चित्रगुप्त भजन सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
१. चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो...

*
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
भवसागर तर जाए रे...
*
जा एकांत भुवन में बैठे,
आसन भूमि बिछाए रे.
चिंता छोड़े, त्रिकुटि महल में
गुपचुप सुरति जमाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
निश-दिन धुनि रमाए रे...
*
रवि शशि तारे बिजली चमके,
देव तेज दरसाए रे.
कोटि भानु सम झिलमिल-झिलमिल-
गगन ज्योति दमकाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
मोह-जाल कट जाए रे.
*
धर्म-कर्म का बंध छुडाए,
मर्म समझ में आए रे.
घटे पूर्ण से पूर्ण, शेष रह-
पूर्ण, अपूर्ण भुलाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
चित्रगुप्त हो जाए रे...
*
२. समय महा बलवान...

*
समय महा बलवान
लगाये जड़-चेतन का भोग...
*
देव-दैत्य दोनों को मारा,
बाकी रहा न कोई पसारा.
पल में वह सब मिटा दिया जो-
बरसों में था सृजा-सँवारा.
कौन बताये घटा कहाँ-क्या?
कहाँ हुआ क्या योग?...
*
श्वास -आस की रास न छूटे,
मन के धन को कोई न लूटे.
शेष सभी टूटे जुड़ जाएं-
जुड़े न लेकिन दिल यदि टूटे.
फूटे भाग उसी के जिसको-
लगा भोग का रोग...
*
गुप्त चित्त में चित्र तुम्हारा,
कितना किसने उसे सँवारा?
समय बिगाड़े बना बनाया-
बिगड़ा 'सलिल' सुधार-सँवारा.
इसीलिये तो महाकाल के
सम्मुख है नत लोग...
*
३. प्रभु चित्रगुप्त नमस्कार...

*
प्रभु चित्रगुप्त! नमस्कार
बार-बार है...
*
कैसे रची है सृष्टि प्रभु!
कुछ बताइए.
आये कहाँ से?, जाएं कहाँ??
मत छिपाइए.
जो गूढ़ सच न जान सके-
वह दिखाइए.
सृष्टि का सकल रहस्य
प्रभु सुनाइए.
नष्ट कर ही दीजिए-
जो भी विकार है...
*
भाग्य हम सभी का प्रभु!
अब जगाइए.
जाई तम पर उजाले को
विधि! बनाइए.
कंकर को कर शंकर जगत में
हरि! पुजाइए.
अमिय सम विष पी सकें-
'हर' शक्ति लाइए.
चित्र सकल सृष्टि
गुप्त चित्रकार है...
*
संजीव 'सलिल'
*
१. चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो...
*
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
भवसागर तर जाए रे...
*
जा एकांत भुवन में बैठे,
आसन भूमि बिछाए रे.
चिंता छोड़े, त्रिकुटि महल में
गुपचुप सुरति जमाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
निश-दिन धुनि रमाए रे...
*
रवि शशि तारे बिजली चमके,
देव तेज दरसाए रे.
कोटि भानु सम झिलमिल-झिलमिल-
गगन ज्योति दमकाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
मोह-जाल कट जाए रे.
*
धर्म-कर्म का बंध छुडाए,
मर्म समझ में आए रे.
घटे पूर्ण से पूर्ण, शेष रह-
पूर्ण, अपूर्ण भुलाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
चित्रगुप्त हो जाए रे...
*
२. समय महा बलवान...
*
समय महा बलवान
लगाये जड़-चेतन का भोग...
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देव-दैत्य दोनों को मारा,
बाकी रहा न कोई पसारा.
पल में वह सब मिटा दिया जो-
बरसों में था सृजा-सँवारा.
कौन बताये घटा कहाँ-क्या?
कहाँ हुआ क्या योग?...
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श्वास -आस की रास न छूटे,
मन के धन को कोई न लूटे.
शेष सभी टूटे जुड़ जाएं-
जुड़े न लेकिन दिल यदि टूटे.
फूटे भाग उसी के जिसको-
लगा भोग का रोग...
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गुप्त चित्त में चित्र तुम्हारा,
कितना किसने उसे सँवारा?
समय बिगाड़े बना बनाया-
बिगड़ा 'सलिल' सुधार-सँवारा.
इसीलिये तो महाकाल के
सम्मुख है नत लोग...
*
३. प्रभु चित्रगुप्त नमस्कार...
*
प्रभु चित्रगुप्त! नमस्कार
बार-बार है...
*
कैसे रची है सृष्टि प्रभु!
कुछ बताइए.
आये कहाँ से?, जाएं कहाँ??
मत छिपाइए.
जो गूढ़ सच न जान सके-
वह दिखाइए.
सृष्टि का सकल रहस्य
प्रभु सुनाइए.
नष्ट कर ही दीजिए-
जो भी विकार है...
*
भाग्य हम सभी का प्रभु!
अब जगाइए.
जाई तम पर उजाले को
विधि! बनाइए.
कंकर को कर शंकर जगत में
हरि! पुजाइए.
अमिय सम विष पी सकें-
'हर' शक्ति लाइए.
चित्र सकल सृष्टि
गुप्त चित्रकार है...
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11 टिप्पणियां:
Asim Saxena 29 अप्रैल 13:07
Very Nice sir,
kusum sinha ✆ekavita
priy salil ji
aapki rachnao ka to jawab hi nahi bahut sundar ati sundar
kusum
sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
आदरणीय आचार्य जी ,
तीनों गीत एक से एक भावपूर्ण सामयिक और
रुचिकर है | साधुवाद !
सादर
कमल
vijay2 ✆ द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
आ० ’सलिल’ जी,
रचनाएँ रूचिकर हैं ।
विजय
- kanuvankoti@yahoo.com
आदरणीय आचार्य जी,
बेहद मनभावन कविता.
अनन्य बधाई !
सादर,
कनु
shishirsarabhai@yahoo.com kavyadhara
वाह, वाह, आपकी लेखनी को नमन आचार्य जी
सादर,
सद्भाव सहित,
शिशिर
santosh.bhauwala@gmail.com द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
आदरणीय आचार्य जी ,बेहद खूबसूरत रचना ,साधुवाद !!!
संतोष भाऊवाला
drdeepti25@yahoo.co.in yahoogroups.com kavyadhara
आदरणीय संजीव जी,
आरम्भ की पंक्तियाँ ही भवसागर से पार लग जाने के लिए बहुत हैं ! 'चित्रगुप्त' नाम ही अपने तारक है ! आदि से अंत सम्पूर्ण रचना बड़ी ही अर्थपूर्ण और संपन्न है ! आपको अमित बधाई !
सादर,
दीप्ति
धन्यवाद. रचनाएँ तो प्रभु की हैं मैं तो प्रगटीकरण का माध्यम मात्र हूँ.
achalkumar44@yahoo.com ekavita
प्रभु भी आप रचैया आप्पे रचना जगत बनी अति सुन्दर
कहा किसीने ठीक बना जग पटल और है स्याह समुन्दर ।।
कहें आप उनको कुछ भी पर वही रच रहे आप के हाथों
अचल नयन देखें यह चित्र विचित्र चढ़ाए अपने माथों ।।
मेरे मन से निकले निरे उदगार हैं केवल
इनमें नहीं साहित्य ये एक विचार हैं केवल ।।
अचल वर्मा
shar_j_n@yahoo.com ekavita
आदरणीय आचार्य जी,
सुन्दर प्रार्थना!
ये विशेष:
समय महा बलवान
लगाये जड़-चेतन का भोग...
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देव-दैत्य दोनों को मारा,
बाकी रहा न कोई पसारा.
पल में वह सब मिटा दिया जो-
बरसों में था सृजा-सँवारा.
कौन बताये घटा कहाँ-क्या?
कहाँ हुआ क्या योग?... --------------------बहुत ही सुन्दर!
*
श्वास -आस की रास न छूटे,
मन के धन को कोई न लूटे. -----------------वाह वाह!
शेष सभी टूटे जुड़ जाएं-
जुड़े न लेकिन दिल यदि टूटे.
फूटे भाग उसी के जिसको-
लगा भोग का रोग...
सादर शार्दुला
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