बाल गीत
चूँ चूँ चिड़िया चुन दाना
संजीव 'सलिल'
*

*
चूँ-चूँ चिड़िया चुन दाना.
मुझे सुना मीठा गाना..
तुझको मित्र बनाऊँगा
मैंने मन में है ठाना..
कौन-कौन तेरे घर में
मम्मी, पापा या नाना?
क्या तुझको भी पड़ता है
पढ़ने को शाला जाना?
दाल-भात है गरम-गरम
जितना मन-मर्जी खाना..
मुझे पूछना एक सवाल
जल्दी उत्तर बतलाना..
एक सरीखी चिड़ियों में
माँ को कैसे पहचाना?
सावधान रह इंसां से.
बातों में मत आ जाना..
जब हो तेरा जन्मदिवस
मुझे निमंत्रण भिजवाना..
अपनी गर्ल फ्रेंड से भी
मेरा परिचय करवाना..
बातें हमने बहुत करीं
चल अब तो चुग ले दाना..
****
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot. com
चूँ चूँ चिड़िया चुन दाना
संजीव 'सलिल'
*
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चूँ-चूँ चिड़िया चुन दाना.
मुझे सुना मीठा गाना..
तुझको मित्र बनाऊँगा
मैंने मन में है ठाना..
कौन-कौन तेरे घर में
मम्मी, पापा या नाना?
क्या तुझको भी पड़ता है
पढ़ने को शाला जाना?
दाल-भात है गरम-गरम
जितना मन-मर्जी खाना..
मुझे पूछना एक सवाल
जल्दी उत्तर बतलाना..
एक सरीखी चिड़ियों में
माँ को कैसे पहचाना?
सावधान रह इंसां से.
बातों में मत आ जाना..
जब हो तेरा जन्मदिवस
मुझे निमंत्रण भिजवाना..
अपनी गर्ल फ्रेंड से भी
मेरा परिचय करवाना..
बातें हमने बहुत करीं
चल अब तो चुग ले दाना..
****
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.
18 टिप्पणियां:
Kanu Vankoti, kavyadhara
क्या बात, क्या बात, क्या बात सलिल जी,
क्या तुझको भी पड़ता है
पढ़ने को शाला जाना?
दाल-भात है गरम-गरम
जितना मन-मर्जी खाना..
बड़ी ही cute कविता है
साधुवाद !
कनु
Mukesh Srivastava
आदरणीय संजीव जी,
आपकी कविता पढ़कर मैं तो बच्चा बन गया...
ढेर सराहना स्वीकारें ,
सादर,
मुकेश
Mamta Sharma
आदरणीय सलिल जी!
वैसे तो आप जो भी लिखते हैं वह मेरे जैसे नौसिखिये के लिए सबक के सामान है.हरेक रचनापर प्रतिक्रिया देना समयावकाश के कारण संभव नहीं होता है. उन सभी के लिए बधाई.ये रचना विशेषतः इतनी सुन्दर बन पड़ी है के मैं आपको व् आपकी कलम दोनों को नमन करती हूँ.आप हमारे लिए सच्चे शिक्षक हैं.
सादर
ममता
आपकी उदारता को नमन मैं aअभी विद्यार्थी ही hहूँ रोज kकुछ nन kuchhकुछ सीखता hoonहूँ
आ. सलिल जी,
बहुत सुंदर, बच्चों और हम सभी के चिंतन के लिए भी; मन को भाने वाली
वाल- कविता है । कम शब्दों में बहुत कुछ मन तक पहुंचाती- पंक्तियाँ में एक
चिड़िया के परिवार की अभिव्यक्ति और प्रश्न भी । आपको हार्दिक बधाई ।
सादर- गौतम
vijay
अति मनमोहक।
विजय
ksantosh_45@yahoo.co.in द्वारा
जब हो तेरा जन्मदिवस
मुझे निमंत्रण भिजवाना..
अपनी गर्ल फ्रेंड से भी
मेरा परिचय करवाना..
वाह सलिल जी! आजकल के बच्चों के मन की बात " गर्ल फ्रेंड" का समावेश सुन्दर और आधुनिकता लिए लगी। सारी कविता मन को छू गई। बधाई।
सन्तोष कुमार सिंह
Dr.M.C. Gupta द्वारा yahoogroups.com
सलिल जी,
बहुत सुंदर है.
केवल इतना ही कहूँगा--
छांडि सबहि श्रंगारी कविता कब निर्मल चोला हम धारौं
कोटिक हू बिन भाव की कविता बाल कवित्त के ऊपर वारौं॥
तुम आचार्य कहाओ सो कछु नैक कृपा हम पे भी कीजो
चेला हमहू को कर लीजो होय ख़लिश हम आर्त पुकारौं.
--खलिश
Mahipal Tomar द्वारा yahoogroups.com
सुन्दर,मनमोहक प्रस्तुति। बधाई, एक सुझाव पूरी सदाशयता में, अंतिम पंक्ति
में 'तो' को हटा लें, तो कैसा रहेगा ?
महिपाल
Ghanshyam Gupta ekavita
नहीं तो, महिपाल जी, वज़न कम हो जायेगा। "तो" ठीक है
Dr.M.C. Gupta द्वारा yahoogroups.com
महिपाल जी,
सात साल पहले तक यह बात समझ नही आती थी कि कर्नातक संगीत करते समय विख्यात गाइकाएं पैरों / जंघा पर थाप क्यों मारतीं हैं? जब संगीत गुरु से कुछ दिन शिक्षा पाई तो मालूम हुआ कि सुर क्या है; लय क्या है; ताल क्या है.
एक बार संगीत मँडली में गुरु का एक चेला दूसरे से कह रहा था (किसी के गायन की आलोचना करते हुए)-- गाने वाले को चहिए कि बेसुरा भले जो जाए, बेताला न हो. उनके परस्पर वार्तालाप का यह एक वाक्य मुझ अल्प-ज्ञानी के लिए वेद वाक्य सम हो गया.
घनश्याम जी उसी ओर इशारा कर रहे हैं. थाप चाहे पैरों पर दें या तबले पर या मेज़ पर या ताली बजा कर, सब ताल को ठीक करने (वज़न सम्हालने) के ही साधन हैं. आप सलिल जी की कविता को ताली बजा कर गा कर देखिए. आपकी जिज्ञासा स्वयँ शांत हो जाएगी और घनश्याम जी के कहने का अर्थ समझ में आ जाएगा.
--ख़लिश
Mahipal Tomar द्वारा yahoogroups.com
दो दो गुरुओं से ज्ञान लाभ , एक साथ ,बड़ा बडभागी हूँ मैं ।
ऐसा ही स्नेह बनाये रखें , घनश्याम जी और खलिश जी ,
सादर ,
महिपाल
Ghanshyam Gupta
सं०: "गाने वाले को चाहिए कि बेसुरा भले जो जाए, बेताला न हो"
संक्षेप में कहूं तो ताल हृदय की नैसर्गिक धड़कनों की तरह है, उसकी दौलत है। इस ताल की रक्षा, उसका निर्वाह करना आवश्यक है, बाकी सब गौण। बेताल का जो भूत सिर चढ़ कर बैठ जाता है, उससे मुक्ति ही श्रेय है। हल्के हो जाओ फिर जमकर नृत्य करो।
अपनी ही रचनाओं से पंक्तियों के उद्धरण देने की धृष्ठता कर रहा हूं:
उनकी आँखों में रहें घर से निकाले जायें
दिल की दौलत न लुटे मुंह के निवाले जायें (१९६५ के आसपास लिखी)
झूमर, झप, दीपक या मिश्री से ताल
सीखूं जब उतरे यह अंतिम बेताल (१९७३ में लिखी)
लघु-कोष्ठक में रचना काल देने का आशय यह इंगित करना भी है कि साधना के अभाव में समय के बीतने के साथ विशेष प्रगति का होना अवश्यम्भावी नहीं है। चौबे जी बस चौबे जी ही रह गये!
- घनश्याम
खलिश जी, महिपाल जी, संतोष जी, ममता जी, राम गौतम जी, संतोष जी, विजय जी, घनश्याम जी, कनु जी, मुकेश जी मैं बडभागी हूँ। आपका आशीष मिला, आभार चिड़िया का।
dr. deepti gupta द्वारा yahoogroups.com
आदरणीय संजीव जी,
बहुत सुन्दर चुनमुन कविता लिखी है! जितनी बार इसे पढ़ा, उतना ही आनंद आया! मन को मोहती, लुभाती इस रचना के लिए अनन्य सराहना स्वीकार करें..
सादर,
दीप्ति
shar_j_n
आदरणीय सलिल जी,
वाह कितनी बोली प्यारी कविता है।
और ये तो बहुत ही लुभावना:
"एक सरीखी चिड़ियों में
माँ को कैसे पहचाना" :)
सादर शार्दुला
Indira Pratap द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
संजीव भाई ,
मेरी भी एक चूँ चूँ चिड़िया है , उससे दोस्ती करवाएँगे क्या उसकी ,इजाज़त हो तो भेजूँ |
आपनी चिड़िया को मेरा शुभाशीष देना | प्यारी मासूम सी रचना | शुभकामनाओं के साथ दिद्दा
बाल गीत
roopchandel
सलिल जी बहुत सुन्दर गीत है. बधाई.
रूप सिंह चन्देल
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