ॐ
मन को मन सौगात
मन को मन सौगात
दोहा शतक
ओमप्रकाश शुक्ल


जन्म: ९.५.१९७७, बरौंसा, सुलतानपुर, उत्तर प्रदेश।
काव्य गुरु:
आत्मज: श्रीमती सरस्वती देवी-स्व. रामकिशोर शुक्ल।
जीवन संगिनी: श्रीमती नीता शुक्ल।
शिक्षा: स्नातक।
लेखन विधा: दोहा, कविता, लेख आदि।
प्रकाशन:गाँधी और उनके बाद (काव्य संग्रह)।
उपलब्धि:
सम्प्रति: उत्तर रेलवे परिचालन विभाग में कार्यरत, महासचिव युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच।
संपर्क: १२२, गली क्रमांक ४/७ सी.आरपी. ऍफ़. कैम्प के सामने, बिहारी पुर विस्तार, दिल्ली ११००९४।
चलभाष: ९७१७६३४६३१, ९६५४४७७११२, ईमेल: shuklaop07@gmail.com ।
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नव वित्तीय बरस मना, कहते-बनते 'फूल'।।
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सबको सबका हक मिले, कदम-कदम हो न्याय।
ऐसा हो कानून जो, रहे धर्म पर्याय।।
*
कृषक-देश की दुर्दशा, करते कर्णाधार।
धर्म-जाति को खा रहे, लेते नहीं डकार।।
*
कुनबे-कुनबे में बँटा, आज देश का मान।
राष्ट्र-विरोधी कृत्य कर, चाहें निज सम्मान।।
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अगला-पिछला जोड़कर देते फल भगवान्।
'माँ' पुकारते बीतता, दुःख-पीड़ा का काल।
उस माता को भुलाकर, खोज रहे सुख लाल।।
*
उन्तालिस हिंदू मरे, नहीं किसी को दर्द।
राजनीति में पड़ गई, नैतिकता पर गर्द।।
*
स्वार्थ हेतु बाँटा गया, बार-बार संसार।
जाति-धर्म-भाषा बनीं, नफरत का आधार।।
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सुख से रहने का नहीं, मानव करे प्रयास।
जितना पाया कम लगा, बढ़ी और की प्यास।।
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सुख-दुःख दोनों बंधु सम, हरदम रहते साथ।
दोनों को सम-मान दो, कृपा करेंगे नाथ।।
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राजा करता कर्म रख, निज मन में संतोष।
पाया कम कह भिखारी, दे विधना को दोष।।
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भू-संसाधन का करें, कम-से कम उपभोग।
पुरखों से पा दे सकें, बच्चों को कर योग।।
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पीड़ा हर सकते नहीं, तो क्यों देते मीत?
मानव होकर भूलते, मानवता की रीत।।
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अपना अनुभव बाँटिए, उन्नत हो संसार।
ज्ञान न जो साझा हुआ, मिट जाता बेकार।। ६१
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काव्य गुरु:
आत्मज: श्रीमती सरस्वती देवी-स्व. रामकिशोर शुक्ल।
जीवन संगिनी: श्रीमती नीता शुक्ल।
शिक्षा: स्नातक।
लेखन विधा: दोहा, कविता, लेख आदि।
प्रकाशन:गाँधी और उनके बाद (काव्य संग्रह)।
उपलब्धि:
सम्प्रति: उत्तर रेलवे परिचालन विभाग में कार्यरत, महासचिव युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच।
संपर्क: १२२, गली क्रमांक ४/७ सी.आरपी. ऍफ़. कैम्प के सामने, बिहारी पुर विस्तार, दिल्ली ११००९४।
चलभाष: ९७१७६३४६३१, ९६५४४७७११२, ईमेल: shuklaop07@gmail.com ।
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संविधान पर देश के, व्यर्थ करें अभिमान।
निर्धन पिसता- दिखाता, ठेंगा हँस धनवान।।
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लूटें दोनों हाथ से, मिलकर पक्ष-विपक्ष।
सगा देश का कौन है, प्रश्न न सुलझे यक्ष।।
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हिंदी गंगा हो गई, उर्दू यमुना रूप।
बँटवारा जो कर रहे, वें मेंढक बिन कूप।।
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कड़वे-कड़वे बोल ने, दूषित किए विचार।
निज मन में लो झाँक तुम, कर न गैर पर वार।।
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संझा फगुवा सी हुई, प्रातः हुआ बसंत।
देख छटा सुखदायनी, अंतर्मन है संत।।
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दिखे अलग अंदाज अब, बदल गए हैं भाव।
मित्र समझते हम जिन्हें, रखते वे अलगाव।।
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मन से मन में झाँककर, कर लो मन की बात।
मिल जाएगा प्रेम दो, मन को मन सौगात।।
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राजनीति में व्यर्थ ही, होते वाद-विवाद।
नेता गलबहियाँ करें, जनता में अवसाद।।
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भरें खजाना टैक्स दे, सज्जन है संयोग।
निर्धन हित त्यागें- धनिक, लूट कर रहे भोग।।
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अपनी कहकर चल दिये, ज्ञानी जी हर बात।
औरों की सुन लें न हों, तब घायल जज्बात।।
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मै, मेरा, मुझको हुई, जीवन की पहचान।
अगल-बगल मैं देखता, साथ खड़े भगवान।।
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वाह-वाह का दौर है, वाह-वाह बस वाह।
झूठ-मूठ की आह है, झूठ-मूठ की चाह।।
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व्यस्त हुआ कुछ इस तरह, हुए प्रभावित काज।
रूखा-रूखा सा लगे, गृह-मन देह-समाज।।
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शिव भजने का दम भरे, राम न कर स्वीकार।
यह दो तरफा आचरण, शिव ने दिया नकार।।
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भक्त न होना किसी के, नहीं किसी के दास।
सत बोले कवि-लेखनी, यह मन की अरदास।।
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ऐसे लोगों से बचो, जिनके मन में चोर।
औरों को दोषी कहें, कब देखें निज ओर।।
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कड़वे-कड़वे बोल हैं, दूषित उग्र विचार।
निज मन में झाँके बिना, करें गैर पर वार।।
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कारण कोई हो न हो, करना मात्र विरोध।
चाटुकारिता ओढ़ना, राजनीति का बोध।।
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कविता करती कल्पना, मैं मेरा संसार।
प्रिय! तुम होती क्यों खफा, यह कवि का अधिकार।।
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धाक जमाए बैठते, संसद में जा चोर।
आना चाहे साधु यदि, करें श्वान सम शोर।।
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भारत की कर दुर्दशा, ठठा रहा शैतान।
रहे ताकता जो कहो, कैसा वो इंसान।।
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मस्जिद में होती रहे, पाँचों वक्त नमाज।
मंदिर-पूजन पर कहो, बदले क्यों अल्फाज।।
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मन में रखकर द्रोह वे, करते नित्य हलाल।
मित्र बने बस स्वार्थवश, साथ रहें बन काल।।
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बाबा साहेब रच गए, ऐसा मस्त विधान।
पैसा हो तो आप भी, रखो जेब श्रीमान।।
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कब तक सहता दाब की, बातों को सरकार।
हाँ मैं भी इंसान हूँ, कुछ तो हैं अधिकार।।
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निज हित साधो शौक से, जब तक निज परिवेश।
निज हित पर यदि चोट हो, तुरत छोड़ दो देश।।
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लूट रहे हैं देश को, सब मिल कर्णाधार।
किस-किस पर विश्वास हो, किसे कहें गद्दार।।
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जिसने मन से कर लिया, श्री हरि को स्वीकार।
करते हैं श्री हरि उसे, पल में अंगीकार।।
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औरों को क्या दोष दूँ, लगा व्यर्थ आरोप।
कृत्य स्वयं के हैं बुरे, कहे ईश का कोप।।
कृत्य स्वयं के हैं बुरे, कहे ईश का कोप।।
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होना अब यह चाहिए, सख्त बने कानून।
कम से कम सबको मिले, हक से मकुनी नून।।
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मन से मन में झाँक कर, कर लो मन की बात।
मिल जाएगी आपको, पुनः प्रेम सौगात।।
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जिए-मरे जो शान से, जन-जन करता याद।
किया सार्थक नाम को, रहे सदा आज़ाद।।
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राजनीति के कृत्य अब, हुए कोढ़ में खाज।
वक्त करे जाया उसे, मूरख कहे समाज।।
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मठाधीश साहित्य का, दें मुझको उपहार।
सब मिलकर करते रहें, मेरी जय-जयकार।।
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साथ रामद्रोही लिए, चाहे शिव हों तुष्ट।
मूरख को समझाइए, शिव जी होंगे रुष्ट।।
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राजा-मंत्री बन गए, चोर-सिपाही खेल।
देश जा रहा भाड़ में, करते ठेलमठेल।।
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राजनीति की दुर्दशा, गर्दभ-काग भतार।
चले नीति पर जो हुई, तुरत सुनिश्चित हार।।
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मन क्यों हर पल खोजता, है औरों के दोष।
भीतर अवगुण छिपाए, बैठा कर संतोष।।
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राजनीति के दायरे, में मजदूर-किसान।
पैसा हो तो आप भी, लो खरीद श्रीमान।।
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कडुए-कडुए बोल हैं, दूषित-मलिन विचार।
निज मन में मत झाँकिए, करें अन्य पर वार।।
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शंभु राममय देखिए, राम शंभुमय जान।
तन-मन-धन अर्पित करो, कष्ट हरें हनुमान।।
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नहीं किसी के भक्त हो, नहीं किसी के दास।
सत-शिव-सुंदर लिख सदा, हो पूरी अरदास।।
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दोहे में दंगल कहाँ, रस की पड़े फुहार।
मन से मन का हो मिलन, झूम उठे संसार।।
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निज पुरखों के कृत्य का, करते हो परिहास।
किया भला क्या आपने, पूछेगा इतिहास।।
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करता छल, चोरी-कपट, मन में नहीं मलाल।
देख मनुज-दुष्कृत्य को, हँसते दीनदयाल।।
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मानव क्यों निर्णय करे, सही गलत है कौन।
निर्णयकर्ता ईश्वर, देख रहा है मौन।।
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सूर्यवंश रघुकुल-हुए, मध्य दिवस श्री राम।
चंद्रवंश यदुकुल जने, मध्य रात्रि घनश्याम।।
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शुभ दिन को साझा करो, करो न कोई भूल।नव वित्तीय बरस मना, कहते-बनते 'फूल'।।
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सबको सबका हक मिले, कदम-कदम हो न्याय।
ऐसा हो कानून जो, रहे धर्म पर्याय।।
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कृषक-देश की दुर्दशा, करते कर्णाधार।
धर्म-जाति को खा रहे, लेते नहीं डकार।।
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कुनबे-कुनबे में बँटा, आज देश का मान।
राष्ट्र-विरोधी कृत्य कर, चाहें निज सम्मान।।
*
अगला-पिछला जोड़कर देते फल भगवान्।
इसीलिये गीता कहे, रखो कर्म का ध्यान।।
* 'माँ' पुकारते बीतता, दुःख-पीड़ा का काल।
उस माता को भुलाकर, खोज रहे सुख लाल।।
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उन्तालिस हिंदू मरे, नहीं किसी को दर्द।
राजनीति में पड़ गई, नैतिकता पर गर्द।।
*
स्वार्थ हेतु बाँटा गया, बार-बार संसार।
जाति-धर्म-भाषा बनीं, नफरत का आधार।।
*
सुख से रहने का नहीं, मानव करे प्रयास।
जितना पाया कम लगा, बढ़ी और की प्यास।।
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सुख-दुःख दोनों बंधु सम, हरदम रहते साथ।
दोनों को सम-मान दो, कृपा करेंगे नाथ।।
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राजा करता कर्म रख, निज मन में संतोष।
पाया कम कह भिखारी, दे विधना को दोष।।
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भू-संसाधन का करें, कम-से कम उपभोग।
पुरखों से पा दे सकें, बच्चों को कर योग।।
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पीड़ा हर सकते नहीं, तो क्यों देते मीत?
मानव होकर भूलते, मानवता की रीत।।
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अपना अनुभव बाँटिए, उन्नत हो संसार।
ज्ञान न जो साझा हुआ, मिट जाता बेकार।। ६१
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