मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

अप्रैल २९, पूर्णिका, सरस्वती, बुंदेली, सॉनेट, सिंधी, त्रिलोकी छंद, मुक्तक, दोहा

सलिल सृजन अप्रैल २९
*
पूर्णिका
.
अपने सहायक आप हो
नहीं ईश्वर को दोष दो
.
सुख-दुख सहो सम भाव से
खुद को न कोस, न श्रेय लो
.
होनी न रोके से रुके
चुप देख तू हो या न हो
.
औषध व पथ्य न भूलना
मत दे गँवा मन-शांति को
.
कुछ ट्रेन छोड़ उतर गए
कुछ चढ़ गए हैं संग जो
.
ग़म की जमीं पे धैर्य से
संतोष की हँस फसल बो
.
संजीवनी हो श्वास हर
मत व्यर्थ मन का चैन खो
.
जीवन जिओ जिंदा रहो
मत आह भर, तज चाह ढो
२९.४.२०२५
०००
पूर्णिका
हर हर बम बम
मेटो प्रभु तम
.
नयन मूँदकर
ध्याते हैं हम
.
पर पीड़ा लख
नयन हुए नम
.
दहशतगर्दों
खातिर हम यम
.
कोमल हैं तो
मत समझो कम
.
गौरी-काली
नारी में दम
.
भाग न कायर
हो अब बेदम
.
शक्ति-भक्ति मिल
होती अणुबम
.
सलिल समर्पित
हर हर बम बम
२९.४.२०२५
०००

सरस्वती वंदना (बुंदेली)
ओ मैहरवारी सारदा! दरसन दै दो मात।
किरपा बिन सब काम बिगर रय, बनै नें कौनऊ बात।।
*
तुमखों पूजें सबई देवता, देवी, मनु-दनु-संत।
तुमईं सार, तुम बिन कौनउ में तनकउ कऊँ नें तंत।।
करुनाकर मैया! करुना कर, तुम बिन कोऊ नें तात।
ओ मैहरवारी सारदा! दरसन दै दो मात।
*
दसों दिसा मा गूँज रई रे मैया तोरी बीन।
सबई कलाओं में हो मैया सच्ची तुमई प्रबीन।।
सबरे स्वर-ब्यंजन मिल माता तोरे ही गुन गात।
ओ मैहरवारी सारदा! दरसन दै दो मात।
*
चित्र गुप्त है तोरो मैया, दरसन दै दो आज।
भवसागर सें तारो जननी, कर दो पग-रज ताज।।
मैं कपूत पर मैया तुम हो भगतबसल बिख्यात।
ओ मैहरवारी सारदा! दरसन दै दो मात।
२९.४.२०२४
•••
सॉनेट
माँगा, हाथ रहा रीता ही
बिन माँगे जो चाहा, पाया
साथ रहा चुप, पल बीता ही
चला गया जो भी मन भाया
वन जाती केवल सीता ही
सिंहासन रामों ने पाया
जनवाणी रहती क्रीता ही
चरण ने ईनाम कमाया
रहा सुनाता जो गीता ही
काम उसी के मन क्यों भाया?
रीति-नीति जिसकी प्रीता थी
अनय उसी ने ह्रदय बसाया
अपना ही हो गया पराया
साथ न तम में देता साया
२९-४-२०२२
***
नवगीत
*
चार आना भर उपज है,
आठ आना भर कर्ज
बारा आना मुसीबत,
कौन मिटाए मर्ज?
*
छिनी दिहाड़ी,
पेट है खाली कम अनुदान
शीश उठा कैसे जिएँ?
भीख न दो बिन मान
मेहनत कर खाना जुटे
निभा सकें हम फर्ज
*
रेल न बस, परबस भए
रेंग जा रहे गाँव
पीने को पानी नहीं
नहीं मूँड़ पर छाँव
बच्चे-बूढ़े परेशां
नहीं किसी को गर्ज
*
डंडे फटकारे पुलिस
मानो हम हैं चोर
साथ न दे परदेस में
कोई नगद न और
किस पर मुश्किल के लिए
करें मुकदमा दर्ज
२९-४-२०२०
***
गीत
*
नटखट गोपाल श्याम जसुमति का लाला
बरज रही बिरज मही जाओ मत तजकर
टेर रहीं धेनु दुलराओ भुज भरकर
माखन की मटकी लो गोरस का प्याला
जमुना की लहरें-तट, झूमते करील
कुंजों में राधिका, नयन गह्वर झील
वेणु का निनाद; कदंब ऊँचा रखवाला
रास का हुलास, फोड़ मटकी खो जाना
मीठी मुसकान मधुर मन में बो जाना
बाबा का लाड़, मोह मैया ने पाला
***
गीत
आज के इस दौर में भी
*
आज के इस दौर में भी समर्पण अध्याय हम
साधना संजीव होती किस तरह पर्याय हम
मन सतत बहता रहा है नर्मदा के घाट पर
तन तुम्हें तहता रहा है श्वास की हर बाट पर
जब भरी निश्वास; साहस शांति आशा ने दिया
सदा करता राज बहादुर; हुए सदुपाय हम
आपदा पहली नहीं कोविद; अनेकों झेलकर
लिखी मन्वन्तर कथाएँ अगिन लड़-भिड़ मेलकर
साक्ष्य तुहिना-कण कहें हर कली झरकर फिर खिले
हौसला धरकर; मुसीबत हर मिटाने धाय हम
ओम पुष्पा व्योम में, हनुमान सूरज की किरण
वरण कर को विद यहाँ? खोजें करें भारत भ्रमण
सूर सुषमा कृष्ण मोहन की सके बिन नयन लख
खिल गया राजीव पूनम में विनत मुस्काय हम
महामारी पूजते हम तुम्हें; माता शीतला
मिटा निर्बल मंदमति, मेटो मलिनता बन बला
श्लोक दुर्गा शती, चौपाई लिए मानस मुदित
काय को रोना?, न कोरोना हुए निरुपाय हम
गीत गूँजेंगे मिलन के, सृजन के निश-दिन सुनो
जहाँ थे हम बहुत आगे बढ़ेंगे, तुम सिर धुनो
बुनो सपने मीत मिल, अरि शीघ्र माटी में मिलो
सात पग धर, सात जन्मों संग पा हर्षाय हम
***
मुक्तक
सीता की जयकार से खुश हों राजा राम
जय न उमा की यदि करें झट शंकर हों वाम
अर्णव में अवगाह कर अरुण सुसज्जित पूर्व
चला कर्मपथ पर अडिग उषा रश्मि कर थाम
*
अपनी धरा अपना गगन, हम नवा सिर करते नमन
रवि तिमिर हर उजयार दे, भू भारती को कर चमन
जनगण करे सब काम मिल, आलस्य-स्वार्थ न साथ हो
श्रम-स्वेद की जयकार कर, कम हो न किंचित भी लगन
*
शीतल पवन बह कह रहा, आ मनुज प्राणायाम कर
पंछी करे कलरव मधुर उड़, उठ न अब आराम कर
धरकर धरा पर चरण बाँहों में उठा ले आसमां
सूरज तनय पहचान खुद को जगत में कुछ नाम कर
पूछता कोविद यहाँ को विद?
सभी हित काम कर
द्वेष-स्वार्थों में उलझ मत जिंदगी बदनाम कर
बहुत सोया जाग जा अब, टेरता है समय सुन
स्वेद सीकर में नहाकर हँस सुबह को शाम कर
उषा अगवानी करेगी, तम मिटाकर नामवर
भेंट भुजभर हँसे संध्या, रुक थक न चुक न विरामकर
निशा आँचल में सुलाये सुनहरे सपने दिखा
एक दिन तो 'संजीव' सारे काम तू निष्काम कर
२९-४-२०२०
***
सृजन चर्चा
सुमित्र जी के जिजीविषाजयी व्यंग्य दोहे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सनातन सलिल नर्मदा का अंचल सनातन काल से सृजनधर्मियों का साधना क्षेत्र रहा है. सम-सामयिक साहित्य सर्जकों में अग्रगण्य डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र' विविध विधाओं में अपने श्रेष्ठ सृजन से सर्वत्र सतत समादृत हो रहे हैं।
दोहा हिंदी साहित्य कोष का दैदीप्यमान रत्न है। कथ्य की संक्षिप्तता, शब्दों की सटीकता, कहन की लयबद्धता , बिम्बों-प्रतीकों की मर्मस्पर्शिता तथा भाषा की लोक-ग्राह्यता के पञ्चतत्वी निकष पर खरे दोहे रचना सुमित्र जी के लिए सहज-साध्य है। सामयिकता, विसंगतियों का संकेतन, विडंबनाऑं पर प्रहार, जनाक्रोश की अभिव्यक्ति और परोक्षतः ही सही पारिस्थितिक वैषम्य निदान की प्रेरणा व्यंग्य विधा के पाँच सोपान हैं। सुमित्र की दशरथी कलम ''विगतं वा अगं यस्य'' की कसौटी पर खरे उतारनेवाले व्यंग्य दोहे रचकर अपनी सामर्थ्य का लोहा मनवाती है।
''आएगा, वह आयेगा, राह देखती नित्य / कहाँ न्याय का सिंहासन, कहाँ विक्रमादित्य'' कहकर दोहाकार आम आदमी की आशावादिता और उसकी निष्फलता दोनों को पूरी शिद्दत से बयां करता है।
समाज में येन-केन-प्रकारेण धनार्जन कर स्वयं को सकल संवैधानिक प्रावधानों से ऊपर समझनेवाले नव धनाढ्य वर्ग की भोगवादी मनोवृत्ति पर तीक्ष्ण कटाक्ष करते हुए निम्न दोहे में दोहाकार 'रसलीन' शब्द का सार्थक प्रयोग करता है- ''दिन को राहत बाँटकर, रात हुई रसलीन / जिस्म गरम करता रहा, बँगले का कालीन'' ।
राजनीति का ध्येय जनकल्याण से बदलकर पद-प्राप्ति और आत्म कल्याण होने की विडम्बना पर सुमित्र का कवि-ह्रदय व्यथित होकर कहता है-
नीतिहीन नेतृत्व है, नीतिबद्ध वक्तव्य।
चूहों से बिल्ली कहे, गलत नहीं मंतव्य।।
*
सेवा की संकल्पना, है अतीत की बात।
फोटो माला नोट है, नेता की औकात।।
*
शैक्षणिक संस्थाओं में व्याप्त अव्यवस्था पर व्यंग्य दोहा सीधे मन को छूता है-
पैर रखा है द्वार पर, पल्ला थामे पीठ।
कोलाहल का कोर्स है, मन का विद्यापीठ।।
*
पात्रता का विचार किये बिना पुरस्कार चर्चित होने की यशैषणा की निरर्थकता पर सुमित्र दोहा को कोड़े की तरह फटकारते हैं-
अकादमी से पुरस्कृत, गजट छपी तस्वीर।
सम्मानित यों कब हुए, तुलसी सूर कबीर।।
*
अति समृद्धि और अति सम्पन्नता के दो पाटों के बीच पिसते आम जन की मनस्थिति सुमित्र की अपनी है-
सपने में रोटी दिखे, लिखे भूख तब छंद।
स्वप्न-भूख का परस्पर, हो जाए अनुबंध।।
*
आँखों के आकाश में, अन्तःपुर आँसू बसें, नदी आग की, यादों की कंदील, तृष्णा कैसे मृग बनी, दरस-परस छवि-भंगिमा, मन का मौन मजूर, मौसम की गाली सुनें, संयम की सीमा कहाँ, संयम ने सौगंध ली, आँसू की औकात क्या, प्रेम-प्यास में फर्क, सागर से सरगोशियाँ, जैसे शब्द-प्रयोग और बिम्ब-प्रतीक दोहाकार की भाषिक सामर्थ्य की बानगी बनने के साथ-साथ नव दोहकारों के लिए सृजन का सबक भी हैं।
सुमित्र के सार्थक, सशक्त व्यंग्य दोहों को समर्पित हैं कुछ दोहे-
पंक्ति-पंक्ति शब्दित 'सलिल', विडम्बना के चित्र।
संगुम्फित युग-विसंगति, दोहा हुआ सुमित्र।।
*
लय भाषा रस भाव छवि, बिम्ब-प्रतीक विधान।
है दोहा की खासियत, कम में अधिक बखान।।
*
सलिल-धार की लहर सम, द्रुत संक्षिप्त सटीक।
मर्म छुए दोहा कहे, सत्य हिचक बिन नीक।।
*
व्यंग्य पहन दोहा हुआ, छंदों का सरताज।
बन सुमित्र हृद-व्यथा का, कहता त्याग अकाज।।
***
छंद कोष से नया छंद
विधान
मापनी- २१२ २११ १२१ १२१ १२१ १२१ १२१ १२।
२३ वार्णिक, ३२ मात्रिक छंद।
गण सूत्र- रभजजजजजलग।
मात्रिक यति- ८-८-८-८, पदांत ११२।
वार्णिक यति- ५-६-६-६, पदांत सगण।
*
उदाहरण
हो गयी भोर, मतदान करों, मत-दान करो, सुविचार करो।
हो रहा शोर, उठ आप बढ़ो, दल-धर्म भुला, अपवाद बनो।।
है सही कौन, बस सोच यही, चुन काम करे, न प्रचार वरे।
जो नहीं गैर, अपना लगता, झट आप चुनें, नव स्वप्न बुनें।।
*
हो महावीर, सबसे बढ़िया, पर काम नहीं, करता यदि तो।
भूलिए आज, उसको न चुनें, पछता मत दे, मत आज उसे।।
जो रहे साथ, उसको चुनिए, कब क्या करता, यह भी गुनिए।
तोड़ता नित्य, अनुशासन जो, उसको हरवा, मन की सुनिए।।
*
नर्मदा तीर, जनतंत्र उठे, नव राह बने, फिर देश बढ़े।
जागिए मीत, हम हाथ मिला, कर कार्य सभी, निज भाग्य गढ़ें।।
मुश्किलें रोक, सकतीं पथ क्या?, पग साथ रखें, हम हाथ मिला।
माँगिए खैर, सबकी रब से, खुद की खुद हो, करना न गिला।।
२९-४-२०१९
***
हिंदी-सिंधी सेतु
एक महत्वपूर्ण सारस्वत अनुष्ठान. हिंदी-सिन्धी समन्वय सेतु, देवी नागरानी जी द्वारा संकलित, अनुवादित, संपादित ५५ हिंदी कवियों की रचनाएँ सिन्धी अनुवाद सहित एक संकलन में पढ़ना अपने आपमें अनूठा अनुभव. काश इसमें सिंधी वर्णमाला, वाक्य रचना और अन्य कुछ नियन परिशिष्ट के रूप में होता तो मैं सिंधी सीखकर उसमें कुछ लिखने का प्रयास करता.
देवी नागरानी जो और सभी सहभागियों को बधाई. मेरा सौभाग्य कि इसमें मेरी रचना भी है.अन्य भाषाओँ के रचनाकार भी ऐसा प्रयास करें.
अंग्रेजी, मलयालम और पंजाबी के बाद अब सिन्धी में भी रचना अनुदित हुई.
*
१. शब्द सिपाही................. १. लफ्ज़न जो सिपाही
*.....................................*
मैं हूँ अदना....................... माँ आहियाँ अदनो
शब्द सिपाही......................लफ्ज़न जो सिपाही.
अर्थ सहित दें......................अर्थ साणु डियन
शब्द गवाही.......................लफ्ज़ गवाही.
*.....................................*
२. सियासत.......................२. सियासत
तुम्हारा हर........................तुंहिंजो हर हिकु सचु
सच गलत है...................... गलत आहे.
हमारा हर......................... मुंहिंजो
सच गलत है.......................हर हिकु सचु गलत आहे
यही है...............................इहाई आहे
अब की सियासत.................अजु जी सियासत
दोस्त ही............................दोस्त ई
करते अदावत.....................कन दुश्मनी
*......................................*
[आमने-सामने, हिंदी-सिन्धी काव्य संग्रह, संपादन व अनुवाद देवी नागरानी
शिलालेख, ४/३२ सुभाष गली, विश्वास नगर, शाहदरा दिल्ली ११००३२. पृष्ठ १२६, २५०/-]
***
नवगीत:
.
जो हुआ सो हुआ
.
बाँध लो मुट्ठियाँ
चल पड़ो रख कदम
जो गये, वे गये
किन्तु बाकी हैं हम
है शपथ ईश की
आँख करना न नम
नीलकण्ठित बनो
पी सको सकल गम
वृक्ष कोशिश बने
हो सफलता सुआ
.
हो चुका पूर्व में
यह नहीं है प्रथम
राह कष्टों भरी
कोशिशें हों न कम
शेष साहस अभी
है बहुत हममें दम
सूर्य हैं सच कहें
हम मिटायेंगे तम
उठ बढ़ें, जय वरें
छोड़कर हर खुआ
.
चाहते क्यों रहें
देव का हम करम?
पालते क्यों रहें
व्यर्थ मन में भरम?
श्रम करें तज शरम
साथ रहना धरम
लोक अपना बनाएंगे
फिर श्रेष्ठ हम
गंग जल स्वेद है
माथ से जो चुआ
***
यमकीय दोहा
.
अंतर में अंतर पले, तब कैसे हो स्नेह
अंतर से अंतर मिटे, तब हो देह विदेह
अंतर = मन / भेद
.
देख रहे छिप-छिप कली, मन में जागी प्रीत
देख छिपकली वितृष्णा, क्यों हो छू भयभीत?
छिप कली = आड़ से रूपसी को देखना / एक जंतु
.
मूल्य बढ़े जीना हुआ, अब सचमुच दुश्वार
मूल्य गिरे जीना हुआ, अब सचमुच दुश्वार
मूल्य = कीमत, जीवन के मानक
.
अंचल से अंचल ढँकें, बची रह सके लाज
अंजन का अंजन करें, नैन बसें सरताज़
अंचल = दामन / भाग या हिस्सा, अंजन = काजल, आँख में लगाना
.
दिनकर तिमिर अँजोरता, फैले दिव्य प्रकाश
संध्या दिया अँजोरता, महल- कुटी में काश
अँजोरता = समेटता या हर्ता, जलाता या बालता
***
एक कविता : दो कवि
शिखा:
एक मिसरा कहीं अटक गया है
दरमियाँ मेरी ग़ज़ल के
जो बहती है तुम तक
जाने कितने ख़याल टकराते हैं उससे
और लौट आते हैं एक तूफ़ान बनकर
कई बार सोचा निकाल ही दूँ उसे
तेरे मेरे बीच ये रुकाव क्यूँ?
फिर से बहूँ तुझ तक बिना रुके
पर ये भी तो सच है
कि मिसरे पूरे न हों तो
ग़ज़ल मुकम्मल नहीं होती
*
संजीव
ग़ज़ल मुकम्मल होती है
तब जब
मिसरे दर मिसरे
दूरियों पर पुल बनाती है
बह्र और ख़याल
मक्ते और मतले
एक दूसरे को अर्थ देते हैं
गले मिलकर
काश! हम इंसान भी
साँसों और आसों के मिसरों से
पूरी कर सकें ज़िंदगी की ग़ज़ल
जिसे गुनगुनाकर कहें:
आदाब अर्ज़
आ भी जा ऐ अज़ल!
२९-४-२०१५
***
दोहा सलिला
*
अगम अनाहद नाद ही, सकल सृष्टि का मूल
व्यक्त करें लिख ॐ हम, सत्य कभी मत भूल
निराकार ओंकार का, चित्र न कोई एक
चित्र गुप्त कहते जिसे, उसका चित्र हरेक
सृष्टि रचे परब्रम्ह वह, पाले विष्णु हरीश
नष्ट करे शिव बन 'सलिल', कहते सदा मनीष
कंकर-कंकर में रमा, शंका का कर अन्त
अमृत-विष धारण करे, सत-शिव-सुन्दर संत
महाकाल के संग हैं, गौरी अमृत-कुण्ड
सलिल प्रवाहित शीश से, देखेँ चुप ग़ज़-तुण्ड
विष-अणु से जीवाणु को, रचते विष्णु हमेश
श्री अर्जित कर रम रहें, श्रीपति सुखी विशेष
ब्रम्ह-शारदा लीन हो, रचते सुर-धुन-ताल
अक्षर-शब्द सरस रचें, कण-कण हुआ निहाल
नाद तरंगें संघनित, टकरातीं होँ एक
कण से नव कण उपजते, होता एक अनेक
गुप्त चित्र साकार हो, निराकार से सत्य
हर आकार विलीन हो, निराकार में नित्य
आना-जाना सभी को, यथा समय सच मान
कोई न रहता हमेशा, परम सत्य यह जान
नील गगन से जल गिरे, बहे समुद मेँ लीन
जैसे वैसे जीव हो, प्रभु से प्रगट-विलीन
कलकल नाद सतत सुनो, छिपा इसी में छंद
कलरव-गर्जन चुप सुनो, मिले गहन आनंद
बीज बने आनंद ही, जीवन का है सत्य
जल थल पर गिर जीव को, प्रगटाता शुभ कृत्य
कर्म करे फल भोग कर, जाता खाली हाथ
शेष कर्म फल भोगने, फ़िर आता नत माथ
सत्य समझ मत जोड़िये, धन-सम्पद बेकार
आये कर उपयोग दें, औरों को कर प्यार
सलिला कब जोड़ें 'सलिल', कभी न रीते देख
भर-खाली हो फ़िर भरे, यह विधना का लेख
***
छंद सलिला:
त्रिलोकी छंद
*
छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चंद्रायण (५ + गुरु लघु गुरु लघु, / ५ + गुरु लघु गुरु ) तथा प्लवंगम् (गुरु + ६ / ८ + गुरु लघु गुरु ) का मिश्रित रूप ।
लक्षण छंद:
पाँच मात्रा गुरु लघु / गुरु लघु पहिले लें
पाँच मात्रा गुरु लघु / गुरु चंद्रायण है
है गुरु फ़िर छै / मात्रा छंद प्लवंगम्
आठ तथा गुरु / लघु गुरु मात्रा रखें हम
उदाहरण:
१. नाद अनाहद / जप ले रे मन बाँवरे
याद ईश की / कर ले सो मत जाग रे
सदाशिव ओम ओम / जप रहे ध्यान मेँ
बोल ओम ओम ओम / संझा-विहान में
२. काम बिन मन / कुछ न बोल कर काम तू
नीक काम कर / तब पाये कुछ नाम तू
कभी मत छोड़ होड़ / जय मिले होड़ से
लक्ष्य की डोर जोड़ / पथ परे मोड़ से
३. पुरातन देश-भूमि / पूजिए धन्य हो
मूल्य सनातन / सदा मानते प्रणम्य हो
हवा पाश्चात्य ये न / दे बदल आपको
छोड़िये न जड़ / न ही उखड़ें अनम्य हो
******************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
।। हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल । 'सलिल' संस्कृत सान दे, पूरी बने कमाल ।।
२९-४-२०१४
***
मुक्तक:
जो दूर रहते हैं वही समीप होते हैं.
जो हँस रहे, सचमुच वही महीप होते हैं.
जिनको मिला मेहनत बिना अतृप्त हैं वहीं-
जो पोसते मोती वही तो सीप होते हैं.
२९-४-२०१०
*

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