बुधवार, 3 नवंबर 2010

एक कविता: दिया संजीव 'सलिल'

एक कविता:                       

दिया

संजीव 'सलिल'
*
सारी ज़िन्दगी
तिल-तिल कर जला.
फिर भर्र कभी
हाथों को नहीं मला.
होठों को नहीं सिला.
न किया शिकवा गिला.
आख़िरी साँस तक
अँधेरे को पिया
इसी लिये तो मरकर भी
अमर हुआ
मिट्टी का दिया.
*

5 टिप्‍पणियां:

  1. सलिल जी 'दिये' की आत्म कथा बखानती सुंदर कविता है ये|

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  2. Gita Pandit
    वाह....
    इसे ही जीवन कहते हैं...
    सुंदर......
    आभार......

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  3. बहुत सुन्दर आचार्य जी, कविता की सारी ही विधाओं में आप पारंगत हैं। इसमें कोई संदेह नहीं।

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  4. इसी लिये तो मरकर भी
    अमर हुआ
    मिट्टी का दिया.

    संदेशपरक कविता, खुबसूरत है, दिये को प्रतिक बना बहुत बड़ा सन्देश दिया है आपने, बधाई !

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  5. गीत भी, अगीत भी, मीत भी अमीत भी.
    दीप देखता है सच, सुनीत भी अनीत भी..
    *
    ऐसा भ्रम मत पालिए, सीख रहा हूँ नित्य.
    ऐसे ही उत्साह दें, लिख पाऊँ कुछ सत्य..
    *
    बहुत बहुत आभार आपका, बहुत-बहुत आभार..

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