दोहा सलिला
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क्या-क्यों राधा-भाव है?, कैसे हो अनुमान?
आप आप को भूलकर, आप बनेंं श्रीेमान।।
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आगम-निगम; पुराण हैं, विश्व ग्यान के कोष।
जो अवगाहे तृप्त हो, मिले आत्म-संतोष।।
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रंजन करे विवेक जब, भू पर आ अमरेन्द्र।
सँग सुरेश के श्रवणकर, चाहें हों ग्यानेंद्र।।
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सुमन-सुरभि सम शब्द में, अर्थ निहित हो आप।
हो विदग्ध उर, प्रफुल्लित, प्रतुल भाव परिमाप।।
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आ अवधेश ब्रजेश संग, राधा-गीता मौन।
मन मथ मन्मथ से कहें, कह प्रवीण है कौन?
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कल से कल तक निनादित, कलकल ध्वनि कल-कोष।
पल-पल जुड़कर काल हो, अमर आज कर घोष।।
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कला न कल हो जड़ बने, श्रुति-स्मृति मत भूल।
बेकल-विकल न हो अकल, अ-कल न हो शिव-शूल।।
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सूक्ष्म-वृहद रजकण निहित, गिरि गोवर्धन रूप।
रास-लास जीवन-मरण, दे-पा भिक्षुक-भूप।।
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कृष्ण-कांत राधा प्रभा, वाक् और अनुवाक्।
प्रथा चिरंतन-सनातन, छंद छपाक्-छपाक्।।
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28.4.2018
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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