रविवार, 22 अगस्त 2010

मुक्तिका: समझ सका नहीं संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

समझ सका नहीं

संजीव 'सलिल'
*




















*
समझ सका नहीं गहराई वो किनारों से.
न जिसने रिश्ता रखा है नदी की धारों से..

चले गए हैं जो वापिस कभी न आने को.
चलो पैगाम उन्हें भेजें आज तारों से..

वो नासमझ है, उसे नाउम्मीदी मिलनी है.
लगा रहा है जो उम्मीद दोस्त-यारों से..

जो शूल चुभता रहा पाँव में तमाम उमर.
उसे पता ही नहीं, क्या मिला बहारों से.. 

वो मंदिरों में हुई प्रार्थना नहीं सुनता.
नहीं फुरसत है उसे कुटियों की गुहारों से..

'सलिल' न कुछ कहो ये आजकल के नेता हैं.
है इनका नाता महज तोड़-फोड़ नारों से..
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दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम  

5 टिप्‍पणियां:

  1. नन्हे बिटवा भाई
    बहुत ही मुक्तिता
    बहुत शुद्ध हिंदी है आपकी

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  2. वो मंदिरों में हुई प्रार्थना नहीं सुनता.
    नहीं फुरसत है उसे कुटियों की गुहारों से..

    बहुत ही यथार्थ रचना, बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति, आभार आचार्य जी ,

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  3. नन्हे बिटवा भाई
    चिरंजीव भवः
    सलिल कुछ ना कहो ये आज कल के नेता हैं
    है इनका नाता महज तोड़-फोड नारों से
    कितना सच लिखा आपने
    आज के नेता भारत रत्न पाने को रोता
    क्यों करे चिंता निर्धन की आँखें मूँद कर सोता

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  4. जो शूल चुभता रहा पाँव में तमाम उमर.
    उसे पता ही नहीं, क्या मिला बहारों से..
    वाह! बेहतरीन रचना, हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

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  5. Achhi rachna, baar baar padhney ko dil chaheyey,

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