मुक्तक:
संजीव 'सलिल'
*
खोजता हूँ ठाँव पग थकने लगे हैं.
ढूँढता हूँ छाँव मग चुभने लगे हैं..
डूबती है नाव तट को टेरता हूँ-
दूर है क्या गाँव दृग मुंदने लगे हैं..
*
आओ! आकर हाथ मेरा थाम लो तुम.
वक़्त कहता है न कर में जाम लो तुम..
रात के तम से सवेरा जन्म लेगा-
सितारों से मशालों का काम लो तुम..
*
आँख से आँखें मिलाना तभी मीता.
पढ़ो जब कर्तव्य की गीता पुनीता..
साँस जब तक चल रही है थम न जाना-
हास का सजदा करे आसें सुनीता..
*
मिलाकर कंधे से कंधा हम चलेंगे.
हिम शिखर बाधाओं के पल में ढलेंगे.
ज़मीं है ज़रखेज़ थोड़ा पसीना बो-
पत्थरों से ऊग अंकुर बढ़ फलेंगे..
*
ऊगता जो सूर्य ढलता है हमेशा.
मेघ जल बनकर बरसता है हमेशा..
शाख जो फलती खुशी से झूमती है-
तिमिर में जुगनू चमकता है हमेशा..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in
संजीव 'सलिल'
*
खोजता हूँ ठाँव पग थकने लगे हैं.
ढूँढता हूँ छाँव मग चुभने लगे हैं..
डूबती है नाव तट को टेरता हूँ-
दूर है क्या गाँव दृग मुंदने लगे हैं..
*
आओ! आकर हाथ मेरा थाम लो तुम.
वक़्त कहता है न कर में जाम लो तुम..
रात के तम से सवेरा जन्म लेगा-
सितारों से मशालों का काम लो तुम..
*
आँख से आँखें मिलाना तभी मीता.
पढ़ो जब कर्तव्य की गीता पुनीता..
साँस जब तक चल रही है थम न जाना-
हास का सजदा करे आसें सुनीता..
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मिलाकर कंधे से कंधा हम चलेंगे.
हिम शिखर बाधाओं के पल में ढलेंगे.
ज़मीं है ज़रखेज़ थोड़ा पसीना बो-
पत्थरों से ऊग अंकुर बढ़ फलेंगे..
*
ऊगता जो सूर्य ढलता है हमेशा.
मेघ जल बनकर बरसता है हमेशा..
शाख जो फलती खुशी से झूमती है-
तिमिर में जुगनू चमकता है हमेशा..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in
mstsagar@gmail.com द्वारा yahoogroups.com ekavita
जवाब देंहटाएंसुन्दर, कभी ललकारते, कभी पुचकारते , रौशनी दिखाती ये मुक्तक,
बधाई|
महिपाल, २५ / ७ / २० १२
vijay ✆ द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंkavyadhara
आ० ’सलिल’ जी,
अति सुन्दर रचना के लिए साधुवाद ।
ऊगता जो सूर्य ढलता है हमेशा.
मेघ जल बनकर बरसता है हमेशा..
शाख जो फलती खुशी से झूमती है-
तिमिर में जुगनू चमकता है हमेशा..
बहुत अच्छा कहा है ।
विजय
Pranava Bharti ✆ द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
जवाब देंहटाएंआ. आचार्य जी
सच कहूँ तो मेरे पास तो आपके लिए शब्द ही नहीं होते कई बार कुछ लिखती हूँ तो खोटे सिक्के से लगते हैं अपने शब्द आपकी हर विधा को नमन.....नमन ......नमन
इतनी श्रेष्ठ रचनाओं के साथ जो हंसी के फुहारे आप छुडवाते हैं.......कोई सानी नहीं आपका....
काव्यधारा का मंच गुलोगुलज़ार हुआ जाता है
कौन है जो इसमें शामिल नहीं हो पाता है...
सादर
प्रणव भारती
drdeepti25@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
जवाब देंहटाएंआलू के पराठों के बाद एकाएक दार्शनिक कविता.....बहुत खूब है आपका सृजन संसार !
रचना सुन्दर सम्वाद करती है और सनातन सत्यों की ओर इंगित करती है! मेघ धरती से जल लेकर(नदी,तालाब,सागर से वाष्प बन) धरती को ही दे देता है! सूरज जब ढलता है तो, रात के अंधेरों को दूर करने चाँद निकल आता है ! ढल कर सूरज फिर से ताज़ा होकर, अपनी नई ऊर्जा के साथ उग आता है ! इसी का नाम जीवन है, इसलिए ही यह सृष्टि संसृति है !
ऊगता जो सूर्य ढलता है हमेशा.
मेघ जल बनकर बरसता है हमेशा..
शाख जो फलती खुशी से झूमती है-
तिमिर में जुगनू चमकता है हमेशा..
उत्कृष्ट रचना के लिए ढेर सराहना....!
सादर,
दीप्ति
pranavabharti@gmail.com द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
जवाब देंहटाएंप्रणाम दादा
सुप्रभात
आपकी ये छरहरी मिर्च
पहले भ़ी जलवा चुकी है मुंह
पर क्या करें ...जैसे ही सोचते हैं
मुंह में पानी भर आता है ....
जला करे तो जला करे मुंह
एक बार तो जलाने को मन चाहता है ........!
बेशक 'मुंहजली ' है.......पर
सामने प्लेट में तो
गर्व से पड़ी है.......! !
बहुत ही सुकुमार रचना है
मिर्च की अदा ,सुभानाल्लाह..!
सादर
प्रणव भारती
sn Sharma ✆ ahutee@gmail.com द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
जवाब देंहटाएंप्रणव जी ,
हाल अपना भी यही है
लाख मुंहजली है
अकड़ी हुई पड़ी है
मुझे भी दया आ रही है
वैसे बड़ी भली है
लाखों के मुँह लगी है
लगता है मुँह लगाना होगा
ओठों से लगाया है तो निभाना होगा
आपने सिफारिश की है मनाना होगा
दादा
mukku41@yahoo.com kavyadhara
जवाब देंहटाएंआदरणीय कमल दा,
आपकी हंसती गुदगुदाती
तीखी 'हरी मिर्च' ने बहुत हंसाया
इसी मैंने साभार काव्यधरा से आपके नाम
से फेस बुक पे पोस्ट किया है -
मुकेश इलाहाबादी --
- kanuvankoti@yahoo.com
जवाब देंहटाएंआदरणीय दादा,
आपकी 'हरी मिर्च' कविता बहुत ही दिलकश लगी हर बार. पढ़ कर मन आनंदित हो गया.
साधुवाद दादा,
सादर,
कनु
sn Sharma ✆ ahutee@gmail.com द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
जवाब देंहटाएंप्रिय मुकेश जी,प्रणव जी और कनु जी,
हारी मिर्च कविता की सराहना के लिये आभारी हूँ |
कमल
sn Sharma
जवाब देंहटाएंप्रिय प्रणव जी,
लगता है आलू के पराठे पूरे सावन भर
आपके किचन में बनते रहेंगे और हमें
मिलते रहेंगे लेकिन -
बामन को खिलाना मँहगा पड़ जायेगा
तीन कौर में ही रसोई चट कर जाएगा
कमल दादा
अब तो मान गये जी
जवाब देंहटाएंसबको पहचान गये जी
काव्य की धारा में स्वाद की धारा
यहीतो है वास्तविक स्वाद हमारा
जिन्दगी पुकारती है
हमें संवारती है
मुंह न मोड़ना
सबको निहारती है
मंजू जी आप नहीं
हम भ़ी अभी भूखे हैं
तभी तो पड़ रहे यहाँ सूखे हैं
इस "बामन'को जिमाओ जी
फिर उसका फल पाओ जी ! !
सुप्रभात
प्रणव भारती
वाह क्या बात है? सब खटाखट , चटाचट परांठे चटनी खाए जा रहे हैं, और हम तो इस गुथाम्गुथी में बिचारे पीछे ही रह गए ....आपने .सब ख़तम ही कर डाले..
जवाब देंहटाएंज़िंदगी भर बेलते रहे ,
मिला-मिलाकर आलू और मसाले
तरह-तरह के आलू के परांठे,
लेते रहे लुत्फ़ ,
मक्खन लगा-लगाकर,
गर्मागर्म खिलाने का||
पर जब बारी आई हमारी ,
तो न बचे आलू और न ही मक्खन,
फिर भी हमें बड़े स्वाद लगे ,
वे परांठे क्योंकि
खाने वालों की प्रशंसा ने ,
कर दिया था मक्खन का काम
और अपनों के प्यार ने ,
भर दिए थे उसमें आलू.
उनके तृप्त चेहरों ने ,
गरमा भी दिया उन्हें,
सच,इतना मज़ा आया ,
इतना मज़ा आया मुझे,
ऐसा किसी को न आया होगा.
अगर लेना चाहते हैं ऐसा स्वाद
तो आप भी शुरू हो जाइए ,
अपने प्रिय को अपने हाथ से बना
आलू का परांठा ,प्यार से खिलाइए,
बिना मक्खन के ही,
असली मक्खन का स्वाद जान जाइए.
फिर बदले में
उनकी गर्म कॉफ़ी के प्याले से,
अपनी थकान दूर भगाइए
शुभकामनाओं के साथ
मंजु महिमा
अरे वाह संतोष,
जवाब देंहटाएंक्या रही थी सोच
यहाँ है पराठों की मौज
खा लो जल्दी - जल्दी
ऎसी दावत मिलती नहीं रोज.......:)) laughing
सस्नेह,
दीप्ति
अजी वाह संतोष जी,
जवाब देंहटाएंढेर सराहना
आपका अनोखा ढंग जी
आपने भी भर दिया
अल्पना में रंग जी
आप हुईं लेट जी
पर मिल गई आपको
पराठे की प्लेट जी
फुदकती हुई काफी भी
गुडमार्निंग के प्याले में
फिर क्या रहा बाकी जी
हम मांगते रहे माफ़ी जी
देख हमारी लार टपकते
हँसती रहीं भाभी जी
कमल भाई जी
आदरणीय दीप्ती जी ,आचार्य जी ,दादा कमल जी, प्रणव जी आप सभी की शरारत हमें बहुत भायी और हमारा भी मन मचल गया, इसमें शामिल होने के लिये ......पेशे खिदमत है ....
जवाब देंहटाएंआलू पराठा औ पकोड़ी संग
हरी मर्च का जायका हो संग
मिल जाये कॉफ़ी गरमा गरम
बरसात में आ जाएगा रंग
पर ज्यादा रंग जो चढ़ा
छिड़ जाएगी पेट में जंग
बरसात का है ये मौसम
दिनचर्या ना करना भंग
सादा जीवन उच्च विचार
काम आएगा यही आचार
ज्यादा होना ना दबंग
दीप्ती जी , आचार्य जी...
आप दोनों की छीना झपटी में
देखा, मिल गई हमें प्लेट जी
पकवानों से भरी, संग कॉफ़ी जी
आपके स्नेह के मोती से सजी जी
सादर संतोष भाऊवाला
sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंkavyadhara
आ० आचार्य जी ,
आपके मुक्तक राजनैतिक और सामाजिक चेतना के कर्णधार हैं|प्रभावित करते हैं| विशेष -
मिलाकर कंधे से कंधा हम चलेंगे.
हिम शिखर बाधाओं के पल में ढलेंगे.
ज़मीं है ज़रखेज़ थोड़ा पसीना बो-
पत्थरों से ऊग अंकुर बढ़ फलेंगे..
मेरी प्रतिक्रिया स्वरुप -
अब वक्त से आँखें मिलाओ
कल के लिये आसें सजाओ
एकता का हो रहा आह्वान
सभी मिल कर साथ आओ
*
सामाजिक राजनैतिक चेतना
के हो रहे प्रयास को न मेटना
कदम से कदम मिलें चल पड़ो
साथियो चूके न मौका देखना
*
हम सब करें संकल्प पक्का
भ्रष्टाचार का खोटा सिक्का
इसे दफ़न कर ही दम लेंगे
पक्का बने इरादा सबका
*
काला धन विदेश में जितना
यह सरकार बतावे कितना
लाया जाये सब स्वदेश में
हो क़ानून कारगर इतना
*
इन्किलाब हो आन्दोलन हो
चाहे जितना सितम दमन हो
हम शहीद होने को तत्पर
जोश हमारा तनिक न कम हो
कमल
ksantosh_45@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com\ ekavita
जवाब देंहटाएंआ० सलिल जी
अति सुन्दर, बहुत खूब। इस मुक्तक के लिए बधाई।
सन्तोष कुमार सिंह
Rakesh Khandelwal ✆ekavita
जवाब देंहटाएंआदरणीय सलिलजी,
इन मुक्तकों की विशेषता अच्छी लगी कि आपने सहज बोलचाल के शब्दों को सीमामुक्त
करके प्रयुक्त किया.
सादर नमन.
राकेश