ुक होते हैं). माधुर्य प्रधान रचनाएँ (गीत मुझे गुनगुनाने दो, प्यार नहीं हुआ स्वीकार, मेघ बरस जाते हो), करुणा (मेघ तुम किसे खोजते, कुछ लोग रह जाते हैं, सपना मेरा झूठा था, बहुत कुछ कहते हैं लोग, घर चीखता है), बाल कवितायेँ (बेबी गुड़िया तेरी संदर है, टूटे हीरे को तराशना, तुम उऋण हो जाओगे, वह कौन है) मिलकर इस काव्य संकलन को वैचारिक पुष्पों के उद्यान का रूप देती हैं।
संकलन की कविताओं को पढ़ते हुए व्यष्टि से समष्टि तक विविध आयामों में वैचारिक यात्रा करते चैतन्य मानस से साक्षात होता है। इन काव्य रचनाओं का वैशिष्ट्य जन सामान्य की तरह सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय चिंतन-मनन जनित विचारमृत से सराबोर होना है। इनमें कहीं भी कोई वैचारिक प्रतिबद्धता, राजनैतिक पक्षधरता नहीं है। इसलिए ये कविताएँ सही अर्थ में कवितायेँ कही जा सकती हैं। 'कर्म पथ' शीर्षक कविता में में कवयित्री सरमदेव की उपासना करने का संदेश देती है- " तुम अधीर मत हो / श्रम करो निरंतर" । जिंदगी शीर्षक कविता के अनुसार "जिंदगी सहने का नाम है"। वर्तमान यांत्रिक जीवन में उपेक्षित होता 'घर' कवयित्री को विचलित करता है। वह पूछती है "दीवारें बोलती हैं / लेकिन सुनता कौन है? / घर चीखता है / लेकिन सुनता कौन है?"। घर की अनदेखी करता मानव घर के बिना रह भी नहीं पाता- "लोग कहते हैं / पृथ्वी पर मानव / ने जन्म लिया है / तो कुछ कर जाओ / इसलिए एक घर / बनाने की कोशिश कर रहा हूँ"। देश की माटी की सौंधी महक सब विसंगतियों और अभावों को विस्मृत कर, अपने सौभाग्य पर गर्व करने की भावना उत्पन्न करती है- "भारत देश की माटी चंदन / तन-मन से लिपटी है / पानी की बूँदें जब गिरतीं / सोंधी सी महकी हैं।"
वरिष्ठ साहित्यकार-पत्रकार डॉ. राजकुमार सुमित्र के अनुसार "काव्य के स्वरूपों, प्रयोजनों, प्रकारों, यात्राओं और आंदोलनों से परिचित पाठकों ने गद्य में ढलती कविता को देखा, जाना और परखा है। राजलक्ष्मी की कविता साँचे में ढली है किन्तु गुण धर्म और प्रभाव भिन्न है। डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे की कवितायें गद्यात्मक हैं किन्तु वे भाषा की सरलता। सहजता और सम्प्रेषणीयता की शक्ति से संपन्न हैं। ये कवितायेँ पाठकों को भगाती नहीं जगाती हैं। उनके मन को तोड़ती नहीं, जोड़ती हैं। कवयित्री के सामने भी 'क्यों लिखूं?' का प्रश्न उपस्थित हुआ। मन ने उत्तर दिया - "उनके कष्ट अपना लूँ, उनके सुख में हँस लूँ। यह 'उनके' कोई नहीं सामान्य जन है। कवयित्री के लिये साहित्य सृजन नहीं साधना है।"
(२२)
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कृति सलिला:
‘दूसरा केनवास’ कवियित्री एवं कथा लेखिका डॉ राजलक्ष्मी शिवहरे का तीसरा उपन्यास है। वैसे साहित्य व कला के क्षेत्र में किसी सिध्दांत या अवधारणा की समाज के सन्दर्भ में स्थिति, वैचारिक परिदृश्य को केनवास कहते हैं. परन्तु, उपन्यास-लेखिका ने केनवास का शाब्दिक अर्थ वह सफेद कपडा या पटल लिया है जिस पर उनकी नायिका (सौम्या) चित्र बनाती है, रंग भरती है। हाँ! यह अवश्य है कि उस नायिका के जीवन की परिस्थितियाँ बदलने से भूमिकाएँ बदलती दिखाई गयीं हैं और बदला है, केनवास। तलाक (सम्बन्ध-विच्छेद) के बाद निराश-हताश सौम्या ने परिस्थितियों के अनुसार जब साहस भरा कदम उठाया तभी वह एक सफल जीवन जी सकी। एक तरह से जीवन के अलग-अलग सोपानों से गुजरती आज की स्त्री के अथक संघर्ष और अदम्य साहस की कहानी है यह उपन्यास-गाथा।
जीवन में बदलती भूमिकाओं सा 'दूसरा कैनवास'
सुरेंद्र सिंह पवार
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यह एक सामाजिक उपन्यास है, जिसमें समाज की चिर-लांछिता, चिर-वंचिता, चिर-वंदनी नारी को नई दीप्त के साथ हमारे सामने प्रस्तुत किया है। इसमें आदर्शोंन्मुखी यथार्थवाद नहीं है, बल्कि स्थान, समय और स्थितियों के अनुरूप जो वातावरण निर्मित हुआ या होता जा रहा है, उसकी खुली चर्चा है। सौम्या और मोहन उपन्यास के केंद्र में हैं परन्तु अन्य पात्र यथा; अमित, डाली, नीलिमा, पीयूष, सौरभ, आंटी और अंकल की भूमिकाएँ भी अप्रासंगिक नहीं हैं। उपन्यास में फ्लेश बैक का प्रभावी-प्रयोग है, बिलकुल बड़े या छोटे परदे पर चलती मसाला फिल्मों या सास-बहू सीरियल्स की तरह। आज के दौर की घटनाओं तथा उसमें जीते-जागते लोगों की पसंद/ नापसंद का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। सौम्या और अमित का तलाक, डाली से अमित और सौम्या का मोहन से विवाह, कम उम्र के पीयूष की नीलिमा से शादी, अंकल और आंटी के रहस्यमयी सम्बन्ध, अमित की मृत्यु के बाद डाली का अपने विधुर बॉस से पुनर्विवाह, अपाहिज मोहन के प्रति सौम्या का समर्पण सभी कुछ तो है इस उपन्यास में। डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे जागरूक उपन्यासकार हैं। वे न केवल हृदयधर्मी हैं, न बुध्दिविलासी। उन्हें समाज की समस्याओं को हल करने की चिंता है। अपने उपन्यास में उन्होंने परम्परागत मूल्यों को कुछ सीमा तक अस्वीकार किया है, परन्तु जो नये मूल्य उपस्थित किये हैं वे भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। अत: आश्वस्ति है कि ध्वंस से निर्माण की सम्भावनाओं को बल मिलता है---जैसा डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ने प्रस्तावना में लिखा है। कुल मिलाकर इस ९६ पृष्ठीय उपन्यासिका में जीवन दर्शन के सम्बन्ध में निर्व्दंद भाव से तर्क-वितर्क हैं,सौन्दर्य और कला की अपेक्षा उपयोगितावाद के तराजू पर तुलते मानव-मूल्य है।
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कहानी के अन्दर गुँथी हुई कहानियों से इस लघु-उपन्यास का ताना-बाना रचा गया है, ठीक किस्सागोई की शैली में, जहाँ कहानियाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं। हर पात्र की अपनी कहानी है, हर कहानी के अपने ट्विस्ट और टर्न हैं, परन्तु वे सभी नायिका सौम्या के इर्द-गिर्द घूमती है। उपन्यास की भाषा घरेलू है, लम्बे और ऊब भरे संभाषणों का नितान्त अभाव है। पात्र नपे-तुले शब्दों में अपनी बात कहते हैं—सटीक और प्रभावशाली, जैसे -
“और मौसी ने जब मोहन को खाना खिलाया पूरे बारह बज चुके थे. इतना बढ़िया खाना और इतने प्यार से खिलाती हो तभी तुम्हारी बिटिया बार-बार यहाँ चली आती है''।
“और मौसी ने जब मोहन को खाना खिलाया पूरे बारह बज चुके थे. इतना बढ़िया खाना और इतने प्यार से खिलाती हो तभी तुम्हारी बिटिया बार-बार यहाँ चली आती है''।
‘नहीं’, बस इस बार गहरी नजर से उन्होंने मोहन को देखा था’, जब ससुराल में पूरी सुरक्षा नहीं मिलती तभी उसे मायका याद आता है’।”
कुछ नीति/सूत्र वाक्य इतने सुन्दर हैं कि उनमें मन डूब जाता है, यथा-
”कैसा चक्रव्यूह है जीवन, जिसमें व्यक्ति अभिमन्यु जैसा प्रवेश तो कर जाता है पर उससे निकल नहीं पाता।”
“हम कैसे कह दें कि बिटिया मायके में चार दिन ही भली होती है।”
“समय स्वयं एक वैद्य है पर कुछ घाव ऐसे होते हैं जो धीरे-धीरे भर भले जाएँ पर याद आयें तो टीसते अवश्य है।”
“प्रेम में वासना नहीं होती, केवल समर्पण होता है, प्रिय के प्रति।”
“प्रशंसा में क्या होता है कि हर कोई खुश हो जाता है।”
"हँसनेवालों का साथ सभी देते है परन्तु रोना तो अकेले ही पड़ता है।”
उपन्यास-लेखिका एक गृहणी हैं। अपने उपन्यास के कलेवर में उन्होंने अपनी घर-गृहस्थी को विस्तार देने की पुरजोर कोशिश की है। जैसे, ‘अमित को करेले पसंद नहीं, माताजी को घुइंया, पर बनेंगे दोनों’, ‘सब चाँवल एक से नहीं होते, कोई लुचई होता है तो चिन्नौर और कोई बासमती’, ‘माँ जी के सिर में तेल लगाना’, ‘वेणी में गजरा गूंथना’ इत्यादि, इत्यादि। बावजूद इसके, उनकी नायिका क्लब/पार्टियों में जाती है, ऑफिस संचालित करती है, अपनी समस्याओं से उभरकर आगे पढाई करती है, दोबारा केनवास पर ब्रश चलाती है, रंग भरती है। वास्तविक जीवन की सजीवता और विशदता इस उपन्यास की विशेषता है। नायिका के तौर पर सौम्या का चरित्र उत्तम है। मोहन भी ठीक-ठाक है परन्तु पूर्वान्ह में अमित की भूमिका प्रतिनायक की सी दिखाई गई है। मध्यान्तर के बाद अमित का पुन:प्रवेश होता है, उसे अपने कृत्यों पर पछतावा होता है और अंत में सद्गति को प्राप्त होता है। कथानक के क्लाइमेक्स(चरमोत्कर्ष) पर सौम्या अपने बेटे सौरभ के समक्ष रहस्योद्घाटन करती है और उसे बीमार अमित की तीमारदारी के लिए भेजती है। अमित की मृत्यु के बाद सौरभ ही उसका अंतिम-संस्कार करता है। ऐसे सुखान्त का सृजन सिर्फ और सिर्फ श्रीमती शिवहरे जैसी समर्थ और संवेदनशील कथाकारा के लिए ही संभव है।
उपन्यास में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मानव बम से हत्या और कश्मीर में आतंकवादियों से मुठभेड़ जैसे समाचारों को प्राथमिकता मिली है, जो इस रचनाकाल की प्राथमिक सूचना है। एक बात और, नायिका के चरित्र में अतिरिक्त सहिष्णुता दिखने के चक्कर में उसे कुछ सोशल वर्क करते दिखाया गया है, रामदयाल दम्पत्ति जैसे असहाय लोगों की मदद परन्तु वहाँ वह (सौम्या) अपराधिक प्रकरण में फँसती दिखाई देती है। यह घटनाक्रम “हार की जीत”(सुदर्शन की ख्यात कहानी) के बाबा भारती की सीख का सहज स्मरण करा देता है कि इस घटना का उल्लेख किसी से न करना वर्ना लोग जरूरत मंदों की मदद करना बंद कर देंगे।
प्रिन्टिंग और प्रूफ की गलतियों को अनदेखा किया जाए तो पाथेय प्रकाशन की यह सजिल्द सुंदर आवरण युक्त प्रस्तुति स्वागतेय है। भाषा-विन्यास, संयोजना, पात्रों का चयन, घटनाओं का क्रम, कथानक की कसावट ने इस उपन्यास को स्तरीय और संग्रहणीय बना दिया है। उनके ही पूर्व-प्रकाशित दो उपन्यास क्रमशः “धूनी” और “अधूरा मन” की तरह, या यूँ कहें, इस उपन्यास से उनकी ख्याति तीन गुना हो गई है।
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कृति सलिला:
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[ग्यारहवें रूद्र श्री हनुमान जी, धार्मिक, प्रथम संस्करण २०१०,आकार २२ से.मी. X १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ ५६, मूल्य १०० रु., पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
भारत धर्म प्रधान देश है। अनेकता में एकता भारतीय जान जीवन की विशेषता है। विश्व के सभी प्रमुख धर्मावलंबी भारत में न केवल मिलते हैं अपितु मिल-जुलकर रहते हैं। इन धर्मावलम्बियों की आस्था विविध इष्ट देवों में होना स्वाभाविक है। हनुमान जी एक ऐसे ही देवता हैं जिनके प्रति आदिवासियों से लेकर सुसंस्कृत जनों की, निर्बल-दीन जनों से लेकर संपन्न-समृद्ध जनों की, संयस्तों से लेकर गृहस्थों तक की अगाध श्रद्धा है। हनुमान लोक देवता हैं। उनकी उपासना हेतु किसी देवालय, विग्रह, पूजन सामग्री आदि के नहीं ह्रदय में श्रद्धा मात्र की आवश्यकता होती है। हनुमान की प्रतिष्ठा भक्त जनों के संकटहर्ता के रूप में है। डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे की कृति ग्यारहवें रूद्र श्री हनुमान वस्तुत: मौलिक कृति नहीं हनुमान जी विषयक सामग्री का संकलन है। श्री हनुमत यंत्र साधना,मारुती स्तोत्र, द्वादश नाम, ग्यारहवें रूद्र, सीताराम-भक्त हनुमान, सिन्दूर समर्पण मंत्र, भक्ति गीत पूजन विधि १०८ नामावली, द्वादश लिंग, यात्रा संस्मरण, आरती, हनुमान चालीसा आदि लोकोपयोगी सामग्री का संकलन-संपादन सराहनीय है। हनुमद्भक्तों के लिये श्री अमरेंद्र नारायण कृत प्रबंध काव्य श्री हनुमत श्रद्धा सुमन, डॉ. ओमप्रकाश शर्मा रचित राम सखा हनुमान, सुदर्शन सिंह 'चक्र' कृत आंजनेय की आत्मकथा, सीताराम मक्खनलाल पोद्दार रचित श्री हनुमत लीला विलास, डॉ. मुनवा सिंह चौहान कृत आंजनेय हनुमान आदि कृतियाँ उपयोगी हैं।
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[श्रीमद्भागवत प्रकाश १, प्रथम संस्करण २०१२, आकार २२ से.मी. X १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ ११२, मूल्य १५० रु., श्रीमद्भागवत प्रकाश २ , प्रथम संस्करण २०१४, पृष्ठ १६०, मूल्य १५० रु., पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
महाभारत के प्रमुख पात्र पितामह भीष्म और कुंती की मार्मिक स्तुति, महर्षि व्यास के खेद व्यक्त करने से कथा प्रारंभ होती है। ये स्थितियाँ जितनी महाभारत काल में प्रासंगिक थीं, आज भी उतनी ही सत्य हैं। नृशंस हत्यायें एवं ऋषि की अपने कृतित्व की व्यर्थता की अनुभूति से उपजा दुःख भगवत महापुराण का पीठिकाभूत वक़्तव्य है। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य परीक्षित के व्यवहार में विस्खलन और परिमार्जन है। भगवान श्रीकृष्ण का भागिनेय, पाण्डु पुत्रों का वंशज, भीष्म तथा कुरुवंश का अंतिम दीपक, शारीरिक क्षुधा और पिपासा से व्याकुल एक ऋषि का अपमान उसके गले में मृत सर्प डालकर कर देता है। बड़े से बड़ा व्यक्ति कैसे विचलित हो सकता है, कैसा निंदनीय आचरण कर बैठता है, यह उसका उल्लेखनीय उदाहरण है। यहाँ के बाद से भागवत प्रारम्भ होती है। नए स्वर केसाथ, नये समाधान के साथ। अत: जीवन के दुर्गुणों व नृशंस कार्यों के समाहित उत्तर के लिए भागवत का सृजन हुआ और वह न केवल भारत अपितु विश्व का कंठहार बना हुआ है।

श्रीमद्भागवत पर भारत के मनीषी विचारकों ने नई-नई दृष्टि एवं उपयोगिया के साथ व्याख्यान किया है। वे व्याख्याएँ और उनके अनुवाद इतने बड़े और दुर्लभ हो गए हैं कि उनकी रसानुभूति तक पहुँच पाना असंभव हो गया है। परिणामत: अनेक लोगों ने उसके सारांश को प्रस्तुत करने का पर्यटन किया है। इसकी लोकप्रियता भगवतगीता की तरह इतनी इतनी विपुल है कि सहृदय बुद्धिजीवी उसे पढ़ना, उस पर लिखना अपने जीवन का महत्वपूर्ण कार्य मानते हैं। डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे का वर्तमान प्रयास भी इसी श्रेणी में आता है। इस सफल कवयित्री और लेखिका का भारतीय मन अपने इस महत्वपूर्ण स्रोत को सबके सामने लाने और स्वयं आस्वाद लेने व्याकुल हो उठा। परिणामत: श्रीमद्भागवत प्रकाश हमारे सामने है। उनहोंने संपूर्ण भागवत का संक्षिप्तीकरण करते समय इस बात की सावधानी बरती है कि महत्वपूर्ण बातें उसमें ठीक से आ जाएँ और इसको पढ़नेवाले पूरी कथा का आनंद ले सकें। लेखिका ने सभी महत्वपूर्ण आख्यानों का सहज-सरल एवं संक्षिप्त विवरण प्रदान किया है। महापुराण का प्राण दशम स्कंध है जो भगवान कृष्ण की लीलाओं का उत्कृष्ट एवं मनोरम संचय है। डॉ. शिवहरे ने उस अंश को अधिक विस्तृत रूप से प्रस्तुत किया है। ५ से ९ स्कंध तक जिसमें अन्य अवतारों और राम की कथा भी सम्मिलित है, एकादश स्कंध ज्ञान, चिंतन, साधना और समाज व्यवहार के सिद्धांतों एवं नियमों का, भगवान श्रीकृष्ण का उद्धव के द्वारा उपदेश के रूप में प्राप्त है। द्वादश स्कंध कथा का उपसंहार है। इस सबके द्वारा भगवत वर्तमान संत्रास, खेद, निराशा, अपराध और यहाँ तक कि असमय मृत्यु से उबरने का एकमात्र रसमय साधन और मार्ग है। श्रीमती राजलक्ष्मी शिवहरे की यह कृति इस सभी प्रश्नों को उजागर करने में सफल सिद्ध हुई है। उन्होंने एक सराहनीय प्रयास किया है। आज के साहित्यकारों में जहाँ कम लोग ही अपनी पुरानी कथा परम्परा को आश्रय बनाने में रूचि लेते हैं वहां एक साहित्यिक सृजनधर्मी महिला ने न केवल पुराण कथा को महत्व दिया अपितु दूसरों के उपयोग के लिए उसे सुलभ भी करा दिया। उनका यह प्रयास भाषा, अर्थ व्यक्ति और रोचकता की दृष्टि से सुंदर बन पड़ा है। एतदर्थ मैं उन्हें शुभाशीष और बढ़ाई देता हूँ कि उन्होंने एक महत्वपूर्ण अभाव की पूर्ति की है।
पुस्तक सलिला
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(गीता दिव्य दर्शन, डॉ.राजलक्ष्मी शिवहरे, प्रथम संस्करण, २०१६, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ७२, मूल्य १०० रु., पाथेय प्रकाशन जबलपुर)
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सनातन धर्मावलंबियों ही नहीं, तत्व चिंतकों, दार्शनिकों और चिंतकों में चिरकाल से सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता का सार जन सामान्य तक पहुँचाने की लोकोपकारी भावना को अपने विवाह की ५० वीं वर्ष ग्रंथि पर मूर्त रूप देकर डॉ. आर.एल.शिवहरे और डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे ने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। गीता में वर्णित समस्त प्रसंगों को जान सामान्य की दृष्टि से सरल सहज भाषा में समझाने में लेखिका को सफलता मिली है। जटिल और गूढ़ विषयों को आत्मसात कर अन्य पाठकों के लिए सहज ग्राह्य बनाने के साथ साथ मौलिक व्याख्या और व्यावहारिक दृष्टिकोण सोने में सुहागे की तरह है। गागर में सागर की तरह यह कृति पठनीय, मननीय है।
(२९)
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कृति सलिला:
एक सरल और प्रामाणिक परिचय : श्रीमद्भागवत प्रकाश - आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी

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श्रीमद्भागवत महापुराण पुराण-परंपरा में ग्रंथराज के रूप में विख्यात है। सामाजिक जीवन में इसका महत्व न केवल सभी पुराणों की तुलना में अपितु वाल्मीकि रामायण और महाभारत से भी अधिक मात्रा में स्वीकृत है। पुराण शैली में उपलब्ध यह कृति साहित्य और दार्शनिक सिद्धांतों की दृष्टी से भी बहुत संग्राहक कोटि का है। भारतीय कथा परंपरा, ऋषि एवं राजवंशों का विवरण, इसमें बहुत विस्तार से दिया गया है। इसका प्रारंभ महाभारत के अंत से होता है, जहाँ द्रौपदी के पुत्रों का अश्वत्थामा के द्वारा वध कर दिया जाता है। उसे दंड देते समय द्रौपदी अपने पुत्रों के हत्यारे को जननी की दृष्टि से देखकर क्षमा करना चाहती है। *
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(३०)
कृति सलिला: वीथी विहार
वीथि विहार : नर पर भारी नार - संजीव
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[वीथि विहार, उपन्यास, प्रथम संस्करण २०१२,आकार २३ से.मी. X १५ से.मी., आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २०० रु., पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
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उपन्यास जीवन की तरह घटना बहुल होता है। उपन्यास का कथानक अनेक पात्रों को प्रभावित कर रहे कारकों और कारणों के कदमों और करवटों का लेखा-जोखा ही नहीं रखता, उनके परिणामों और प्रभावों का विश्लेषण भी करता है। श्वासों की वीथि पर विहार करती आसों की व्यथा-कथा कहने में महारथ हासिल कर चुकी डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे ने इस उपन्यास में पात्रों की जिस मानसिकता को उकेरा है वह बांग्ला साहित्य का देवदास प्रभाव है। कथा नायिका अपने पति के डगमगाते कदमों को रोकती नहीं अपितु कदमों की संख्या और गति अधिकतम करने की हरसंभव कोशिश करती है। हैरत की बात है कि ऐसा करते समय उसे कोई पछतावा नहीं होता, वह खुद को पति की हितैषी मानकर उसका अधिकतम अहित उसी प्रकार करती है, जैसे गांधारी ने धृतराष्ट्र का किया था।
कथा नायिका सौदामिनी अपने वकील पति सुरेंद्रमोहन को तवायफ चंपा के कोठे पर भेजती है। रुपया-पैसा ही नहीं, कार और घर भी दाँव पर लगा देती है। घर फूँक तमाशा देखने का अंत यहीं नहीं होता, वह तवायफ चंपा को ही घर ले आती है। तथाकथित स्वामिभक्त सुगृहणी सौदामिनी यही नहीं समझ पाती कि पति, पत्नि और गृहस्थी के लिये क्या अच्छा है क्या बुरा? उसकी तुलना में चंपा दृढ़ निश्चयी है, वह तवायफ के नाते ग्राहक को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ती। अनकिए अपराध की सजा पाकर भी टूटती नहीं और अवसर मिलने पर पंकिल पथ छोड़कर प्रेमी के साथ गृहस्थी बसा लेती है। नायिका सुविधाभौगी पराश्रिता और खलनायिका दृढ़ संकल्पी।
नायक सुरेंद्रमोहन मिट्टी के माधो की तरह न केवल कोठे पर चले जाते हैं, वहाँ पंक में लिपट भी जाते हैं। जब दूर होना चाहते हैं तो बुराई घर लाकर गले मढ़ जाती है। अंतत:, उनका जमीर जागता है, संकल्प जयी होता है और वे जीवन में पुनर्प्रतिष्ठा पाते हैं।
सौदामिनी की वैचारिक दुर्बलता मिटाती है उसकी परदेसिन इला भाभी। उपन्यास में यह भाभी रामदीन काका और चंपा का बाल प्रेमी देवेंद्र तीनों सही दिशा में पग उठाते हैं। भाभी विदेशी होकर भी भारतीय रीति-रिवाज, परंपराओं और जीवन दर्शन को आत्मार्पित कर पाती है। वही सौदामिनी को उसकी भूलों से परिचित कराती है- "ऐसा भूल कर भी न करना सदू, कितनी गल्तियाँ तो तुम कर चुकीं और एक संख्या को उसमें मत जोड़ो, सुरेंद्रमोहन की आत्मा उठने का प्रयास कर रही होगी और तुम उसे फिर से नीचे गिरा देना चाहती हो" वस्तुत: कथारंभ से ही सौदामिनी पति का पतन रोकने के स्थान पर पतन में सहायक ही होती आई थी। कहावत है अंत भला सो सब भला।
उपन्यास की कथा को संवादों में ढाल दिया जाए तो फिल्म या सीरियल के लिए उपयुक्त पटकथा बन जाएगी। उपन्यासकार राजलक्ष्मी जी कथा के शुष्क गद्य में पद्य की सरसता और तरलता का मिश्रण करने में महारथ रखती हैं। सहज ग्राह्य चुटीली भाषा पाठक को आदि से अंत तक बाँधे रखती है। घटनाक्रम सुचिंतित अधिक है, स्वाभाविक कम। "हमारा हृदय तो बड़ा मोम का है न, जो तुम्हारे कहने से ही दुख गया", "जो खुद खाएगा, दूसरे को भी देगा... नहीं तो भूखा रखेगा", "जब तक तुम्हारे प्रेम की अनुभूति इतनी गहरी हो जाए कि तुम मेरे बिना न रह सको, तब सब संकोच छोड़कर मेरे पास आना", "दरार होती नहीं पैदा कर दी जाती है", "उनके मन को कितनी चोट लगी होगी कि एक अनजान नितांत नई लड़की के ऊपर उन्होंने अपने पुत्र से अधिक विश्वास किया", "सच्चा प्यार मोती सा निश्छल होता है, पाने पर सारे संसार की संपदा उस पर लुटाई जा सकती है", "क्या गणिका नारी नहीं होती?" जैसे संवाद पाठक के साथ रह जाते हैं, यह लेखिका की सफलता है। अपनी बात में वह कहती है "नारी कोई हांडी नहीं कि एक बार छू देने पर उसे अस्पृश्य माना जाए।" इसे प्रतिपादित करने के लिए लिखे गए उपन्यास में प्रकारांतर से यह भी प्रतिपादित हो गया कि पुरुष वासना का दास मात्र नहीं है जो अवसर पाने पर सुधर और सुधार न सके।
सारत: वीथि विहार लगभग ७ दशक पूर्व के शिल्प को पुनर्जीवित करता उपन्यास है, जिसमें वर्तमान परिप्रेक्ष्य, संदर्भ, भाषा, घटनाक्रम या विमर्श तलाशना कृति के साथ अन्याय और खस के इत्र में फ्रेगरेंस सूँघने की तरह बेमानी होगा। लेखिका की सफलता बुराई में छिपी भलाई को सामने लाने के मूल विचार के इर्द-गिर्द रोचक घटनाक्रम, संवाद और पात्रों का ताना-बाना बुनकर पाठक को जोड़े रखने में है।
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कृति सलिला:
[साधना, उपन्यास, प्रथम संस्करण २०१३, आकार २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी. आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ १४४, मूल्य ३००/-, पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
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डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे प्रणीत उपन्यास "साधना" में मैंने श्रेष्ठता के तीन करक ज्ञानात्मक कथ्य, विवेचन की शैलीगत मौलिकता और समाज निर्माण की सामर्थ्यवती भूमिका तीनों का प्राचुर्य पाया है। कथा जिस स्थान से आरंभ होती है वहीं समाप्त होती है यह अनूठी बात नहीं है। बड़ी बात है कि उपन्यास नायक तिमिर अपने नाम के विपरीत श्रेष्ठ चारित्रिक गुणात्मकता के साथ प्रारंभ से अंत तक खड़ा मिलता है। पग-पग पर मिलते आकर्षणों को नकार कर वह अपने स्वीकृत सिद्धांतों पर अड़ा ही नहीं रहता अपितु परिस्थितियों को अपनी अनुकूलता में ढालता भी है। तिमिर को पूरी गीता कंठस्थ है। वह पुराणों तथा निष्णात अध्येता विद्वान भी है। प्रतिदिन प्रात: त्रिकाल बेला में संध्या-हवन जिसका नियम है। सादा भोजन, भूमि शयन तथा आत्म मीमांसा जिसके दैनिक कर्म हैं। अपने आचरण से जिसने प्रारंभ से अंत तक आदर्श की प्रस्तुति कर आत्म को आध्यात्मिकता व् श्रेष्ठ सांसारिकता से जोड़ दिया है। शिष्य तिमिर अपने पालनहार गुरुदेव के दत्तक पुत्री तन्वी के विवाह प्रस्ताव से बचने के लिए संसार देखने के बहाने शहर आकर गुरुदेव के अनुयायी से मिलकर उनके मंदिर में पुजारी नियुक्त हो जाता है किन्तु भेंट राशि, चढ़ावे, सेठ को युवा पुत्री आदि के प्रति आकृष्ट न हो, कार्य के प्रति समर्पण से सम्मान का पात्र बनता है। एक दिन ज्वर ग्रस्त होने पर सामान्यत: पर्दे में रहनेवाली सेठ की युवा पत्नि मुक्ता उसे दवा दे रही होती है, तभी सेठ आ जाता है और उनके आचरण पर संदेह व्यक्त करता है। तिमिर ज्वर मवन ही वह स्थान छोड़ का निकल पड़ता है तथा मार्ग में ठोकर खाकर गिर जाता है। श्मशान में लकड़ी बेच कर पेट पालती किशोरी चिंतामणि उसे उठाकर अपने घर ले आती है। वह तिमिर के सदाचरण से प्रभावित हो विवाह प्रस्ताव रखती है। सेठ का माली तिमिर को सेठानी का पत्र व् पैसे देता है जिसमें संदेह से व्यथित हो घर छोड़कर अपनी मौसी के घर हरिद्वार जा चुकी सेठानी ने खुद को उसकी बहन लिखते हुए उसे हरिद्वार बुलाया था। हरिद्वार में मौसी उसे सुहासिनी के मंदिर में पुजारी रखा देती है।
विलासिनी सुवासिनी की प्रताड़ना कर तिमिर उसे सत्पथ पर लाकर अवैध गर्भजनित बदनामी से बचाने के लिए अपने मित्र की दादी के पास पति-पत्नी के रूप में ठहरता है। केदारनाथ के दर्शन कर लौटने पर तिमिर सुवासिनी, उसके पुत्र वैरागी को लेकर तिमिर चिंतामणि के आस आता है। अविवाहित चिन्तामणि ने श्मशान में मिली नवजात कन्या राधिका को अपना लिया था। निस्संतान मुक्ता को राधिका सौंपकर चिंतामणि, सुवासिनी व् वैरागी के साथ तिमिर गुरुदेव के आश्रम में आता है। तिमिर का गुरुभाई प्रकाश तन्वी द्वारा विवाह प्रस्ताव ठुकरा दिए जाने पर आश्रम छोड़ गया था। आश्रम में अकेली तन्वी ही गुरुदेव की सेवा कर रही थी। गुरुदेव को गंभीर पाकर तिमिर उनकी चिकित्सा करता है। लेखिका ने सदाचरण की श्रेष्ठता, बेमेल विवाहजनित क्लेश, संयम से सम्मान, निराश्रित को अपनाने, मंदिरों में व्याप्त अनैतिकता, श्रम की महत्ता, संस्कारों व मर्यादित आचरण से सफलता, भोग विलास पर परोपकार व् संतोष वृत्ति की वरीयता प्रतिपादित करता उपन्यास साधना लेखिका की नवाचारी प्रवृत्ति इंगित करता है। निस्वार्थ प्रेम की गरिमा प्रतिपादित करती यह औपन्यासिक कृति इच्छाओं को नियंत्रित कर संयं और साधना को पूर्णता हेतु आवश्यक निरूपित करता है। तिमिर समक्ष तन्वी, चिंतामणि और सुवासिनी विवाह प्रस्ताव लाती हैं पर वह स्वीकार नहीं पाता। अंतत: वह अनुभव करता है कि जब तक बंधन था, तभी तक इच्छाएँ थीं, निर्बंध होते इच्छाएँ समाप्त हो गईं।
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डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे प्रणीत उपन्यास "साधना" में मैंने श्रेष्ठता के तीन करक ज्ञानात्मक कथ्य, विवेचन की शैलीगत मौलिकता और समाज निर्माण की सामर्थ्यवती भूमिका तीनों का प्राचुर्य पाया है। कथा जिस स्थान से आरंभ होती है वहीं समाप्त होती है यह अनूठी बात नहीं है। बड़ी बात है कि उपन्यास नायक तिमिर अपने नाम के विपरीत श्रेष्ठ चारित्रिक गुणात्मकता के साथ प्रारंभ से अंत तक खड़ा मिलता है। पग-पग पर मिलते आकर्षणों को नकार कर वह अपने स्वीकृत सिद्धांतों पर अड़ा ही नहीं रहता अपितु परिस्थितियों को अपनी अनुकूलता में ढालता भी है। तिमिर को पूरी गीता कंठस्थ है। वह पुराणों तथा निष्णात अध्येता विद्वान भी है। प्रतिदिन प्रात: त्रिकाल बेला में संध्या-हवन जिसका नियम है। सादा भोजन, भूमि शयन तथा आत्म मीमांसा जिसके दैनिक कर्म हैं। अपने आचरण से जिसने प्रारंभ से अंत तक आदर्श की प्रस्तुति कर आत्म को आध्यात्मिकता व् श्रेष्ठ सांसारिकता से जोड़ दिया है। शिष्य तिमिर अपने पालनहार गुरुदेव के दत्तक पुत्री तन्वी के विवाह प्रस्ताव से बचने के लिए संसार देखने के बहाने शहर आकर गुरुदेव के अनुयायी से मिलकर उनके मंदिर में पुजारी नियुक्त हो जाता है किन्तु भेंट राशि, चढ़ावे, सेठ को युवा पुत्री आदि के प्रति आकृष्ट न हो, कार्य के प्रति समर्पण से सम्मान का पात्र बनता है। एक दिन ज्वर ग्रस्त होने पर सामान्यत: पर्दे में रहनेवाली सेठ की युवा पत्नि मुक्ता उसे दवा दे रही होती है, तभी सेठ आ जाता है और उनके आचरण पर संदेह व्यक्त करता है। तिमिर ज्वर मवन ही वह स्थान छोड़ का निकल पड़ता है तथा मार्ग में ठोकर खाकर गिर जाता है। श्मशान में लकड़ी बेच कर पेट पालती किशोरी चिंतामणि उसे उठाकर अपने घर ले आती है। वह तिमिर के सदाचरण से प्रभावित हो विवाह प्रस्ताव रखती है। सेठ का माली तिमिर को सेठानी का पत्र व् पैसे देता है जिसमें संदेह से व्यथित हो घर छोड़कर अपनी मौसी के घर हरिद्वार जा चुकी सेठानी ने खुद को उसकी बहन लिखते हुए उसे हरिद्वार बुलाया था। हरिद्वार में मौसी उसे सुहासिनी के मंदिर में पुजारी रखा देती है।
विलासिनी सुवासिनी की प्रताड़ना कर तिमिर उसे सत्पथ पर लाकर अवैध गर्भजनित बदनामी से बचाने के लिए अपने मित्र की दादी के पास पति-पत्नी के रूप में ठहरता है। केदारनाथ के दर्शन कर लौटने पर तिमिर सुवासिनी, उसके पुत्र वैरागी को लेकर तिमिर चिंतामणि के आस आता है। अविवाहित चिन्तामणि ने श्मशान में मिली नवजात कन्या राधिका को अपना लिया था। निस्संतान मुक्ता को राधिका सौंपकर चिंतामणि, सुवासिनी व् वैरागी के साथ तिमिर गुरुदेव के आश्रम में आता है। तिमिर का गुरुभाई प्रकाश तन्वी द्वारा विवाह प्रस्ताव ठुकरा दिए जाने पर आश्रम छोड़ गया था। आश्रम में अकेली तन्वी ही गुरुदेव की सेवा कर रही थी। गुरुदेव को गंभीर पाकर तिमिर उनकी चिकित्सा करता है। लेखिका ने सदाचरण की श्रेष्ठता, बेमेल विवाहजनित क्लेश, संयम से सम्मान, निराश्रित को अपनाने, मंदिरों में व्याप्त अनैतिकता, श्रम की महत्ता, संस्कारों व मर्यादित आचरण से सफलता, भोग विलास पर परोपकार व् संतोष वृत्ति की वरीयता प्रतिपादित करता उपन्यास साधना लेखिका की नवाचारी प्रवृत्ति इंगित करता है। निस्वार्थ प्रेम की गरिमा प्रतिपादित करती यह औपन्यासिक कृति इच्छाओं को नियंत्रित कर संयं और साधना को पूर्णता हेतु आवश्यक निरूपित करता है। तिमिर समक्ष तन्वी, चिंतामणि और सुवासिनी विवाह प्रस्ताव लाती हैं पर वह स्वीकार नहीं पाता। अंतत: वह अनुभव करता है कि जब तक बंधन था, तभी तक इच्छाएँ थीं, निर्बंध होते इच्छाएँ समाप्त हो गईं।
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कृति सलिला:
मानवीय रिश्ते परिभाषित करती ‘‘गाथा’’ - डाॅ. अनामिका तिवारी
[गाथा, उपन्यास, प्रथम संस्करण २०१४, आकार २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी. आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ ७२, मूल्य २२५/-, पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
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उपन्यास का नायक क्षितिज लेखक अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करता, उसके पिता नहीं है। माँ ने ही उसे पाला - पोसा, पढ़ाया - लिखाया है।बेरोजगारी में हीे उसका विवाह पढ़ी-लिखी सुंदर, सरकारी नौकरी प्राप्त रूपम से हो जाता है। वह एक बेटा आकाश और एक बेटी गरिमा का पिता बनता है। बच्चों की शादी भी उनकी पसंद के अनुसार हो जाती है। इतनी घटनाऐं हो चुकने के बाद पात्रों की परिपक्व वय से उपन्यास का प्रारम्भ होता है। क्षितिज नौकरी न होने से आत्मग्लानि से भरा है। पत्नि रूपम अपनी नौकरी में व्यस्त है। बेटी अपने घर और बेटा अपनी नौकरी पर दूसरे शहर में है। माँ नौकरीशुदा बहू की घर गृहस्थी सम्हालने में व्यस्त है। इस प्रकार जीवन एक धुरी पर चल रहा होता है।

निकिता के आश्रम में क्षितिज की मुलाकात काॅलेज की सहपाठी, निकिता की सहेली आभा से होती है जिसे वह वास्तव में बहुत चाहता था लेकिन उसकी गरीबी के कारण आभा के पिता ने अपनी बेटी का विवाह एक अमीर घर में कर दिया था। हरिद्वार में आभा, क्षितिज को अपनी सहेली नैनी से मिलवाती है। नैनी के रूप-रंग से वह बहुत प्रभावित होता है। निकिता के सहयोग से क्षितिज प्रसिद्ध लेखक हो गया और आर्थिक रूप से सुदृढ़ भी। वह निकिता के सौजन्य से अमेरिका, इंग्लैंड, दुबई की विदेश यात्राऐं करता है। उपन्यास में यहाँ यह बिडम्बना उजागर होती है कि मात्र अच्छा लेखक होना ही प्रसिद्ध और समृद्धि का कारण नहीं हो सकता जब तक कि किसी बड़ी हस्ती का वरद हस्त सर पर न हो। उपन्यास के नायक के पास बहुत कुछ है, अच्छी सुन्दर पढ़ी-लिखी सरकारी नौकरी प्राप्त पत्नि रूपम है,एक बेटा और बेटी है, उसके जीवन में जितनी महिलाऐं हैं उसको मान देनेवाली हैं जबकि उनकी स्वयं की गाथाऐं बड़ी करुण हैं। एक निकिता है जिसकी शादी जिन मंत्री जी से होती है वे पहले से ही तीन बच्चों के पिता हैं, बच्चों की देखभाल के लिये ही वे निकिता से शादी करते हैं। बच्चे सम्हल जाने पर वे उसके जीवन के लिये हरिद्वार में एक आश्रम बनवा देते हैं। जिस आभा से क्षितिज की शादी नहीं हो पाती, उसके संतान न होने से उसका पति उसको छोड़कर दूसरा विवाह कर लेता है। आभा एक काॅलेज में प्रोफेसरी कर अपना जीवन काट रही है। आभा की जिस सहेली नैनी के रूप पर वह मुग्ध हो जाता है वह कश्मीरी ब्राम्हण है उसके माता-पिता को आतंकवादियों ने मार डाला है।
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उपन्यास के स्त्री पात्रों के बीच क्षितिज की पत्नि रूपम का चरित्र श्रेष्ठतम ऊँचाइयों को छू रहा है। वह क्षितिज को उसकी बेरोजगारी का उलाहना नहीं देती। उसकी रचना प्रकाशित होने पर गर्व से अपने मित्रों को, अपने साहित्कार पति के बारे में बताती है। उसकी मेज पर इतने रूपये रख देती है कि क्षितिज को उससे माँगने की आवश्यकता न पड़े। वह अपने दम-खम से क्षितिज की नौकरी लगवाती है लेकिन पत्नि के कार्यालय में, मातहती में नौकरी करने से वह साफ इंकार कर देता है। स्कूल में भी जब उसको छः पीरियड के बाद सातवाँ पीरिएड और पढ़ाने के लिये कहा जाता है तो शोषण मानकर वह नौकरी छोड़ देता है। पुरूष को अपने स्वाभिमान के आगे अपना परिवार नहीं दिख पाता है लेकिन औरत को अपने घर-परिवार की आवश्यकता के आगे और सबसे बड़ी बात एक ‘माँ’ होने नाते अपना स्वाभिमान, अपना अपमान या शोषण नहीं दिखता। सातवाँ क्या आठवाँ पीरियड भी उसको पढ़ाने कहा जायेगा तो वो नौकरी बचाने नौवाँ पीरिएड पढ़ाने को भी तैयार हो जायेगी। कभी किसी सिद्धांत पर, ज्यादती पर, मैनेजमेन्ट से झगड़ा कर, बार - बार क्षितिज के नौकरी छोड़ने पर, रूपम सोच कर रह जाती है - ''ये लेखक अपने पात्रों को तो अपने नियंत्रण में रखते हैं पर स्वयं किसी के नियंत्रण में नहीं रहते। रूपम की नौकरी में भी भाग-दौड़ बहुत है। वह थक जाती है लेकिन नौकरी नहीं छोड़ सकती। वह नौकरी की अहमियत जानती है। घर, साहित्य से नहीं पैसे से चलता है । कहानी, कविता से रोटी नहीं खरीदी जा सकती, उसे ही सब सम्हलना है, घर का आर्थिक स्तर बढ़ाने के लिये वह सोचती है उसकी पदोन्नति हो जाये। इस उद्देश्य से वह मंत्री जी को घर पर खाने पर बुलाती है। इस पर पुरूष की मानसिकता क्षितिज के माध्यम से व्यक्त होती है - ‘‘मंत्री जी आज आ रहे हैं, तभी रूपम चौके में काम करती दिखाई दे रही है।’’
इसके विपरीत रूपम, क्षितिज की महिला मित्रों के बुलाने पर स्वयं उसको उनके पास जाने के लिये कहती है, घर में उनके आने पर भली - भाँति उनका स्वागत सत्कार करती है, खाना बनाकर खिलाती है। यहाँ तक कि क्षितिज द्वारा कश्मीर में आतंकवादियों पर बम पटकने के आरोप में पकड़ी गयी नैनी की जमानत लेने के बाद रूपम उसे अपने घर में रखती है। यह जानकर भी कि सम्मान के अलावा और भी बहुत कुछ है उन दोनों के मन में, रूपम सबसे ऊपर उठकर सब पर अपना स्नेह-प्रेम लुटाती है। यह रूपम के चरित्र की अति दुर्लभ विशिष्टता है। रूपम की बड़ी बेटी गरिमा भी नैनी की जमानत कराकर आदर्श उपस्थित करती है। उपन्यास के सभी पात्रों की अपनी-अपनी गाथाऐं हैं। एक - एक गाथा, एक - उपन्यास हो सकती थी लेकिन राजलक्ष्मी जी ने कुल ७२ पृष्ठों में सबकी गाथाओं को समेट लिया है। उनके लिखने का है कि विपरीत परिस्थियों से घबराकर भागें नहीं, जो है उसे सहेजें, गिलास आधा खाली नहीं, आधा गिलास भरा देखें। जीवन में उतार - चढ़ाव के बाद भी उनके पात्र एक दूसरे को सम्हालने-सराहने में जिस अनाम रिश्ते के साथ एक दूसरे से जुड़े हैं, उसके लिये बस यही कहा जा सकता है- ‘‘ हाथ से छू के इन्हें रिश्तों का कोई नाम न दो ’’। पुरूष की महिला मित्र होना या महिला का पुरूष मित्र होने का एक ही रिश्ता नहीं होता । विपरीत परिस्थितियों में मानवीयता दर्शाने और सम्हालने की ‘गाथा’ है राजलक्ष्मी जी का उपन्यास ‘गाथा’।
चिंतन एवं चेतना से परिपूर्ण ''गाथा'' - डॉ.ज्योति शुक्ला
'गाथा' उपन्यास का हर पात्र पीड़ा से दो-चार होकर निखरता है और समाज में सम्मान पाता है। कई पात्रों और अनेक त्रासद भावनाओं के बाद भी कथानक इतना लघु है कि पाठक के तन्मय होते होते उपन्यास ही समाप्त हो जाता है। घटनाओं का विस्तार होता तो पाठक उनसे अधिक गहराई से जुड़ पाता। उपन्यास का केंद्रीय भाव 'थमना नहीं, बढ़ते रहना' है। लघु-प्रभावी उपन्यास हेतु साधुवाद।
भावनाओं की पराकाष्ठा ''गाथा'' - विजय तिवारी 'किसलय'
संपूर्ण उपन्यास भावों के प्रवाह में बहता गया है.... धर्म, आध्यात्म, प्रकृति, साहित्य, पर्यटन, स्नेह संबंध तथा सहज स्नेह का बहुरंगी गुलदस्ता 'गाथा' पाठकों के ह्रदय को सुनिश्चित स्पर्श करेगा साथ ही 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की भावना मानव समाज में प्रस्फुटित करेगा।
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कृति सलिला:
[समाधि, उपन्यास, प्रथम संस्करण २०१४, आकार २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी. आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ ८८, मूल्य २७५/-, पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
आधुनिक युग में उपन्यास का अर्थ है "गद्यबद्ध लंबी कथा।'' उपन्यास उस विचार को प्रदर्शित करने की कला है जिसे कलाकार जीवन के रूप में स्वीकार करता है। वह पाठकों को वही वास्तविकता दिखाकर आनंदित करता है जो उसने अनुभव की है। डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे कृत उपन्यास 'समाधि' विवाह पूर्व संबंधों से स्त्री, पुरुष व् बच्चे पर पड़े प्रतिकूल सामाजिक आर्थिक सामाजिक प्रभावों की ओर ध्यानाकृष्ट करता है। यह सामाजिक विषमताओं, कुप्रथाओं, वैयक्तिक कुंठाओं व् आक्रोश का विश्लेषण करने के साथ - साथ उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर चेतना प्रवाह बनाये रखता है। महान मूर्तिकार रुद्रधीर के पुत्र श्रेष्ठ मूर्तिकार चेतनानंद की क्षणिक भूल उनके जीवन की विडंबना बन जाती है। वे शहर से दूर आश्रम बनाकर मूर्तिकला का प्रशिक्षण देने में समर्पित हैं। सहृदयता, मैत्री भाव और कठोर अनुशासन के पर्याय बनाकर वे आश्रम में नारियों का प्रवेश निषेध कर देते हैं। उनके अनुसार कला का सत्य 'कष्ट' जीवन की रागिनी बन जाता है हुए कला स्वयं अपनी राह ढूंढती हुई अपने स्तर को प्राप्त करती है। - पृष्ठ ३०
कला साधना की समाधि की आड़ में अपनी आत्म ग्लानि को छिपाते चेतनानंद का पट्टशिष्य और पुत्र पंकज ही उनके नारी निषेध के संकल्प को भंग करता है। आश्रम में नंदिता का प्रवेश ही उनके भंग कर देता है। पट्ट शिष्य पंकज द्वारा शिशु का चुम्बन करती माँ, राजस्थानी बाला वेणु और बंगाली युवती नंदिता की मूर्ति बनान मणि नियति का संकेत है कि नारी के बिना जीवन नहीं है। एक अति की प्रतिक्रिया दूसरी अति जब पंकज केवल नारी मूर्ति बनाने का निश्चय करता है। स्त्री के प्रति अपराध का प्रायश्चित्य स्त्री नंदिता के समक्ष ही करते हैं चेतनानंद, खुद को बहुरूपिया कहते सराहते हैं उस मणि को जिसने उनके द्वारा ठुकराई गयी वेणु को अपनाया।
उपन्यास में अकेलेपन की मूक वेदना है। कोलाहल में भी एकाकी पात्र एकान्त का ही वरण करते हैं। वे सामाजिक परम्पराओं, मान्यताओं की छद्म स्वीकार्यता के नाम पर अनैतिक और आर्थिक स्थितियों में उलझकर भी जिजीविषा बनाये रखते हैं। आचार्य चेतन अपनी प्रेयसी वेणु के गर्भवती हो जाने पर उससे मिलने का साहस नहीं जुटा पाते। वेणु के विचारों में डूबे रहते हुए भी वे अपने पुत्र पंकज को शिष्य रूप में निकट पाते हुए भी अपना नहीं पाते। पंकज सच जानते हुए भी उन्हें पिता नहीं कह पाता है। अन्यत्र विवाही जा चुकी वेणु सास के भय से पंकज को नहीं अपना पाती और पंकज को लिखे पत्र में स्वकारती है- "तुम पीटने पर रोते किन्तु मैं कभी स्नेह से तुम्हें गले नहीं लगाती। मेरा दिल जार-जार रोता किन्तु तुम्हें माँ का प्यार न दे सकी। पंकज मैं बहुत दुखी हूँ। इसके लिए तुमसे कितनी भी क्षमा मांगूं , मेरे दिल को शांति नहीं मिल सकती, कभी नहीं।" पृष्ठ ४०।
उपन्यासकार पाश्चात्य संस्कृति के प्रादुर्भाव से बढ़ते भोगवाद पर चिंता व्यक्त करते हुए स्त्री को भोग सामग्री माने जाने पर चिंतित है। श्रमिक वर्ग के लिए सम्मानजनक परिस्थितियों की तलाश करती कथा श्रमिकों और मालिकों के बीच स्वस्थ संबंधों के माध्यम से कल्याण के नए क्षितिज तलाशे जाने की रह सुझाती है। पंकज के शब्दों में "उस परमात्मा को देखो, उसे इस सृष्टि की रचना के बदले में क्या मिला? अपने जीवन को व्यर्थ मत बिताओ, एक-एक पल को जिओ, परिश्रम और हँसी ख़ुशी के साथ, बीता हुआ क्षण कभी वापिस नहीं मिलेगा।" पृष्ठ ३७
ठेकेदार रामसिंह पत्नी को अपरिचित पंकज पर विश्वास करने का कारण बताता है - " यदि नींव मजबूत हो तो उस पर खड़ी इमारत हमेशा बुलंद होगी किन्तु यदि नीव कमजोर हो और उस पर खड़ी इमारत को हम बुलंद करें तो यह हमारा भ्रम होगा।" इस प्रकार मानव चरित्रों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। उपन्यास में मरुभूमि के प्राकृतिक सौंदर्य तथा सामाजिक विसंगतियों की पृष्ठभूमि है। राजस्थानी नारी सौंदर्य - "मूर्ति एक राजस्थानी बाला की नजर आ रही है। गोट लगा लँहगा घुटनों तक लहरा रहा है, पैरों में पायल है, लहरों के ऊपर गोठ लगी लाल चोली, बोरल में फंसी लाल चुनरी बड़े आकर्षक ढंग से कंधों पर लहरा रही है", राजस्थानी पुरुष सौंदर्य " उसके चौड़े कंधे, ऊंचा कद, सांवला रंग, पुष्ट शरीर, घुंघराले केश, आकर्षक नासिका, आँखें छोटी पर सुंदर... " और राजस्थानी लोकगीत "दूर दूर कुआं को पाणी। म्हारी माथनी बींदिया ला दो जी / म्हारो बोरलो रतन ज्यादा दो जी " आदि में राजस्थान जीवंत हो उठा है। लेखिका की गहरी और सूक्ष्म पर्यवेक्षण दृष्टि ने पात्रों को कर्तव्य, त्याग, समर्पण, ग्लानि, गौरव, और आदर्श के ताने बाने में गूँथकर अविस्मरणीय बना दिया है। उपन्यास के कथाक्रम में कसावट है। आरम्भ से अंत तक पाठक रूचि बनी रहती है।
मनोवैज्ञानिक विश्लेषण व् चेतना प्रवाही उपन्यास ''समाधि'' - शिवकुमार आर्य

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कला साधना की समाधि की आड़ में अपनी आत्म ग्लानि को छिपाते चेतनानंद का पट्टशिष्य और पुत्र पंकज ही उनके नारी निषेध के संकल्प को भंग करता है। आश्रम में नंदिता का प्रवेश ही उनके भंग कर देता है। पट्ट शिष्य पंकज द्वारा शिशु का चुम्बन करती माँ, राजस्थानी बाला वेणु और बंगाली युवती नंदिता की मूर्ति बनान मणि नियति का संकेत है कि नारी के बिना जीवन नहीं है। एक अति की प्रतिक्रिया दूसरी अति जब पंकज केवल नारी मूर्ति बनाने का निश्चय करता है। स्त्री के प्रति अपराध का प्रायश्चित्य स्त्री नंदिता के समक्ष ही करते हैं चेतनानंद, खुद को बहुरूपिया कहते सराहते हैं उस मणि को जिसने उनके द्वारा ठुकराई गयी वेणु को अपनाया।
उपन्यास में अकेलेपन की मूक वेदना है। कोलाहल में भी एकाकी पात्र एकान्त का ही वरण करते हैं। वे सामाजिक परम्पराओं, मान्यताओं की छद्म स्वीकार्यता के नाम पर अनैतिक और आर्थिक स्थितियों में उलझकर भी जिजीविषा बनाये रखते हैं। आचार्य चेतन अपनी प्रेयसी वेणु के गर्भवती हो जाने पर उससे मिलने का साहस नहीं जुटा पाते। वेणु के विचारों में डूबे रहते हुए भी वे अपने पुत्र पंकज को शिष्य रूप में निकट पाते हुए भी अपना नहीं पाते। पंकज सच जानते हुए भी उन्हें पिता नहीं कह पाता है। अन्यत्र विवाही जा चुकी वेणु सास के भय से पंकज को नहीं अपना पाती और पंकज को लिखे पत्र में स्वकारती है- "तुम पीटने पर रोते किन्तु मैं कभी स्नेह से तुम्हें गले नहीं लगाती। मेरा दिल जार-जार रोता किन्तु तुम्हें माँ का प्यार न दे सकी। पंकज मैं बहुत दुखी हूँ। इसके लिए तुमसे कितनी भी क्षमा मांगूं , मेरे दिल को शांति नहीं मिल सकती, कभी नहीं।" पृष्ठ ४०।
उपन्यासकार पाश्चात्य संस्कृति के प्रादुर्भाव से बढ़ते भोगवाद पर चिंता व्यक्त करते हुए स्त्री को भोग सामग्री माने जाने पर चिंतित है। श्रमिक वर्ग के लिए सम्मानजनक परिस्थितियों की तलाश करती कथा श्रमिकों और मालिकों के बीच स्वस्थ संबंधों के माध्यम से कल्याण के नए क्षितिज तलाशे जाने की रह सुझाती है। पंकज के शब्दों में "उस परमात्मा को देखो, उसे इस सृष्टि की रचना के बदले में क्या मिला? अपने जीवन को व्यर्थ मत बिताओ, एक-एक पल को जिओ, परिश्रम और हँसी ख़ुशी के साथ, बीता हुआ क्षण कभी वापिस नहीं मिलेगा।" पृष्ठ ३७
ठेकेदार रामसिंह पत्नी को अपरिचित पंकज पर विश्वास करने का कारण बताता है - " यदि नींव मजबूत हो तो उस पर खड़ी इमारत हमेशा बुलंद होगी किन्तु यदि नीव कमजोर हो और उस पर खड़ी इमारत को हम बुलंद करें तो यह हमारा भ्रम होगा।" इस प्रकार मानव चरित्रों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। उपन्यास में मरुभूमि के प्राकृतिक सौंदर्य तथा सामाजिक विसंगतियों की पृष्ठभूमि है। राजस्थानी नारी सौंदर्य - "मूर्ति एक राजस्थानी बाला की नजर आ रही है। गोट लगा लँहगा घुटनों तक लहरा रहा है, पैरों में पायल है, लहरों के ऊपर गोठ लगी लाल चोली, बोरल में फंसी लाल चुनरी बड़े आकर्षक ढंग से कंधों पर लहरा रही है", राजस्थानी पुरुष सौंदर्य " उसके चौड़े कंधे, ऊंचा कद, सांवला रंग, पुष्ट शरीर, घुंघराले केश, आकर्षक नासिका, आँखें छोटी पर सुंदर... " और राजस्थानी लोकगीत "दूर दूर कुआं को पाणी। म्हारी माथनी बींदिया ला दो जी / म्हारो बोरलो रतन ज्यादा दो जी " आदि में राजस्थान जीवंत हो उठा है। लेखिका की गहरी और सूक्ष्म पर्यवेक्षण दृष्टि ने पात्रों को कर्तव्य, त्याग, समर्पण, ग्लानि, गौरव, और आदर्श के ताने बाने में गूँथकर अविस्मरणीय बना दिया है। उपन्यास के कथाक्रम में कसावट है। आरम्भ से अंत तक पाठक रूचि बनी रहती है।
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कृति सलिला: बातचीत
समाज से प्राप्त प्रेरणा ही "पाषाण पिघल रहा है" - राजलक्ष्मी शिवहरे से बातचीत
[पाषाण पिघल रहा है, उपन्यास, प्रथम संस्करण २०१४, आकार २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी. आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य २७५/-, पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
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प्र - 'पाषाण पिघल रहा है' के पात्र आपके ध्यान में कहाँ से आये?
उ - हमारे समाज में सभी तरह के व्यक्ति होते हैं। पाषाण पिघल रहा है के पात्र भी समाज से ही हैं। समाज में भर्ती, स्वप्निल व् निशिकांत जैसे सहिष्णु, समझदार लोग भी हियँ और सुनीता जैसी जिद्दी प्रवृत्ति के लोग भी हैं।
प्र उपन्यासों के पात्रों का चयन सामान्य जान जीवन से ही करती हैं या पूरी तरह कल्पना से?
उ मैं पत्रों का चयन समाज के बीच से ही करती हूँ किन्तु उसमें कल्पना का मिश्रण भी होता है।
प्र पाषाण पिघल रहा है' तथा अन्य उपन्यास लिखने के मूल में आपके निजी अनुभव हैं की?
उ यह या अन्य उपन्यास या कहानी पूरी तरह केवल अनुभव पर आधारित हैं कहना असत्य होगा। लेखन का अनुभूत सत्य कहीं कहीं कृति में झलकता अवश्य है। यही उसे अन्य लेखकों से पृथक करता है। इसी से उसकी पहचान बनती है।
प्र- उपन्यास में स्वप्निल का चरित्र दब्बू और समझौतावादी है। क्या वास्तविक जीवन में ऐसे लोग मिलते और सफल होते हैं?
उ- जबरदस्ती कुछ पाना स्वप्निल को पसंद नहीं है। इसलिए वह सुनीता पर भी अपनी इच्छा नहीं लादता, उसे स्वतंत्र कर देता है।सरसरी तौर पर भले ही यह अस्वाभाविक लगे पर व्यावहारिक तौर यह असंभव नहीं है।वस्तुत: स्वप्निल दब्बू नहीं, नीलकंठ की तरह अपने दुःख रूपी गरल को अपने तक सीमित रखनेवाला महानायक है। उसके होठों की मुस्कान बड़े से बड़े संकट में भी बनी रहती है।
प्र - सुनीता के साथ विवाह करने का फैसला क्या स्वप्निल की कोरी भावुकता नहीं है? उपन्यास में कहीं भी यह व्यक्त नहीं किया गया है कि स्वप्निल को सुनीता से प्रेम था? सुनीता से विवाह करने का स्वप्निल का फैसला क्या माँ की इच्छापूर्ति मात्र के लिए था?
उ- माँ की इच्छा मात्र नहीं, स्वप्निल स्वयं भी सुनीता के प्रति आकर्षित है, भले ही खुलकर अभिव्यक्ति न करे, माँ की इच्छा उत्प्रेरक का कार्य करती है।
प्र. सुनीता के मन में पुरुषों के प्रति घृणा का भाव है इसलिए वह स्वप्निल के साथ विवाह करने में हिचकती है किन्तु देवेंद्र से विवाह के लिए वह कहती है कि उसकी प्रतिशोध भावना प्रेम में बदल चुकी है। क्या यह विरोधाभास नहीं है?
उ नहीं, इसमें विरोधाभास नहीं है। सुनीता ही क्या, हममें से कोई भी अंतिम निर्णय एकदम से नहीं लेता। सुनीता भी खुद को ठीक से समझ नहीं पाती। वह माँ का प्रतिकार लेने और स्वप्निल को चिढ़ाने के लिए देवेंद्र की और बढ़ती है और देवेंद्र के प्रति रूपाकर्षण को प्रेम की संज्ञा दे देती है।
प्र - देवेंद्र से अपनी माँ का प्रतिशोध लेने की भावना, पति के प्रति प्रेम और बेटी के प्रति ममता को समाप्त कैसे कर सकती है?
उ प्रतिशोध की अग्नि जन्म जन्मांतर तक भी ठंडी नहीं होती। यह महाभारत भी कहता है। सुनीता के मन में अपनी माँ के प्रति हुए अन्याय के कारण प्रतिशोध की जो आग भड़की उसे पममता भी ठंडा नहीं कर सकी। यह अस्वाभाविक नहीं है अन्यथा अनेक बच्चे इसका शिकार नहीं बनते।
प्र - क्या जीवन की छोटी - छोटी घटनाओं का विस्तार, कहानी में अवरोध पैदा नहीं करता?
उ - नहीं, उपन्यास बगीचे की तरह होता है। क्यारियों की तरह छोटी - छोटी घटनाएँ व्यवधान नहीं पैदा करतीं अपितु कथावस्तु को नया मोड़ देकर नया रंग भर जाती हैं।
प्र - इस उपन्यास को लिखने के पीछे आपका उद्देश्य क्या है? क्या आप पाठकों को कोई संदेश देना चाहती हैं?
उ - विवाहेतर प्रेम संबंध कितनी त्रासदियों को जन्म दे सकता है? अपने मन की भावनाओं पर नियंत्रण और सबके हित की चाह ही हमें मनुष्य और परिवार मंदिर बनाती है। यही बात पाठकों तक पहुँचाने के लिए यह उपन्यास लिखा गया है।
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कृति सलिला:
तीन कथाओं का ताना बाना बुनता 'विषपाई' - अर्चना मलैया
[विषपायी , उपन्यास, प्रथम संस्करण २०१९, आकार २२.५ से.मी. x १४ से.मी. आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
विषपाई में सर्वाधिक स्तब्ध करनेवाला पक्ष राधा के विद्यालय में पढ़ रहे छात्र प्रदीप का है जिसने बाल्यावस्था में ही अपने घर में अपनी माँ, दादी, भाई और दीदी के दर्दनाक अंत को अपनी आँखों से देखा है। दीदी का कसूर बस इतना था कि उसने छेड़छाड़ करनेवाले लड़कों की शिकायत प्राचार्य से कर दी थी। सरगना रसूखदार हत्यारे को वह पहचानता भी था पर वह उसकी पहुँच से बहुत दूर था। इस धधकती ज्वाला को अपने भीतर जलाये हुए प्रदीप एक खंडित व्यक्तित्व को जी रहा था। नलिन के अख़बार सांध्य साक्षी के जरिए उसकी व्यथा कथा प्रकाशित होकर नगर में हलचल मचा देती है। प्रबल राजनैतिक दबाव के बाद समय अंतत: न्याय करता है। कातिलों को उनके कर्मों की सजा ईश्वरीय दंड के रूप में मिलती है। इस बार सजा देने में अहम् भूमिका मनीषा की रहती है। वह अपने कथन को साकार करती है कि समय आने पर नारी को काली और विषधर बनना चाहिए।
सरल संवाद शैली में लिखित उपन्यास के घटनाक्रम से पाठक सहज ही जुड़ता चला जाता है। नि:संदेह उपन्यास कथा रोचक एवं बनावटहीन है। मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर बने गए तीनों कथानकों का ताना बाना कुछ अधिक गहराई और बारीकी से बुना जा सकता तो यह उपन्यास हिंदी के श्रेष्ठ उपन्यासों में गणनीय होता।
विषपाई का अमृत कलश - महेश महदेल
डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे कृत उपन्यास विषपाई मूल्यों की तपिश में रच-बसकर मन को तृप्ति का गहरी अनुभूति दे जाता है। पत्रों को जीते हुए बहुआयामी लेखन की धनी साहित्य साधिका ने अनकही मार्मिकता को स्वर दिया, विचार दिया। बाहुबलियों के आतंक का प्रतिकार करती जिजीविषा को न्याय की भाषा दी। लेखन कला, शब्द चयन,अर्थवत्ता पूर्ण शैली, पाठक को बांधकर रखती कथा का समन्वय है विषपाई। सरोकारों के समर्थन और भटकाव वाले इस युग में समुद्र बीच दीपस्तंभ जैसा यह उपन्यास अपना स्थान बनाएगा। पत्रकरिता का कंटकाकीर्ण मार्ग, राजनैतिक भ्रष्टाचार, विष से विष का उपचार करना, अमृतमंथन का सा संघर्ष और अंतत: अमृत कलश की प्राप्ति। स्वनामधर्मिकता के लेखनः के दौर में यह कृति वजनदारी में यथेष्ट है।
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कृति सलिला:
श्रद्धा और भक्ति समन्वय -रामायण दर्शिका - जयप्रकाश श्रीवास्तव
[विषपायी , उपन्यास, प्रथम संस्करण २०१९, आकार २२.५ से.मी. x १४ से.मी. आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, पाथेय प्रकाशन जबलपुर]

संपर्क - आई.सी.५ सैनिक सोसायटी, शक्ति नगर, जबलपुर ४८२००१ चलभाष - ७८६९१९३९२७।
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कृति सलिला:
[विषपायी , उपन्यास, प्रथम संस्करण २०१९, आकार २२.५ से.मी. x १४ से.मी. आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
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बुंदेलखंड में लोकगीत बम्बुलिया गायन की परंपरा है। खेतों में मचानों पर करने किसान अकेलेपन को मिटाने के लिए एक गीत पंक्ति हैं, दूर किसी अन्य खेत में कोई अन्य सुनकर अगली पंक्ति जोड़ देता और यह क्रम निरंतर चलता रहता है। गायक अपरिचित होने पर भी लय मिलाकर गीत की कड़ी जोड़ते रहते हैं। कुछ इसी तरह का प्रयोग डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे के निर्देशन, छाया सक्सेना व् ऋतु गोयल के संपादन में साहित्य संगम संस्था के तत्वावधान में संभवत: पहली बार २५ अपरिचित लेखिकाओं ने दूर-दूर रहते हुए कड़ी-कड़ी जोड़कर उपन्यास पूरा किया। नायिका बरनाली जन्मजात पंगु है। अदम्य जिजीविषा से संघर्ष कर वह असाधारण सफलता पाकर वह औरों के कष्ट दूर करती है, सुयोग्य जीवनसाथी पाती है। बरनाली का संघर्ष मर्मस्पर्शी है, सहृदय पाठक की आँखों में अश्रु आये बिना नहीं रहते। असम की लोक संस्कृति का चित्रण स्वाभाविक है। अस्मि लोकगीतों की पंक्तियों का हिंदी काव्यानुवाद या अर्थ दिया जाता तो पाठक उनके अर्थ ग्रहण कर पाता।
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काव्यमेध : सरस काव्य संग्रह - मीना भट्ट

राजलक्ष्मी शिवहरे की १७ कविताओं वंदना, पर्यावरण, पूस की रात, सोना, मकर संक्रांति, सहारा कोइ नहीं देता, सैनिक, परिणाम, फरेब, बेटी, भारत की आन, चंचल, परिवर्तन, ऐसी अमर कहानी हो, अक्स, महादेवी वर्मा तथा जंगल में राष्ट्रीय भावधारा, पर्यावरण चेतना, सामाजिक विसंगतियों आदि को केंद्र में रखा गया है। संकलन के आरंभ में शक्ति वंदना भारतीय काव्य परम्परा का निर्वहन है। कविताओं का भाव पक्ष और कला पक्ष संतुलित,शब्द सौष्ठव मोहक और विषय सम सामयिक हैं। शिव कुमारी शिवहरे के अनुसार कविताओं में मानवीय संवेदनाओं को बारीकी से उकेरा गया है। आरती अश्वमेध की परंपरा से काव्यमेध से जोड़ती हैं। डॉ. महालक्ष्मी सक्सेना 'मेधा' रचनाओं की परिपक्वता तथा विषय वैविध्य की प्रशंसा हैं। छगन लाल गर्ग भावों की एकाग्रता पर मुग्ध हैं। (मँहगे कागज, हर पृष्ठ पर अनावश्यक चित्रों तथा रंगों की तड़क-भड़क खलती है। गंभीर रचनाओं की प्रस्तुति सादगीपूर्ण होनी चाहिए। -सं)
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हिंदी और गाँधी दर्शन : गागर में सागर - बसंत शर्मा

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'सृजन समीक्षा' उपयोगी परिचय पुस्तिका - मिथलेश बड़गैयां


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प्रस्तुत पुस्तिका में संस्कारधानी जबलपुर की सुपरिचित लेखिका डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे का संक्षिप्त जीवन परिचय, आत्मकथ्य, ५ कवितायें (सृजक का सृजन, मैं हिंदी हूँ, माँ, जिंदगी के मेले तथा बारिश की फुहार) और उनके कुछ पाठकों (राजीव थेपरा, नीरजा मेहता, शैलेन्द्र सोम, कृष्ण कुमार सिसोदिया, अवदेश अवध, तेजराम गहलोत, प्रमोद जैन, रजनी कोठरी व् प्रीती सुराणा के अभिमत सम्मिलित हैं। ऐसी परिचयात्मक पुस्तिका की उपयोगिता असंदिग्ध है किन्तु तब जब इन्हें साहित्यिक आयोजनों में निशुल्क वितरित किया जाए। मात्र १६ पृष्ठ की पुस्तिका का मूल्य ४०/- रख जाना औचित्यहीन है।
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'घरौंदे' - विनीता श्रीवास्तव


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कहानी और उपन्यास लेखन में प्रवीण डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे के ७ कहानियों का यह संग्रह पठनीय है। 'घरौंदे' में विधवा विवाह, 'सारांश' में दिवंगत की दो विधवाओं द्वारा ताल-मेल, 'थोड़ा सा पुण्य' में पिता की संपत्ति हेतु चिंतित समृद्ध बेटे और सेवा के लिए तत्पर कम समृद्ध बेटी-बेटे, 'समझदार' में विधुर से विवाह कर उनके बच्चों के अपनाती कुँवारी डॉक्टर, 'चेतना के क्षण' में नगरीय व्यस्तता के बीच भी अपनी जिंदगी जीते पति-पत्नी, 'विभूति' में विवाह बिना भी जीवन का आनंद लेती जिम्मेदार डॉक्टर युवती तथा 'परिष्कार' में दो पीढ़ियों के बीच अंतर को केंद्र में रखा गया है। कहानियाँ रोचक, पठनीय और उद्देश्य पूर्ण हैं।
कहानी और उपन्यास लेखन में प्रवीण डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे के ७ कहानियों का यह संग्रह पठनीय है। 'घरौंदे' में विधवा विवाह, 'सारांश' में दिवंगत की दो विधवाओं द्वारा ताल-मेल, 'थोड़ा सा पुण्य' में पिता की संपत्ति हेतु चिंतित समृद्ध बेटे और सेवा के लिए तत्पर कम समृद्ध बेटी-बेटे, 'समझदार' में विधुर से विवाह कर उनके बच्चों के अपनाती कुँवारी डॉक्टर, 'चेतना के क्षण' में नगरीय व्यस्तता के बीच भी अपनी जिंदगी जीते पति-पत्नी, 'विभूति' में विवाह बिना भी जीवन का आनंद लेती जिम्मेदार डॉक्टर युवती तथा 'परिष्कार' में दो पीढ़ियों के बीच अंतर को केंद्र में रखा गया है। कहानियाँ रोचक, पठनीय और उद्देश्य पूर्ण हैं।
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'अभिसारिका' सरस कहानी संग्रह - डॉ. दिनेश कुमार गुप्ता

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डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे की १२ कहानियों का ३२ पृष्ठीय अति मँहगा लघु कहानी संग्रह अभिसारिका अंतरा प्रकाशन बालाघाट से प्रकाशित हुआ है। अभिसारिका तीन अंकों में लिखी गयी कहानी है जिसकी समृद्ध नायिका जो प्रकाशक है अपने अधीन काम कर रहे विवाहित युवक की और आकर्षित है। कहानी 'रूपकिरण' में छोटे परिवार तथा पुत्रियों को पुत्र समान समझने का, कहानी 'कोपलें' बालशिक्षा से उज्जवल भविष्य का, 'सुप्रिया' में महिलाओं के आर्थिक स्वावलंबन, 'प्रेम' में निस्वार्थ-निश्छल लगाव, सूझ बूझ में व्यावहारिकता, 'डिब्बी का मोती' में सत्कार्यों से सत्फल, बेताबी में दिशाहीन संबंध, 'बंदगी' में प्रेम पर सामाजिक दायित्व को वरीयता, 'कंदरा में गैर जिम्मेदार पुत्र और माँ की जिम्मेदारी उठाती पुत्री तथा संगम में जल प्रदूषण संबंधी कथानक है। कुछ कहानियाँ लघु कथा की तरह हैं। मात्र ३२ पृष्ठ की पुस्तिका की कीमत ६०/- अत्यधिक है। ऐसे प्रकाशन पाठकों की पहुँच से बाहर होते हैं।
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[वो खूबसूरत है, एक कहानी, प्रथम संस्करण २०१८, आकार २०.५ से.मी. x १४.२ से.मी. आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १६, मूल्य ४०/-, अंतरा प्रकाशन बालाघाट।]
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डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे ने इस कहानी में एक कर्तव्यनिष्ठ युवती जानकी का चरित्र उकेरा है जो वैयक्तिक ख़ुशी पर सामाजिक मान्यता को वरीयता देती है। जानकी अपने प्रेमी राम से सामाजिक रूढ़ियों के कारण विवाह न कर पाने पर भी उसके हर दायित्व निर्वहन में सहायक होती है। भारतीय समाज से जाति प्रथा समाप्त हो तो युवाओं को अपनी खुशियों की बलि न देनी पड़े। अत्यधिक छोटे आकार के अक्षरों में मात्र १६ पृष्ठ की इस पुस्तिका का मूल्य ४०/- उचित प्रतीत नहीं होता। डॉ. राजलक्ष्मी जी प्रतिष्ठित लेखिका हैं। ऐसी छोटी और मँहगी पुस्तिकायें उनकी कीर्ति के अनुकूल प्रतीत नहीं होतीं।
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डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे ने इस कहानी में एक कर्तव्यनिष्ठ युवती जानकी का चरित्र उकेरा है जो वैयक्तिक ख़ुशी पर सामाजिक मान्यता को वरीयता देती है। जानकी अपने प्रेमी राम से सामाजिक रूढ़ियों के कारण विवाह न कर पाने पर भी उसके हर दायित्व निर्वहन में सहायक होती है। भारतीय समाज से जाति प्रथा समाप्त हो तो युवाओं को अपनी खुशियों की बलि न देनी पड़े। अत्यधिक छोटे आकार के अक्षरों में मात्र १६ पृष्ठ की इस पुस्तिका का मूल्य ४०/- उचित प्रतीत नहीं होता। डॉ. राजलक्ष्मी जी प्रतिष्ठित लेखिका हैं। ऐसी छोटी और मँहगी पुस्तिकायें उनकी कीर्ति के अनुकूल प्रतीत नहीं होतीं।
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[बंधन, कहानी, डॉ.राजलक्ष्मी शिवहरे, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ३२, मूल्य ६०रु., अंतरा प्रकाशन बालाघाट]
टूट-टूट कर जुड़ता : 'बंधन' - अविनाश ब्योहार

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संबंधों को सुविधानुसार ओढ़ने-बिछाने, मन टूटने पर आत्मघात, अपंगता पर विजय आदि समेटे, घटना बहुल रोचक कहानी। लघ्वाकारी मँहगी पुस्तिका छाप कर हिंदी का अहित करता प्रकाशन। 'बंधन' में दो कहानियाँ, कहानियों के विषय समसामयिक तथा वर्तमान भोगप्रधान जीवन शैली से उपजी विसंगतियों और टकराव-समायोजन के मध्य बंधन में 'शादी पवित्र बंधन है' तथा 'दो साल' में 'पारस को छूकर लोहा भी सोना हो जाता है का' सर्वकालिक निष्कर्ष। कहानी कहने की कला में राजलक्ष्मी जी सिद्धहस्त हैं, कम शब्दों में अधिक कहने का फन उनमें है।
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बृजेश शर्मा 'विफल' - राजलक्ष्मी शिवहरे जी की रचनाओं को बतौर पाठक अपने दिल के बेहद करीब पाता हूँ।अपनी लोकप्रिय औपन्यासिक रचनाओं में वे जिस तिलिस्म को रचती हैं उससे सहज ही अभिभूत हो जाता है। बेहद साढ़े कथ्य के साथ सरल भाषा सीढ़ी जेहन में उतरती जाती है। उपन्यास और कहानियों में वे अपने फन की उस्ताद हैं। लघुकथाओं में रोजमर्रा की ज़िंदगी से जो उठती हियँ, सहजता से कह देती हैं। उनकी कविताओं में कविताई एक सरल रेखा की मानिंद है, शिल्प लुप्तप्राय है, कथ्य की गहनता कम हे मिलती है। उनका उपन्यास विषपायी नारी मन की कोमलतम अभिव्यक्ति से लबरेज है। एक सृजनकार जो लिखता है वह आपबीती, जगबीती और कल्पनाओं का कोलाज होता है। जितने वसीह तरिके से आप दुनिया को देखते हैं लेखन उतना ही प्रभावी होता है। बिषपायी में लेखिका नारी मन के द्वन्द को उकेरने में सफल है। सनातन सत्य की सार रूप में प्रस्तुति "हर प्रश्न का उत्तर नहीं होता और यदि है तो वह उत्तर समय देता है।" इसी तरह "आत्मीयता बिना किसी रिश्ते के भी कायम हो जाती है" कितना वर्स्टाइल वाक्य है। उपन्यास के गौड़ अंतर्कथाएं मुख कथा के विकास में सहायक हैं। उपन्यास का हर पात्र अपने हिस्से का विष पीकर विषपाई है मगर यह विष अंतस की हीलिंग करता है। सुखांत परक उपन्यास का संदेश सर्वकालिक है कि छोटी छोटी खुशियां जीवन में अमृत का काम करती हैं, जीवन के प्रति आस्था जगाती हैं और मनुष्य खुश रहता है।
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संस्कारधानी की लोकप्रिय कवियत्रि और लेखिका डाॅ. राजलक्ष्मी शिवहरे की अनेक प्रकाशित कृतियों को मैने अध्ययन किया है और अब उनकी नवीनतम कृति ‘‘श्रीमदभागवत प्रकाश भाग-2’’ भी पढ़ने मिली, जो लेखिका के आध्यात्मिक ज्ञान और विद्वत्ता का परिचायक है। श्रीमद्भागवत पर देश के अनेक विद्वानों ने अपने विचार अभिव्यक्त करते हुए इस महापुराण को मोक्ष प्राप्ति में समर्थ निरूपित किया है। डाॅ. राजलक्ष्मी शिवहरे ने अत्यंत सरल भाषा का उपयोग किया है ताकि आम आदमी भी इस कृति का अध्ययन, मनन कर सके। इस दृष्टि से यह कृति महत्वपूर्ण है। वस्तुतः नर, नारायण का ही अंश है। नर को नारायण से मिलाने का कार्य श्रीमद्भागवत करती है। मानव-आत्मा को 84 लाख योनियों में भटकने से रोकने का उपाय बताती है श्रीमद्भागवत। मानव-जीवन संसार-सागर में भटकती हुई नौका के समान है। श्रीमद्भागवत एक पतवार है, जिसके सहारे मनुष्य यह भवसागर पार कर सकता है। इसके अध्ययन से हमें ‘भद्रं कर्णेभिः श्रणुयाम’ अर्थात् मंगलकारी वचन सुनने, ‘मित्रस्य चक्षुषा समिक्षामहे’, सबको परस्पर मित्र भाव से देखने की प्रेरणा मिलती है। श्रीमद्भागवत आपके प्रत्येक व्यवहार को भक्तिमय बना देती है। आध्यात्मिक, अधिदैविक तथा अधिभौतिक तीनों प्रकार के ताप नष्ट करने वाली संजीवनी वूटी है श्रीमद्भागवत। इसीलिए भागवत परायण को ज्ञान यज्ञ कहा जाता है। पाठकगण इस कृति का अध्ययन कर सद्ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इस महत्वपूर्ण कृति की रचियता डाॅ. राजलक्ष्मी शिवहरे का हार्दिक अभिनन्दन। अनंत मंगल कामनाएँ...।
कृष्णकुमार शुक्ल (कवि, लेखक, पत्रकार) त्रिमूर्ति नगर, जबलपुर (म.प्र.)
संस्कारधानी की लोकप्रिय कवियत्रि और लेखिका डाॅ. राजलक्ष्मी शिवहरे की अनेक प्रकाशित कृतियों को मैने अध्ययन किया है और अब उनकी नवीनतम कृति ‘‘श्रीमदभागवत प्रकाश भाग-2’’ भी पढ़ने मिली, जो लेखिका के आध्यात्मिक ज्ञान और विद्वत्ता का परिचायक है। श्रीमद्भागवत पर देश के अनेक विद्वानों ने अपने विचार अभिव्यक्त करते हुए इस महापुराण को मोक्ष प्राप्ति में समर्थ निरूपित किया है। डाॅ. राजलक्ष्मी शिवहरे ने अत्यंत सरल भाषा का उपयोग किया है ताकि आम आदमी भी इस कृति का अध्ययन, मनन कर सके। इस दृष्टि से यह कृति महत्वपूर्ण है। वस्तुतः नर, नारायण का ही अंश है। नर को नारायण से मिलाने का कार्य श्रीमद्भागवत करती है। मानव-आत्मा को 84 लाख योनियों में भटकने से रोकने का उपाय बताती है श्रीमद्भागवत। मानव-जीवन संसार-सागर में भटकती हुई नौका के समान है। श्रीमद्भागवत एक पतवार है, जिसके सहारे मनुष्य यह भवसागर पार कर सकता है। इसके अध्ययन से हमें ‘भद्रं कर्णेभिः श्रणुयाम’ अर्थात् मंगलकारी वचन सुनने, ‘मित्रस्य चक्षुषा समिक्षामहे’, सबको परस्पर मित्र भाव से देखने की प्रेरणा मिलती है। श्रीमद्भागवत आपके प्रत्येक व्यवहार को भक्तिमय बना देती है। आध्यात्मिक, अधिदैविक तथा अधिभौतिक तीनों प्रकार के ताप नष्ट करने वाली संजीवनी वूटी है श्रीमद्भागवत। इसीलिए भागवत परायण को ज्ञान यज्ञ कहा जाता है। पाठकगण इस कृति का अध्ययन कर सद्ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इस महत्वपूर्ण कृति की रचियता डाॅ. राजलक्ष्मी शिवहरे का हार्दिक अभिनन्दन। अनंत मंगल कामनाएँ...।
कृष्णकुमार शुक्ल (कवि, लेखक, पत्रकार) त्रिमूर्ति नगर, जबलपुर (म.प्र.)
विषपाई का अमृत कलश
समीक्षक - महेश महदेल, वरिष्ठ पत्रकार और अध्यक्ष
आठ- दस दिन से टेबिल पर पड़ी किताब, लगता रहा कि वह कुछ कह रही है। बिना पढ़े अक्षरों का शीषर्क शायद कराण रहा। ‘‘औरत ऐसी ही होती है मनीषा । ऐसे कथानक उपन्यास कहानी में सिलसिलेवार चले हैं। लेकिन ‘‘विषपाई’’ की उपन्यासिका डाॅ. राजलक्ष्मी शिवहरे ने गहरे डूबकर समाज में डुबकी लगाई भारतीय शहरी जीवन की दैनंदिनी में सुहास की गंध के लिए उपन्यास प्रेरित करता है। औरत के दिल-दिमाग की राजधानी में वह खुद नहीं बसाती, उसका अक्श वहां कहीं नहीं होता , उसकी सल्तनत सभी स्वीकारते है; लेकिन उसका जीवन परिवार की छांह देने में ही गुजरता है। डाॅ. राजलक्ष्मी का नवीनतम उपन्यास ‘‘विषपाई मूल्यों की तपिश में रच - बस कर मन की गहरा अहसास दे जाता है। कृति का कथ्य, कहन के करिश्मा के कमतर कैसे कहैंगे? पात्रों को जीते हुए बहुआयामी लेखन की धनी साहित्य साधिका ने अनकही मार्मिकता को स्वर दिया, विचार दिया उसकी मजबूरियों को, न्याय की भाषा दी । नारी मन की थाह पार्थ उलीचा , पुरूष की चंचलता भर नहीं उसकी गहराई में रचनाधर्मिता की उंचाई पाई । लेखन की कला , शब्द चयन, संयोजक अर्थविता उनकी अपनी शैली है, जिसमें पाठक को न केवल अपने साथ बांध लेती है बल्कि उसे चिन्तन की डगर पर लाकर गलियों - सड़कों से लेकर नीरव सन्नाटे का भी अहसास करा देती है। एकांत को चाहत वाले नारी या पुरूष मन के आंतरिक सृजन के रूप में ‘‘विषपाई’’ हृदयान्वेशी , मानवीय साहित्य में अपना स्थान बनाएगा, यह उम्मीद आदि से अंत तक पाठक अनुभूत करता है। सरोकारों के समर्थक और भटकाव वाले कलयुग में समुद्र के दीप स्तम्भ जैसा बना यह उपन्यास साहित्य में स्थान पायेगा । ‘‘नीलकंठी’’ भी प्रासंगिक है। पत्रकारिता के मार्ग का निर्वाह , कलम की बेबाकी कितनी कठिन है, उसकी झलक, चरित्र चित्रण का व्याकरण बन बेठा है। राजनैतिक भ्रष्टाचार और उसकी ‘‘परिचित ताकत’’ संदेशबाहक है। ‘‘ अमृत मंथन’’ का संघर्ष जेहन में आ जाता है। ‘‘विषपाई’’ में भी अमृत कलश है। स्वनामधर्मिकता के लेखन के दौर में यह कृति वजनदारी में यथेष्ट है। समिक्षा मांगलिक वचन के निर्वाह में इतना ही श्रेयस्कार हैं ।
समीक्षक - महेश महदेल
(वरिष्ठ पत्रकार और अध्यक्ष)
समीक्षक - महेश महदेल, वरिष्ठ पत्रकार और अध्यक्ष
आठ- दस दिन से टेबिल पर पड़ी किताब, लगता रहा कि वह कुछ कह रही है। बिना पढ़े अक्षरों का शीषर्क शायद कराण रहा। ‘‘औरत ऐसी ही होती है मनीषा । ऐसे कथानक उपन्यास कहानी में सिलसिलेवार चले हैं। लेकिन ‘‘विषपाई’’ की उपन्यासिका डाॅ. राजलक्ष्मी शिवहरे ने गहरे डूबकर समाज में डुबकी लगाई भारतीय शहरी जीवन की दैनंदिनी में सुहास की गंध के लिए उपन्यास प्रेरित करता है। औरत के दिल-दिमाग की राजधानी में वह खुद नहीं बसाती, उसका अक्श वहां कहीं नहीं होता , उसकी सल्तनत सभी स्वीकारते है; लेकिन उसका जीवन परिवार की छांह देने में ही गुजरता है। डाॅ. राजलक्ष्मी का नवीनतम उपन्यास ‘‘विषपाई मूल्यों की तपिश में रच - बस कर मन की गहरा अहसास दे जाता है। कृति का कथ्य, कहन के करिश्मा के कमतर कैसे कहैंगे? पात्रों को जीते हुए बहुआयामी लेखन की धनी साहित्य साधिका ने अनकही मार्मिकता को स्वर दिया, विचार दिया उसकी मजबूरियों को, न्याय की भाषा दी । नारी मन की थाह पार्थ उलीचा , पुरूष की चंचलता भर नहीं उसकी गहराई में रचनाधर्मिता की उंचाई पाई । लेखन की कला , शब्द चयन, संयोजक अर्थविता उनकी अपनी शैली है, जिसमें पाठक को न केवल अपने साथ बांध लेती है बल्कि उसे चिन्तन की डगर पर लाकर गलियों - सड़कों से लेकर नीरव सन्नाटे का भी अहसास करा देती है। एकांत को चाहत वाले नारी या पुरूष मन के आंतरिक सृजन के रूप में ‘‘विषपाई’’ हृदयान्वेशी , मानवीय साहित्य में अपना स्थान बनाएगा, यह उम्मीद आदि से अंत तक पाठक अनुभूत करता है। सरोकारों के समर्थक और भटकाव वाले कलयुग में समुद्र के दीप स्तम्भ जैसा बना यह उपन्यास साहित्य में स्थान पायेगा । ‘‘नीलकंठी’’ भी प्रासंगिक है। पत्रकारिता के मार्ग का निर्वाह , कलम की बेबाकी कितनी कठिन है, उसकी झलक, चरित्र चित्रण का व्याकरण बन बेठा है। राजनैतिक भ्रष्टाचार और उसकी ‘‘परिचित ताकत’’ संदेशबाहक है। ‘‘ अमृत मंथन’’ का संघर्ष जेहन में आ जाता है। ‘‘विषपाई’’ में भी अमृत कलश है। स्वनामधर्मिकता के लेखन के दौर में यह कृति वजनदारी में यथेष्ट है। समिक्षा मांगलिक वचन के निर्वाह में इतना ही श्रेयस्कार हैं ।
समीक्षक - महेश महदेल
(वरिष्ठ पत्रकार और अध्यक्ष)
डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे
*
ब्रजेश शर्मा 'विफल', झाँसी
डॉ. राजलक्ष्मी शिवहरे की रचनाओं को बतौर पाठक, अपने दिल के बेहद करीब पाता हूँ। समाधि, धूनी, पिघलते पाषाण, दूसरा कैनवास आदि लोकप्रिय औपन्यासिक रचनाओं में वे जिस तिलिस्म को रचती हैं, उससे पाठक सहज ही अभिभूत होता जाता है। बेहद सधे कथ्य के साथ सरल भाषा, सीधी ज़ेहन में उतरती जाती है । रचनाओं को समझने के लिए किसी अतिरिक्त मशक़्क़त की ज़रूरत नहीं होती । ये उनकी बड़ी सफलता है । उपन्यास या बड़ी कहानियों में वे अपने फन की उस्ताद हैं । लघु कथाओं में रोजमर्रा की ज़िन्दगी से जो वो उठाती हैं, सहज और सपाट बयानी से कह देती हैं । कहानियों का अनिवार्य तत्व, जिस ट्विस्ट या औचकता की , पाठक मन चाह करता है, वह अक्सर उपलब्ध रहता है मगर उनकी कविताएँ एक सरल रेखा जैसी हैं जिनमें शिल्प लुप्तप्राय है। कथ्य की जिस गहनता की माँग, एक कविता करती है वह कम ही मिलती है । उपन्यास की ही सी शक़्ल, पा जाती हैं उनकी कविताएँ । उनके विशिष्ट और नये उपन्यास विषपाई के बारे में••••• औरत की ज़िन्दगी ऐसी ही होती है मनीषा । अपने बारे में उसे सोचने का समय ही कहाँ मिलता है ।हमारी माँ भी ऐसी
ही थी नारीमन के कोमलतम पक्षों की अभिव्यक्ति से लबरेज़, विषपाई उपन्यास,, अपनी थीम् पंक्तियों से ही आकृष्ट करता है । दरअसल एक सृजन कार जो भी लिखता है, वो आपबीती, जगबीती और कल्पनाओं का कोलाज़ होता है । जितना वसीह तऱीके से आप दुनिया को देखते समझते हैं,, लेखन उतना ही प्रभावी होता है । आ डॉ राजलक्ष्मी शिवहरे जी के उपन्यास की बात करूँ तो, उस का तानाबाना और सामाजिक परिवेश हर किसी का देखा सुना या भोगा हो सकता है । नारी मन के द्वंद को उकेरने में, उपन्यास पूर्णतः सफल है । और कितनी शाश्वत बात, एक माँ की और से बाल नायिका को समझा दी जाती है कि हर प्रश्न का उत्तर नहीं होता ।
और यदि है तो वो उत्तर समय देता है । नायक नलिन का पत्नि के प्रति लगाव के, बावजूद किसी और महिला के प्रति झुकाव, नायिका एक अंतर्द्वंद के बावजूद सहजता से स्वीकार कर
लेती है ।
राधा सुनो विचलित मत होना। धैर्य बनाकर रखो, कोई भी पुरुष बाहर चाहे जो करे, पर अपने घर को साफ सुथरा ही पसन्द करता है,, सहेली दीपा का ये कथन नायिका अनुराधा को सहज ही तमाम द्वन्दों से उबार लेता है । तभी तो वह नलिन को अपनी मित्र मोहिनी के साथ, जाने की , अनुमति सहजता से दे देती है । और नलिन का वापस लौटना, उसके सहज विश्वास की ही जीत है । आत्मीयता बिना किसी रिश्ते के भी कायम हो जाती है।
कितना गहरा और वर्सेटाइल वाक्य है ।
मनीषा और पुनीत की नोंक झोंक, उपन्यास के भीतर की अंतर्कथाएँ, छात्र प्रदीप पटेल की दहशत और उसे उससे उबारकर, दोषियों को सजा दिलाने का काम , वसीम रुखसार की खूबसूरत जोड़ी , रुखसार को नलिन द्वारा अवसाद से उबारना, शिक्षक अनुराधा का लेखक अनुराधा में रूपांतरण , हर पात्र अपने अपने हिस्से का विष पीकर विषपायी तो है ,, मगर ये विष अंतस् की हीलिंग करता है । जो लेखिका की कलम की बड़ी उपलब्धि है । सुखान्त उपन्यास अंत में जो सन्देश देता है वो सर्वकालिक है। छोटी छोटी खुशियाँ जीवन में अमृत की बूंदों का काम करती है। जीवन के प्रति आस्था जगाती हैं और मनुष्य विषपाई होकर भी खुश प्रतीत होता है ।
छोटे कलेवर का उपन्यास बेहद पठनीय है । नलिन की उम्र का 40 बताया जाना टँकण त्रुटि है । अगले संस्करण में इस त्रुटि पर संज्ञान लिया जाना चाहिए । पाथेय प्रकाशन जबलपुर से प्रकाशित, हार्ड बॉउण्ड, 250 रूपये मूल्य का खूबसूरत ,, उपन्यास बढ़िया कागज़ पर मुद्रित है । समस्त टीम साधुवाद की पात्र है । और एक खूबसूरत उपन्यास के लिए,जहाँ प्रवाह बेहद सरल और अनायास ही है,वहाँ सायास कुछ नहीं, लेखिका भी बधाई की पात्र हैं
***
राजलक्ष्मी रचनाएँ
आधुनिक संस्कृति
डॉण्राजलक्ष्मी शिवहरे
आज आधुनिकता का जमाना है।सभी के हाथ में मोबाइल होता है।यहाँ तक कि बाइयों के पास भी।घरों में टीवी फोन सब होता है। गुगल का जमाना है जो जानकारी चाहिए मिल जाती है।इलेक्ट्रॉनिक काजमाना है।वायुयान की यात्रा अब सुलभ है।
यदि हम इन सबका उपयोग करते हैं तो आधुनिक कहलाते हैं आधुनिक होना बुरा भी नहीं है।पर अति हर चीज की बुरी होती है।चालीस पचास साल में ह्दयरोग से पीडित होकर कालकवलित होना क्या आधुनिकता की निशानी है।छोटे छोटे बच्चों की आँखों पर चश्मा चढ गया है। स्पेंडोलाइटिस ने गले पर पट्टा चढा दिया है।
आइये आधुनिकता का अंधानुकरण छोड कर भारतीय संस्कृति को अपनाइये।सुबह उठकर घूमिए।आराम देह कपडे पहनिए।
आधुनिक बनना बुरा नहीं पर दूसरों को फूहड समझना कि वो जिन्स नहीं पहनता हिंदी बोलता है कमतर आँकना गलत है छप्पन इंच की चौडी छाती ने हिला दिया हिन्दुस्तान।लोग दाँतो तले ऊँगली दबायेंगे। और कहेंगे जय श्री राम। अच्छे दिन आ गये।हर घाट पर सिंह छा गये। बकरे दुम दबा कर भाग गये। सियार कहीं मुँह छिपाये पडें होंगे। जय श्री राम।
*
एक व्यक्ति बुद्ध के पास आया। उसने कहा मुझे शिष्य बना लीजिए। पहले
तुम कुछ सीख कर आओ। उसने संगीत
सीखा। हर कलाकारी सीखी। फिर वह तथागत के पास आया। कल जरूर तुम्हें
दीक्षा दुंगा। दुसरे दिन बुद्ध के
एक शिष्य ने उसे बहुत गाली दी। उस व्यक्ति को बहुत
क्रोध आया उसने भी गाली दी। वह बुद्ध के पास गया।
तुम्हें क्रोध आया।
हाँ।
तो अभी दीक्षा देना असंभव है।
चोरीए झूठ बोलनाए हिंसा है उसी प्रकार क्रोध भी हिंसा है।
यह मत सोचो तुम मेरे शिष्य नहीं। पर पहले इस लायक बनो।
वह बुद्ध का अनुयायी हुआ।
बुद्धं शरणं गच्छामि।
संघं शरणं गच्छामि
बुद्ध का जन्म नेपाल के लुम्बनी शहर में हुआ। बचपन में ही माता महामाया का
निधन हो गया। राजा शुद्धोधन ने दासियों के सहारे उनका पालन पोषण किया।
ज्योतिष ने कहा था या तो यह बालक सम्राट बनेगा या संत।
एक दिन वे कपिलवस्तु के मार्ग पर जा रहे थे तो एक रोगी दिखाए एक बूढ़ा फिर अर्थी
देखी। उसी
समय उनके मन में यह भावना आई कि मनुष्य की नियती यही है। राजा ने
उनका विवाह यशोधरा से किया। सात दिन के पुत्र को छोड़कर वे वनगामी हुये। आइये
बुद्ध की जीवनी पर हम सब मिलकर मीमांसा करें।
यद्यपि उन्होंने कठिन मार्ग चुना राजपाट छोड़ा। घर द्वार छोड़ा। सुन्दर सी पत्नी
छोड़ी। नवजात शिशु छोड़ा। मोह का त्याग ज्ञान की प्राप्ति के लिये किया। ये
तथागत के लिये ही संभव था।
बुद्ध तो बुद्ध हैं
समय समय की बात है। सांझ ढल गई थी। सामने पेड़ पर बहुत से जुगनु सितारों
की तरह चमक रहे थे। तभी
अंधेरे में एक परछाईं दिखी। अक्सर
अकेले रहती हूँ। डर लगा फिर पूछा.. कौन हैं क्या चाहिए। मैं
बुद्ध हूँ।
बुद्ध या उनके अनुयायी हैं आप मैं कुर्सी से उठ गयी थी।
तुम लेखिका हो इसलिए दर्द बाँटने आया हूँ। आइये
बैठिये। पानी लाती हूँ। पानी पीकर
वो बोले.. बहुत सारे आक्षेप हैं मुझ पर पत्नी को छोड़कर चला गया। बच्चे की देखभाल
नहीं की। वो तो मैं
भी सोचती हूँ। इतना बड़ा राजपाट था आपका फिर क्योंघ् मैं
बैचेन था। सारे सुख थे मेरे पास। पर लगता था मुझे कुछ खोजना है यह संसार किस
चीज के पीछे भाग रहा हैघ्
तथागत पैसे के लिये तो। उदरपूर्ति के बाद भी और और के पीछे।
बस यही संदेश देने गया था। हम जो हिंसा करते हैं पाप है ये। दुराचार नहीं करना।
वो तो ठीक है पर आम्रपाली को दिक्षा देने का मतलब।
आम्रपाली नगरवधू थी। बुद्ध की शरण में वह स्वेच्छा से आई थी। उसका उद्धार
मेरा कर्तव्य था।
वो तो ठीक है तथागत। पर आप सा बनना बेहद मुश्किल है।
वो चले गये। मैं रो रही थी। दुख सहकर फांसी पर ईसा चढ़े। जिसने भी इससे
बचाने की कोशिश की उसे ही जवाब देने पड़े। जहां
उनके चरण पड़े थे मेरा शीश उस जगह पर था। मैं
कितनी सौभाग्यशाली ।
*
गुरु महिमा
डॉण् राजलक्ष्मी शिवहरे
सूरज बिना सृष्टि नहीं।
गुरु बिन दृष्टि नहीं।
ज्ञान बिन जग में अंधेरा।
सतत प्रवाह बहे ज्ञान
की धारा।
ऊँगली उनको सौंप कर
मैं हो गई हूँ निहाल।
बचपन से लेकर अब तक
सीखा उनसे विनम्र
करना सबसे व्यवहार।
कुछ लाये नहीं कुछ लेकर
जाना नहीं।
छल एकपट से रहना दूर।
सीधा साधा जीवन
रखना ।
तुमसे कहना इतना मेरा
बस नाम को रखना
अपने गंगाजल जैसा
निर्मल पावन।
जीवन के बाद भी नाम
शेष रह जाता है।
*
विषय..हे अवधपति करुणा निधान
��������
हे अवधपति करुणा निधान।
भारत का हाल सुनाते हैं।
हर जगह दशशीश रावण
हम पाते हैं।
सीता सुरक्षित नहीं ए हर ली
जाती है।
पापी की कामवासना का
शिकार हो जाती है।
क्या कहें आपसे अपनी
दुर्दशा का हाल।
कन्याओं को भी भेडिये
कामवृति की भूख
का आहार बनाते हैं।
पशू से भी बत्तर ये
समाज में खुले आम
घूमते हैं।
हमारी दुर्दशा पर हम
खून के आँसू से
यह कहानी सुनाते हैं।
देर मत करो अवधपति
सुन लो समारी करुण पुकार।
*
नहीं मतलब नहीं
डॉण्राजलक्ष्मी शिवहरे
कुछ लोग समझते नहीं
बारबार समझाने पर
नहीं का मतलब है नहीं।
पर वे इन्तजार करते हैं।
और फिर बदलता है ना
हाँ मैं और हमसफर
साथ चल पडे बात बात में।
फिर हाँ क्यों की समय
बदलते देखा है कोफ्त
होती है हाँ क्यों की थी।
यही जीवन के दो पहलू
जो कभी चित कभी
पट होते हैं।
इसलिए ना मतलब ना है।
*
आमदनी
डॉण्राजलक्ष्मी शिवहरे
वह लडकी देखने गया था।
लडकी ने पूछा पगार क्या है
यही तीस हजार।
बस ये महीने भर की
आमदनी।
ओह फिर तो होगी खींचातानी।।
कभी इस खर्च में कटौति
कभी उस खर्च में।
नहीं मैनैज होगा मुझसे।
वह सरकारी डाक्टर है।
प्रायवेट प्रैक्टिस कर लेगा।
नहीं माँ इतने से में बिजली
का बिल ही पे नहीं होगा।
राशन फिर किटी फिर पार्लर
कैसे ये सब होगा।
माँ हैरत में थी। तेरे पापा को
मात्र तीन सौ मिलते थे।
हमने घर चलाया।
हाँ आपके सीले कपडे
पहन कर स्कूल में
सखियों ने माखौल उडाया।
वो मेरे बच्चे नहीं सहेंगे।
हर चीज ब्रांडेड होगी उनकी।
और आज भी वो कुमारी
ही रह गई है।
आमदनी पूछते पूछते
अकेली रह गई है।
*
रुप चौदसध्आस्था
डॉण्राजलक्ष्मी शिवहरे
भारत में यदि कुछ है तो आस्था ही है।
हमारे बुजुर्ग जो हमें बताते हैं हम उस पर विश्वास करते
हैं।ये परम्परा बन जाती है।
त्योहार हममें उत्साह प्रेम और विश्वास जगाने के लिये आते हैं।
रुप तो एक बार जैसा मिल गया।साँवले हों गोरे हों या मोटे या पतले
हो फिर रूपचौदस की पूजा करके हम सुन्दर कैसे हो जायेंगे ये प्रश्न
बच्चे पूछते हैं।
यम हमारा रुप नहीं देखते हमारे कर्म देखते हैं।कर्म सुन्दर करो
तो लक्ष्मी तो आपके घर जरुर पधारेंगी।
और आप समाज के लिये उपयोगी हो जायेंगे।समाज आपका
सम्मान करेगा।और आप गोरे हो या काले सभी के लिये वांछनीय
होंगे।
यही आस्था हमको रुप के साथ गुण की ओर प्रेरित करती है।
सुंदर तो डाकू भी होता है पर सभी उससे दूर भागते हैं।
सुंदर तो शराबी भी होता है पर कोई उसे पास नहीं बिठाता।
सुंदर तो आम्रपाली भी थी पर थी नगरवधू।
मुझे इसलिए लगता है भीतरी रुप को सजाना सँवारना चाहिए
वरना पार्लर वाली सुंदर बना ही देगी।
हमारी जागरुकता हमारे चरित्र निर्माण को लेकर हो आज इस
आस्था को जगाने की है।
रुपचौदस तभी सच्चे मायने में रुपचौदस होगा।
*
सीख
डॉण् राजलक्ष्मी शिवहरे
मैं बता रही हूँ तुझे जब आत्मा इस शरीर से अलग होती है तो वह बहुत शक्तिशाली हो जाती है।सीमा ने कहा।
मैं क्या करुँ। मेरी कुछ समझ नहीं पड रहा।
कितना समझाया था उसे हमारा मेल हो ही नहीं सकता। न तो जाति एक है।उम्र में भारी अंतर है।पर वह समझना ही नहीं चाहता
।राखी ने कहा।
सीख देते देते तू कब उससे प्रेम कर बैठी।
पता नहीं पर मेरी माँ मुझे कहती है तू बदनाम हो जायेगी।
मौसी तो जाने कब से इस संसार में नहीं।
बीस साल हुये।पर हर पल मैं क्या सोचती हूँ इसकी तक खबर है उन्हें।
सीमा लगता है ये दुनिया प्रेम के लिये बनी ही नहीं।
अब उसकी माँ...
क्याघ्
हाँ तीन दिन हुये उनकी रुख्सती को।
जिद पकडे हैं तू जल जायेगी।
राखी सही है। बडे सीख भले के लिये देते हैं पर मानता कौन है।
ये आत्माओं का संसार है। वो शरीर से अलग होने पर भी हमारा भला चाहते हैं।
जाती हूँ भोर होने वाली है।
सीमा रुक ना।
नहीं।मैंने भी शरीर छोड दिया है।कल तुझे खबर मिल जायेगी।
राखी को लगा वह कोई सपना देख रही थी।
लेकिन सुबह ही पेपर में पढा बीण्ई की छात्रा ने तिलवारा से कूद कर आत्महत्या कर ली।
प्रेमी ने धोखा दिया था।
*
हे लक्ष्मी माता
हे लक्ष्मी माता
मैंने अन्तर्मन
साफ किया है।
पर फिर भी
वह मुझे भरमाता।
हे लक्ष्मी माता।
उसका मन कैसे
साफ करुँ
कोई मार्ग दिखाओ
हे लक्ष्मी माता।
दहशत से भरा
जीवन है।
और राह अंधेरी।
मन में रोशनी
कैसेण्हो माता।
हे लक्ष्मी माता।
अपने दिमाग का
कूडा करकट
मेरे दिमाग में
फेंक कर जाता।
महोब्बत का
झाँसा देकर
मुझे उलझाता।
कैसे दिमाग
साफ करुँ
बडी उलझन
में जान फँसी माता।
कोई राह सुझावों
माता।
हे लक्ष्मी माता।
*
शब्द सुमन
रूचि शिवहै 'पूनम'
उज्वला निर्मला, ज्ञान की मूरत
शारदा की सुता, आन की सूरत
ज्ञान की बानी, लेखनी वरदानी
दिल को छूती सदा, कविता कहानी
है अधर पर धरी
मधुर मुस्कान, स्वरों में जिनके विश्वास की जान,
दया, करूणा, प्रेम और रचनात्मकता की है खान।
आपके लेखन का जादू मन में हर जजबात जगाता है,
आपका कलात्मक लेखन एक इतिहास बनाता है।
समाज में साकारत्मक चिंतन कुछ ऐसे ही होते हैं निर्मित,
आपकी है जैसे रचनायें इस हिन्दी साहित्य को अर्पित।
हिन्दी साहित्य को चरमोत्कर्ष में ले जाने में जो है आपका योगदान,
हमारे दिल में आपके प्रति श्रद्धा से करते हम सब आपका सम्मान।
जीवन स्वरूप का दर्पण,
महान बनाता है, आपको आपके लेखन का समर्पण।
शंाति प्रिय, शिक्षा प्रिय आपके लेखन का आह्ावान,
साहित्य में उदित हो रहा है एक नव विहान।।
द्वारा समर्पित
रूचि शिवहरे
(पूनम)
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