बुधवार, 3 नवंबर 2010

एक कविता: दिया : संजीव 'सलिल'

एक कविता:                                      

दिया :

संजीव 'सलिल'
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राजनीति कल साँप
लोकतंत्र के
मेंढक को खा रहा है.
भोली-भाली जनता को
ललचा-धमका रहा है.
जब तक जनता
मूक होकर सहे जाएगी.
स्वार्थों की भैंस
लोकतंत्र का खेत चरे जाएगी..
एकता की लाठी ले
भैंस को भागो अब.
बहुत अँधेरा देखा
दीप एक जलाओ अब..

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5 टिप्‍पणियां:

  1. दीपावली के विषय पर किस तरह भाँति भाँति की रचनाएँ प्रस्तुत की जा सकती हैं, मित्रों के लिए यह एक अच्छा उदाहरण है| ऐसी रचनाओं को पढ़ कर हम अपने रचना संसार को व्यापक आयाम दे सकते हैं| सच ही तो है "तजुर्बे का पर्याय नहीं"|

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  2. आ० आचार्य जी,
    दोनों ही कवितायें प्रभावशाली हैं | एक 'दीप ' त्याग और तपस्या का प्रतीक
    दूसरी कुटिल राजनीति पर प्रहार सटीक ! साधुवाद !
    सादर ,
    कमल

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  3. Gita Pandit

    सच कहा आपने....

    बधाई...

    आभार...

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  4. वाकई नवीन जी तजुर्बे का पर्याय नहीं। न जाने कितने अस्त्र शस्त्र हैं आचार्य जी के तरकश में।

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  5. धर्मेन्द्र भाई, सहमत हूँ आपकी बात से, तजुर्बे का कोई जोड़ नहीं, इस इवेंट मे आचार्य जी के बहुआयामी व्यक्तित्व से परिचय प्राप्त हुआ है | यह कृति ही काफी खुबसूरत है,
    राजनीति कल साँप
    लोकतंत्र के
    मेंढक को खा रहा है.

    यह खुबसूरत है |

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