नवगीत :
झुलस रहा गाँव
संजीव 'सलिल'
*
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
राजनीति बैर की उगा रही फसल.
मेहनती युवाओं की खो गयी नसल..
माटी मोल बिक रहा बजार में असल.
शान से सजा हुआ है माल में नक़ल..
गाँव शहर से कहो
कहाँ अलग रहा?
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
एक दूसरे की लगे जेब काटने.
रेवड़ियाँ चीन्ह-चीन्ह लगे बाँटने.
चोर-चोर के लगा है एब ढाँकने.
हाथ नाग से मिला लिया है साँप ने..
'सलिल' भले से भला ही
क्यों विलग रहा?.....
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
beautiful picture sir
जवाब देंहटाएंrachna bhi mind blowing
झुलस रहा गाँव
जवाब देंहटाएंइतनी तपिश है तो झुलसेगा ही
सधी हुई रचना और जीवंत चित्र के लिये आभार
एक बेहतरीन नवगीत!
जवाब देंहटाएंसुन्दर नवगीत....गाँव सचमुच झुलस रहा है...और मेहनती नवयुवकों की नस्ल खो रही है..
जवाब देंहटाएंsamajik paridrishya ko dikhati rachna..sadar pranaam...
जवाब देंहटाएंआचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'जी ,
जवाब देंहटाएंप्रणाम !
बहुत बढ़िया नव गीत है । वर्तमान की विद्रूपताएं साक्षात खड़ी दृष्टिगत हो रही है , जिन पर एक समर्थ रचनाकार की चिंताएं परिलक्षित हो रही हैं । साधुवाद !
… लेकिन आचार्यजी ,
प्रथम बंध " राजनीति बैर की … … … माल में नक़ल " में
'शान से सजा माल में नक़ल' पंक्ति पहली तीन पंक्तियों से छोटी नहीं लग रही ?
मात्रा भी कम है , लय भी भंग प्रतीत हो रही है । अवश्य ही कंपोजिंग की त्रुटि होगी । अथवा मैं कम समझ पा रहा हूं ?
गुणी सामने हो तो शंका समाधान में संकोच नहीं करना चाइए यही सोच कर अति विनम्रता से बात रखी है …।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत उम्दा रचना!
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा रचना!
जवाब देंहटाएंटंकण में हुई त्रुटि हेतु खेद है. सुधार कर दिया है. आपको सजगता हेतु धन्यवाद.
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