मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

हिंदी शिक्षण की चुनौतियाँ एवं राम कथा

लेख २ 
हिंदी शिक्षण की चुनौतियाँ एवं राम कथा
आचार्य (इं.) संजीव वर्मा 'सलिल'
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भाषा क्या है?
                    भाषा का मानव जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। भाषा के विकास ने ही मनुष्य को अन्य जीव-जंतुओं पर वरीयता पाने में मदद की है। भाषा ज्ञान का भंडार है। 'भाषा' शब्द संस्कृत की भाष् धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका कोशीय अर्थ है 'कहना' या 'प्रकट करना'। भाषा को मनुष्य के भावों, अनुभूतियों  या विचारों को प्रकट करने का साधनहै। मनुष्य अपने भावों या विचारों के आदान-प्रदान के लिए ज्ञानेन्द्रियों को भी माध्यम बनाता है। ऐसे सभी माध्यमों को भाषा के अंतर्गत समाहित नहीं किया जा सकता। बकौल आनंद बख्शी - 

''तुझको देखा है मेरी नज़रों ने, तेरी तरफ़ हो मगर हो कैसे?
की बने ये नज़र जुबान कैसे?, की बने ये जबान नज़र कैसे?
न जुबान को दिखाई देता है, न निगाहों से बात होती है।''  

                    संस्कृत के वैयाकरण आचार्य भर्तृहरि के अनुसार 
''न सोस्ति प्रत्ययोsलोके य: शब्दानुगमादृते 
अनुबिद्ध मिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते''
                    संसार में कोई ऐसा विषय नहीं है जी शब्द (भाषा) का आश्रय न लेता हो। समस्त ज्ञान शब्द से ही उत्पन्न हुआ भाषित होता है।
 
                    आचार्य डंडी कहते हैं-     
इंदमंधन्तम: कृस्नं जायेत भुवनत्रयम्  
यदि शब्दाहवयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते  
                    यदि संसार में शब्द (भाषा) रूपइ प्रकाश न होता तो सर्वत्र अंधकार छा जाता। 

                    पतंजलि के अनुसार- 'वर्णों में व्यक्त वाणी को भाषा कहते हैं।' हिंदी के प्रथम वैयाकरण कामता प्रसाद गुरु के शब्दों में- ''भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली-भाँति प्रगट कर सकता है और दूसरों के विचारों को समझ सकता है।'' आचार्य किशोरी दास बाजपेई के मत में- ''विभिन्न अर्थों में सांकेतिक शब्द समूह ही भाषा है।'' डॉ। बाबू राम सक्सेना के विचार में- ''जिन ध्वनि चिन्हों द्वारा मनुष्य परस्पर विचर विनिमय करता है उनको समष्टि रूप से भाषा कहते हैं।'' मेरी मान्यता है- ''अनुभूतियों और विचारों का ध्वनि, लिपि अथवा अन्य माध्यम से संप्रेषण भाषा है।'' हिंदी में आँखों/नज़रों की भाषा जैसी अभिव्यक्ति इसीलिए सार्थक है। कई जीव ध्वनि के स्थान पर सरक कर  अभिव्यक्ति का संप्रेषण करते हैं। सिंह आदि पशु मूत्र छोड़कर अपना प्रभाव क्षेत्र बताते हैं। मयूर नर्तन कर प्रणय संदेश देता है।   

जलचरों की भाषा
                    सृष्टि में जीव के उद्गम के साथ ही उसे अनुभूतियाँ होने लगीं। सर्व प्रथम जीव का जन्म जल में हुआ। जलचरों ने अपनी अनुभूतियों को अपने साथियों तक पहुँचने और साथियों की अनुभूतियों को ग्रहण करने के लिए जीव ने विविध चेष्टाएँ कीं। जलचर जीवों की भाषा कई प्रकार की होती है। जलचर आवाजों, शारीरिक हलचलों और रासायनिक संकेतों से अपने साथियों से संपर्क स्थापित करते हैं। समुद्री शेर भौंक, चहक, और गुर्राकर संवाद करते हैं। वे पानी के भीतर और बाहर दोनों जगह से आवाजें निकालते हैं। मछलियाँ अपने पंखों और पूँछ को हिलाकर संवाद करती हैं। कुछ जलीय जीव रासायनिक संकेतों (फेरोमॉन्स ) का उपयोग करसंवाद करते हैं। डॉल्फ़िन को पानी के भीतर और बाहर दोनों जगह आवाज कर संवाद करते सुना जा सकता है। मछलियाँ अन्य मछलियों को चेतावनी देने के लिए अपने पंखों को तेजी से हिलाती हैं। कुछ जलीय जीव रंग परिवर्तन, स्पर्श आदि संकेतों का उपयोग करके संवाद करते हैं। ऑक्टोपस आक्रामकता या भय प्रदर्शित करने के लिए अपने शरीर का रंग बदलता है।

थलचरों की भाषा
                    सृष्टि में जीवन के विकास का अगला चरण जलचरों का जलीय तट पर आगमन, क्रमश: ठहरने और अंतत: जल में गए बिना थल मात्र पर रहने के रूप में हुआ। इस अवधि में थलचरों के मध्य संवेदनाओं और अनुभूतियों का आदान-प्रदान भाषा के रूप में विकसित होता रहा।जानवर समूह के अन्य सदस्यों को आस-पास के खतरों के बारे में चेतावनी देने, भावनाओं को साझा करने, साथी को आकर्षित करने और क्षेत्रों को चिह्नित करने के लिए कई अलग-अलग तरीकों से संवाद कते हैं। कुछ प्रसंगों में अलग-अलग प्रजातियों के बीच भी संवाद होता देखा गया है। जानवरों के मध्य संचार के चार मुख्य प्रकार श्रवणीय व अश्रवनीय ध्वनि उच्चारण, गंध, रंग तथा दृश्य प्रदर्शन हैं। गाय रंभाकर, श्वान भौंककर, गधा रेंककर, घोड़ा हिनहिनाकर अपने साथिओं से बात करते हैं। शेर, चीता आदि मूत्र से रेखा खींचकर अपने प्रभाव क्षेत्र (टेरिट्री) की सूचना देते हैं। बंदर हूप की ध्वनि कर शेर आदि हिंसक पशुओं से सतर्क करते हैं। सर्प फुँफकारकर, जीभ हिलाकर, शरीर हिलाकर, श्वास द्वारा आवाजकर और अन्य शारीरिक संकेतों से संवाद स्थापित करते हैं। 

नभचरों की भाषा
                    नभचर अपने पंख फड़फड़ाकर, चहचहाकर, नृत्य आदि कर अपनी अनुभूतियाँ साथियों तक संप्रेषित करते हैं। मयूर आदि के पंखों के रंग में परिवर्तन से उनके ऋतुकाल की जानकारी मिलती है। मधुमक्खी अपनी उत्कृष्ट रंग दृष्टि से अधिक पराग वाले फूलों को पहचान पाती है। ऐसे फूल मिलने पर वह विशिष्ट नृत्य द्वारा अपने साथियों को सूचित करती है। सवेरे जागते समय तथा साँझ को सोते समय पक्षी विशेष प्रकार से कलरव करते हैं। चूजे शाम के समय अपने माता-पिता के लौटने पर विशिष्ट ध्वनि कर चुग्गा माँगते हैं।

मानवीय भाषा 

                    आदि मानव पक्षी-पक्षियों आदि के साथ उन्हीं की तरह रहता था। मानवीय भाषा का विकास पशु-पक्षियों की भाषा को समझकर-अपनाकर ही हुआ। आरंभ में आदि मानव ने प्राकृतिक घटनाओं और पशु-पक्षियों की आवाजों की नकल उसे प्रकार की जैसे नन्हा शिशु बड़ों की आवाज को सुनकर करता है। इन आवाजों के द्वारा वह अपने समूह के अन्य सदस्यों को पशु-पक्षियों के उपस्थिति सूचित करता था। शब्द भंडार की कुछ वृद्धि होने पर पशु-पक्षियों के गुणों के उसने समान गुणधर्म के मानवों पर आरोपित किया। इस प्रकार मनुष्य ने  उपमा और रूपक का प्रयोग कर शेर (बहादुर), गाय (सीधापन), सियार ( चालाक), भेड़िया (धूर्त), बाज (ऊँची उड़ान भरनेवाला), बैल (मेहनती), गधा (मूर्ख), कोयल (मधुर स्वर), कमल (कोमल सुंदर), मत्स्य गंधा (मछली सी देह गंध), मृग नयनी (हिरनी सी आँखें), तोता (बिना समझे रटकर बोलना) आदि के माध्यम से अपनी भाषा को रुचिकर, बोधगम्य और सर्व ग्राह्य बनाया। यह तथ्य केवक हिंदी ही नहीं विश्व की हर भाषा के बारे में सत्य है। अंतर केवल यह है कि हर भाषा के विकास में उस अञ्चल की वनस्पतियों, पशु-पक्षियों और मौसम की भूमिका रही है। हाथी के दाँत, अपने मुँह मियां मिट्ठू आदि मुहावरे भाषा के सौंदर्य में वृद्धि करते हैं। 

                    जानवरों पर आधारित शब्दों ने अंग्रेजी भाषा को एक आकर्षक छवि प्रदान की है। ये शब्द और अभिव्यक्तियाँ, जिन्हें "ज़ूनीम्स" के रूप में जाना जाता है, जानवरों की विशेषताओं, व्यवहार और आवासों से प्रेरणा लेते हैं। वे हमारे दिमाग में ज्वलंत चित्र बनाने में मदद करते हैं, जिनका उपयोग अक्सर मानव व्यवहार, शारीरिक लक्षण या अमूर्त अवधारणाओं का वर्णन करने के लिए किया जाता है, जो हमारे द्वारा प्रतिदिन उपयोग की जाने वाली भाषा में रंग और गहराई जोड़ते हैं। चूहे का छोटा आकार, लंबी पूँछ और तेज दिमाग कंप्यूटर के साथ जुड़े 'माउस' के नामकरण का आधार बना और अब यह 'माउस' विश्व की हर भाषा का अपना शब्द बन गया है। क्या हिंदी में भाषिक शुद्धता के पक्षधर इसे 'मूषक' कहना चाहेंगे? इसी तरह सारस पक्षी (क्रेन) की भार उठाने के लिए प्रयुक्त लंबी गर्दन लंबी गर्दन वाले यंत्र 'क्रेन' के नामकरण का आधार बना। बैल (बुल) का बिना सोचे-समझे भड़कने-भिड़नेवाला गुस्सैल स्वभाव 'बुल डोजर' के नामकरण का आधार बना। 

हिंदी भाषा और शिक्षण 

                    हिंदी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्राचीन  व मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएँ पालि, प्राकृत शौरसेनी, अर्द्धमागधी, मागधी, अपभ्रंश और संस्कृत हैं। हिंदी की उपभाषाएँ, पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, राजस्थानी, बिहारी तथा पहाड़ी वर्ग और उनकी बोलियाँ, खड़ीबोली, ब्रज, बुंदेली, और अवधी आदि हैं। शिक्षण-कार्य की प्रक्रिया का विधिवत अध्ययन शिक्षाशास्त्र या शिक्षणशास्त्र कहलाता है। इसमें अध्यापन की शैली या नीतियों का अध्ययन किया जाता है। अध्यापक ध्यान रखता है कि छात्र अधिक से अधिक समझ सके। हिंदी भाषा शिक्षण में कई शिक्षण विधियाँ प्रयुक्त होती हैं। इनमें कुछ शिक्षक-केंद्रित हैं जबकि कुछ छात्र-केंद्रित। शिक्षण विधियों में निगमन विधि, आगमन विधि, प्रश्नोत्तर विधि, व्याख्यान विधि, कार्यविधि, और दृष्टान्त विधि प्रमुख हैं।  

१. निगमन विधि (Deductive Method): इस विधि में, शिक्षक पहले नियम या सिद्धांत बताता है, फिर उदाहरण देकर उसे स्पष्ट करता है।
यथा-  छात्र को  व्याकरण का नियम बताकर उसके उदाहरण दिए जाएँ। यह विधि शिक्षक को जानकारी प्रस्तुत करने का अवसर देती है, लेकिन छात्रों को सक्रिय रूप से शामिल करने में थोड़ी कम प्रभावी हो सकती है।

२. आगमन विधि (Inductive Method): इस विधि में, शिक्षक पहले उदाहरण देता है, फिर छात्र नियम या सिद्धांत तक पहुँचते हैं। उदाहरण के लिए, पहले कुछ वाक्य दिए जाएँगे, फिर छात्रों से नियम बताने को कहा जाएगा। यह विधि छात्रों को सक्रिय रूप से शामिल करने और समझने में अधिक प्रभावी होती है।

३. प्रश्नोत्तर विधि (Question-Answer Method): इस विधि में, शिक्षक छात्रों से प्रश्न पूछता है और वे जवाब देते हैं। यह विधि छात्रों को सक्रिय रूप से शामिल करने और बातचीत को प्रोत्साहित करने का एक अच्छा तरीका है। उपनिषद 
 (उप=निकट, नि = अच्छी तरह से, सद् =  बैठना) काल में यह विधि भारतीय ऋषि गुरुकुलों में प्रयोग करते थे। ग्रीक चिंतक सुकरात भी इस विधि का प्रयोग करते थे, इसलिए इसे "सुकराती विधि" भी कहा जाता है।  इसमें शिक्षक छात्रों को उनके विचारों को स्पष्ट करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

४. व्याख्यान विधि (Lecture Method): इस विधि में, शिक्षक एक लंबा व्याख्यान देता है, जिसमें वह जानकारी प्रदान करता है। यह विधि शिक्षक को बड़ी संख्या में छात्रों को जानकारी देने का एक अच्छा तरीका है, लेकिन छात्रों को निष्क्रिय बना सकती है।

५ . कार्यविधि (Work Method): इस विधि में, कार्यशाला में छात्रों को कुछ काम करने के लिए कहा जाता है। यह विधि छात्रों को सक्रिय रूप से शामिल करने और उनके रचनात्मक कौशल को विकसित करने का एक अच्छा तरीका है।

६. दृष्टान्त विधि (Demonstration Method): इस विधि में, शिक्षक छात्रों को कुछ करके दिखाता है। यह विधि छात्रों को अवधारणाओं को बेहतर ढंग से समझने में मदद करती है। उदाहरण के लिए, शिक्षक छात्रों को व्याकरण के नियमों को कैसे लागू करना है, यह करके दिखा सकता है।

                    हिंदी भाषा शिक्षण में, समग्र भाषा दृष्टिकोण (Whole Language Approach) और रचनात्मक दृष्टिकोण (Constructivist Approach) का भी उपयोग किया जाता है। समग्र भाषा दृष्टिकोण में छात्रों को भाषा के सभी पहलुओं को एक साथ सिखाया जाता है। जैसे- सुनना, बोलना, पढ़ना, और लिखना। रचनात्मक दृष्टिकोण में छात्रों को अपनी स्वयं की भाषा सीखने और समझने की अनुमति दी जाती है। भाषा शिक्षण में  श्रवण (सुनना), वाचन (पढ़ना), भाषण (बोलना), और लेखन (लिखना) जैसे कौशल का विकास महत्वपूर्ण है। भाषा शिक्षण के लिए सहायक सामग्री: जैसे कि शब्दकोश, चार्ट, और ऑडियो-वीडियो उपकरण का भी उपयोग किया जाता है।

हिंदी शिक्षण की चुनौतियाँ 

                    हिंदी शिक्षण की प्रमुख चुनौतियाँ बच्चों में हिंदी भाषा के प्रति रुचि का अभाव, अंग्रेजी के प्रति आकर्षण, राजनैतिक कारणों से हिंदी का विरोध, हिंदी व्याकरण और शब्द रूपों में एकरूपता का अभाव, भिन्न-भिन्न अंचलों में लिंग, वचन आदि के प्रयोग में भिन्नता, आंचलिक बोलिओं का प्रभाव, कुशल हिंदी शिक्षकों की कमी, शिक्षा संबंधी संसाधनों की कमी, तकनीकी विकास का अभाव, हिंदी की रोजगार प्रदाय क्षमता की जानकारी न होना। हिंदी में नवीनतम अद्यतन तकनीकी पुस्तकें न होना आदि हैं।    

हिंदी शिक्षण और राम कथा 

                    सरसरी दृष्टि से हिंदी शिक्षण और राम कथा में कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं दिखता किंतु भाषा शिक्षण के उद्देश्य और उसकी सहायक सामग्री पर गहन चिंतन करें तो पाएँगे कि नैतिक मानवीय मूल्यों की जानकारी छात्रों को देना, अनुशासन का पाठ पढ़ाना, छात्र को चरित्रवान बनाना ही शिक्षा का मूल उद्देश्य है। इसके अभाव में वर्तमान शिक्षा पद्धति छात्रों में अनुशासन, देश प्रेम और कर्तव्य पालन की भावना भरने में असफल हो रही है। 

                    राम मर्यादा पुरुषोत्तम, महामानव और आदर्श व्यक्ति के रूप में मान्य हैं। वे आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श शिष्य, आदर्श राजा, दीनबंधु, पराक्रमी और सदाशयी हैं। राम कथा और राम लीला श्री राम के इन्हीं रूप को प्रस्तुत कर जनगण के मन में आदर्श भाव स्थापित करती है। हिंदी शिक्षण में यदि श्री राम के चरित्र को गद्य (लेख, निबंध, कहानी, नाटक आदि) या पद्य (कविता, प्रबंध काव्य, काव्य नाटक आदि) में पढ़ाया जाए, अभिनीत कराया जाए, संगोष्ठी की जाए, वाद-विवाद कराया जाए तो छात्र-छात्राओं में रामकथा के विविध पात्रों के जीवन मूल्यों को समझने उनका मूल्यांकन करने, उनकी विवेचना करने की रुचि उत्पन्न होगी।

                    राम कथा के भारतीय और वैश्विक जनमानस पर व्यापक प्रभाव है। अहिंदू जन भी राम कथा के प्रति आकर्षित होते हैं। यदि राम कथा और राम लीला का व्यापक प्रचार-प्रसार होता रहे तो हिंदी शिक्षण की कठिनाइयाँ दूर हो सकती हैं। राम कथा, उसके पात्र और घटनाओं में विभिन्नता चिंतन-मनन के नव आयाम स्थापित करती है। विविध देशों में और विविध प्रवचन कर्ताओं द्वारा की गई व्याख्याएँ ''एकम् सत्यम् विप्रा बहुधा वदंती'' अर्थात एक ही सत्य को विद्वज्जन कई तरह से कहते हैं की पुष्टि करती हैं। शिक्षा में भी यही स्थिति निर्मित होती है। इसीलिए  अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने कहा- ''दो अर्थ शास्त्रियों के तीन मत होते हैं।'' 

                    शिक्षा का उद्देश्य केवल विषयगत ज्ञान नहीं होता। शिक्षा का सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, वैश्विक तथा दीर्घकालिक प्रभाव भी होता है। राम कथा इन सभी बिंदुओं की कसौटी पर खरी उतरती है। राम राजकुमार होकर भी जन सामान्य के कष्ट हरते हैं, आम लोगों के बीच रहते हैं, ऊँच-नीच, छुआछूत नहीं मानते यह आचरण उन्हें सामाजिक समन्वय का अग्रदूत बनाता है। राम संपन्न होकर भी वन में विपन्नों की तरह रहते और केवट, निषाद, शबरी, जटायु आदि के साथ स्वजनों की तरह व्यवहार करते हैं। यह आचरण आर्थिक विषमता की खाई को पाटकर आर्थिक समरसता को जन्म देता है। राम स्वयं विष्णु और सूर्य उपासक होते हुए भी शिव को पूजते हैं। 'शिव द्रोही मम दास कहावा सो नर सपनेहु मोहीं भावा' कहकर धार्मिक एकता के बीज बोते हैं। वे अयोध्या मात्र के हित की चिंता न कर वानरों और राक्षसों के राज्यों में भी सत्य-और न्याय की स्थापना करते हैं। उनका यह उदार दृष्टिकोण उन्हें वैश्विक नायक बनाता है। शिक्षा पद्धति भी इन्हीं जीवन मूल्यों को रोपित करती है। इसलिए हिंदी शिक्षण में राम कथा की प्रासंगिकता हर स्तर पर असंदिग्ध है। 
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संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष- ९४२५१८३२४४. ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com 

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