पं. नरेंद्र शर्मा और महाभारत धारावाहिक


लावण्या शाह
*
(भारतीय
संस्कृति के आधिकारिक विद्वान, सुविख्यात साहित्यकार, चलचित्र जगत के
सुमधुर गीतकार पं. नरेंद्र शर्मा की कालजयी सृजन समिधाओं अनन्य
दूरदर्शन धारावाहिक महाभारत के निर्माण में उनका अवदान है। उनकी आत्मजा
सिद्धहस्त साहित्यकार लावण्या शाह जी अन्तरंग स्मृतियों में हमें सहभागी
बनाकर उस पूज्यात्मा से प्रेरणा पाने का दुर्लभ अवसर प्रदान कर रही
हैं। लावण्या जी के प्रति करते हुए प्रस्तुत है यह प्रेरक संस्मरण -
संजीव)*
पौराणिक कथा ' महाभारत ' को नया अवतार देने की घड़ी आ पहुंची थी! दृश्य - श्रव्य माध्यम टेलीवीज़न के छोटे पर्दे पर जयगाथा - महाभारत को प्रस्तुत करने का कोंट्रेक सुप्रसिद्ध निर्माता श्री बलदेव राज चोपरा जी की निर्माण संस्था को दूरदर्शन द्वारा सौंपा गया था और एक दिन हमारा घर और पण्डित नरेंद्र शर्मा को खोजते हुए, उनकी लम्बी सी इम्पोर्टेड गाडी, घर के दरवाज़े के बाहर आकर रुकी ! बी आर अंकल घर पर अतिथि बन कर आए और उनसे पापा भद्रता से मिले । दोनों ने अभिवादन किया। फ़िर, उन्होंने पापाजी से कई बार और मुलाक़ात की और उन्हें , कार्य के लिए , अनुबंधित किया । उसके बाद , पापा जी की बी . आर . फिल्म्ज़ की ऑफिस में रोजाना मीटिंग्स होने लगीं ।
महाभारत की यूनिट के साथ पं. नरेंद्र शर्मा दायें से ४ थे
पापा जी ने जैसे जैसे इस अति विशाल महाग्रंथ की कथा को स - विस्तार बतलाना
शुरू किया तब यूनिट के लोगों का कहना है कि ऐसा प्रतीत होने लगा मानो, हम
उसी कालखंड में पहुँच कर सारा दृश्य , पंडितजी की आंखों से घटता हुआ ,
देखने लगे !
पूज्य
पापा जी पण्डित नरेंद्र शर्मा का ' महाभारत ' धारावाहिक में अभूतपूर्व
योगदान रहा है। गीत , दोहे , परामर्श, रूपरेखा आदि का श्रेय पंडित नरेंद्र
शर्मा को ही दिया जाएगा। शीर्षक गीत ' अथ श्री महाभारत कथा ' पं. नरेंद्र शर्मा ने लिखा है। " समय " भी एक महत्त्वपूर्ण पात्र है महाभारत कथा में !
उसके लिए अविस्मरणीय स्वर दिया है श्री हरीश भीमानी जी ने ! जो महाभारत की समस्त कथा का सूत्रधार है। कभी-कभी पापा जी, कथा में इतना डूब जाते कि उठकर खड़े हो जाते या टहलते हुए, कोई कथानक तमाम पेचीदगियों के साथ, सविस्तार बतलाते।
महाभारत
कथा के पात्रों के मनोभाव, उनके मनोमंथन या स्वभाव की बारीकियों को भी
बखूबी समझाते । तब, पापा की कही कोई बात व्यर्थ न चली जाए, इस कारण से,
जैसे ही, पापाजी का बोलना आरम्भ होता, टेप रेकॉर्डर को ' ओन 'न कर लिया जाता ताकि, उनकी कही हर बात बारबार सुनी जा सके और सारा वार्तालाप आराम से बार सुना जा सके। एक बार पापा जी ने कहा: पितामह भीष्म , हमेशा श्वेत वस्त्र धारण किया करते थे " -
बी . आर . अंकल और राही साहब (रही मासूम रजा) जो पटकथा लिख रहे थे वे दोनों पूछने लगे, ' आपको कैसे पता ? " तब , पापा जी ने, बतला दिया कि, अमुक पन्ने पर इस का जिक्र है.. प्रसंगानुसार उदाहरण देते हुए समझाया कि, जब पितामह, मन ही मन प्रसन्न होते हुए बालक अर्जुन से शिकायत करते हैं,' वत्स , देखो तुम्हारे धू लभरे , वस्त्रों से , मेरे श्वे त वस्र , धूलि धूसरित हो जाते ह ैं ' .. इतना सुनते ही सब हैरान रह गए कि इतनी बारीकी से भला कौन कथा पढता है ?
जनाब
राही मासूम रज़ा साहब ने इसी को , पटकथा लेखक के रूप में, कलमबद्ध भी
किया और भीष्म पितामह के किरदार को सजीव करनेवाले मुकेश खन्ना को , श्वेत
वस्त्रों में ही , शुरू से अंत तक, सुसज्जित किया गया। ये बातें भी,
महाभारत के नये स्वरूप और नये अवतार के इतिहास का एक पन्ना बन गयीं। राही साहब ने कहा है कि ' महाभारत ' की भूलभूलैया में मैं, पण्डित जी की ऊंगली थामे थामे, आगे बढ़ता गया !'। "
पापा जी के सुझाव पर, पाँच पांडवों में युधिष्ठिर की भूमिका के लिए जो सबसे शांत दिखलाई देते थे ऐसे कलाकार को चुना गया था। हाँ, द्रौपदी के किरदार के लिए रूपा गांगुली का
नाम मेरी अम्मा , सुशीला नरेंद्र शर्मा ने सुझाया था। बी. आर. अंकल ने
उन्हें कलकत्ता से स्क्रीन टेस्ट के लिए बुलवा लिया और वे चयनित हुईं ।
महाभारत सीरीज़ को महाराज भरत के उत्तराधिकारी के चयन की दुविधा भरे प्रसंग से आरम्भ किया गया था । तब राजीव गांधी सरकार केन्द्र में थी । उनके कई चमचों ने वरिष्ठ अधिकारियों को भड़काने के लिए कहा, ' ये उत्तराधिकारीवाली बात
चोपरा अंकल दूसरे दिन , एक चेक लेकर हमारे घर आये ! उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब पापाने यह कहते उसे लौटा दिया: ' चोपराजी, आपने मुझे जब अनु बधित किया है तब मेरा फ़र्ज़ बन ता है कि इस सीरीज़ की सफलता के लिये भरसक प्रयास करूं - मैं गी तकार भी हूँ आप ये जानते थे ! अ तः, इसे रहने दीजिये " चोपरा अंकल ने बाद में , हमें कहा: 'बीसवीं सदी में जीवित ऐसे संत - कवि को , मैं , हाथ में लौटाये हुए पैसों के चेक को थामे , बस, विस्मय से देखता ही रह गया ! "
उन्होंने अपनी श्रृद्धान्जली अंग्रेज़ी में लिखी है जो पापा जी के असमय निधन के बाद छापी गयी पुस्तक " शेष-अशेष " में सम्मिलित है । वे कहते हैं, ' ये कोई रीत नहीं..हमें छोड़ कर जाने की ' और उन्होंने पापाजी को एक फ़रिश्ता - या एंजेल कहा है। आगे महाभारत कथा में ' श्री कृष्ण लीला ' का होना भी अनिवार्य है यह सुझाव भी पापा जी ने ही दिया था।
फरवरी
११ की काल रात्रि को महाकाल मेरे पापा जी को कुरुक्षेत्र के रण मैदान से
सीधे कैलाश ले चले! पूज्य पापा जी ने विदर्भ राजकुमारी रुक्मिणी का
प्रार्थना गीत लिख कर दिया था
'
विनती सुनिए नाथ हमारी ह्रदयेश्वर हरी ह्रदय विहारी मोर मुकुट पीताम्बर
धारी ' और माता भवानी स्तुति ' जय जय जननी श्री गणेश की प्रतिभा परमेश्वर
परेश की , सविनय विनती है प्रभु आयें , आयें अपनायें ले जायें , शुभद सुखद
वेला आये माँ सर्व सुमंगल गृह प्रवेश की ' और माँ पार्वती का आशीर्वाद दोहा
' सुन ध्यान दे वरदान ले स्वर्ण वर्णा रुक्मिणी '
यह
प्रसंग भारत की जनता टेलीविजन के पर्दे पर जब देख रही थी तब गीतकार पंडित
नरेंद्र शर्मा की आत्मा अनंत में ऊर्ध्वलोकों के प्रयाण पथ पर अग्रसर थी। हम
परिवार के सभी, पापा जी के जाने से, टूट चुके थे । धारावाहिक का कार्य
अथक परिश्रम और लगन के साथ पापा जी के बतलाये निर्देशानुसार और श्री बी .
आर. चोपरा जी एवं उनके पुत्र श्री रवि भाई तथा अन्य सभी के सहयोग
से यथावत जारी था।
सुप्रसिद्ध
फिल्म निर्माता - निर्देशक श्री बी . आर . चोपरा अंकल जी का दफ्तर , मेरी
ससुराल के बंगलों के सामने था । एक दिन की बात है कि एक शाम मेरे पति दीपक जी एवं मैं, शाम को टहल रहे थे और सामने से संगीतकार श्री राजकमल जी आते दिखलायी दिए ! ' महाभारत धारावाहिक का काम अपने चरम पर था और राजकमल जी उसे संगीत से संवार रहे थे। वे, हमें गली के नुक्कड़ पर ही मिल गये। नमस्ते हुई और बातें शुरू हुईं !
आदर
और श्रद्धा विगलित स्वर से राजकमल जी कहने लगे ' पंडित जी के जाने से
अपूरणीय क्षति हुई है। काम चल रहा है परन्तु उनके जैसे शब्द कौन सुझाएगा ?
उनके हरेक अक्षर के साथ गीत स्वयं प्रकाशित होता था जिसे मैं स्वरबद्ध
कर लेता था ! जैसे श्री कृष्ण और राधे रानी के महारास का गीत का यह शब्द ' चतुर्दिक गूँज रही छम छम ' चतुर्दिक' शब्द ने रास और गोपियों के कान्हा और
राधा के संग हुए नृत्य को चारों दिशाओं में प्रसारित कर दिया ऐसा लगता है।
'
वे पापा जी को सजल नयनों से याद करने लगे तब दीपक जी ने उनसे कहा, ' अंकल , लावण्या ने भी कई महाभारत से सम्बंधित दोहे, लिखे हैं । ' उन्हें यह सुनकर आश्चर्य हुआ और बोले,' लिखे हैं और घर में रखे हैं, ये क्यों भला ! ले आओ किसी दिन, हम भी सुनें गें और अगर कहीं योग्य लगें तब उसे रख लेंगें । ' उनके आग्रह से, आश्वस्त हो कर बी . आर . अंकल के फोन पर आमंत्रण मिलने पर जब मैं एक दोपहर उनके दफ्तर में पहुँची तब आगामी ४ एपिसोड बनकर तैयार हो रहे थे। बी . आर . अंकल के पैर छूकर राही मासूम रज़ा साहब के ठीक बगल वाली कुर्सी पर मैं बैठ गयी। सच कहूँ उस वक्त मुझे मेरे पापा जी की बहुत याद आयी।
मैंने चारों एपिसोड के ' रशेस ' माने ' कच्चा रूप ' देखा। पार्श्व -संगीत, दोहे अभी तक जोड़े नही गये थे। सिर्फ़ रफ कोपी की प्रिंट ही तैयार थीं।
प्रसंग :
१ - सुभद्रा हरण- सबसे प्रथम दोहा सुभद्रा हरण के प्रसंग पर लिखा था उसके शब्द हैं: ह
' बिगड़ी बात संवारना , सांवरिया की रीत ,
पार्थ सुभद्रा मिल गए, हुई प्रणय की जीत
२ - द्रौपदी सुभद्रा मिलन- द्रौपदी और सुभद्रा का सर्व प्रथम बार इन्द्रप्रस्थ में द्रौपदी के अंत:पुर में मिलन:
" गंगा यमुना सी मिलीं, धाराएं अनमोल ,
द्रवित हो उठीं द्रौपदी, सुनकर मीठे बोल "
३ - जरासंध - वध
''अभिमानी के द्वार पर, आए दींन दयाल,
स्वयं अहम् ने चुन लिया, अपने हाथों काल "
स्वयं अहम् ने चुन लिया, अपने हाथों काल "
४ - द्रौपदी चीर हरण
" सत असत सर्वत्र हैं , अबला सब ला होय
नारायण पूरक बनें, पांचाली जब रोय "
मत रो बहना द्रौपदी , जीवन है संग्राम
धीरज धर , मन शांत कर, सुधरें , बिगड़े काज "
५ - कीचक वध- ये दोहा भी आपने धारावाहिक में सुना होगा जो श्री कृष्ण द्रौपदी को सांत्वना देते हुए पांडवों के वनवास के समय मिलने आते हैं तब कहते हैं:
" चाहा छूना आग को, गयी कीचक की जान,
द्रौपदी के अश्रू को, मिला आत्म -सम्मान ! "
भीष्म पितामह को शिखंडी की आड़ लेकर अर्जुन द्वारा पितामह को बाणों से छलनी कर देने पर लिखा था ...
' जानता हूँ, बाण है यह प्रिय अ र्जुन का,
नहीं शिखंडी चला सकता एक भी शर ,
बींध पाये कवच मेरा किसी भी क्षण,
बहा दो संचित लहू, तुम आज सारा ...'
मैंने , और भी कुछ दोहे लिखकर दिए जिन्हें , महाभारत टी. वी. धारावाहिक
में शामिल किया गया । राजकमल भाई ने कहा ' मीटर में सही बैठ रहे हैं ' और
तब गायक श्री महेन्द्र
कपूर जी ने वहां आकर उन्हें गाया और वे सदा-सदा के लिए दर्शकों के हो गये
!
हाँ, मेरा नाम , शीर्षक में एकाध बार ही दिखलाई दिया था शायद बहुतों ने
उसे न ही देखा होगा । मुझे उस बात से कोई शिकायत नहीं! बल्कि आत्मसंतोष है ! इस बात का कि मैं अपने दिवंगत पिता के कार्य में अपने श्रद्धा सुमन रूपी, ये दोहे, पूजा के रूप में, चढ़ा सकी ! ये एक पुत्री का पितृ - तर्पण था।
पूज्य पापा जी की ' पंडित नरेंद्र शर्मा सम्पूर्ण रचनावली '
मेरे लघु भ्राता भाई श्री परितोष नरेंद्र शर्मा ने शताब्दी वर्ष के पावन अवसर पर प्रकाशित की है। उसमे उनका समग्र लेखन समाहित है।
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Compiled, Edited
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चलिए आज इतना ही , फ़िर मिलेंगें - सब के जीवन में योगेश्वर श्री कृष्ण की कृपा , बरसती रहे यही मंगल कामना है।
***
प्रस्तुति: Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.comhttp://divyanarmada.blogspot.in
8 टिप्पणियां:
Kanu Vankoti
इस पठनीय संस्मरण के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद
सादर,
कनु
deepti gupta
संजीव जी,
लावण्याजी द्वारा अपने पिता पर लिखित यह भावभीना संस्मरण पढवाने के लिए दिली शुक्रिया! बहुत ही मनोंरम और रोचक संस्मरण है!
बी.आर.चोपडाजी का पं. शर्माजी के घर जाना और 'महाभारत' धारावाहिक बनाने की योजना पर चर्चा करना.......उसके बाद इतना भव्य धारावाहिक बनाकर एक यादगार इतिहास रच देना - किसी अद्भुत घटना से कम नहीं! हमें याद है कि धारावाहिक के प्रारम्भ में हरीश भीमानीजी का गुरु गंभीर स्वर हम सबके लिए बहुत बड़ा आकर्षण हुआ करता था! हम सभी महाभारत बड़े चाव से देखते थे!'समय' इस खास पात्र के तो कहने ही क्या! इसकी रचना पापाजी ही कर सकते थे! यह जानकर और अधिक प्रसन्नता हुई कि उसमे कुछ दोहे लावण्याजी के भी हैं जिन्हें महेंद्र कपूरजी ने गया! कितना बड़ा सम्मान मिला उन सुघड दोहों को कि महाभारत जैसे धारावाहिक में महेंद्र जी की आवाज़ में ढल कर अमर हो गए! लावण्याजी बहुत भाग्यशाली है कि वे प्रतिभावान पिता की प्रतिभाशाली बेटी हैं!
इस संस्मरण को पढकर बड़ी सुखद अनुभूति हुई!लावण्याजी को अशेष बधाई और संजीव जी आपका हार्दिक आभार!
सादर,
दीप्ति
LLlavanyashah@yahoo.com
ॐ
दीप्ती जी एवं सभी को सस्नेह नमस्ते आपने पढ़ा और अपने विचार यहाँ रखे- शुक्रिया आपका आभार!
एक बात स्पष्ट करना चाहती हूँ इस वाक्य को पढ़ते ही ...'समय' इस खास पात्र के तो कहने ही क्या! इसकी रचना पापा जी ही कर सकते थे !
'समय' के पात्र के हकदार जनाब राही मासूम रजा साहब हैं। [जहां तक मेरी जानकारी है]
'महाभारत' धारावाहिक के बनने में कई महानुभावों का अथक परिश्रम है।
पापाजी मेरे पिता थे परन्तु उन जैसा अत्यंत विनम्र, संवेदनशील ,
जागरूक - तरूण बुध्धिजीवी मैंने अपने जीवन में देखा नहीं। शुध्ध सुवर्ण अपने आप में अपना मापदंड है। रामायण धारावाहिक बन रही थी तब उसके पटकथा लेखन से जुड़े व्यक्ति हर इतवार
हमारे घर आते ४ , ५ घंटे वार्तालाप ' रामायण 'सम्बंधित होता..
मेरी अम्मा ने एक दिन खीज कर पापा जी से कहा भी था कि 'आप क्यूं इन्हें यह बातें बतलाते हैं!'
पापाजी ने सहज हास्य के साथ कहा था
'सुशीला, ये आज मैं कह रहा हूँ जो सदियों से सुलभ है और टीवी से पूरी दुनिया तक रामायण की अमर गाथा पहुंचेगी तब इसमें मेरा क्या और उनका क्या!'अम्मा के पास ऐसे अकाट्य तर्क का उत्तर न था !
राही मासूम रजा जी के बारे में --
मुझे डा. राही मासूम रज़ा साहब से " महाभारत " टी.वी. सीरीज़ के निर्माण के दौरान मिलने का सौभाग्य मिला था।
हम बच्चे उन्हेँ "चाचा जी कहते थे। डा. साहब मेरे पापा जी को बहुत आदर व प्रेम करते थे।
ये भी कहा था कि," महाभारत की बीहड भूल भूलैया मेँ मैँ पँडित नरेन्द्र शर्मा की ऊँगली थामे , आगे बढता गया " ~
` हाँ "प्रणालिका मेँ जो "समय " का पात्र आया है वह डा. राही मासूम रज़ा जी की कल्पना से उपजा हुआ अविस्मरणीय पात्र है
जो कभी तो ईश्वर की तरह सर्वज्ञ - सा लगता है तो कभी अपनी अँतरात्मा मेँ बसी सत्य की प्रतिध्वनि सा महसूस होता है।
ये डा. साहब के के व्यक्तित्व के बेजोड हुनर और उनके एक सशक्त साहित्यकार की जीत है ऐसा मानती हूँ मैँ !
३ वर्ष तक श्री बी. आर. चोपडा जी और भाई रवि चोपडा जी की पूरी टीम के साथ पापा जी की मीटिंग्स होतीँ रहीं और महाभारत मेँ क्या क्या शामिल किया जायेगा और क्या नहीँ इन सारी बातों का निर्णय लिया गया था।
परन्तु फिल्म निर्माण व्यवसाय का अंतिम निर्णय उसी के पास होता है जो ' धन ' लगाता है और जो
इस उत्पाद को जनता के सामने प्रस्तुत करता है।
निर्माता लेखक की बात मानता अवश्य है पर अंतिम इच्छा उसी की रहती है।
पापा जी ने जोर दिया था कि, श्री कृष्ण के जन्म से ,
बाल लीलाएँ और फिर गोकुल वृँदावन,
ब्रज के सारे प्रसँग भी दीखलाना जरुरी है और फिर भगवद्` गीता का समावेश भी किया गया था।
परँतु, ये जो सारी रुपरेखा बन चुकी थी उस के बाद,
मेरे पापाजी हम सभी को निराधार अवस्था मेँ छोड कर चल बसे ! :-(
[ ही इझ नो मोर ! ११ फरवरी पापा की पुण्य तिथि
http://www.lavanyashah.com/2008/02/blog-post_08.html ]
तब डा. राही मासूम रज़ा जी मेरी अम्मा से मिलने घर आये और साँत्वना दी और घर के बडोँ की तरह पूछा था कि,
" अब आपके परिवार से कौन बच्चा हमारे साथ महाभारत के लिये काम करना चाहेगा ? "
इतनी आत्मीयता थी उनमेँ ! उसके बाद पापा जी की स्मरणाँजलि रुपी पुस्तक " शेष ~ अशेष " के लिये ये कविता डा. राही मासूम रज़ा सा'ब ने लिख कर दी - जिसे सुनिये चूँकि आज वे भी हमारे बीच अब स- शरीर नहीँ रहे ! :-(
" वह पान भरी मुस्कान "
वह पान भरी मुस्कान न जाने कहाँ गई ?
जो दफ्तर मेँ ,इक लाल गदेली कुर्सी पर,
धोती बाँधे, इक सभ्य सिल्क के कुर्ते पर,
मर्यादा की बँडी पहने,आराम से बैठा करती थी,
वह पान भरी मुस्कान तो उठकर चली गई !
पर दफ्तर मेँ,वो लाल गदेली कुर्सी अब तक रक्खी है,
जिस पर हर दिन,अब कोई न कोई, आकर बैठ जाता है
खुद मैँ भी अक्सर बैठा हूँ कुछ मुझ से बडे भी बैठे हैँ,
मुझसे छोटे भी बैठे हैँ पर मुझको ऐसा लगता है
वह कुरसी लगभग एक बरस से खाली है!
- लावण्या
Nameste
http://lavanyam-antarman.blogspot.com/
deepti gupta
लावण्या जी,
ये कितने प्यार और दुलार भरे रिश्ते थे ! राही मासूम रज़ा जैसी हस्ती अब कहाँ देखने में आती हैं ! पापा जी के चले जाने पर . माँ को धैर्य बंधाना और धारावाहिक के लिए यह पूछना - अब आपके परिवार से कौन बच्चा हमारे साथ महाभारत के लिये काम करना चाहेगा ?
बहुत बड़ी बात थी ! बीते ज़माने के लोग, उनकी सभ्यता, संस्कृति, अपनापन, बड़प्पन अब ' बीती बाते' ही हो चुकी हैं ! आज हम सब एक भावनाहीन दुनिया में रह रहे है ! यह देख कर और सोचकर दिल अवसाद से भर जाता है ! भावनात्मक, निस्वार्थ और समर्पित इंसान को आजकल मूर्ख और पागल कहा जाता है ! काश ! कि वो संस्कृति और मूल्य फिर से ज़िंदा हो उठे ....! सस्नेह,
दीप्ति
lavanyashah@yahoo.com
ॐ
दीप्ती जी एवं सभी को पुन: स स्नेह नमस्ते
पूज्य दद्दा मैथिली शरण गुप्त जी ने यह
मेरी बड़ी बहन स्व. वासवी की ओटोग्राफ पुस्तक में लिख कर आशीर्वाद दिए थे ..
' अपना जितना काम आप ही जो कोइ कर लेगा
पाकर उतनी मुक्ति आप वह औरों को भी देगा
एक दीप सौ दीप जलाए , मिट जाए अंधियारा '
- राष्ट्र कवि श्री मैथिली शरण गुप्त
हम और आप दीप मालिकाओं के प्रकाश को संजो कर आगे बढ़ें !
मुझे विशवास है , अन्धकार अवश्य कम होगा।
शुभम भवतु सर्वदा
- लावण्या
Nameste
http://lavanyam-antarman.blogspot.com/
Mukesh Srivastava
बहुत बढ़िया संस्मरण है . पढवाने के लिए शुक्रिया.
सादर,
मुकेश
Ram Gautam eChintan
आ. लावण्या जी,
अपने संस्मरणों से जोड़ने के लिए आभारी हूँ | बीते दिनों की बस यादें ही शेष होतीं
हैं | किन्तु आपका बचपन कितना खूबसूरत होगा इस संस्मरण से दिखाई देता है |
सादर- गौतम
ॐ
भाई श्री गौतम जी
आपने इसे पढ़ा आर अपने विचार यहाँ रखे
आपका बहुत बहुत आभार
सादर स स्नेह
- लावण्या
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