बुधवार, 24 नवंबर 2010

लीक से हटकर एक प्रयोग: मुक्तिका: संजीव 'सलिल'

लीक से हटकर एक प्रयोग:

मुक्तिका:

संजीव 'सलिल'
*
हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है.
कहा धरती ने यूँ नभ से, न क्यों सूरज उगाता है??
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न सूरज-चाँद की गलती, निशा-ऊषा न दोषी हैं.
प्रभाकर हो या रजनीचर, सभी को दिल नचाता है..
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न दिल ये बिल चुकाता है, न ठगता या ठगाता है.
लिया दिल देके दिल, सौदा नगद कर मुस्कुराता है.
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करा सौदा खरा जिसने, जो जीता वो सिकंदर है.
क्यों कीमत तू अदा करता है?, क्यों तू सिर कटाता है??
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यहाँ जो सिर कटाता है, कटाये- हम तो नेता हैं.
हमारा शौक- अपने मुल्क को ही बेच-खाता है..
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करें क्यों मुल्क की चिंता?, सकल दुनिया हमारी है..
है बंटाढार इंसां चाँद औ' मंगल पे जाता है..
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न मंगल अब कभी जंगल में कर पाओगे ये सच है.
जहाँ भी पग रखे इंसान उसको बेच-खाता है..
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न खाना और ना पानी, मगर बढ़ती है जनसँख्या.
जलाकर रोम नीरो सिर्फ बंसी ही बजाता है..
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बजी बंसी तो सारा जग, करेगा रासलीला भी.
कोई दामन फँसाता है, कोई दामन बचाता है..
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लगे दामन पे कोई दाग, तो चिंता न कुछ करना.
बताता रोज विज्ञापन, इन्हें कैसे छुड़ाता है??
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छुड़ाना पिंड यारों से, नहीं आसां तनिक यारों.
सभी यह जानते हैं, यार ही चूना लगाता है..
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लगाता है अगर चूना, तो कत्था भी लगाता है.
लपेटा पान का पत्ता, हमें खाता-खिलाता है..
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खिलाना और खाना ही हमारी सभ्यता- मानो.
मगर ईमानदारी का, हमें अभिनय दिखाता है..
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किया अभिनय न गर तो सत्य जानेगा जमाना यह.
कोई कीमत अदा हो हर बशर सच को छिपाता है..
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छिपाता है, दिखाता है, दिखाता है, छिपाता है.
बचाकर आँख टंगड़ी मार, खुद को खुद गिराता है..
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गिराता क्या?, उठाता क्या?, फंसाता क्या?, बचाता क्या??
अजब इंसान चूहे खाए सौ, फिर हज को जाता है..
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न जाता है, न जायेंगा, महज धमकायेगा तुमको.
कोई सत्ता बचाता है, कमीशन कोई खाता है..
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कमीशन बिन न जीवन में, मजा आता है सच मानो.
कोई रिश्ता निभाता है, कोई ठेंगा बताता है..
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कमाना है, कमाना है, कमाना है, कमाना है.
कमीना कहना है?, कह लो, 'सलिल' फिर भी कमाता है..
*

3 टिप्‍पणियां:

  1. वाह आचार्य जी
    वाह वाह !
    आज के परिवेश को उजागर करती अभिनव प्रयोग की रचना जिसमें हर पद विगत से जुड़ा नये अनुभवों पर कटाक्ष करता प्रवाहित हुआ |

    आपके काव्य-कौशल को नमन |
    कमल

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  2. कलम कमल को कर रही, शत-शत बार प्रणाम.
    मिला स्नेह-आशीष तो, भू लगती सुर-धाम..

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  3. महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’बुधवार, नवंबर 24, 2010 9:12:00 pm

    सलिल जी,

    "लीक से हटकर एक प्रयोग" अच्छा लगा.

    कबीर ने कहा भी है--

    हद्द चले सो मानवा, बेहद चले सो साध
    हद-बेहद दोनों चले, वा की मति अगाध.

    आपसे प्रेरना पाकर क्रम को आगे बढ़ाया है--

    कमाने पर नहीं है कोई पाबन्दी ज़माने में
    *
    कमाने पर नहीं है कोई पाबन्दी ज़माने में

    किसी का हक न तुम मारो यही इक ख़्याल आता है



    ख़यालों पर कोई कानून तो लागू नहीं होता

    महज़ हक है ये बुनियादी हर इक आलिम बताता है



    मगर आलिम भी ऐसे आजकल हिंदोस्ताँ में हैं

    जिन्हें गर राम का लो नाम तो हरगिज़ न भाता है



    मगर हरगिज़ कभी इस्लाम के बारे न कुछ कहना

    करे ऐसा जो कम्युनल ज़माने में कहाता है



    ये कम्युनल व कम्युनिस्ट न जाने बला क्या हैं

    कोई भगवान पर हँसता है कोई ख़ौफ़ खाता है



    तुम्हें जो ख़ौफ़ खाना है तो फिर शैतान पर खाओ

    जो सीधे और सादों को गलत रस्ता दिखाता है



    दिखाने से ख़लिश विश्वास यूँ ही कर रहे हो क्यों

    परखने में तुम्हारी गाँठ से धेला न जाता है.



    · सलिल जी की उस नज़्म को आगे बढ़ाते हुए जो इसी शैली में लिखी गई और निम्न पर ख़त्म हुई थी—



    कमाना है, कमाना है, कमाना है, कमाना है.
    कमीना कहना है?, कह लो, 'सलिल' फिर भी कमाता है..



    शैली के अनुसार इसे कमाने से ही शुरू किया गया है.

    २४ नवम्बर २०१०

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