कविता
मैं
संजीव 'सलिल'
*
माँ की आँखों में झलकते
वात्सल्य में पाया
अपना अस्तित्व.
घुटनों चला तो आसमान की तरह
सिर उठते ही मिला
पिता का साया.
बही, बहिनों और साथियों के
अपनत्व में मिला
सहभागिता, समन्वय और
सामंजस्य का सहारा.
दर्पण में दिखा
एक बिम्ब.
बेहतर आधे भाग के नयनों से
छलकते अनुराग ने
अर्पण-समर्पण के ढाई आखर पढ़ाकर
अनुभूति कराई अभिन्नता की.
संतानों की अबोध दृष्टि ने दी
देकर पाने की अनुभूति.
समय सलिला के तीर पर
श्रांत-क्लांत काया लिये
धुंधली-मिचमिचाती
क्षितिज को निहारती दृष्टि
पूछ रही है
'इनमें कहाँ नहीं हूँ मैं?'
लेकिन कह नहीं पाती
'बस यहीं... और यही हूँ मैं.
*
door
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in
मैं
संजीव 'सलिल'
*
माँ की आँखों में झलकते
वात्सल्य में पाया
अपना अस्तित्व.
घुटनों चला तो आसमान की तरह
सिर उठते ही मिला
पिता का साया.
बही, बहिनों और साथियों के
अपनत्व में मिला
सहभागिता, समन्वय और
सामंजस्य का सहारा.
दर्पण में दिखा
एक बिम्ब.
बेहतर आधे भाग के नयनों से
छलकते अनुराग ने
अर्पण-समर्पण के ढाई आखर पढ़ाकर
अनुभूति कराई अभिन्नता की.
संतानों की अबोध दृष्टि ने दी
देकर पाने की अनुभूति.
समय सलिला के तीर पर
श्रांत-क्लांत काया लिये
धुंधली-मिचमिचाती
क्षितिज को निहारती दृष्टि
पूछ रही है
'इनमें कहाँ नहीं हूँ मैं?'
लेकिन कह नहीं पाती
'बस यहीं... और यही हूँ मैं.
*
door
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in
vijay2 ✆ द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंआ० ‘सलिल’ जी,
क्षितिज को निहारती दृष्टि
पूछ रही है
'इनमें कहाँ नहीं हूँ मैं?'
लेकिन कह नहीं पाती
'बस यहीं... और यही हूँ मैं.
अति मनोहर भावों से भरपूर यह कविता हमने
बार-बार पढ़ी, और हर बार आनन्द आया ।
बधाई,
विजय
kusum sinha ✆
जवाब देंहटाएंpriy sanjiv ji
bahut hi sundar kavita badhai bahut bahut badhai
kusum
ksantosh_45@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंआ० सलिल जी
गहरे भावों से गुंठित एक सुन्दर कविता। बधाई।
सन्तोष कुमार सिंह
--- On Wed, 21/3/12