सामयिक कविता
मेघ का सन्देश :
संजीव सलिल'
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गगनचारी मेघ हूँ मैं.
मैं न कुंठाग्रस्त हूँ.
सच कहूँ तुम मानवों से
मैं हुआ संत्रस्त हूँ.
मैं न आऊँ तो बुलाते.
हजारों मन्नत मनाते.
कभी कहते बरस जाओ-
कभी मुझको ही भगाते..
सूख धरती रुदन करती.
मौत बिन, हो विवश मरती.
मैं गरजता, मैं बरसता-
तभी हो तर, धरा तरती..
देख अत्याचार भू पर.
सबल करता निबल ऊपर.
सह न पाती गिरे बिजली-
शांत हो भू-चरण छूकर.
एक उँगली उठी मुझ पर.
तीन उँगली उठीं तुझ पर..
तू सुधारे नहीं खुद को-
तम गए दे, दीप बुझकर..
तिमिर मेरे संग छाया.
आस का संदेश लाया..
मैं गरजता, मैं बरसता-
बीज ने अंकुर उगाया..
तूने लाखों वृक्ष काटे.
खोद गिरि तालाब पाटे.
उगाये कोंक्रीट-जंगल-
मनुज मुझको व्यर्थ डांटे.
नद-सरोवर फिर भरूँगा.
फिर हरे जंगल करूँगा..
लांछन चुप रह सहूँगा-
धरा का मंगल करूँगा..
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kusum sinha
जवाब देंहटाएंpriy sanjiv ji
bahut sundar kavita... bahut hi sundar... man khush ho gaya... aapki kalam me jaadu hai ye to manti hun.
badhai
kusum
सलिल स्वतः निर्गंध है, नहीं रंग, ना नूर.
जवाब देंहटाएंमिले कुसुम-आशीष तो, गंधित हो भरपूर.
मैं तो मात्र निमित्त हूँ, लिखा रहा अज्ञेय.
शायद खुद को कराता, वह कविता से ज्ञेय..
कुसुम-गंध की जग करे, बनकर मधुकर वाह.
'सलिल' भ्रमित हो मत समझ, तुझको रहे सराह..
मेघों का उत्तर अर्थपूर्ण और सशक्त है किन्तु ये भी सच है-
जवाब देंहटाएं" अति सर्वत्र वर्जयेत।"
रचना सराहनीय है।
शकुन्तला बहादुर