रविवार, 27 मार्च 2011

मुक्तिका: वो चुप भी रहे संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

वो चुप भी रहे

संजीव 'सलिल'
*
वो चुप भी रहे कुछ कह भी गये
हम सुन न सके पर दह भी गये..

मूल्यों को तोडा सुविधा-हित.
यह भी सच है खो-गह भी गये..

हमने देकर भी मात न दी-
ना दे कर वे दे शह भी गये..

खटिया तो खड़ी कर दी प्यारे!.
चादर क्यूं मेरी कर तह भी गये..

ऊपर से कहते गलत न हो.
भीतर से देते शह भी गये..

समझे के ना समझे लेकिन.
कहते वो 'सलिल' अह अह भी गये..

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2 टिप्‍पणियां:

  1. .वाह...वाह.....आपके ब्लॉग पर आने में मुझे प्रसन्नता हुई....एक से बढकर एक रचनाएं.....इतनी सुन्दर गीतिका...

    .बस गदगद हूँ.....नमन....


    मेरे जन्मदिन पर आपने मुझे हरी डूब रहने का आशीर्वाद दिया था.....लीजिये मैंने...अपनी पुस्तक का नाम ही रख दिया...." मन तुम हरी दूब रहना " राजीव रंजन ने उसकी समीक्षा की है साहित्य्शिल्पी पर ....आभार
    और ढेर सारी शुभ कामनाएं आपको....नमन स्वीकार करें...

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  2. एक त्रिपदी : जनक छंद
    संजीव 'सलिल'
    *
    हरी दूब सा मन हुआ
    जब भी संकट ने छुआ
    'सलिल' रहा मन अनछुआ..
    *
    मेरी प्रति कहाँ है?

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