बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

दोहा सलिला: एक हुए दोहा-यमक- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

एक हुए दोहा-यमक-

संजीव 'सलिल'
*
हरि! जन की आवाज़ सुन, हरि-जन बचा न एक.
काबिल को अवसर मिले, हरिजन रखे विवेक..
*
'त्रास न दें'- वर दे दिया, मन हो गया प्रसन्न.
फिर मन भर संत्रास दे, तत्क्षण किया विपन्न..
*
घटा बरस कर थम गयी, घटा वृष्टि का जोर.
घटा अनघटा कुछ नहीं, सलिल-धार मुँहजोर..
*
जब तक तू कमजोर है, तनिक लगा कम जोर.
शह देकर जो मात दे, कहलाये शहजोर..
*
जान बनी अनजान क्यों?, जान-बूझ कर आज.
बनी जान पर जान की, बिगड़े बनते काज.
*
बँधी थान पर भैंसिया, करे जुगाली मस्त.
थान नापते सेठ जी, तुंदियल होकर त्रस्त..
*
बीन बजाकर बीन ले, रुपये किस्मत बाँच.
अरे सपेरे! मौन मत, रह कह दे कुछ साँच..
*
दिखा हाथ की सफाई, बाजीगर हर्षाय.
दिखा हाथ की सफाई, ठग सबको कलपाय..
*
करें धाम जा पुण्य वे, करें धाम आ पाप.
ऐसे जीवन मूल्य को, क्या कहियेगा आप??
*
धनी न आया धना का, चिंतित हुआ ललाट.
धनी गिन रहा धन अमित, कर-कर बंद कपाट..
*
तितली-कलियों में हुआ, जब स्नेहिल सम्बन्ध.
समलैंगिकता ने किया, तब सुदृढ़ अनुबंध..
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

6 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय आचार्य जी

    उत्तम दोहे !
    साधुवाद !

    सादर
    प्रताप

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  2. sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavitaगुरुवार, अक्टूबर 20, 2011 10:57:00 pm

    आ० आचार्य जी,
    अलंकारिक दोहों ने मन मुग्ध किया | साधुवाद !
    विशेष
    घटा बरस कर थम गयी, घटा वृष्टि का जोर.
    घटा अनघटा कुछ नहीं, सलिल-धार मुँहजोर..
    एक शंका -
    अंतिम दोहे में यमक अलंकार का कहाँ पर प्रयोग है ?
    वैसे इसकी मौलिकता सराहनीय है | ऐसे अनुबंध की
    ओर शायद ही किसी का दृष्टिपात हुआ हो | नये दृष्टिकोण
    की प्रस्तुति हेतु साधुवाद |
    सादर
    कमल

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय सलिल जी
    सभी दोहे अति सराहनीय हैं।
    मेरी हार्दिक बधाई।
    निम्न दोहे के पठन में अटकाव आता है।
    दिखा हाथ की सफाई, बाजीगर हर्षाय.
    दिखा हाथ की सफाई, ठग सबको कलपाय..

    यदि ऐसे पढ़ें तो ठीक लगता है -
    दिखा सफाई हाथ की, बाजीगर हर्षाय।
    दिखा सफाई हाथ की, ठग सबको कलपाय।।
    कृपया अन्यत्र न लें।
    सन्तोष कुमार सिंह

    जवाब देंहटाएं
  4. Mukesh Srivastava ✆ mukku41@yahoo.com ekavitaगुरुवार, अक्टूबर 20, 2011 10:59:00 pm

    आचार्य जी,
    कई दिनों बाद आये ये दोहे भी अपूर्व हैं,
    किन्तु निम्न दोहे के अन्तेर्हिहित अर्थ और व्यंजना ने मन मोह लिया.
    बँधी थान पर भैंसिया, करे जुगाली मस्त.
    थान नापते सेठ जी, तुंदियल होकर त्रस्त.
    एक बार पुनः इन दोहों के लिए बधाई.

    मुकेश इलाहाबादी

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  5. आदरणीय आचार्य जी,
    हमेशा की तरह सुन्दर दोहे। बधाई!
    "दिखा हाथ की सफ़ाई, बाजी गर हर्षाय़" से कुछ ६०-६५ साल पहले मेरी पाठ्य पुस्तक में पढी Anatole France की "The juggler" नामक अति सुन्दर कहानी की मुझे याद आई।
    सस्नेह
    सीताराम चंदावरकर

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  6. प्रताप जी, कमल जी, संतोष जी, मुकेश जी, चंदावरकर जी
    आपकी सद्भावना को नमन शत-शत.
    कमल जी ! आप सही हैं. अंतिम दोहे में यमक कहीं नहीं है. यह ति केवल यह देखने के लिये सम्मिलित किया गया है कि पाठक इस ओर दृष्टिपात करते हैं या नहीं?
    संतोष जी आपका सुझाव शिरोधार्य.

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