गुरुवार, 23 अक्टूबर 2014

geet:

गीत:

एक जुट प्रहार हो 
घना जो अन्धकार हो 
*
गूंजती पुकार हो 
बह रही बयार हो 
घेर ले तिमिर घना 
कदम-कदम पे खार हो 
हौसला चुके नहीं 
शीश भी झुके नहीं 
बाँध मुट्ठियाँ बढ़ो 
घना जो अन्धकार हो 
*
नित नया निखार हो 
भूल का सुधार हो
काल के भी भाल पर 
कोशिशी प्रहार हो 
दुश्मनों से जूझना 
प्रश्न पूछ-बूझना 
दाँव-पेंच-युक्तियाँ 
एक पर हजार हो
घना जो अन्धकार हो 
*
हार की भी हार हो 
प्यार को भी प्यार हो 
प्राणदीप लो जला 
सिंगार का सिंगार हो 
गरल कंठ धारकर
मौत को भी मारकर 
ज़िंदगी की बंदगी 
विहँस बार-बार हो 
घना जो अन्धकार हो 
*

3 टिप्‍पणियां:

  1. Makesh K Tiwari mukuti@gmail.com

    आचार्य जी,

    नमन इस सुन्दर और ओजपूर्ण गीत के लिए......

    सादर,
    मुकेश कुमार तिवारी

    जवाब देंहटाएं
  2. amitasharma2000@yahoo.com [ekavita]

    हार की भी हार हो
    प्यार को भी प्यार हो
    प्राणदीप लो जला
    सिंगार का सिंगार हो
    गरल कंठ धारकर
    मौत को भी मारकर
    ज़िंदगी की बंदगी
    विहँस बार-बार हो
    घना जो अन्धकार हो

    BAHUT KHOOB.

    AMITA

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  3. Kusum Vir kusumvir@gmail.com

    // हौसला चुके नहीं
    शीश भी झुके नहीं
    बाँध मुट्ठियाँ बढ़ो
    घना जो अन्धकार हो

    वीर रस से सिक्त अति सुन्दर गीत लिखा है आपने आचार्य जी l
    बधाई एवं सराहना स्वीकार करें l
    सादर,
    कुसुम

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