दोहा गीत
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जब-जब मिला कबीर से, काबिल पूत कमाल।
तब-तब लोई हँस पड़ी, होगा बहुत धमाल...
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ज्यों की त्यों चादर रखे, बाप सहेज-सहेज।
त्यों की त्यों क्यों चाहिए, पूत बिछाता सेज।।
यह चुप वह भी मौन; लख, मुँह दोनों के लाल।
छुपकर लोई हँस पड़ी, बन दोनों की ढाल...
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बाँट-बटोरो खेलते, दोनों मिलकर खेल।
ठिठक कमाली हँस रही, देख मेल बेमेल।।
भिन्न-अभिन्न समझ रही, नहीं बजाती गाल।
कभी-कभी दे रही है, इस-उस के सँग ताल...
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यह दो पाटों बीच है, वह कीली के साथ।
झुका-उठा बेदाग ही, है दोनों का माथ।।
इसीलिए तो है नहीं, मन में तनिक मलाल।
किसका उत्तर कौन दे, दोनों हुए सवाल...
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लुटा-सम्हाला; सार है, किसमें कौन असार।
माँ-बेटी सच जानतीं, इस बिन वह निस्सार।।
उस बिन इसका भी हुआ, आप हाल-बेहाल।
दोनों ही सच जानते, किंतु न कहते टाल...
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पीठ फेर सो; जब जगे, अधरों पाया हास।
भुज-भर हँसते ठठाकर, पल में भागा त्रास।।
सूत कातकर बुन रहे, ताना-बाना-शाल।
जिएँ आज में आज को, कल की जाने काल...
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20.6.2018, 7999559618
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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