दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु
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संजीव 'सलिल'
*
सारी ज़िन्दगी
तिल-तिल कर जला.
फिर भर्र कभी
हाथों को नहीं मला.
होठों को नहीं सिला.
न किया शिकवा गिला.
आख़िरी साँस तक
अँधेरे को पिया
इसी लिये तो मरकर भी
अमर हुआ
मिट्टी का दिया.
*
गीत भी, अगीत भी, मीत भी अमीत भी. दीप देखता है सच, सुनीत भी अनीत भी.. * ऐसा भ्रम मत पालिए, सीख रहा हूँ नित्य. ऐसे ही उत्साह दें, लिख पाऊँ कुछ सत्य.. * बहुत बहुत आभार आपका, बहुत-बहुत आभार..
सलिल जी 'दिये' की आत्म कथा बखानती सुंदर कविता है ये|
जवाब देंहटाएंGita Pandit
जवाब देंहटाएंवाह....
इसे ही जीवन कहते हैं...
सुंदर......
आभार......
बहुत सुन्दर आचार्य जी, कविता की सारी ही विधाओं में आप पारंगत हैं। इसमें कोई संदेह नहीं।
जवाब देंहटाएंइसी लिये तो मरकर भी
जवाब देंहटाएंअमर हुआ
मिट्टी का दिया.
संदेशपरक कविता, खुबसूरत है, दिये को प्रतिक बना बहुत बड़ा सन्देश दिया है आपने, बधाई !
गीत भी, अगीत भी, मीत भी अमीत भी.
जवाब देंहटाएंदीप देखता है सच, सुनीत भी अनीत भी..
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ऐसा भ्रम मत पालिए, सीख रहा हूँ नित्य.
ऐसे ही उत्साह दें, लिख पाऊँ कुछ सत्य..
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बहुत बहुत आभार आपका, बहुत-बहुत आभार..