नवगीत:
संजीव 'सलिल'
हम भू माँ की
छाती खोदें,
वह देती है सोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
हमें स्वार्थ
अपना प्यारा है,
नहीं देश से मतलब.
क्रय-विक्रय कर रहे
रोज हम,
ईश्वर हो या हो रब.
कसम न सीखेंगे
सुधार की
फसल रोपना-बोना
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
जोड़-जोड़
जीवन भर मरते,
जाते खाली हाथ.
शीश उठाने के
चक्कर में
नवा रहे निज माथ.
काश! पाठ पढ लें,
सीखें हम
जो पाया, वह खोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
निर्मल होने का
भ्रम पाले
ओढ़े मैली चादर.
बने हुए हैं
स्वार्थ-अहम् के
हम अदना से चाकर.
किसने किया?,
कटेगा कैसे?
'सलिल'
निगोड़ा टोना.
आमंत्रित कर रहे
नाश निज,
बस इतना है रोना...
*
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
गुरुवार, 3 दिसंबर 2009
नवगीत: बस इतना है रोना... संजीव 'सलिल'
चिप्पियाँ Labels:
-acharya sanjiv 'salil',
Contemporary Hindi Poetry,
geet,
navgeet,
samyik hindi kavya

सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
3 टिप्पणियां:
निर्मल होने का भ्रम पाले
ओढ़े मैली चादर.
बने हुए हैं स्वार्थ-अहम् के
हम अदना से चाकर.
किसने किया?, कटेगा कैसे?
'सलिल' निगोड़ा टोना.
आमंत्रित कर रहे नाश निज,
बस इतना है रोना...
bahut hi vicharaniy kavita...
3 December, 2009 7:59 AM
सब लोग भ्रम में जी रहे है और क्षणिक सुख को अनंत कालीन आनंद समझ कर प्रकृति से भी खिलवाड़ करने से बाज नही आते ..
बढ़िया रचना..धन्यवाद
निर्मल होने का भ्रम पाले
ओढ़े मैली चादर.
बने हुए हैं स्वार्थ-अहम् के
हम अदना से चाकर.
Superb
4 December, 2009 2:57 AM
एक टिप्पणी भेजें